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त्रिपिंडी श्राद्ध Tripindi Shradha Vidhi

त्रिपिंडी श्राद्ध  Tripindi Shradha Vidhi


त्रिपिंडी काम्‍य श्राध्द है। लगातार तीन वर्ष तक जिनका श्राध्द न किया गया हो, उनको प्रेतत्‍व प्राप्त होता है। 

तमोगुणी, रजोगुणी एवं सत्तोगुणी – ये तीन प्रेत योनियां हैं। पृथ्वीपर वास करने वाले पिशाच तमोगुमी होते है। अंतरिक्ष में वास करने वाले पिशाच रजोगुणी एवं वायुमंडल पर वास करने वाले पिशाच सत्तोगुणी होते है। इन तीनों प्रकार की प्रेतयोनियो की पिशाच पीडा के निवारण हेतु त्रिपिंडी श्राध्द किया जाता है।

हमारे लिए अज्ञात, सद्गति को प्राप्त न हुए अथवा दुुर्गति को प्राप्त तथा कुल के लोगों को कष्ट देनेवाले पितरों को, उनका प्रेतत्व दूर होकर सद्गति मिलने के लिए अर्थात भूमि, अंतरिक्ष एवं आकाश, तीनों स्थानों में स्थित आत्माओं को मुक्ति देने हेतु त्रिपिंडी करने की पद्धति है । श्राद्ध साधारणतः एक पितर अथवा पिता-पितामह (दादा)-प्रपितामह (परदादा) के लिए किया जाता है । अर्थात, यह तीन पीढियों तक ही सीमित होता है । परंतु त्रिपिंडी श्राद्ध से उसके पूर्व की पीढियों के पितरों को भी तृप्ति मिलती है । प्रत्येक परिवार में यह विधि प्रति बारह वर्ष करें; परंतु जिस परिवार में पितृदोष अथवा पितरों द्वारा होनेवाले कष्ट हों, वे यह विधि दोष निवारण हेतु करें ।
कई साल तक पितरों का विधीपूर्वक श्राध्द न होने से पितरों को प्रेतत्व प्राप्त होता है।श्राध्द कमलाकर ग्रंथ में साल मे ७२ दफा पितरों का श्राध्द करना चाहिए यह कह गया है।

अमावस्या व्दादशैव क्षयाहव्दितये तथा।षोडशापरपक्षस्य अष्टकान्वष्टाकाश्च षट॥
संक्रान्त्यो व्दादश तथा अयने व्दे च कीर्तिते।चतुर्दश च मन्वादेर्युगादेश्च चतुष्टयम॥

श्राध्द न करने से पितर लोग अपने वंशजों का खून पिते है यह आदित्यपुराण मे कहा है।

न सन्ति पितरश्र्चेति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राध्दं न कुरुते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते॥(आदित्यपुराण)

श्राध्द न करने से होनेवाले दोष त्रिपिंडी श्राध्द से समाप्त होते है।जैसे भूतबाधा,प्रेतबाधा,गंधर्व राक्षस शाकिनी आदि दोष दूर करने के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने की प्रथा है|
घर में कलह, अशांती,बिमारी,अपयश,अकाली मृत्य,वासना पूर्ति न होना,शादी वक्त पर न होना,संतान न होना इस सब को प्रेत दोष कहा जाता है।धर्म ग्रंथ में धर्म शास्त्र के नुसार सभी दोष के निवारण के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करना को सुचित किया गया है।

त्रिपिंडी श्राध्द में ब्रम्हदेव,विष्णु,रुद्र ये तिन देवताओंकी प्राणप्रतिष्ठापूर्वक पुजा की जाती है।त्रिपिंडी श्राध्द में सात्विक प्रेत दोष निवारण के लिए ब्रम्ह पुजन करते है और यव का पिंड दिया जाता है।राजस प्रेत दोष निवारण के लिए विष्णु पुजन करते है और चावल का पिंड दिया जाता है।तामसप्रेत दोष निवारण के लिए तिल्लिका पिंड दिया जाता है और रुद्र पुजन करते है।

यह पुजा सभी अतृप्त आत्माओंके मोक्ष प्राप्ती के लिए कियी जाती है।त्रिपिंडी श्राध्द में अपने गोत्र,पितरोंके नाम का नही किया जाता।कारण कौनसी पितरों की बाधा है।इस के बारेमे शाश्वत ज्ञान नहि होता।सभी अतृप्त आत्माओंकी मोक्ष प्राप्ती के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने का शास्त्र धर्मग्रंथ में बताया गया है।

त्रिपिंडी श्राध्द का आरम्भ करने से पूर्व किसी पवित्र नदी या तीर्थ स्थात में शरीर शुध्दि के लिये प्रायश्चित के तौर पर क्षौर कर्म कराने का विधान है। त्रिपिंडी श्राध्द में ब्रह्मा, विष्णु् और महेश इनकी प्रतिमाएं तैयार करवाकर उनकी प्राण-प्रतिष्ठापुर्वक पूजन किया जाता है। ब्राह्मण से इन तीनों देवताओं के लिये मंत्रों का जाप करवाया जाता है। हमें सतानेवाला, परेशान करने वाला पिशाचयोनि प्राप्त जो जीवात्मा है, उसका नाम एवं गोत्र हमे ज्ञात नहीं होने से उसके लिये अनाधिष्ट गोत्र शब्द‍ का प्रयोग किया जाता है। अंतत: इससे प्रेतयोनि प्राप्त उस जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए यह श्राध्द किया जाता है। जौ तिल, चावल के आटे के तीन पिंड तैयार किये जाते हैं। जौ का पिंड समंत्रक एवं सात्विक होता हे, वासना के साथ प्रेतयोनि में गये जीवात्मा को यह पिंड दिया जाता है। चावल के आटे से बना पिंड रजोगुणी प्रेतयोनी में गए प्रेतात्माओ को दिया जाता है। इन तीनों पिंडो का पूजन करके अर्ध्यं देकर देवाताओं को अर्पण किये जाते है। हमारे कुलवंश को पिडा देने वाली प्रेतयोनि को प्राप्त जीवात्मा ओं को इस श्राध्द कर्म से तृप्ती हो और उनको सदगति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना के साथ यह कर्म किया जाता है। सोना, चांदी,तांबा, गाय, काले तिल, उडद, छत्र-खडाऊ, कमंडल में चीजें प्रत्यक्ष रुप में या उनकी कीमत के रुप में नकद रकम दान देकर अर्ध्य दान करने के पश्चात ब्राह्मण एवं सौभाग्यीशाली स्त्री को भोजन करवाने के पश्चात यह श्राध्दं कर्म पूर्ण होता है।


त्रिपिंडी श्राद्ध विधी करने का अधिकार विवाहित पती-पत्नी यह विधी कर सकते है| अविवाहीत व्यक्ती भी यह विधी कर सकते है|

त्रिपिंडी श्राद्ध में ब्रह्मा, विष्णू और महेश इनकी प्रतिमाए उनका प्राण प्रतिष्ठा पूर्वक पूजन किया जाता है| हमे सताने वाला, परेशान करने वाला पिशाच्च योनिप्राप्त जो जीवात्मा रहता है उसका नाम एवं गोत्र हमे द्न्यात नही होने से उसके लिए “अनादिष्ट गोत्र” का शब्दप्रयोग किया जाता है| अंतता इसके प्रेतयोनिप्राप्त उस जिवात्मा को संबोधित करते हुए यह श्राद्ध किया जाता है| त्रिपिंडी श्रद्ध जीवनभर दरिद्रता अनेक प्रकारसे परेशानीया, श्राद्ध कर्म, और्ध्ववैदिक क्रिया शास्त्र के विधी के अनुसार न किये जाने के कारण भूत, प्रेत, गंधर्व, राक्षस, शाकिणी – डाकिणी, रेवती, जंबूस आदि द्वारा पिडाए उत्पन्न होती है

मानव का एक मास पित्रों का एक दिन होता है। अमावस्या पित्रों की तिथी है। इस दिन दर्शश्राध्द होता है। अतृप्त पितर प्रेतरूपसे पीडा देते है।

इस लिये त्रिपिंडी श्राध्द करना चाहिए। इसका विधान ‘श्राद्ध चितांमणी’ इस ग्रंथमे बताया है।

कार्तिके श्रावण मासे मार्गशीर्ष तथैवच।
माघ फाल्गुन वैशाखे शुक्ले कृष्ण तथैवच।
चर्तुदश्या विशेष्ण षण्मासा: कालउच्यते।
अन्यच्च कार्तिकादि चर्तुमासेषु कारयेत्।।
तथापि दोष बाहुल्ये सति न कालापेक्षा।।

इस विधी को श्रावण, कार्तिक, मार्गशिर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन और वैशाख मुख्य मास है ५, ८, ११, १३, १४, ३० में शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की तिथीयाँ और रविवार दिन बताया गया है। किंन्तु तीव्रवार पिडा यदि हो रही है तो तत्काल त्रिपिडी श्राध्द करना उचित है। इसके लिए गोदायात्रा विवेका-दर्शा में प्रमाण दिया है।

अवर्णनियो महिमा त्रिपिंडी श्राद्व-कर्मण।
अत: सर्वेषु कालेषु त्र्यंबकेंतु विशिष्यते।।इस कर्म के पिंड प्रदान में ‘येकेचिप्रेरुपेण पीडयंते च महेश्वर’ ऐसा वचन आया है। रघुवंश महाकाव्य में कालिदासने ‘महेश्वर, (त्र्यंबक) एवं नापर : कहा है। अत: महेश्वर संज्ञा त्र्यंबकेश्वरके लिये ही है। महेश्वर (त्र्यंबक) जो कोई हमे प्रेतरूप में दुर्धर पडा दे रहे हो उन सभी को नष्ट कर दे ‘ऐसी मेरी प्रार्थना है। प्रेतरूपी के पितर रवि जब कन्या और तुल राशी मे आता है तब पृथ्वीपर वार करते है। श्राद्ध के लिए यह काल भी योग्य है, महत्व का है। यह कामश्राद्ध होनेसे पिडा दूर होती। अत: नवरात्रमे यह कामश्राद्ध न करे। वैसेही त्रिपिंडी श्राद्ध और तीर्थश्राद्ध एकही दिन न करके अलग अलग करे। और यदि समय न हो तो प्रथमत: त्रिपिंडी कर्म पुरा करके बाद तीर्थश्राद्ध करे।

‘प्रेताय सदगति दत्वा पार्वणादि समाचरेत्।
पिशाच्चमोचनेतीर्थ कुशावर्ते विशेषत।।

यह कर्म पिशाच्चविमोचन तीर्थ अथवा कुशावर्त तीर्थपर करे। इस विधी मे ब्रम्हा, विष्णु, रुद्र (महेश) प्रमुख देवता है। ये द्विविस्थ, अंतरिक्षस्थ, भूमिस्थ और वृद्ध अवस्था के अनादिष्ट प्रेतों को सदगति देते है। अत: विधिवत एकोद्दिष्ट विधिसे त्रिपिंडी श्राद्ध करे। इस विधी के पूर्व गंगाभेट शरीर शुध्यर्थ प्रायश्चित्तादि कर्म करे। यहा क्षौर करने की जरूरत नही। किंन्तु प्रायश्चित अंगभूत क्षौर के लिए आता है। त्रिपिंडी विधी सपत्निक नूतन वस्त्र पहनकर करे। यह विधी जो अविवाहीत है अथवा जिसकी पत्नी जीवित नही है वो कर सकता है। इसमें देवता ब्रम्हा (रौप्य), विष्णु (सुवर्ण), रुद्र (ताम्र) धातू की होती है।

Tripindi Shraddha Vidhiत्रिपिंडी श्राद्ध

तीर्थस्थल पर पितरों को संबोधित कर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे त्रिपिंडी श्राद्ध कहते हैं ।

विधि
विधि के लिए उचित काल
अ. त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा – ये तिथियां एवं संपूर्ण पितृपक्ष उचित होता है ।  

आ. गुरु शुक्रास्त, गणेशोत्सव एवं शारदीय नवरात्र की कालावधि में यह विधि न करें । उसी प्रकार, परिवार में मंगलकार्य के उपरांत अथवा अशुभ घटना के उपरांत एक वर्ष तक त्रिपिंडी श्राद्ध न करें । अत्यंत अपरिहार्य हो, उदा. एक मंगलकार्य के उपरांत पुनः कुछ माह के अंतराल पर दूसरा मंगलकार्य नियोजित हो, तो दोनों के मध्यकाल में त्रिपिंडी श्राद्ध करें ।

विधि हेतु उचित स्थान
त्र्यंबकेश्वर, गोकर्ण, महाबलेश्वर, गरुडेश्वर, हरिहरेश्वर (दक्षिण काशी), काशी (वाराणसी) – ये स्थान त्रिपिंडी श्राद्ध करने हेतु उचित हैं । 

पद्धति
‘प्रथम तीर्थ में स्नान कर श्राद्ध का संकल्प करें । तदुपरांत महाविष्णु की एवं श्राद्ध के लिए बुलाए गए ब्राह्मणों की पूजा श्राद्धविधि के अनुसार करें । तत्पश्चात यव (जौ), व्रीहि (कीटक न लगे चावल) एवं तिल के आटे का एक-एक पिंड बनाएं । दर्भ फैलाकर उस पर तिलोदक छिडक कर पिंडदान करें ।  

यवपिंड (धर्मपिंड)
पितृवंश के एवं मातृवंश के जिन मृत व्याक्तियों की उत्तरक्रिया न हुई हो, संतान न होने के कारण जिनका पिंडदान न किया गया हो अथवा जो जन्म से ही अंधे-लूले थे (नेत्रहीन-अपंग होने के कारण जिनका विवाह न हुआ हो इसलिए संततीरहित), ऐसे पितरों का प्रेतत्व नष्ट हो एवं उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इसलिए यवपिंंड प्रदान किया जाता है। इसे धर्मपिंड की संज्ञा दी गई है ।

मधुरत्रययुक्त व्रीहीपिंड
पिंड पर चीनी, मधु एवं घी मिलाकर चढाते हैं; इसे मधुरत्रय कहते हैं । इससे अंतरिक्ष में स्थित पितरों को सद्गति मिलती है । 

तिलपिंड
पृथ्वी पर क्षुद्र योनि में रहकर अन्यों को कष्ट देनेवाले पितरों को तिलपिंड से सद्गति प्राप्त होती है ।

इन तीनों पिंडों पर तिलोदक अर्पित करें । तदुपरांत पिंडों की पूजा कर अघ्र्य दें । श्रीविष्णु के लिए तर्पण करें । ब्राह्मणों को भोजन करवाकर उन्हें दक्षिणा के रूप में वस्त्र, पात्र, पंखा, पादत्राण इत्यादि वस्तुएं दें ।’  

पितृदोष हो, तो माता-पिता के जीवित होते हुए भी पुत्र का विधि करना उचित
श्राद्धकर्ता की कुंडली में पितृदोष हो, तो दोष दूर करने हेतु माता-पिता के जीवित होते हुए भी इस विधि को करें ।

विधि के समय केश मुंडवाने की आवश्यकता
श्राद्धकर्ता के पिता जीवित न हों, तो उसे विधि करते समय केश मुंडवाने चाहिए । जिसके पिता जीवित हैं, उस श्राद्धकर्ता को केश मुंडवाने की आवश्यकता नहीं है ।

घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तब अन्य सदस्यों द्वारा पूजा इत्यादि होना उचित है ।
त्रिपिंडी श्राद्ध में श्राद्धकर्ता के लिए ही अशौच होता है, अन्य परिजनों के लिए नहीं । इसलिए घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तो अन्यों के लिए पूजा इत्यादि बंद करना आवश्यक नहीं है ।
ये अनुष्ठान कौन कर सकता है ?
१. ये काम्य अनुष्ठान हैं । यह कोई भी कर सकता है । जिसके माता-पिता जीवित हैं, वह भी कर सकते हैं ।
२. अविवाहित भी अकेले यह अनुष्ठान कर सकते हैं । विवाहित होने पर पति-पत्नी बैठकर यह अनुष्ठान करें ।

निषेध
१. स्रियों के लिए माहवारी की अवधि में ये अनुष्ठान करना वर्जित है ।
२. स्त्री गर्भावस्था में ५वें मास के पश्चात यह अनुष्ठान न करे ।
३. घर में विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभकार्य हो अथवा घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, तो यह अनुष्ठान एक वर्ष तक न करें । 

पद्धति  
अनुष्ठान करने हेतु पुरुषों के लिए धोती, उपरना, बनियान तथा महिलाओं के लिए साडी, चोली तथा घाघरा इत्यादि नए वस्त्र (काला अथवा  हरा रंग न हो) लगते हैं । ये नए वस्त्र पहनकर अनुष्ठान करना पडता है । तत्पश्चात ये वस्त्र दान करने पडते हैं । तीसरे दिन सोने के नाग की (सवा ग्राम की) एक प्रतिमा की पूजा कर दान किया जाता है ।

अनुष्ठान में लगनेवाली अवधि
उपरोक्त तीनों अनुष्ठान पृथक-पृथक हैं । नारायण-नागबलि अनुष्ठान तीन दिनों का होता है तथा त्रिपिंडी श्राद्ध अनुष्ठान एक दिन का होता है । उपरोक्त तीनों अनुष्ठान करने हों, तो तीन दिन में संभव है । स्वतंत्र रूप से एक दिन का अनुष्ठान करना हो, तो वैसा भी हो सकता है । 

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