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History of Naga, नागा का इतिहास


  • History of Naga, नागा का इतिहास

महाकुंभ, अर्धकुंभ या फिर सिंहस्थ कुंभ में आपने नागा साधुओं को अवश्य ही देखा होगा अथवा इनके विषय में सुना होगा। इनको देखकर अथवा इनके विषय में सुनकर आपके मन में यह प्रश्र भी आया होगा कि ये नागा साधु कौन हैं और कहां से आते हैं तथा कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं ?
आइए आज हम आप सभी से चर्चा करते हैं सनातन धर्म के इन शिव साधकों के विषय में और जितना हम समझ और जान पाएं हैं उतना आपको बताने का प्रयत्न करते हैं।
अत्यंत प्राचीन शब्द है "नागा"। यह शब्द संस्कृत के 'नग' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है। इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं। 'नागा' का अर्थ 'नग्न' रहने वाले व्यक्तियों से भी है। भारत में नागवंश और नागा जाति का बहुत पुराना इतिहास है। शैव पंथ से कई संन्यासी पंथों और परंपराओं का आरंभ हुआ माना गया है।
भारत में प्राचीन काल से नागवंशी, नागा जाति और दसनामी संप्रदाय के लोग रहते आए हैं। उत्तर भारत का एक संप्रदाय "नाथ संप्रदाय" भी दसनामी संप्रदाय से ही संबंध रखता है"। 'नागा' से तात्पर्य 'एकबहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है, जैसा कि हम सभी जानते है कि सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आद्य शंकराचार्य ने रखी थी।
शंकराचार्य का जन्म 8 वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। उस काल में भारत अत्यंत सम्रद्ध तो था परन्तु यहां के निवासी धर्म से विमुख होने लगे थे। भारत की धन संपदा को लूटने के लालच में आक्रमणकारी यहां आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए,लेकिन अगर सामान्य दृष्टि से देखें तो सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में आद्य शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए बहुत से बड़े कदम उठाए जिनमें से एक था, देश के चार कोनों पर चार पीठों (चार धाम) का निर्माण करना।
आदिगुरु आद्य शंकराचार्य को महसूस हो गया था कि मात्र आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का सामना करना संभव नहीं है बल्कि इसके लिए अधर्मियों से युद्ध करने के लिए धर्मयोद्धाओं की भी आवश्यकता है। तब उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को मजबूत बनाए और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें।
इसके लिए उन्होंने कुछ ऐसे मठों का निर्माण किया, जिनमे व्यायाम करने और तरह तरह के शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में और भी अखाड़े अस्तित्व में आ गए।
शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए आवश्यकता पडऩे पर शक्ति का भी प्रयोग करें। इस प्रकार विदेशी और विधर्मी आक्रमणों के उस काल में इन अखाड़ों ने एक भारत को सुरक्षा कवच देने का काम किया। विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं ने अनेकों युद्धों में हिस्सा लिया।
पृथ्वीराज चौहान के समय में हुए मोहम्मद गौरी के पहले आक्रमण के समय सेना के पहुँचने से पहले ही नागा साधुओं ने कुरुक्षेत्र में गौरी की सेना को घेर लिया था जब गौरी की सेना कुरुक्षेत्र और पेहोवा के मंदिरों को ध्वस्त करने का प्रयास कर रही थी। उसके बाद पृथ्वीराज की सेना ने गौरी की सेना को तराइन (तरावडी) में काट दिया था।
इस युद्ध के बाद पड़े कुम्भ में, नागा योद्धाओं को सम्मान देने के लिए, पृथ्वीराज चौहान ने नागाओं को कुम्भ में सर्वप्रथम स्नान करने का अधिकार दिया था। तब से यह परम्परा चली आ रही है कि कुम्भ का पहला स्नान नागा साधू करेंगे। इन नागा धर्म योद्धाओं ने केवल एक में ही नहीं बल्कि अनेकों युद्धों में विदेशी आक्रान्ताओं को टक्कर दी है।
दिल्ली को लूटने के बाद हरिद्वार के विध्वंस को निकले "तैमूर लंग" को भी हरिद्वार के पास हुई ज्वालापुर की लड़ाई में नागाओं ने मार भगाया था। तैमूर के हमले के समय जब अधिकांश राजा डर कर छुप गए थे, जोगराज सिंह गुर्जर, हरवीर जाट, राम प्यारी, धूलाधाडी, आदि के साथ साथ नागा योद्धाओं ने तैमूर लंग को भारत से भागने पर मजबूर किया था।
इसी प्रकार खिलजी के आक्रमण के समय नाथ सम्प्रदाय के योद्धा साधुओं ने कडा मुकाबला किया था। अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय जब उत्तर भारत के राजाओं ने स्वयं को तटस्थ कर दिया था और मराठा सेना पानीपत में हार गई थी तब मथुरा, वृन्दावन और गोकुल की रक्षा के लिए 40,000 नागा योद्धाओं ने अब्दाली से टक्कर ली थी।
पानीपत की हार का बदला लेने के लिए जब पेशवा माधवराव ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था तो नागा योद्धाओं ने अब्दाली के स्थानीय मददगारों को मारा था। इस प्रकार आप अब यह समझ चुके होंगे कि नागा साधू सनातन धर्म के रक्षक धर्म योद्धा हैं और यह सांसारिक सुखों से दूर रहकर केवल धर्म के लिए जीते हैं।
चलिए अब हम चर्चा करते हैं कि नागा साधू कौन बनते हैं तथा कैसे बनते हैं ?
नागाओं को आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इसी कारण नागा साधु बनने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन है। एक नागा साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए, इस प्रक्रिया को पूरा होने में कई वर्ष लग जाते हैं।
जब कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी भी सीधा अखाड़े में सम्मिलित नहीं किया जाता, पहले अखाड़ा अपने स्तर पर ये पता लगाता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है?
उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। पहले उसे नागा सन्यासी जीवन की कठिनता से परिचय कराया जाता है,अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसको ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है। उसके तप, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, ध्यान, संन्यास और धर्म का अनुशासन तथा निष्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं।
इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है। इसके बाद वह अपना श्राद्ध, मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर संन्यास धर्म मे दीक्षित होते है। अपना श्राद्ध करने का मतलब सांसारिक रिश्तेदारों से सम्बन्ध तोड़ लेना है। इसे आप इस प्रकार समझें कि उस साधु के लिए उसके सांसारिक रिश्ते उसके लिए और वह साधु अपने उन रिश्तों के लिए मृत समान हो जाते हैं।
यहां हम यह भी बता दें कि कुछ अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधु की दीक्षा दी जाती है। वैसे तो महिला नागा साधु और पुरुष नागा साधु के नियम कायदे समान ही है, अंतर मात्र इतना ही है की महिला नागा साधु को एक पीला वस्त्र लपेटकर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है। उन्हें नग्न स्नान की अनुमति नहीं है।
जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा को सफलतापूर्वक पार कर लेता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं और ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं जो नागाओं के प्रतीक और आभूषण हैं।
महापुरुष के पश्चात नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। अब ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।
नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती और अगर वस्त्र धारण करने हों, तो मात्र गेरुए रंग का एक वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। नागा साधुओं को शरीर पर केवल भस्म लगाने की अनुमति होती है। नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, उन्हें अपनी चोटी का त्याग करना होता है और जटा रखनी होती है।
नागा साधुओं को २४ घंटे में केवल एक ही समय भोजन करना होता है और वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सात घरों से भिक्षा मांगने पर कोई भिक्षा ना मिले, तो वह आठवें घर में भिक्षा मांगने भी नहीं जा सकता और उसे उस दिन भूखा ही रहना पड़ता है।
नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह अत्यंत कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है। दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है।
कुम्भ मेले के अलावा नागा साधु पूरी तरह से आम आबादी से दूर रहते हैं और गुफाओं, कन्दराओं मे कठोर तप करते हैं। ये लोग बस्ती से बाहर निवास करते हैं और ये किसी को प्रणाम नहीं करते केवल संन्यासी को ही प्रणाम करते हैं। ऐसे और भी कुछ नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले प्रत्येक नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं।
नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं, ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण हैं, नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। चिमटा हथियार भी है और इनका औजार भी।
नागा साधू अपने भक्तों को चिमटे से छूकर ही आशीर्वाद देते हैं। माना जाता है कि जिसको सिद्ध नागा साधू का चिमटा छू जाए उसका कल्याण हो जाता है। आधुनिक आग्नेयास्त्रों के आने के बाद से इन अखाड़ों ने अपना पारम्परिक सैन्य चरित्र त्याग दिया है, अब इन अखाड़ों में सनातनी मूल्यों का अनुपालन करते हुए संयमित जीवन जीने पर ध्यान रहता है।
इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। प्रयागराज के कुंभ में उपाधि पाने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा, नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है। इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है।
इन प्रमुख अखाड़ों के नाम इस प्रकार हैं:-
श्री निरंजनी अखाड़ा, श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा, श्री महानिर्वाण अखाड़ा, श्री अटल अखाड़ा, श्री आह्वान अखाड़ा, श्री आनंद अखाड़ा, श्री पंचाग्नि अखाड़ा, श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, श्री वैष्णव अखाड़ा, श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा, श्री उदासीन नया अखाड़ा, श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा।
वरीयता के अनुसार इनको कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव जैसे पद दिए जाते हैं। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है। नागा साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं तथा तपस्या करने के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं।
एक बात यहां पर सिद्ध होती है कि नागा भी जिस मंत्र के द्वारा श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ कहलाते हैं वह मंत्र सिर्फ और सिर्फ गुरु के द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र ही होता है जिसका वह नित्य एक निश्चित संख्या में जप करते हैं और समाज में उच्च ही नहीं सर्वोच्च पद प्राप्त करते हैं।

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