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Degrees of Planets (ग्रहो की अंशानुसार अवस्थाये ग्रह की अवस्था) | Awastha of a planet

ग्रहो की अंशानुसार अवस्थाये

विषम राशि - 1, 3, 5, 7, 9 और 11 अर्थात मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ विषम राशि है । सम राशि - 2, 4, 6, 8, 10 और 12 अर्थात बृष, कर्क, कन्या, बृश्चिक, मकर और मीन सम राशि है । जो विषम राशि है उसी को पूरूष राशि भी कहते हैं और क्रूर राशि भी कहते हैं । जो सम राशि है उसी को स्त्री राशि और सौमय राशि भी कहते हैं । राशियों के ही आधार पर हम जातक के गुण स्वरूप को समझते हैं - माना किसी की मेष राशि है तो मेष विषम राशि, पुरूष राशि और क्रूर राशि है अभी हम लोगों ने इतना ही समझा है तो इसके आधार पर कह सकते हैं कि जातक में पुरूषोचित गुण होगा और क्रोधी भी होगा यहां जातक का अर्थ स्त्री और पुरूष दोनों के संदर्भ में है अर्थात हम जिसकी भी पत्रिका देख रहे हैं उसे जातक से संबोधित करते हैं


हर एक लग्न के लिए कोई न कोई ग्रह बहुत शुभ होकर योगकारक होता है ।योगकारक ग्रह सफलता, उन्नति, कई तरह के सुख,धन आदि जैसे राजयोगकारक फल देता है जो ग्रह जितना ज्यादा योगकारक होता वह उस कुंडली के लिए उतना ही ज्यादा शुभ होता है।कुंडली के लग्न का स्वामी सबसे ज्यादा शुभ और योगकारक होता है। मारक ग्रहों की जब दशा आ जाती है तो कुंडली में समस्या पैदा होती है। कुंडली में संघर्ष पैदा हो जाता है और इन ग्रहों की दशा में या तो मृत्यु होती है या मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। बहुत सारी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। जब कुंडली में मारक दशा आ जाती है। हर लग्न के लिए अलग-अलग मारक ग्रह होते हैं। ज्योतिष शास्त्र की मानें तो इनकी दशों में अगर सावधानी न राखी जाए साथ ही इनका उपाय न किया जाए तो इसके परिणाम बहुत गंभीर होते हैं।



 ज्योतिष में ग्रहो की कई प्रकार की अवस्थाएं होती है।ग्रहो की यह अवस्थाएं अंश या अन्य कई प्रकार के बलो पर आधारित होती है।इन्ही अवस्थाओ में से ग्रहो की एक अवस्था बालादि अवस्थाएं होती है जिसमे ग्रहो को उनके अंशो के आधार पर बल मिलता है। ज्योतिष में सम और विषम दो प्रकार की राशि होती है जिसमे मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु व कुम्भ राशि विषम राशि होती है तथा वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर राशि व मीन राशि सम राशि होती है।ग्रहो की अंशानुसार बालादि अवस्था में सम और विषम राशियों में ग्रहो की बालादि अवस्था की स्थिति बिलकुल विपरीत होती है।कोई भी ग्रह अंशानुसार बल प्राप्त स्थिति के साथ साथ अपनी अपनी राशि स्थिति के अनुसार भी बलिष्ठ होना चाहिए तब उस ग्रह के बल की पूर्ण प्रकार से ठीक जानकारी प्राप्त होती है। 

प्रत्येक राशि के 30अंश होते है।ग्रहो की बालादि अवस्थाओ का परीक्षण करने के लिए 30अंशो को 5 बराबर-बराबर 6 भागो में बाटा जाता है।ग्रहो के सम और विषम राशियों में अंशाबल की स्थिति इस प्रकार है:- 


सम राशि में ग्रहो की अंशानुसार अवस्थाये 

 0 से 6 अंश तक ग्रह मृत अवस्था में रहता है। * 7 से 12 अंश तक ग्रह वृद्ध अवस्था में रहता है। * 13 से 18 अंश तक ग्रह युवा अवस्था में रहता है। * 19 से 24 अंश तक ग्रह कुमार अवस्था में रहता है। * 25 से 30 अंश तक ग्रह बाल अवस्था में रहता है। 


विषम राशि में ग्रहो की अंशानुसार अवस्थाये 

0 से 6 अंश तक ग्रह बाल अवस्था में रहता है। * 7 से 12 अंश तक ग्रह कुमार अवस्था में रहता है। * 13 से 18 अंश तक ग्रह युवा अवस्था में रहता है। * 19 से 24 अंश तक ग्रह वृद्ध अवस्था में रहता है। * 25 से 30 अंश तक ग्रह मृत अवस्था में रहता है। 

बाल अवस्था में ग्रहो की स्थिति

जन्मकुंडली में यदि कोई भी ग्रह बाल अवस्था में स्थित है तब वह ग्रह अपना पूर्ण रूप से फल देने में असमर्थ होता है। 

कुमार अवस्था में ग्रहो की स्थिति *******
जन्मकुंडली में ग्रह यदि कुमार अवस्था में हो तब यह स्थिति बाल अवस्था ग्रह से कुछ बेहतर होती है।इस अवस्था में ग्रह अपनी राशिनुसार स्थिति में भी बलबान हो तब इस अवस्था में ग्रह अपना एक तिहाई फल प्रदान करने में समर्थ होता है। 

युवा अवस्था में ग्रहो की स्थिति *******
ग्रह की युवा अवस्था अत्यधिक शुभ व बली अवस्था होती है।इस अवस्था में ग्रह राशिनुसार भी बलिष्ठ हो तो अपने पूर्ण फल प्रदान करता है।इस अवस्था में ग्रह अंशानुसार पूर्ण बली होता है। 

वृद्ध अवस्था में ग्रहो की स्थिति *******
वृद्ध अवस्था में बेठा ग्रह अपने पूर्ण फल देने में समर्थ नही होता और यदि इस अवस्था में ग्रह अपनी राशि स्थिति के अनुसार बली भी हो तब भी वह अपने अधिक शुभ फल देने में असमर्थ होता है। 

मृत अवस्था में ग्रहो की स्थिति ******
मृत अवस्था में बेठा ग्रह अत्यधिक निर्बल अवस्था में होता है इस अवस्था में बेठे ग्रह से अधिक फल प्राप्ति की आशा व्यर्थ है।विषम राशि में ग्रह की अवस्था | 

Awastha of a planet in an uneven sign

0 से 6 अंश तक बाल अवस्था
6 से 12 अंश तक कुमार अवस्था
12 से 18 अंश तक युवा अवस्था
18 से 24 अंश तक वृद्ध अवस्था
24 से 30 अंश तक मृत अवस्था


सम राशि में ग्रह की अवस्था | Awastha of a planet in a neutral sign


0 से 6 अंश तक मृत अवस्था
6 से 12 अंश तक वृद्ध अवस्था
12 से 18 अंश तक युवा अवस्था
18 से 24 अंश तक कुमार अवस्था
24 से 30 अंश तक बाल अवस्था


The five states and their corresponding degrees:

For odd signs are as follows:
Child/Infant state (bala avastha) = 0 - 6 degrees
Young state (kumara avastha) = 6 - 12 degrees
Adult state (yuva avastha) = 12 - 18 degrees
Mature state (vriddha avastha) = 18 - 24 degrees
Old state (mrit avastha) = 24 - 30 degrees

For the even signs, 
the order gets reversed.
The avasthas for even signs are as follows:
Old state (mrit avastha) = 0 - 6 degrees
Mature state (vriddha avastha) = 6 - 12 degrees
Adult state (yuva avastha) = 12 - 18 degrees
Young state (kumara avastha) = 18 - 24 degrees
Child/infant state (bala avastha) = 24 - 30 degrees

Among these states, the adult state or yuva avastha is the strongest and can give its results strongly. The second most powerful is the young state or kumara avastha. The young state is that adolescent state and in real life too an adolescent is able to do many things but not more than an adult generally. The 3rd most powerful is the child/infant state because even a child can learn things. The 4th becomes the mature state. The last and weakest is the old state. So, the planets state must be checked to determine their strength and at what rate it can influence. The planets in the old state is very weak and it becomes a planet that the native does not deal with much in their life. Those planets in old state won't be able to give its benefic as well as malefic results.

कुंडली मे अधिकांश ग्रह एक साथ किसी भाव मे बैठकर युति संबंध बनाए होते है और ग्रहो का यह संबंध शुभ भी हो सकता है और अशुभ भी।हलाकि फल ही यहाँ महत्वपुर्ण है और वह निर्भर करेगा आपकी कुंडली मे ग्रहो की कोई शुभ युति है तो उनके बीच डिग्री(अंशो)की दूरी कितनी है?जिन भी ग्रहो के बीच शुभ युति संबंध है तो यदि उन ग्रहो के बीच डिग्री बहुत ज्यादा है तो ऐसे शुभ युति का प्रभाव कम हो जाता है और यदि ग्रहो के बीच शुभ योग/शुभ युति बनती है और दोनो डिग्रियों के बीच डिग्री में ज्यादा दूरी नही है दोनो ग्रहो या दो से ज्यादा ग्रहो की शुभ युति में डिग्री के अनुसार वह पास है ग्रह तो ऐसे ग्रहो के बीच संबंध मजबूत होता है और शुभ फल ज्यादा देते है क्योंकि ग्रह डिग्री अनुसार पास पास है तो एक दूसरे पर इनका प्रभाव गहरा रहेगा।इसके विपरीत डिग्री अनुसार ग्रहो की शुभ युति में ज्यादा दूरी है तो शुभ योग या शुभ युति होने पर भी प्रभाव शुभ फल का कम हो जाएगा।इसी तरह अशुभ ग्रहों की युति या युतिया होने,(#युति-मतलब दो या दो से ज्यादा ग्रह किसी एक भाव मे एक साथ बैठे हो)पर अशुभ ग्रहों के बीच डिग्री अनुसार दूरी ज्यादा हो तब यह शुभ रहता है क्योंकि अशुभ योग(युति संबंध)बनाने वाले ग्रहो के बीच डिग्री का अंतर ज्यादा है तो वह एक दूसरे पर ज्यादा प्रभाव नही डाल पाते और ऐसे अशुभ युति आदि होने पर उनका अशुभ प्रभाव भी नही पड़ता या बहुत कम पड़ता लेकिन ग्रहो के बीच अशुभ युति संबंध में डिग्री बहुत नजदीक है तब इसका भयंकर अशुभ प्रभाव बढ़ जाता है।जिन ग्रहो के बीच युति संबंध होता है तो उन ग्रहो की डिग्री यह बताती है की यह ग्रह कितना एक दूसरे पर प्रभाव डाल रहे है।और सबसे महत्वपूर्ण बात यदि कोई शुभ योग, या कोई शुभ ग्रहों की युति से राजयोग बन रहा है तो यदि ऐसे ग्रहो के बीच डिग्री की दूरी ज्यादा हो तब ऐसे शुभ योग भी प्रभावशाली नही रहते क्योंकि ग्रहो के बीच युति संबंध डिग्री से निर्धारित होता यदि डिग्री का अंतर युति संबंध में ग्रहो के बीच बहुत ज्यादा है तो ऐसा शुभ योग भी अपना शुभ प्रभाव न दिखायेगा #जैसे;- सूर्य 5डिग्री हो और बुध 28डिग्री हो तब यह सूर्य बुध की युति से बनने वाला बुधादित्य योग कोई खास शुभ फल या प्रभाव नही देगा क्योंकि दोनों ग्रहो के बीच दूरी बहुत ज्यादा है।ऐसे ही गुरु चन्द्र युति हो इसमे गुरु चन्द्र जितने ज्यादा डिग्री अनुसार नजदीक होने उतना ही गुरु चन्द्र("गजकेसरी योग) का शुभ प्रभाव और फल। बढेगा जैसे गुरु 10डिग्री हो और चन्द्र 13डिग्री हो तो दोनो ग्रह डिग्री अनुसार बहुत नजदीक है तो ऐसी स्थिति में बहुत शुभता बाद जाएगी यदि यह संबंध शुभ योग या पाप ग्रहों पर लागू करे तो उल्टा होगा जैसे, शनि चन्द्र युति से विषयोग नाम का अशुभ योग बनता है तो यदि अब चन्द्र 3अंश का हो और शनि 27 या 28अंश का हो तो चन्द्र शनि युति से बनने वाला यह अशुभ विषयोग कोई खास अशुभ फल नही दे पाएगा क्योंकि दोनों ग्रहो के बीच डिग्री का अंतर ज्यादा होने से यह डिग्री अनुसार एक दूसरे से काफी दूर है और माना अब किसी एक भाव मे चन्द्र 9डिग्री(अंश)का हो और शनि 13अंश का हो तो दोनो ग्रह डिग्री अनुसार बहुत नजदीक है तो यह युति संबंध बहुत अशुभ देगा क्योंकि दोनों बहुत नजदीक है और नजदीक है तो एक दूसरे को ज्यादा प्रभावित करेंगे।ऐसी स्थिति में कई काम जो शुभ योगों के द्वारा बनने होते है तो डिग्री ज्यादा होने से नही बन पाते पर हा पाप इस अशुभ योगों का अशुभ फल भी नही मिलता डिग्री ज्यादा होने से।अब कैसे कुछ उदाहरण से बताता हूँ:-" #उदाहरण1:- मीन लग्न की कुंडली मे गुरु लग्नेश और दशमेश होने से जातक के कैरियर, नोकरी/व्यवसाय का प्रतिनिधित करता है और चन्द्र 5वे भाव स्वामी होता है जो शुभ है तो अब गुरु और चन्द्र मीन लग्न के दसवे भाव मे धनु राशि मे बैठे तो यह शक्तिशाली गजकेसरी योग बनेगा जो यह फल दिखा रहा है कि जातक उच्च पद नोकरी में प्राप्त करेगा या उच्च स्थिति अपने कार्य छेत्र या व्यापार में प्राप्त करेगा क्योंकि बलवान स्थिति में शुभ गजकेसरी योग है लेकिन अब यहाँ शुभ युति संबंध तो है लेकिन माना चन्द्र यहाँ 4डिग्री का हो और गुरु 29डिग्री का हो तो29-4=25 मतलब दोनो ग्रहो के बीच 25डिग्री का अंतर है जो बहुत ज्यादा है फिर गुरु 29डिग्री होने से कमजोर हो गया डिग्री अनुसार तो बहुत ज्यादा अंतर दोनो के बीच डिग्री का होने से यह योग न तो उच्च पद पर नोकरी देगा,न बहुत बढ़िया व्यापार देगा मतलब ज्यादा सफलता नही देगा क्योंकि डिग्री का गुरु चन्द्र में ज्यादा अंतर आने से यह एक दूसरे को ज्यादा प्रभावित नही कर रहे तो गजकेसरी योग का प्रभाव न रहेगा ज्यादा जिस कारण सामान्य से ही फल योग के मिल पाएगी ज्यादा उच्च स्तर के नही।लेकिन अब डिग्री अनुसार यह बहुत पास होते जैसे गुरु 10डिग्री होता और चन्द्र 14 या 15डिग्री का होता तो दोनो के बीच लगभग 4 से 5डिग्री का अंतर जो ज्यादा नही है और यह धनु राशि के दसवे भाव मव बहुत नजदीक है तो अब यह शुभ गजकेसरी योग पूरी से बहुत गहरा प्रभाव और अच्छे से फल देगा और उपरोक्त लिखे शुभ फल मिलेंगे।तो डिग्री यहाँ महत्वपूर्ण हुई यदि डिग्री का अंतर ज्यादस है तो ऐसे शुभ योगों से शुभ फल की आशा ज्यादा नही रखनी चाहिए वह शुभ फल, शुभ योग का ज्यादा नही दे पाते है।। #उदाहरण2:- यह अशुभ योग पर बताता हूँ:- माना सूर्य राहु की युति है जो सूर्य ग्रहण योग बनाती है जिसका फल अशुभता ज्यादा देता है या काम बनने नही देता सूर्य आदि से संबंधित तो अब माना सूर्य 8डिग्री का है और राहु 10 या 11डिग्री का है तो सूर्य और राहु दोनो के बीच डिग्री का अंतर बहुत कम है दोनो बहुत नजदीक है डिग्री अनुसार राहु 11डिग्री-सूर्य 8डिग्री= 3डिग्री का अंतर है मतलब दोनो बहुत नजदीक है तो अब यह सूर्य ग्रहण योग अशुभ फल और प्रभाव करेगा लेकिन अब यहाँ स्थिति विपरीत हो दोनो ग्रहो में अंतर ज्यादा हो जैसे राहु माना 5डिग्री का है और सूर्य 28डिग्री का है तो 28-5=23 तो यह भी अंतर ज्यादा है दोनो के बीच और देखे तो राहु 5डिग्री और सूर्य 28डिग्री मतलब सूर्य राहु को पीछे छोड़ चुका है डिग्री में तो यह सूर्य राहु के बीच अंतर ज्यादा होने से सूर्यग्रहण योग का अशुभ प्रभाव न पड़ पायेगा।इसी कारण काफी काफी स्थिति में बनने वाला अशुभ योग अशुभ प्रभाव नही डालता और ऐसे ग्रहो की स्थिति कुंडली मे ठीक है तो वह शुभ फल ही दे जाता है जैसे मोदी जी की कुंडली मे केतु सूर्य युति होने से ग्रहण योग है सूर्य उनका दशमः भाव स्वामी होकर सत्ता(राजनीति) का कारक है फिर केतु के साथ ग्रहण योग में होकर ग्रहण योग का अशुभ फल न देकर शुभ फल मिलते, मोदी जी का दसमेश सूर्य उच्च बुध के साथ बुधादित्य योग में था तो तरक्की दी शुभ स्थिति में होने के कारण।। इसी तरह यदि अशुभ युति ग्रहो की या शुभ युति ग्रहो की है और दो ग्रहो या दो से ज्यादा ग्रह भी एक साथ किसी भाव मे बैठकर अशुभ या शुभ योग बना रहे है तब उन ग्रहो के बीच डिग्री का अंतर से ही उनकी युति के वास्तविक फल पता लगते है जैसे, सूर्य बुध राहु एक साथ हो तो माना सूर्य 3डिग्री है और बुध 5डिग्री और राहु 27डिग्री का है तो देखे तो सूर्य बुध राहु युति में सब सूर्य और बुध डिग्री अनुसार पास है और राहु सूर्य बुध से काफी दूर है तो यहाँ बुधादित्य योग का शुभ प्रभाव ज्यादा मिलेगा और सूर्य राहु ग्रहण योग का अशुभ प्रभाव बहुत कम हो जाएगा या अशुभ प्रभाव न भी मिले यह सम्भव है।तो इस तरह से आपकी या किसी भी जातक की कुंडली मे योग बनने पर भी वह शुभ फलित होंगे या नही, या अशुभ फलित होंगे या नही यह ग्रहो के बीच युति संबंध में उनके अंशो के अंतर पर निर्भर करता है।इसी कारण सबकी कुंडली एक जैसा योग अलग-अलग फल दिखाता है या देता है।

संधि में बैठे ग्रहो के फल

जिस तरह से लग्न संधि में होता है उसी तरह से ग्रह भी संधि में आ जाते है जिनकी जांच गहराई से करने पर ही उनके सही फल निकल सकते है।। संधि में ग्रह कैसे होता है?? जब कोई भी ग्रह किसी राशि पर 0अंश 2अंश तक हो या 29 से 30 तक हो तब ऐसे ग्रह संधि में होते है मतलब दोनो भावों का प्रभाव लिए हुए होते है।अब ग्रह यदि 1अंश का है इसका अर्थ है ग्रह अभी पिछली राशि/भाव से निकलकर अगली राशि/भाव मे आया ही है और जब ग्रह 29या 30अंश पर होता है इसमें भी यदि 30अंश पर हो तब इसका अर्थ होता है ग्रह जिस राशि/भाव मे है उसे छोडकर अगले भाव/राशि मे जा रहा है हलाकि ऐसे ग्रह की चलित कुंडली मे भाव स्थिति से सही अंदाजा उसके भाव का लगाया जाता है लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि ग्रह 29 या 30अंश पर होने पर भी चलित कुंडली मे उसी भाव और राशि मे है जिसमे की लग्न कुंडली मे है।तब ऐसा ग्रह या ऐसे ग्रह संधि में होते है मतलब अपना प्रभाव दोनो भावो पर डालते है।ऐसे केस में 1 या 2अंश के ग्रह का फल उसी भाव राशि अनुसार होगा जिसमें वह ग्रह है क्योंकि 1 या 2अंश का ग्रह अपना पिछला भाव या राशि को छोड़ चुका है लेकिन जो ग्रह 29 या 30अंश का है और चलित में भी बिल्कुल लग्न कुंडली जैसी स्थिति में है वह जिस भाव मे है उसके भी और अगले भाव के भी फल देने चालू कर देगा मतलब मिले झूले फल देगा।जैसे कि;- शनि की साढ़ेसाती होती है शनि होता एक ही भाव राशि मे है लेकिन उसकी साढ़ेसाती का प्रभाव शनि से पिछले भाव/राशि पर भी राहत है और अगले भाव और राशि पर भी राहता है माना जातक की राशि धनु है तो शनि जब धनु राशि पर होगा तो धनु से पिछली राशि वृश्चिक पर भी साढ़ेसाती देगा और धनु से अगली राशि मकर पर भी साढ़ेसाती रहेगी और जिस जन्म राशि पर शनि है उस पर भी साढ़ेसाती धनु पर रहेगी तो शनि जहाँ बैठा है उससे आगे और पीछे भाव/राशि कर भी फल दे रहा है इस तरह से ही जो ग्रह भाव संधि में होते है वह मिलाझुला फल करते है उसमे भी जो ग्रह बहुत तेज गति से चलते है जैसे बुध चन्द्र इनका प्रभाव विशेष होता है और गुरु शनि राहु केतु यह धीमी गति से चलते है इस कारण भाव संधि में यह ग्रह होंगे तो इनका प्रभाव दोनो भावो पर आएगा। #जैसे;- जैसे कर्क लग्न कि कुंडली मे सूर्य दसवे भाव मेष राशि मे होगा जो कि सूर्य की उच्च राशि है यदि यहाँ सूर्य 29 या 30अंश का है तो सूर्य यहाँ भाव संधि में आ जायेगा मतलब सूर्य ग्यारहवे भाव पर भी अपना प्रभाव दिखा सकता है तो दसवा भाव नोकरी/कार्य छेत्र का है सूर्य सरकार का कारक है तो ऐसे में दसवे भाव मे उच्च सूर्य होने से यही दिख रहा है कि जातक की किसी अच्छे पद पर सरकारी नोकरी सूर्य के कारण लगेगी क्योंकि दसवे भाव मे सूर्य है लेकिन सूर्य भाव संधि में है 29 या 30अंश का होकर तो ऐसा सूर्य हो सकता है सरकारी नोकरी या सूर्य के कारण नोकरी न मिल सके क्योंकि सूर्य ग्यारहवे भाव के साथ भाव संधि में है और ग्यारहवे भाव मे 29 या 30अंश का होकर ग्यारहवे भाव मे जाने के लिए आतुर है तो ऐसी स्थिति में सूर्य का प्रभाव दसवे भाव पर नाम मात्र को होगा जो कि कुछ खास असर नही देगा जबकि सूर्य बैठा दिख रहा है दसवे भाव मे ही।इसी तरह यही सूर्य की स्थिति बिल्कुल 9वे भाव मे बैठने पर होती और दसवे भाव को देखने पर पता चले कि सरकारी नोकरी योग नही है लेकिन जातक को मिल जाये तो यह सूर्य के नवे भाव मे 29 या 30अंश पर बैठने से सूर्य 10वे भाव के साथ भाव संधि में आ गया है जिस कारण उसने अपना प्रभाव दसवे भाव पर दिखाया।यह स्थिति बिल्कुल ऐसे ही है जैसे शाम को आफिस की छुट्टी के समय व्यक्ति घर जाने के लिए सोचता और यह सोचने लगता है क्या कुछ घर का या घर या घर के सदस्यों के लिए लेकर तो नही जाना।जबकि जातक अभी है ऑफिस में ही।ऐसी स्थिति में एक से ज्यादा ग्रह भी भाव संधि में हो जाते है तो जो भी ग्रह भाव संधि में होगा उसका फल सटीक उस ग्रह के फल जातक को किस तरह प्रभावित कर रहे है उसी के अनुसार होंगे।भाव संधि वाले ग्रहो के रत्न पहनते समय बहुत ध्यान रखा जाता है या रखना चाहिए क्योंकि हो सकता है आपको ग्रह लग्न(प्रथम)भाव मे बैठा दिख रहा है और यही ग्रह 12वे भाव के साथ भाव संधि में है तो ऐसे ग्रह के रत्न 12वे घर के फलो पर अपना प्रभाव डालेंगे जो कि शुभ नही क्योंकि 12वा भाव खर्चे का है।इसी तरह कोई ग्रह 12वे भाव मे है और कुंडली के लिए ऐसा ग्रह योगकारक/कारक या शुभ होकर शुभ फल देने वाला है लेकिन 12वे भाव मे होकर लग्न भाव के साथ संधि में हो तब ऐसे ग्रह के 12वे भाव मे बैठने पर भी उसका रत्न पहनना शुभ हो सकता है यदि चलित कुंडली मे भी ऐसा ग्रह लग्न(प्रथम) भाव मे आ गया हो तो यह सबसे बढ़िया फल देने की स्थिति होगी तो भाव संधि में बैठे ग्रहो के फल की सटीक भविष्यवाणी उनके भाव संधि किस तरह से है पर निर्भर करते है इसी तरह कोई लग्न भाव संधि में हो तो उस लग्न कुंडली के फलो की जांच बारीकी से करने पर उसके सही फलो का पता चलता है।

वर्गोत्तम ग्रह (Vargottam Graha)

वर्गोत्तमी ग्रह एक ऐसा ग्रह जो काफी शक्तिशाली होता है और शुभ भी होता है।कब होता है ग्रह वर्गोत्तम काफी लोग इस बारे जानते होंगे।लग्न कुंडली और नवमांश कुंडली दोनो कुंडलियो में कोई ग्रह एक ही राशि मे होता है तब ऐसा ग्रह वर्गोत्तम हो जाता है जो काफी शुभ और बली होता है।जैसे;- चन्द्रमा लग्न कुंडली औऱ नवमांश कुंडली दोनो में मेष राशि का हो तब चन्द्र वर्गोत्तम हो जाएगा इसी तरह अन्य ग्रह होते है।अब बात करते है वर्गोत्तमी ग्रह जब कुंडली मे दो या तीन कारक, या शुभ भावेशों या किसी भी भावों के स्वामी के साथ बैठता है तब क्या होता है? वर्गोत्तमी ग्रह जब 3 या 4ग्रहो के साथ किसी भी भाव मे बैठ जाये तब जातक का जीवन बहुत ज्यादा उस भाव से संबंधित जो फल है उसमें प्रभावशाली रहता है और जीवन बहुत ही उस छेत्र की ओर अग्रसर रहता है।जिसके परिणाम कुछ उदाहरणों सहित समझाता हूँ क्योंकि वर्गोत्तमी ग्रह का 3 या 4ग्रहो के साथ एक साथ बैठना कोई सामान्य बात नही होती यह एक बहुत महत्वपूर्ण स्थिति होती है।
उदाहरण- कन्या लग्न की कुंडली ले तो इस लग्न का स्वामी बुध होता है।अब इस कुंडली मे माना बुध गुरु शुक्र चन्द्र यह चार ग्रह एक साथ सातवें भाव मे या चौथे भाव या दसवे भाव मे बैठ जाए और इसमे एक ग्रह माना शुक्र वर्गोत्तम हो और यह चारो ग्रह दसवे भाव मे माना हो, तब जातक का कैरियर बहुत ज्यादा प्रभावशाली रहेगा चारो ही शुभ ग्रह इस कारक जातक बहुत कामयाब होगा जीवन कार्य छेत्र की गतिविधियों में ज्यादा रहेगा और अपार सफलताए रहेगी।इसी तरह यह स्थिति बिल्कुल सातवें भाव मे बन जाये तो वैवाहिक जीवन का प्रभाव, ससुराल पक्ष ,जीवनसाथी का प्रभाव जीवन मे विशेष रूप से शुभ फल देकर अच्छे परिवर्तन करेगा।।
उदाहरण - कुंडली मे 3 से 4 ग्रहो के योग बनने से राजयोग बने और उसमें एक या दो ग्रह वर्गोत्तम हो तब यह बहुत ताकतवर राजयोग बनेगा जो जीवन मे कभी जातक को नीचे न गिरेगा बल्कि ऊपर की और ही उठाएगा।धनु लग्न में लाभेश शुक्र,गुरु,मंगल और सूर्य की युति हो और इसमे माना सूर्य या सूर्य मंगल दोनो वर्गोत्तम हो तब यह बहुत ही शुभ-शक्तिशाली राजयोग बनेगा जो अखंड होगा जिसके परिणाम बहुत सुखद होंगे।क्योंकि किसी भी जातक/जातिका की कुंडली मे ग्रह वर्गोत्तम किसी विशेष शुभ फल देने के लिए ही होता, जिन ग्रहो आदि के साथ बैठेगा उन्ही के साथ जैसा संबंध होगा उसी हिसाब से फल देगाl
वर्गोत्तमी ग्रह अकेला बैठे और भाव स्थिति ठीक हो और पीड़ित न हो तब भी शुभ फल ही देता है लेकिम जब 3 से 4ग्रहो के साथ बैठ जाता है तब कई तरह से सुखद फल कारक बन जाता है |

वर्गोत्तमी ग्रह अशुभ भावेश के साथ नही होना चाहिए न ही अस्त होने चाहिए, जैसे कि माना लग्नेश वर्गोत्तम है लेकिन वह छठे ,आठवे, बारहवे भाव के स्वामियों के साथ बैठा है तो यहाँ ऐसे वर्गोत्तम ग्रह के फल शुभ न होंगे।क्योंकि वह अशुभ भावेश 6, 8,12भावेश के साथ है।शुभ संयोग में वर्गोत्तमी ग्रह 3 से 4ग्रहो के साथ होगा तब निश्चित ही जिन जिन भावेशों के साथ होगा और खुद वर्गोत्तम ग्रह जिन फलो को देने का कारक होगा उनका फल विशेष रूप से मिलेगा।ऐसे वर्गोत्तमी ग्रह की दशा या वर्गोत्तमी ग्रह के साथ बेठे ग्रहो की दशा बहुत महत्वपूर्ण होगी जीवन के लिए।वर्गोत्तम ग्रह का 3 या 4ग्रहो के साथ शुभ स्थिति में योग बहुत ही शानदार, शुभ फल कारक होगा।

Markesh
जन्म कुण्डली द्वारा मारकेश का विचार करने के लिए कुण्डली के दूसरे भाव, सातवें भाव, बारहवें भाव, अष्टम भाव आदि को समझना आवश्यक होता है. जन्म कुण्डली के आठवें भाव से आयु का विचार किया जाता है. लघु पाराशरी के अनुसार से तीसरे स्थान को भी आयु स्थान कहा गया है क्योंकि यह आठवें से आठवा भाव है (अष्टम स्थान से जो अष्टम स्थान अर्थात लग्न से तृतीय स्थान आयु स्थान है) और सप्तम तथा द्वितीय स्थान को मृत्यु स्थान या मारक स्थान कहते हैं इसमें से दूसरा भाव प्रबल मारक कहलाता है. बारहवां भाव व्यय भाव कहा जाता है, व्यय का अर्थ है खर्च होना, हानि होना क्योंकि कोई भी रोग शरीर की शक्ति अथवा जीवन शक्ति को कमजोर करने वाला होता है,इसलिये बारहवें भाव से रोगों का विचार किया जाता है. इस कारण इसका विचार करना भी जरूरी होता है. मारकेश की दशा में व्यक्ति को सावधान रहना जरूरी होता है क्योंकि इस समय जातक को अनेक प्रकार की मानसिक, शारीरिक परेशनियां हो सकती हैं. इस दशा समय में दुर्घटना, बीमारी, तनाव, अपयश जैसी दिक्कतें परेशान कर सकती हैं. जातक के जीवन में मारक ग्रहों की दशा, अंतर्दशा या प्रत्यत्तर दशा आती ही हैं. लेकिन इससे डरने की आवश्यकता नहीं बल्कि स्वयं पर नियंत्रण व सहनशक्ति तथा ध्यान से कार्य को करने की ओर उन्मुख रहना चाहिए. यदि अष्टमेश, लग्नेश भी हो तो पाप ग्रह नहीं रहता. मंगल और शुक्र आठवें भाव के स्वामी होने पर भी पाप ग्रह नहीं होते, सप्तम स्थान मारक, केंद्र स्थान है। अत: गुरु या शुक्र आदि सप्तम स्थान के स्वामी हों तो वह प्रबल मारक हो जाते हैं। इनसे कम बुध और चंद्र सबसे कम मारक होता है. तीनों मारक स्थानों में द्वितीयेश के साथ वाला पाप ग्रह सप्तमेश के साथ वाले पाप ग्रह से अधिक मारक होता है. द्वादशेश और उसके साथ वाले पापग्रह षष्ठेश एवं एकादशेश भी कभी-कभी मारकेश हो जाते हैं. मारकेश के द्वितीय भाव सप्तम भाव की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हैं और इसके स्वामी से भी ज्यादा उसके साथ रहने वाले पाप ग्रहों का भी निर्णय विचार पूर्वक करना जरूरी होता है. विभिन्न लग्नों के भिन्न भिन्न मारकेश होते हैं यहां एक बात और समझने की है कि सूर्य व चंद्रमा को मारकेश का दोष नहीं लगता है. मेष लग्न के लिये शुक्र मारकेश होकर भी मारकेश का कार्य नहीं करता किंतु शनि और शुक्र मिलकर उसके साथ घातक हो जाते हैं. वृष लगन के लिये गुरु , मिथुन लगन वाले जातकों के लिये मंगल और गुरु अशुभ है, कर्क लगन के लिये शुक्र, सिंह लगन के लिये शनि और बुध, कन्या लगन के लिये मंगल, तुला लगन के लिए मंगल, गुरु और सूर्य, वृश्चिक लगन के लिए बुध, धनु लग्न का मारक शनि, शुक्र, मकर लगन के लिये मंगल, कुंभ लगन के लिये गुरु, मंगल, मीन लगन के लिये मंगल, शनि मारकेश का काम करता है. छठे आठवें बारहवें भाव मे स्थित राहु केतु भी मारक ग्रह का काम करते है. यह आवश्यक नहीं की मारकेश ही मृत्यु का कारण बनेगा अपितु वह मृत्यु तुल्य कष्ट देने वाला हो सकता है अन्यथ और इसके साथ स्थित ग्रह जातक की मृत्यु का कारण बन सकता है. मारकेश ग्रह के बलाबल का भी विचार कर लेना चाहिए. कभी-कभी मारकेश न होने पर भी अन्य ग्रहों की दशाएं भी मारक हो जाती हैं. इसी प्रकार से मारकेश के संदर्भ चंद्र लग्न से भी विचार करना आवश्यक होता है. यह विचार राशि अर्थात जहां चंद्रमा स्थित हो उस भाव को भी लग्न मानकर किया जाता है. उपर्युक्त मारक स्थानों के स्वामी अर्थात उन स्थानों में पड़े हुए क्रमांक वाली राशियों के अधिपति ग्रह मारकेश कहे जाते हैं.


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