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Aadi Guru Shankracharya आदि गुरु शंकराचार्य

आदि गुरु शंकराचार्य :-

जन्म : 788 ई.जन्म भूमिकालडी़ ग्राम, केरल
मृत्यु :  820 ई.मृत्यु स्थान केदारनाथ, उत्तराखण्ड
गुरु :  गोविन्द योगी
मुख्य रचनाएँ : उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं।

शंकराचार्य आम तौर पर अद्वैत परम्परा के मठों के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है जो कि बौद्ध धर्म में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप के समकक्ष है। इस पद की परम्परा आदि गुरु शंकराचार्य ने आरम्भ की। यह उपाधि आदि शंकराचार्य, जो कि एक हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु थे एवं जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में से एक के तौर पर जाना जाता है, के नाम पर है। उन्हें जगद्गुरु के तौर पर सम्मान प्राप्त है एक उपाधि जो कि पहले केवल भगवान कृष्ण को ही प्राप्त थी। उन्होंने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा हेतु भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किये तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उन पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। तबसे इन चारों मठों में शंकराचार्य पद की परम्परा चली आ रही है। यह पद अत्यंत गौरवमयी माना जाता है।

चार मठ निम्नलिखित हैं:

उत्तरामण्य मठ या उत्तर मठ, ज्योतिर्मठ जो कि जोशीमठ में स्थित है।
पूर्वामण्य मठ या पूर्वी मठ, गोवर्धन मठ जो कि पुरी में स्थित है।
दक्षिणामण्य मठ या दक्षिणी मठ, शृंगेरी शारदा पीठ जो कि शृंगेरी में स्थित है।
पश्चिमामण्य मठ या पश्चिमी मठ, द्वारिका पीठ जो कि द्वारिका में स्थित है।
इन चार मठों के अतिरिक्त भी भारत में कई अन्य जगह शंकराचार्य पद लगाने वाले मठ मिलते हैं। यह इस प्रकार हुआ कि कुछ शंकराचार्यों के शिष्यों ने अपने मठ स्थापित कर लिये एवं अपने नाम के आगे भी शंकराचार्य उपाधि लगाने लगे। परन्तु असली शंकराचार्य उपरोक्त चारों मठों पर आसीन को ही माना जाता है।

ब्राह्मण परिवार में जन्म:-
शंकराचार्यजी का जन्म शिवगुरु नामपुद्रि के यहां विवाह के कई वर्षों बाद हुआ था। माना जाता है कि शिवगुरु नामपुद्रि वर्षों तक संतान सुख से वंचित थे, जिसके पश्चात उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान शंकर से प्रार्थना की। दोनों द्वारा कठोर तपस्या की गई जिसके बाद भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें एक पुत्र का वरदान देने का फैसला किया, लेकिन एक शर्त पर।

भगवान शंकर ने दिया वरदान

भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, “वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ और तुम्हें एक बालक का वरदान भी देता हूं लेकिन एक दुविधा है। तुम्हारे यहां जन्म लेने वाला दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा।“

लेकिन एक शर्त थी

“तुम्हें दोनों में से किसी एक का चयन करना होगा। मांगो तुम कैसा वर चाहते हो।“ इस पर शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र पाने की मांग की। प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कहा, “वत्स! तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां अवतीर्ण होऊंगा।“

बालक शंकर

कुछ समय के पश्चात विशिष्टादेवी ने एक सुंदर से बालक को जन्म दिया जिसका नाम शंकर रखा गया लेकिन इस बालक के नाम के साथ भविष्य में अपने कार्यों की वजह से आचार्य जुड़ गया और वह शंकराचार्य बन गया। बहुत छोटी सी उम्र में ही शंकराचार्यजी के सिर से पिता का साया उठ गया था।

वेद, पुराण का ज्ञान लिया

वे अपनी माता के साथ ही रहते थे। माना जाता है कि मात्र 2 वर्ष की आयु में ही बालक शंकराचार्यजी ने वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। अपने शांत व्यवहार के कारण ही शंकराचार्यजी छोटी सी उम्र में संन्यास लेने की ठान बैठे थे, लेकिन अकेली माता का मोह उन्हें कहीं जाने नहीं देता था।

संन्यासी होने का फैसला

परन्तु एक दिन उन्होंने निश्चय कर लिया कि हो ना हो वे संन्यास लेने के लिए जरूर जाएंगे। लेकिन जब मां द्वारा रोकने की कोशिश की गई तो बालक शंकर ने उन्हें नारद मुनि से जुड़ी एक कथा सुनाई। इस कथा के मुताबिक नारदजी की आयु जब मात्र पांच वर्ष की थी, तभी वे अपने स्वामी की अतिथिशाला में अतिथियों के मुंह से हरिकथा सुनकर साक्षात हरि से मिलने के लिए व्याकुल हो गए, लेकिन अपनी मां के स्नेह के कारण घर छोड़ने का साहस न जुटा पाए।

नारद मुनि की कथा

इसीलिए वे कहीं भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, किन्तु उस काली रात ने उनके जीवन का एक बड़ा फैसला लिया। अचानक उस रात सर्पदंश के कारण उनकी मां की मृत्यु हो गई। इसे ईश्वर की कृपा मानकर नारद ने घर छोड़ दिया, जिसके बाद ही नारद मुनि अपने जीवन के असली पड़ाव तक पहुंच पाए थे।

बालक शंकर ने समझाया

कथा सुनाकर बालक शंकर ने अपनी मां से कहा, “मां, जब नारदजी ने घर का त्याग किया, तब वे मात्र पांच वर्ष के थे। यह तो ईश्वर का खेल था कि उनकी माता के ना चाहते हुए भी परिस्थितियों के आधार पर नारदजी जाने में सफल हुए। मां, मैं तो आठ वर्ष का हूं और मेरे ऊपर तो मातृछाया सदैव रहेगी।“

बालक शंकर की प्रतिज्ञा

नन्हे बालक की बात सुनकर मां फिर से दुखी हो गईं। मां को समझाते हुए बालक शंकर बोला, “मां, तुम दुखी क्यों होती हो। देखो मेरे सिर पर तो हमेशा ही तुम्हारा आशीर्वाद रहेगा। तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारी ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर मैं उपस्थित रहूंगा और तुम्हारे पार्थिव शरीर को अग्नि देने जरूर आऊंगा”।

और फिर वह चला गया

इतना कहते हुए बालक शंकर ने घर से बाहर पांव रखा और संन्यासी जीवन में आगे बढ़ते चले गए। कहते हैं कि वर्षों बाद शंकराचार्यजी अवश्य ही माता की मृत्यु के समय उपस्थित हुए और उनके शरीर को अग्नि देने के लिए आगे बढ़ना चाहा लेकिन कुछ परंपरागत सिद्धांतों के चलते ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा करने से रोका।

ब्राह्मणों ने किया विरोध

ब्राह्मणों द्वारा शंकराचार्यजी को रोकने का एक ही तर्क था कि एक संन्यासी, जो कि सभी दुनियावी मोह-माया से मुक्त होता है, उसे अपनी खुद की मां से भी स्नेह नहीं रखना चाहिए। यह उसके संन्यासी जीवन पर अभिशाप के समान है। लेकिन तब शंकराचार्यजी ने उन्हें यह ज्ञात कराया कि उनके द्वारा ली गई प्रतिज्ञा उनके संन्यासी जीवन का हिस्सा नहीं थी।

प्रतिज्ञा का पालन

उन्होंने समझाया कि वह अपनी मां के प्यार के लिए नहीं बल्कि उन्हें दी गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए अग्नि अर्पित करने आए हैं। उनकी यह प्रतिज्ञा तब ली गई थी जब उन्होंने संन्यास जीवन धारण भी नहीं किया था। इसीलिए वे किसी भी प्रकार का अधर्म नहीं कर रहे हैं।

फिर मिली आज्ञा

तत्पश्चात सभी ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा करने की आज्ञा प्रदान की। बाद में शंकराचार्यजी ने अपने घर के ठीक सामने ही अपनी मां के शव को अग्नि अर्पित की थी। कहा जाता है कि शंकराचार्यजी द्वारा इस प्रकार घर के सामने अंतिम संस्कार करने के बाद ही दक्षिण भारत के इस क्षेत्र में भविष्य में सभी घरों के सामने ही अंतिम संस्कार करने की रीति आरंभ हो गई। यह रीति आज भी इसी तरह से चल रही है।

कनकधारा स्त्रोत की रचना-

तब उनकी आयु मात्र सात वर्ष थी। वह ब्राह्मण के घर के बाहर पहुँचे और भिक्षा मांगी। लेकिन यह एक ऐसे ब्राह्मण का घर था जिसके पास खाने तक को कुछ नहीं थ, तो वह भिक्षा कैसे देते। अंतत: ब्राह्मण की पत्नी ने बालक के हाथ पर एक आंवला रखा और रोते हुए अपनी गरीबी का वर्णन किया।
उस महिला को यूं रोता हुआ देख बालक का हृदय द्रवित हो उठा। तभी उस बालक ने मन से मां लक्ष्मी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना की जिसके पश्चात प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आंवलों की वर्षा कर दी।


जगद्गुरु शंकराचार्य का भारत भ्रमण

जगद्गुरु शंकराचार्य के जीवन से जुड़ी एक और कथा इतिहास में प्रचलित रही है। यह कथा उनके भारत भ्रमण से जुड़ी है। कहते हैं कि आठवीं शताब्दी के दौरान आदि शंकराचार्यजी जब सांस्कृतिक दिग्विजय के लिए भारत भ्रमण पर निकले थे तब वे एक बार मिथिला प्रदेश (जो कि आज के समय में दरभंगा, बिहार का हिस्सा है) से निकले थे।

आदि शंकराचार्य जी के परकाया प्रवेश की घटना:-

जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी के परकाया प्रवेश की घटना विश्व प्रसिद्द है | घटना के अनुसार, वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने जब वाराणसी में विरोधी विद्वानों को शास्त्रों में परास्त कर दिया तो उनका शास्त्रार्थ अद्वैतवाद के समर्थन में भी प्रारंभ हुआ |

उनका शास्त्रार्थ ब्रह्म के ‘एकोहम द्वितीयो नास्ति’ के आधार पर प्रारंभ हुआ | अद्वैत सिद्धांत के समर्थन में जब उन्हें काशी में विजय प्राप्त हो गई तब वह मिथिला की ओर बढ़े | उन दिनों मिथिला में श्री मंडन मिश्र नामक एक बड़े भारी विद्वान थे |

उस क्षेत्र में उन्ही का आभामंडल था चारो तरफ | मिथिला पहुंचने पर आचार्य शंकर का मंडन मिश्र से डट कर शास्त्रार्थ हुआ | शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला | अंत में आचार्य शंकर से मंडन मिश्र हार गए |

यहाँ यह बात सभी को ध्यान में रखना चाहिए कि भारतीय सनातन परम्परा में, शास्त्रार्थ में कुतर्क का कोई स्थान नहीं है | प्राचीन काल में लोग शुद्ध तत्व चिन्तन पर आधारित तर्कों एवं अनुभव जनित ज्ञान के आधार पर ही शास्त्रार्थ करते थे |

मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती बहुत विदुषी महिला थी | अपने पति और आदि गुरु शंकराचार्य के शास्त्रार्थ में भारती ने ही मध्यस्थता की थी | अपने पतिदेव के हारने पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ था | अंत में भारती ने आचार्य शंकर से गंभीर हो कर कहा “सन्यासी ! पति का आधा शरीर उसकी पत्नी होती है | आपने मेरे पति को परास्त किया, अब आप मुझ से शास्त्रार्थ करें” |

आचार्य शंकर ने भारती से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया | भारती और आचार्य शंकर का भी कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला | अंत में भारती भी हारने लगी | तब भारती को एक उपाय सूझा | भारती ने मन में विचार किया कि सन्यासी को काम कला का कुछ भी ज्ञान नहीं होता है | फिर यह तो बालक पन में ही सन्यासी हो गए हैं | अतः इन्हें काम-कला का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं होगा |

और तुरंत ही भारती ने काम-कला पर शास्त्रार्थ प्रारंभ कर दिया | आचार्य शंकर वास्तव में काम-कला से अनभिज्ञ थे | एक, दो प्रश्नों के उत्तर के बाद आचार्य ने थोड़े समय के लिए अवसर मांगा | भारती ने अवसर दे दिया | आचार्य शंकर ने अपनी सूक्ष्म दृष्टी से देखा कि एक नवयुवक राजा अचानक किसी कारण से मर गया है |

आचार्य ने अपने शिष्यों को अपने पार्थिक शरीर की रक्षा के लिए समझा दिया और स्वयं योग विधि से अपनी जीव-आत्मा का सद्योमृत राजा के शरीर में प्रवेश करा दिया | राजा का शरीर प्राणवान हो गया और युवक राजा उठ बैठे | रनिंवास में आनंद की लहर छा गई | हाँलाकि यह रहस्य किसी के समझ में आया नहीं | लेकिन आचार्य ने राजा के उसके मानव शरीर से क्रमशः काम कला का अनुभव से पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था |

अपनी विद्या को पूरी करके आचार्य निश्छल और निर्विकार भाव से राजा के शरीर को त्याग कर के अपने शरीर में प्रवेश कर गए | राज्य में पुनः शोक की लहर दौड़ गयी और राजा पुनः मरे हुए समझे जाने लगे |

उधर आचार्य शंकर अपने कर्तव्यों की ओर पुनः अग्रसर हुए | अबकी बार भारती और आचार्य में जो शास्त्रार्थ हुआ तो उसमें भारती को हारना पड़ा | शास्त्रार्थ समाप्त होने पर मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती दोनों आचार्य शंकर के शिष्य हो गए |



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