तंत्र साधना, मंत्र साधना, यन्त्र साधना
Tantra Mantra Tantra Sadhna
पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा? उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं।
योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा।
कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है।
कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेग तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा।
षटकर्म
तांत्रिक साधना दो प्रकार की होती है-
1.एक वाम मार्गी तथा दूसरी 2.दक्षिण मार्गी।
वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है।
वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं।
शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि, विद्वेषणोच्चाटने तथा।
गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषणः॥
अर्थात 1.शांति कर्म, 2.वशीकरण, 3.स्तंभन, 4.विद्वेषण, 5.उच्चाटन, 6.मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म।
इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:-
मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम्।
आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर त्रिया तथा॥
1.मारण, 2.मोहनं, 3.स्तम्भनं, 4.विद्वेषण, 5.उच्चाटन, 6.वशीकरण, 6.आकर्षण, 8.यक्षिणी साधना, 9.रसायन क्रिया तंत्र के ये 9 प्रयोग हैं।
रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता।
विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्॥
पूधृत्तरोध सर्वेषां स्तम्भं समुदाय हृतम्।
स्निग्धाना द्वेष जननं मित्र, विद्वेषण मतत॥
प्राणिनाम प्राणं हरपां मरण समुदाहृमत्।
जिससे रोग, कुकृत्य और ग्रह आदि की शांति होती है, उसको शांति कर्म कहा जाता है
और जिस कर्म से सब प्राणियों को वश में किया जाए, उसको वशीकरण प्रयोग कहते हैं
जिससे प्राणियों की प्रवृत्ति रोक दी जाए, उसको स्तम्भन कहते हैं
दो प्राणियों की परस्पर प्रीति को छुड़ा देने वाला नाम विद्वेषण है
जिस कर्म से किसी प्राणी को देश आदि से पृथक कर दिया जाए, उसको उच्चाटन प्रयोग कहते हैं
जिस कर्म से प्राण हरण किया जाए, उसको मारण कर्म कहते हैं।
2- छः कर्म की अधिष्ठात्री देवियाँ:-
शांति कर्म की अधिष्ठात्री देवी रति है,
वशीकरण की देवी सरस्वती है,
स्तम्भन की लक्ष्मी,
ज्येष्ठा, उच्चाटन की दुर्गा
मारण की देवी भद्र काली है।
जो कर्म करना हो, उसके आरंभ में उसकी पूजा करें।
3-साधना की दिशा:- इसका तात्पर्य यह है कि जो प्रयोग करना हो उसी दिशा में मुख करके बैठें।
शान्ति कर्म ईशान दिशा में,
वशीकरण उत्तर से,
स्तम्भन पूर्व में,
विद्वेषण नेऋत्य में करना चाहिए,
षटकर्म दिशा निर्णय(की ओर मुख करके मंत्र जप):-
1-शांति कर्म- ईशान दिशा में की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
2-वशीकरण- (पुष्टि कर्म) उत्तर की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
3-स्तंभन- पूर्व की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
4-विद्वेष्ण- नैर्ऋत्य की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
5-उच्चाटन- वायव्य की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
6-मारण -प्रयोग आग्नेय दिशा की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
- तथा धन प्राप्ति हेतु पश्चिम
दिशा शूल विचार:-
मंगल बुध उत्तर दिशी काला,
सोम शनिश्चर पूरब न चाला।
रवी शुक्र जो पश्चिम जाय, होय हानि पथ सुख नहीं पाय।
गुरु को दक्षिण करे पयाना, ‘‘निर्भय’’ ताको होय न आना।।
दिन विचार:-
शांति कर्म- प्रयोग गुरुवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
वशीकरण- सोमवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
स्तंभन- गुरुवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
विद्वेषण- शनिवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
उच्चाटन- मंगलवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है। तथा
मारण- प्रयोग शनिवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
4-साधना की ऋतु
सूर्योदय से लेकर प्रत्येक रात-दिन में दस-दस घड़ी(हिंदू मापदण्ड के अनुसार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के समय को 1 दिवस कहा जाता है। 1 दिवस में 60 घटी (घड़ी) होते हैं, 1 घटी में 60 पल होते हैं और 1 पल में 60 विपल होते हैं। समय के वर्तमान मापदण्ड के अनुसार 1 पल 24 सेकंड का होता है।) में बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त, शिशिर ऋतु भोग पाया करती हैं। कोई-कोई तांत्रिक यह कहते हैं कि दोपहर से पहले-पहले बसंत, मध्य में ग्रीष्म,दोपहर पीछे वर्षा सांध्य के समय शिशिर, आधी रात पर शरद और प्रातः काल में हेमन्त ऋतु भोगता है।
हेमन्त -ऋतु में शान्ति कर्म करना उचित है।
बसंत- ऋतु में वशीकरण करना उचित है।
शिशिर -ऋतु में स्तम्भ करना उचित है।
ग्रीष्म- ऋतु में विद्वेषण करना उचित है।
वर्षा- ऋतु में उच्चाटन करना उचित है।
शरद- ऋतु में मारण कर्म करना उचित है।
षटकर्म में ऋतु विचार:- एक दिन-रात्रि में साठ घटि यानी 24 घंटे होते हैं जिनमें दस-दस घटि यानि चार-चार घंटे में प्रत्येक ऋतु को विभक्त किया जाता है।
1-बसंत ऋतु - सूर्योदय से चार घंटे के बाद को माना जाता है। बसंत में वशीकरण प्रयोग करना चाहिए।
2-ग्रीष्म ऋतु - बसंत ऋतु से चार घंटे के बाद को ग्रीष्म ऋतु माना जाता है। ग्रीष्म में विद्वेषण प्रयोग करना चाहिए।
3-वर्षा ऋतु - ग्रीष्म ऋतु से चार घंटे के बाद को वर्षा ऋतु माना जाता है। वर्षा में उच्चाटन प्रयोग करना चाहिए।
4-शरद ऋतु- वर्षा ऋतु से चार घंटे के बाद को शरद ऋतु माना जाता है। शरद ऋतु में मारण प्रयोग करना चाहिए। प्रयोग करना चाहिए।
5-हेमन्त ऋतु- शरद ऋतु ऋतु से चार घंटे के बाद को हेमन्त ऋतु माना जाता है।
हेमन्त ऋतु में शांति कर्म प्रयोग करना चाहिए।
6-शिशिर ऋतु- हेमन्त ऋतु से चार घंटे के बाद को शिशिर ऋतु माना जाता है। शिशिर में स्तंभन प्रयोग करना चाहिए।
कुछ आचार्य प्रातः काल को बसंत, मध्याह्न को ग्रीष्म, दोपहर बाद और संध्या के पहले के समय को वर्षा, संध्या समय को शिशिर, आधी रात को शरद और रात्रि के अंतिम प्रहर को हेमन्त कहते है।
इस प्रकार हेमन्त ऋतु में शांति कर्म, बसंत में वशीकरण, शिशिर में स्तंभन, ग्रीष्म में विद्वेषण, वर्षा में उच्चाटन और शरद ऋतु में मारण प्रयोग करना चाहिए।
समय विचार:-
दिवस के पहले प्रहर में वशीकरण, विद्वेषण और उच्चाटन,
दोपहर में शांति कर्म, तीसरे प्रहर में स्तंभन और संध्या काल में मारण का प्रयोग करना चाहिए।
6-हवन सामग्री का प्रकार:-
शान्ति कर्म में तिल, शुद्ध धृत और समिधा आम,
पुष्टि कर्म में शुद्ध घी, बेलपत्र, धूप, समिधा ढाक
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए धूप, खीर मेवा इत्यादि का हवन करें। समिधा चन्दन व पीपल का
आकर्षण व मारण में तेल और सरसों का हवन करें,
वशीकरण में सरसों और राई का हवन सामान्य है।
शुभ कर्म में जौ, तिल, चावल व
अन्य कार्यों में देवदारू और शुद्ध घी सर्व मेवा का हवन श्रेष्ठ है। सफेद चन्दन, आम, बड़, छोंकरा पीपल की लकड़ी होनी चाहिए।
5-साधना का समय:-
दिन के तृतीय पहर में शान्ति कर्म करें और
दोपहर काल के प्रहर वशीकरण और
दोपहर में उच्चाटन करें और
सायंकाल में मारण करें।
1 प्रातःकाल- हेमन्त ऋतु
2 मध्यान्म से पहले- ग्रीष्म ऋतु
3 दोपहर से पहले- बसंत ऋतु
4 दोपहर के बाद- वर्षा ऋतु
5 संध्या के समय- शिशिर ऋतु
6 आधि रात के समय- शरद ऋतु
6-सिद्ध योग:-
तिथि विचार:-
शांति कर्म- किसी भी तिथि को शुभ नक्षत्र में करना चाहिए, इसमें तिथि का विचार गौण है।
आकर्षण- प्रयोग नवमी, दशमी, एकादशी या अमावस्या को,
विद्वेषण- शनिवार और रविवार को पड़ने वाली पूर्णिमा को
उच्चाटन- षष्ठी, अष्टमी या अमावस्या (प्रदोष काल इस कार्य के लिये विशेष शुभ होता है) को, स्तंभन- पंचमी, दशमी अथवा पूर्णिमा को तथा
मारण- प्रयोग अष्टमी, चतुर्दशी या अमावस्या को करने से फल शीघ्र प्राप्त होता है।
तिथियों की पूर्ण जानकारी :-
तिथियाँ शुक्ल में भी पक्ष १५ होती है औ कृष्ण पक्ष में भी १५ होती है |
तिथियों के स्वामी :-
तिथियों के स्वामी
| |||||
तिथि
|
स्वामी
|
तिथि
|
स्वामी
|
तिथि
|
स्वामी
|
1-प्रतिपत
|
अग्नि
|
6 -षष्ठी
|
कार्तिकेय
|
11-एकादशी
|
विश्वदेव
|
2-द्वितीय
|
ब्राह्ग
|
7-सप्तमी
|
सूर्यदेव
|
12-द्वादशी
|
विष्णु
|
3-तृतीया
|
पार्वती शिव
|
8-अष्टमी
|
शिव
|
13-त्रयोदशी
|
कामदेव
|
4-चतुर्थ
|
गणेशजी
|
9 -नवमी
|
दुर्गाजी
|
14- चतुर्दशी
|
शिव
|
5-पंचमी
|
सर्पदेव(नाग )
|
10-दशमी
|
यमराज
|
15-पूर्णिमा
|
चन्द्रमा
|
30-अमावस्या
|
पित्रदेव
|
नोट -- जिस देवता की जो विधि कही गई है उस तिथि में उस देवता की पूजा , प्रतिष्ठा , शांति विशेष हितकर होती है |
तिथियों के खंड (पक्ष) अनुसार:- 1 शुभ अशुभ जानकारी (शुक्ल पक्ष)
प्रथम खंड अशुभ तिथियाँ
|
द्वितीय खंड मध्यम तिथियाँ
|
तृतीय खंड
शुभ तिथियाँ
|
नाम
|
1-प्रतिपत
|
6-षष्ठी
|
11-एकादशी
|
नंदा
|
2-द्वितीया
|
7-सप्तमी
|
12-द्वादशी
|
भद्रा
|
3-तृतीया
|
8-अष्टमी
|
13-त्रयोदशी
|
जया
|
4-चतुर्थी
|
9-नवमी
|
14-चतुर्दशी
|
रिक्ता
|
5-पंचमी
|
10-दशमी
|
15-पूर्णिमा
|
पूर्ण
|
तिथियों के खंड (पक्ष) अनुसार:- 2 शुभ अशुभ जानकारी (कृष्ण पक्ष)
प्रथम खंड शुभ तिथियाँ
|
द्वितीय खंड मध्यम तिथियाँ
|
तृतीय खंड
अशुभ तिथियाँ
|
नाम
|
1-प्रतिपत
|
6-षष्ठी
|
11-एकादशी
|
नंदा
|
2-द्वितीया
|
7-सप्तमी
|
12-द्वादशी
|
भद्रा
|
3-तृतीया
|
8-अष्टमी
|
13-त्रयोदशी
|
जया
|
4-चतुर्थी
|
9-नवमी
|
14-चतुर्दशी
|
रिक्ता
|
5-पंचमी
|
10-दशमी
|
15-पूर्णिमा
|
पूर्ण
|
नन्दा तिथियाँ - दोनों पक्षों की प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी (१,६,११) नन्दा तिथियाँ कहलाती हैं | प्रथम गंडात काल अर्थात अंतिम प्रथम घटी या २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए शुभ माना जाता है |
भद्रा तिथियाँ - दोनों पक्षों की द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी (२,७,१२) भद्रा तिथि होती है | व्रत, जाप, तप, दान-पुण्य जैसे धार्मिक कार्यों के लिए शुभ हैं |
जया तिथि - दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी व त्रयोदशी (३,८,१३) जया तिथि मानी गयी है | गायन, वादन आदि जैसे कलात्मक कार्य किये जा सकते हैं |
रिक्ता तिथि - दोनों पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है | तीर्थ यात्रायें, मेले आदि कार्यों के लिए ठीक होती हैं |
सिद्ध तिथि योग चक्रम
| |||
संज्ञक तिथि
|
तिथि
|
वार
|
योग का निर्माण
|
नन्दा तिथि
|
1 ,6 ,11
|
शुक्रवार
|
शुभ होता है ऐसा होने पर सिद्धयोग का निर्माण होता है।
|
भद्रा तिथि
|
2,7,12
|
बुधवार
|
सिद्धयोग का निर्माण करती है।
|
जया तिथि
|
3,8,13
|
मंगलवार
|
यह बहुत ही मंगलमय होता है , सिद्धयोग का निर्माण होता है।
|
रिक्ता तिथि
|
4,9,14
|
शनिवार
|
यह भी सिद्धयोगका निर्माण करती है।
|
पूर्णा तिथि
|
5,10,15,30
|
बृहस्पतिवार
|
सभी प्रकार के मंगलकारी कार्य के लिए शुभफलदायी कहा गया है।
|
पूर्णा तिथियाँ - दोनों पक्षों की पंचमी, दशमी और पूर्णिमा और अमावस (५,१०,१५,३०) पूर्णा तिथि कहलाती हैं | तिथि गंडात काल अर्थात अंतिम १ घटी या २४ मिनट पूर्व सभी प्रकार के लिए मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं |
इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |
१. युगादी तिथियाँ - सतयुग की आरंभ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेता युग आरम्भ तिथि – बैसाख शुक्ल तृतीया, द्वापर युग आरम्भ तिथि – माघ कृष्ण अमावस्या, कलियुग की आरंभ तिथि – भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी | इन सभी तिथियों पर किया गया दान-पुण्य-जाप अक्षत और अखंड होता है | इन तिथियों पर स्कन्द पुराण में बहुत विस्तृत वर्णन है |
२. सिद्धा तिथियाँ - इन सभी तिथियों को सिद्धि देने वाली माना गया है | इसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि इनमे किया गया कार्य सिद्धि प्रदायक होता है |
सिद्धा तिथियाँ
| |||
वार
|
तिथि
|
तिथि
|
तिथि
|
मंगलवार
|
३
|
८
|
१३
|
बुधवार
|
२
|
७
|
१२
|
गुरूवार
|
५
|
१०
|
१५
|
शुक्रवार
|
१
|
६
|
११
|
शनिवार
|
४
|
९
|
१४
|
पर्व तिथियाँ - कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और संक्रांति तिथि पर्व कहलाती है | इन्हें शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ा दिया जाता है |
प्रदोष तिथियाँ - द्वादशी तिथि अर्ध रात्रि पूर्व, षष्ठी तिथि रात्रि से ४ घंटा ३० मिनट पूर्व एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं | इनमें सभी शुभ कार्य वर्जित हैं |
दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ
| |||||||
वार/तिथि
|
रविवार
|
सोमवार
|
मंगलवार
|
बुधवार
|
गुरूवार
|
शुक्रवार
|
शनिवार
|
दग्धा
|
१२
|
११
|
५
|
३
|
६
|
८
|
९
|
विष
|
४
|
६
|
७
|
२
|
८
|
९
|
७
|
हुताशन
|
१२
|
६
|
७
|
८
|
९
|
१०
|
११
|
उपरोक्त सभी वारों के नीचे लिखी तिथियाँ दग्धा, विष, हुताशन तिथियों में आती हैं | यह सभी तिथियाँ अशुभ और हानिकारक होती हैं |
मासशून्य तिथियाँ - ऐसा कहा जाता है कि इन तिथियों पर कार्य करने से कार्य में उस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती |
मासशून्य तिथियाँ
| |||||
मास
|
शुक्ल पक्ष
|
कृष्ण पक्ष
|
मास
|
शुक्ल पक्ष
|
कृष्ण पक्ष
|
चैत्र
|
८,९
|
८,९
|
अश्विन
|
१०,११
|
१०,११
|
बैसाख
|
१२
|
१२
|
कार्तिक
|
१४
|
५
|
ज्येष्ठ
|
१३
|
१४
|
मार्गशीर्ष
|
७,८
|
७,८
|
आषाढ़
|
७
|
६
|
पौष
|
४,५
|
४,५
|
श्रावण
|
२,३
|
२,३
|
माघ
|
६
|
६
|
भाद्रपद
|
१,२
|
१,२
|
फाल्गुन
|
३
|
३
|
वृद्धि तिथि - सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि ‘वृद्धि तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि वृद्धि’ भी कहते हैं | ये सभी मुहूर्त के लिए अशुभ होती है |
क्षय तिथि - सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि ‘क्षय तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि क्षय’ भी कहते हैं | यह तिथि सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दी जाती है |
गंड तिथि - सभी पूर्ण तिथियों (५,१०,१५,३०) की अंतिम २४ मिनट या एक घटी तथा नन्दा तिथियों (१,६,११) की प्रथम २४ मिनट या १ घटी गंड तिथि की श्रेणी में आती हैं | इन तिथियों की उक्त घटी को सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दिया जाता है |
तिथि श्रेणियां - केलेंडर की तिथियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहों से प्रभावित रहती हैं | अतः इन ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |
ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |
|
१. सूर्य प्रभावित तिथियाँ – १, १०, १९, २८ और ४,१३, २२, ३१
|
२. चन्द्र प्रभावित तिथियाँ – २,११,२०, २९, और ७,१६,२५
|
३. मंगल प्रभावित तिथियाँ – ९, १८, २७
|
४. बुध प्रभावित तिथियाँ – ५,१४,२३
|
५. गुरु प्रभावित तिथियाँ – ३,१२,२१,३०
|
६. शुक्र प्रभावित तिथियाँ – ६,१५,२४
|
७. शनि प्रभावित तिथियाँ – ८,१७,२६
|
7-जप माला माला गूँथने का तरीका :-
वशीकरण में मूँगा, बेज, हीरा, प्रबल, मणिरत्न, आकर्षण में हाथी दाँत की माला बना लें, मारण में मनुष्य की गधे के दाँत की माला होनी चाहिए। शंख या मणि की माला धर्म कार्य में काम लें, कमल गट्टा की माला से सर्व कामना व अर्थ सिद्धि हो उससे जाप करें, रुद्राक्ष की माला से किए हुए मंत्र का जाप संपूर्ण फल देने वाला है। मोती मूँगा की माला से सरस्वती के अर्थ जाप करें। कुछ कर्मों में सर्प की हड्डियों का भी प्रयोग होता है।27 दाने की माला समस्त सिद्धियों को प्रदान करती है। अभिचार व मारण में 15 दाने की माला होनी चाहिए और तांत्रिक पण्डितों ने कहा है कि 108 दाने की माला तो सब कार्यों में शुभ है। माला में मनकों की संख्या: शांति और पुष्टिकर्म के लिए सत्ताईस दानों की, वशीकरण के लिए पंद्रह, मोहन के लिए दस, उच्चाटन के लिए उन्तीस और विद्वेषण के लिए इकतीस दानों की माला का उपयोग करना चाहिए
माला जपने में उंगलियों का नियमः-
शांतिकर्म, वशीकरण तथा स्तंभन प्रयोग में तर्जनी व अंगूठे से,
आकर्षण में अनामिका और अंगूठे से,
विद्वेषण और उच्चाटन में तर्जनी और अंगूठे से
और मारण प्रयोग में कनिष्ठिका और अंगूठे से माला फेरना उत्तम होता है।
माला जप के नियम तथा भेद:- जप तीन प्रकार के होते हैं –
वाचिक- जो सस्वर किया जाए, मारण आदि प्रयोगों में वाचिक जप शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।
उपांशु- जिसमें होंठ और जीभ हिलें किंतु स्वर न सुनाई दे और शांति तथा पुष्टिकर्म में उपांशु जप शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।
मानसिक- जिसमें होंठ और जीभ नहीं हिलें। मानसिक जप में अक्षरों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। मोक्ष साधन में मानसिक जप शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।
कर्म
|
जप माला
|
माला गूँथने का तरीका
|
वशीकरण में
|
मूँगा, बेज, हीरा, प्रबल, मणिरत्न,
|
शांति, पुष्टि कर्म में पद्म सूत के डोरे से माला को गूँथें
|
आकर्षण में
|
हाथी दाँत की माला
|
आकर्षण उच्चाटन में घोड़े की पूंछ के बालों से गूँथें,
|
मारण में
|
मनुष्य की गधे के दाँत की माला
|
मारण प्रयोग में मृतक मनुष्यों की नसों से गुंथी हुई माला
|
धर्म कार्य में
|
शंख या मणि की माला
|
अन्य कर्मों में कपास के सूत की गूँथी माला शुद्ध होती है
|
सर्व कामना व अर्थ सिद्धि में
|
कमल गट्टा की माला
| |
सरस्वती के अर्थ में
|
मोती मूँगा की माला
| |
रुद्राक्ष की माला से किए हुए मंत्र का जाप संपूर्ण फल देने वाला है।
|
8-योगिनी विचार:-
योगिनी विचार:-
परिवा नौमी पूरब वास, तीज एकादशी अग्नि की आस।
पंच त्रयोदशी दक्षिण बसै, चैथ द्वादशी नैर्ऋत्य लसैं।
षष्ठी चतुर्दशी पश्चिम रहे, सप्तम पंद्रसि वायव्य गहै।
द्वितीय दशमी उत्तर धाय, ‘‘निर्भय ‘‘आठ ईशान निराय।।
योगिनी चक्र:-
ईशान पूरब अग्नि 8 1 व 9 3 व 11 ,उत्तर सूर्य दक्षिण 2 व 10 5 व 13
वायव्य पश्चिम नैर्ऋत्य 7 व 15 6 व ,पूर्व में 14 4 व 12 प्रतिपदा को,
द्वितीया को उत्तर में, तृतीया को अग्निकोण में, चतुर्थी को नैर्ऋत्य में, पंचमी को दक्षिण में, षष्ठी को पश्चिम में, सप्तमी को वायव्य में और अष्टमी को ईशान में योगिनी का वास रहता है।
प्रयोग से पूर्व साधक को किसी ज्योतिषी से ग्रह, नक्षत्र, दिशा शूल तथा योगिनी का विचार करवा लेना चाहिए क्योंकि योगिनी सम्मुख या दाहिने हाथ की ओर होने से अत्यन्त अनिष्टकारी होती है। षटकर्म में हवन सामग्री: षटकर्म प्रयोग के अनुसार हवन सामग्री अलग-अलग होती है। साधक को चाहिए कि जैसा प्रयोग हो उसी के अनरूप
योगिनी विचार
|
प्रतिपदा और नवमी तिथि को योगिनी पूर्व दिशा में रहती है,
| ||
दिशा
|
तिथियाँ
|
तृतीया और एकादशी को अग्नि कोण में
| |
पूर्व दिशा में
|
1,9
|
त्रयोदशी को और पंचमी को दक्षिण दिशा में
| |
अग्नि कोण
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3,11
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चतुर्दशी और षष्ठी को पश्चिम दिशा में
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दक्षिण दिशा
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13,5
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पूर्णिमा और सप्तमी को वायु कोण में
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पश्चिम दिशा
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14,6
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द्वादसी और चतुर्थी को नैऋत्य कोण में,
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वायु कोण
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15,7
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दसमी और द्वितीया को उत्तर दिशा में
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नैऋत्य कोण
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12,14
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अष्टमी और अमावस्या को ईशानकोण में योगिनी का वास रहता है,
| |
उत्तर दिशा
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10,2
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वाम भाग में योगिनी सुखदायक,पीठ पीछे वांछित सिद्धि दायक,
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ईशानकोण
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8,30
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दाहिनी ओर धन नाशक और सम्मुख मौत देने वाली होती है.
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वाम भाग में योगिनी सुखदायक,पीठ पीछे वांछित सिद्धि दायक
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दाहिनी ओर धन नाशक ,सम्मुख मौत देने वाली
|
उदाहरण प्रथमा व नवमी को पूर्व दिशा मे योगनी का वास एसे हि क्रमशः ज्ञात कर ले।
9-आसन का प्रकार:-
वशीकरण में मेंढ़े के चर्म का आसन होना चाहिए। आकर्षण में मृग, उच्चाटन में ऊँट, मारण में ऊनी कम्बल और अन्य कर्म में कुशा का आसन श्रेष्ठ है। पूर्व को मुख, पश्चिम को पीठ, ईशान को दक्षिण हस्त आग्नेय को बायाँ हाथ, वायव्य को दाहिना पग, नैऋत्य को वाम पग करके आसन पर बैठना चाहिए।
आसन, योगासन,वस्त्र विचार, विचारतांत्रिक षट् कर्म
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कर्म
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आसन विचार
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योगासन
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वस्त्र विचार
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1.शांति कर्म
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गजचर्म
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सुखासन
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सफेद
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2.वशीकरण
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भेड़ की खाल
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भद्रासन
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लाल
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3.स्तंभन
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शेर की खाल
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पद्मासन
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पीले
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4.विद्वेषण
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घोड़े की खाल पर
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कुक्कुटासन
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रक्त, सुर्ख लाल
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5.उच्चाटन
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ऊंट की खाल पर
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अर्ध-स्वस्तिकासन
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धुम्र,काला+कत्थई
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6.मारण
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भैंसे की खाल, भेड़
के ऊन से बने आसन
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विकटासन
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काला
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अन्य कर्म में कुशा का आसन श्रेष्ठ है।
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पूर्व को मुख, पश्चिम को पीठ,ईशान को दक्षिण हस्त
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आग्नेय को बायाँ हाथ, वायव्य को दाहिना पग,
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नैऋत्य को वाम पग करके आसन पर बैठना चाहिए।
|
कलश विधान :-
शांतिकर्म में नवरत्न युक्त स्वर्ण, चांदी अथवा ताम्र का कलश स्थापित करें।
उच्चाटन तथा वशीकरण में मिट्टी के,
मोहन में रूपे के और मारण में लोहे के कलश का प्रयोग करना उत्तम और शुभ होता है।
ताम्र कलश सभी प्रयोगों में स्थापित किया जा सकता है।
नक्षत्रो के देवता :- २७ नक्षत्र होते है जो २७ नक्षत्रो के स्वामी कहे गए है उन्ही देवताओं की अर्जन करना भाग्य वर्धक रहता है | जो दोष है उनकी शांति नक्षत्र के स्वामी की करनी चाहिए | भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए नक्षत्रो की पूजा अवश्य करनी चाहिए | लोग कहते है की परिश्रम के अनुसार लाभ नहीं मिल रहा है , रात दिन मेहनत करते है , परिवार में शांति नहीं रहती है इन्ही का पूजन अवश्य करना चाहिए |
नक्षत्रो के देवता
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क.स.
|
नक्षत्र
|
नक्षत्र स्वामी का स्वामी
|
क.स.
|
नक्षत्र
|
नक्षत्र स्वामी का स्वामी
|
1
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अश्वनी
|
नासत्(दोनों अश्वनी कुमार)
|
14
|
चित्र
|
विश्वकर्मा
|
2
|
भरणी
|
अन्तक(यमराज )
|
15
|
स्वाती
|
समीर
|
3
|
कृतिका
|
अग्नि
|
16
|
विशाखा
|
इन्द्र और अग्नि
|
4
|
रोहिणी
|
धाता (ब्रह्मा),
|
17
|
अनुराधा
|
मित्र
|
5
|
म्रगशिरा
|
शशम्रत ( चन्द्रमा )
|
18
|
ज्येष्ठा
|
इन्द्र
|
6
|
आर्दा
|
रूद्र ( शिवजी )
|
19
|
मूल
|
निर्रुती (राक्षस)
|
7
|
पुनर्वसु
|
आदिती (देवमाता )
|
20
|
पुर्वाशाडा
|
क्षीर (जल )
|
8
|
पुष्य
|
वृहस्पति
|
21
|
उत्तरा शाडा
|
विश्वदेव (अभिजित-विधि विधाता)
|
9
|
श्लेषा
|
सूर्य
|
22
|
श्रवण
|
गोविन्द ( विष्णु )
|
10
|
मघा
|
पितर
|
23
|
धनिष्ठा
|
वसु (आठ प्रकार के वसु )
|
11
|
पूर्व फाल्गुनी
|
भग्र
|
24
|
शतभिषा
|
तोयम
|
12
|
उत्तरा फाल्गुनी
|
अर्यमा
|
25
|
पूर्वभाद्र
|
अजचरण(अजपात नामक सूर्य )
|
13
|
हस्त
|
रवि
|
26
|
उत्तरा भाद्रपद
|
अहिर्बुध्न्य (नाम का सूर्य )
|
27
|
रेवती
|
पूषा (पूषण नाम का सूर्य )
|
राशियों के नाम एवम उनके स्वामी :- की जानकारी
क.स.
|
राशि
|
राशि का स्वामी
|
क.स.
|
राशि
|
राशि का स्वामी
|
1
|
मेष
|
मंगल
|
7
|
तुला
|
शुक्र
|
2
|
वृष
|
शुक्र
|
8
|
वृश्चिक
|
मंगल
|
3
|
मिथुन
|
बुध
|
9
|
धनु
|
गुरु
|
4
|
कर्क
|
चन्द्रमा
|
10
|
मकर
|
शनि
|
5
|
सिंह
|
सूर्य
|
11
|
कुम्भ
|
शनि
|
6
|
कन्या
|
बुध
|
12
|
मीन
|
गुरु
|
हवन सामग्री:-
शांति कर्म में- दूध, घी, तिल और आम की लकड़ी से,
पुष्टिकर्म में- दही, घी, बिल्वपत्र, चमेली के पुष्प, कमल गट्टा, चंदन, जौ, काले तिल तथा अन्न के मिश्रण से,
आकर्षण प्रयोग में- चिरौंजी, तिल और बिल्व पत्र से,
वशीकरण में -राई और नमक से और
उच्चाटन में- काग पंख घी में सानकर धतूरे के बीज मिलाकर हवन करना चाहिए।
विशेष:- शुभ कार्यों में घृत, मेवा, खीर और धूप से तथा अशुभ कार्यों में घृत, तिल, मेवा, चावल, देवदारु आदि से हवन करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
राशी विचार एवं योगादी देखना :- षठ्कर्मोँ मेँ इसके अलावा राशी विचार एवं योगादी देखना आवश्यक है। इनको ज्ञात करे बिना षठ्कर्म मेँ सिद्धी होना असंभव माना गया है।छः कमो की देवी
यंत्र लिखते हुए निम्न बातो को ध्यान मेँ रखना आवश्यक है।
1-आप जिस स्थान मे यंत्र लिखे वह पवित्र एवं एकांत हो।
साधक को स्नानादि कर के शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए
अपने इष्ट के समक्ष यंत्र लिखना लाभकारी होता है।
2-रविपुष्य रविहस्त रविमूल गुरुपुष्य दिपावली होली नवरात्र विजयदशमी तीर्थकरो का जन्मदिवस
सूर्यग्रहण तब या अच्छा महूर्त्त निकलवाकर हि यंत्र लिखे।
3-कलम - हेतु आनार जूही तुलसी एवं स्वर्ण व चांदी की कलम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है
4-स्याही- मे लाल काली केसर कुंकुं पंचगंध व अष्टगंध को सर्वश्रेष्ठ माना गया है
पंचगंध स्याही- केसर, चंदन, कस्तुरी, कपूर, गोरोचन ।
यक्षकर्दम स्याही- केसर, चंदन, कस्तुरी, कपूर, अगर।
अष्टगंध स्याही- चंदन रक्तचंदन, केसर कस्तुरी, अगर तगर, गोरोचन, अंकोल, भीमसेनीकपूर, एवं
चंदन रक्तचंदन केसर कस्तुरी अगर तगर गोरोचन सिंदुर से भी बनती है।
5-धूप- हेतु लोबान गुग्गल नवरंगी या दशांग धूप का प्रयोग सर्वश्रेष्ठ मानी गई है
नवरंगी धूप- अगर, लोबान, ब्राम्ही, नखला, राल, छडछडीला, चंदन गिरी, गुग्गल आदि गुग्गल को
अन्य सामग्री से दुगना मिलाया जाता है।
दशांगधूप- शिलारस, गुग्खल, चंदन, जटामांसी, लोबान, रार, उसीर ,नखला, भीमसेनीकपूर, कस्तुरी
से भी बनती है।
6-पत्र - पत्रो मेँ स्वर्ण रजत ताम्रपत्र काष्ठ भोजपत्र या उत्तम कोटि का कागज लेने चाहिए
7-ताबीज या मादलिया हेतु स्वर्ण रजत ताम्र ही उत्तम है ताबीज बन जाने पर ताबीज का मुख
लाख से बंद करना चाहिए।
7-यंत्र बन जाने के बाद
ॐ पाघं अर्घ्यमाचमनीयं वस्त्रं गंधाक्षतान् पुष्पं धूपं दीपं नैवैघ तांबूलं पुंगीफलं दक्षिणां च
समर्पयामी। मंत्र द्वार यंत्र की चंदन पुष्प धूप दीप फल व नैवेघ अक्षत पान दक्षिणा से पूजा करनी
चाहिए।
मार्जन मंत्र :- इस मंत्र को पढ़कर बायीं हथेली में जल लेकर बीज अक्षर से प्रत्येक अंग का मंत्रानुसार स्पर्श कर लेना चाहिए।
ऊँ क्षां हृदयाय नमः, ऊँ क्षीं शिरसे स्वाहा। ऊँ ह्रीं शिखाय वौषट, ऊँ हूं कवचाय हूम। ऊँ क्रों नेत्राभ्यां वो षटः, ऊँ क्रों अस्त्राय पफट्। ऊँ क्षां क्षीं ह्रीं ह्रीं कों क्रें पफट् स्वाहा।
विनियोग मंत्र-तंत्र-यंत्र उत्कीलन विनियोगः-
अस्य श्री सर्व यंत्रा-मंत्रा-तंत्राणां उत्कीलन मंत्र स्तोत्रस्य मूल प्रकृति ऋषिः जगती छन्द निरंजन देवता उत्कीलन क्लीं बीजं ह्रीं शक्तिः ह्रौं कीलकं सप्तकोटि यंत्र-मंत्र-तंत्राणां सिद्धं जये विनियोगः। न्यास: ऊँ मूल प्रकृति ऋषेय नमः शिरसी जगति छन्देस नमः, मुखे,ऊँ निरंजन देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तिये नमः, पादयो ह्रौं कीलकाय नमः, सर्वांगे ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः, ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, हूं मध्यमाभ्यां नमः, ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः, ह्रां करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः। ध्यान: ब्रह्म स्वरूपं मलच निरंजन तं ज्योतिः प्रकाशम। न तं सततं महांतं कारूण्य रूप मपि बोध करं प्रसन्नं दिव्यं स्मरणां सततं मनु जीव नायं एवं ध्वात्वा स्मरे नित्यं तस्य सिद्धिस्तु सर्वदा वांछितं फलमाप्नोति मंत्र संजीवनं ध्रुवं। शिवार्चन: पार्वती फणि बालेन्दु भस्म मंदाकिनी तथा पवर्ग रचितां मूर्तिः अपवर्ग फलप्रदा।
आवश्यक निर्देश:- साधक को मंत्र, तन्त्रादि का प्रयोग करने से पूर्व किन्हीं ज्ञानी गुरु के चरणों में बैठकर उनसे समस्त क्रियाओं के बारे में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। उसके पश्चात भक्ति एवं प्रबल आत्मविश्वास के साथ गुरु आज्ञा प्राप्त कर साधना करनी चाहिए। इसके विपरीत यदि साधक के मन में अविश्वास होगा तो उसकी साधना का फल हानिप्रद भी हो सकता है क्योंकि बिना विश्वास के दुनिया का कार्य नहीं चल सकता।
अतः स्थिर चित्त होकर ही कर्म करना चाहिए। जिस दिन कोई कर्म करना हो उस दिन प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर एकांत स्थान में जो मंत्र सिद्ध करना हो उसे भोज पत्र पर केसर से लिख कर मुख में रख लेना चाहिए तथा जब तक मंत्र क्रिया चले उस समय तक चावल, मूंग की दाल या ऋतु फल का आहार कर रात्रि में पृथ्वी पर शयन करना चाहिए। षटकर्म के अनुसार किसी प्रयोग में यदि कोई वस्तु रात्रि में लानी हो तो नग्न हो स्वयं वह वस्तु लाएं तथा आते-जाते समय पीछे की ओर न देखें। नग्न होकर जाने से मार्ग में भूत-प्रेतादिकों का भय नहीं रहता और पीछे देखने से आपके पीछे जो सिद्धि प्रदानकर्ता आते हैं वे वापस चले जाते हं। उपर्युक्त सभी कार्य षटकर्म मंत्रों के प्रयोग के पूर्व की जानकारी है।
मंत्र साधना:- मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है। मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है। मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा।
इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। मंत्र- मंत्र का अर्थ है मन को एक तंत्र में लाना। मन जब मंत्र के अधीन हो जाता है तब वह सिद्ध होने लगता है। ‘मंत्र साधना’ भौतिक बाधाओं का आध्यात्मिक उपचार है।
साधना भी कई प्रकार की होती है। मंत्र से किसी देवी या देवता को साधा जाता है और मंत्र से किसी भूत या पिशाच को भी साधा जाता है।
मुख्यत: 3 प्रकार के मंत्र होते हैं- 1. वैदिक मंत्र, 2. तांत्रिक मंत्र और 3. शाबर मंत्र।
मंत्र जप के भेद- 1. वाचिक जप, 2. मानस जप और 3. उपाशु जप।
वाचिक जप में ऊंचे स्वर में स्पष्ट शब्दों में मंत्र का उच्चारण किया जाता है।
मानस जप का अर्थ मन ही मन जप करना।
उपांशु जप का अर्थ जिसमें जप करने वाले की जीभ या ओष्ठ हिलते हुए दिखाई देते हैं लेकिन आवाज नहीं सुनाई देती। बिलकुल धीमी गति में जप करना ही उपांशु जप है।
मंत्र नियम : मंत्र-साधना में विशेष ध्यान देने वाली बात है- मंत्र का सही उच्चारण। दूसरी बात जिस मंत्र का जप अथवा अनुष्ठान करना है, उसका अर्घ्य पहले से लेना चाहिए। मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखा जाए। प्रतिदिन के जप से ही सिद्धि होती है।
किसी विशिष्ट सिद्धि के लिए सूर्य अथवा चंद्रग्रहण के समय किसी भी नदी में खड़े होकर जप करना चाहिए। इसमें किया गया जप शीघ्र लाभदायक होता है। जप का दशांश हवन करना चाहिए और ब्राह्मणों या गरीबों को भोजन कराना चाहिए। यंत्र साधना सबसे सरल है। बस यंत्र लाकर और उसे सिद्ध करके घर में रखें लोग तो अपने आप कार्य सफल होते जाएंगे। यंत्र साधना को कवच साधना भी कहते हैं।
यन्त्र साधना:- यंत्र को दो प्रकार से बनाया जाता है- 1.अंक द्वारा और 2.मंत्र द्वारा। यंत्र साधना में अधिकांशत: अंकों से संबंधित यंत्र अधिक प्रचलित हैं। श्रीयंत्र, घंटाकर्ण यंत्र आदि अनेक यंत्र ऐसे भी हैं जिनकी रचना में मंत्रों का भी प्रयोग होता है और ये बनाने में अति क्लिष्ट होते हैं।
इस साधना के अंतर्गत कागज अथवा भोजपत्र या धातु पत्र पर विशिष्ट स्याही से या किसी अन्यान्य साधनों के द्वारा आकृति, चित्र या संख्याएं बनाई जाती हैं। इस आकृति की पूजा की जाती है अथवा एक निश्चित संख्या तक उसे बार-बार बनाया जाता है। इन्हें बनाने के लिए विशिष्ट विधि, मुहूर्त और अतिरिक्त दक्षता की आवश्यकता होती है।
यंत्र या कवच भी सभी तरह की मनोकामना पूर्ति के लिए बनाए जाते हैं जैसे वशीकरण, सम्मोहन या आकर्षण, धन अर्जन, सफलता, शत्रु निवारण, भूत बाधा निवारण, होनी-अनहोनी से बचाव आदि के लिए यंत्र या कवच बनाए जाते हैं।
दिशा- प्रत्येक यंत्र की दिशाएं निर्धारित होती हैं।
धन प्राप्ति से संबंधित यंत्र या कवच पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।
सुख-शांति से संबंधित यंत्र या कवच पूर्व दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।
वशीकरण, सम्मोहन या आकर्षण के यंत्र या कवच उत्तर दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।
तो शत्रु बाधा निवारण या क्रूर कर्म से संबंधित यंत्र या कवच दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।
इन्हें बनाते या लिखते वक्त भी दिशाओं का ध्यान रखा जाता है।
साधना करने से पूर्व, उस मंत्र का संस्कार:-
मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं। यदि आप उन नियमों का पालन करेंगे तो आपके घर में न केवल सुख-शांति आयेगी, बल्कि आपका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। ऐसे में आपको मंत्र संस्कार के बारे में भी जानना चाहिये। जातक को दीक्षा ग्रहण करने के बाद दीक्षिति को चाहिए कि वह अपने इष्ट देव के मंत्र की साधना विधि-विधान से करें। किसी भी मंत्र की साधना करने से पूर्व, उस मंत्र का संस्कार अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में मंत्र के 10 संस्कार वर्णित है। मंत्र संस्कार निम्न प्रकार से है- 1-जनन, 2- दीपन, 3- बोधन, 4- ताड़न, 5- अभिषेक, 6- विमलीकरण, 7- जीवन, 8- तर्पण, 9- गोपन, 10- अप्यायन।
1-जनन संस्कार:- गोरचन, चन्दन, कुमकुम आदि से भोजपत्र पर एक त्रिकोण बनायें। उनके तीनों कोणों में छः-छः समान रेखायें खीचें। इस प्रकार बनें हुए 99 कोष्ठकों में ईशान कोण से क्रमशः मातृका वर्ण लिखें। फिर देवता को आवाहन करें, मंत्र के एक-एक वर्ण का उद्धार करके अलग पत्र पर लिखें। इसे जनन संस्कार कहा जाता है।
2- दीपन संस्कार:- ’हंस’ मंत्र से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र का जाप करना चाहिए।
3- बोधन संस्कार:- ’हूं’ बीज मंत्र से सम्पुटित करके 5 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।
4- ताड़न संस्कार:-’फट’ से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।
5- अभिषेक संस्कार:- मंत्र को भोजपत्र पर लिखकर ’ऊँ हंसः ऊँ’ मंत्र से अभिमंत्रित करें, तत्पश्चात 1 हजार बार जप करते हुए जल से अश्वत्थ पत्रादि द्वारा मंत्र का अभिषेक संस्कार करें।
6- विमलीकरण संस्कार:- मंत्र को ’ऊँ त्रौं वषट’ इस मंत्र से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।
7- जीवन संस्कार:- मंत्र को ’स्वधा-वषट’ से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।
8- तर्पण संस्कार:- मूल मंत्र से दूध,जल और घी द्वारा सौ बार तर्पण करना चाहिए।
9- गोपन संस्कार:- मंत्र को ’ह्रीं’ बीज से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।
10- आप्यायन संस्कार:- मंत्र को ’ह्रीं’ सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए। इस प्रकार दीक्षा ग्रहण कर चुके जातक को उपरोक्त विधि के अनुसार अपने इष्ट मंत्र का संस्कार करके, नित्य जाप करने से सभी प्रकार के दुःखों का अन्त होता है।
Surya Grahan/Chandra Grahan Mantra Siddhi
ग्रहण काल में मंत्र साधना (Grahan kaal me Mantra Sadhana Siddhi)
सूर्य ग्रहण Surya grahan हो या फिर चन्द्र ग्रहण Chandra grahan दोनों में ही मंत्र जप करने से समान प्रतिफल प्राप्त होता है | जो साधक लम्बे समय से मंत्र जप कर रहे है वे ग्रहण काल के इस सुअवसर पर अपने मन्त्रों में परिपक्वता प्राप्त करते है | आप भी ग्रहण काल के इस सुअवसर पर किसी विशेष मंत्र का जप करके सिद्धि प्राप्त कर सकते है |ग्रहण काल के समय आप किसी भी देव के वैदिक मंत्र – बीज मंत्र या फिर शाबर मंत्र द्वारा साधना कर सकते है | किन्तु ऐसे समय शाबर मंत्र के जप करने से सफलता मिलना आसान है | इसलिए आप किसी भी देव के एक शाबर मंत्र का चुनाव करे, इसे कंठस्त करें और ग्रहण काल के समय इस मंत्र के अधिक से अधिक जप करें |
Grahan kaal me shabar Mantra Sadhana vidhi
ग्रहण काल में शाबर मंत्र साधना विधि :
ग्रहण काल आरम्भ होने से पूर्व, स्नान आदि करके साफ़ वस्त्र धारण करें, पूर्व दिशा की तरफ आसन बिछाकर बैठ जाए | सामने एक चौकी पर घी का दीपक जलाये | अब दायें हाथ में थोड़ा जल लेकर संकल्प ले : हे परमपिता परमेश्वर मैं(अपना नाम बोले) गोत्र( अपना गोत्र) ग्रहण काल के इस अवसर पर आपकी कृपा से इस शाबर मंत्र के जप कर रहा हूँ मुझे इसमें सफलता प्रदान करें, ऐसा कहते हुए जल को नीचे जमीन पर छोड़ दे | अब आप शाबर मंत्र के जप बहुत ही धीमे उच्चारण के साथ या मन ही मन करना शुरू कर दे | आपको यह मंत्र जप सम्पूर्ण ग्रहण काल की अवधि तक करना है |
यदि आप बीच में कुछ समय के लिए उठना चाहते है तो हाथ में थोड़ा जल लेकर बोले : हे परमपिता परमेश्वर मैंने ये जो शाबर मंत्र के जप किये है इन्हें मैं श्री ब्रह्म को अर्पित करता है, जल को नीचे जमीन पर छोड़ दें | अब आप अपने आसन का एक कोना मोड़कर अपना स्थान छोड़ सकते है | दोबारा से आसन ग्रहण करते समय आसन को सीधा कर दे और पहले की तरह संकल्प ले और मंत्र जप आरम्भ करें |
जितनी अवधि के लिए ग्रहण काल होता है आप उस सम्पूर्ण अवधि तक मंत्र के जप करें | सूर्य ग्रहण काल पूर्ण होने पर दायें हाथ में जल लेकर बोले "हे परमपिता मेरे द्वारा किये गये यह मंत्र जप मैं श्री ब्रह्म को अर्पित करता हुँ"
अब जल को नीचे जमीन पर छोड़ और अपना आसन छोड़ दे | अब आपने जो कपड़े पहने हुए है उनके साथ ही स्नान करें | ऐसा करने से शाबर मंत्र में परिपक्वता आ जाती है | अब आप इस शाबर मंत्र का प्रयोग दूसरों की भलाई के लिए प्रयोग कर सकते है | ध्यान रखने योग्य जब भी कोई ग्रहण काल का अवसर आता है तो ध्यान दे कि यदि ग्रहण आप जिस स्थान पर साधना कर रहे है वहाँ ग्रहण होना चाहिए यानि यदि आप भारत देश में अपनी साधना करते है तो भारत देश में ग्रहण दिखाई देना चाहिए | यदि ग्रहण भारत देश में नहीं है तो अन्य देशों में दिखाई देता है तो आप ऐसे में साधना न करें | ऐसी साधना से कोई विशेष प्रतिफल नहीं मिलने वाला है |