वामा खेपा की तारापीठ की कथा.....
बंगाल के इतिहास में वीरभूमि जिला एक विख्यात जिला है। हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच शक्ति पीठ वीरभूमि में ही हैं। इसी कड़ी में उनीस्वी शताब्दी में वीरभूमिकी पवित्रता साधक वामा खेपा ने एक बार फ़िर बढाई।
राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है। इसी भूमि पर स्वयं मैंने भी अपनी सिद्धि, शव साधना द्वारा प्राप्त की।
यह वही जगह है जहा पर सुदर्शन चक्र ने माँ सती के नेत्र को काट कर गिराया था। इसी लिए इसका नाम तारापुर पड़ा। और आगे चल कर इस भूमि का नाम तारापीठ से प्रसिद्ध हुआ।
वाम मार्ग के प्रमुख्य साधक वामा खेपा महाराज की व्याख्या किए बिना वाम मार्ग का वर्णन अधुरा है। उत्सुक वाम भक्तो की जानकारी हेतु मैं यहाँ संचिप्त में वामा खेपा महाराज की जीवनी की व्याख्या कर रहा हूँ।
शास्त्र में कहा गया है समाज में जब भी जातिवाद की प्रथा बढ़ी है तो उसके उद्धार के लिए माँ ने अपने किसी न किसी दूत को जरुर भेजा है। इसी कड़ी में धरती पर वाम अवतार के रूप में वामा खेपा को माँ ने भेजा। यह ऐसे साधक हुए जो ब्रह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी किसी प्रकार के छूतछात में विश्वास नही रखते थे। तारापीठ से तीन मील की दुरी पर स्थित आतला ग्राम में १२४४ साल के फागुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन उनका जनम हुआ। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चटोपाध्याय था एवं वह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम श्रीमती राजकुमारी था तथा वह एक धर्मपरायण साध्वी स्त्री थीं। वामा खेपा की ४ बहने थी तथा वह दो भाई थे। वामा खेपा का नाम था वामा चरण एवं उनके छोटे भाई का नाम राम चरण था। ब्रह्मण परिवार होते हुए भी यह परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था। जिस कारण हमेशा घर में आभाव रहता था। कभी घर में चावल नही होता, तो कभी दाल नही तथा कभी सब्जी नही होती थी। तब भी वामा खेपा जी के पिता आनंदमय रहते थे तथा आँखों में आंसू लिए हुए सदा माँ का भजन करते रहते थे। गावं के लोग उनको सर्वा खेपा के नाम से चिढाते थे ( खेपा का अर्थ बंगाली में पगला होता है ) परन्तु वह हमेशा मस्त रहते थे। अपने पिता के संस्कार को देखते हुए बाल अवस्था में ही वामा चरण पाँच वर्ष की अल्प आयु में अपने हाथों से मिटटी की बहुत सुंदर माँ तारा की प्रतिमा बना लेते थे। एवं वह ऐसे भक्त थे की जब उन्हे माँ के बाल कैसे बनाएं समझ नही आया तो उन्होंने स्वयं अपने सारे बाल नोच कर माँ तारा की मूर्ति के सर पर लगा दिया था।
अपने तन मन की लगन से बनाई हुई यह मूर्ति एकदम सजीव लगती थी। पास में ही एक जावाफूल का पेड़ था। उसमें से फूल ले कर बालक वामा चरण एकाग्र होकर माँ तारा की पूजा करते रहते थे। घर में ही एक जामुन का भी वृक्ष था, उसी जामुन के फल से वह माँ तारा का भोग लगाते थे। तथा माँ से कहते थे की माँ तू पहले जामुन खा तभी मैं खाऊँगा। पर मूर्ति तो न कुछ बोलती थी और ना ही हिलती थी। इसपर बालक वामा चरण रोने लगते थे।
और जामुन वैसे ही मूर्ति के सामने रखे रहते थे। एक दिन उनके पिता ने यह देखा। तो उनकी आँखों में भी बाल भक्ति का यह अविस्मरनीय दृश देख कर आंसू आ गए। वामा चरण पिता जी को देखते ही उनसे पूछने लगे की माँ तारा कौन सा फल खाती हैं ? आप तो कितने फल ले कर पूजा करते हैं और कहते हैं की माँ मन ही मन फल खा लेती है और फ़िर हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। तो फिर मेरे फल क्यों नही खाती? तब सर्वानन्द जी ने वामा चरण को समझाया की तुम्हारी माँ तुम्हे खिलाये बिना क्या कभी खाती है या सोती है? माँ पहले अपने बालक को खिला कर ही स्वयम कुछ खाती है। उसी प्रकार यह जगत की माता सारे संसार के बच्चो को खिलाये बिना नही खाती। तब वामा चरण ने फ़िर पुछा की माँ तारा बोलती क्यों नही है? तब उनके पिता ने कहा की माँ से बात करने के लिए तपस्या करनी पड़ती है।
यह बात सुन कर बालक वामा चरण अपनी जन्मदात्री माँ के पास पहुंचे और उनसे जा कर पुछा की माँ क्या तुम तारा माँ के साथ मेरी बात करा सकती हो ? ऐसा सुन कर वामा चरण की माँ उन्हे ले कर चुपचाप पूजा ग्रह में माँ तारा के सामने बैठ गयीं। इसी तरह नित्य माँ तारा की आराधना करते करते वामा चरण की उम्र ग्यारह वर्ष तथा उनके भाई की उम्र पाँच वर्ष की हो गई। इसी बीच उनके पिता की सेहत ख़राब हो गई और मृत्यु शैया पर माँ तारा का नाम जपते हुए उनके प्राण निकल गए। उसी वक्त जब माँ तारापीठ के शमशान में वामा चरण ने अपने पिता का अन्तिम शंस्कार किया तब उन्हे माँ तारा के प्रथम बार शमशान में दर्शन हुए। विधवा माँ ने किसी तरह भीख मांग कर अपने पति के श्राद्ध का काम पूरा किया। मृत्यु की ख़बर पा कर वामा चरण के मामा नौ ग्राम से आ कर दोनों भाइयों को अपने घर ले गए। वामा चरण गाय चराने ले जाते थे तथा उनके छोटे भाई गायों के लिए घास कटते थे। इसके एवज में उन्हे आधा पेट झूठा भात खाने को दिया जाता था।
एक बार वामा चरण को एक बड़ी से टोकरी ले कर गोबर उठाने और राम चरण को घास काटने के लिए उनके मामा ने कहा। राम चरण की असावधानी के कारन वामा चरण की ऊँगली कट गई। तब राम चरण भाई भाई कह कर रोने लगे। तब तक इनकी गाय ने बगल के खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। उस खेत के मालिक ने मामा से शिकायत कर दी। मामा ने छड़ी लेकर वामा चरण को खूब मारा। उसी के बाद वामा भाग कर अपनी माँ के पास आतला ग्राम वापस लौट आए। और राम चरण को एक साधू अपने साथ गाना सिखाने ले गए। तभी से वामा ने शमशान में रहना निश्चित किया।
उस दिन पूरनमासी थी, और शमशान में कई लोग बैठे थे। उनके पैर दबाते दबाते वामा सो गए।उसी बीच शमशान में बैरागी साधक गांजा पी कर उसके आग को एक जगह फेक दिया। हवा के झोंके से वह आग एक झोपडी में लग गई और देखते देखते सारे गाँव को झुलस दिया। गाँव वालों ने समझा की यह वामा चरण की गलती है। गाँव वाले उन्हें खोजने लगे। उनके डर से वामा चरण भक्त प्रहलाद की कहानी याद करते हुए आग में ख़ुद ही कूद गए। वह चिल्लाते रहे की मैंने आग नही लगायी है। धीरे धीरे पूरा गाँव आग में झुलस गया परन्तु वामा चरण कुंदन के समान आग से सकुशल निकल आए। और दौड़ते हुए अपनी माँ के पास अपने गाँव भाग गए।
आर्थिक स्तिथि ख़राब होने के कारन एक दिन उनकी माँ ने उन्हे बहुत भला बुरा कहा, उसी समय वामा घर से जो निकले तो फ़िर कभी अपने घर वापस नही आए। यहाँ से ही वामा चरण की साधना प्रारम्भ हुई। उसी समय तारापीठ के महा शमशान में शिमल वृक्ष के नीचे सिद्ध महापुरुष कैलाशपति बाबा आनेवाले थे। मोक्षानंद बाबा, गोसाईं बाबा आदि सभी ने वामा को वहा आश्रय दिया। प्रति दिन वामा जीवन कुंडा में स्नान करते और गांजा चुगते थे। कैलाशपति बाबा उनको बहुत मानते थे। कैलाशपति बाबा ने वामा को अपने शमशान में रहने का स्थान दिया। उनका खद्दोऊ पहन कर द्वारका नदी के ऊपर चलना और मुरझाये हुए तुलसी वृक्ष को हरा भरा कर देना जैसे आलौकिक कार्यों को देख कर वामा चकित रह गए। एक बार रात में कैस्लाश्पति बाबा ने वामा को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस दिन वामा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारो तरफ़ घेर कर खड़ी थी। यह देख कर वामा बेहोश हो गए। बाद में जय गुरु जय तारा कहते हुए वह सब आकृतियाँ विलीन हो गयीं। तब वामा ने साहस करके कैलाशपति बाबा को गांजा दिया।
काली पूजा की रात में वामा का अभिषेक कैलाशपति बाबा द्वारा हुआ। सिद्ध मंत्र पा कर वामा खेपा बिल्कुल उलट पलट हो गए। वह हमेशा शीमल वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप किया करते,परन्तु हमेशा अजीब अजीब आवाजें बिन बादल गर्जन होना, मरे बच्चो की कूदफांद, कान के पास गरम साँस का महसूस होना जैसी घटनाये वामा को और चंचल कर देती थी। शिव चतुर्दशी के दिन गुरुदेव का आदेश पा कर वामा फ़िर अपने आसन पर बैठे और सिद्ध बीज मंत्र का जाप शुरू किया। सुबह से शाम हो गई पर वामा तब भी तन्मय हो कर देवी माँ तारा के ध्यान में लगे रहे। रात बढ़ने लगी और घोर अन्धकार हो गया, वातावरण पूरा शांत था। रात में २ बजे के बाद वामा का शरीर कापने लगा और पूरा शमशान फूलो की महक से सुगन्धित हो उठा। अचानक आकाश से नीले प्रकाश की ज्योति फुट पड़ी। चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश हो गया और प्रकाश के बीचों बीच तारा माँ ने वामा खेपा को दर्शन दिए।
उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामन भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्रह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्रह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।
वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे।वहरोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बहार फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है। इसपर रानी बोली। " माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया"। इस पर माँ तारा बोली यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है।यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी। ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई।तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी।
इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
बंगाल के इतिहास में वीरभूमि जिला एक विख्यात जिला है। हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच शक्ति पीठ वीरभूमि में ही हैं। इसी कड़ी में उनीस्वी शताब्दी में वीरभूमिकी पवित्रता साधक वामा खेपा ने एक बार फ़िर बढाई।
राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है। इसी भूमि पर स्वयं मैंने भी अपनी सिद्धि, शव साधना द्वारा प्राप्त की।
यह वही जगह है जहा पर सुदर्शन चक्र ने माँ सती के नेत्र को काट कर गिराया था। इसी लिए इसका नाम तारापुर पड़ा। और आगे चल कर इस भूमि का नाम तारापीठ से प्रसिद्ध हुआ।
वाम मार्ग के प्रमुख्य साधक वामा खेपा महाराज की व्याख्या किए बिना वाम मार्ग का वर्णन अधुरा है। उत्सुक वाम भक्तो की जानकारी हेतु मैं यहाँ संचिप्त में वामा खेपा महाराज की जीवनी की व्याख्या कर रहा हूँ।
शास्त्र में कहा गया है समाज में जब भी जातिवाद की प्रथा बढ़ी है तो उसके उद्धार के लिए माँ ने अपने किसी न किसी दूत को जरुर भेजा है। इसी कड़ी में धरती पर वाम अवतार के रूप में वामा खेपा को माँ ने भेजा। यह ऐसे साधक हुए जो ब्रह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी किसी प्रकार के छूतछात में विश्वास नही रखते थे। तारापीठ से तीन मील की दुरी पर स्थित आतला ग्राम में १२४४ साल के फागुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन उनका जनम हुआ। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चटोपाध्याय था एवं वह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम श्रीमती राजकुमारी था तथा वह एक धर्मपरायण साध्वी स्त्री थीं। वामा खेपा की ४ बहने थी तथा वह दो भाई थे। वामा खेपा का नाम था वामा चरण एवं उनके छोटे भाई का नाम राम चरण था। ब्रह्मण परिवार होते हुए भी यह परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था। जिस कारण हमेशा घर में आभाव रहता था। कभी घर में चावल नही होता, तो कभी दाल नही तथा कभी सब्जी नही होती थी। तब भी वामा खेपा जी के पिता आनंदमय रहते थे तथा आँखों में आंसू लिए हुए सदा माँ का भजन करते रहते थे। गावं के लोग उनको सर्वा खेपा के नाम से चिढाते थे ( खेपा का अर्थ बंगाली में पगला होता है ) परन्तु वह हमेशा मस्त रहते थे। अपने पिता के संस्कार को देखते हुए बाल अवस्था में ही वामा चरण पाँच वर्ष की अल्प आयु में अपने हाथों से मिटटी की बहुत सुंदर माँ तारा की प्रतिमा बना लेते थे। एवं वह ऐसे भक्त थे की जब उन्हे माँ के बाल कैसे बनाएं समझ नही आया तो उन्होंने स्वयं अपने सारे बाल नोच कर माँ तारा की मूर्ति के सर पर लगा दिया था।
अपने तन मन की लगन से बनाई हुई यह मूर्ति एकदम सजीव लगती थी। पास में ही एक जावाफूल का पेड़ था। उसमें से फूल ले कर बालक वामा चरण एकाग्र होकर माँ तारा की पूजा करते रहते थे। घर में ही एक जामुन का भी वृक्ष था, उसी जामुन के फल से वह माँ तारा का भोग लगाते थे। तथा माँ से कहते थे की माँ तू पहले जामुन खा तभी मैं खाऊँगा। पर मूर्ति तो न कुछ बोलती थी और ना ही हिलती थी। इसपर बालक वामा चरण रोने लगते थे।
और जामुन वैसे ही मूर्ति के सामने रखे रहते थे। एक दिन उनके पिता ने यह देखा। तो उनकी आँखों में भी बाल भक्ति का यह अविस्मरनीय दृश देख कर आंसू आ गए। वामा चरण पिता जी को देखते ही उनसे पूछने लगे की माँ तारा कौन सा फल खाती हैं ? आप तो कितने फल ले कर पूजा करते हैं और कहते हैं की माँ मन ही मन फल खा लेती है और फ़िर हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। तो फिर मेरे फल क्यों नही खाती? तब सर्वानन्द जी ने वामा चरण को समझाया की तुम्हारी माँ तुम्हे खिलाये बिना क्या कभी खाती है या सोती है? माँ पहले अपने बालक को खिला कर ही स्वयम कुछ खाती है। उसी प्रकार यह जगत की माता सारे संसार के बच्चो को खिलाये बिना नही खाती। तब वामा चरण ने फ़िर पुछा की माँ तारा बोलती क्यों नही है? तब उनके पिता ने कहा की माँ से बात करने के लिए तपस्या करनी पड़ती है।
यह बात सुन कर बालक वामा चरण अपनी जन्मदात्री माँ के पास पहुंचे और उनसे जा कर पुछा की माँ क्या तुम तारा माँ के साथ मेरी बात करा सकती हो ? ऐसा सुन कर वामा चरण की माँ उन्हे ले कर चुपचाप पूजा ग्रह में माँ तारा के सामने बैठ गयीं। इसी तरह नित्य माँ तारा की आराधना करते करते वामा चरण की उम्र ग्यारह वर्ष तथा उनके भाई की उम्र पाँच वर्ष की हो गई। इसी बीच उनके पिता की सेहत ख़राब हो गई और मृत्यु शैया पर माँ तारा का नाम जपते हुए उनके प्राण निकल गए। उसी वक्त जब माँ तारापीठ के शमशान में वामा चरण ने अपने पिता का अन्तिम शंस्कार किया तब उन्हे माँ तारा के प्रथम बार शमशान में दर्शन हुए। विधवा माँ ने किसी तरह भीख मांग कर अपने पति के श्राद्ध का काम पूरा किया। मृत्यु की ख़बर पा कर वामा चरण के मामा नौ ग्राम से आ कर दोनों भाइयों को अपने घर ले गए। वामा चरण गाय चराने ले जाते थे तथा उनके छोटे भाई गायों के लिए घास कटते थे। इसके एवज में उन्हे आधा पेट झूठा भात खाने को दिया जाता था।
एक बार वामा चरण को एक बड़ी से टोकरी ले कर गोबर उठाने और राम चरण को घास काटने के लिए उनके मामा ने कहा। राम चरण की असावधानी के कारन वामा चरण की ऊँगली कट गई। तब राम चरण भाई भाई कह कर रोने लगे। तब तक इनकी गाय ने बगल के खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। उस खेत के मालिक ने मामा से शिकायत कर दी। मामा ने छड़ी लेकर वामा चरण को खूब मारा। उसी के बाद वामा भाग कर अपनी माँ के पास आतला ग्राम वापस लौट आए। और राम चरण को एक साधू अपने साथ गाना सिखाने ले गए। तभी से वामा ने शमशान में रहना निश्चित किया।
उस दिन पूरनमासी थी, और शमशान में कई लोग बैठे थे। उनके पैर दबाते दबाते वामा सो गए।उसी बीच शमशान में बैरागी साधक गांजा पी कर उसके आग को एक जगह फेक दिया। हवा के झोंके से वह आग एक झोपडी में लग गई और देखते देखते सारे गाँव को झुलस दिया। गाँव वालों ने समझा की यह वामा चरण की गलती है। गाँव वाले उन्हें खोजने लगे। उनके डर से वामा चरण भक्त प्रहलाद की कहानी याद करते हुए आग में ख़ुद ही कूद गए। वह चिल्लाते रहे की मैंने आग नही लगायी है। धीरे धीरे पूरा गाँव आग में झुलस गया परन्तु वामा चरण कुंदन के समान आग से सकुशल निकल आए। और दौड़ते हुए अपनी माँ के पास अपने गाँव भाग गए।
आर्थिक स्तिथि ख़राब होने के कारन एक दिन उनकी माँ ने उन्हे बहुत भला बुरा कहा, उसी समय वामा घर से जो निकले तो फ़िर कभी अपने घर वापस नही आए। यहाँ से ही वामा चरण की साधना प्रारम्भ हुई। उसी समय तारापीठ के महा शमशान में शिमल वृक्ष के नीचे सिद्ध महापुरुष कैलाशपति बाबा आनेवाले थे। मोक्षानंद बाबा, गोसाईं बाबा आदि सभी ने वामा को वहा आश्रय दिया। प्रति दिन वामा जीवन कुंडा में स्नान करते और गांजा चुगते थे। कैलाशपति बाबा उनको बहुत मानते थे। कैलाशपति बाबा ने वामा को अपने शमशान में रहने का स्थान दिया। उनका खद्दोऊ पहन कर द्वारका नदी के ऊपर चलना और मुरझाये हुए तुलसी वृक्ष को हरा भरा कर देना जैसे आलौकिक कार्यों को देख कर वामा चकित रह गए। एक बार रात में कैस्लाश्पति बाबा ने वामा को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस दिन वामा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारो तरफ़ घेर कर खड़ी थी। यह देख कर वामा बेहोश हो गए। बाद में जय गुरु जय तारा कहते हुए वह सब आकृतियाँ विलीन हो गयीं। तब वामा ने साहस करके कैलाशपति बाबा को गांजा दिया।
काली पूजा की रात में वामा का अभिषेक कैलाशपति बाबा द्वारा हुआ। सिद्ध मंत्र पा कर वामा खेपा बिल्कुल उलट पलट हो गए। वह हमेशा शीमल वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप किया करते,परन्तु हमेशा अजीब अजीब आवाजें बिन बादल गर्जन होना, मरे बच्चो की कूदफांद, कान के पास गरम साँस का महसूस होना जैसी घटनाये वामा को और चंचल कर देती थी। शिव चतुर्दशी के दिन गुरुदेव का आदेश पा कर वामा फ़िर अपने आसन पर बैठे और सिद्ध बीज मंत्र का जाप शुरू किया। सुबह से शाम हो गई पर वामा तब भी तन्मय हो कर देवी माँ तारा के ध्यान में लगे रहे। रात बढ़ने लगी और घोर अन्धकार हो गया, वातावरण पूरा शांत था। रात में २ बजे के बाद वामा का शरीर कापने लगा और पूरा शमशान फूलो की महक से सुगन्धित हो उठा। अचानक आकाश से नीले प्रकाश की ज्योति फुट पड़ी। चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश हो गया और प्रकाश के बीचों बीच तारा माँ ने वामा खेपा को दर्शन दिए।
उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामन भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्रह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्रह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।
वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे।वहरोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बहार फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है। इसपर रानी बोली। " माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया"। इस पर माँ तारा बोली यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है।यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी। ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई।तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी।
इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
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