श्राद्ध के प्रकार
अनुक्रमणिका
१. मुख्य एवं प्रचलित प्रकार
अ. नित्य श्राद्ध
आ. नैमित्तिक श्राद्ध
इ. काम्य श्राद्ध
ई. नांदी श्राद्ध
१. कुर्मांग श्राद्ध
२. वृद्धि श्राद्ध
उ. पार्वण श्राद्ध
१. महालय श्राद्ध
२. मातामह श्राद्ध
३. तीर्थ श्राद्ध
४. अन्य प्रकार
अ. गोष्ठी श्राद्ध
आ. शुद्धि श्राद्ध
इ. पुष्टि श्राद्ध
ई. घृतश्राद्ध (यात्राश्राद्ध)
उ. दधि श्राद्ध
ऊ. अष्टका श्राद्ध (कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध)
ए. दैविक श्राद्ध
ऐ. हिरण्य श्राद्ध
ओ. हस्तश्राद्ध
औ. आत्मश्राद्ध
अं. चटश्राद्ध
कहा जाता है की ‘जो श्रद्धा से किया जाए, वह श्राद्ध’ है । जिनका श्राद्ध में विश्वास नहीं है, ऐसे लोगों को यदि श्राद्ध के विषय में हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक विज्ञान समझा दिया जाए, तब वे भी श्राद्ध पर विश्वास करने लगेंगे । परंतु,उस विश्वास का रुपांतर श्रद्धा में होने के लिए श्राद्ध कर,उसकी अनुभूति लेनी पडेगी । हिन्दू धर्म का एक पवित्र कर्म है । मानव जीवन में इसका असाधारण महत्त्व है । उद्देश्य के अनुसार श्राद्ध के अनेक प्रकार हैं ।
इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि मृत्यु के पश्चात विविध प्रकार के श्राद्ध कौन-से हैं और उन्हें करने से पितरों और श्राद्धकर्ता को कौन-से लाभ होते हैं । इससे समझ में आएगा कि हिन्दू धर्म में बताया गया श्राद्ध कितना श्रेष्ठ और लाभकारी है !
शास्त्रों में कुल ९६ प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं । उनमें एकोद्दिष्ट, सपिंंडीकरण, पार्वण, महालय एवं नांदी, ये पांच श्राद्ध ही प्रचलित हैं ।
१. श्राद्ध के प्रमुख प्रचलित प्रकार
मत्स्यपुराण में लिखा है, ‘नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्धमुच्यते । – मत्स्यपुराण, अध्याय १६, श्लोक ५’ अर्थात, श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य । यमस्मृति में उपर्युक्त तीन प्रकारों के अतिरिक्त, नांदी एवं पार्वण श्राद्ध के विषय में भी बताया गया है ।
अ. नित्य श्राद्ध
प्रतिदिन किए जानेवाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इसमें केवल जल-तर्पण अथवा तिल-तर्पण किया जाता है ।
आ. नैमित्तिक श्राद्ध
लिंगदेह (मृतक) के लिए किए जानेवाले एकोद्दिष्ट तथा अन्य प्रकार के श्राद्ध नैमित्तिक हैं ।
इ. काम्य श्राद्ध
विशेष कामना की पूर्ति के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं । फलप्ति के उद्देश्य से विशेष दिन, तिथि एवं नक्षत्र पर श्राद्ध करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है । उनके विषय में जानकारी आगे दे रहे हैं ।
१. वार (दिन) एवं श्राद्धफल
वार श्राद्धफल वार श्राद्धफल
सोमवार सौभाग्य शुक्रवार धनप्राप्ति
मंगलवार विजयप्राप्ति शनिवार आयुष्यवृद्धी
बुधवार कामनासिद्धी रविवार आरोग्य
गुरुवार विद्याप्राप्ति
२. तिथि एवं श्राद्धफल
श्राद्ध की तिथि श्राद्धफल
प्रतिपदा उत्तम पुत्र एवं पशु की प्राप्ति होना
द्वितीया कन्याप्राप्ति होना
तृतीया अश्वप्राप्ति, मानसन्मान मिलना
चतुर्थी अनेक क्षुद्र पशुआें की प्राप्ति होना
पंचमी अनेक और सुंदर पुत्र प्राप्त होना
षष्ठी तेजस्वी पुत्र प्राप्ति, द्युत में विजय मिलना
सप्तमी खेती के लिए भूमि मिलना
अष्टमी व्यापार में लाभ होना
नवमी घोडे जैसे पशुआें की प्राप्ति होना
दशमी गोधन बढना, दो खुरवाले पशुआें की प्राप्ति होना
एकादशी बर्तन, वस्त्र एवं ब्रम्हवर्चस्वी पुत्र से लाभान्वित होना
द्वादशी सोने-चांदी आदि की प्राप्ति
त्रयोदशी जातिबंधुआें से सम्मान प्राप्त होना
चतुर्दशी शस्त्र के आघात से अथवा युद्ध में मारे गए लोगों को आगे की गति मिलना, सुप्रजा की प्राप्ति होना
अमावस्या / पौर्णिमा सभी इच्छाआें की पूर्ति होना
टिप्पणी १ – पूर्णिमा के अतिरिक्त, सब तिथियां कृष्ण पक्ष की हैं । आश्विन मास के कृष्णपक्ष में (महालय में) ये विशेष फल देते हैं ।
२ अ. भीष्माष्टमी श्राद्ध
अपत्य (संतान) न हो, तब संतानप्राप्ति हेतु अथवा गर्भपात हो रहा हो गर्भ सुखपूर्वक रहने की कामनापूर्ति के लिए माघ शुक्ल अष्टमी अर्थात भीष्माष्टमी पर भीष्म पितामह के नाम से यह श्राद्ध अथवा तर्पण करें ।
३. नक्षत्र एवं श्राद्धफल
नक्षत्र श्राद्धफल
१. अश्विनी अश्वप्राप्ति
२. भरणी दीर्घायुष्य
३. कृत्तिका पुत्र के साथ स्वयं को स्वर्गप्राप्ति
४. रोहिणी पुत्रप्राप्ति
५. मृग ब्रह्मतेज की प्राप्ति
६. आर्द्रा क्रूरकर्मियों को गति मिलना (टिप्पणी १), कर्म सफल होना
७. पुनर्वसु द्रव्यप्राप्ति, भूमिप्राप्ति
८. पुष्य बलवृद्धी
९. आश्लेषा धैर्यवान पुत्र की प्राप्ति, कामनापूर्ति
१०. मघा जातिबंधुआें में सम्मान मिलना, सौभाग्यप्राप्ति
११. पूर्वा भाग्य, पुत्रप्राप्ति एवं पापनाश
१२. उत्तरा भाग्य, पुत्रप्राप्ति एवं पापनाश
१३. हस्त इच्छापूर्ति, जातिबंधुओंमें श्रेष्ठता प्राप्त होना
१४. चित्रा रूपवान पुत्रप्राप्ति, अनेक पुत्रप्राप्ति
१५. स्वाती व्यापारमें लाभ, यशप्राप्ति
१६. विशाखा अनेक पुत्रप्राप्ति, स्वर्णप्राप्ति
१७. अनुराधा राज्यप्राप्ति (मंत्रीपद इत्यादिकी प्राप्ति), मित्रलाभ
१८. ज्येष्ठा श्रेष्ठत्व, अधिकार, वैभव एवं आत्मनिग्रहकी प्राप्ति, राज्यप्राप्ति
१९. मूळ आरोग्यप्राप्ति, खेत-भूमि प्राप्त होना
२०. पूर्वाषाढा उत्तम कीर्ति, समुद्रतक यशस्वी यात्रा
२१. उत्तराषाढ शोकमुक्ति, सर्वकामनासिद्धि, श्रवणश्रेष्ठत्व
२२. श्रवण परलोकमें उत्तम गति, श्रेष्ठत्व
२३. धनिष्ठा राज्य (मंत्रीपद इत्यादिकी) प्राप्ति, सर्व मनोकामनाओंकी पूर्ति
२४. शतभिषा चिकित्सकीय व्यवसायमें सिद्धि प्राप्त होना, बलप्राप्ति
२५. पूर्वाभाद्रपद भेड, बकरी आदिकी प्राप्ति, स्वर्ण व चांदीसे भिन्न धातुओंकी प्राप्ति
२६. उत्तराभाद्रपद गौ-प्राप्ति, शुभ एवं उत्तम वास्तु प्राप्त होना
२७. रेवती बरतन, वस्त्र इत्यादिकी प्राप्ति, गोधनप्राप्ति
टिप्पणी १ – क्रूर व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसे गति प्राप्त करवाने हेतु आर्द्रा नक्षत्र पर यह श्राद्ध करने से लाभ होता है । (मूल स्थान पर)
विशेष टिप्पणी – सूत्र ‘२’ एवं ‘३’ की सारणियों में कुछ स्थानों पर एक ही तिथि अथवा नक्षत्र पर एक से अधिक श्राद्धफल बताए गए हैं । यह भिन्नता पाठभेद के कारण है ।
ई. नांदीश्राद्ध
मंगलकार्य के आरंभ में, गर्भाधान आदि सोलह संस्कारों के आरंभ में, पुण्याहवाचन के समय कार्य बाधारहित होने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नांदीश्राद्ध कहते हैं । इसमें सत्यवसु (अथवा क्रतुदक्ष) नाम के विश्वेदेव होते हैं तथा पितृत्रय, मातृत्रय एवं मातामहत्रय के ही नामों का उच्चारण किया जाता है । कर्मांगश्राद्ध एवं वृद्धिश्राद्ध, दोनों नांदीश्राद्ध हैं ।
१. कर्मांगश्राद्ध
गर्भाधान संस्कार के समय किया जानेवाला श्राद्ध
२. वृद्धिश्राद्ध
शिशु के जन्म के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध ।
उ. पार्वण श्राद्ध
‘श्रौत परंपरा में पिंडपितृ यज्ञ साग्निक (आग्निहोत्री) करता है । उसी का पर्याय, गृहसूत्र का पार्वण श्राद्ध है । इस श्राद्ध की सूची में पितरों का समावेश होने के कारण उनके लिए यह श्राद्ध किया जाता है । इस श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – एकपार्वण, द्विपार्वण और त्रिपार्वण । तीर्थश्राद्ध और महालयश्राद्ध, पार्वण श्राद्ध में ही आते हैं ।
१. महालयश्राद्ध
आश्विनकृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक जो श्राद्ध किए जाते हैं, उन्हें पार्वण श्राद्ध कहते हैं ।
२.मातामहश्राद्ध (दौहित्र)
जिसके पिता जीवित हैं; परंतु नाना जीवित नहीं हैं, ऐसा व्याक्ति यह श्राद्ध करता है । नाना के वर्षश्राद्ध से पहले यह श्राद्ध नहीं किया जाता । मातामह श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को किया जाता है । यह श्राद्ध करने के लिए श्राद्धकर्ता की आयु तीन वर्ष से अधिक होनी चाहिए । उसका उपनयन न हुआ हो, तो भी यह श्राद्ध कर सकता है ।
३. तीर्थश्राद्ध
यह श्राद्ध, प्रयागादि तीर्थक्षेत्रों में अथवा पवित्र नदियों के तट पर किया जाता है । तीर्थश्राद्ध में महालय के सभी पार्वण श्राद्ध किए जाते हैं ।
२. अन्य प्रकार
श्राद्ध के उपर्युक्त प्रमुख प्रकारों के अतिरिक्त १२ अमावस्या, ४ युग, १४ मन्वंतर, १२ संक्रांति, १२ वैधृति, १२ व्यतिपात, १५ महालय, ५, पाथेय, ५ अष्टका, ५ अन्वाष्टक ये ९६ प्रकार बताए गए हैं ।श्राद्ध के अन्य प्रकारों में कुछ की संक्षिप्त जानकारी आगे दे रहे हैं ।
अ. गोष्ठी श्राद्ध
ब्राह्मण समुदाय एवं विद्वान मिलकर तीर्थक्षेत्र में ‘पितरों की शांति तथा सुख-संपत्ति की कामना से जो श्राद्ध करते हैं अथवा श्राद्ध के विषय में चर्चा करते हुए प्रेरित होकर जो श्राद्ध करते हैं, उसे ‘गोष्ठीश्राद्ध’ कहते हैं ।
आ. शुद्धिश्राद्ध
अपनी शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को जो भोजन करवाया जाता है, उसे ‘शुद्धिश्राद्ध’ कहते हैं । इसे प्रायाश्चित्तांग श्राद्ध भी कहते हैं ।
इ. पुष्टिश्राद्ध
शरीर बलवान होने के लिए तथा धन-संपत्ति बढने के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को पुष्टिश्राद्ध कहते हैं ।’
ई. घृतश्राद्ध
(यात्राश्राद्ध)तीर्थयात्रा पर जाने से पहले, यात्रा निर्विघ्न होने के लिए पितरों को स्मरण कर, घी से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे घृतश्राद्ध कहते हैं ।
उ. दधिश्राद्ध
तीर्थयात्रा से लौटने पर किया जानेवाला श्राद्ध
ऊ. अष्टका श्राद्ध(कृष्णपक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध)
अष्टका, अर्थात किसी भी महीने की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि । वेदकाल में अष्टका श्राद्ध विशेषतः पौष, माघ, फाल्गुन एवं चैत्र इन चार महीनों के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जाता था । इस श्राद्ध में तरकारी, मांस, बडा, तिल, शहद, चावल की खीर, फल, कंद-मूल आदि पदार्थ पितरों को अर्पित किए जाते थे । विश्वेदेव, आग्नि, सूर्य, प्रजापति, रात्रि, नक्षत्र, ऋतु आदि श्राद्ध के देवता माने जाते थे ।
ए. दैविकश्राद्ध
देवता की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले श्राद्ध को दैविकश्राद्ध कहते हैं ।
ऐ. हिरण्यश्राद्ध
इसमें, भोजन के स्थान पर दक्षिणा देकर किया श्राद्ध । अन्न के अभाव में अनाज के मूल्य के चौगुने मूल्य का स्वर्ण ब्राह्मण को देकर, श्राद्ध किया जाता है ।
ओ. हस्तश्राद्ध
यह, ब्राह्मणों को भोजन देकर किया जानेवाला श्राद्ध । भोजन न हो तो हिरण्य से (पैसे से), आमान्न से (सूखा सीधा) दिया जाता है ।’
औ. आत्मश्राद्ध
जिसे संतान नहीं है अथवा जिनकी संतान नास्तिक है, वे अपने जीवनकाल में अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर सकते हैं । इसकी विधि शास्त्र में बताई गई है ।
अं. चटश्राद्ध
श्राद्ध के लिए देवता तथा पितरों के स्थान पर बैठने के लिए जब ब्राह्मण उपलब्ध नहीं होते, तब उस स्थान पर कुश (दर्भ) रखा जाता है । इसे चट (अथवा दर्भबटु) कहते हैं । इस विधि से श्राद्धकर्म चटपट (तुरंत) होने के कारण इसे ‘चटश्राद्ध’ कहते हैं ।
यद्यपि ऊपर श्राद्ध के विविध प्रकार बताए गए हैं; परंतु वर्तमान में, मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन से ग्यारहवें दिन तक आवश्यक श्राद्ध, मासिक श्राद्ध, सपिंडीकरण श्राद्ध, अब्दपूर्तिश्राद्ध, द्वितीयाब्दिक श्राद्ध अर्थात प्रतिसांवत्सरिक एवं महालय श्राद्ध प्रचलित हैं ।
क. एकोद्दिष्ट श्राद्ध
१ क. पाथेय श्राद्ध (मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन किया जानेवाला श्राद्ध)
मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन अंत्येष्टि में, अर्थात प्रत्यक्ष चिता की अग्नि में जब शव जलाया जाता है, तब उससे अनेक प्रकार की दूषित रज-तमात्मक वायु निकलती है । पूरा शव जल जाने पर दूषित वायु निकल जाने पर जीव को आगे जाने का मार्ग मिलता है । इसी कर्म को पाथेय श्राद्ध कहते हैं । इस श्राद्ध में मंत्रसहित संकल्प करने से, उपप्राणों के साथ देह की त्याज्य (दूषित) वायु का संबंध समाप्त हो जाता है । तब, सूक्ष्म देह हलकी होती है, जिससे उसे गति मिलती है । इसके बाद मृतदेह का उपांतर ‘प्रेत’ में होने लगता है ।
१ अ २. नग्नप्रच्छादन श्राद्ध (मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्ध में मंत्रोच्चारण से, संबंधित तरंगों के कारण प्रेत की स्थूलदेह से संबंधित त्याज्य रज-तमात्मक वायु का पहले विघटन होता है; पश्चात उसके सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनता है ।
१ अ ३. नवश्राद्ध (मृत्यु के उपरांत पहले नौ दिनों तक प्रतिदिन एक किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से उस-उस दिन अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से लिंगदेह पर आया काला आवरण दूर किया जाता है ।
१ अ ४. आस्थिसंचयन श्राद्ध (दहनक्रिया के उपरांत आस्थिसंचय के दिन किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से लिंगदेह की उसके शरीर की आस्थियों से आसक्ति का संस्कार नष्ट कर, स्थूल शरीर के प्रति आकर्षण समाप्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।
१ अ ५. वेदिका श्राद्ध (वायस पिंड, काक-बलि) (दसवें दिन का श्राद्ध )
दसवें दिन लिंगदेह को काकस्पर्शित और अभिमंत्रित अन्नपिंड दिया जाता है । इससे लिंगदेह को अन्न की आसक्तिवाले रज-तमात्मक संस्कारों से मुक्त करने का प्रयत्न कर, इसके द्वारा पृथ्वी का वायुमंडल भेदने के लिए आवश्यक बल प्रदान किया जाता है ।
१ अ ६. महैकोद्दिष्ट श्राद्ध (११वें दिन किया जानेवाला श्राद्ध)
‘इस श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से लिंगदेह अधिक मात्रा में गति (ऊर्जा) प्राप्त कर, मत्र्यलोक में प्रवेश करता है ।’
१ अ ७. रुद्रगण श्राद्ध एवं वसुगण श्राद्ध (११ वें दिन एकोद्दिष्ट श्राद्ध के उपरांत ग्यारह रुद्र एवं आठ वसुओं के नाम से किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्ध में पढे जानेवाले मंत्रों से वायुमंडल में फैलनेवाली तेजोमय तरंगों के बल पर विशिष्ट गणों का आवाहन किया जाता है । पश्चात, उन्हें पूजा से प्रसन्न कर, लिंगदेह को गति देने के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है । इस प्रकार, लिंगदेह को उसकी विशिष्ट योनि से आगे ले जाने का दायित्व उन विशिष्ट रुद्रगण पर तथा लिंगदेह की गति को निरंतर बनाए रखनेवाले वसुगणों को सौंपा जाता है । रुद्रगण एक बार ही ऊर्जा का आघातात्मक बल प्रदान कर लिंगदेह को आगे ढकेलते हैं; पश्चात उस गति को निरंतर बनाए रखने में वसुगण सहायता करते हैं ।
१ अ ८. मासिक श्राद्ध
इस श्राद्ध से लिंगदेह को बाहर से तेजतत्त्वात्मक बल प्राप्त होता है । इससे, उसके मार्ग में अनिष्ट शक्तियों द्वारा समय-समय पर उपस्थित किए जानेवाले अवरोध दूर किए जाते हैं । इससे उस लिंगदेह का उस विशिष्ट योनि में रहना सरल होता है । इस श्राद्ध से लिंगदेह अपने परिजनों को भूल जाता है तथा उसका भूलोक और स्मृतियों से युक्त इच्छातरंगों से संबंध टूट जाता है ।
१ अ ९. ऊनमासिक श्राद्ध (एक माह पूर्ण होने के एक दिन पूर्व किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प से लिंगदेह की दिशा में तेजोमय तरंगों का प्रवाह फेंका जाता है, जिसके आकर्षण से लिंगदेह श्राद्धस्थल पर पहुंचता है । उसके उपरांत श्राद्ध करने पर, उसका फल अल्प समय में लिंगदेह को मिलता है ।
१ अ १०. त्रैैपाक्षिक श्राद्ध (पैंतालीस दिनों के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध)
पैंतालीस दिनों में लिंगदेह को अपने कर्मानुसार प्राप्त विशिष्ट मत्र्यलोक में रहने का अभ्यास होने लगता है । उसे उस स्थान पर स्थिर करने के लिए श्राद्ध से प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से लिंगदेह के सर्व ओर सुरक्षा-कवच बना दिया जाता है । इस प्रकार, वह दूसरे दिन श्राद्धादि कर्मविधि प्रारंभ होने तक अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहता है ।
१ अ ११. ऊनषण्मासिक श्राद्ध (छह माह पूर्ण होने के एक दिन पहले किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्धकर्म से तेजोमय तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । इनसे, पूर्वजरूपी अनिष्ट शक्तियों के पाश में बद्ध लिंगदेह को मुक्त किया जाता है । पश्चात, उसके सर्व ओर बना काली शक्ति का आवरण दूर कर, उसका भार घटाया जाता है । इससे उसे श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प की पूरी शक्ति मिलती है । इस शक्ति के बल पर ही वह शीघ्रता से पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करता है ।
१ अ १२. ऊनाब्दिक श्राद्ध (एक वर्ष पूरा होने से एक दिन पहले किया जानेवाला श्राद्ध)
इस श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प से लिंगदेह को मत्र्यलोक भेदकर आगे जाने के लिए बल प्रदान किया जाता है । इस बल से उसे आगे के लोक में जाने हेतु प्रवाही ऊर्जा और दिशा भी मिलती है ।
१ आ. पित्र-त्रयी श्राद्ध
१. सपिंडीकरण श्राद्ध (ऊनाब्दिक श्राद्ध के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध; किंतु आजकल यह बारहवें दिन किया जाता है ।)
इस श्राद्ध से प्रक्षेपित संकल्पयुक्त तेजोमय तरंगों के कारण पित्र-त्रयी के(पिता,पितामह,परपितामह) सर्व ओर का वायुमंडल शुद्ध होता है,इन्हें एक-दूसरे के समीप आने के लिए प्रवाही गतिज ऊर्जा मिलती है, उनके मार्ग में स्थित अनिष्ट शक्तियों के अवरोध समाप्त होते हैं और वे एक-दूसरे के अत्यंत निकट आते हैं ।’
२. पार्वण श्राद्ध (अब्दपूर्ति श्राद्ध, निधन के एक वर्ष पश्चात आनेवाली उसी तिथि के एक दिन पहले किया जानेवाला वर्षपूर्ति श्राद्ध)
‘इस श्राद्ध के संकल्प से प्रक्षेपित वेगवान ऊर्जा से लिंगदेह मत्र्यलोक से एक ही झटके में अगले लोक की ओर भेज दिया जाता है ।
३. पार्वण श्राद्ध (द्वितीयाब्दिक, दूसरे वर्ष के प्रारंभ में किया जानेवाला श्राद्ध)
श्राद्ध के संकल्प से पित्र-त्रयी आदि को संबोधित एवं आवाहन कर, यह श्राद्ध किया जाता है । इससे प्रक्षेपित तेजोमय तरंगों की सहायता से पहले की तीन पीढियों के पितरों को हविर्भाग दिया जाता है । इससे वे संतुष्ट होकर श्राद्धस्थल की ओर आकर्षित होते हैं । तब उन्हें मंत्रशक्ति की तेजस्वी तरंगों से शुद्ध कर, एक-दूसरे के निकट लाया जाता है । इससे वे पितर एक-दूसरे की सहायता कर पाते हैं । इस प्रकार, इस श्राद्ध के कारण, पितरों के एक-दूसरे से मिलने के मार्ग में आनेवाली अनिष्ट शक्तियों की बाधाएं घट जाती हैं ।
टिप्पणी – प्रथम मासिक श्राद्ध से ऊनाब्दिक श्राद्ध तक के श्राद्ध सोलह मासिक श्राद्धों में गिने जाते हैं ।
४. भरणी श्राद्ध (भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष में भरणी नक्षत्र में किया जानेवाला श्राद्ध)
‘कृष्णपक्ष के भरणी नक्षत्र के तारों की त्रिकोणीय योनि के देवता यम हैं, उसी प्रकार इस नक्षत्र पर श्राद्ध करने से इस दिन ब्रह्मांड में कार्यरत यमतरंगों से बल प्राप्त होता है तथा पितरों को शीघ्र गति मिलती है । इस दिन, इच्छाशक्ति से संबंधित यमतरंगें अधिक सक्रिय रहती हैं । इससे पितरों को लाभ होता है । इसलिए, भरणी श्राद्ध का विशेष महत्त्व है ।
गया की भूमि-सतह से लगी, ऊध्र्व दिशा में सक्रिय पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित इच्छतरंगों से बने इस सूक्ष्म आवरण का आकार त्रिकोणीय है । इसलिए गया की भूमि को इच्छा से संबंधित ‘त्रिकोणीय योनि’ कहा जाता है । यह क्षेत्र कनिष्ठ इच्छातरंगों से प्रभारित रहता है । अतः, गया में किया गया श्राद्धकर्म, कनिष्ठ इच्छावाले पितरों के लिए अधिक फलदायी होता है । भरणी नक्षत्र भी तीन तारों के त्रिकोण से बना है । इसलिए, यह ‘अंतरिक्ष का त्रिकोणीय योनि क्षेत्र’ कहा जाता है । गया क्षेत्र एवं भरणी नक्षत्र में समानता होने के कारण, भरणी नक्षत्र में किए जानेवाले श्राद्ध में पितरों का आवाहन करने पर, इस नक्षत्र से संबंधित भूतल पर विद्यमान इच्छातरंगें सक्रिय होती हैं, जिससे वह विशिष्ट स्थान गया बन जाता है । अतः,इस श्राद्ध से, गया में श्राद्ध करने का फल मिलता है ।’
३. विवाहादि मांगलिक कार्यों के समय नांदीश्राद्ध क्यों करते हैं ?
‘पुत्रजन्म, उपनयन एवं विवाह, पितरों से संबंधित इन पारिवारिक अवसरों पर पितरों को संतुष्ट कर, उनसे आशीर्वाद लेने के लिए, सबसे पहले नांदीश्राद्ध किया जाता है । इससे, इन कार्यक्रमों में, पूर्वजों के वासनायुक्त लिंगदेह विघ्न नहीं डालते । फलस्वरूप, पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न पूरा होने में सहायता मिलती है ।’
३. मृत्यु के उपरांत विविध प्रकार के
श्राद्ध करने से पितरों एवं श्राद्धकर्ता को होनेवाले लाभ
आगे बताए गए श्राद्ध क्रमशः अधिक फलदायी हैं । इसलिए, इन्हें करने से पितरों को आगे जाने के लिए गति मिलती है । इससे, उनकी पृथ्वी की सजीव एवं निर्जीव वस्तुओं से आसक्ति समाप्त होने में सहायता होती है । इससे, पितर और यजमान दोनों मुक्त जीवन जी सकते हैं । पितरों को इच्छित गति प्राप्त होने पर, यजमान एवं उनके परिजनों की साधना में आनेवाली बाधाएं भी घटने लगती हैं, जिससे साधना करना सरल हो जाता है ।