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पंचक क्‍या हैं ? What is Panchak ?

पंचक क्‍या हैं ? What is Panchak ?

धनिष्‍ठा से रेवती तक के पांच नक्षत्रों (धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उतराभाद्रपद एवं रेवती) को पंचक कहते हैं। पंचक का अर्थ ही पांच नक्षत्रों का समूह है। दूसरे शब्‍दों में कह सकते हैं कि कुम्भ व मीन में जब चन्द्रमा रहते हैं, उस अवधि को पंचक कहते है। पंचको में पांच वर्जित कार्य पंचक में करने सर्वथा वर्जित माने जाते हैं-

1-इसमें तृण काष्‍ठादि ईंधन एकत्र करना।
2-इसमें दक्षिण दिशा की यात्रा करना।
3-इसमें घर की छत डालना।
4-इसमें चारपाई बनवाना।
5-इसमें शव का अन्तिम संस्कार करना।

उक्‍त पांचों कार्यों को करना शुभ नहीं माना जाता है। ऋषि गर्ग के अनुसार शुभाशुभ जो भी कार्य पंचकों में किया जाता है, वह पांच गुणा करना पडता है। स्‍पष्‍ट है कि इन नक्षत्र समय में इनमें से कोई भी कार्य करने पर उक्‍त कार्य को पांच बार दोहराना पड़ सकता है। कहते हैं कि उक्‍त कार्य करने से धनिष्‍ठा नक्षत्र में अग्नि का भय रहता है, शतभिषा नक्षत्र में कलह होती है पूर्वाभाद्रपद में रोग होता है, उतराभाद्रपद में धन के रूप में दंड देना पड़ता है एवं रेवती में धन की हानि होती है।

वस्‍तुत: पंचक नक्षत्र समयावधि में निम्‍न कार्य नहीं करने चाहिएं-लकडी तोडना, तिनके तोडना, दक्षिण दिशा की यात्रा, प्रेतादि-शान्ति कार्य, स्तम्भारोपण, तृण, ताम्बा, पीतल, लकडी आदि का संचय, दुकान, पद ग्रहण व पद का त्याग करना अशुभ है, मकान की छत, चारपाई, चटाई आदि बुनना भी त्याज्य होता है। विशेष परिस्थितियों में ये कार्य करने आवश्यक हों तो किसी योग्य पंडित से पंचक शान्ति करवा लेने चाहिएं। मुहूर्त ग्रन्थों के अनुसार विवाह, मुण्डन, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, वधू-प्रवेश, उपनयन आदि में इस समय का विचार नहीं किया जाता है और रक्षा-बन्धन, भैय्यादूज आदि पर्वों में भी पंचक नक्षत्रों का निषेध के बारे में विचार नहीं किया जाता है।

यदि किसी व्यक्ति की मृत्‍यु पंचक अवधि में हो जाती है तो शव के साथ पांच अन्य पुतले आटे या कुशा से बनाकर अर्थी पर रख दिये जाते हैं और इन पांचों का भी शव की भांति पूर्णविधि-विधान से अन्तिम संस्कार किया जाता है। इसी को पिण्‍डदान कहते हैं। यह इसलिए करते हैं कि परिवार में बाद में और म़त्‍यु लगभग पांच न हों।

Vedic Mantra of 27 Nakshatra 27 नक्षत्रों के वैदिक मंत्र -

Vedic Mantra of 27 Nakshatra
27 नक्षत्रों के वैदिक मंत्र -

1- अश्विनी नक्षत्र -
ॐ अश्विनौ तेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वतीवीर्य्यम वाचेन्द्रो बलेनेन्द्रायदद्युरिन्द्रियम ।
ॐ अश्विनी कुमाराभ्यो नम:।
जप संख्या - 5000

2 - भरणी नक्षत्र -
ॐ यमाय त्वाङ्गिरस्य्ते पितृमते स्वाहा स्वाहा धर्माय स्वाहा धर्मपित्रे
जप संख्या - 10000

3 - कृतिका नक्षत्र -
ॐ अयमग्नि सहस्रीणो वाजयस्य शान्ति (गुं) वनस्पति: मूर्द्धा कबोरयीणाम् ।
ऊँ अग्नये नम:।
जप संख्या - 10000

4 - रोहिणी नक्षत्र -
ॐ ब्रहमजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमत: सूरुचे वेन आवय: सबुधन्या उपमा अस्यविष्ठा: सतश्चयोनिमसतश्चविध:।
ॐ ब्रह्मणे नम:।
जप संख्या - 5000

5 - मृगशिरा नक्षत्र -
ॐ सोमोधनु (गुं) सोमाअवंतुमाशु (गुं) सोमवीर: कर्मणयंददाती यदत्यविदध्य (गुं) सभेयमपितृ श्रवणयोम।
ॐ चन्द्रमसे नम: ।
जप संख्या - 10000

6 - आर्द्रा नक्षत्र -
ॐ नमस्ते रूद्र मन्यवSउतोत इषवे नम: बाहुभ्यामुतते नम: ।
ॐ रुद्राय नम: ।
जप संख्या - 10000

7 - पुनर्वस नक्षत्र -
ॐ अदितिद्योरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता: स पिता स पुत्र: विश्वेदेवा अदिति: पंचजना अदितिजातिमादितिर्रजनित्वम ।
ॐ आदित्याय नम: ।
जप संख्या - 10000

8 - पुष्य नक्षत्र -
ॐ बृहस्पते अतियदर्यौ अर्हाद द्युमद्विभाति क्रतमज्जनेषु । यदीदयच्छवस ॠत प्रजात तदस्मासु द्रविणम धेहि चित्रम ।
ॐ बृहस्पतये नम: ।
जप संख्या - 10000

9 - अश्लेषा नक्षत्र -
ॐ नमोSस्तु सर्पेभ्योये के च पृथ्विमनु:। ये अन्तरिक्षे यो देवितेभ्य: सर्पेभ्यो नम: ।
ॐ सर्पेभ्यो नमः।
जप संख्या - 10000

10 - मघा नक्षत्र -
ॐ पितृभ्य: स्वधायिभ्य स्वधानम: पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम: । प्रपितामहेभ्य स्वधायिभ्य स्वधानम: अक्षन्न पितरोSमीमदन्त:पितरोतितृपन्त पितर:शुन्धव्म ।
ॐ पितरेभ्यो नम:।
जप संख्या - 10000

11 - पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र -
ॐ भगप्रणेतर्भगसत्यराधो भगे मां धियमुदवाददन्न: । भगप्रजाननाय गोभिरश्वैर्भगप्रणेतृभिर्नुवन्त: स्याम: ।
ऊँ भगाय नम: ।
जप संख्या -10000

12 - उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र -
ॐ दैव्या वद्धर्व्यू च आगत (गुं) रथेन सूर्य्यतव्चा । मध्वायज्ञ (गुं) समञ्जायतं प्रत्नया यं वेनश्चित्रं देवानाम ।
ॐ अर्यमणे नम:।
जप संख्या - 5000

13 - हस्त नक्षत्र -
ॐ विभ्राडवृहन्पिवतु सोम्यं मध्वार्य्युदधज्ञ पत्त व विहुतम वातजूतोयो अभि रक्षतित्मना प्रजा पुपोष: पुरुधाविराजति ।
ॐ सावित्रे नम:।
जप संख्या - 5000

14 - चित्रा नक्षत्र -
ॐ त्वष्टातुरीयो अद्धुत इन्द्रागी पुष्टिवर्द्धनम । द्विपदापदाया: च्छ्न्द इन्द्रियमुक्षा गौत्र वयोदधु: । त्वष्द्रेनम: ।
ॐ विश्वकर्मणे नम:।
जप संख्या - 5000

15 - स्वाती नक्षत्र -
ॐ वायरन्नरदि बुध: सुमेध श्वेत सिशिक्तिनो युतामभि श्री तं वायवे सुमनसा वितस्थुर्विश्वेनर: स्वपत्थ्या निचक्रु: ।
ॐ वायवे नम:।
जप संख्या - 5000

16 - विशाखा नक्षत्र -
ॐ इन्द्रान्गी आगत (गुं) सुतं गार्भिर्नमो वरेण्यम । अस्य पात घियोषिता।
ॐ इन्द्राग्निभ्यां नम: ।
जप संख्या - 10000

17 - अनुराधा नक्षत्र -
ॐ नमो मित्रस्यवरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृत (गुं) सपर्यत दूरंदृशे देव जाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्योयश (गुं) सत ।
ॐ मित्राय नम:।
जप संख्या - 10000

18 - ज्येष्ठा नक्षत्र -
ॐ त्रातारभिंद्रमबितारमिंद्र (गुं) हवेसुहव (गुं) शूरमिंद्रम वहयामि शक्रं पुरुहूतभिंद्र (गुं) स्वास्ति नो मधवा धात्विन्द्र: ।
ॐ इन्द्राय नम:।
जप संख्या - 5000

19 - मूल नक्षत्र -
ॐ मातेवपुत्रम पृथिवी पुरीष्यमग्नि (गुं) स्वयोनावभारुषा तां विश्वेदैवॠतुभि: संविदान: प्रजापति विश्वकर्मा विमुञ्च्त ।
ॐ निॠतये नम:।
जप संख्या - 5000

20 - पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र -
ॐ अपाघ मम कील्वषम पकृल्यामपोरप: अपामार्गत्वमस्मद यदु: स्वपन्य-सुव: । ॐ अदुभ्यो नम: ।
जप संख्या - 5000

21 - उत्तराषाढ़ा नक्षत्र -
ॐ विश्वे अद्य मरुत विश्वSउतो विश्वे भवत्यग्नय: समिद्धा: विश्वेनोदेवा अवसागमन्तु विश्वेमस्तु द्रविणं बाजो अस्मै ।
जप संख्या - 10000

22 - श्रवण नक्षत्र -
ॐ विष्णोरराटमसि विष्णो श्नपत्रेस्थो विष्णो स्युरसिविष्णो धुर्वोसि वैष्णवमसि विष्नवेत्वा । ॐ विष्णवे नम: ।
जप संख्या - 10000

23 - धनिष्ठा नक्षत्र -
ॐ वसो:पवित्रमसि शतधारंवसो: पवित्रमसि सहत्रधारम । देवस्त्वासविता पुनातुवसो: पवित्रेणशतधारेण सुप्वाकामधुक्ष: ।
ॐ वसुभ्यो नम: ।
जप संख्या - 10000

24 - शतभिषा नक्षत्र -
ॐ वरुणस्योत्त्मभनमसिवरुणस्यस्कुं मसर्जनी स्थो वरुणस्य ॠतसदन्य सि वरुण स्यॠतमदन ससि वरुणस्यॠतसदनमसि ।
ॐ वरुणाय नम: ।
जप संख्या - 10000

25 - पूर्वभाद्रपद नक्षत्र -
ॐ उतनाहिर्वुधन्य: श्रृणोत्वज एकपापृथिवी समुद्र: विश्वेदेवा ॠता वृधो हुवाना स्तुतामंत्रा कविशस्ता अवन्तु । ॐ अजैकपदे नम:।
जप संख्या - 5000

26 - उत्तरभाद्रपद नक्षत्र -
ॐ शिवोनामासिस्वधितिस्तो पिता नमस्तेSस्तुमामाहि (गुं) सो निर्वत्तयाम्यायुषेSत्राद्याय प्रजननायर रायपोषाय ( सुप्रजास्वाय ) । ॐ अहिर्बुधाय नम: ।
जप संख्या - 1000

27 - रेवती नक्षत्र -
ॐ पूषन तव व्रते वय नरिषेभ्य कदाचन । स्तोतारस्तेइहस्मसि ।
ॐ पूषणे नम: ।
जप संख्या - 10000

नक्षत्र का जीवन पर शुभाशुभ प्रभाव -

चन्द्रमा का एक राशि चक्र 27 नक्षत्रों में विभाजित है, इसलिए अपनी कक्षा में चलते हुए चन्द्रमा को प्रत्येक नक्षत्र से गुजरना होता है जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में स्थित होगा, वही आपका जन्म नक्षत्र होगा। वास्तविक जन्म नक्षत्र का निर्धारण होने के बाद आपके बारे में बिल्कुल सही भविष्यवाणी की जा सकती है। अपने नक्षत्रों की सही गणना,विवेचना से आप अवसरों का लाभ उठा सकते हैं। इसी प्रकार आप अपने अनेक प्रकार के दोषों व नकारात्मक प्रभावों का विभिन्न उपायों से निवारण भी कर सकते हैं। नक्षत्रों का मिलान रंगों, चिन्हों, देवताओं व राशि-रत्नों के साथ भी किया जा सकता है।

गंडमूल नक्षत्र - अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा मूल एवं रेवती, यह छ: नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र कहे गए हैं इनमें किसी बालक का जन्म होने पर 27 दिन के पश्चात् जब यह नक्षत्र दोबारा आता है तब इसकी शांति करवाई जाती है ताकि पैदा हुआ बालक माता- पिता आदि के लिए अशुभ न हो।

शुभ नक्षत्र - रोहिणी, अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, चित्रा, उत्तरा भाद्रपद, उत्तराषाढा, उत्तरा फाल्गुनी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वस, अनुराधा और स्वाती ये नक्षत्र शुभ हैं इनमें सभी कार्य सिद्ध होते हैं।

मध्यम नक्षत्र - पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद, विशाखा, ज्येष्ठा, आर्द्रा, मूल और शतभिषा ये नक्षत्र मध्यम होते हैं इनमें साधारण कार्य सम्पन्न कर सकते हैं, विशेष कार्य नहीं !

अशुभ नक्षत्र - भरणी, कृत्तिका, मघा और अश्लेषा नक्षत्र अशुभ होते हैं इनमें कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित है। ये नक्षत्र क्रूर एवं उग्र प्रकृति के कार्यों के लिए जैसे भवन (बिल्डिंग) गिराना, कहीं आग लगाना, आग्नेयास्त्रों (विस्फोटकों) का परीक्षण करना आदि के लिए ही शुभ होते हैं !

वनस्पति तंत्र Vanaspati Tantra

वनस्पति तंत्र Vanaspati Tantra

बिल्व पत्र : अश्विनी नक्षत्र वाले दिन एक रंग वाली गाय के दूध में बेल के पत्ते डालकर वह दूघ निःसंतान स्त्री को पिलाने से उसे संतान की प्राप्ति होती है।

अपामार्ग की जड़ : अश्विनी नक्षत्र में अपामार्ग की जड़ लाकर इसे तावीज में रखकर किसी सभा में जाएं, सभा के लोग वशीभूत होंगे।

नागर बेल का पत्ता : यदि घर में किसी वस्तु की चोरी हो गई हो, तो भरणी नक्षत्र में नागर बेल का पत्ता लाकर उस पर कत्था लगाकर व सुपारी डालकर चोरी वाले स्थान पर रखें, चोरी की गई वस्तु का पला चला जाएगा।

संखाहुली की जड़ : भरणी नक्षत्र में संखाहुली की जड़ लाकर तावीज में पहनें तो विपरीत लिंग वाले प्राणी आपसे प्रभावित होंगे।

आक की जड़ : कोर्ट कचहरी के मामलों में विजय हेतु आर्द्रा नक्षत्र में आक की जड़ लाकर तावीज की तरह गले में बांधें।

दूधी की जड़ : सुख की प्राप्ति के लिए पुनर्वसु नक्षत्र में दूधी की जड़ लाकर शरीर में लगाएं।

शंख पुष्पी : पुष्य नक्षत्र में शंखपुष्पी लाकर चांदी की डिविया में रखकर तिजोरी में रखें, धन की वृद्धि होगी।

बरगद का पत्ता : अश्लेषा नक्षत्र में बरगद का पत्ता लाकर अन्न भंडार में रखें, भंडार भरा रहेगा।

धतूरे की जड़ : अश्लेषा नक्षत्र में धतूरे की जड़ लाकर घर में रखें, घर में सर्प नहीं आएगा और आएगा भी तो कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगा।

बेहड़े का पत्ता : पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में बेहड़े का पत्ता लाकर घर में रखें, घर ऊपरी हवाओं के प्रभाव से मुक्त रहेगा।

नीबू की जड़ : उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नीबू की जड़ लाकर उसे गाय के दूध में मिलाकर निःसंतान स्त्री को पिलाएं, उसे पुत्र की प्राप्ति होगी।

चंपा की जड़ : हस्त नक्षत्र में चंपा की जड़ लाकर बच्चे के गले में बांधें, बच्चे की प्रेत बाधा तथा नजर दोष से रक्षा होगी।

चमेली की जड़ : अनुराधा नक्षत्र में चमेली की जड़ गले में बांधें, शत्रु भी मित्र हो जाएंगे।

काले एरंड की जड़ : श्रवण नक्षत्र में एरंड की जड़ लाकर निःसंतान स्त्री के गले में बांधें, उसे संतान की प्राप्ति होगी।

तुलसी की जड़ : पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में तुलसी की जड़ लाकर मस्तिष्क पर रखें, अग्निभय से मुक्ति मिलेगी।

अपामार्ग या चिरचिंटा लटजीरा तंत्र:

इस वनस्पति को रवि-पुष्य नक्षत्र मे लाकर निम्न प्रयोग कर सकते हैं।

1. इसकी जड़ को जलाकर भस्म बना लें। फिर इस भस्म का नित्य गाय के दूध के साथ सेवन करें, संतान सुख प्राप्त होगा।

2. लटजीरे की जड़ अपने पास रखने से धन लाभ, समृद्धि और कल्याण की प्राप्ति होती है।

3. इसकी ढाई पत्तियों को गुड़ में मिलाकर दो दिन तक सेवन करने से पुराना ज्वर उतर जाता है।

4. इसकी जड़ को दीपक की भांति जला कर उसकी लौ पर किसी छोटे बच्चे का ध्यान केन्द्रित कराएं तो उस बच्चे को बत्ती की लौ में वांछित दृश्य दिखाई पड़ेंगे।

5. इसकी जड़ का तिलक माथे पर लगाने से सम्मोहन प्रभाव उत्पन्न हो जाता है।

6. इसकी डंडी की दातून 6 माह तक करने से वाक्य सिद्धि होती है।

7. इसके बीजों को साफ करके चावल निकाल लें और दूध में इसकी खीर बना कर खाएं, भूख का अनुभव नहीं होगा।

ग्रह पीड़ा निवारक मूल-तंत्र:

सूर्य: यदि कुंडली में सूर्य नीच का हो या खराब प्रभाव दे रहा हो तो बेल की जड़ रविवार की प्रातः लाकर उसे गंगाजल से धोकर लाल कपड़े या ताबीज में धारण करने से सूर्य की पीड़ा समाप्त हो जाती है। ध्यान रहे, बेल के पेड़ का शनिवार को विधिवत पूजन अवश्य करें।

चंद्र: यदि चंद्र अनिष्ट फल दे रहा हो तो सोमवार को खिरनी की जड़ सफेद डोरे में बांध कर धारण करें। रविवार को इस वृक्ष का विधिवत पूजन करें।

मंगल: यदि मंगल अनिष्ट फल दे रहा हो तो अनंत मूल या नागफनी की जड़ लाकर मंगलवार को धारण करें।

बुध: यदि बुध अनिष्ट फल दे रहा हो तो विधारा की जड़ बुधवार को हरे डोरे में धारण करें।

गुरु: यदि गुरु अनिष्ट फल दे रहा हो तो हल्दी या मारग्रीव केले (बीजों वाला केला) की जड़ बृहस्पतिवार को धारण करें।

शुक्र: यदि शुक्र अनिष्ट फल दे रहा हो तो अरंड की जड़ या सरफोके की जड़ शुक्रवार को सफेद डोरे में धारण करें।

शनि: यदि शनि अनिष्ट फल दे रहा हो तो बिच्छू (यह पौधा पहाड़ों पर बहुतायत में पाया जाता है) की जड़ काले डोरे में शनिवार को धारण करें।

राहु: यदि राहु अनिष्ट फल दे रहा हो तो सफेद चंदन की जड़ बुधवार को धारण करें।

केतु: यदि केतु अनिष्ट फल दे रहा हो तो असगंध की जड़ सोमवार को धारण करें।

मदार तंत्र:

श्वेत मदार की जड़ रवि पुष्य नक्षत्र में लाकर गणेश जी की प्रतिमा बनाएं और उसकी पूजा करें, धन-धान्य एवं सौभाग्य में वृद्धि होगा। यदि इसकी जड़ को ताबीज में भरकर पहनें तो दैनिक कार्यों में विघ्न बहुत कम आएंगे और श्री सौभाग्य में वृद्धि होगी।

गोरखमुंडी तंत्र:

मुंडी एक सुलभ वनस्पति है । इसम अलौ किक औ षधीय एवं तांत्रिक गुणों का समावेश है। इसे रवि पुष्य नक्षत्र में पहले निमंत्रण दे कर ले आएं। पूरे पौधे का चूर्ण बनाकर जौ के आटे में मिलाएं। फिर उसे मट्ठे म सान कर रोटी बनाएं और गाय के घी के साथ इसका सेवन करें, शरीर के अनेक दोष जिनमें बुढ़ापा भी शामिल है, दूर हो काया कल्प हो जाएगा और शरीर स्वस्थ, सबल और कांतिपूर्ण  रहेगा। हरे पौधे के रस की मालिश करने से शरीर की पीड़ा मिट जाती है। इसके चूर्ण का सेवन दूध के साथ करने से शरीर स्वस्थ एवं बलवान हो जाता है। इसके चूर्ण को रातभर जल के साथ भिगो कर प्रातः उससे सिर धोने से केशकल्प हो जाता है। इसके चूर्ण का नित्य सेवन करने से स्मरण, धारण, चिंतन और वक्तृत्व शक्ति की वृद्धि होती है।

श्यामा हरिद्रा:

काली हल्दी को ही श्यामा हरिद्रा कहते हैं। इसे तंत्र शास्त्र में गणेश-लक्ष्मी का प्रतिरूप माना गया है। श्यामा हरिद्रा को रवि पुष्य या गुरु पुष्य नक्षत्र में लेकर एक लाल कपड़े में रखकर षोडशोपचार विधि से पूजन करने का विधान है। इसके साथ पांच साबुत सुपारियां, अक्षत एवं दूब भी रखने चाहिए। फिर इस सामग्री को पूजन स्थल पर रखकर प्रतिदिन धूप दें। यह पारिवारिक सुख में वृद्धि के साथ ही आर्थिक दृष्टि से भी लाभ देता है।

हत्था जोड़ी:

यह एक वनस्पति है। इसके पौधे मध्य प्रदेश में बहुतायत में पाए जाते हैं। इस पौधे की जड़ में मानव भुजाएं जैसी ही शाखाएं होती हैं। इसे साक्षात् चामुंडा देवी का प्रतिरूप माना गया है। इसका प्रयोग सम्मोहन, वशीकरण, अनुकूलन, सुरक्षा एवं संपत्ति वृद्धि आदि में होता है।

इन्द्रजाल तंत्र

1. इन्द्रजाल को ताबीज़ में यत्न से भरकर बच्चों के गले में धारण करवा दें, बुरी नज़र से बच्चे की सदैव रक्षा होगी।

2. पढ़ाई करने वाले बच्चे बुकमार्क की तरह इसका उपयोग अपनी पुस्तकों में करें, उनकी पढ़ाई के
प्रति रूचि बढ़ने लगें।

3. गर्भवती महिला को यदि एक काले कपड़े में बन्द करके इन्द्रजाल धारण करवा दिया जाए तो यह सुरक्षित गर्भ के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

4. मंगलवार के दिन माँ दूर्गा का ध्यान करके इन्द्रजाल को पीसकर पाउडर बना लें। यदि शत्रु के ऊपर किसी तरह अथवा उसके भवन में यह पाउडर छिड़क दिया जाएगा तो उसके शत्रुवत व्यवहार में आशातीत परिवर्तन होने लगेगा।

5. संतान सुख की इच्छा रखने वाले पती-पत्नी इन्द्रजाल को ताबीज़ की तरह धारण करके नित्य कम से कम तीन माला मंत्र, "ॐकृष्णाय दामोदराय धीमहि तन्नो विष्णु प्रयोदयात्" की जप किया करें।

6. भवन के वास्तु जनित कैसे भी दोष के लिए, बद्नज़र तथा दुष्टआत्माओं से रक्षा के लिए इन्द्रजाल को स्थापित कर लें।

7. शुक्रवार के दिन शुभ मुहूर्त में एक इन्द्रजाल भवन में किसी ऐसे स्थान पर स्थापित कर लें जहाँ से आते-जाते वह दिखाई दिया करे। शुक्रवार को अपनी नित्य की पूजा में मंत्र "ॐ दुं दुर्गायै नमः" जप कर लिया करें, आपदा-विपदा से घर की सदैव रक्षा होगी।

इन्द्रजाल नाम से अधिकांशतः भ्रम होता है एक वृहत्त ग्रंथ का जो अनेकों प्रकाशकों द्वारा भिन्न-भिन्न रंग-रूप में प्रकाशित होता आ रहा है। यह ग्रंथ और कुछ नहीं मंत्र, यंत्र तथा तंत्राहि, टोने-टोटके, शाबर मंत्र, स्वरशास्त्र आदि गुह्य विषयों का खिचड़ी रूपी संग्रह है। परन्तु इन्द्रजाल वस्तुतः एक वनस्पति है। यह कुछ-कुछ मोर पंख झाड़ी के पत्ते से मिलती-जुलती है। यह परस्पर उलझी हुई एक जाली सी प्रतीत होती है। भूत-प्रेत, जादू-टोने,दुषआत्माओं के दुष्प्रभाव को दूर करने आदि में इसका व्यापक प्रयोग किया जाता है। यदि इसको सिद्ध कर लिया जाए तो वाणी के प्रभाव से अनेक कार्यों में सफलता प्राप्त करने तथा भविष्य की घटनाओं की भविष्य वाणी करने की दिव्य शक्ति तक इसके प्रयोग से प्राप्त की जा सकती है। इन्द्रजाल की एक पूरी टहनी अपने कार्य अथवा निवास स्थल पर लगा लेने से वहाँ कोई भी अदृष्ट दुष्प्रभाव हानि नहीं पहुँचा पाता।

एक प्रकार से इन्द्रजाल एक सुरक्षा कवच का कार्य करता है। इसको अच्छा प्रभाव प्राप्त करने के साथ-साथ यदि सुन्दरता से अलंकरण कर लिया जाए तो सजावट के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। इसकी स्थापना के लिए शुभ दिन मंगल और शनिवार है। यदि यह मंगल और शनि की होरा में उपयोग की जाए तो और भी शुभत्व का प्रतीक सिद्ध हो सकती है।

वनस्पति तंत्र प्राचीन शस्त्र स्तंभन प्रयोग
प्राचीन शस्त्र स्तंभन प्रयोग:-

शस्त्र स्तंभन प्रयोग 1
पुराने समय में राजा महाराज के काल में बहुतसी लड़ाईया लड़ी जाती थी। उस समय लोग अगर सेना अकेलेमें घेर ले तो वो इस प्रयोग का इस्तेमाल करते थे। ये वनस्पति तंत्र प्रयोग प्राचीन सिद्ध साधुओं से लिखित शाबर तंत्र शास्त्र  के किताबोसे  लिया गया है।

जिस दिन रविवार को पुष्य नक्षत्र पड़ रहा हैतो उसके पाहिले दिन यानि शनिवारको सूर्य अस्त के बाद  श्याम को एक लोटा पानी लेकर  विष्णुकांता (अपराजिता )के पास जाइये। विष्णुकांता  दुर्गम स्तान  में  होनी चाहिए। जहा पूरा सन्नाटा  हो(जंगल ). वहा जाकर विष्णुकांताके पौधेके जड़ में पानी डाले उसे कहे हे वृक्ष में तुम्हे कल सुभह ब्रम्हःमुहर्त  में लेने आऊंगा तुम मेरे साथ अपने गुणोंके साथ चलो। इतना कहनेके बाद बिना पीछे मुड़के देकते हुवे घर लोट आना है।

फिर सुभह ब्रम्हःमुहर्त  में जाकरपौधेके  पास बैठे और  नमस्कार करके  एकही ज़टकेमे जड़समेत उखाड़ ले  और घर लोट आये। बिना किसी से बात किये हुवे



उपयोग
जड़ पर पूरी श्रद्धा होनी चाहिए। जब कोई चोर डाकू अकेलेमें घेर ले तब तब धारदार शस्त्र  से डराने लगे ,तब इस जड़को मुख में रख ले इससे चोट लगनेकी संभावना कम हो जाती है। अर्थाथ शस्त्र  का प्रभाव शरीरपर  कम होता है


रविवार के दिन के पुष्य नक्षत्र में जब अमावस्या हो , उस दिन अपना शुक्र किसी भी  मिठाई में मिलाकर जिस स्त्री को खिला दिया जाये, वही वश में हो जाती है।

करवीर (कनेर) पुष्य व गोघृत दोनों मिलाकर जिस किसी स्त्री का नाम लेकर 108 बार हवन किया जाये, और यह क्रम प्रतिदिन चलता रहे तो वह स्त्री सात दिन के अंदर साधक के वश में होकर इच्छा पूर्ण करती है।

शुक्ल पक्ष में पुष्य नक्षत्र में , गुंजा की मूल लाकर मस्तक अथवा शैय्या पर रखने मात्र से चोर का भय नहीं रहता है।

सफ़ेद सरसों व बालू एक साथ मिलाकर खेत में चारो ओर डाल देने से टिड्डे , कीड़े , मच्छर तथा चूहों आदि से फसलों की सुरक्षा हो जाती है।

लहसुन के रस में हिंग घोलकर जिसकी आँख में डाला जायेगा अथवा सुंघाया जायेगा, उस पर यदि किसी ऊपरी हवा का कोई प्रकोप होगा, तो वह प्रकोप खत्म हो जायेगा।

मिट्टी के पके हुए सात कोरे दियों को अग्नि में खूब लाल करके थोड़े से ताजा पानी में एक-एक करके , बुझाकर इस पानी को सात बार में पीने से उल्टियाँ बंद हो जाती है।

लाल अपामार्ग की तरोताजा पत्तियों की माला प्रतिदिन पहनने से कंठमाला का पुराना रोग भी सदा के लिए दूर हो जाता है।

 पुष्य , नक्षत्र में सफ़ेद आक की जड़ लाकर लाल तागे से कमर में बांधे। इसे बांधकर जिस स्त्री से एक बार रमण करें, वह साधक के वश में हो जाती है।

नक्षत्र वाटिका / नवग्रह वाटिका Navgraha Vatika/ Nakshatra Vatika

नक्षत्र वाटिका / नवग्रह वाटिका Navgraha Vatika/ Nakshatra Vatika

भारतीय ग्रंथो और वेद पुराणों कि मानें तो इस चराचर जगत में जो भी घटता है, वह सब ग्रह-नक्षत्रों द्वारा संचालित, प्रभावित और नियंत्रित होता है। ज्योतिष शास्त्र के मतानुसार मानव जीवन में गृह और नक्षत्रों का बड़ा महत्त्व होता है  नवग्रह वाटिका में नवग्रह से संबंधित नौ पौधों और नक्षत्र वाटिका में 27 नक्षत्रों से संबंधित 27 पौधों का रोपण किया जाता है। यह सभी  पौधे-वनस्पतियां हमें औषधि, फल-फूल, शीतल छाया और शुद्ध वायु प्रदान करने के साथ-साथ पर्यावरण सरंक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देती है।पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आसमान में स्थिर दिखने वाले पिण्डों/छायाओं को नक्षत्र और स्थिति बदलने वाले पिण्डों/छायाओं को गृह कहते है। ग्रह का अर्थ है पकड़ना। संभवतः अन्तरिक्ष से आने वाले प्रवाहों को धरती पर पहुँचने से पूर्व ये पिण्ड और छायायें अपनी ओर आकर्षित कर पकड़ लेती है और पृथ्वी के जीवधारियों के जीवन को प्रभावित करती है।  इसलिए इन्हें ग्रह कहा जाता है।  भारतीय ज्योतिष के अनुसार ग्रहों की संख्या 9 होती है जिनमे सूर्य, चन्द्र, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु सम्मलित है जिन्हें मिलाकर नव ग्रह कहा जाता है। 

नवग्रह वनस्पतियों की सूची Navgraha Vanaspati

ग्रह
वनस्पतियाँ
हिंदी नाम
संस्कृत नाम
वैज्ञानिक नाम
1.सूर्य
आक
अर्क
कैलोट्रपिस प्रोसेरा
2.चन्द्र
ढांक
पलाश
ब्यूटिया मोनोस्पर्मा
3.मंगल
खैर
खदिर
अकेसिया कटेचू
4.बुध
चिचिड़ा
अपामार्ग
अकाइरेंथस एस्पेरा
5.बृहस्पति
पीपल
पिप्पल
फाइकस रिलीजिओसा
6.शुक्र
गूलर
औडम्बर
फाइकस ग्लोमरेटा  
7.शनि
छ्योकर
शमी
प्रोसोपिस सिनरेरिया
8.राहु
डूब
दुर्वा
साइनोडान डेक्टाइलान
9.केतु
कुश
कुश
डेस्मोस्टेचिया बाईपिन्नेटा
   

नव ग्रह वाटिका Navgrah Vatika/Garden

नव ग्रह मंडल में ग्रहानुसार  वनस्पतियों की स्थापना करने पर वाटिका की स्थिति निम्नानुसार होनी चाहिए
केतु
कुश
बृहस्पति
पीपल  
बुध
लटजीरा
शनि
शमी
सूर्य
आक
शुक्र
गूलर
राहु
दूब
मंगल
खैर
चन्द्र
ढाक
       
               सौर मंडल का सम्राट सूर्य है और सौर मंडल में जो गृह है वे भी सूर्य के अंश है।  सूर्य से प्रथ्वी और प्रथ्वी से समस्त प्राणी, वृक्ष और वनस्पति निर्मित है।  ज्योतिषीय आधार की भविष्यवाणियो और फल-कथन में इन ग्रहों की महत्वपूर्ण भूमिका है।  सर्वप्रथम नक्षत्रों की पहचान आचार्य वराहमिहिर, पाराशर, जैमिनी आदि ऋषियों द्वारा की गई थी।  ज्योतिष शास्त्र में सभी ग्रहों,नक्षत्रों और राशियों के आराध्य 'वृक्ष' है तथा इनके पर्यायवृक्ष भी है।  इनके माध्यम से ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए उपासना आराधना की जाती है। पापनाश, भाग्योदय और शारीरिक कष्ट निवारण के लिए ग्रहों के अनुसार रत्न धारण करना तथा गृह वृक्षों का सान्निध्य और उपासना-आराधना का हमारे ज्योतिसशास्त्र में विस्तृत विवरण मिलता है।  जिस प्रकार ग्रहों के लिए निर्धारित रत्नों के प्रभाव से ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त होती है, उसी प्रकार ग्रहों के आराध्य वृक्षों के सामीप्य से उतनी ही अनुकूलता प्राप्त होती है।  जिस प्रकार रत्नों के उपरत्न होते है, उसी प्रकार आराध्य वृक्षों के पर्यायी वृक्ष भी होते है।  वे भी कमोबेश उतना ही फल प्रदान करते है।  रत्नों की शुद्धता के आभाव में कभी-कभी विपरीत असर भी होता है तथा वे सामान्य जनता की पहुँच के बाहर भी होते है। हमारे ऋषि-महऋषियों ने ग्रहों से सम्बंधित रत्नों की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी और सर्वसाधारण की पहुँच के भीतर प्रकृति प्रद्दत वृक्षों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है।  गृह-नक्षत्रों के आराध्य वृक्षों और जड़ों के द्वारा ग्रहों के कुप्रभावों का शमन और उन्हें शांत किया जा सकता है तथा वह सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, जो रत्नों के प्रयोग से संभव है।  वृक्षों का सानिध्य किसी भी स्थिति में प्रतिकूलता प्रदान नहीं करता है अपितु ग्रहों के बुरे प्रभाव से हमें बचाते है।  
                वर्तमान में वैज्ञानिक अनुसंधान में भी पाया गया है की वृक्ष अपने अन्दर किसी अदृश्य ओरा (प्रभामंडल) को प्रभाहित करने की अद्भुत क्षमता रखते है। जहाँ पेड़-पौधे ग्रहजनित अमंगलनाश तथा मंगल प्राप्ति का माध्यम हैं, वहीं वायु प्रदूषण समाप्त करने और शुद्ध वायु प्रदान करने में हमारे इन वृक्षों का अतुलनीय योगदान है।  आज वायु प्रदूषण एक समस्या बन गई है जिससे अनेक प्रकार की संघातिक बीमारियाँ फ़ैल रही है और शुद्ध हवा दुर्लभ होती जा रही है।  देश में आज मोबाइल ऑक्सीजन गैस किट की चर्चा होने लगी है।  वाहन चलते समय सामान्यतः मास्क प्रयोग का चलन प्रारंभ हो गया है। स्वस्थ शरीर और दीर्ध जीवन के लिए पर्यावरण शुद्ध होना बेहद जरुरी है। वायु प्रदूषण समाप्त करने और शुद्ध वायु प्राप्त करने के लिए इन गृह-नक्षत्रों के आराध्य वृक्षों में अद्भुत क्षमता है।  आज देश के अनेक क्षेत्रों में गृह-नक्षत्र वाटिकाएं स्थापित हो रही है।
भारतीय संस्कृति में वृक्षों की महिमा  
                 भारतीय संस्कृति में वृक्षारोपण और वृक्ष पूजन की सुदीर्ध परंपरा है।  वृक्षरोपण को शास्त्रों में वृष्टि यज्ञ कहा गया है, तथा इसे भक्ति, शक्ति तथा मुक्ति का दाता माना गया है।  महाभारत में वृक्षों को जीवनदाता माना गया है और वृक्ष काटने  वाले के लिए दण्ड निर्धारित किया गया है।  
पीपल का पेड़ अहर्निश प्राण वायु (ऑक्सीजन) प्रदान करता है।  इसके नीचे अन्य पेड़ पनप जाते है, भगवान् ने भी इस अपनी विभूति बताया है। इतना ही नहीं श्रीमदभगवतगीता के दशवे अध्याय के छबीसवें श्लोक में “अश्वत्थ: सर्ववृक्षणां” अर्थात सभी वृक्षों में मै पीपल हूँ। पीपल को वृक्षों का राजा माना जाता है।  वृक्षों के राजा पीपल को जलाशय के समीप लगाने से सैकड़ों यज्ञों का फल प्राप्त होता है, उसके दर्शन से पापनाश, स्पर्श से लक्ष्मी और प्रदक्षिणा से आयु बढती है।  पीपल का वृक्ष लगाने से दरिद्रता दूर होकर मनुष्य धनी बनता है।  तंत्र शास्त्र में पीपल ही ऐसा वृक्ष है, जिसमे कोई रोग नहीं लग सकता।  
अमरता का प्रतीक वाट वृक्ष और फलों का राजा आम के पेड़ लगाने से पितृगण प्रसन्न होते है. प्रयाग का अक्षय वट, उज्जैन का सिद्ध वट, नासिक का पंचवट, गया का वोधिवृक्ष, भड़ूच के पास कबीर वट, वृन्दावन का बंसीवट हमारे श्रद्धा के केंद्र है।  
अशोक शोक का नाश करता है।  पाकर वृक्ष यज्ञ का फल देता है।  श्री कृष्णलीला का साक्षी कदम्ब, शीतलता का प्रतीक चन्दन,  ऋद्धि-सिद्धि का दाता श्रीफल तथा नीम आयु प्रदान करता है। अनार के वृक्ष के पूजन से सदगृहणी मिलती है।  
पलाश ब्रह्म तेज देने वाला, मौलश्री कुल वृद्धि करता है। चंपा का वृक्ष सौभाग्यदाता है।  बेल के वृक्ष में भगवान् शिव शंकर और गुलाब में भगवती पार्वती का निवास माना गया है।  खैर का वृक्ष आरोग्यवर्धक है, वही अर्जुन का वृक्ष की छाल ह्रदय रोग में राम वाण सिद्ध हो रही है।
कटहल के वृक्ष को लक्ष्मी प्रदाता कहा गया है।  नीम और आक का वृक्ष लगाने से सूर्य भगवान् प्रसन्न होते है। तुलसी और नीम के गुणों से सारा संसार परिचित है।
               पौधों में तुलसी का बहुत बड़ा महत्त्व है, वह भगवान् नारायण को अतिप्रिय है. तुलसी त्रिदोश नाशक है। कहा गया है-तुलसी की गंध वायु के साथ जितनी दूर तक जाती है, वहा का वातावरण और निवास करने वाले सब प्राणी पवित्र और निरोग हो जाते है. तुलसी और हरिश्रंगार के पुष्पों की सुगंध से भगवान की प्रसन्नता बढती है।  इसलिए इसे आँगन में लगाया जाता है।  ये सभी वृक्ष मानव को सुख,समृद्धि, शांति और ऐश्वर्य प्रदान करते है। 
              वनवास काल में भगवान् राम की पंचवटी का उल्लेक्ष भी ग्रंथों में मिलता है।  शास्त्रों में वृक्षों के बारे में कहा गया है की ‘एको वृक्षो दश्पुत्र समो भवेत’ अर्थात एक वृक्ष दस पुत्रों के सामान होता है।  पुत्र से तो कभी निराशा भी हो जाती है किन्तु वृक्षों से कभी निराशा नहीं हो सकती है।  कहा गया है ‘धन्या महिरुहायेभयो निराशा यांती नार्थिन:’. हमारे यहाँ वृक्षों और वनस्पतियों की बहुत बड़ी महिमा है।  विष्णु पुराण  और पदम् पुराण में  तो पेड़ पौधों में जीवन माना गया है।  भूगर्भशास्त्रियों ने वृक्षों की वैज्ञानिक महत्ता प्रतिपादित की है।  गृह-नक्षत्र वृक्षों के पर्यायी, क्षेमकर तथा औषधीय वृक्ष भी है।  आर्युवेद में जितनी भी काष्ठादि औषधिया है, वे सभी पेड़ पौधों और वनस्पतियों से मिलती है और उनका प्रभाव भी अचूक है।  बताया गया है ; ‘नास्ति मुलं अनौषधम’ अर्थात ऐसी कोई वनस्पति नहीं होती जिसमे औषधीय गुण न हो।  इन वृक्षों में कई ऐसे वृक्ष है जिनके सान्निध्य में बैठने से कई प्रकार के असाध्य रोगों का निवारण और उनके उपयोग से विभिन्न प्रकार की बीमारियों से मुक्ति का आयुर्वेदीय ग्रंथों में विसद विवरण दिया गया है।  इनमे अनेक वृक्ष आय के अच्छे साधन भी है. इनके सभी भाग जड़,पल्लव,पुष्प और फल का अपना अपना महत्त्व है।  यज्ञ, हवन, औषधि और पर्यावरण में इनका अपना विशेष स्थान है. तंत्र शास्त्र में वृक्षों की जड़ों का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है।  ये जड़े उतना ही प्रभाव रखती है जितना रत्न रखते है और कई बार तो ये रत्नों से भी अधिक प्रभावकारी सिद्ध हुई है।
            वृक्ष और वनस्पतियों के रोपण से तो अनेकानेक लाभ है।  श्रीमदभागवत में आंवला, पीपल, तुलसी, गाय और श्रीमदभगवतगीता को कल्पवृक्ष बताया गया है। इन्हें हर घर में लगाना चाहिए।  वृक्ष हमारे लिए कामधेनु है, ये जहाँ दैहिक दैविक कष्टों को दूर करते हैं वहीं भौतिक रूप से आय के प्रबल स्त्रोत के रूप में स्थापित है।  इसलिए कहा गया है की पेड़ पौधे लगाने वाला कभी दरिद्र नहीं हो सकता है, उसके यहाँ लक्ष्मी का स्थाई निवास होता है। 

मूल गण्डान्त शान्ति प्रयोग Mool Shanti

मूल गण्डान्त शान्ति प्रयोग Mool Shanti

जिस मूल नक्षत्र में शिशु का जन्म हुआ हो उसके दूसरे मूल नक्षत्र में स्नान कर श्वेत वस्त्र पहन कर जातक एवं पत्नी सहित यजमान (पिता) पूजा के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ आचमन प्राणायाम एवं आसन शुद्धि कर हाथ में अक्षत पुष्प लेकर
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवेत्यादि0 स्वस्त्ययन (मन्त्रों को) ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्चेत्यादि0 मङ्लमंत्र पढ़े। तदनन्तर प्रतिज्ञा संकल्प करे। ॐ अद्येत्यादि देशकालौ संकीत्र्य अमुकगोत्रोऽमुकशर्मा (वर्मागुप्तो वा सपत्नीकोऽहं अस्य बालकस्य अस्याः कुमार्याः वा मूलनक्षत्रा (ज्येष्ठा, आश्लेषा, मघा रेवती अश्विनी वा) तदधिकरणकामुकपादजननारिष्टनिवारणपूर्वकं तदीयायुर्बृद्ध- îुत्तरपित्रादिसम्बन्धिशुभफलप्राप्त्यर्थे श्रीपरमेश्वरप्रीतये च गोमुखप्रसवपूर्वकं अमुकनक्षत्रागण्डात् शान्तिमहं करिष्ये तन्निर्विघ्नतासिद्धîर्थं तदङ्त्वेन गणपत्यादिपूजनं च करिष्ये। तदनन्तर श्री गणपति, नवग्रह, नान्दीश्राद्ध, आदि कृत्य सामान्य पूजन विधि के अनुसार करायें अथवा स्वर्ण दान करें। तत्रा संकल्पः-ॐ अद्येत्यादि अमुकगोत्रस्यात्मजस्यामुकशर्मणः मूला (ज्येष्ठा, मघा रेवती वा) नक्षत्राधिकरणकजन्माङ्भूतकर्तव्याभ्युदयिकश्राद्धजन्य- फलसम्प्राप्त्यर्थममुं यथाशक्ति सुवर्णमग्निदैवतं यथानामगोत्रयामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रददे।
तदनन्तर आचार्य मण्डप से बाहर यजमान के घर के ईशान भाग में सफेद सरसों छींटे। ॐ आपो हिष्ठेत्यादि इस मंत्र (देंखें नित्य संध्या) से पञ्चगव्य द्वारा प्रोक्षण कर वहां चावल के आटे से अष्टदल कमल बनाकर उसके ऊपर यथाशक्ति अनाज फैलाकर उस अनाज के ऊपर नूतन बांस के सूप को रखकर उस पर तिल एवं कुश फैलाकर इसके ऊपर लाल वस्त्र फैलाकर उस पर शिशु का मुख पूर्व की ओर और पांव पश्चिम की ओर रखकर तिगुने मांगलिक सूत्रा से उस शिशु को सूप के साथ लपेटकर शिशु के समीप गोमुख लाकर शिशु स्पर्श करायें। पुनः गोमुख से शिश्ुा की उत्पत्ति का भावकर पञ्चगव्य से कुश द्वारा शिशु का मार्जन करे। तत्रा मंत्र ॐ विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु। आषिझ्तु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते।। अथवा गवामङ्गेषु इस मंत्र से गौ के सभी अङ्गों का स्पर्श करायें। ॐ गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भूवनानि चतुर्दश। यस्मात् तस्माच्छिवं मे स्यादिहलोके परत्रा च। तदनन्तर विष्णो श्रेष्ठ0 इस मंत्र से आचार्य शिशु को लेकर माता के हाथ में दे। तत्रा मन्त्र-ॐ विष्णो श्रेष्ठेन रूपेणास्यां नार्यां गवीन्यां पुमांसं पुत्रमाधेहि दशमे मासि सूतवे। उसके बाद माता गोमुख के पास से शिशु को लाकर गाय के पूछ भाग के तरफ शिशु को देखकर अपने पति के हाथ में दे। पिता-ॐ अङ्गादङ्गात् सम्भवसि
हृदयादधिजायसे। आत्मा वै पुत्रनामासि संजीव शरदः शतम्।। इस मंत्र से तीन बार शिशु के मस्तक को सूंघकर माता को दे दे। तदनन्तर आचार्य आपोहिष्ठा. इस मंत्र द्वारा बालक को पंचगव्य से सींचे। तदनन्तर पिता-गोमुखप्रसवाख्यकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु। आचार्य-ॐ पुण्याहं ॐ पुण्याहं इति ब्रूयात्। उसके बाद गाय अथवा गो निष्क्रयीभूत द्रव्य संकल्पपूर्वक आचार्य के लिए देकर यथाशक्ति नवग्रह की प्रीति हेतु गो, स्वर्ण, वस्त्र, अनाज आदि दें। संकल्प-ॐ अथ गोमुखप्रसवाख्यकर्मणः सांगतासिद्धîर्थं सूर्यादिनवग्रहाणां प्रीत्यर्थं चेमानि गोवस्त्रासुवर्णधान्यानि सदक्षिणानि तन्निष्क्रयीभूतानि द्रव्याणि वा यथानामगोत्रय ब्राह्मणायदातुमहमुत्सुजे। तदनन्तर ईशान दिशा में अनाज के ऊपर कलश स्थापन विधि द्वारा वरुण कलश को स्थपित कर उस पर चन्दन, अगुरु, कुंकुम, सभी प्रकार के चन्दन एवं श्वेत सरसों छीटें। कलश के ऊपर स्वर्ण निर्मित
अधिदेवता इन्द्र, प्रत्यभिदेवता जल सहित निर्ऋति प्रतिमा स्थापित कर अग्न्युत्तारण पूर्वक ॐ असुन्वन्त यजमानमिच्छंस्तेन सेत्वामन्विहितस्करस्य। अन्यमस्मादिच्छसा- तऽइत्यानमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु। इस मंत्र से पूजन करे। एवं आश्लेषा में सार्प, मघा में पितृ, ज्येष्ठा में इन्द्र, रेवती में पूषा, अश्विनी में अश्विनी की प्रतिमा तत्तद् मंत्रों के द्वारा अधिदेवता प्रत्यभिदेवता सहित स्थापित करे। आवाहन कर पूजन करें।
आश्लेषा मंत्र-ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु। येऽन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।।
मघा मन्त्र-ॐ उशन्तस्त्वा निधोमह्युशन्तःसमिधीमहि। उशन्नुशतऽआवह पितृन् हविषेऽअत्तवे।।
ज्येष्ठा मन्त्र-ॐ सयोषा इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्राहा शूर विद्वान्। जहि शत्राुरपमृधो नुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः।।
रेवती मन्त्र-ॐ पूषन्तव ब्रते वयं न रिष्येम कदाचन। स्तोतारस्त
इह स्मसि।।
अश्विनी मन्त्र-ॐ यावाङ्कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षितम्।। अग्न्युत्तारण एवं प्राण प्रतिष्ठा विशिष्ट पूजन विधि के अनुसार करायें। उसके चारों ओर सुपारियों एवं अक्षत पुंजों पर नक्षत्र के देवता अश्विनी आदि का आवाहन करे। ॐ अश्विभ्यां नमः अश्विनावाहयामि स्थापयामि।।1।।
ॐ यमाय0 यमं0 2। ॐ अग्नये0 अग्निं0 3।। ॐ प्रजापतये0 प्रजापतिं0 4।। ॐ सोमाय0 सोमं0 5। ॐ रुद्राय नमः रुदं0 6। ॐ अदितये0 7 अदितिं। ॐ बृहस्पतये0 बृहस्पतिं0 8 ॐ सर्पेभ्यो0 सर्पान्0 9। ॐ पितृभ्यो0 पितृन् 10 ॐ भगाय0 भगं0 11 ॐ अर्यम्णे0 अर्यमाणम् 12 ॐ सवित्रो0 सवितारं0 13। ॐ त्वष्ट्रे0 त्वष्टारम् 14 ॐ वायवे0 वायुं 15 ॐ इन्द्राग्नीभ्यां0 इन्द्राग्नीं0 16 ॐ मित्राय0 मित्रंा0 17 इन्द्राय0 इन्द्रं0 18 ॐ निर्ऋतये0 निर्ऋतिं 19। ॐ अद्म्îो0 अपः0 20। ॐ विश्वेभ्यो देवेभ्यो0 विश्वान् देवान्0 21। ॐ ब्रह्मणे0 ब्रह्माणम्0 22 ॐ विष्णवे विष्णंु0 23। ॐ वसुभ्यो0 वसून् 24। ॐ वरुणाय0 वरुणम्0 25। ॐ अजैकपदे0 अजैकपादं 26। ॐअहिर्बु-
ध्न्या0 अहिर्बुध्न्यम्27 ॐ पूष्णे0 पूषाणम् 28।। इत्यावाह्य ॐ मनोजूति0 इति मन्त्रोण ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ निर्ऋत्याद्यावाहितदेवताभ्यो नमः आवाहितदेवता इह सुप्रतिष्ठिता वरदा भवत इस प्रकार चन्दनादि द्वारा पूजा कर ॐ अनया पूजया निर्ऋत्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम्। मंत्र पढ़कर जल छोड़ दे। उसके बाद वरुण कलश के सीप चावल एवं गोधूम चूर्ण आदि द्वारा सफेद कमल बनाकर उसके ऊपर सप्त धान्य राशि को रखकर उसके बीच सौ छेद वाले कलश को रख उसके चारों ओर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से चार घड़ों को कलश स्थापन विधि (देखें सामान्य पूजन विधि) के अनुसार स्थापित करे। उसमें पहले घड़े में लाल चन्दन कमल, कुष्ट, प्रियंगु, शुंठी, मुस्ता, आमलक, वच, श्वेतसर्षप, मुरामांसी अगर उशीरादि उपलब्ध वस्तुओं को छोड़ें। तदनन्तर ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव0 इत्यादि परिशिष्ट में दिये गये रुद्राष्टाध्यायी के 5वें अध्याय के आदि से 16 मंत्र) रुद्राध्यायी को पढ़कर कलश स्पर्श करे। फूल छोड़ दे। दक्षिणकुंभ में पंचामृत, गजमद, तीर्थोदक, सप्तधान्यसुवर्णानि छोड़ दें। ॐ आशुः शिशान0 इस बारह मंत्रों का पाठ करें (देखें परिशिष्ट /रुद्राष्टाध्यायी /तृतीय अध्याय) पश्चिमकुंभ में सप्तमृत्तिका छोड़े। ॐ कृणुष्वाजः0 पांच मंत्रों को पढ़ें (देखें परिशिष्ट/रुद्राष्टा,) उत्तरकुंभे पंचरत्न, वट, अश्वत्थ, पलाश, प्लक्ष, उदुम्बर के पत्ते और सात कुंओं का जल छोड़ें। रक्षोहरण चार मंत्रों का जप करे। बीच के शत छिद्र वाले कलश में शत औषधियों उसके अभाव में सुलभ अच्छे वृक्षों के पल्लवों को विष्णुक्रान्ता, सहदेवी, तुलसी, शतावरी, कुश, कुंकुम को डालें। ॐ त्रयम्बकं इस मंत्र का 108 बार जप करे। जप के बाद कलश का स्पर्श करे तथा अक्षत, गंध और पुष्प छोड़ें और पूर्णपात्र पर वरुणावहन कर पूजन करे, तदनन्तर अग्निस्थापन स्थान से पश्चिम दिशा में किसी तरह से ऊपर शिकहर बांधकर वहीं बांस के पात्र में कम्बल के टुकड़े को फैलाकर उसके ऊपर सौ छिद्र वाले कलश रखें। तदनन्तर उस कलश के नीचे अच्छे काठ से निर्मित पीढ़ा को रखकर उसे श्वेत वस्त्र से ढक दें। वहां पुत्र एवं पत्नी के सहित यजमान को बैठाएं। उसके बाद शिक्य (शिकहर) में स्थित कलश में धीरे-
धीरे चार कुम्भों में स्थित जल को डालकर आचार्य अभिषेक मंत्र द्वारा सपत्नीक यजमान शिशु के ऊपर जल धारा गिराये। ॐ देवस्त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिाये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिसिझ्ाम्यसौ।। ॐ देवस्य त्वा0।। सरस्वत्यै वाचोयन्तु यन्त्रोणाग्नेः साम्राज्येनाभिषिंचामि ॐ देवस्य त्वा0।। अश्विनो भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभिषिंचामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभिषिंचामीन्द्र- स्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिंचामि। ॐ योऽसौ वज्रधरो देवो महेन्द्रो गजवाहनः। मूला (मघा, ज्येष्टाऽऽश्लेषा) जातस्य शिशोर्दोषं मातापित्रोः व्यपोहतु।।1।। ॐ योऽसौ शक्तिधरो देवो हुतभुङ्ग मेषवाहनः। सप्तजिह्नश्च देवोऽग्निर्मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) दोषं व्यपोहतु।।2।। योऽसौ
दण्डधरो देवो धर्मो महिषवाहनः। मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) जातशिशोर्दोषं व्यपोहतु यमो मम।।3।। ॐ योऽसौ खङ्धरो देवो निर्ऋतिर्राक्षसाधिपः। प्रशामयतु मूलोत्थं (ज्येष्ठोत्थं, मघोत्थं, सार्पोत्थं, गण्डोत्थं) दोषं गण्डान्तसम्भवम्।।4।। ॐ योऽसौ पाशधरो देवो वरुणश्च जलेश्वरः। नक्रवाहः प्रचेता वै मूला ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) दोषं व्यपोहतु।।5।। ॐ योऽसौ देवो जगत्प्राणो मारुतो मृगवाहनः। प्रशामयतु मूलोत्थं, (ज्येष्ठोत्थं, मघोत्थं, सार्पोत्थं, गण्डोत्थं) दोषं बालस्य शान्तिदः।।6।। ॐ योऽसौ
निधिपतिर्देवः खङ्भृद् वाजिवाहनः। मातापित्रोः शिशोश्चैव मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) दोषं व्यपोहतु।।7।। ॐ योऽसौपशुपतिर्देवः पिनाकी वृषवाहनः। आश्लेषा (मघा, ज्येष्ठा, मूला गण्डा) न्तदोषान्ममाशु व्यपोहतु।।8।। ॐ विघ्नेशः क्षेत्रापो दुर्गा लोकपाला नवग्रहाः। सर्वदोषप्रशमनं सर्वे कुर्वन्तु शान्तिदाः।।9।। ॐ मूलक्र्षे (ज्येष्ठाऽऽश्लेषा, गण्ड) जातबालस्य
मातृपित्रोर्धनस्य चा भ्रातृज्ञातिकुलस्थानां दोषं सर्वं व्यपोहतु।।10।।
ॐ पितरः सर्वभूतानां रक्षन्तु पितरः सदा। मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) नक्षत्राजातस्य वित्तं च ज्ञातिवान्धवान्।।11।। एवं ज्येष्ठा आश्लेषा आदि नक्षत्रों के शान्ति में ततद् निर्धारित मंत्रों के आधार पर तत्तद् कार्य करें।
तदनन्तर यजमान शिशु एवं पत्नी के साथ शुद्ध जल से स्नान कर दूसरा वस्त्र पहन गीले कपड़े को नापित (नाई) को देकर आचमन करे उसक बाद बैठकर यजमान ही
ॐ शिरोमेश्रीर्यशः इस मंत्र द्वारा अपने अंगों का स्पर्श करे। तद्यथा ॐ शिरो मे श्रीरस्तु शिर छूना चाहिए। इसी प्रकार सभी जगह समझना चाहिए। ॐ यशो मे मुखमस्तु। इति मुखम्। ॐ त्विषिर्मे केशाः सन्तु। इति मस्तकस्थान् केशान्। ॐ श्मश्रूणि सन्तु इति कूर्चमुखजरोमाणि। ॐ राजा मे प्राणा अमृतमस्तु इति नासिकायां प्राणान्। ॐ सम्राण्मे चक्षुरस्तु इति युगपच्चक्षुषी। ॐ विराट् मे श्रोत्रामस्तु। इति श्रोत्राम्। ॐ जिह्ना मे भद्रमस्तु। इति जिह्ना ॐ वाङ्मे महोऽस्तु। इति जिह्नामेव। ॐ मनो मे मन्युरस्तु। इति हृदयम्। (उदकोपस्पर्शः) ॐ स्वराण्मे भामोऽस्तु। इतिभुवोर्मध्यम्। ॐ मोदाः प्रमोदाः मेऽङ्गुल्यः सन्तु। इति हस्ताङगुलीः पादाङगुलीश्च। ॐ मोदाः प्रमोदाः मेऽङ्गानिः सन्तु। इति सर्वाङ्गानि। ॐ मित्रां मे सहोऽस्तु। इति स्वशरीरगतं बलम्। ॐबाहू मे बलमिन्द्रियं स्तां। इति बाहू। ॐ आत्मा मे क्षत्रामस्तु। इति हृदयम्। (उदकोपस्पर्शनम्) ॐ उरो मे क्षत्रामस्तु। इति हृदयमेव। ॐ पृष्ठं मे राष्ट्रमस्तु। इति पृष्ठवंशम्। ॐ उदरे मे राष्ट्रमस्तु इति उदरम्। ॐ अंसौ मे राष्ट्रंस्तां। इत्यंशौ ॐ ग्रीवाश्चमे राष्ट्रं सन्तु। इति ग्रीवा। ॐ श्रोणी में राष्ट्रंस्तां कटिद्वयम्। ॐ ऊरू मे राष्ट्रंस्तां। इत्यूरू। ॐ अरत्नी मे राष्ट्रंस्तां इत्यरत्नी। ॐ जानुनी मे राष्ट्रंष्तां इति जानुनी। ॐ विशो मेऽङ्गानि सर्वत्रा सन्तु। इति सर्वाङ्गानि। ॐ नाभिर्मे वित्तमस्तु। इति नाभिम्। ॐ नाभिर्मे विज्ञानमस्तु। इति नाभिमेव। ॐ पायुर्मेऽपचितिरस्तु। इतिपायुं। ॐ भसन्मेऽपचितिरस्तु। इति पायुमेव। ॐ आनन्दनन्दावाण्डौ मे स्तां। इत्यण्डौ। ॐ भगो मे यशोऽस्तु। इति लिङ्म् ॐ सौभाग्यं मे यशोऽस्तु। इति लिङ्मेव। ॐ जङ्घाभ्यां धर्मोऽस्मि। इति जंघे। ॐ पद्भ्îां धर्मोऽस्मि। इति पादौ। ॐ विशि राजा प्रतिसर्वदेहम्।
तदनन्तर आचार्य कुशकण्डिका कर। ॐ प्रजापतये स्वाहा0 से प्रारम्भ कर ॐ विश्ववम्र्मन् हविषा0 यहां तक हेाम प्रकरण के अनुसार हवन करे।
प्रधानहोम-एक हजार आठ या एक सौ आठ या अट्ठाइस या आठ आहूति प्रदान करे।
मूलनक्षत्राहोम-ओं असुन्वन्त मे यजमानमिच्छस्तेनस्येत्यामन्विर्हिंतस्करस्य। अन्यमस्मदिच्छ सातषाऽइन्द्र सगणो मरुद्मिः सोमं पिब वृत्राहा शूर विद्वान्। जहि शत्रूांरपमृधोनुदस्वा धा वयं कृणुहि विश्वतो नः स्वाहा।  
प्रत्यधिदेवता मंत्र-ॐ आपोहि ष्ठा मयोभुवस्तान ऊर्जे दधातन महे रणाय चक्षसे स्वाहा। आश्लेषामन्त्रा-ॐ नमोऽस्तुसर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः स्वाहा। अधिदेवता गुरु मन्त्र-ॐ बृहस्पते अतियदर्यो अर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु  यद्दीदयच्छवस ऋतं प्रजात तदसमासु द्रविणं धेहि चित्रंा स्वाहा। तत्प्रत्यधिदेवता पितृमन्त्रा-ॐ उषन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आवह पितृन् हविषे अत्तवे स्वाहा। मघा नक्षत्र मन्त्राहोम-पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः प्रपितामहेभ्यस्वधायिभ्यः स्वधानमः अक्षन् न पितरो मीमदंत पितरोतीतृपन्तः पितरः पितरः शुन्धघ्वं स्वाहा। तदधिदेवता सर्पमन्त्रा-ॐ नमोऽस्तु सर्पेति0 स्वा0 तत्प्रत्यधिदेवतामन्त्रा-ॐ भगं प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमान्धियमुदवाददन्नः भगं ँ नो जनय गोभिरश्वैर्भग प्रनृभिर्नृवन्तः श्याम  स्वाहा। ज्येष्ठानक्षत्रामन्त्राहोम-ॐ इन्द्र आसां नेतां बृहस्पतिर्दक्षिणायज्ञः पुर एतु सोमः। देवसेनानामभि- भञ्जयन्तीनाम्मरुतो यन्त्वग्रं स्वाहा। तदधिदेवतामन्त्रा-ॐ मित्रास्य च ऋषणीधृतो वो देवस्य सानसि। द्युम्नं चित्राश्रवस्तमं स्वाहा। तत्प्रत्यधिदेवता मन्त्र-ॐ असुन्वन्तम0 स्वाहा। रेवती मन्त्र होम-ॐ पूषन्तव व्व्रते व्ययन्न रिष्येम कदाचन स्तोतारस्त इह स्मसि  स्वाहा। अधिदेवतामन्त्रा-ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मा मा हि Ủ सीः। निवर्तयाम्यायुषेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायष्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय स्वाहा। प्रत्यधिदेवतामन्त्रा-ॐ यावाङ्कशा0 इत्यादि।
अश्विनी नक्षत्र मन्त्र होम-ॐ अश्विना तेजसा चक्षुः प्राणेन सरस्वती वीर्यम्। वाचेन्द्रो बलेनेन्द्राय दधुरिन्द्रियं स्वाहा। तदधिदेवता मन्त्र-ॐ पूषन्तव व्व्रते व्वयंन्न रिष्येम कदाचन। स्तोतारस्त इह स्मसि स्वाहा।
प्रत्यधिदेवतामन्त्रा-ॐयमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहा धर्माय स्वाहा
धर्मपित्रो स्वाहा। इति प्रधानादिदेवताहोम।
तदनन्तर नक्षत्र देवताओं को नाम मंत्रों के द्वारा प्रत्येक को आठ बार श्रुवा के द्वारा आहूति प्रदान कर स्विष्टत्कृद् होम करे। पुनः भूः से लेकर प्रजापति पर्यन्त नव आहुति करे। उसके बाद दिक्पालों के साथ-साथ बलिदान आदि सभी क्रियाओं केा करके

प्रधान कुम्भ में स्थित जल को लेकर ब्राह्मण, पत्नी शिशु सहित यजमान का अभिसिञ्चन करें। तदनन्तर मंगल स्नान के बाद दक्षिणा दान का संकल्प करें। ॐ अद्येह इदं घटं स्वर्णमूर्तिसहितं यथा नामगोत्रय0 उसके बाद कांस पात्र में स्थित घी में शिशु के मुख का अवलोकन कराना चाहिए। नए वस्त्र से आच्छादित शिशु केा माता के गोद में रखकर शंख ध्वनि के साथ पिता शिशु का घी से पूर्ण छाया पात्र में मुख देखकर एवं उसकी पत्नी विधिवत् मुख देखकर छाया पात्र संकल्प पूर्वक ब्राह्मण को दे। उसके बाद आवाहित देवताओं का उत्तरपूजन, सूर्याघ्र्यदान, 27 या 10 ब्राह्मणों को भोजन आदि कृत्य करे। आश्लेषादिगण्डान्तयोः प्रसवेऽपि इदमेवानुष्ठेयम्। इति मूलादिगण्डान्तशान्तिः।।

Mool Nakshatra मूल नक्षत्र :-

Mool Nakshatra मूल नक्षत्र :-

अश्वनी,आश्लेषा,मघा, ज्येष्ठा, मूल तथा रेवती  नक्षत्र  गण्डमूल नक्षत्र कहे जाते हैं. यह नक्षत्र संधि क्षेत्र में आने से  दुष्परिणाम देने वाले माने जाते हैं. इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों के सुखमय भविष्य के लिए इन नक्षत्रों की शांति करवानी आवश्यक मानी गई है. मूल शांति कराने से इनके कारण लगने वाले दोष शांत हो जाते हैं. अन्यथा इनके अनेक प्रभाव लक्षित होते हैं जो इस प्रकार से प्रभावित कर सकते हैं. अश्वनी  नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है.

आश्लेषा नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो शुभ ,दूसरे में धन हानि ,तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है. यह फल पहले दो  वर्षों में ही मिल जाता है.

मघा नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो माता के पक्ष को हानि ,दूसरे में पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है.

ज्येष्ठा नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो बड़े भाई को कष्ट ,दूसरे में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है. यह फल पहले वर्ष में ही मिल जाता है. ज्येष्ठा नक्षत्र एवम मंगलवार के योग में उत्पन्न कन्या अपने भाई के लिए घातक होती है.

मूल नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे में माता को कष्ट तीसरे में धन हानि तथा चौथे में शुभ होता है. मूल नक्षत्र व रवि वार के योग में उत्पन्न कन्या अपने ससुर का नाश करती है. यह फल पहले चार वर्षों में ही मिल जाता है.

मूल नक्षत्रों की शांति उपाय | Remedies for Mool nakshatra shanti

जन्म नक्षत्र के अनुसार देवता का पूजन करने से अशुभ फलों में कमी आती है तथा शुभ फलों की प्राप्ति में सहायता प्राप्त होती है. यदि आप अश्विनी, मघा, मूल नक्षत्र में जन्में हैं तो आपको गणेश जी का पूजन करना चाहिए. इस नक्षत्र में जन्में व्यक्तियों को माह के किसी भी एक गुरुवार या बुधवार को धूसर रंग के वस्त्र, लहसुनिया आदि में से किसी भी एक वस्तु का दान करना फलदायी रहता है. आपको मंदिर में झंडा फहराने से भी लाभ मिल सकता है.

यदि आप आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्र में जन्में हैं तो आपके लिए बुध का पूजन करना फलदायी रहता है. इस नक्षत्र में जन्में व्यक्तियों को माह के किसी भी एक बुधवार को हरी सब्जी, हरा धनिया, पन्ना, कांसे के बर्तन, आवला आदि वस्तुओं में से किसी भी एक वस्तु का दान करना शुभकारी रहता है.

मूल शांति पूजा | Mool shanti worship

उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त जो उपाय सबसे अधिक प्रचलन में है, उसके अनुसार यदि बच्चा गण्डमूल नक्षत्र में जन्मा है तब उसके जन्म से ठीक 27वें दिन उसी जन्म नक्षत्र में चंद्रमा के आने पर गंडमूल शांति पूजा करानी चाहिए. ज्येष्ठा मूल या अश्विनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक के लिउक्त नक्षत्रों से संबंधित मंत्रों का जाप करवाना चाहिये तथा मूल नक्षत्र शान्ति पूजन करना चाहिए तथा ब्राह्मणों को दान दक्षिणा एवं भोजन कराना चाहिए. यदि किसी कारणवश 27वें दिन यह पूजा नहीं कराई जा सकती तब माह में जिस दिन चंद्रमा जन्म नक्षत्र में होता है तब इसकी शांति कराई जा सकती है.

Mool Nakshatra in detail -
मूल नक्षत्र :-
अश्वनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती गंडमूल नक्षत्र कहलाते हैं।
इन नक्षत्रों में जन्मे बालक का 27 दिन तक उसके पिता द्वारा मुंह देखना वर्जित होता है। जन्म के ठीक 27वें दिन उसी नक्षत्र में इसकी मूल शांति करवाना अति आवश्यक होता है। ऐसा ग्रंथों में वर्णित है। सभी नक्षत्रों के चार-चार चरण होते हैं इन्हीं प्रत्येक चरणों के अनुसार माता, पिता, भाई, बहन या अपने कुल में किसी पर भी अपना प्रभाव दिखाते हैं। प्रायः इन नक्षत्रां में जन्मे बालक-बालिका स्वयं के लिए भी भारी हो सकते हैं।
अगर किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा, रेवती, अश्विनी, श्लेषा, मघा, ज्येष्ठा तथा मूल नक्षत्रों में से
किसी एक नक्षत्र में स्थित हो तो कुंडली धारक का जन्म गंड मूल में हुआ माना जाता है अर्थात उसकी कुंडली में गंड मूल दोष की उपस्थिति मानी जाती है। 27 नक्षत्रों में से उपर बताए गए 6 नक्षत्रों में चन्द्रमा के स्थित होने से यह दोष माना जाता है जिसका अर्थ यह निकलता है कि यह दोष लगभग हर चौथी-पांचवी कुंडली में बन जाता है। किन्तु यह धारणा ठीक नहीं है यह दोष इतनी अधिक कुंडलियों में नही बनता। ते हैं वास्तव में है क्या तथा चन्द्रमा के इन 6 विशेष नक्षत्रों में उपस्थित होने से ही यह दोष क्यों बनता है। यह दोष हर चौथी-पांचवी कुंडली में नहीं बल्कि हर 18 वीं कुंडली में ही बनता है। आइए अब इस दोष की प्रचलित परिभाषा तथा इसके विशलेषण से निकली परिभाषा की आपस में तुलना करें। प्रचलित परिभाषा के अनुसार यह दोष चन्द्रमा के उपर बताए गए 6  नक्षत्रों के किसी भी चरण में स्थित होने से बन जाता है जबकि वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार यह दोष
चन्द्रमा के इन 6 नक्षत्रों के किसी एक नक्षत्र के किसी एक विशेष चरण में होने से ही बनता है, न कि उस नक्षत्र के चारों में से किसी भी चरण में स्थित होने से। इस: चन्द्रमा रेवती नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों अथवा चन्द्रमा अश्विनी नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों अथवा चन्द्रमा श्लेषा नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों अथवा चन्द्रमा मघा नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों अथवा चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों अथवा चन्द्रमा मूल नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों इस दोष से जुड़े बुरे प्रभावों के बारे में भी जान लें। गंड मूल दोष भिन्न-भिन्न कुंडलियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बुरे प्रभाव देता है जिन्हें ठीक से जानने के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि कुंडली में चन्द्रमा इन 6 में से किस नक्षत्र में स्थित हैं, कुंडली के किस भाव में स्थित हैं, कुंडली के दूसरे सकारात्मक या नकारात्मक ग्रहों का चन्द्रमा पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ रहा है, चन्द्रमा उस कुंडली विशेष में किस भाव के स्वामी हैं तथा ऐसे ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य। इस प्रकार से अगर यह दोष कुछ कुंडलियों में बनता भी है तो भी इसके बुरे प्रभाव अलग-अलग कुंडलियों में अलग-अलग तरह के होते हैं तथा अन्य दोषों की तरह इस दोष के बुरे प्रभावों को भी किसी विशेष परिभाषा के बंधन में नहीं बांधना चाहिए बल्कि इस दोष के कारण होने वाले बुरे प्रभावों को उस कुंडली के गहन अध्ययन के बाद ही निश्चित करना चाहिए। मूल नक्षत्रों का जीवन पर प्रभाव अश्वनी नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है आश्लेषा नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो शुभ ,दूसरे में धन हानि ,तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है. यह फल पहले दो वर्षों में ही मिल जाता है. मघा नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो माता के पक्ष को हानि ,दूसरे में पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है. ज्येष्ठा नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो बड़े भाई को कष्ट ,दूसरे में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है. यह फल पहले वर्ष में ही मिल जाता है. ज्येष्ठा नक्षत्र एवम मंगलवार केयोग में उत्पन्न कन्या अपने भाई के लिए घातक होती है. मूल नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे में माता को कष्ट तीसरे में धन हानि तथा चौथे में शुभ होता है. रेवती नक्षत्र व रवि वार के योग में उत्पन्न कन्या अपने ससुर का नाश करती है. यह फल पहले चारवर्षों में ही मिल जाता है. मूल नक्षत्रों की शांति उपाय मूल नक्षत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों के सुखमय भविष्य के लिए इन नक्षत्रों की शांति करवानी आवश्यक मानी गई है. मूल शांति कराने से इनके कारण लगने वालेदोष शांत हो जाते हैं. अन्यथा इनके अनेक प्रभाव लक्षित होते हैं जो इस प्रकार से प्रभावित कर सकते हैं दोष के निवारण के उपायों के बारे में बात करें। इस दोष के निवारण का सबसे उत्तम उपाय इस दोष के निवारण के लिए पूजा करवाना ही है। यह पूजा सामान्य पूजा की तरह न होकर एक तकनीकी पूजा होती है जन्म नक्षत्र के अनुसार देवता का पूजन करने से अशुभ फलों में कमी आती है तथा शुभ फलों की प्राप्ति में सहायता प्राप्त होती है. यदि आप अश्विनी, मघा, मूल नक्षत्र में जन्में हैं तो आपको गणेश जी का पूजन करना चाहिए. इस नक्षत्रमें जन्में व्यक्तियों को माह के किसी भी एक गुरुवार या बुधवार को हरा रंग के वस्त्र, लहसुनिया आदि में से किसी भी एक वस्तु का दान करना फलदायी रहता है. आपको मंदिर में झंडा फहराने से भी लाभ मिल सकता है.यदि आप आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्र में जन्में हैं तो आपके लिए बुध का पूजन करना फलदायी रहता है. इस नक्षत्र में जन्में व्यक्तियों को माह के किसी भी एक बुधवार को हरी सब्जी, हरा धनिया, पन्ना, कांसे के बर्तन, आवला आदि वस्तुओं में से किसी भी एक वस्तु का दान करना शुभकारी है|

मूल शांति पूजा |
उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त जो उपाय सबसे अधिक प्रचलन में है,उसके अनुसार यदि बच्चा गण्डमूल नक्षत्र में जन्मा है तब उसके जन्म से ठीक 27वें दिन उसी जन्म नक्षत्र में चंद्रमा के आने पर गंडमूल शांति पूजा करानी चाहिए. ज्येष्ठा मूल या अश्विनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक उक्त नक्षत्रों से संबंधित मंत्रों का जाप करवाना चाहिये तथा मूल नक्षत्र शान्ति पूजन करना चाहिए यदि किसी कारणवश 27वें दिन यह पूजा नहीं कराई जा सकती तब माह में जिस दिन चंद्रमा जन्म नक्षत्र में होता है तब इसकी शांति कराई जा सकती हैं।


ASHLESHA   आश्लेषा नक्षत्र

गण्ड नक्षत्र               
जिन नक्षत्रो पर राशि का प्रारम्भ या अंत होता है तथा इसके साथ ही इन नक्षत्रो के चरण का प्रारम्भ या अंत भी होता है वे गण्ड नक्षत्र कहलाते है। इनको गण्डात, मूल या घातक नक्षत्र भी कहते है।
➧ नक्षत्र और राशि द्वय का साथ-साथ अंत होता है उसे ऋक्ष सन्धि कहते है। इस प्रकार कर्क और अाश्लेषा, वृश्चिक और ज्येष्ठा, मीन और रेवती का युगपत अंत होने से केवल कर्कान्त, वृश्चिकान्त, मीनांत का नाम ही ऋक्ष सन्धि है, इन्हे ही गण्डान्त नक्षत्र कहते है।
➧ सृष्टि, स्थिति, संहार ये तीन खंड राशि चक्र मे पड़ते है। इनका प्रारम्भ अश्विनी, मघा, मूल से माना जाता है। ये ही खन्डान्त कहलाते है। कालांतर मे खन्डान्त ही गण्डान्त हो गये। इस प्रतीती अनुसार कुल गण्डान्त या मूल अनुसार 1- अश्विनी, 2- अश्लेषा, 3- मघा, 4- मूल, 5- ज्येष्ठा, 6-रेवती छह हो गये।

अश्लेषा नक्षत्र
राशि चक्र मे 106।40 से 120।00 अंश विस्तार का क्षेत्र आश्लेषा नक्षत्र कहलाता है। अरब मंजिल मे यह अल टर्फ अर्थात शेर की दृष्टि, ग्रीक मे हायड्री, चीन सियु मे लियू कहलाता है।  आश्लेषा का अर्थ आलिंगन करना है, लेकिन नक्षत्रो मे यह सबसे भयानक माना जाता है। इसके तारो की संख्या मे भी मतभेद है, खंडकातक इसके तारे छह और आकृति चक्र या पहिया मानते है।  जबकि वराहमिहिर इसके पांच तारे और आकृति सर्पाकार मानते है।
 देवता सर्प, स्वामी ग्रह बुध, राशि कर्क 16।40 से 30।00अंश।  यह भारतीय खगोल मे 9 वा तीक्ष्ण संज्ञक गण्ड नक्षत्र है। इसके छह तारे है। इसके छह तारे चक्र या वृत्त या पहिये की आकृति बनाते है। यह शोकद, तामसिक, स्त्री नक्षत्र है। इसकी जाति चांडाल, योनि मार्जार, योनि वैर मूषक, गण राक्षस, नाड़ी आदि है। यह दक्षिण दिशा का स्वामी है।  ज्योतिष के 27 नक्षत्रो मे सबसे खौफनाक और डरावना नक्षत्र है।  यह आनंदीशीशा या अनंत अथवा शेषनाग (विष्णु का सर्प या विष्णु शय्या) और वासुकी (शिव का सर्प) नामक दोनो सर्पो  का जन्म नक्षत्र है।  कलियुग का प्रारम्भ भी इसी नक्षत्र से हुआ है।  दक्षिण भारत में इसे  v;fY;e कहते है। संस्कृत&aआश्लेष% ¼vk$f'y"k~$"k¥~½ का अर्थ आलिंगन]होता है।

प्रतीकवाद - इसके देवता सर्प है। नाग: अर्थात सांप (विशेषकर काला सांप) एक काल्पनिक नाग पातालवासी दैत्य जिसका मुख मनुष्य जैसा और पूंछ सांप जैसी होती है। पाश्चात्य ज्योतिष मे इसके समानांतर नक्षत्र "हीड्रा" है, हीड्रा का चिन्ह जलीय नागिन है। भारत मे सांप को नाग देवता कहते है और श्रावण शुक्ल पंचमी को नाग की पूजा करते है।

नाग देवता
सर्प ऊर्जा, रूपान्तरण, परिवर्तन, रचनात्मकता का प्रतीक है। प्रायः विषधारी सर्पदंश के कारण प्राणी की मृत्यु हो जाती है, इसलिये यह भयंकारी और घृणा का पात्र है।  प्राचीन मिथक है कि विष कन्या, तिलिस्म और खजाना का सम्बन्ध सर्प से होता था।  सांप भी कुण्डलिनी की शक्ति है। जो मनुष्य के मूलाधार चक्र मे सुप्तावस्था मे कुण्डलाकार नागिन के रूप मे स्थित है।  इसी प्रकार शिव के गले मे सर्प समस्त बुराई, राक्षसी प्रवृत्ति और प्रकृति के नाश का प्रतीक है। विष्णु अवतार के साथ शेषनाग के अवतार भी हुए है जैसे राम के साथ लक्ष्मण, कृष्ण के साथ बलराम।

समुद्र मंथन

पौराणिकता अनुसार दुर्वाशा के शाप वश देवताओ और राजा बलि की प्रमुखता मे दानवो ने मन्दिराचल पर्वत और वासुकि सर्प रूपी मथनी से क्षीर सागर (क्षीर = दूध, सागर = समुद्र) मंथन किया, इसमे 14 (मतान्तर 9 से 18) रत्न प्राप्त हुऐ थे।


विशेषताएँ : यह एक गुप्त रहश्यमय नक्षत्र है।  जातक की आंखे सांप जैसी होती है। जातक शत्रु को परास्त करने वाला होता है, इसमे विश्लेषण शक्ति की प्रबलता होती है। वैदिक ज्योतिष मे 9 वा भाव धर्म का होता है और इस नौवे नक्षत्र में जन्मा जातक धर्म विरोधियो को नुकसानप्रद, अपराजितो को पराजित करने वाला होता है। इस नक्षत्र का गण राक्षस है इसी समूह के नक्षत्र मघा और विशाखा जातको का विवाह  जन्मांग का अध्ययन कर करना उपयुक्त होता है।  इसके अनुकूल अश्विनी, श्रवण, मघा और विशाखा नक्षत्र है।  मूल प्रतिकूल नक्षत्र है।


जन्म नक्षत्र अाश्लेषा : विभूतियां
* वल्मीक रामायण अनुसार लक्ष्मण और शत्रुघ्न (जुडवा)
* माहत्मा गांधी (राष्ट्रपिता भारत)
* जवाहर लाल नेहरू (प्रथम प्रधान मंत्री भारत)
* इंदिरा गांधी (प्रथम महिला प्रधान मंत्री भारत)
* मदर टेरसा (नोबल शांति पुरस्कार, भारत रत्न)
* लिन्डन जानसन (अमेरिकन राष्ट्रपति)
* महारानी एलिज़ाबेथ (प्रथम और द्वितीय, इंग्लॅण्ड)

नक्षत्र फलादेश
इस नक्षत्र मे बुध ग्रह का प्रभाव व्यापार, व्यवसाय, कानून, साक्षरता, वाणी, युद्ध युक्तिया होता है। इसकी विशेष रूप से निर्माण के लिए शक्तिशाली ऊर्जा और मनोगत कौशल से भारतीय भयभीत होकर इसे विनाशकारी मानते है। आश्लेषा एक रहश्यमय जगह है जहा आंतरिक शक्ति का अन्तरिम रूप से एहशास होता है। इसका प्रतीक चिन्ह फन फैलता हुआ सांप है, यह कृत्रिम मोह निद्रा, करिश्माई बाते, आन्तरिक रहश्यो मे महारत, दूसरो पर शक्ति का द्योतक है। जातक धर्म विरोधियो को कष्ट दायक होता है। यह समस्त पदार्थो को खाने वाला, मांसाहारी, क्रूर, कृतघ्न, धूर्त, दुष्ट और अपना कार्य करने वाला होता है।

पुरुष जातक - जातक असभ्य, गंवार जैसी आकृति वाला, ठिगना, कृतघ्न, जीवन दाता का भी एहसान फरामोश, दिखावटी ईमानदार और गमगीन, वाचाल, मनमोहक भाषी, संगठन वादी, नैसर्गिक नेता, राजनीति मे उच्च शिखर पर पहुंचने वाला, चरित्रवान, देश का नेता होने योग्य होता है। यह देखा जाता है कि कुछ जातक कायर, डरपोक, कमजोर दिलवाले, मृदुभाषी, लोक में घमंडी भी होते है।
यह आसानी से दूसरो पर विश्वास नही करता है जबकि यह कालाबाजारी, चोर और हत्यारो का साथी होता है। अमीर-गरीब , अच्छा-बुरे मे भेद-भाव नही करने वाला, स्वतंत्रता प्रेमी, बलदानी होता है। इसे न तो धोखा देना और न ही धोखा खाना, न ही छ्ल-कपट से धन हड़पना पसंद होता है। यह गैर जरुरतमंदो का मददगार और जरुरतमंदो की उपेक्षा करने वाला होता है।
जातक सौभाग्यशाली, शान्त, प्रसिद्ध, निगरानी पर जहा शांत रहना है वह क्रोधी और जहा गुस्सैल होना है वहा शांत रहता है। जातक की शिक्षा वाणिज्य या कला संकाय मे होती है।  व्यवसाय मे तेजी से उन्नति होती है और अचानक घाटा होता है। 35-36 उम्र वर्ष में भारी आर्थिक हानि होती है और 40 की अवस्था मे अचानक बिना कमाए ही आर्थिक लाभ होता है। जातक परिवार मे वरिष्ठ होता है, पत्नी इसे समझ नही पति है और सम्पति को परिवार के अन्य सदस्यो को देना नही चाहती है।  जातक दवाइयो का आदी होता है।

स्त्री जातक : स्त्री जातक मे भी वही गुण-दोष होते है जो पुरुष जातक में होते है, अंतर इस प्रकार है :- स्त्री जातक अच्छी नही लगती, यदि मंगल इस नक्षत्र मे हो, तो सुंदरी होती है।  यह स्व-नियंत्रण मे रहने वाली, देखभाल नही करने वाली, शर्मीली, चरित्रवान, सम्मान प्राप्त करने वाली, वाक्पटुता से शत्रु नाशक होती है।
यह कार्यालयीन कार्य मे दक्ष, शिक्षित हो, तो प्रशानिक अधिकारी, अशिक्षित हो, तो मछली बेचने वाली या कृषिकर्मी होती है।  यह गृह प्रशासन मे दक्ष होती है।  इसे सुसराल सम्बन्धियो से सतर्क रहना चाहिए क्योकि वे पति से मनमुटाव कराने की योजनाकारी होते है।

आचार्यो अनुसार फलादेश
आश्लेषा  नक्षत्र के देवता सर्प है अतएव जातक सांप की तरह भयंकर फुंकारने वाला, गुस्सा इनकी नाक पर रखा होता है। ये बात-बात मे उत्तेजित हो जाते है।  ये पापाचरण मे प्रवीण, चकमा देने मे माहिर होते है। आंखे छोटी लेकिन खतरनाक, क्रूर और सख्त आचरण इनकी पहचान होती है। - पराशर
ये लोग बहुत व्यसनी होते है और व्यसन भी जल्दी पड़ जाते है। स्वभाव से देने के इच्छुक, मिल-बांट कर खाने वाले, दोस्तों के दोस्त होते है। व्यर्थ धन खर्च करना इनका स्वभाव होता है।  - ढुण्ढिराज
इनकी काम वासना प्रबल, बिना प्रयोजन दूसरो को सतना इनकी आदत होती है। खाने-पीने के मामलो मे असात्विक अतएव सर्वभक्षी, अहसान फ़रामोश, धूर्त, धोखेबाज होते है। - वराहमिहिर 
ये अवक्र होते है।  अवक्र का तात्पर्य सीधी सपाट बात कहने वाले,  कष्ट सहने मे धैर्यशाली होते है। - नारद

चन्द्र - चन्द्र इस नक्षत्र मे हो, तो जातक नायक, राजनीति मे सफल, गुप्तरूपी, मनोरंजन करने वाला, ज्योतिष मे आत्म शक्ति वाला, अंतर्ज्ञानी, वक्ता, लेखक, मेघावी, अन्वेषक, आयोजक, कृतघ्न, कपटी, अपराधी होता है। इसे भोजन पर ध्यान रखना चाहिये।
आश्लेषा मे चन्द्र जातक भेदक, तीव्र, हिप्नोटिस्ट, प्रज्ञ होता है। यह अपराध मे परिपूर्ण, निंदा या अपमान नही सहन करने वाला, धूर्त, भटका हुआ, प्रतिहिंसक या बदला लेने वाला होता है।
जातक भुक्कड़ और उद्धमी होता है।  - वरामिहिर

सूर्य - यदि सूर्य आश्लेषा में हो, तो जातक व्यापार उन्मुख, महाजिद्दी, लालची, रायचंद, गुप्त, आध्यात्मिक, उत्तम संचार शक्ति वाला, सनकी, धोखेबाज, टाल-मटोल करने वाला होता है।

लग्न - यदि लग्न आश्लेषा में हो, तो जातक कामुक, मोहक, कृतध्न, क्रूर, अविकसित, अकेले समय की जरूरत वाला, अनेक दुशमन, धोखे और साजिश करने वाला होता है।

चरण फल
प्रथम चरण - इसका स्वामी गुरु है।  इसमे चन्द्र, बुध, गुरु ☾ ☿ ♃ का प्रभाव है।  कर्क 106।40 से 110।00 अंश। नवमांश धनु। यह भय, रोग, शत्रु का द्योतक है। जातक लम्बा, स्थूल देह, सुन्दर नेत्र और नाक, गौर वर्ण, लबे-चौड़े दांत, वक्ता  प्रतापी होता है।
स्त्री अथवा पुरुष जातक लक्ष्य पाने के लिए मेहनती होते है।  ये शत्रु को वश मे करने की कला के ज्ञाता, साथियो  और वरिष्ठो से प्रतिस्पर्धा मे विशिष्ट होते है।

द्वितीय चरण - इसका स्वामी शनि है। इसमे चन्द्र, बुध, शनि ☾ ☿ ♄ का प्रभाव है। कर्क 110।00 से 113।20 अंश। नवमांश मकर। यह तृप्ति, लोगो से सौदा या व्यवहार, ठगबाजी, ईच्छा, स्वत्व उन्मुखता, वित्त का द्योतक है। जातक छितरे अल्प रोम युक्त, स्थूल देह, दीर्घ सर व जांघ, रक्षक अथवा चौकीदार, कौआ के सामान चौकन्ना, स्फूर्तिवान होता है।
नक्षत्र के नकारात्मक लक्षण इस चरण मे देखे जाते है। जातक अत्यधिक मक्कार, बेहिचक दूसरो के लक्ष्य को रोकने वाला, अविश्वनीय होता है।  जातक को काबू मे रखना अत्यंत दुष्वार होता है। इसका खुद का मकान नही होता है यदि होता भी है तो किराये के मकान मे रहता है।

तृतीय चरण -  इसका स्वामी शनि है। इसमे चन्द्र, बुध, शनि ☾ ☿ ♄ का प्रभाव है। कर्क 113।20 से 116।40 अंश। नवमांश कुम्भ। यह गोपनीयता, छुपाव, योजना, माता पर कुप्रभाव का द्योतक है। जातक घड़ियाल के सामान सिर वाला, सुन्दर मुख व भुजा, कछुवे के समान गति, चपटी नाक, श्यामवर्णी, कुशिल्पी होता है। इस पाद मे जातक विश्वनीय होता है।  परन्तु दूसरे सभी लक्षण दूसरे पाद जैसे ही होते है। इन्हे चर्म रोग रहता है।

चतुर्थ चरण - इसका स्वामी गुरु है।  इसमे चन्द्र, बुध, गुरु ☾ ☿ ♃ का प्रभाव है। कर्क 116।40 से 120।00 अंश। नवमांश मीन। यह भ्रम, अति प्रयास या  संघर्ष (ग्रीक पौराणिकता अनुसार इसमे सर्प का कत्ल किया जाता है) खतरनाक धोखा, आमना-सामना, पिता के स्वास्थ पर दुष्प्रभाब का द्योतक है। जातक गौरवर्ण, मस्य सामान नेत्र, कोमल उदर, बड़ा वक्ष, लम्बी दाड़ी, पतले होंठ, बड़ी जांघे पतले घुटने वाला होता है।
इस पाद का जातक दूसरो को शिकार बनाने के बजाय खुद शिकार होता है। जीवन में सम्बन्ध बनाये रखने के लिये कठिन परिश्रम करता है।  नक्षत्र दुष्प्रभाव मे हो, तो गंभीर मनोरोग होते है।

नक्षत्रो के चरण फल आचर्यों ने सूत्र रूप मे कहे है लेकिन अंतर बहुत है।
यवनाचार्य : आश्लेषा के प्रथम चरण मे संतान हीन, द्वितीय मे पराया काम करने वाला, नौकर या एजेन्ट, तृतीय मे रोगी, चतुर्थ मे गण्डांत रहित भाग मे सुभग या सौभाग्यशाली होता है।  गण्डान्त मे अल्पायु होता है।
मनसागराचार्य :  पहले चरण मे चोर, दूसरे मे निर्धन, तीसरे मे देश मे पूज्य, चौथे मे कुल भूषण होता है।

आश्लेषा नक्षत्र ग्रह चरण फल
भारतीय मतानुसार सूर्य, बुध, शुक्र की आपस मे पूर्ण या पाद दृष्टि नही होती है क्योकि सूर्य से बुध 28 अंश, शुक्र 48 अंश से अधिक दूर नही हो सकते।
सूर्य
↝ आश्लेषा सूर्य यदि चंद्र से दृष्ट हो, तो जातक दूसरो के काम आने वाला, परिवार के कारण ताकत और हिम्मत हारा हुआ होता है।
↝ आश्लेषा सूर्य यदि मंगल से दृष्ट हो, तो जातक अपने परिजनो से घृणा करेगा, दूसरो को कष्ट पहुंचायेगा, जलीय रोगो से ग्रस्त होगा।
↝ आश्लेषा सूर्य यदि गुरु से दृष्ट हो, तो जातक परिवार मे सम्मानित, धन के लिए शासन पर आश्रित होगा।
↝ आश्लेषा सूर्य यदि शनि से दृष्ट हो, तो जातक निर्धन, पीलिया या लकवा पीड़ित होगा।

आश्लेषा सूर्य चरण फल
प्रथम चरण - जातक अत्यधिक लालची, महा जिद्दी, जनहित मे कष्ट पाने वाला, व्यापार के लिए  उन्मुख होता है। यदि अनुराधा या ज्येष्ठा मे लग्न हो, तो जातक देश के एक कोने से दूसरे कोने तक यात्रा करेगा। वह साधु बनकर तीर्थ यात्रा करेगा, गरीबो की सेवा करेगा, पैर और घुटनो मे रोग होगा।
द्वितीय चरण - जातक दूसरो की राय अनुसार चलने वाला, हिंसक, धात लगाने मे माहिर, अपमान सहन करने वाला, दुर्गति पाने वाला होता है। यदि लग्न ज्येष्ठा मे हो, तो पिता की जल्दी मृत्यु और पत्नी की उन्नति मे रूकावट होती है।
तृतीय चरण - जातक पराजित, दुर्बल, दरिद्र, बदला लेने वाला, बन्धु वियोग से दुःखी, आहत होने पर दुःख देने वाला होता है। लग्न अभिजीत या उत्तराषाढ़ा मे हो, तो प्यार करने वाली पत्नी लेकिन पित्त दोष युक्त होगी।
चतुर्थ चरण - जातक उत्तम संचार शक्ति वाला, टाल-मटोल करने वाला, मिल-बाट कर खाने वाला, पराये घर मे रहने वाला, संतान सुखहीन होता है। एक भाई प्रसिद्ध और जातक उससे लाभ लेने वाला होगा। यदि यह चरण लग्न में हो, तो आंखो मे नीरसता व दाग होंगे।

चन्द्र
↝ आश्लेषा चंद्र यदि सूर्य से दृष्ट हो, तो जातक भवन निर्माण से सम्बंधित होगा, वह दूसरो का सहायक नही होगा, शासकीय निम्न श्रेणी का नौकर होगा।
↝ आश्लेषा चंद्र यदि मंगल से दृष्ट हो, तो जातक क्रूर, परिवार का बदनुमा दाग, माता को कष्ट कारक होगा।
↝ आश्लेषा चंद्र यदि बुध से दृष्ट हो, तो जातक सेना या पुलिस मे कार्य रत होगा। पत्नी, संतान संपन्न होगा।
↝ आश्लेषा चंद्र यदि गुरु से दृष्ट हो, तो जातक सदाचारी, व्यवहारी, परिचर्या मे कुशल, सुखी जीवन होगा।
↝ आश्लेषा चंद्र यदि शुक्र से दृष्ट हो, तो जातक को सभी सुख मिलेगे, वह जलीय और यौन रोगो से पीड़ित होगा।
↝ आश्लेषा चंद्र यदि शनि से दृष्ट हो, तो जातक झूठ बोलने वाला, माता के विरुद्ध, प्रवासी होता है।

आश्लेषा चन्द्र चरण फल
प्रथम चरण - जातक नायक, राजनीति मे सफल, ज्योतिष मे आध्यात्म शक्ति वाला, अन्वेषक या भविष्यवक्ता, सत्य व न्याय का पक्षधर, दयालु होता है।
द्वितीय चरण - जातक कटुभाषी, उद्विग्न, अपराध मे परिपूर्ण, आलसी होता है। गुस्सा इनकी नाक पर रखा होता है। यदि मंगल शनि या राहु की युति हो, और लग्न शतभिषा द्वितीय चरण मे हो, तो मिर्गी की बीमारी होती है।
तृतीय चरण - जातक हिप्नोटिस्ट, भेद लेने वाला और भेद देने वाला, निन्दा या अपमान नही सहने वाला होगा। जातक को परिजनो से कष्ट होता है। कामेन्द्रिया रोग ग्रस्त होती है।
चतुर्थ चरण - जातक घरेलू वातावरण मे रहने वाला, मनोरंजन करने वाला, जलप्रिय, धूर्त. कपटी, व्यसनी होता है। अनैतिक कार्यो से और दूसरो के धन का दुर्पयोग कर धन अर्जित करेगा।

मंगल
↝ आश्लेषा मंगल यदि सूर्य से दृष्ट हो, तो जातक साहसी, शिक्षण संस्थान का अध्यक्ष होगा।
↝ आश्लेषा मंगल यदि चन्द्र से दृष्ट हो, तो जातक सदैव रोगी रहेगा, बड़ी आर्थिक हानि होगी जिसके बारे मे हमेशा सोचता रहेगा।
↝ आश्लेषा मंगल यदि बुध से दृष्ट हो, तो जातक परिवार से निष्काषित, निम्न स्तर के कार्यकारी, रिस्तेदारो का सीमित दायित्व, तंग दिल होगा।
↝ आश्लेषा मंगल यदि गुरु से दृष्ट हो, तो जातक राजनीति मे उच्च पद पर होगा।
↝ आश्लेषा मंगल यदि शुक्र से दृष्ट हो, तो जातक जातक धनी परिवार मे जन्म लेकर भी पारिवारिक झगड़ो के कारण निर्धन होगा। 
↝ आश्लेषा मंगल यदि शनि से दृष्ट हो, तो जातक जमीन-जायदाद वाला होता है।

आश्लेषा मंगल चरण फल
प्रथम व चतुर्थ चरण - जातक मिल-बाट कर खाने वाला, दूसरे के गृह मे निवास करने वाला, लड़ाई-झगड़े को उत्सुक, व्यर्थ गर्व करने वाला, बात-बात पर गुस्सा करने वाला, दीर्धायु होता है।
◾ यदि प्रथम चरण मे चन्द्र की युति हो और लग्न भी इस चरण मे हो, तो लोहे के औजार से घायल, नेत्र रोग से पीड़ित होगा।  राहु की युति हो, तो दम्पत्ति मे झगड़े होगे। 
◾चतुर्थ चरण मे शनि की युति हो, तो पत्नी से यौन सम्बन्धो मे असंतुष्टि होने से दूसरी औरतो से सहवास करेगा।
द्वितीय व तृतीय चरण - जातक कृश, विकलांग, महा क्रोधी, जरा सा छेड़ने पर उत्तेजित होने वाला, अति कामुक, बदला लेने वाला, पाप आचरणी होगा।
यदि द्वितीय चरण में राहु से युत हो, तो दास-दासियो से अनैतिक प्रेम और यौन संबंध होगे और जातक मे आत्महत्या की प्रवृत्ति होगी।
↝ मतान्तर -   तृतीय चरण में जातक निराश, क्रूर, नेत्र रोगी होता है।  वैवाहिक जीवन मे सामंजस्य नही होगा।  कुछ जातक पत्नी की हत्या कर कारावास का दण्ड पायेगे।

बुध
↝ आश्लेषा बुध यदि चन्द्र से दृष्ट हो, तो जातक जुलाहा, कपडा व्यवसायी, भवन निर्माणक होता है।
↝ आश्लेषा बुध यदि मंगल से दृष्ट हो, तो जातक शास्त्रज्ञ, लालची और क्रूर, औजार या शस्त्र बनाने वाला होता है।
↝ आश्लेषा बुध यदि गुरु से दृष्ट हो, तो जातक अतिबुद्धिमान, अच्छे-बुरे को समझने वाला, मृदुभाषी होता है।
↝ आश्लेषा बुध यदि शनि से दृष्ट हो, तो जातक अपने व्यवहार द्वारा लोगो से घृणा करेगा और शत्रुता मोल लेगा, परिवार से दूर रहेगा।

आश्लेषा बुध चरण फल
प्रथम और चतुर्थ चरण - जातक सुन्दर, व्यसनी, अनेक प्रकार के लाभ चाहने वाला, विष या जहरीले पदार्थ जैसे कीट नाशक आदि का व्यापारी, व्यापार मे धोखा देने वाला, षड्यंत्रकारी, पीड़ा देने वाला फेफड़ो का रोगी होता है।
↝ प्रथम चरण मतान्तर - जातक बुद्धिमान, सुन्दर, तौर-तरीके से काम करने वाला होगा।
↝ चतुर्थ चरण मतान्तर - जातक विज्ञान के क्षेत्र मे शिक्षित, केमिकल इंजीनियर, कृषि उत्पाद या खाद-बीज का व्यवसाय करेगा।
द्वितीय और तृतीय चरण - जातक धर्म और समाज का विरोध करने वाला, निर्धन, दरिद्री, मेला कुचेला रहने वाला, बदला कभी नही भूलने वाला, हत्यारा या जहर देने वाला, पेट्रोलियम पदार्थो का व्यवसायी, कामुक,  दुःखी, द्विभार्या वाला होता है।
↝  मतान्तर - जातक सवांददाता या अभिकर्ता, पर्यटनी, रेशम या सूत या कपडा व्यापारी, नशीली वस्तुओ का आदी, पेट के रोगो से ग्रस्त होता है।  दम्पत्ति मे 40 वे वर्ष तक झगड़े होते रहने के बाद मे सुधार होता है।

गुरु
↝ आश्लेषा गुरु यदि सूर्य से दृष्ट हो, तो जातक उच्च स्तर का राजनीतिज्ञ या सरकारी संस्था का अध्यक्ष होगा।
↝ आश्लेषा गुरु यदि चन्द्र से दृष्ट हो, तो जातक परिवार की तवाही का कारण और उस तवाही से प्राप्त धन-दौलत का उपभोग करेगा।
↝ आश्लेषा गुरु यदि मंगल से दृष्ट हो, तो जातक धन, पत्नी, सम्पत्ति सम्पन्न होगा।
↝ आश्लेषा गुरु यदि बुध से दृष्ट हो, तो उत्तराधिकार मे बहुत सम्पत्ति मिलेगी, राजनीति मे उच्च पद पर होगा।
↝ आश्लेषा गुरु यदि शुक्र से दृष्ट हो, तो स्त्रिया उसके सानिध्य का भरपूर लाभ लेगी और वह इन सम्बन्धो का पूरा लाभ उठायेगा।
↝ आश्लेषा गुरु यदि शनि से दृष्ट हो, तो जातक पुलिस मे उच्च पद पर होगा और शक्ति व धन का आनंद लेगा।

आश्लेषा गुरु चरण फल
प्रथम और चतुर्थ चरण - जातक नृप तुल्य, विलासी, खौफ पैदा करने वाला, रक्षक, कामवासना की प्रबलता वाला होता है।  स्त्री-पुरुष हमेशा साथ-साथ रहते है।
स्त्री जातक एक विष कन्या के सामान होती है और अपने पति के अपमान का बदला अवश्य लेती है।  यदि शुक्र दुर्बल होता है तो विधुर होकर पुनः विवाह करता है।
द्वितीय और तृतीय चरण - जातक दानशील, सत्य तपोनिष्ठ, आदरणीय, कर्तव्यनिष्ठ संतान होगी।  पत्नी दहेज़ मे विपुल संपत्ति लायेगी।  यदि लग्न तृतीय चरण मे हो, तो पूर्व जन्मो के सुकर्मो के कारण विरासत मे धन-सम्पत्ति, स्वस्थ, सुखी जीवन पायेगा।  उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी और अलग धर्म सिद्धांत स्थापित करेगा।

शुक्र
↝ आश्लेषा शुक्र यदि चन्द्र से दृष्ट हो, तो जातक की माता को कष्ट होता है।
↝ आश्लेषा शुक्र यदि मंगल से दृष्ट हो, तो जातक बुद्धिमान, कलाओ का व्याख्याता होगा।
↝ आश्लेषा शुक्र यदि गुरु से दृष्ट हो, तो जातक धूर्त लेकिन लोगो का मददगार होता है।
↝ आश्लेषा शुक्र यदि शनि से दृष्ट हो, तो जातक दुष्चरित्र, निर्धन, सुखी नही रह सकेगा।

आश्लेषा शुक्र चरण फल
प्रथम व चतुर्थ चरण - शुक्र सौन्दर्य व घृणा, भयानकता व भय देता है। जातक की आंखे छोटी और खौफनाक यानि विषधर के सामान, भय के कारण पूजित, महाकामी और विलासी, त्राटक मे रुचिवान, व्यसनी होता है।
↝ प्रथम चरण मे यदि चन्द्रमा से युत हो, तो वैवाहिक जीवन उथल पुथल होगा, कभी-कभी तो अलगाव, असामन्जस्य और तलाक होता है। मानसिक अनुरूपता का तो कई प्रश्न ही नही उठता है।
↝ चतुर्थ चरण मतान्तर - सरकार मे प्रतिष्ठित पद, शक्तियो का उपभोगी, राजनीति मे सबसे वांच्छित व्यक्ति फिर भी स्त्रियो के कारण सुखी नही होता है।
द्वितीय व तृतीय चरण - जातक दरिद्र, दुःखी, अकर्मण्य, कामुक, आलसी, क्रोधी, चतुर, अकारण दूसरो को क्षति पहुंचाने वाला, दण्ड देने में प्रवीण, विषैले प्राणियो का पालक, विषैले जीव-जंतु को वश मे करनेवाला होता है।
↝↝ तृतीय चरण मे लग्न हो और शुक्र चन्द्रमा से युत हो, तो जातक छोटी उम्र से ही व्यभिचारी होगा, जातक के 16 उम्र वर्ष के पूर्व ही यौन सम्बन्ध होते है।

शनि
↝ आश्लेषा शनि यदि सूर्य से दृष्ट हो, तो जातक पत्नी से प्राप्त सभी सुख व खान-पान से वंचित तथा माता को कष्ट दायक होगा।
↝ आश्लेषा शनि यदि चन्द्र से दृष्ट हो, तो जातक परिवार को कष्ट दायक होगा।
↝ आश्लेषा शनि यदि मंगल से दृष्ट हो, तो जातक शरीरिक रूप से कमजोर, शासक, सरकार से धन प्राप्त करेगा।
↝ आश्लेषा शनि यदि बुध से दृष्ट हो, तो जातक क्रूर सम्भाषण करने वाला, घमंडी होगा और अनावश्यक यात्राएं करेगा।
↝ आश्लेषा शनि यदि गुरु से दृष्ट हो, तो जातक कृषि से आय अर्जित करेगा, परिवार युक्त, प्रचुर धन-सम्पत्ति  का स्वामी होगा।
↝ आश्लेषा शनि यदि शुक्र से दृष्ट हो, तो जातक आकर्षक, जल या जलीय वस्तु का व्यवसाय करेगा।

आश्लेषा शनि चरण फल
प्रथम व चतुर्थ चरण - जातक विद्वान, विवेकशील, विष विशेषज्ञ, गूढ़ विषयो का ज्ञाता, तिलस्मी या जादूगर होता है।  कोई-कोई जातक धर्म और साधु-संत का रखवाला, दण्डाधिकारी, विधिवेत्ता होता है।
↝ अन्यत्र प्रथम चरण - जातक माता विहीन और निसंतान होगा।  कुछ ज्योतिर्विदो का मत है कि जातक की माता जीवित होगी लेकिन व्यस्तता के कारण देखभाल नही कर सकेगी।  व्यस्तता के अलावा अन्य कारण से जातक की माता की मृत्यु होगी।
↝ अन्यत्र चतुर्थ चरण - जातक पिता की सम्पत्ति नष्ट करेगा, पिता से कटु सम्बन्ध होगे। माता शराबी पति के कारण कष्ट उठायेगी।
द्वितीय व तृतीय चरण - जातक ऐश्वर्यशाली, सुख-दुःख दोनो देने वाला, दृढ़निश्चयी, क्षमा नही करने वाला, एहशान फरामोश, सर्वभक्षी, चकमा देने मे माहिर होता है।   
↝ अन्यत्र द्वितीय चरण - जातक कमजोर, अति योग्य, वैज्ञानिक, रसायन उद्योग से सम्बंधित होता है।  विदेश यात्राएं करेगा।
↝ अन्यत्र तृतीय चरण - जातक अनैतिक कार्यो से धन अर्जित करने वाला, संदिग्ध चरित्र, दलाल, अकारण क्रोधी होगा।  यदि मंगल की युति हो, तो स्त्री जातक पिता से त्यक्त होगी, कुछ मामलो मे पिता से मां और बेटी दोनो चरित्र हीनता के कारण त्यक्त होगी।

आश्लेषा राहु चरण फल
प्रथम चरण - यदि लग्न भी इस चरण मे हो, तो सब बुराइयो से बचा रहेगा, दीर्घायु होगा।
द्वितीय चरण - इस चरण में लग्न, शनि, मंगल, चन्द्र हो, तो सात वर्ष तक जीवित रहेगा।
तृतीय चरण - जातक भावुक, तनावग्रस्त, डॉक्टर या केमिस्ट होगा।  40 वर्ष वे बाद व्यवसाय मे सफल होगा।
चतुर्थ चरण - जातक परिजनो से त्यक्त, परिवार से अलग, पत्नी से त्यक्त, एकांकी जीवन जीता है।

आश्लेषा केतु चरण फल
प्रथम व चतुर्थ चरण - जातक नर्स या डॉक्टर अथवा केमिस्ट, मित्रो से युक्त, जमीन-जायदाद वाला होगा।
द्वितीय व तृतीय चरण - जातक साहसी, माता का आश्रयदाता, धार्मिक, पिता से कष्ट, विज्ञान विषयो का ज्ञाता, धनी, पर्यटक होता है।


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