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नारायण नागबली मुहूर्त 2019 Narayan Nag bali Muhurat 2019 - 2020

नारायण नागबली मुहूर्त 2019 Narayan Nag bali Muhurat 2019 - 2020

MonthAuspicious Date for the Pooja
Jan4Jan, 8Jan, 15Jan, 18Jan, 21Jan, 25Jan, 28Jan, 31Jan
Feb4Feb, 11Feb, 14Feb, 18Feb, 22Feb, 26Feb
Mar1Mar, 4Mar, 10Mar, 13Mar, 17Mar, 20Mar, 23Mar, 26Mar, 31Mar
Apr7Apr, 10Apr, 13Apr, 16Apr, 19Apr, 22Apr, 27Apr
May4May, 7May, 11May, 15May, 31May
Jun3Jun, 7Jun, 9Jun, 13Jun, 16Jun, 21Jun, 27Jun
Jul1Jul, 4Jul , 7Jul, 10Jul, 13Jul, 18Jul, 25Jul, 28Jul
Aug1Aug, 7Aug, 10Aug, 14Aug, 21Aug, 24Aug, 28Aug
Sep5Sep, 8Sep, 11Sep, 17Sep, 20Sep, 23Sep, 25Sep
Oct1Oct, 4Oct, 8Oct, 15Oct, 18Oct, 22Oct, 30Oct
Nov2Nov, 4Nov, 11Nov, 14Nov, 18Nov, 21Nov, 24Nov, 27Nov
Dec1Dec, 8Dec, 11Dec, 15Dec, 18Dec, 21Dec, 24Dec, 28Dec
The above-mentioned Narayan Nagbali 2019 Dates are auspicious dates for this Puja.

Dress Code mandatory for this Pooja.

Narayan Nagbali Puja

This Puja is performed 3 days for which devotee needs to bring new clothes.

Puja to be performed by the male. For the female, Pandit Ji performs the Puja on her behalf.

One must fast till they complete the Puja.

Must follow the instructions as defined by the Pundit Ji.

Veg to be consumed during Pooja days.



त्रिपिंडी श्राद्ध Tripindi Shradha Vidhi

त्रिपिंडी श्राद्ध  Tripindi Shradha Vidhi


त्रिपिंडी काम्‍य श्राध्द है। लगातार तीन वर्ष तक जिनका श्राध्द न किया गया हो, उनको प्रेतत्‍व प्राप्त होता है। 

तमोगुणी, रजोगुणी एवं सत्तोगुणी – ये तीन प्रेत योनियां हैं। पृथ्वीपर वास करने वाले पिशाच तमोगुमी होते है। अंतरिक्ष में वास करने वाले पिशाच रजोगुणी एवं वायुमंडल पर वास करने वाले पिशाच सत्तोगुणी होते है। इन तीनों प्रकार की प्रेतयोनियो की पिशाच पीडा के निवारण हेतु त्रिपिंडी श्राध्द किया जाता है।

हमारे लिए अज्ञात, सद्गति को प्राप्त न हुए अथवा दुुर्गति को प्राप्त तथा कुल के लोगों को कष्ट देनेवाले पितरों को, उनका प्रेतत्व दूर होकर सद्गति मिलने के लिए अर्थात भूमि, अंतरिक्ष एवं आकाश, तीनों स्थानों में स्थित आत्माओं को मुक्ति देने हेतु त्रिपिंडी करने की पद्धति है । श्राद्ध साधारणतः एक पितर अथवा पिता-पितामह (दादा)-प्रपितामह (परदादा) के लिए किया जाता है । अर्थात, यह तीन पीढियों तक ही सीमित होता है । परंतु त्रिपिंडी श्राद्ध से उसके पूर्व की पीढियों के पितरों को भी तृप्ति मिलती है । प्रत्येक परिवार में यह विधि प्रति बारह वर्ष करें; परंतु जिस परिवार में पितृदोष अथवा पितरों द्वारा होनेवाले कष्ट हों, वे यह विधि दोष निवारण हेतु करें ।
कई साल तक पितरों का विधीपूर्वक श्राध्द न होने से पितरों को प्रेतत्व प्राप्त होता है।श्राध्द कमलाकर ग्रंथ में साल मे ७२ दफा पितरों का श्राध्द करना चाहिए यह कह गया है।

अमावस्या व्दादशैव क्षयाहव्दितये तथा।षोडशापरपक्षस्य अष्टकान्वष्टाकाश्च षट॥
संक्रान्त्यो व्दादश तथा अयने व्दे च कीर्तिते।चतुर्दश च मन्वादेर्युगादेश्च चतुष्टयम॥

श्राध्द न करने से पितर लोग अपने वंशजों का खून पिते है यह आदित्यपुराण मे कहा है।

न सन्ति पितरश्र्चेति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राध्दं न कुरुते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते॥(आदित्यपुराण)

श्राध्द न करने से होनेवाले दोष त्रिपिंडी श्राध्द से समाप्त होते है।जैसे भूतबाधा,प्रेतबाधा,गंधर्व राक्षस शाकिनी आदि दोष दूर करने के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने की प्रथा है|
घर में कलह, अशांती,बिमारी,अपयश,अकाली मृत्य,वासना पूर्ति न होना,शादी वक्त पर न होना,संतान न होना इस सब को प्रेत दोष कहा जाता है।धर्म ग्रंथ में धर्म शास्त्र के नुसार सभी दोष के निवारण के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करना को सुचित किया गया है।

त्रिपिंडी श्राध्द में ब्रम्हदेव,विष्णु,रुद्र ये तिन देवताओंकी प्राणप्रतिष्ठापूर्वक पुजा की जाती है।त्रिपिंडी श्राध्द में सात्विक प्रेत दोष निवारण के लिए ब्रम्ह पुजन करते है और यव का पिंड दिया जाता है।राजस प्रेत दोष निवारण के लिए विष्णु पुजन करते है और चावल का पिंड दिया जाता है।तामसप्रेत दोष निवारण के लिए तिल्लिका पिंड दिया जाता है और रुद्र पुजन करते है।

यह पुजा सभी अतृप्त आत्माओंके मोक्ष प्राप्ती के लिए कियी जाती है।त्रिपिंडी श्राध्द में अपने गोत्र,पितरोंके नाम का नही किया जाता।कारण कौनसी पितरों की बाधा है।इस के बारेमे शाश्वत ज्ञान नहि होता।सभी अतृप्त आत्माओंकी मोक्ष प्राप्ती के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने का शास्त्र धर्मग्रंथ में बताया गया है।

त्रिपिंडी श्राध्द का आरम्भ करने से पूर्व किसी पवित्र नदी या तीर्थ स्थात में शरीर शुध्दि के लिये प्रायश्चित के तौर पर क्षौर कर्म कराने का विधान है। त्रिपिंडी श्राध्द में ब्रह्मा, विष्णु् और महेश इनकी प्रतिमाएं तैयार करवाकर उनकी प्राण-प्रतिष्ठापुर्वक पूजन किया जाता है। ब्राह्मण से इन तीनों देवताओं के लिये मंत्रों का जाप करवाया जाता है। हमें सतानेवाला, परेशान करने वाला पिशाचयोनि प्राप्त जो जीवात्मा है, उसका नाम एवं गोत्र हमे ज्ञात नहीं होने से उसके लिये अनाधिष्ट गोत्र शब्द‍ का प्रयोग किया जाता है। अंतत: इससे प्रेतयोनि प्राप्त उस जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए यह श्राध्द किया जाता है। जौ तिल, चावल के आटे के तीन पिंड तैयार किये जाते हैं। जौ का पिंड समंत्रक एवं सात्विक होता हे, वासना के साथ प्रेतयोनि में गये जीवात्मा को यह पिंड दिया जाता है। चावल के आटे से बना पिंड रजोगुणी प्रेतयोनी में गए प्रेतात्माओ को दिया जाता है। इन तीनों पिंडो का पूजन करके अर्ध्यं देकर देवाताओं को अर्पण किये जाते है। हमारे कुलवंश को पिडा देने वाली प्रेतयोनि को प्राप्त जीवात्मा ओं को इस श्राध्द कर्म से तृप्ती हो और उनको सदगति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना के साथ यह कर्म किया जाता है। सोना, चांदी,तांबा, गाय, काले तिल, उडद, छत्र-खडाऊ, कमंडल में चीजें प्रत्यक्ष रुप में या उनकी कीमत के रुप में नकद रकम दान देकर अर्ध्य दान करने के पश्चात ब्राह्मण एवं सौभाग्यीशाली स्त्री को भोजन करवाने के पश्चात यह श्राध्दं कर्म पूर्ण होता है।


त्रिपिंडी श्राद्ध विधी करने का अधिकार विवाहित पती-पत्नी यह विधी कर सकते है| अविवाहीत व्यक्ती भी यह विधी कर सकते है|

त्रिपिंडी श्राद्ध में ब्रह्मा, विष्णू और महेश इनकी प्रतिमाए उनका प्राण प्रतिष्ठा पूर्वक पूजन किया जाता है| हमे सताने वाला, परेशान करने वाला पिशाच्च योनिप्राप्त जो जीवात्मा रहता है उसका नाम एवं गोत्र हमे द्न्यात नही होने से उसके लिए “अनादिष्ट गोत्र” का शब्दप्रयोग किया जाता है| अंतता इसके प्रेतयोनिप्राप्त उस जिवात्मा को संबोधित करते हुए यह श्राद्ध किया जाता है| त्रिपिंडी श्रद्ध जीवनभर दरिद्रता अनेक प्रकारसे परेशानीया, श्राद्ध कर्म, और्ध्ववैदिक क्रिया शास्त्र के विधी के अनुसार न किये जाने के कारण भूत, प्रेत, गंधर्व, राक्षस, शाकिणी – डाकिणी, रेवती, जंबूस आदि द्वारा पिडाए उत्पन्न होती है

मानव का एक मास पित्रों का एक दिन होता है। अमावस्या पित्रों की तिथी है। इस दिन दर्शश्राध्द होता है। अतृप्त पितर प्रेतरूपसे पीडा देते है।

इस लिये त्रिपिंडी श्राध्द करना चाहिए। इसका विधान ‘श्राद्ध चितांमणी’ इस ग्रंथमे बताया है।

कार्तिके श्रावण मासे मार्गशीर्ष तथैवच।
माघ फाल्गुन वैशाखे शुक्ले कृष्ण तथैवच।
चर्तुदश्या विशेष्ण षण्मासा: कालउच्यते।
अन्यच्च कार्तिकादि चर्तुमासेषु कारयेत्।।
तथापि दोष बाहुल्ये सति न कालापेक्षा।।

इस विधी को श्रावण, कार्तिक, मार्गशिर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन और वैशाख मुख्य मास है ५, ८, ११, १३, १४, ३० में शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की तिथीयाँ और रविवार दिन बताया गया है। किंन्तु तीव्रवार पिडा यदि हो रही है तो तत्काल त्रिपिडी श्राध्द करना उचित है। इसके लिए गोदायात्रा विवेका-दर्शा में प्रमाण दिया है।

अवर्णनियो महिमा त्रिपिंडी श्राद्व-कर्मण।
अत: सर्वेषु कालेषु त्र्यंबकेंतु विशिष्यते।।इस कर्म के पिंड प्रदान में ‘येकेचिप्रेरुपेण पीडयंते च महेश्वर’ ऐसा वचन आया है। रघुवंश महाकाव्य में कालिदासने ‘महेश्वर, (त्र्यंबक) एवं नापर : कहा है। अत: महेश्वर संज्ञा त्र्यंबकेश्वरके लिये ही है। महेश्वर (त्र्यंबक) जो कोई हमे प्रेतरूप में दुर्धर पडा दे रहे हो उन सभी को नष्ट कर दे ‘ऐसी मेरी प्रार्थना है। प्रेतरूपी के पितर रवि जब कन्या और तुल राशी मे आता है तब पृथ्वीपर वार करते है। श्राद्ध के लिए यह काल भी योग्य है, महत्व का है। यह कामश्राद्ध होनेसे पिडा दूर होती। अत: नवरात्रमे यह कामश्राद्ध न करे। वैसेही त्रिपिंडी श्राद्ध और तीर्थश्राद्ध एकही दिन न करके अलग अलग करे। और यदि समय न हो तो प्रथमत: त्रिपिंडी कर्म पुरा करके बाद तीर्थश्राद्ध करे।

‘प्रेताय सदगति दत्वा पार्वणादि समाचरेत्।
पिशाच्चमोचनेतीर्थ कुशावर्ते विशेषत।।

यह कर्म पिशाच्चविमोचन तीर्थ अथवा कुशावर्त तीर्थपर करे। इस विधी मे ब्रम्हा, विष्णु, रुद्र (महेश) प्रमुख देवता है। ये द्विविस्थ, अंतरिक्षस्थ, भूमिस्थ और वृद्ध अवस्था के अनादिष्ट प्रेतों को सदगति देते है। अत: विधिवत एकोद्दिष्ट विधिसे त्रिपिंडी श्राद्ध करे। इस विधी के पूर्व गंगाभेट शरीर शुध्यर्थ प्रायश्चित्तादि कर्म करे। यहा क्षौर करने की जरूरत नही। किंन्तु प्रायश्चित अंगभूत क्षौर के लिए आता है। त्रिपिंडी विधी सपत्निक नूतन वस्त्र पहनकर करे। यह विधी जो अविवाहीत है अथवा जिसकी पत्नी जीवित नही है वो कर सकता है। इसमें देवता ब्रम्हा (रौप्य), विष्णु (सुवर्ण), रुद्र (ताम्र) धातू की होती है।

Tripindi Shraddha Vidhiत्रिपिंडी श्राद्ध

तीर्थस्थल पर पितरों को संबोधित कर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे त्रिपिंडी श्राद्ध कहते हैं ।

विधि
विधि के लिए उचित काल
अ. त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा – ये तिथियां एवं संपूर्ण पितृपक्ष उचित होता है ।  

आ. गुरु शुक्रास्त, गणेशोत्सव एवं शारदीय नवरात्र की कालावधि में यह विधि न करें । उसी प्रकार, परिवार में मंगलकार्य के उपरांत अथवा अशुभ घटना के उपरांत एक वर्ष तक त्रिपिंडी श्राद्ध न करें । अत्यंत अपरिहार्य हो, उदा. एक मंगलकार्य के उपरांत पुनः कुछ माह के अंतराल पर दूसरा मंगलकार्य नियोजित हो, तो दोनों के मध्यकाल में त्रिपिंडी श्राद्ध करें ।

विधि हेतु उचित स्थान
त्र्यंबकेश्वर, गोकर्ण, महाबलेश्वर, गरुडेश्वर, हरिहरेश्वर (दक्षिण काशी), काशी (वाराणसी) – ये स्थान त्रिपिंडी श्राद्ध करने हेतु उचित हैं । 

पद्धति
‘प्रथम तीर्थ में स्नान कर श्राद्ध का संकल्प करें । तदुपरांत महाविष्णु की एवं श्राद्ध के लिए बुलाए गए ब्राह्मणों की पूजा श्राद्धविधि के अनुसार करें । तत्पश्चात यव (जौ), व्रीहि (कीटक न लगे चावल) एवं तिल के आटे का एक-एक पिंड बनाएं । दर्भ फैलाकर उस पर तिलोदक छिडक कर पिंडदान करें ।  

यवपिंड (धर्मपिंड)
पितृवंश के एवं मातृवंश के जिन मृत व्याक्तियों की उत्तरक्रिया न हुई हो, संतान न होने के कारण जिनका पिंडदान न किया गया हो अथवा जो जन्म से ही अंधे-लूले थे (नेत्रहीन-अपंग होने के कारण जिनका विवाह न हुआ हो इसलिए संततीरहित), ऐसे पितरों का प्रेतत्व नष्ट हो एवं उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इसलिए यवपिंंड प्रदान किया जाता है। इसे धर्मपिंड की संज्ञा दी गई है ।

मधुरत्रययुक्त व्रीहीपिंड
पिंड पर चीनी, मधु एवं घी मिलाकर चढाते हैं; इसे मधुरत्रय कहते हैं । इससे अंतरिक्ष में स्थित पितरों को सद्गति मिलती है । 

तिलपिंड
पृथ्वी पर क्षुद्र योनि में रहकर अन्यों को कष्ट देनेवाले पितरों को तिलपिंड से सद्गति प्राप्त होती है ।

इन तीनों पिंडों पर तिलोदक अर्पित करें । तदुपरांत पिंडों की पूजा कर अघ्र्य दें । श्रीविष्णु के लिए तर्पण करें । ब्राह्मणों को भोजन करवाकर उन्हें दक्षिणा के रूप में वस्त्र, पात्र, पंखा, पादत्राण इत्यादि वस्तुएं दें ।’  

पितृदोष हो, तो माता-पिता के जीवित होते हुए भी पुत्र का विधि करना उचित
श्राद्धकर्ता की कुंडली में पितृदोष हो, तो दोष दूर करने हेतु माता-पिता के जीवित होते हुए भी इस विधि को करें ।

विधि के समय केश मुंडवाने की आवश्यकता
श्राद्धकर्ता के पिता जीवित न हों, तो उसे विधि करते समय केश मुंडवाने चाहिए । जिसके पिता जीवित हैं, उस श्राद्धकर्ता को केश मुंडवाने की आवश्यकता नहीं है ।

घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तब अन्य सदस्यों द्वारा पूजा इत्यादि होना उचित है ।
त्रिपिंडी श्राद्ध में श्राद्धकर्ता के लिए ही अशौच होता है, अन्य परिजनों के लिए नहीं । इसलिए घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तो अन्यों के लिए पूजा इत्यादि बंद करना आवश्यक नहीं है ।
ये अनुष्ठान कौन कर सकता है ?
१. ये काम्य अनुष्ठान हैं । यह कोई भी कर सकता है । जिसके माता-पिता जीवित हैं, वह भी कर सकते हैं ।
२. अविवाहित भी अकेले यह अनुष्ठान कर सकते हैं । विवाहित होने पर पति-पत्नी बैठकर यह अनुष्ठान करें ।

निषेध
१. स्रियों के लिए माहवारी की अवधि में ये अनुष्ठान करना वर्जित है ।
२. स्त्री गर्भावस्था में ५वें मास के पश्चात यह अनुष्ठान न करे ।
३. घर में विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभकार्य हो अथवा घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, तो यह अनुष्ठान एक वर्ष तक न करें । 

पद्धति  
अनुष्ठान करने हेतु पुरुषों के लिए धोती, उपरना, बनियान तथा महिलाओं के लिए साडी, चोली तथा घाघरा इत्यादि नए वस्त्र (काला अथवा  हरा रंग न हो) लगते हैं । ये नए वस्त्र पहनकर अनुष्ठान करना पडता है । तत्पश्चात ये वस्त्र दान करने पडते हैं । तीसरे दिन सोने के नाग की (सवा ग्राम की) एक प्रतिमा की पूजा कर दान किया जाता है ।

अनुष्ठान में लगनेवाली अवधि
उपरोक्त तीनों अनुष्ठान पृथक-पृथक हैं । नारायण-नागबलि अनुष्ठान तीन दिनों का होता है तथा त्रिपिंडी श्राद्ध अनुष्ठान एक दिन का होता है । उपरोक्त तीनों अनुष्ठान करने हों, तो तीन दिन में संभव है । स्वतंत्र रूप से एक दिन का अनुष्ठान करना हो, तो वैसा भी हो सकता है । 

श्राद्ध के प्रकार

श्राद्ध के प्रकार

अनुक्रमणिका
१. मुख्य एवं प्रचलित प्रकार
अ. नित्य श्राद्ध
आ. नैमित्तिक श्राद्ध
इ. काम्य श्राद्ध
ई. नांदी श्राद्ध

१. कुर्मांग श्राद्ध
२. वृद्धि श्राद्ध

उ. पार्वण श्राद्ध

१. महालय श्राद्ध
२. मातामह श्राद्ध
३. तीर्थ श्राद्ध
४. अन्य प्रकार
अ. गोष्ठी श्राद्ध
आ. शुद्धि श्राद्ध
इ. पुष्टि श्राद्ध
ई. घृतश्राद्ध (यात्राश्राद्ध)
उ. दधि श्राद्ध

ऊ. अष्टका श्राद्ध (कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध)

ए. दैविक श्राद्ध

ऐ. हिरण्य श्राद्ध

ओ. हस्तश्राद्ध

औ. आत्मश्राद्ध

अं. चटश्राद्ध

कहा जाता है की  ‘जो श्रद्धा से किया जाए, वह श्राद्ध’ है । जिनका श्राद्ध में विश्वास नहीं है, ऐसे लोगों को यदि श्राद्ध के विषय में हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक विज्ञान समझा दिया जाए, तब वे भी श्राद्ध पर विश्वास करने लगेंगे । परंतु,उस विश्वास का रुपांतर श्रद्धा में होने के लिए श्राद्ध कर,उसकी अनुभूति लेनी पडेगी । हिन्दू धर्म का एक पवित्र कर्म है । मानव जीवन में इसका असाधारण महत्त्व है । उद्देश्य के अनुसार श्राद्ध के अनेक प्रकार हैं ।

इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि मृत्यु के पश्चात विविध प्रकार के श्राद्ध कौन-से हैं और उन्हें करने से पितरों और श्राद्धकर्ता को कौन-से लाभ होते हैं । इससे समझ में आएगा कि हिन्दू धर्म में बताया गया श्राद्ध कितना श्रेष्ठ और लाभकारी है !

शास्त्रों में कुल ९६ प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं । उनमें एकोद्दिष्ट, सपिंंडीकरण, पार्वण, महालय एवं नांदी, ये पांच श्राद्ध ही प्रचलित हैं ।

१. श्राद्ध के प्रमुख प्रचलित प्रकार
मत्स्यपुराण में लिखा है, ‘नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्धमुच्यते । – मत्स्यपुराण, अध्याय १६, श्लोक ५’ अर्थात, श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य । यमस्मृति में उपर्युक्त तीन प्रकारों के अतिरिक्त, नांदी एवं पार्वण श्राद्ध के विषय में भी बताया गया है ।

अ. नित्य श्राद्ध
प्रतिदिन किए जानेवाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इसमें केवल जल-तर्पण अथवा तिल-तर्पण किया जाता है ।

आ. नैमित्तिक श्राद्ध
लिंगदेह (मृतक) के लिए किए जानेवाले एकोद्दिष्ट तथा अन्य प्रकार के श्राद्ध नैमित्तिक हैं ।

इ. काम्य श्राद्ध
विशेष कामना की पूर्ति के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं । फलप्ति के उद्देश्य से विशेष दिन, तिथि एवं नक्षत्र पर श्राद्ध करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है । उनके विषय में जानकारी आगे दे रहे हैं ।

१. वार (दिन) एवं श्राद्धफल

 वार श्राद्धफल वार श्राद्धफल
 सोमवार सौभाग्य शुक्रवार धनप्राप्ति
 मंगलवार विजयप्राप्ति शनिवार आयुष्यवृद्धी
 बुधवार कामनासिद्धी रविवार आरोग्य
 गुरुवार विद्याप्राप्ति
२. तिथि एवं श्राद्धफल

श्राद्ध की तिथि श्राद्धफल
प्रतिपदा उत्तम पुत्र एवं पशु की प्राप्ति होना
द्वितीया कन्याप्राप्ति होना
तृतीया अश्‍वप्राप्ति, मानसन्मान मिलना
चतुर्थी अनेक क्षुद्र पशुआें की प्राप्ति होना
पंचमी अनेक और सुंदर पुत्र प्राप्त होना
षष्ठी तेजस्वी पुत्र प्राप्ति, द्युत में विजय मिलना
सप्तमी खेती के लिए भूमि मिलना
अष्टमी व्यापार में लाभ होना
नवमी घोडे जैसे पशुआें की प्राप्ति होना
दशमी गोधन बढना, दो खुरवाले पशुआें की प्राप्ति होना
एकादशी बर्तन, वस्त्र एवं ब्रम्हवर्चस्वी पुत्र से लाभान्वित होना
द्वादशी सोने-चांदी आदि की प्राप्ति
त्रयोदशी जातिबंधुआें से सम्मान प्राप्त होना
चतुर्दशी शस्त्र के आघात से अथवा युद्ध में मारे गए लोगों को आगे की गति मिलना, सुप्रजा की प्राप्ति होना
अमावस्या / पौर्णिमा सभी इच्छाआें की पूर्ति होना
टिप्पणी १ – पूर्णिमा के अतिरिक्त, सब तिथियां कृष्ण पक्ष की हैं । आश्विन मास के कृष्णपक्ष में (महालय में) ये विशेष फल देते हैं ।

२ अ. भीष्माष्टमी श्राद्ध 

अपत्य (संतान) न हो, तब संतानप्राप्ति हेतु अथवा गर्भपात हो रहा हो गर्भ सुखपूर्वक रहने की कामनापूर्ति के लिए माघ शुक्ल अष्टमी अर्थात भीष्माष्टमी पर भीष्म पितामह के नाम से यह श्राद्ध अथवा तर्पण करें ।

३. नक्षत्र एवं श्राद्धफल

नक्षत्र श्राद्धफल
१. अश्विनी अश्वप्राप्ति
२. भरणी दीर्घायुष्य
३. कृत्तिका पुत्र के साथ स्वयं को स्वर्गप्राप्ति
४. रोहिणी पुत्रप्राप्ति
५. मृग ब्रह्मतेज की प्राप्ति
६. आर्द्रा क्रूरकर्मियों को गति मिलना (टिप्पणी १), कर्म सफल होना
७. पुनर्वसु द्रव्यप्राप्ति, भूमिप्राप्ति
८. पुष्य बलवृद्धी
९. आश्लेषा धैर्यवान पुत्र की प्राप्ति, कामनापूर्ति
१०. मघा जातिबंधुआें में सम्मान मिलना, सौभाग्यप्राप्ति
११. पूर्वा भाग्य, पुत्रप्राप्ति एवं पापनाश
१२. उत्तरा भाग्य, पुत्रप्राप्ति एवं पापनाश
१३. हस्त इच्छापूर्ति, जातिबंधुओंमें श्रेष्ठता प्राप्त होना
१४. चित्रा रूपवान पुत्रप्राप्ति, अनेक पुत्रप्राप्ति
१५. स्वाती व्यापारमें लाभ, यशप्राप्ति
१६. विशाखा अनेक पुत्रप्राप्ति, स्वर्णप्राप्ति
१७. अनुराधा राज्यप्राप्ति (मंत्रीपद इत्यादिकी प्राप्ति), मित्रलाभ
१८. ज्येष्ठा श्रेष्ठत्व, अधिकार, वैभव एवं आत्मनिग्रहकी प्राप्ति, राज्यप्राप्ति
१९. मूळ आरोग्यप्राप्ति, खेत-भूमि प्राप्त होना
२०. पूर्वाषाढा उत्तम कीर्ति, समुद्रतक यशस्वी यात्रा
२१. उत्तराषाढ शोकमुक्ति, सर्वकामनासिद्धि, श्रवणश्रेष्ठत्व
२२. श्रवण परलोकमें उत्तम गति, श्रेष्ठत्व
२३. धनिष्ठा राज्य (मंत्रीपद इत्यादिकी) प्राप्ति, सर्व मनोकामनाओंकी पूर्ति
२४. शतभिषा चिकित्सकीय व्यवसायमें सिद्धि प्राप्त होना, बलप्राप्ति
२५. पूर्वाभाद्रपद भेड, बकरी आदिकी प्राप्ति, स्वर्ण व चांदीसे भिन्न धातुओंकी प्राप्ति
२६. उत्तराभाद्रपद गौ-प्राप्ति, शुभ एवं उत्तम वास्तु प्राप्त होना
२७. रेवती बरतन, वस्त्र इत्यादिकी प्राप्ति, गोधनप्राप्ति
टिप्पणी १ – क्रूर व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसे गति प्राप्त करवाने हेतु आर्द्रा नक्षत्र पर यह श्राद्ध करने से लाभ होता है । (मूल स्थान पर)

विशेष टिप्पणी – सूत्र ‘२’ एवं ‘३’ की सारणियों में कुछ स्थानों पर एक ही तिथि अथवा नक्षत्र पर एक से अधिक श्राद्धफल बताए गए हैं । यह भिन्नता पाठभेद के कारण है ।

ई. नांदीश्राद्ध
मंगलकार्य के आरंभ में, गर्भाधान आदि सोलह संस्कारों के आरंभ में, पुण्याहवाचन के समय कार्य बाधारहित होने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नांदीश्राद्ध कहते हैं । इसमें सत्यवसु (अथवा क्रतुदक्ष) नाम के विश्वेदेव होते हैं तथा पितृत्रय, मातृत्रय एवं मातामहत्रय के ही नामों का उच्चारण किया जाता है । कर्मांगश्राद्ध एवं वृद्धिश्राद्ध, दोनों नांदीश्राद्ध हैं ।

१. कर्मांगश्राद्ध 

गर्भाधान संस्कार के समय किया जानेवाला श्राद्ध

२. वृद्धिश्राद्ध 

शिशु के जन्म के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध ।

उ. पार्वण श्राद्ध
‘श्रौत परंपरा में पिंडपितृ यज्ञ साग्निक (आग्निहोत्री) करता है । उसी का पर्याय, गृहसूत्र का पार्वण श्राद्ध है । इस श्राद्ध की सूची में पितरों का समावेश होने के कारण उनके लिए यह श्राद्ध किया जाता है । इस श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – एकपार्वण, द्विपार्वण और त्रिपार्वण । तीर्थश्राद्ध और महालयश्राद्ध, पार्वण श्राद्ध में ही आते हैं ।

१. महालयश्राद्ध



आश्विनकृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक जो श्राद्ध किए जाते हैं, उन्हें पार्वण श्राद्ध कहते हैं ।

२.मातामहश्राद्ध (दौहित्र) 

जिसके पिता जीवित हैं; परंतु नाना जीवित नहीं हैं, ऐसा व्याक्ति यह श्राद्ध करता है । नाना के वर्षश्राद्ध से पहले यह श्राद्ध नहीं किया जाता । मातामह श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को किया जाता है । यह श्राद्ध करने के लिए श्राद्धकर्ता की आयु तीन वर्ष से अधिक होनी चाहिए । उसका उपनयन न हुआ हो, तो भी यह श्राद्ध कर सकता है ।

३. तीर्थश्राद्ध

यह श्राद्ध, प्रयागादि तीर्थक्षेत्रों में अथवा पवित्र नदियों के तट पर किया जाता है । तीर्थश्राद्ध में महालय के सभी पार्वण श्राद्ध किए जाते हैं ।



२. अन्य प्रकार
श्राद्ध के उपर्युक्त प्रमुख प्रकारों के अतिरिक्त १२ अमावस्या, ४ युग, १४ मन्वंतर, १२ संक्रांति, १२ वैधृति, १२ व्यतिपात, १५ महालय, ५, पाथेय, ५ अष्टका, ५ अन्वाष्टक ये ९६ प्रकार बताए गए हैं ।श्राद्ध के अन्य प्रकारों में कुछ की संक्षिप्त जानकारी आगे दे रहे हैं ।

अ. गोष्ठी श्राद्ध
ब्राह्मण समुदाय एवं विद्वान मिलकर तीर्थक्षेत्र में ‘पितरों की शांति तथा सुख-संपत्ति की कामना से जो श्राद्ध करते हैं अथवा श्राद्ध के विषय में चर्चा करते हुए प्रेरित होकर जो श्राद्ध करते हैं, उसे ‘गोष्ठीश्राद्ध’ कहते हैं ।

आ. शुद्धिश्राद्ध
अपनी शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को जो भोजन करवाया जाता है, उसे ‘शुद्धिश्राद्ध’ कहते हैं । इसे प्रायाश्चित्तांग श्राद्ध भी कहते हैं ।

इ. पुष्टिश्राद्ध
शरीर बलवान होने के लिए तथा धन-संपत्ति बढने के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को पुष्टिश्राद्ध कहते हैं ।’

ई. घृतश्राद्ध
(यात्राश्राद्ध)तीर्थयात्रा पर जाने से पहले, यात्रा निर्विघ्न होने के लिए पितरों को स्मरण कर, घी से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे घृतश्राद्ध कहते हैं ।

उ. दधिश्राद्ध
तीर्थयात्रा से लौटने पर किया जानेवाला श्राद्ध

ऊ. अष्टका श्राद्ध(कृष्णपक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध)
अष्टका, अर्थात किसी भी महीने की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि । वेदकाल में अष्टका श्राद्ध विशेषतः पौष, माघ, फाल्गुन एवं चैत्र इन चार महीनों के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जाता था । इस श्राद्ध में तरकारी, मांस, बडा, तिल, शहद, चावल की खीर, फल, कंद-मूल आदि पदार्थ पितरों को अर्पित किए जाते थे । विश्वेदेव, आग्नि, सूर्य, प्रजापति, रात्रि, नक्षत्र, ऋतु आदि श्राद्ध के देवता माने जाते थे ।

ए. दैविकश्राद्ध
देवता की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले श्राद्ध को दैविकश्राद्ध कहते हैं ।

ऐ. हिरण्यश्राद्ध
इसमें, भोजन के स्थान पर दक्षिणा देकर किया श्राद्ध । अन्न के अभाव में अनाज के मूल्य के चौगुने मूल्य का स्वर्ण ब्राह्मण को देकर, श्राद्ध किया जाता है ।

ओ. हस्तश्राद्ध
यह, ब्राह्मणों को भोजन  देकर किया जानेवाला श्राद्ध । भोजन न हो तो हिरण्य से (पैसे से), आमान्न से (सूखा सीधा) दिया जाता है ।’

औ. आत्मश्राद्ध
जिसे संतान नहीं है अथवा जिनकी संतान नास्तिक है, वे अपने जीवनकाल में अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर सकते हैं । इसकी विधि शास्त्र में बताई गई है ।

अं. चटश्राद्ध


श्राद्ध के लिए देवता तथा पितरों के स्थान पर बैठने के लिए जब ब्राह्मण उपलब्ध नहीं होते, तब उस स्थान पर कुश (दर्भ) रखा जाता है । इसे चट (अथवा दर्भबटु) कहते हैं । इस विधि से श्राद्धकर्म चटपट (तुरंत) होने के कारण इसे ‘चटश्राद्ध’ कहते हैं ।

यद्यपि ऊपर श्राद्ध के विविध प्रकार बताए गए हैं; परंतु वर्तमान में, मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन से ग्यारहवें दिन तक आवश्यक श्राद्ध, मासिक श्राद्ध, सपिंडीकरण श्राद्ध, अब्दपूर्तिश्राद्ध, द्वितीयाब्दिक श्राद्ध अर्थात प्रतिसांवत्सरिक एवं महालय श्राद्ध प्रचलित हैं ।

क. एकोद्दिष्ट श्राद्ध
१ क. पाथेय श्राद्ध (मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन किया जानेवाला श्राद्ध) 

मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन अंत्येष्टि में, अर्थात प्रत्यक्ष चिता की अग्नि में जब शव जलाया जाता है, तब उससे अनेक प्रकार की दूषित रज-तमात्मक वायु निकलती है । पूरा शव जल जाने पर दूषित वायु निकल जाने पर जीव को आगे जाने का मार्ग मिलता है । इसी कर्म को पाथेय श्राद्ध कहते हैं । इस श्राद्ध में मंत्रसहित संकल्प करने से, उपप्राणों के साथ देह की त्याज्य (दूषित) वायु का संबंध समाप्त हो जाता है । तब, सूक्ष्म देह हलकी होती है, जिससे उसे गति मिलती है । इसके बाद मृतदेह का उपांतर ‘प्रेत’ में होने लगता है ।

१ अ २. नग्नप्रच्छादन श्राद्ध (मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन किया जानेवाला श्राद्ध)

इस श्राद्ध में मंत्रोच्चारण से, संबंधित तरंगों के कारण प्रेत की स्थूलदेह से संबंधित त्याज्य रज-तमात्मक वायु का पहले विघटन होता है; पश्चात उसके सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनता है ।

१ अ ३. नवश्राद्ध (मृत्यु के उपरांत पहले नौ दिनों तक प्रतिदिन एक किया जानेवाला श्राद्ध) 

इस श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से उस-उस दिन अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से लिंगदेह पर आया काला आवरण दूर किया जाता है ।

१ अ ४. आस्थिसंचयन श्राद्ध (दहनक्रिया के उपरांत आस्थिसंचय के दिन किया जानेवाला श्राद्ध)

इस श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से लिंगदेह की उसके शरीर की आस्थियों से आसक्ति का संस्कार नष्ट कर, स्थूल शरीर के प्रति आकर्षण समाप्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।

१ अ ५. वेदिका श्राद्ध (वायस पिंड, काक-बलि) (दसवें दिन का श्राद्ध )

दसवें दिन लिंगदेह को काकस्पर्शित और अभिमंत्रित अन्नपिंड दिया जाता है । इससे लिंगदेह को अन्न की आसक्तिवाले रज-तमात्मक संस्कारों से मुक्त करने का प्रयत्न कर, इसके द्वारा पृथ्वी का वायुमंडल भेदने के लिए आवश्यक बल प्रदान किया जाता है ।

१ अ ६. महैकोद्दिष्ट श्राद्ध (११वें दिन किया जानेवाला श्राद्ध) 

‘इस श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से लिंगदेह अधिक मात्रा में गति (ऊर्जा) प्राप्त कर, मत्र्यलोक में प्रवेश करता है ।’

१ अ ७. रुद्रगण श्राद्ध एवं वसुगण श्राद्ध (११ वें दिन एकोद्दिष्ट श्राद्ध के उपरांत ग्यारह रुद्र एवं आठ वसुओं के नाम से किया जानेवाला श्राद्ध) 

इस श्राद्ध में पढे जानेवाले मंत्रों से वायुमंडल में फैलनेवाली तेजोमय तरंगों के बल पर विशिष्ट गणों का आवाहन किया जाता है । पश्चात, उन्हें पूजा से प्रसन्न कर, लिंगदेह को गति देने के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है । इस प्रकार, लिंगदेह को उसकी विशिष्ट योनि से आगे ले जाने का दायित्व उन विशिष्ट रुद्रगण पर तथा लिंगदेह की गति को निरंतर बनाए रखनेवाले वसुगणों को सौंपा जाता है । रुद्रगण एक बार ही ऊर्जा का आघातात्मक बल प्रदान कर लिंगदेह को आगे ढकेलते हैं; पश्चात उस गति को निरंतर बनाए रखने में वसुगण सहायता करते हैं ।

१ अ ८. मासिक श्राद्ध

इस श्राद्ध से लिंगदेह को बाहर से तेजतत्त्वात्मक बल प्राप्त होता है । इससे, उसके मार्ग में अनिष्ट शक्तियों द्वारा समय-समय पर उपस्थित किए जानेवाले अवरोध दूर किए जाते हैं । इससे उस लिंगदेह का उस विशिष्ट योनि में रहना सरल होता है । इस श्राद्ध से लिंगदेह अपने परिजनों को भूल जाता है तथा उसका भूलोक और स्मृतियों से युक्त इच्छातरंगों से संबंध टूट जाता है ।

१ अ ९. ऊनमासिक श्राद्ध (एक माह पूर्ण होने के एक दिन पूर्व किया जानेवाला श्राद्ध)

इस श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प से लिंगदेह की दिशा में तेजोमय तरंगों का प्रवाह फेंका जाता है, जिसके आकर्षण से लिंगदेह श्राद्धस्थल पर पहुंचता है । उसके उपरांत श्राद्ध करने पर, उसका फल अल्प समय में लिंगदेह को मिलता है ।

१ अ १०. त्रैैपाक्षिक श्राद्ध (पैंतालीस दिनों के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध)

पैंतालीस दिनों में लिंगदेह को अपने कर्मानुसार प्राप्त विशिष्ट मत्र्यलोक में रहने का अभ्यास होने लगता है । उसे उस स्थान पर स्थिर करने के लिए श्राद्ध से प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से लिंगदेह के सर्व ओर सुरक्षा-कवच बना दिया जाता है । इस प्रकार, वह दूसरे दिन श्राद्धादि कर्मविधि प्रारंभ होने तक अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहता है ।

१ अ ११. ऊनषण्मासिक श्राद्ध (छह माह पूर्ण होने के एक दिन पहले किया जानेवाला श्राद्ध)

इस श्राद्धकर्म से तेजोमय तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । इनसे, पूर्वजरूपी अनिष्ट शक्तियों के पाश में बद्ध लिंगदेह को मुक्त किया जाता है । पश्चात, उसके सर्व ओर बना काली शक्ति का आवरण दूर कर, उसका भार घटाया जाता है । इससे उसे श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प की पूरी शक्ति मिलती है । इस शक्ति के बल पर ही वह शीघ्रता से पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करता है ।

१ अ १२. ऊनाब्दिक श्राद्ध (एक वर्ष पूरा होने से एक दिन पहले किया जानेवाला श्राद्ध)

इस श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प से लिंगदेह को मत्र्यलोक भेदकर आगे जाने के लिए बल प्रदान किया जाता है । इस बल से उसे आगे के लोक में जाने हेतु प्रवाही ऊर्जा और दिशा भी मिलती है ।

१ आ. पित्र-त्रयी श्राद्ध
१. सपिंडीकरण श्राद्ध (ऊनाब्दिक श्राद्ध के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध; किंतु आजकल यह बारहवें दिन किया जाता है ।)

इस श्राद्ध से प्रक्षेपित संकल्पयुक्त तेजोमय तरंगों के कारण पित्र-त्रयी के(पिता,पितामह,परपितामह) सर्व ओर का वायुमंडल शुद्ध होता है,इन्हें एक-दूसरे के समीप आने के लिए प्रवाही गतिज ऊर्जा मिलती है, उनके मार्ग में स्थित अनिष्ट शक्तियों के अवरोध समाप्त होते हैं और वे एक-दूसरे के अत्यंत निकट आते हैं ।’

२. पार्वण श्राद्ध (अब्दपूर्ति श्राद्ध, निधन के एक वर्ष पश्चात आनेवाली उसी तिथि के एक दिन पहले किया जानेवाला वर्षपूर्ति श्राद्ध)

‘इस श्राद्ध के संकल्प से प्रक्षेपित वेगवान ऊर्जा से लिंगदेह मत्र्यलोक से एक ही झटके में अगले लोक की ओर भेज दिया जाता है ।

३. पार्वण श्राद्ध (द्वितीयाब्दिक, दूसरे वर्ष के प्रारंभ में किया जानेवाला श्राद्ध)

श्राद्ध के संकल्प से पित्र-त्रयी आदि को संबोधित एवं आवाहन कर, यह श्राद्ध किया जाता है । इससे प्रक्षेपित तेजोमय तरंगों की सहायता से पहले की तीन पीढियों के पितरों को हविर्भाग दिया जाता है । इससे वे संतुष्ट होकर श्राद्धस्थल की ओर आकर्षित होते हैं । तब उन्हें मंत्रशक्ति की तेजस्वी तरंगों से शुद्ध कर, एक-दूसरे के निकट लाया जाता है । इससे वे पितर एक-दूसरे की सहायता कर पाते हैं । इस प्रकार, इस श्राद्ध के कारण, पितरों के एक-दूसरे से मिलने के मार्ग में आनेवाली अनिष्ट शक्तियों की बाधाएं घट जाती हैं ।

टिप्पणी – प्रथम मासिक श्राद्ध से ऊनाब्दिक श्राद्ध तक के श्राद्ध सोलह मासिक श्राद्धों में गिने जाते हैं ।

४. भरणी श्राद्ध (भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष में भरणी नक्षत्र में किया जानेवाला श्राद्ध)

‘कृष्णपक्ष के भरणी नक्षत्र के तारों की त्रिकोणीय योनि के देवता यम हैं, उसी प्रकार इस नक्षत्र पर श्राद्ध करने से इस दिन ब्रह्मांड में कार्यरत यमतरंगों से बल प्राप्त होता है तथा पितरों को शीघ्र गति मिलती है । इस दिन, इच्छाशक्ति से संबंधित यमतरंगें अधिक सक्रिय रहती हैं । इससे पितरों को लाभ होता है । इसलिए, भरणी श्राद्ध का विशेष महत्त्व है ।

गया की भूमि-सतह से लगी, ऊध्र्व दिशा में सक्रिय पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित इच्छतरंगों से बने इस सूक्ष्म आवरण का आकार त्रिकोणीय है । इसलिए गया की भूमि को इच्छा से संबंधित ‘त्रिकोणीय योनि’ कहा जाता है । यह क्षेत्र कनिष्ठ इच्छातरंगों से प्रभारित रहता है । अतः, गया में किया गया श्राद्धकर्म, कनिष्ठ इच्छावाले पितरों के लिए अधिक फलदायी होता है । भरणी नक्षत्र भी तीन तारों के त्रिकोण से बना है । इसलिए, यह ‘अंतरिक्ष का त्रिकोणीय योनि क्षेत्र’ कहा जाता है । गया क्षेत्र एवं भरणी नक्षत्र में समानता होने के कारण, भरणी नक्षत्र में किए जानेवाले श्राद्ध में पितरों का आवाहन करने पर, इस नक्षत्र से संबंधित भूतल पर विद्यमान इच्छातरंगें सक्रिय होती हैं, जिससे वह विशिष्ट स्थान गया बन जाता है । अतः,इस श्राद्ध से, गया में श्राद्ध करने का फल मिलता है ।’

३. विवाहादि मांगलिक कार्यों के समय नांदीश्राद्ध क्यों करते हैं ?
‘पुत्रजन्म, उपनयन एवं विवाह, पितरों से संबंधित इन पारिवारिक अवसरों पर पितरों को संतुष्ट कर, उनसे आशीर्वाद लेने के लिए, सबसे पहले नांदीश्राद्ध किया जाता है । इससे, इन कार्यक्रमों में, पूर्वजों के वासनायुक्त लिंगदेह विघ्न नहीं डालते । फलस्वरूप, पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न पूरा होने में सहायता मिलती है ।’

३. मृत्यु के उपरांत विविध प्रकार के
श्राद्ध करने से पितरों एवं श्राद्धकर्ता को होनेवाले लाभ
आगे बताए गए श्राद्ध क्रमशः अधिक फलदायी हैं । इसलिए, इन्हें करने से पितरों को आगे जाने के लिए गति मिलती है । इससे, उनकी पृथ्वी की सजीव एवं निर्जीव वस्तुओं से आसक्ति समाप्त होने में सहायता होती है । इससे, पितर और यजमान दोनों मुक्त जीवन जी सकते हैं । पितरों को इच्छित गति प्राप्त होने पर, यजमान एवं उनके परिजनों की साधना में आनेवाली बाधाएं भी घटने लगती हैं, जिससे साधना करना सरल हो जाता है ।

Antim Sanskar अंतिम संस्कार

Antim Sanskar अंतिम संस्कार

ह‌िन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार बताए गए हैं। इनमें आ‌‌ख‌िरी यानी सोलहवां संस्कार है मृत्यु के बाद होने वाले संस्कार ज‌िनमें व्यक्त‌ि की अंतिम व‌िदाई, दाह संस्कार और आत्मा को सद्गत‌ि द‌िलाने वाले रीत‌ि र‌िवाज शाम‌िल हैं। अंत‌िम संस्कार का शास्‍त्रों में बहुत द‌िया गया है क्योंक‌ि इसी से व्यक्त‌ि को परलोक में उत्तम स्थान और अगले जन्म में उत्तम कुल पर‌िवार में जन्म और सुख प्राप्त होता है। गरुड़ पुराण में बताया गया है क‌ि ज‌िस व्यक्त‌ि का अंत‌िम संस्कार नहीं होता है उनकी आत्मा मृत्‍यु के बाद प्रेत बनकर भटकती है और तरह-तरह के कष्ट भोगती है। हिंदू धर्म में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं माना गया है। मृत्यु होने पर यह माना जाता है कि यह वह समय है, जब आत्मा इस शरीर को छोड़कर पुनः किसी नये रूप में शरीर धारण करती है, या मोक्ष प्राप्ति की यात्रा आरंभ करती है । किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत शरीर का दाह-संस्कार करने के पीछे यही कारण है। मृत शरीर से निकल कर आत्मा को मोक्ष के मार्ग पर गति प्रदान की जाती है। शास्त्रों में यह माना जाता है कि जब तक मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्रों के अनुसार किये जाने वाले सोलह संस्कारों में से अंतिम संस्कार दाह संस्कार है। यह संस्कार दो प्रकार से किया जाता है


1. जब मृत शरीर उपलब्ध हो तो |
उसका पूरी विधि विधान से अग्निदाह करना चाहिए|

2. जब किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख से, हिंसक प्राणी के द्वारा, फांसी के फंदे, विष से, अग्नि से, आत्मघात से, गिरकर, रस्सी बंधन से, जल में रखने से, सर्प दंश से, बिजली से, लोहे से, शस्त्र से या विषैले कुत्ते के मुख स्पर्श से हुई हो तो इसे दुर्मरण कहा जाता है। इन सभी स्थितियों में मृत्यु को सामान्य नहीं माना जाता और मृत्यु पश्चात् दाह संस्कार के लिए पुतला दाह संस्कार विधि का प्रयोग किया जाता है।



सूर्यास्त के बाद नहीं होता दाह संस्कार सूर्यास्त के बाद कभी भी दाह संस्कार नहीं किया जाता। यदि मृत्यु सूर्यास्त के बाद हुई है तो उसे अगले दिन सुबह के समय ही जलाया जा सकता है। माना जाता है कि सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार करने से मृतक व्यक्ति की आत्मा को परलोक में कष्ट भोगना पड़ता है और अगले जन्म में उसके किसी अंग में दोष हो सकता है।

छेद वाले घड़े में जल भरकर परिक्रमा की जाती है दाह-संस्कार के समय एक छेद वाले घड़े में जल लेकर चिता पर रखे शव की परिक्रमा की जाती है और अंत में पीछे की और पटककर फोड़ दिया जाता है। इस क्रिया को मृत व्यक्ति की आत्मा का उसके शरीर से मोह भंग करने के लिए किया जाता है। परन्तु इस क्रिया में एक गूढ़ दार्शनिक रहस्य भी छिपा हुआ है। इसका अर्थ है कि जीवन एक छेद वाले घड़े की तरह है ज‌िसमें आयु रूपी पानी हर पल टपकता रहता है और अंत में सब कुछ छोड़कर जीवात्मा चली जाता है और घड़ा रूपी जीवन समाप्त हो जाता।

मृत व्यक्ति के पुरुष परिजनों का पिंडदान होता है दाह-संस्कार के समय मृत व्यक्ति के पुरुष परिजनों का सिर मुंडाया जाता है। यह मृत व्यक्ति के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का साधन तो है ही, इससे यह भी अर्थ लगाया जाता है कि अब उनके ऊपर जिम्मेदारी आ गई है।

पिंड दान तथा श्राद्ध दाह-संस्कार के बाद तेरह दिनों तक व्यक्ति का पिंडदान किया जाता है। इससे मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति प्राप्त होती है तथा उसका मृत शरीर और स्वयं के परिवार से मोह भंग हो जाता है।


मृत्यु उपरांत सांस्कारिक क्रियाएं प्रश्नः घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत क्या-क्या सांस्कारिक क्रियाएं की जानी चाहिए तथा किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए? की जाने वाली क्रियाओं के पीछे छिपे तथ्य, कारण व प्रभाव क्या है? तेरहवीं कितने दिन बाद होनी चाहिए? मृत्यु पश्चात् संस्कार जब भी घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तब हिंदू मान्यता के अनुसार मुख्यतः चार प्रकार के संस्कार कर्म कराए जाते हैं - 

मृत्यु के तुरत बाद, 
चिता जलाते समय, 
तेरहवीं के समय व 
बरसी (मृत्यु के एक वर्ष बाद) के समय। 


यदि मरण-वेला का पहले आभास हो 
यदि मरण-वेला का पहले आभास हो जाए तो- आसन्नमृत्यु व्यक्ति को चाहिए कि वह समस्त बाह्य पदार्थों और कुटुंब मित्रादिकों से चित्त हटाकर परब्रह्म का ध्यान करे। गीता में कहा है- यदि व्यक्ति मरण समय भी भगवान के ध्यान में लीन हो सके तो भी वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है। इस समय कुटुम्बियों और साथियों का कत्र्तव्य है कि वे आसन्न-मृत्यु के चारों ओर आध्यात्मिक वातावरण बनावें। जो दान करना चाहें- अन्नदान, द्रव्यदान, गोदान, गायत्री जपादि यथाशक्ति यथाविधि उस व्यक्ति के हाथ से करावें अथवा उसकी ओर से स्वयं करें। 
गीता के अद्धाय तो पढना चाहिए अगर वो न पढ़ सके तो परिजनों व् साथियो तो पढ़ कर सुनाना चाहिए और गीता के श्लोक नही पता हो तो उनके कान में गीता बोल देना चाहिए.
गंगा जल पिलाना चाहिए एवं तुलसी पत्ता खिलाना चाहिए अगर न खा पाय तो मुह में रख देना चाहिए ।

पहला दिन 
हिंदू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात व्यक्ति स्वर्ग चला जाता है अथवा अपना शरीर त्याग कर दूसरे शरीर (योनि) में प्रवेश कर जाता है। मृत्यु के उपरांत होने वाली सर्वप्रथम क्रियाएं सर्वप्रथम यथासंभव मृतात्मा को गोमूत्र, गोबर तथा तीर्थ के जल से, कुश व गंगाजल से स्नान करा दें अथवा गीले वस्त्र से बदन पोंछकर शुद्ध कर दें। समयाभाव हो तो कुश के जल से धार दें। नई धोती या धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहना दें। तुलसी की जड़ की मिट्टी और इसके काष्ठ का चंदन घिसकर संपूर्ण शरीर में लगा दें। गोबर से लिपी भूमि पर जौ और काले तिल बिखेरकर कुशों को दक्षिणाग्र बिछाकर मरणासन्न को उŸार या पूर्व की ओर लिटा दें। घी का दीपक प्रज्वलित कर दें। मरणासन्न व्यक्ति को आकाशतल में, ऊपर के तल पर अथवा खाट आदि पर नहीं सुलाना चाहिए। अंतिम समय में पोलरहित नीचे की भूमि पर ही सुलाना चाहिए। मृतात्मा के हितैषियों को भूलकर भी रोना नहीं चाहिए क्योंकि इस अवसर पर रोना प्राणी को घोर यंत्रणा पहंुचाता है। रोने से कफ और आंसू निकलते हैं इन्हें उस मृतप्राणी को विवश होकर पीना पड़ता है, क्योंकि मरने के बाद उसकी स्वतंत्रता छिन जाती है। श्लेष्माश्रु बाधर्वेर्मुक्तं प्रेतो भुड्.क्ते यतोवशः। अतो न रोदितत्यं हि क्रिया कार्याः स्वशक्तितः।। (याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रा.1/11, ग. पु., प्रेतखण्ड 14/88) मृतात्मा के मुख में गंगाजल व तुलसीदल देना चाहिए। मुख में शालिग्राम का जल भी डालना चाहिए। मृतात्मा के कान, नाक आदि 7 छिद्रों में सोने के टुकड़े रखने चाहिए। इससे मृतात्मा को अन्य भटकती प्रेतात्माएं यातना नहीं देतीं। सोना न हो तो घृत की दो-दो बूंदें डालें। अंतिम समय में दस महादान, अष्ट महादान तथा पंचधेनु दान करना चाहिए। ये सब उपलब्ध न हों तो अपनी के शक्ति अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का उन वस्तुओं के निमिŸा संकल्प कर ब्राह्मण को दे दें। पंचधेनु मृतात्मा को अनेकानेक यातनाओं से भयमुक्त करती हैं। पंचधेनु निम्न हैं- ऋणधेनु: मृतात्मा ने किसी का उधार लिया हो और चुकाया न हो, उससे मुक्ति हेतु। पापापनोऽधेनु: सभी पापों के प्रायश्चितार्थ । उत्क्रांति धेनु: चार महापापों के निवारणार्थ। वैतरणी धेनु: वैतरणी नदी को पार करने हेतु। मोक्ष धेनु: सभी दोषों के निवारणार्थ व मोक्षार्थ। श्मशान ले जाते समय शव को शूद्र, सूतिका, रजस्वला के स्पर्श से बचाना चाहिए। (धर्म सिंधु- उŸारार्द्ध) यदि भूल से स्पर्श हो जाए तो कुश और जल से शुद्धि करनी चाहिए। श्राद्ध में दर्भ (कुश) का प्रयोग करने से अधूरा श्राद्ध भी पूर्ण माना जाता है और जीवात्मा की सद्गति निश्चत होती है, क्योंकि दर्भ व तिल भगवान के शरीर से उत्पन्न हुए हैं। ‘‘विष्णुर्देहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्विलास्तथा।। (गरुड़ पुराण, श्राद्ध प्रकाश) श्राद्ध में गोपी चंदन व गोरोचन की विशेष महिमा है। श्राद्ध में मात्र श्वेत पुष्पों का ही प्रयोग करना चाहिए, लाल पुष्पों का नहीं। ‘‘पुष्पाणी वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च’।। (ब्रह्माण्ड पुराण, श्राद्ध प्रकाश) श्राद्ध में कृष्ण तिल का प्रयोग करना चाहिए, क्यांेकि ये भगवान नृसिंह के पसीने से उत्पन्न हुए हैं जिससे प्रह्लाद के पिता को भी मुक्ति मिली थी। दर्भ नृसिंह भगवान की रुहों से उत्पन्न हुए थे। देव कार्य में यज्ञोपवीत सव्य (दायीं) हो, पितृ कार्य में अपसव्य (बायीं) हो और ऋषि-मुनियों के तर्पणादि में गले में माला की तरह हो। श्राद्ध में गंगाजल व तुलसीदल का बार-बार प्रयोग करें। श्राद्ध में संस्कार हेतु बडे़ या छोटे पुत्र को (पिता हेतु बड़ा व माता हेतु छोटा) क्रिया पर बिठाया जाता है। मृतक का कोई पुत्र न हो, तो पुत्री, दामाद या फिर पत्नी भी क्रिया में बैठ सकती है। मृतक को उसके रिश्तेदार व सगे संबंधी सिर पर शीशम का तेल लगाकर पानी से नहलाते हैं। प्राण छोड़ते समय: पुत्रादि उत्तराधिकारी पुरुष गंगोदक छिड़कंे। प्राण निकल जाने पर वह अपनी गोद में मृतक को सिर रख उसके मुख, नथुने, दोनों आंखों और कानों में घी बूदें डाल, वस्त्र में ढंक, कुशाओं वाली भूमि पर तिलों को बिखेर कर उत्तर की ओर सिर करके लिटा दें। इस समय वह सब तीर्थों का ध्यान करता हुआ, मृतक को शुद्ध जल से स्नान करावे। फिर उस पर चंदन-गंध आदि का लेपन कर मुख में स्नान करावे। फिर उस पर चंदन-गंध आदि का लेपन कर मुख में पंचरत्न, गंगाजल, और तुलसी धरे तथा शुद्ध वस्त्र (कफन) में लपेट कर अर्थी पर रख भली भांति बांध दे। अर्थी को कन्धा देकर शमशान तक पहुचाया जाता है 
तुलसीकाष्ठ से अग्निदाह करने से मृतक की पुनरावृत्ति नहीं होती। तुलसीकाष्ठ दग्धस्य न तस्य पुनरावृŸिाः। (स्कन्द पुराण, पुजाप्र) कर्ता को स्वयं कर्पूर अथवा घी की बŸाी से अग्नि तैयार करनी चाहिए, किसी अन्य से अग्नि नहीं लेनी चाहिए। दाह के समय सर्वप्रथम सिर की ओर अग्नि देनी चाहिए। शिरः स्थाने प्रदापयेत्। (वराह पुराण) शवदाह से पूर्व शव का सिरहाना उŸार अथवा पूर्व की ओर करने का विधान है। वतो नीत्वा श्मशानेषे स्थापयेदुŸारामुरवम्। (गरुड़ पुराण) कुंभ आदि राशि के 5 नक्षत्रों में मरण हुआ हो तो उसे पंचक मरण कहते हैं। नक्षत्रान्तरे मृतस्य पंचके दाहप्राप्तो। पुत्तलविधिः।। यदि मृत्यु पंचक के पूर्व हुइ हो और दाह पंचक में होना हो, तो पुतलों का विधान करें - ऐसा करने से शांति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत कहीं मृत्यु पंचक में हुई हो और दाह पंचक के बाद हुआ हो तो शांति कर्म करें। यदि मृत्यु भी पंचक मंे हुई हो और दाह भी पंचक में हो तो पुतल दाह तथा शांति दोनों कर्म करें। 
प्रेत के कल्याण के लिए तिल के तेल का अखंड दीपक 10 दिन तक दक्षिणाभिमुख जलाना चाहिए |
मुख्य व्यक्ति (उसे कर्ता भी कहा जाता है) अर्थी को श्मशान में रखने के बाद शव-स्नान: दाह-कर्म का अधिकारी पुत्र  स्नान करे और शुद्ध वस्त्र (धोती-अंगोछा आदि) धारण कर मृतक के समीप जाये। उसके तीन चक्कर लगाता है व पानी का घड़ा (जो कंधे पर रखा होता है) तोड़ दिया जाता है। घड़े का तोड़ना शरीर से प्राण के जाने का सूचक है। केवल पुरुष मृतक शरीर को चिता में रखते हैं। पुत्र (कर्ता) चिता के तीन चक्कर लगाकर चिता की लकड़ी पर घी डालते हुए लंबे डंडे से अग्नि देता है।
आधी चिता जलने के पश्चात् पुत्र मृतक के सिर को तीन प्रहार कर फोड़ता है। इस क्रिया को कपाल क्रिया कहा जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि पिता ने पुत्र को जन्म देकर जो ब्रह्मचर्य भंग किया था उसके ऋण से पुत्र ने उन्हें मुक्त कर दिया।
उसके बाद नदी के घाट दातुन गड़ा कर सभी शुद्ध होते है और मृत आत्मा की शांति के लिए उस गड़े हुंए दातुन में टिल और जौ के साथ पांच बार पानी देते है. फिर सभी घर लोट आते है 
जहां मृतक को अंत समय रखा गया था वहां दीपक जलाकर उसकी तस्वीर रखकर शोक मनाया जाता है।  मृत आत्मा के अच्छाई के बारे में बात चित करते है |
प्रथम दिन खरीदकर अथवा किसी निकट संबंधी से भोज्य सामग्री प्राप्त करके कुटुंब सहित भोजन करना चाहिए। ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिए। भूमि पर शयन करना चाहिए। किसी का स्पर्श नहीं करना चाहिए। सूर्यास्त से पूर्व एक समय भोजन बनाकर करना चाहिए। भोजन नमक रहित करना चाहिए। भोजन मिट्टी के पात्र अथवा पत्तल में करना चाहिए। पहले प्रेत के निमित्त भोजन घर से बाहर रखकर तब स्वयं भोजन करना चाहिए। किसी को न तो प्रणाम करें, न ही आशीर्वाद दें। देवताओं की पूजा न करें।

दूसरा दिन
पहले दिन की तरह दूसरे दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है | जहां मृतक को अंत समय रखा गया था वहां दीपक जलाकर उसकी तस्वीर रखकर शोक मनाया जाता है। जहां मृतक को अंत समय रखा गया था वहां दीपक जलाकर उसकी तस्वीर रखकर शोक मनाया जाता है।  मृत आत्मा के अच्छाई के बारे में बात चित करते है |
सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|

तीसरा दिन
जहा अग्नि दिए थे वह तीसरे दिन अस्थि संचय करने के पहले उसके पूजा करनी चाहिए फिर अस्थि संचय करके उसे एक साफ पीतल की थल में रख करके सफेद कपडा ढक कर घाट लाना चाहिए फिर अस्थि को एक लाल घड़े में रख कर उसके ढक दे और घाट के पास पीपल के पेड़ के नीचे रख कर उसमे साल भर के लिए यानि 365 बार पानी देना होता है जौ हम तीसरे दिन से सातवे दिन में बराबर बात लेते है | और सातवे दिन तक उस पीपल के पेड़ में पानी देते है |  सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है | 
उस दिन सदा चावल और बड़ा सब्जी बना कर खाया जाता है जिसमे सभी को एक बड़ा दिया जाता है |
मृत्यु के दिन से 10 दिन तक किसी योग्य ब्राह्मण से गरुड़ पुराण सुनना चाहिए। गरूर पुराण सूर्य अस्त के पहले हो जाना चाहिए | गरूर पुराण को वही करना चाहिए जहा आखरी बार मृत शरीर को जमीन में रखा गया था |
 सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|
चौथा दिन
तीसरा दिन की तरह चौथा दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है |  सभी परिवार जान और साथी गण गरूर पुराण सुनना चाहिए |सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|
पाचवा दिन
चौथा दिन की तरह पाचवा दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है |  सभी परिवार जान और साथी गण गरूर पुराण सुनना चाहिए |
सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|
छटवा दिन
पाचवा दिन की तरह  छटवा दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है |  सभी परिवार जान और साथी गण गरूर पुराण सुनना चाहिए |
सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|
सातवा दिन
छटवा दिन की तरह  सातवा दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है |  सभी परिवार जान और साथी गण गरूर पुराण सुनना चाहिए |
उस दिन सदा चावल और बड़ा सब्जी बना कर खाया जाता है जिसमे सभी को 2 बड़ा दिया जाता है |

अग्निशांत होने पर स्नान कर गाय का दूध डालकर हड्डियों को अभिसिंचित कर दें। मौन होकर पलाश की दो लकड़ियों से कोयला आदि हटाकर पहले सिर की हड्डियों को, अंत में पैर की हड्डियों को चुन कर संग्रहित कर पंचगव्य से सींचकर स्वर्ण, मधु और घी डाल दें। फिर सुंगधित जल से सिंचित कर मटकी में बांधकर 10 दिन के भीतर किसी तीर्थ में प्रवाहित करें। दशाह कृत्य गरुड़ पुराण के अनुसार मृत्योपरांत यम मार्ग में यात्रा के लिए अतिवाहिक शरीर की प्राप्ति होती है। इस अतिवाहिक शरीर के 10 अंगों का निर्माण दशगात्र के 10 पिंडों से होता है। जब तक दशगात्र के 10 पिंडदान नहीं होते, तब तक बिना शरीर प्राप्त किए वह आत्मा वायुरूप में स्थित रहती है।
इस बात का ध्यान दे की 365 पानी पूरी हो गई है क्या 

आठवाँ दिन
छटवा दिन की तरह  आठवाँ दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है |  सभी परिवार जान और साथी गण गरूर पुराण सुनना चाहिए |
सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|

नावा दिन
आठवाँ दिन की तरह  नावा दिन बी सुबह स्नान के लिए उसी घाट में जाते है और सभी परिवार जान स्नान कर के टिल और जौ के साथ पांच बार पानी डालते है|  फिर सभी घर लोट आते है |  सभी परिवार जान और साथी गण गरूर पुराण सुनना चाहिए |
सब्जी में उसी सब्जी को बनाना चाहिए जौ मृत आत्मा को पसंद था|
दसवा दिन
दसवें दिन घर की शुद्धि की जाती है। परिवार के पुरुष सदस्य सिर मुंडवा लेते हैं। फिर दीपक बुझाकर हवन आदि कर गरुड़ पुराण का पाठ कराया जाता है। इन दसों दिन घर वाले किसी भी सांसारिक कार्यक्रम में, मंदिर में व खुशी के माहौल में हिस्सा नहीं लेते व भोजन भी सात्विक ग्रहण करते हैं। 
आज के दिन गंगा गे पुत्र अस्थि को गंगा में विसर्जीत कर देते है |
इसलिए दशगात्र के 10 पिंडदान अवश्य करने चाहिए। इन्हीं पिंडों से अलग अलग अंग बनते हैं। वैसे तो दस दिनों तक प्रतिदिन एक एक पिंड रखने का विधान है, लेकिन समयाभाव की स्थिति में 10 वें दिन ही 10 पिंडदान करने की शास्त्राज्ञा है। शालिग्राम, दीप, सूर्य और तीर्थ को नमस्कारपूर्वक संकल्पसहित पिंडदान करें। पिंड पिंड से बनने संख्या वाले अवयव प्रथम शीरादिडवयव निमिŸा द्वितीय कर्ण, नेत्र, मुख, नासिका तृतीय गीवा, स्कंध, भुजा, वक्ष चतुर्थ नाभि, लिंग, योनि, गुदा पंचम जानु, जंघा, पैर षष्ठ सर्व मर्म स्थान, पाद, उंगली सप्तम सर्व नाड़ियां अष्टम दंत, रोम नवम वीर्य, रज दशम सम्पूर्णाऽवयव, क्षुधा, तृष्णा पिंडों के ऊपर जल, चंदन, सुतर, जौ, तिल, शंख आदि से पूजन कर संकल्पसहित श्राद्ध को पूर्ण करें। संकल्प: कागवास गौग्रास श्वानवास पिपिलिका। तथ्य, कारण व प्रभाव: इस श्राद्ध से मृतात्मा को नूतन देह प्राप्त होती है और वह असद्गति से सद्गति की यात्रा पर आरूढ़ हो जाती है।
दशगात्र के पिंडदान की समाप्ति के बाद मुंडन कराने का विधान है। सभी बंधु बांधवों सहित मुंडन अवश्य कराना चाहिए। तर्पण की महिमा श्राद्ध में जब तक सभी पूर्वजों का तर्पण न हो तब तक प्रेतात्मा की सद्गति नहीं होती है। अतः 10, 11, 12, 13 आदि की क्रियाओं में शास्त्रों के अनुसार तर्पण करें। नदी के तट पर जनेऊ देव, ऋषि, पितृ के अनुसार सव्य और अपसव्य में कुश हाथ में लेकर हाथ के बीच, उंगली व अगूंठे से संपूर्ण तर्पण करें नदी तट के अभाव में ताम्र पात्र में जल, जौ, तिल, पंचामृत, चंदन, तुलसी, गंगाजल आदि लेकर तर्पण करें। तर्पण गोत्र एवं पितृ का नाम लेकर ही निम्न क्रम से करें - पिता दादा परदादा माताÛ दादी परदादी सौतेली मां नाना, परनाना, वृद्ध परनाना, नानी, परनानी, वृद्ध परनानी, चचेरा भाई, चाचा, चाची, स्त्री, पुत्र, पुत्री, मामा, मामी, ममेरा भाई, अपना भाई, भाभी, भतीजा, फूफा, बूआ, भांजा, श्वसुर, सास, सद्गुरु, गुरु, पत्नी, शिष्य, सरंक्षक, मित्र, सेवक आदि। ये सभी तर्पण पितृ तर्पण में आते हैं। सभी नामों से पूर्व मृतात्मा का तर्पण करें। नोट- जो पितृ जिस रूप में जहां-जहां विचरण करते हैं वहां-वहां काल की प्रेरणा से उन्हें उन्हीं के अनुरूप भोग सामग्री प्राप्त हो जाती है। जैसे यदि वे गाय बने तो उन्हें उŸाम घास प्राप्त होती है। (गरुड़ पुराण प्रे. ख.) नारायण बली प्रेतोनोपतिष्ठित तत्सर्वमन्तरिक्षे विनश्यति। नारायणबलः कार्यो लोकगर्हा मिया खग।। नारायणबली के बिना मृतात्मा के निमित्त किया गया श्राद्ध उसे प्राप्त न होकर अंतरिक्ष में नष्ट हो जाता है। अतः नारायणबली पूर्व श्राद्ध करने का विधान आवश्यकता पूर्वक करना ही श्रेष्ठ है। 


ग्यारवे दिन
एकादशाह श्राद्ध 11वें दिन शालिग्राम पूजन कर सत्येश का उनकी अष्ट पटरानियों सहित पूजन करें। सत्येश पूजन श्राद्ध कर्ता के सभी पापों के प्रायश्चित के लिए किया जाता है। तत्पश्चात् हेमाद्री श्रवण करें- हमने जन्म से लेकर अभी तक जो कर्म किये हैं उन्हें पुण्य और पाप के रूप में पृथक-पृथक अनुभव करना जिसमें भगवान ब्रह्मा की उत्पŸिा से लेकर वर्णों के धर्मों तक का वर्णन है। चार महापाप: ब्रह्म हत्या, सुरापान, स्वर्ण चोरी, परस्त्री गमन। दशविधि स्नान: गोमूत्र, गोमय, गोरज, मृŸिाका, भस्म, कुश जल, पंचामृत, घी, सर्वौषधि, सुवर्ण तीर्थों के जल इन सभी वस्तुओं से स्नान करें। पांच ब्राह्मणों से पंचसूक्तों का पाठ करवाएं। भगवान के सभी नामों का उच्चारण करते हुए विष्णु तर्पण करें। प्रायश्चित होम: मृतात्मा की अग्निदाह आदि सभी क्रियाओं में होने वाली त्रुटियों के निवारण के निमित्त प्रायश्चित होम का विधान है। शास्त्रोक्त प्रमाण से हवन कर स्नान करें। पंच देवता की स्थापना व पूजन: ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, तत्पुरुष इन देवताओं का पूजन करें। मध्यमषोडशी के 16 पिंड दान प्रथम विष्णु द्वितीय शिव तृतीय सपरिवार यम चतुर्थ सोमराज पंचम हव्यवाहन षष्ठ कव्यवाह सप्तम काल अष्टम रुद्र नवम पुरुष दशम प्रेत एकादश विष्णु प्रथम ब्रह्मा द्वितीय विष्णु तृतीय महेश चतुर्थ यम पंचम तत्पुरुष नोट- ये सभी पिंडदान सव्य जनेऊ से किए जाते हैं। दान पदार्थ: स्वर्ण, वस्त्र, चांदी, गुड, घी, नमक, लोहा, तिल, अनाज, भैंस, पंखा, जमीन, गाय, सोने से शृंगारित बेल। वृषोत्सर्ग वृषोत्सर्ग के बिना श्राद्ध संपन्न नहीं होता है। ईशान कोण में रुद्र की स्थापना करें, जिसमें रुद्रादि देवताओं का आवाहन हो। स्थापना जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना, सांवा आदि सप्त धान्य पर करें। प्रेतमातृका की स्थापना करें। फिर वृषोत्सर्ग पूर्वक अग्नि आदि देवों का ह्वन करें। यदि बछड़ा या बछिया उपलब्ध हो तो शिव पार्वती का आवाहन कर पाद्य, अघ्र्यादि से पूजन करें। फिर वृषभ व गाय दान का संकल्प करें। विवाह के शृंगार का दान करें। एकादशाह को होने वाला वृषोत्सग नित्यकर्म है। वृषोत्सर्ग कर वृष को किसी अरण्य, गौशाला, तीर्थ, एकांत स्थान अथवा निर्जन वन में छोड़ दें। शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ भी कराएं। वृषोत्सर्ग प्रेतात्मा की अधूरी इच्छाएं पूरी हों, इसलिए करते हैं। आद्यश्राद्ध: आद्यश्राद्ध के दान पदार्थ छतरी, कमंडल, थाली, कटोरी, गिलास, चम्मच, कलश शय्यादान। 14 प्रकार के दान: शय्या, गौ, घर, आसन, दासी, अश्व, रथ, हाथी, भैंस, भूमि, तिल, स्वर्ण, तांबूल, आयुध। तिल व घी का पात्र। स्त्री के मृत्यु पर निम्नलिखित पदार्थों का दान करना चाहिए। अनाज, पानी मटका, चप्पल, कमंडल, छत्री, कपड़ा, लकड़ी, लोहे की छड़, दीया, तल, पान, चंदन, पुष्प, साड़ी। निम्नलिखित वस्तुओं का दान एक वर्ष तक नित्य करना चाहिए। अन्न कुंभ दीप ऋणधेनु। धनाभाव में निष्क्रिय द्रव्य का दान भी कर सकते हैं। षोडशमासिक श्राद्ध शव की विशुद्धि के लिए आद्य श्राद्ध के निमिŸा उड़द का एक पिंडदान अपसव्य होकर अवश्य करें। आद्य श्राद्ध से संपूर्ण श्राद्ध मृतात्मा को ही प्राप्त होता है। दूसरे श्राद्ध से अन्य प्रेतात्मा यह क्रिया नहीं ले सकतीं। अपसव्य होकर गोत्र नाम बोलकर करें। प्रथम उनमासिक श्राद्ध निमिŸाम द्वितीय द्विपाक्षिक मासिक ‘‘ तृतीय त्रिपाक्षिक मासिक ‘’ चतुर्थ तृतीय मासिक ‘‘ पंचम चतुर्थ मासिक ‘‘ षष्ठ पंचम मासिक ‘‘ सप्तम षणमासिक ‘‘ अष्टम उनषणमासिक ‘‘ नवम सप्तम मासिक ‘‘ दशम अष्टम मासिक ‘‘ एकादश नवम मासिक ‘‘ द्वादश दशम मासिक ‘‘ त्रयोदश एकादश मासिक ‘‘ चतुर्दश द्वादश मासिक ‘‘ पंचदश उनाब्दिक मासिक ‘‘ षोडशमासिक में प्रथम आद्य श्राद्ध का पिंड भी इसी में शामिल करते हैं। दान संकल्प कर निम्नलिखित पदार्थों का दान करें। वीजणा (पंखा), लकड़ी, छतरी, चावल, आईना, मुकुट, दही, पान, अगरचंदन, केसर, कपूर, स्वर्ण, घी, घड़ा (घी से भरा), कस्तूरी आदि। यदि दान देने में समर्थ न हों तो तुलसी का पान रख यथाशक्ति द्रव्य ब्राह्मण को दे दें। इससे कर्म पूर्ण होता है। यह अधिक मास हो तो 16 पिंड रखे जाते हैं अन्यथा 15 पिंड रखने का विधान है। यह श्राद्ध हर महीने एक-एक पिंड रख कर करना पड़ता है लेकिन 16 महीनों का पिंडदान एक साथ एकादशाह के निमिŸा रखकर किया जाता है। इससे मृतात्मा की आगे की यात्रा को सुगम होती है। सपिंडीकरण श्राद्ध सपिंडीकरण श्राद्ध के द्वारा प्रेत श्राद्ध का मेलन करने से पितृपंक्ति की प्राप्ति होती है। सपिंडीकरण श्राद्ध में पिता, पितामह तथा प्रपितामह की अर्थियों का संयोजन करना आवश्यक है। इस श्राद्ध में विष्णु पूजन कर काल काम आदि देवों का चट पूजन कर पितरों का चट पूजन पान पर करें। प्रेत के प्रपितामह का अर्धपात्र हाथ में उठाकर उसमें स्थित तिल, पुष्प, पवित्रक, जल आदि प्रेतपितामह के अर्धपात्र में छोड़ दें। ये कर्म शास्त्रोक्त विधानानुसार करें। सपिंडीकरण श्राद्ध में सर्वप्रथम गोबर से लिपी हुई भूमि पर सबसे पहले नारियल के आकार का पिंड प्रेत का नाम बोलकर रखें। फिर गोल पिंड क्रमशः पिता, दादा व परदादा के निमित्त रखें। (यदि सीधे तो सास का वंश लें) भगवन्नाम लेकर स्वर्ण या रजत के तार से बड़े पिंड का छेदन करें। फिर क्रमशः पिता, दादा और परदादा में संयोजन कर सभी पिंडों का पूजन करें। एक पिंड काल-काम के निमिŸा साक्षी भी रखें।

बारवा दिन
तेरहवें का श्राद्ध द्वादशाह का श्राद्ध करने से प्रेत को पितृयोनि प्राप्त होती है। लेकिन त्रयोदशाह का श्राद्ध करने से पूर्वकृत श्राद्धों की सभी त्रुटियों का निवारण हो जाता है और सभी क्रियाएं पूर्णता को प्राप्त होकर भगवान नारायण को प्राप्त होती हंै। तेरहवें का श्राद्ध अति आवश्यक है। 

तेरवा दिन
मान्यता है कि मृतक की आत्मा बारह दिनों का सफर तय कर विभिन्न योनियों को पार करती हुई अपने गंतव्य (प्रभुधाम) तक पहुंचती है। इसीलिए 13वीं करने का विधान बना है। परंतु कहीं-कहीं समयाभाव व अन्य कारणों से 13वीं तीसरे या 12वें दिन भी की जाती है जिसमें मृतक के पसंदीदा खाद्य पदार्थ बनाकर ब्रह्म भोज आयोजित कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर मृतक की आत्मा की शांति की प्रार्थना की जाती है व गरीबों को मृतक के वस्त्र आदि दान किए जाते हैं। हर माह पिंड दान करते हुए मृतक को चावल पानी का अर्पण किया जाता है।
यह श्राद्ध 13वें दिन ही करना चाहिए। लोकव्यवहार में यही श्राद्ध वर्णों के हिसाब से अलग-अलग दिनों को किया जाता है। लेकिन गरुड़ पुराण के अनुसार तेरहवीं तेरहवें दिन ही करना चाहिए। इस श्राद्ध में अनंतादि चतुर्दश देवों का कुश चट में आवाहन पूजन करें। फिर ललितादि 13 देवियों का पूजन ताम्र कलश में जल के अंदर करें। सुतर से कलश को बांध दें। फिर कलश के चारों ओर कुंकुम के तेरह तिलक करें। इन सभी क्रियाओं के उपरांत अपसव्य होकर चट के ऊपर पितृ का आवहनादि कर पूजन करें। 

पगड़ी संस्कार
इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीक़े से पगड़ी (जिसे दस्तार भी कहते हैं) बाँधी जाती है। क्योंकि पगड़ी इस क्षेत्र के समाज में इज्ज़त का प्रतीक है इसलिए इस रस्म से दर्शाया जाता है के परिवार के मान-सम्मान और कल्याण की ज़िम्मेदारी अब इस पुरुष के कन्धों पर है।[1] रसम पगड़ी का संस्कार या तो अंतिम संस्कार के चौथे दिन या फिर तेहरवीं को आयोजित किया जाता है।

डेढ़ महीने में
परिवार जान आपस में बैठ कर खाना खाते है |

छह महीने में
परिवार जान आपस में बैठ कर खाना खाते है |

बारह महीने में 
साल भर बाद बरसी मनाई जाती है, जिसमें ब्रह्म भोज कराया जाता है व मृतक का श्राद्ध किया जाता है ताकि मृतक पितृ बनकर सदैव उस परिवार की सहायता करते रहें। इन सभी क्रियाओं को करवाने व करने का मुख्य उद्देश्य मृतक की आत्मा को शांति पहुंचाना व उसे अपने लिए किए गए गलत कर्मों हेतु माफ करना है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका प्रभाव परिवार के सभी व्यक्तियों पर होता है। इनसे हर परिवार को जीवन चक्र का ज्ञान व कर्मों के फलों का आभास कराया जाता है। वर्षभर तक किसी भी मांगलिक का आयोजन, त्योहार आदि नहीं करने चाहिए ताकि दिवंगत आत्मा को कोई कष्ट नहीं पहुंचे। 

आत्मा की शांति के लिए
पितृ सदा रहते हैं आपके आस-पास। मृत्यु के पश्चात हमारा और मृत आत्मा का संबंध-विच्छेद केवल दैहिक स्तर पर होता है, आत्मिक स्तर पर नहीं। जिनकी अकाल मृत्यु होती है उनकी आत्मा अपनी निर्धारित आयु तक भटकती रहती है।
हमारे पूर्वजों को, पितरों को जब मृत्यु उपरांत भी  शांति नहीं मिलती और वे इसी लोक में भटकते रहते हैं, तो हमें पितृ दोष लगता है। शास्त्रों में कहा गया है कि पितृ दोष के कुप्रभाव से बचने के लिए अशांत जीवन का उपाय श्राद्ध है तथा इससे बचने के लिए विभिन्न उपाय किए जाते हैं जिनमें श्राद्ध, तर्पण व तीर्थ यात्राएं आदि तो हैं ही साथ ही विभिन्न प्रकार की साधनाएं एवं प्रयोग किए जाते हैं जिनके संपन्न करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है।
श्राद्ध बारह प्रकार के होते हैं। हम मृत आत्मा की शांति-तर्पण दान देकर उनका आशीर्वाद और कृपा प्राप्त कर सकते हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार श्राद्ध कर्म से संतुष्ट होकर पितर हमें आयु, पुत्र, यश, वैभव, समृद्धि देते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों के द्वारा ही होती है। श्राद्ध के पिण्डों  को गाय, कौवा अथवा अग्रि या पानी में छोड़ दें। पितृ दोष हो तो गृह एवं देवता भी काम नहीं करते तथा एेसे जातक का जीवन शापित एवं अशांत हो जाता है।  
जो व्यक्ति माता-पिता का वार्षिक श्राद्ध नहीं करता उसे घोर नरक की प्राप्ति होती है और उसका जन्म शुक्र योनि में होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु दुर्घटना में, विष से अथवा शस्त्र से हुई है उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन करना चाहिए। जिन व्यक्तियों को अपने माता-पिता की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है, एेसे व्यक्ति  को श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को श्राद्ध कर्म संपन्न करना चाहिए। नवमी के दिन अपनी मृत मां, दादी, परदादी इत्यादि का श्राद्ध करना चाहिए।
— पंडित अशोक प्रेमी बंसरीवाला
जब मृत्यु के बाद मृत आत्माअों की इच्छाअों की पूर्ति नहीं होती तो उनकी आत्मा अप्रत्यक्ष रुप से प्रभाव दिखाती है, जिसके कारण अशुभ घटनाएं घटित होती हैं। इसे पितृदोष कहा जाता है। इस दोष के कारण दुर्भाग्य में भी वृद्धि होती है। पितृ दोष एक ऐसा दोष है जो अधिकतर कुंडली में होता है। इस प्रकार का दोष होने पर व्यक्ति को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लोग पितृदोषों से मुक्ति हेतु हरिद्वार अौर नासिक आदि स्थानों पर जाते हैं। जानिए पितृदोष से संबंधित कुछ बातें-

* किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात जब परिजन उसकी अंतिम इच्छाअों की पूर्ति नहीं करते तो उसकी मृत आत्मा पृथ्वी पर भटकती रहती है। 

* जब मृत व्यक्ति के अधूरे कार्य पूरे नहीं किए जाते तो उसकी आत्मा परिवार पर अप्रत्यक्ष रुप से कार्यों को पूरा करने के लिए दबाब डालती है। जिसके कारण परिवार में कई बार अशुभ घटनाएं घटित होती हैं। यही पितृदोष होता है।

* पितृदोष से मुक्ति हेतु श्राद्धपक्ष अौर हर महीने की अमावस्या पर पितरों की आत्मिक शांति के लिए पिंडदान अौर तर्पण करें।

*  कर्मलोपे पितृणां च प्रेतत्वं तस्य जायते।
   तस्य प्रेतस्य शापाच्च पुत्राभारः प्रजायते।
अर्थात: कर्मलोप की वजह से जो पूर्वज मृत्यु के बाद प्रेत योनि में चले जाते हैं। उनके श्राप से पुत्र संतान की प्राप्ति नहीं होती है। प्रेत योनि में पितर को कई कष्टों का सामना करना पड़ता है। यदि उनका श्राद न किया जाए तो वे हमें नुक्सान पहुंचाते हैं। पितरों का श्राद करने से समस्याएं स्वयं समाप्त हो जाती हैं।

* शास्त्रों के अनुसार 
"पुत्राम नरकात् त्रायते इति पुत्रम‘‘ एवं ’’पुत्रहीनो गतिर्नास्ति"
अर्थात: जिनके पुत्र नहीं होते उन्हें मरोणोपरांत मुक्ति नहीं मिलती। पुत्र द्वारा किए श्राद कर्म से ही मृत व्यक्ति को पुत नामक नर्क से मुक्ति मिलती है इसलिए सभी लोग पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखते हैं। 

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