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सूर्यसिद्धान्त काल-भेद निरूपिणं Secrets of Time in Surya Siddhant

सूर्यसिद्धान्त काल-भेद निरूपिणं
Secrets of Time in Surya Siddhant


1. सूर्यसिद्धान्त (Surya Siddhant)
2. पंचसिद्धांतिका (Panch Siddhantika)
3. पैतामाह सिद्धान्त (Pitamah Siddhant)
4. पौलिष सिद्धान्त (Polish Siddhant)
5. रोमक सिद्धान्त (Romak Siddhant)
6. वशिष्ठ सिद्धान्त (Vashishth Siddhant)

सूर्यसिद्धान्त Surya Siddhant

सूर्यसिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। कई सिद्धान्त-ग्रन्थों के समूह का नाम है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो ६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं। भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है, जैसे आर्यभट्ट और वाराहमिहिर, आदि|

भगवान सूर्य को प्रत्यक्ष देवता कहा गया है यानी वो देवता जो हमें दिखाई देते हैं। मय दानव राक्षसराज रावण के ससुर यानी मंदोदरी के पिता मय दानव भी भगवान सूर्य के उपासक थे। मय दानव की तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उसे काल गणना का विद्वान होने का वरदान दिया था। सूर्यदेव के प्रतिरूप ने दिया था मय दानव को ज्ञान सतयुग के अंतिम चरण में मय दानव ने भगवान सूर्य की आराधना की। मय उनसे कोई शक्ति प्राप्त नहीं करना चाहता था, वो सिर्फ उनसे कालगणना और ज्योतिष के रहस्यों का जानना चाहता था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उसकी इच्छा पूरी की, लेकिन सूर्य कहीं ठहर नहीं सकते थे, सो उन्होंने अपने शरीर से एक और पुरुष की उत्पत्ति की और उसे आदेश दिया कि वो मय दानव को कालगणना और ज्योतिष के सारे रहस्यों को समझाए। सूर्य के प्रतिरूप से मिली शिक्षा के बाद मय दानव ने खुद भी ज्योतिष और वास्तु के कई सिद्धांत दिए जो आज भी कारगर हैं। सूर्य के प्रतिपुरुष और मयासुर के बीच की बातचीत को ही सूर्य सिद्धांत का नाम दिया गया। 

पंचसिद्धांतिका Pancha Siddhantika

भारत के प्राचीन खगोलशास्त्री, ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर का एक ग्रंथ है। महाराजा विक्रमादित्य के काल में इस ग्रंथ की रचना हुई थी। वाराहमिहिर ने तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थ वृहज्जातक, वृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका की रचना की। पंचसिद्धान्तिका में खगोल शास्त्र का वर्णन किया गया है। इसमें वाराहमिहिर के समय प्रचलित पाँच खगोलीय सिद्धांतों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में ग्रह और नक्षत्रों का गहन अध्ययन किया गया है। इन सिद्धांतों द्वारा ग्रहों और नक्षत्रों के समय और स्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वाराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं। 

पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है जो सिद्धांत पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत हैं।

वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का भी निर्देश किया है, जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें। इस ग्रंथ की रचना का काल ई°५२० माना जाता है। 

 वराहमिहिर Varahamihir

वराहमिहिर महान ज्योतिषी व खगोलशास्त्री थे। इनका जन्म सन् 499 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह परिवार उज्जैन के निकट कपित्थ (वर्तमान में कायथा) नामक गांव का निवासी था। इनके पिता तथा ये स्वयं भी भगवान सूर्य के उपासक थे।   दिया था सबसे पहले गुरुत्वाकर्षण बल का सिद्धांत वराहमिहिर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। वराहमिहिर ने सुदूर देशों की यात्राएं की तथा अनेक सिद्धांत दिए। विज्ञान के इतिहास में वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद न्यूटन ने इस अज्ञात बल को गुरुत्वाकर्षण बल नाम दिया। इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें वृहज्जातक, वृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। कापित्थक (उज्जैन) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक देते हैं। वरःमिहिर का मुख्य उद्देश्य गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ना था। वस्तुतः ऋग्वेद काल से ही भारत की यह परम्परा रही है। वरःमिहिर ने पूर्णतः इसका परिपालन किया है।

वराहमिहिर का जन्म सन् ४९९ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। यह परिवार उज्जैन के निकट कपित्थ(कायथा) नामक गांव का निवासी था। उनके पिता आदित्यदास सूर्य भगवान के भक्त थे। उन्हीं ने मिहिर को ज्योतिष विद्या सिखाई। कुसुमपुर (पटना) जाने पर युवा मिहिर महान खगोलज्ञ और गणितज्ञ आर्यभट्ट से मिले। इससे उसे इतनी प्रेरणा मिली कि उसने ज्योतिष विद्या और खगोल ज्ञान को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया। उस समय उज्जैन विद्या का केंद्र था। गुप्त शासन के अन्तर्गत वहां पर कला, विज्ञान और संस्कृति के अनेक केंद्र पनप रहे थे। मिहिर इस शहर में रहने के लिये आ गये क्योंकि अन्य स्थानों के विद्वान भी यहां एकत्र होते रहते थे। समय आने पर उनके ज्योतिष ज्ञान का पता विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय को लगा। राजा ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में शामिल कर लिया। मिहिर ने सुदूर देशों की यात्रा की, यहां तक कि वह यूनान तक भी गये। सन् ५८७ में वराहमिहिर की मृत्यु हो गई।

कृतियाँ
550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।
पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं : पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत। वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का भी निर्देश किया है, जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें। इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता नामक तीन ग्रंथ भी लिखे हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं।

अपनी पुस्तक के बारे में वराहमिहिर कहते है:
ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं कर सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढ़ेगा वह उसे पार ले जायेगी।
यह कोरी शेखी नहीं थी। इस पुस्तक को अब भी ग्रन्थरत्न समझा जाता है।

कृतियों की सूची
• पंचसिद्धान्तिका,
• बृहज्जातकम्,
• लघुजातक,
• बृहत्संहिता
• टिकनिकयात्रा
• बृहद्यात्रा या महायात्रा
• योगयात्रा या स्वल्पयात्रा
• वृहत् विवाहपटल
• लघु विवाहपटल
• कुतूहलमंजरी
• दैवज्ञवल्लभ
• लग्नवाराहि

वैज्ञानिक विचार तथा योगदान:-
वराहमिहिर वेदों के ज्ञाता थे मगर वह अलौकिक में आंखे बंद करके विश्वास नहीं करते थे। उनकी भावना और मनोवृत्ति एक वैज्ञानिक की थी। अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिक आर्यभट्ट की तरह उन्होंने भी कहा कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि कोई शक्ति ऐसी है जो चीजों को जमीन के साथ चिपकाये रखती है। आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते है।

वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकालोजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलोजी), भूविज्ञान (जिआलोजी) के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां की। उनका कहना था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इंगित करते हैं। आज वैज्ञानिक जगत द्वारा उस पर ध्यान दिया जा रहा है। उन्होंने लिखा भी बहुत था। संस्कृत व्याकरण में दक्षता और छंद पर अधिकार के कारण उन्होंने स्वयं को एक अनोखी शैली में व्यक्त किया था। अपने विशद ज्ञान और सरस प्रस्तुति के कारण उन्होंने खगोल जैसे शुष्क विषयों को भी रोचक बना दिया है जिससे उन्हें बहुत ख्याति मिली। उनकी पुस्तक पंचसिद्धान्तिका (पांच सिद्धांत), बृहत्संहिता, बृहज्जात्क (ज्योतिष) ने उन्हें फलित ज्योतिष में वही स्थान दिलाया है जो राजनीति दर्शन में कौटिल्य का, व्याकरण में पाणिनि का और विधान में मनु का है।

त्रिकोणमिति
निम्ननिखित त्रिकोणमितीय सूत्र वाराहमिहिर ने प्रतिपादित किये हैं-

वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारणी को और अधिक परिशुद्धत बनाया।

अंकगणित
वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया

संख्या सिद्धान्त
वराहमिहिर 'संख्या-सिद्धान्त' नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता हैं जिसके बारे में बहुत कम ज्ञात है। इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाया है। प्राप्त ग्रन्थ के बारे में पुराविदों का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है।

क्रमचय-संचय
वराहमिहिर ने वर्तमान समय में पास्कल त्रिकोण (Pascal's triangle) के नाम से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की। इनका उपयोग वे द्विपद गुणाकों (binomial coefficients) की गणना के लिये करते थे।

प्रकाशिकी
वराहमिहिर का प्रकाशिकी में भी योगदान है। उन्होने कहा है कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन (back-scattering) से होता है। उन्होने अपवर्तन की भी व्याख्या की है


पंद्रह निमेष की एक ‘काष्ठा’ होती हैं । तीस काष्ठा की एक ‘कला’ गिननी चाहिए । तीस कला का एक ‘मुहूर्त’ होता है । तीस मुहूर्त के एक ‘दिन-रात’ होते हैं । एक दिन में तीन तीन मुहूर्त वाले पांच काल होते है, – “प्रातःकाल, संगवकाल, मध्यकाल, अपरान्ह्काल तथा पांचवा सयान्ह्काल” । इनमें पंद्रह मुहूर्त व्यतीत होते हैं । पंद्रह दिन रात का एक पक्ष होता है ।  पक्ष का एक मास कहा गया है । 

दो सौर मास की एक ऋतु होती है । तीन ऋतुओं का एक ‘अयन’ होता है तथा दो अयनों का एक वर्ष माना गया है । विज्ञ पुरुष मास के चार और वर्ष के पांच भेद बतलाते हैं ।

सौर मास, चन्द्र मास, नक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं । सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है । सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है । यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है । कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है । चन्द्रमा की ह्र्वास वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है ।  यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है । कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है । यह तिथि की ह्र्वास वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है ।

जितने दिनों में चंद्रमा अश्वनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है । यह लगभग २७ दिनों का होता है । सावन मास तीस दिनों का होता है । यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है । प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है । इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं । सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है । चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है ।

इसी प्रकार वर्ष के पांच भेद होते हैं । पहला संवत्सर, दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर तथा पांचवा युग्वत्सर है ।* प्रत्येक संवत्सर में बारह सौर मास और बारह चन्द्र मास होते हैं । परन्तु सौरवर्ष ३६५ दिन का और चन्द्र वर्ष ३५५ दिन का होता है । जिससे दोनों में प्रतिवर्ष १० दिनों का अंतर पड़ता है । इस वैषम्य को दूर करने के लिए प्रति तीसरे वर्ष बारह की जगह १३ चन्द्र मास होते हैं । ऐसे बढे हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं ।

यही वर्ष गणना की निश्चित संख्या है । मनुष्यों के एक मास का पितरों का एक दिन-रात होता है । कृष्ण पक्ष उनका दिन बताया जाता है और शुक्ल पक्ष उनकी रात्रि । मनुष्यों के एक वर्ष का देवताओं के एक दिन माना गया है । उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि । देवताओं का एक वर्ष पूरा होने पर सप्तर्षियों का एक दिन माना गया है । सप्तर्षियों के एक वर्ष में ध्रुव का एक दिन माना गया है । मानव वर्ष के अनुसार सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों का सतयुग माना गया है । मानव मान से ही बारह लाख छानवे हजार वर्षों का त्रेतायुग कहा गया है । आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का द्वापर होता है और चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का कलियुग माना गया है ।

इन चारों के योग से देवताओं का एक युग होता है । इकहत्तर युगों से कुछ अधिक काल तक मनु की आयु मानी गयी है । चौदह मनुओं का काल व्यतीत होने पर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है । जो एक हजार चतुर्युगों का माना गया है; वही कल्प है । अब कल्पों के नाम श्रवण करो –   भवोद्भव, तपोभव्य, ऋतु, वही, वराह, सावित्र, औसिक, गांधार, कुशिक, ऋषभ, खड्ग, गान्धारीय, मध्यम, वैराज, निषाद, मेघवाहन, पंचम, चित्रक, ज्ञान, आकृति, मीन, दंश, वृहक, श्वेत, लोहित, रक्त, पीतवासा, शिव, प्रभु तथा सर्वरूप – इन तीस कल्पों का ब्रह्मा जी का एक मास होता है । ऐसे बारह मासों का एक वर्ष होता है तथा ऐसे ही सौ वर्षों तक ब्रह्मा जी की आयु का पूर्वार्ध मानना चाहिए । पूर्वार्ध के सामान ही अपरार्ध भी है । इस प्रकार ब्रह्मा जी की आयु का मान बताया गया है । अर्जुन ! भगवान् विष्णु तथा भगवान् शंकर जी की आयु का वर्णन करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ । पाताल लोक में भी देवताओं के मान से ही गणना की जाती है । ये बात मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही मैंने बताई है ।

* बृहस्पति की गति के अनुसार प्रभव आदि साठ वर्षों में बारह युग होते हैं तथा प्रत्येक युग में पांच पांच वत्सर होते हैं । बारह युगों के नाम हैं – प्रजापति, धाता, वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लव, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति और क्षय । प्रत्येक युग के जो पांच वत्सर हैं, उनमें से प्रथम का नाम संवत्सर है । दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और पांचवा युगवत्सर  है । इनके पृथक पृथक देवता होते हैं, जैसे संवत्सर के देवता अग्नि माने गए हैं ।

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