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पाराशरी -आयु निर्णय सूत्र Markesh | Death time calculation

पाराशरी -आयु निर्णय सूत्र  Markesh | Death time calculation

महर्षि पराशर ने प्रत्येक ग्रह को निश्चित आयु पिंड दिये है, पराशर मुनि ने सूर्य को १८ , चन्द्रमा को २५ , मंगल को १५ , बुध को १२ , गुरु को १५ , शुक्र को २१ , शनि को २० , पिंड दिये हैं। उन्होने राहु केतु को स्थान नही दिया है। जन्म कुंडली मे जो ग्रह उच्च व स्वग्रही हो तो उनके उपरोक्त वर्ष सीमा से गणना की जाती है। जो ग्रह नीच के होते है तो उन्हे आधी संख्या दी जाती है। 
सूर्य के पास जो भी ग्रह जाता है अस्त हो जाता है । उस ग्रह की जो आयु होती है वह आधी रह जाती है, परन्तु शुक्र शनि की पिंडायु का ह्रास नही होता है । शत्रु राशि में ग्रह हो तो उसके तृतीयांश का ह्रास हो जाता है। इस प्रकार आयु ग्रहों को आयु संख्या देनी चाहिये। 

पिंडायु , वारायु एवं अल्पायु आदि योगों के मिश्रण से आनुपातिक आयु वर्ष का निर्णय करके दशा क्रम को भी देखना चाहिये।

मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा प्रत्यंतर दशा में जातक का मरण होता है ऐसा माना गया है । उस समय यदि मारकेश ग्रह की दशा न हो तो मारकेश ग्रह के साथ जो पापी ग्रह हो उसकी दशा में जातक की मृत्यु होगी ये समझना चाहिए। 

ध्यान रहे कि अष्टमेश की दशा स्वत: उसकी ही अन्तर्द्शा मारक होती है। व्ययेश की दशा में धनेश मारक होता है, तथा धनेश की दशा में व्ययेश मारक होता है। 

इसी प्रकार छठे भाव के मालिक की दशा में अष्टम भाव के ग्रह की अन्तर्दशा मारक होती है। मारकेश के बारे अलग अलग लगनो के सर्वमान्य मारक इस प्रकार से हैं। 

जन्म लग्न से आठवा स्थान आयु स्थान माना गया है। लघु पाराशरी से तीसरे स्थान (आठवें से आठवा स्थान) को भी आयु स्थान कहा गया है। 

आयु स्थान से बारहवें यानी सप्तम को भी मारक कहा गया है। 

शास्त्रों में दूसरे भाव के मालिक को पहला मारकेश और सप्तम भाव के मालिक को दूसरा मारकेश बताया है। 

आठवा भाव मृत्यु का सूचक है। आयु और मृत्यु एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। आयु का पूरा होना ही मृत्यु है। मृत्यु के कारण बनते है,रोग दुर्घटना या अन्य कुछ वजह । 

इस प्रकार से आठवें भाव से मौत और मनुष्य के जीवन का विचार किया जाता है। छ्ठे भाव से रोगका विचार किया जाता है । रोग का साध्य या असाध्य होना आयु का एक कारण है। 

जब तक आयु है कोई रोग असाध्य नही होता है, किंतु आयु की समाप्ति के आसपास होने वाला साधारण रोग भी असाध्य बन जाता है। इसलिये रोगों के साध्य असाध्य होने का विचार भी इस भाव से होता है। 

बारहवे भाव को व्यय स्थान भी कहते है व्यय का अर्थ है खर्च करना,हानि होना आदि। कोई भी रोग शरीर की शक्ति अथवा जीवन शक्ति को कमजोर करने वाला होता है,इसलिये बारहवें भाव से भी हॉस्पिटल या रोगों का विचार किया जाता है। 

इस स्थान से कभी कभी मौत के कारणों का पता चल जाता है। वस्तुत: अचानक दुर्घटना होना मौत के द्वारा मोक्ष का कारण भी यहीं से निकाला जाता है। मारकेश का नाम लेते ही या मौत का ख्याल आते ही लोग घबडा जाते है।

ज्योतिष में अलग अलग लग्नों के अलग अलग मारकेश बताये है। 

(1) मेष लग्न के जातक के लिये शुक्र मारकेश होकर भी उसे मारता नही है, लेकिन शनि और शुक्र मिलकर उसके साथ अनिष्ट करते है। 
(2) वृष लग्न के लिये गुरु घातक है। 
(3) मिथुन लग्न वाले जातकों के लिये चन्द्रमा घातक है, लेकिन मारता नही है किंतु मंगल और गुरु अशुभ हैं। 
(4) कर्क लग्न वाले जातकों के लिये सूर्य मारकेश होकर भी मारकेश नही है,परन्तु शुक्र घातक है। 
(5) सिंह लग्न वाले जातक के लिये शनि मारकेश होकर भी नही मारेगा, लेकिन बुध मारकेश का काम करेगा। 
(6) कन्या लग्न के लिये सूर्य मारक है,पर वह अकेला नही मारेगा मंगल आदि पाप ग्रह मारकेश के सहयोगी होंगे और मृत्यु का कारण बनेंगे। 
(7) तुला लगन के लिए मारकेश मंगल है,पर अशुभ फ़ल गुरु और सूर्य ही देंगे। 
(8) वृश्चिक लग्न के लिए गुरु मारकेश होकर भी नही मारेगा,जबकि बुध सहायक मारकेश होकर पूर्ण मारकेश का काम करेगा। 
(9) धनु लग्न के लिए मारक शनि है,पर अशुभ फ़ल शुक्र ही देगा। 
(10) मकर लग्न के लिये मंगल ग्रह घातक माना जायेगा । 
(11) कुंभ लग्न के लिये मारकेश गुरु है , लेकिन घातक कार्य मंगल ही करेगा। 
(12) अंत में मीन लगन के लिये मंगल मारक है और साथ में शनि भी मारकेश का काम करेगा।

ध्यान रहे छठे आठवें बारहवें भाव मे पडे राहु केतु भी मारक ग्रह का काम करते हैं। 

मृत्यु कब, कहाँ और कैसे होगी ? मृत्यु काल गणना Death time calculation in Astrology

मृत्यु कब, कहाँ और कैसे होगी ? मृत्यु काल गणना Death time calculation in Astrology

ज्योतिष अनुसार किसी कुंडली में आयु निर्णय कैसे करे ?
किसी भी मानवीय जीवन की छह घटनाओं के बारे में कहा जाता है कि इनके बारे में केवल ईश्‍वर ही जानता है, कोई साधारण मनुष्‍य इसकी पूर्ण गणना नहीं कर सकता। इन छह घटनाओं में से पहली दो घटनाएं न केवल किसी भी आत्‍मा के पृथ्‍वी पर प्रवास का समय निर्धारित करती है, बल्कि ज्‍योतिषी के समक्ष हमेशा प्रथम चुनौती के रूप में खड़ी रहती है।
ज्योतिष में जीवन अवधि का विचार सामान्यतः अष्टम भाव से किया जाता है। इसके साथ ही अष्टमेश, कारक शनि, लग्न-लग्नेश, राशि-राशीश, चंद्रमा, कर्मभाव व कर्मेश, व्यय भाव व व्ययेश तथा इसके अलावा प्रत्येक लग्न के लिए मारक अर्थात् शत्रु ग्रह, द्वितीय, सप्तम, तृतीय एवं अष्टम भाव तथा इनके स्वामियों तथा शुभ एवं अशुभ पाप ग्रहों द्वारा डाले जाने वाले प्रभाव पर भी विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
लग्नेश के नवांश से मृत्यु का ज्ञान प्राप्त होता है तथा जन्म कुंडली में लग्न चक्र और नवांश चक्र को देखकर यह बताया जा सकता है की मृत्यु कब, कहाँ, कैसे होगी 

लग्नेश का नवांश मेष हो तो पित्तदोष, पीलिया, ज्वर, जठराग्नि आदि से संबंधित बीमारी से मृत्यु होती है।
लग्नेश का नवांश वृष हो तो एपेंडिसाइटिस, शूल या दमा आदि से मृत्यु होती है।

लग्नेश मिथुन नवांश में हो तो मेनिन्जाइटिस, सिर शूल, दमा आदि से मृत्यु होती है।

लग्नेश कर्क नवांश में हो तो वात रोग से मृत्यु हो सकती है।
लग्नेश सिंह नवांश में हो तो व्रण, हथियार या अम्ल से अथवा अफीम, मय आदि के सेवन से मृत्यु होती है।
कन्या नवांश में लग्नेश के होने से बवासीर, मस्से आदि रोग से मृत्यु होती है।
तुला नवांश में लग्नेश के होने से घुटने तथा जोड़ो के दर्द के इलाज के दैरान अथवा किसी चतुष्पद जानवर के आक्रमण के कारण मृत्यु होती है।
लग्नेश वृश्चिक नवांश में हो तो संग्रहणी, यक्ष्मा आदि से मृत्यु होती है।
लग्नेश धनु नवांश में हो तो विष ज्वर, गठिया आदि के कारण मृत्यु हो सकती 
लग्नेश मकर नवांश में हो तो अजीर्ण, अथवा, पेट की किसी अन्य व्याधि से मृत्यु हो सकती है।
लग्नेश कुंभ नवांश में हो तो श्वास संबंधी रोग, क्षय, भीषण ताप, लू आदि से मृत्यु हो सकती है।
लग्नेश मीन नवांश में हो धातु रोग, बवासीर, भगंदर, प्रमेह, गर्भाशय के कैंसर आदि से मृत्यु होती है।

हत्या एवं आत्महत्या के योग प्रश्न:-
जन्म के समय के आकाशीय ग्रह योग मानव के जन्म-मृत्यु का निर्धारण करते हैं। शरीर के संवेदनशील तंत्र के ऊपर चंद्र का अधिकार होता है। चंद्र अगर शनि, मंगल, राहु-केतु, नेप्च्यून आदि ग्रहों के प्रभाव में हो तो मन व्यग्रता का अनुभव करता है। दूषित ग्रहों के प्रभाव से मन में कृतघ्नता के भाव अंकुरित होते हैं, पाप की प्रवत्ति पैदा होती है और मनुष्य अपराध, आत्महत्या, हिंसक कर्म आदि की ओर उन्मुख हो जाता है।

चंद्र की कलाओं में अस्थिरता के कारण आत्महत्या की घटनाएं अक्सर एकादशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के आस-पास होती हैं। मनुष्य के शरीर में शारीरिक और मानसिक बल कार्य करते हैं। मनोबल की कमी के कारण मनुष्य का विवेक काम करना बंद कर देता है और अवसाद में हार कर वह आत्महत्या जैसा पाप कर बैठता है।
आत्महत्या करने वालों में 60 प्रतिशत से अधिक लोग अवसाद या किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होते हैं
आत्महत्या के कारण मृत्यु योग जन्म कुंडली में निम्न स्थितियां हों तो जातक आत्महत्या की तरफ उन्मुख होता है।
1. लग्न व सप्तम स्थान में नीच ग्रह हो। अष्टमेश पाप ग्रह शनि राहु से पीड़ित हो। अष्टम स्थान के दोनों तरफ अर्थात् सप्तम व नवम् भाव में पापग्रह हों।

चंद्र पाप ग्रह से पीड़ित हो, उच्च या नीच राशिस्थ हो अथवा मंगल व केतु की युति में हो। सप्तमेश और सूर्य नीच भाव का हो तथा राहु शनि से दृष्टि संबंध रखता हो।
लग्नेश व अष्टमेश का संबंध व्ययेश से हो। मंगल व षष्ठेश की युति हो, तृतीयेश, शनि और मंगल अष्टम में हों
अष्टमेश यदि जल तत्वीय हो तो जातक पानी में डूबकर और यदि अग्नि तत्वीय हो तो जल कर आत्महत्या करता है।
कर्क राशि का मंगल अष्टम भाव में हो तो जातक पानी में डूबकर आत्महत्या करता है।

हत्या या आत्महत्या के कारण होने वाली मृत्यु के अन्य योग:
यदि मकर या कुंभ राशिस्थ चंद्र दो पापग्रहों के मध्य हो तो जातक की मृत्यु फांसी, आत्महत्या या अग्नि से होती है। चतुर्थ भाव में सूर्य एवं मंगल तथा दशम भाव में शनि हो तो जातक की मृत्यु फांसी से होती है। यदि अष्टम भाव में एक या अधिक अशुभ ग्रह हों तो जातक की मृत्यु हत्या, आत्महत्या, बीमारी या दुर्घटना के कारण होती है।

यदि अष्टम भाव में बुध और शनि स्थित हों तो जातक की मृत्यु फांसी से होती है। यदि मंगल और सूर्य राशि परिवर्तन योग में हों और अष्टमेश से केंद्र में स्थित हों तो जातक को सरकार द्वारा मृत्यु दण्ड अर्थात् फांसी मिलती है। शनि लग्न में हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तथा सूर्य, राहु और क्षीण चंद्र युत हों तो जातक की गोली या छुरे से हत्या होती है।

यदि नवांश लग्न से सप्तमेश, राहु या केतु से युत हो तथा भाव 6, 8 या 12 में स्थित हो तो जातक की मृत्यु फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेने से होती है।

यदि चंद्र से पंचम या नवम राशि पर किसी अशुभ ग्रह की दृष्टि या उससे युति हो और अष्टम भाव अर्थात 22वें द्रेष्काण में सर्प, निगड़, पाश या आयुध द्रेष्काण का उदय हो रहा हो तो जातक फांसी लगाकर आत्महत्या करने से मृत्यु को प्राप्त होता है। चैथे और दसवें या त्रिकोण भाव में अशुभ ग्रह स्थित हो या अष्टमेश लग्न में मंगल से युत हो तो जातक फांसी लगाकर आत्महत्या करता है।


दुर्घटना के कारण मृत्यु योग:-
1. जिस जातक के जन्म लग्न से चतुर्थ और दषम भाव में से किसी एक में सूर्य और दूसरे में मंगल हो उसकी मृत्यु पत्थर से चोट लगने के कारण होती है।

यदि शनि, चंद्र और मंगल क्रमशः चतुर्थ, सप्तम और दशम भाव में हो तो जातक की मृत्यु कुएं में गिरने से होती है।
सूर्य और चंद्र दोनों कन्या राशि में हों और पाप ग्रह से दृष्ट हों तो जातक की उसके घर में बंधुओं के सामने मृत्यु होती है।

यदि कोई द्विस्वभाव राशि लग्न में हो और उस में सूर्य तथा चंद्र हों तो जातक की मृत्यु जल में डूबने से होती है।

यदि चंद्र मेष या वृश्चिक राशि में दो पाप ग्रहों के मध्य स्थित हो तो जातक की मृत्यु शस्त्र या अग्नि दुर्घटना से होती है।

जिस जातक के जन्म लग्न से पंचम और नवम भावों में पाप ग्रह हों और उन दोनों पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं हो, उसकी मृत्यु बंधन से होती है।
जिस जातक के जन्मकाल में किसी पाप ग्रह से युत चंद्र कन्या राशि में स्थित हो, उसकी मृत्यु उसके घर की किसी स्त्री के कारण होती है।
जिस जातक के जन्म लग्न से चतुर्थ भाव में सूर्य या मंगल और दशम में शनि हो, उसकी मृत्यु चाकू से होती है।
यदि दशम भाव में क्षीण चंद्र, नवम में मंगल, लग्न में शनि और पंचम में सूर्य हो तो जातक की मृत्यु अग्नि, धुआं, बंधन या काष्ठादि के प्रहार के कारण होती है।
जिस जातक के जन्म लग्न से चतुर्थ भाव में मंगल, सप्तम में सूर्य और दशम में शनि स्थित हो तो उसकी मृत्यु शस्त्र या अग्नि दुर्घटना से होती है।
जिस जातक के जन्म लग्न से दशम भाव में सूर्य और चतुर्थ में मंगल स्थित हो उसकी मृत्यु सवारी से गिरने से या वाहन दुर्घटना में होती है।
यदि लग्न से सप्तम भाव में मंगल और लग्न में शनि, सूर्य एवं चंद्र हों उसकी मृत्यु मशीन आदि से होती है।
यदि मंगल, शनि और चंद्र क्रम से तुला, मेष और मकर या कुंभ में स्थित हों तो जातक की मृत्यु विष्ठा में गिरने से होती है।
मंगल और सूर्य सप्तम भाव में, शनि अष्टम में और क्षीण चंद्र में स्थित हो उसकी मृत्यु पक्षी के कारण होती है।
यदि लग्न में सूर्य, पंचम में मंगल, अष्टम में शनि और नवम में क्षीण चंद्र हो तो जातक की मृत्यु पर्वत के शिखर या दीवार से गिरने अथवा वज्रपात से होती है।
सूर्य, शनि, चंद्र और मंगल लग्न से अष्टमस्थ या त्रिकोणस्थ हों तो वज्र या शूल के कारण अथवा दीवार से टकराकर या मोटर दुर्घटना से जातक की मृत्यु होती है।
चंद्र लग्न में, गुरु द्वादश भाव में हो, कोई पाप ग्रह चतुर्थ में और सूर्य अष्टम में निर्बल हो तो जातक की मृत्यु किसी दुर्घटना से होती है।

विभिन्न दुर्घटना योग:-
1. लग्नेश और अष्टमेश दोनों अष्टम में हो। अष्टमेश पर लाभेश की दृष्टि हो (क्योंकि लाभेश षष्ठ से षष्ठम भाव का स्वामी होता है)
द्वितीयेश, चतुर्थेश और षष्ठेश का परस्पर संबंध हो। मंगल, शनि और राहु भाव 2, 4 अथवा 6 में हों। तृतीयेश क्रूर हो तो परिवार के किसी सदस्य से तथा चतुर्थेश क्रूर हो तो जनता से आघात होता है। अष्टमेश पर मंगल का प्रभाव हो, तो जातक गोली का शिकार होता है। अगर शनि की दृष्टि अष्टमेश पर हो और लग्नेश भी वहीं हो तो गाड़ी, जीप, मोटर या ट्राली से दुर्घटना हो सकती है।
यदि दशम भाव का स्वामी नवांशपति शनि से युत होकर भाव 6, 8 या 12 में स्थित हो तो जातक की मृत्यु विष भक्षण से होती है।
यदि चंद्र या गुरु जल राशि (कर्क, वृश्चिक या मीन) में अष्टम भाव में स्थित हो और साथ में राहु हो तथा उसे पाप ग्रह देखता हो तो सर्पदंश से मृत्यु होती है।
यदि लग्न में शनि, सप्तम में राहु और क्षीण चंद्र तथा कन्या में शुक्र हो तो जातक की शस्त्राघात से मृत्यु होती है।
यदि अष्टम भाव तथा अष्टमेश से सूर्य, मंगल और केतु की युति हो अथवा दोनों पर उक्त तीनों ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक की मृत्यु अग्नि दुर्घटना से होती है।
यदि शनि और चंद्र भाव 4, 6, 8 या 12 में हांे तथा अष्टमेश अष्टम भाव में दो पाप ग्रहों से घिरा हो तो जातक की मृत्यु नदी या समुद्र में डूबने से होती है।
लग्नेश, अष्टमेश और सप्तमेश यदि एक साथ बैठे हों तो जातक की मृत्यु स्त्री के साथ होती है।
यदि कर्क या सिंह राशिस्थ चंद सप्तम या अष्टम भाव में हो और राहु से युत हो तो मृत्यु पशु के आक्रमण के कारण होती है।
दशम भाव में सूर्य और चतुर्थ में मंगल स्थित हो तो वाहन के टकराने से मृत्यु होती है। अष्टमेश एवं द्वादशेश में भाव परिवर्तन हो तथा इन पर मंगल की दृष्टि हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है। षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश भाव में चंद्र, शनि एवं राहु हों तो जातक की मृत्यु अस्वाभाविक तरीके से होती है।

लग्नेश एवं अष्टमेश बलहीन हों तथा मंगल षष्ठेश के साथ हो तो जातक की मृत्यु कष्टदायक होती है।
चंद्र, मंगल एवं शनि अष्टमस्थ हों तो मृत्यु शस्त्र से होती है। षष्ठ भाव में लग्नेश एवं अष्टमेश हों तथा षष्ठेश मंगल से दृष्ट हो तो जातक की मृत्यु शत्रु द्वारा या शस्त्राघात से होती है।

लग्नेश और अष्टमेश अष्टम भाव में हों तथा पाप ग्रहों से युत दृष्ट हों तो जातक की मृत्यु प्रायः दुर्घटना के कारण होती है।

चतुर्थेश, षष्ठेश एवं अष्टमेश में संबंध हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है। अष्टमस्थ केतु 25 वें वर्ष में भयंकर कष्ट अर्थात् मृत्युतुल्य कष्ट देता है।

यदि अष्टम भाव में चंद्र, मंगल, और शनि हों तो जातक की मृत्यु हथियार से होती है।
यदि द्वादश भाव में मंगल और अष्टम भाव में शनि हो तो भी जातक की मृत्यु हथियार द्वारा होती है।

यदि षष्ठ भाव में मंगल हो तो भी जातक की मृत्यु हथियार से होती है। यदि राहु चतुर्थेश के साथ षष्ठ भाव में हो तो मृत्यु डकैती या चोरी के समय उग्र आवेग के कारण होती है।
यदि चंद्र मेष या वृश्चिक राशि में पापकर्तरी योग में हो तो जातक जलने से या हथियार के प्रहार से मृत्यु को प्राप्त होता है।
यदि अष्टम भाव में चंद्र, दशम में मंगल, चतुर्थ में शनि और लग्न में सूर्य हो तो मृत्यु कुंद वस्तु से होती है।

यदि सप्तम भाव में मंगल और लग्न में चंद्र तथा शनि हों तो मृत्यु संताप के । विचार गोष्ठी कारण होती है।

यदि लग्नेश और अष्टमेश कमजोर हों और मंगल षष्ठेश से युत हो तो मृत्यु युद्ध में होती है।

यदि नवांश लग्न से सप्तमेश, शनि से युत हो या भाव 6, 8 या 12 में हो तो मृत्यु जहर खाने से होती है।

यदि चंद्र और शनि अष्टम भाव में हो और मंगल चतुर्थ में हो या सूर्य सप्तम में अथवा चंद और बुध षष्ठ भाव में हो तो जातक की मृत्यु जहर खाने से होती है।
यदि शुक्र मेष राशि में, सूर्य लग्न में और चंद्र सप्तम भाव में अशुभ ग्रह से युत हो तो स्त्री के कारण मृत्यु होती है।
यदि लग्न स्थित मीन राशि में सूर्य, चंद्र और अशुभ ग्रह हों तथा, अष्टम भाव में भी अशुभ ग्रह हों तो दुष्ट स्त्री के कारण मृत्यु होती है।

बीमारी के कारण मृत्यु योग:-

1. जिस जातक के जन्मकाल में शनि कर्क में एवं चंद्र मकर में बैठा हो अर्थात् देानों ही ग्रहों में राशि परिवर्तन हो, उसकी मृत्यु जलोदर रोग से या जल में डूबने से होती है।
यदि कन्या राशि में चंद्र दो पाप ग्रहों के मध्य स्थित हो तो जातक की मृत्यु रक्त विकार या क्षय रोग से होती है!

यदि शनि द्वितीय भाव में और मंगल दशम में हों तो मृत्यु शरीर में कीड़े पड़ने से होती है।

जिस जातक के जन्मकाल में क्षीण चंद्र बलवान मंगल से दृष्ट हो और शनि लग्न से अष्टम भाव में स्थित हो तो उसकी मृत्यु गुप्त रोग या शरीर में कीड़े पड़ने से या शस्त्र से या अग्नि से होती है।

अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो मृत्यु अत्यंत कष्टकारी होती है। इसी भाव में शुभ ग्रह स्थित हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो गुप्त रोग या नेत्ररोग की पीड़ा से मृत्यु होती है। क्षीण चंद्र अष्टमस्थ हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो इस स्थिति में भी उक्त रोगों से मृत्यु होती है।
यदि अष्टम भाव में शनि एवं राहु हो तो मृत्यु पुराने रोग के कारण होती है। यदि अष्टम भाव में चंद्र हो और साथ में मंगल, शनि या राहु हो तो जातक की मृत्यु मिरगी से होती है।
यदि अष्टम भाव में मंगल हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो मृत्यु सर्जरी या गुप्त रोग अथवा आंख की बीमारी के कारण होती है।
यदि बुध और शुक्र अष्टम भाव में हो तो जातक की मृत्यु नींद में होती है।
यदि मंगल लग्नेश हो (यदि मंगल नवांशेश हो) और लग्न में सूर्य और राहु तथा सिंह राशि में बुध और क्षीण चंद्र स्थित हों तो जातक की मृत्यु पेट के आपरेशन के कारण होती है।
जब लग्नेश या सप्तमेश, द्वितीयेश और चतुर्थेश से युत हो तो अपच के कारण मृत्यु होती है। यदि बुध सिंह राशि में अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो जातक की मृत्यु बुखार से होती है। यदि अष्टमस्थ शुक्र अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो मृत्यु गठिया या मधुमेह के कारण होती है।
यदि बृहस्पति अष्टम भाव में जलीय राशि में हो तो मृत्यु फेफड़े की बीमारी के कारण होती है।
यदि राहु अष्टम भाव में अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो मृत्यु चेचक, घाव, सांप के काटने, गिरने या पित्त दोष से मृत्यु होती है।
यदि मंगल षष्ठ भाव में सूर्य से दृष्ट हो तो मृत्यु हैजे से होती है। यदि मंगल और शनि अष्टम भाव में स्थित हों तो धमनी में खराबी के कारण मृत्यु होती है। नवम भाव में बुध और शुक्र हों तो हृदय रोग से मृत्यु होती है। यदि चंद्र कन्या राशि में अशुभ ग्रहों के घेरे में हो तो मृत्यु रक्त की कमी के कारण होती है।



सामान्यतः आयु में कमी करके मृत्यु का योग ‘मारक’ ग्रह देते हैं। इस तरह से शब्ध “मारक’” या “मारकेश” का अर्थ होता है मारने वाला या मृत्यु देने वाले ग्रह। जो आयु में कमी कर मृत्यु देता है। सामान्यतः मारकेश ग्रह वह होता है जो लग्नेश से शत्रुता रखता है। मंगल व बुध एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। सूर्य व शनि एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। शनि व चंद्र एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। शुक्र व मंगल एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। गुरु व बुध एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। राहू व केतू छाया गृह सूर्य, चंद्र, मंगल व बृहस्पति के लिए मारकेश हैं।


 सामान्‍य तौर पर किसी जातक की मृत्‍यु का समय देखने के लिए मारक ग्रहों और बाधकस्‍थानाधिपति की स्थिति की गणना की जाती है। लग्‍न कुण्‍डली में आठवां भाव आयु स्‍थान कहा गया है और आठवें से आठवां यानी तीसरा स्‍थान आयु की अवधि के लिए माना गया है। किसी भी भाव से बारहवां स्‍थान उस भाव का क्षरण करता है। ऐसे में आठवें का बारहवां यानी सातवां तथा तीसरे का बारहवां यानी दूसरा भाव जातक कुण्‍डली में मारक बताए गए हैं। इन भावों में स्थित राशियों के अधिपति की दशा, अंतरदशा, सूक्ष्‍म आदि जातक के जीवन के लिए कठिन साबित होते हैं।

इसी प्रकार बाधकस्‍थानाधिपति की गणना की जाती है। चर लग्‍नों यानी मेष, कर्क, तुला और मकर राशि के लिए ग्‍यारहवें भाव का अधिपति बाधकस्‍थानाधिपति होता है। द्विस्‍वभाव लग्‍नों यानी मिथुन, कन्‍या, धनु और मीन के लिए सातवां घर बाधक होता है। स्थिर लग्‍नों यानी वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए नौंवा स्‍थान बाधक होता है। मारक भाव के अधिपति और बाधक स्‍थान के अधिपति की दशा में जातक को शारीरिक नुकसान होता है। अब मृत्यु का समय ज्ञात करने के लिए इन दोनों स्‍थानों की तीव्रता को देखना होता है। सामान्‍य परिस्थितियों में इन स्‍थानों पर गौर करने पर जातक के शरीर पर आए नुकसान की गणना की जा सकती है।
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किसी भी जातक की आयु 1-3-8 भावों से देखे—
1- जातक स्वंय
8- आयु/मृत्यु
3- 8 आंठवें से आंठवां
शनी कारक आयु का
चर राशि मेष-कर्क-तुला-मकर है।
चर राशियां चलायमान रहती है।
इनके बाधक भाव 11 है।
इनके मारक भाव 2-7 है।
इनके नेगेटिव भाव 6-8-12 है।
इनके पाज़िटिव भाव 1-5-9-10-3 है।
स्थिर राशि वृष-सिंह-वृश्चिक-कुंभ है।
ये स्थिर/अडिग रहने वाली राशियां होती है। जैसे बैल, शेर, बिच्छू एक जगह पर टिक कर रहते है। सामना करने की हिम्मत रखते है भागते नहीं।
इनके बाधक भाव 9 है।
इनके मारक भाव 2-7 है।
इनके नेगेटिव भाव 6-8-12 है।
इनके पाज़िटिव भाव 1-5-10-11-3 है।
द्विस्वभाव राशि मिथुन-कन्या-धनु-मीन—
इनका दोहरा स्वभाव होता है। कहते कुछ करते कुछ। डरपोक भी होते है।
इनके बाधक भाव 7 है।
इनके मारक भाव 2-7 है।
इनके नेगेटिव भाव 6-8-12 है।
इनके पाज़िटिव भाव 1-5-9-10-11-3 है।
ये तीन सेहत (1) के लिए घातक होते है।
6- बीमारी
8- खतरा
12- नुक्सान
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विशेष: —-
1. जन्मांग से अष्टम में जो दोष या रोग वर्णित हैं उनसे, अष्टम भाव से अष्टम अर्थात् तृतीय भाव व तृतीयेश सभी आ जाते हैं।
2. अष्टमेश जिस नवांश में बैठा हो उस नवांश राशि से संबंधित दोष से भी मृत्यु का कारण बनता है। अष्टम भावस्थ राशियों के अधो अंकित दोष के कारण जातक मृत्यु का वरण करता है।
1. मेष : पित्त प्रकोप, ज्वर, उष्णता, लू लगना जठराग्नि संबंधी रोग।
2. वृष: त्रिदोष, फेफड़े में कफ रुकने/सड़ने से उत्पन्न विकार, दुष्टों से लड़ाई या चैपायों की सींग से घायल होकर मृत्यु संभव है।
3. मिथुन: प्रमेह, गुर्दा रोग, दमा, पित्ताशय के रोग, आपसी वैमनस्य/शत्रुओं से जीवन बचाना मुमकिन नहीं।
4. कर्क: जल में डूबने, उन्माद, पागलपन, वात जनित रोगं
5. सिंह: जंगली जानवरो, शत्रुओं के हमले, फोड़ा, ज्वर, सर्पदंश।
6. कन्या: सुजाक रोग, एड्स, गुप्त रोग, मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, स्त्री की हत्या, बिषपान।
7. तुला: उपवास, क्रोध अधिक करने, युद्ध भूमि में, मस्तिष्क ज्वर, सन्निपात।
8. वृश्चिक: प्लीहा, संग्रहणी, लीवर रोग, बवासीर, चर्म रोग, रुधिर विकार, विषपान से या विष के गलत प्रयोग से मृत्यु संभव है।
9. धनु: हृदय रोग, गुदा रोग, जलाघात, ऊंचाई से गिरना, शस्त्राघात से।
10. मकर: ऐपेन्डिसाइटिस, अल्सर, नर्वस सिस्टम के फेल हो जाने के कारण गंभीर स्थिति, विषैला फोड़ा।
11. कुंभ: कफ, ज्वर, घाव के सड़ने, कैंसर, वायु विकार, अग्नि सदृश या उससे संबंधित कारण से मृत्यु।
12. मीन: पानी में डूबने, वृद्धावस्था में अतिसार, पित्त ज्वर, रक्त संबंधित बीमारियों से मृत्यु संभावी है।
वैदिक ज्योतिष में जीवन अवधि के कठिन विषय पर व्यापक चिंतन किया गया है।
बृहत पाराशर होरा शस्त्र में महर्षि पराशर कहते हैं “बालारिष्ट योगारिष्टमल्पध्यंच दिर्घकम। दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायुः प्रकीतितम”॥
अर्थात आयु का सटीक ज्ञान तो देवों के लिए भी दुर्लभ है फिर भी बालारिष्ट, योगारिष्ट, अल्प, मध्य, दीर्घ, दिव्य व अस्मित ये सात प्रकार की आयु होती हैं। इसके अलावा लग्नेश, राशीश, अष्टमेश व चंद्र नीच, शत्रु राशि के हों व 6, 8, 12 भाव आदि में चले जाएं। चंद्र नीच के अलावा अमावस्या युक्त हो तथा इन पर राहु, केतु का प्रभाव हो तो भी मारक योग बन जाता है, जो कि मृत्यु का कारण बनते हैं।
– बालारिष्ट योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 8 वर्ष तक की हो सकती है।
– योगारिष्ट योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 20 वर्ष तक की हो सकती है।
– अल्पायु योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 32 वर्ष तक की हो सकती है।
– मध्यमायु योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 64 वर्ष तक की हो सकती है।
– दीर्घायु योग में व्यक्ति की आयु अधिकतम 120 वर्ष तक की हो सकती है।
– दिव्य योग में व्यक्ति की आयु अधिकतम 1000 वर्ष तक की हो सकती है।
– अस्मित योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु की कोई सीमा नहीं होती है।
प्रिय पाठकों/मित्रों, किणरी यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक हैं की वर्तमान समय में  सामान्‍य डिलीवरी हो तो बच्‍चे के जन्‍म की चार सामान्‍य अवस्‍थाएं हो सकती हैं। पहली कि बच्‍चा गर्भ से बाहर आए, दूसरी बच्‍चा सांस लेना शुरू करे, तीसरी बच्‍चा रोए और चौथी जब नवजात के गर्भनाल को माता से अलग किया जाए। इन चार अवस्‍थाओं में भी सामान्‍य तौर पर पांच से दस मिनट का अंतर आ जाता है। अगर कुछ जटिलताएं हों तो इस समय की अवधि कहीं अधिक बढ़ जाती है।
वहीँ दूसरी ओर सिजेरियन डिलीवरी होने की सूरत में भी माता के गर्भ से बाहर आने और गर्भनाल के काटे जाने, पहली सांस लेने और रोने के समय में अंतर तो रहेगा ही, यहां बस संतान के बाहर आने की विधि में ही फर्क आएगा। जहां ज्‍योतिष में चार मिनट की अवधि से पैदा हुए जुड़वां बच्‍चों के सटीक भविष्‍य कथन का आग्रह रहता है, वहां जन्‍म समय का यह अंतर कुण्‍डली को पूरी तरह बदल भी सकता है। कई बार संधि लग्‍नों की स्थिति में कुण्‍डलियां गलत भी बन जाती है। ऐसे में जन्‍म समय को लेकर हमेशा ही शंका बनी रहती है। मेरे पास आई हर कुण्‍डली का मैं अपने स्‍तर पर बर्थ टाइम रेक्‍टीफिकेशन करने का प्रयास करता हूं। अगर छोटा मोटा अंतर हो तो तुरंत पकड़ में आ जाता है। वरना केवल लग्‍न के आधार पर फौरी विश्‍लेषण ही जातक को मिल पाता है। फलादेश में समय की सर्वांग शुद्धि का आग्रह नहीं किया जा सकता।
हिंदुओं कि मान्यता के अनुसार बालक की आयु का निर्धारण माता के गर्भ में ही हो जाता है। यह बड़े गौरव कि बात है कि ज्योतिष शास्त्र में आयु निर्धारण विषय पर व्यापक चिंतन किया गया है। यह एक कठिन विषय है। ज्योतिष शास्त्र में अविरल शोध, अध्ययन व अनुसंधान कार्य में जी जान से जुड़े हजारों, लाखों ज्योतिषी इस दिव्य विज्ञान के आलोक से जगत को आलौकिक कर पाएं है। महर्षि पराशर के अनुसार ‘बालारिष्ट योगारिष्टमल्पध्यंच दिर्घकम। दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायुः प्रकीतितम’।। हे विप्र आयुर्दाय का वस्तुतः ज्ञान होना तो देवों के लिए भी दुर्लभ है फिर भी बालारिष्ट, योगारिष्ट, अल्प, मध्य, दीर्घ, दिव्य और अस्मित ये सात प्रकार की आयु होती हैं।
अगर जातक अपने प्रारब्‍ध का हिस्‍सा पूरा नहीं कर पाता है और क्रियमाण कर्मों के चलते अपना शरीर शीघ्र छोड़ देता है तो उसे मानव जीवन के इतर योनियों में उस समय को पूरा करते हुए अपने हिस्‍से का प्रारब्‍ध जीना होता है। जब तक हमारे सामनेचिकित्‍सकीय कोण से जीवित शरीर दिखाई देता है, हम यह मानकर चलते हैं कि जातक जीवित है, लेकिन ज्‍योतिषीय कोण यहीं पर समाप्‍त नहीं हो जाता है। ऐसे में ज्‍योतिषीय योग यह तो बताते हैं कि जातक के साथ चोट कब होगी अथवा मृत्‍यु तुल्‍य कष्‍ट कब होगा, लेकिन स्‍पष्‍ट तौर पर मृत्‍यु की तारीख तय करना गणित की दृष्टि से दुष्‍कर कार्य है।
सटीक परिणाम प्रापित के लिए लग्न व चन्द्रकुंडली तथा लग्न व होरा कुंडली में तुलना करनी चाहिए।
यदि अश्टम भाव में चर राषि हो तो जातक की मृत्यु चलते-फिरते होती है। यदि सिथर राषि में हो तों जातक पंलग या अस्पताल में हफतोंमहीनों पड़ा रहने के बाद मरता है। द्विस्वभाव राषि में मृत्यु से दो एक दिन पूर्व या कुछ ही घटें पूर्व पंलग पर लेटता है। यदि अश्टमेष भी चर, सिथर या द्विस्वभाव राषि में हो तो फल षत-प्रतिषत निषिचत हो जाता है। ( अश्टमेष व अश्टम दानों चर राषि में हो तो डाक्टर तक पहुंचन की नौबत तक नही आती। जातक कामबात करते-करते तुंरत मर जाता है।) इसी प्रकार छठे भाव में चर राषि हो तो रोग आते जाते रहते है। (जातक कम बिमार पड़ता है परन्तु षीघ्र ठीक हो जाता है।) सिथर राषि हो तो रोग आने के बाद जाता नही (गुरू की दृशिट न हो तो आजीवन रहता है), द्विस्वभाव राषि में कश्टयाध्य या कठिनार्इ से ठीक होता है।
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ये बनते हैं मृत्यु का कारण:–
अन्य ज्योतिषीय योग —
 यदि अष्टम भाव में कोई ग्रह नही है, उस दशा में जिस बली ग्रह द्वारा अष्टम भाव दृष्ट होता है, उस ग्रह के धातु (कफ, पित्त, वायु) के प्रकोप से जातक का मरण होता है। ऐसा प्राचीन ज्योतिष शास्त्र के पुरोधा का मत है।
यथा—- सूर्य का पित्त से, चंद्रमा का वात से, मंगल का पित्त से, बुध का फल-वायु से, गुरु का कफ से, शुक्र का कफ-वात से तथा शनि का वात से।
— अष्टम स्थान की राशि कालपुरुष के जिस अंग में रहना शास्त्रोक्त है, इस अंग में ही उस धातु के प्रकोप से मृत्यु होती है।
—-यदि अष्टम भाव पर कई एक बली ग्रहों की दृष्टि हो तो उन सभी ग्रहों के धातु दोष से जातक का मरण होता है। —- मृत्यु के कारणों का विवेचन करते समय यदि अष्टम भावस्थ ग्रह/ग्रहों की प्रकृति व प्रभाव तथा उसमें स्थित राशि, प्रकृति व राशियों के प्रभाव को संज्ञान में लेना परमावश्यक है।
—- सूर्य: सूर्य से अग्नि, उष्ण ज्वर, पित्त विकार, शस्त्राघात, मस्तिष्क की दुर्बलता, मेरूदंड व हृदय रोग।
—चंद्रमा: जलोदर, हैजा, मुख के रोग, प्यरिसी, यक्ष्मा, पागलपन, जल के जानवर, शराब के दुष्प्रभाव।
— मंगल: अग्नि प्रकोप, विद्युत करेंट, अग्नेय अस्त्र, मंगल आघात पहुंचाता है। रक्त विकार, हड्डी के टूटने, एक्सीडेंट, रक्त, हड्डी में मज्जा की कमी। क्षरण, कुष्ठ रोग, कैंसर रोग।
— बुध: पीलिया, ऐनीमिया, स्नायु रोग, रक्त में हिमोग्लोबिन की कमी, प्लेटलेट्स कम होना, आंख, नाक, गला संबंधी रोग, यकृत की खराबी, स्नायु विकार, मानसिक रोग ।
— गुरु: पाचन क्रिया में गड़बड़ी, कफ जनित रोग, टाइफाईड, मूर्छा, अदालती कार्यवाई, दैवी प्रकोप, वायु रोग मानसिक रोग।
— शुक्र: मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, गुर्दा रोग, रक्त/वीर्य/ रज दोष, गला, फेफड़ा, मादक पदार्थों के सेवन का कुफल प्रोस्ट्रेट ग्लैंड, सूखा रोग।
— शनि: लकवा, सन्निपात, पिशाच पीड़ा, हृदय तनाव, दीर्घ कालीन रोग, कैंसर, पक्षाघात, दुर्घटना, दांत, कान, हड्डी टूटना, वात, दमा।
— राहु: कैंसर, चर्म रोग, मानसिक विकार, आत्म हत्या की प्रवृत्ति, विषाक्त भोजन करने से उत्पन्न रोग, सर्प दंश, कुष्ठ रोग विषैले जंतुओं के काटने, सेप्टिक, हृदय रोग, दीर्घकालिक रोग |
— केतु: अपूर्व कल्पित दुर्घटना, दुर्भरण, हत्या, शस्त्राघात, सेप्टिक, भोजनादि में विषाक्त पदार्थ या कीटाणुओं का प्रवेश, जहरीली शराब पीने का कुफल, रक्त, चर्म, वात रोग चेहरे पर दाग, एग्जिमा।
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इसी प्रकार ऋषि जैमिनी लिखित शास्त्र “जैमिनी होरा” अनुसार तीन जोड़ों के आधार पर जीवन अवधि का निर्णय लिया जाता है।
1. लग्नेश – अष्टमेश: अगर दोनों चर राशि में हो या एक स्थिर राशि में व दूसरा द्वि-स्वभाव राशि में हो तो अधिकतम 120 वर्ष की तक की दीर्घायु हो सकती है।
2. लग्न – होरा लग्न: अगर एक चर व दूसरा स्थिर में अथवा दोनों द्वि-स्वभाव राशि में हो तो अधिकतम 80 वर्ष की तक की मध्यमायु हो सकती है।
3. शनि – चंद्र: एक चर और दूसरा द्विस्वभाव राशि में हो अथवा दोनों स्थिर राशि में हो तो अधिकतम 40 वर्ष की तक की अल्पायु हो सकती है।
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मारक दशा मोक्ष दशा नहीं है
मारक दशा देह मुक्ति करा सकती है परंतु जीव मुक्ति नहीं हो सकती। यह भी संभव है कि प्रदत्त आयु 80 वर्ष में से देह मुक्ति 60 वर्षो में ही हो गई हो और शेष अभुक्त 20 वर्ष वह 2 या 3 जन्मों में पूरा करें। यह भी संभव है कि वह शेष 20 वर्ष प्रेत योनि में ही बिता दे।
देह मुक्ति और जीव मुक्ति मोक्ष नहीं है —
वर्तमान जीवन में देह मुक्ति और जीव मुक्ति होने के बाद स्वर्ग या मोक्ष मिल जाए ऎसी कोई गांरटी नहीं है। एक देह का जन्म कर्मो के एक निश्चित भाग को भोगने के लिए होता है। कर्मो का इतना ही भाग एक देह को मिलता है जितना कि वह भोग सके। संभवत: ईश्वर नहीं चाहते थे कि जीव को लाखों वर्ष की आयु प्रदान की जाए। तर्क के आधार पर माना जा सकता है कि यदि मनुष्य को 500 वर्ष की आयु यदि दे दी जाती तो वह 450 वर्ष तो अपने आप को ईश्वर मानता रहता और शेष 50 वष्ाü अपने पापों को धोकर या गलाकर स्वर्ग प्राçप्त की कामना करता। मनुष्य धन या देह के अहंकार में सबसे पहली चुनौती ईश्वर को ही देता है और धनी होने पर उसके मंदिर जाने या पूजा-पाठ के समय में ही कटौती करता है। उसके इस कृत्य पर ईश्वर तो मुस्कुराता रहता है और अन्य समस्त प्राणी उससे ईष्र्या करते रहते हैं और उसके पतन की कामना करते रहते हैं।
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यंहा मृत्यु के सम्बन्ध में आयु निर्णय के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख फलित सूत्र दे रहे है)-
• लग्नेष व अश्टमेष का म्ग्ब्भ्।छळम् हो, दोनों पर पापग्रहों का प्रभाव हो तथा चन्द्र, सूर्य व षनि छठे भाव में हो तो जातक का अतिषीघ्र मरण होता है।
• वृषिचक लग्न में सूर्य लग्नस्थ हो, गुरू विभाजित हो, अश्टमेष केन्द्र में हो और चन्द्र व राहू 7 या 8 भाव में हो तो जातक अल्पायु होता है।
• अश्टमेष मंगल के साथ लग्नस्थ हा अथवा अश्टमेष सिथर राषि के साथ लग्नआठवेंबारहवें भाव में हो तो जातक की मृत्यु युवावस्था में ही हो जाती है।
• अश्टमेष नीच राषि में हो, पापग्रह अश्टमस्थ हो, लग्नेष निर्बल हो तो भी अल्पायु योग बनता है।
• बुध या गुरू लग्नेष हो, लग्न में षनि हो तथा द्वादषेष तथा अश्टमेष निर्बल हो तो जातक अल्पायु होता है। ( बुध या गुरू लग्नेष का अर्थ है लग्न-मिथुन, कन्या, धनु, या मीन का हो तो)।
• अश्टमेष अश्टम भाव तथा लग्नेष तीनों ही पापाक्रांत हों तथा 12 वां भाव भी पापग्रह से युक्त हो तो जातक की मृत्यु जन्म के उपरांत ही हो जाती है।
• अश्टमेष अश्टम भाव मेंस्वग्रही हो, चन्द्रमा पापग्रह से युत और षुभ दृशिट से हीन हो तो जातक की आयु एक महीना ही होती है।
• राहू या केतु के साथ सूर्य सातवें, षुक्र आठवें व पापग्रह लग्न में हो तो जातक की मृत्यु जेल में होती है।
• सिंह राषि का षनि पंचमस्थ हो, मंगल अश्टमस्थ हो और चन्द्रमा नवमस्थ हो तो जातक की मृत्यु बिजली के झटके से या मकान के मलबे के नीचे दबकर अथवा पेड़ से गिरकरऊंचार्इ से गिरकर होती है।
• सूर्य व चन्द्र कन्या राषि में अश्टमस्थ हों तो जातक की मृत्यु विश के कारण होती है।
• सूर्य व मंगल चतुर्थस्थ, षनि दषमस्थ तथा अश्टम भाव पापाक्रांत हो तो जातक की मौत फांसी से होती है।
• राहू दृश्ट चन्द्र व मंगल अश्टमस्थ हों तो बाल्यावस्था में ही जातक को माता सहित मर जाना पड़ता है।
• अश्टमस्थ षनि यदि क्षीण चन्द्र व उच्च के मंगल से दृश्ट हो तो भंगदर, पथरी या कैंसर जैसे रोग तथा आपरेषन के कारण जातक की मृत्यु होती है।
• षनि व चन्द्र छठे या 8वें भाव में पाप मध्य होंपाप दृश्ट हों तथा अश्टमेष स्वग्रही होकर पापमध्य या पाप दृश्ट हो तो जातक की मृत्यु समुह में होती है।
• लग्नेष व अश्टमेष पापग्रह से युत या दृश्ट होकर 6ठें भाव में हो तो जातक की मौत लड़ार्इ-झगड़े में होती है।
• मंगल व षनि छठे भाव में हो और लग्नेष सूर्य व राहू से दृश्ट होकर 8वें भाव में हो तो क्षय रोग से मृत्यु होती है।
• मंगल व चन्द्र 6ठें व 8वें भाव में हो तो जातक षस्त्र, रोग, अगिन, कंरट या गोली से मरता है।
• षनि व चन्द्रमा 6ठें व 8वें भाव में होतो जातक वायुविकार या पत्थर की चोट से मरता है।
• सिंह लग्न में निबल चन्द्र अश्टमस्थ हो तथा षनि की युति हो तो प्रेत-बाधा, षत्रुकृत अभिचार से पीड़ा तथा अकाल मृत्यु का परिणाम जातक भोगता है।
• सिंह लग्न हो, सूर्य व षनि का म्ग्ब्भ्।छळम् हो, षुभग्रहों की दृशिट न हो तो 12 वर्श की आयु में मृत्यु होती है।
• लग्न में सिंह राषि का सूर्य हो, पापग्रहों के मध्य सूर्य हो (12वें व दूसरे भाव में पापग्रह हों) तथा लग्न में षत्रु ग्रह (राहू, षनि, षुक्र) की युति हो तो जातक अस्त्र-षस्त्र या विस्फोटक सामग्री से प्राय: 47 वर्श में मरता है।
• लग्नेष सूर्य तथा लग्न पापग्रहों के बीच हों 7वें भाव में कुम्भ राषि का षनि हो और चन्द्र निर्बल हो तो जातक आत्महत्या करता है।
• भाग्य स्थान में मेश का गुरू तथा अश्टम भाव में मीन का मंगल हो यानी म्ग्ब्भ्।छळम् हो तो भी जातक की मृत्यु 12 वर्श की अवस्था में ही होती है।
• द्वितिय व द्वादष भाव पापग्रहो से युत हो, सूर्य लग्नेष होकर निर्बल हो 1, 2 व 12 भाव षुभ ग्रहों से दृश्ट न हों तो जातक 32वें वर्श में मर जाता है।
• दुसरे भाव में कन्या राषि का राहू हो तथा षुक्र व सूर्य से युति करे, किन्तु षुभ ग्रहों से दृश्ट न हो तो जातक युवा होतर पिता को मारे, व खुद मरे।
• चन्द्रमा 5,7,9,8 तथा लग्न में पापग्रह से युत हो तो ‘बालारिश्ट रोग’ बनाता है। जिसमें जातक की मृत्यु बाल्यकाल में ही हो जाती है। (यदि किसी अन्य योग से उसका निराकरण न हो रहा हो तो)
• लग्नेष केन्द्र में दो पापग्रहों के साथ हो तथा अश्टम भाव खाली न हो तो âदय गति रूकने से मौत हो जाती है।
• कर्क लग्न में निर्बल चन्द्र अश्टमस्थ होकर षनि से युत करे तो प्रेतबाधा या षत्रुओं से पीडि़त होकर जातक अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है।
• लग्नेष व चन्द्र लग्न दोनों पाप प्रभावपाप मध्य में हो, सप्तम में भी पापग्रह हों और सूर्य निर्बल हो तो जातक जीवन से निराष होकर आत्महत्या करता है।
• तुला का सूर्य चौथे, कुम्भ का गुरू आठवें, मिथुन का चन्द्र 12वें हो तथा चन्द्र पर षुभ दृशिट न हो तो जातक जन्म लेते ही मर जाता है।
• द्वितिय द्वादष भाव में पापग्रह हों (लग्न पापमध्य हो), चन्द्रमा लग्नेष होकर निर्बल हो तथा 1, 2, 12 भावों पर षुभ दृशिट न हों तो भी 32 वें वर्श में मृत्यु होती है।
• कर्क लग्न हों तथा दु:स्थानों में चन्द्र, षनि षुक्र की युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• सूर्य पांचवे भाव में वृषिचक राषि का हो तथा दो पाप ग्रहों के मध्य हो और चन्द्र निर्बल हो तो हार्ट अटैक के कारण जातक की मृत्यु होती है।
• चन्द्र, मंगल षनि तीनों दु:स्थानो में एकसाथ हो और लग्न मेश में हो तो वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• वृश लग्न में सूर्य, गुरू, षुक्र की युति एकसाथ दु:स्थानो में हो तो भी वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• कन्या लग्न हों, चन्द्र अश्टमस्थ हो तथा बुध, सूर्य, मंगल आदि किसी भी भाव में इकÎे हो जाएं तो जातक की मृृत्यु ब्लडप्रेषर से होती है।
• कन्या लग्न में बुध, गुरू व मंगल की युति एकसाथ दु:स्थानो में हो तो भी वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• धनु लग्न हो चन्द्र सप्तमस्थ मंगल, राहू के साथ और षुभ ग्रहदृशिट न हो तो जातक जन्मते ही मर जाता है।
• गुरू लग्नेष होकर वृषिचक राषि में हो और मंगल धनु राषि में हो तो जातक की मृत्यु 12 वर्श में होती है।
• वृषिचक राषि में चन्द्र, षुक्र की युति दु:स्थानों में हो और लग्न हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है।
• लग्नेष व चतुर्थेष होकर गुरू मकर राषि में हो तथा निर्बल या अस्त हो तो हार्ट अटैक से मृत्यु होती है। या सूर्य वृषिचक का दो पाप ग्रहों के मध्य 12 वें भाव में हो तो हार्ट अटैक के कारण जातक की मृत्यु होती है।
• मीन लग्न में अश्टमस्थ षनि के साथ निर्बल चन्द्र हो तो प्रेतबाधा सेअकाल मृत्यु होती है।
• लग्नेष गुरू व लग्न दोनों पाप ग्रहों के बीच हो, 7वे भाव मेंं कन्या राषि में भी पापग्रह हो और सूर्य निर्बल हो तो जातक आत्महत्या का विवष होता है।
• 7 वें भाव में कन्या राषि का चन्द्र मंगल व राहु से युति करता हो और षुभ ग्रह की दृशिट न हो तो जातक की मृत्यु एक वर्श में होती है।
• 7वें भाव में कन्या राषि का षनि हो तथा 12वें भाव में मेश राषि का षुक्र व राहु लग्नेष के साथ हो तो भी जातक की मृत्यु एक वर्श में हो जाती है।
• मीन लग्न में बुध, गुरू, षुक्र की युति एकसाथ दु:स्थानो में हो तो भी वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• तुला लग्न में निर्बल चन्द्र 8वें भाव में षनि के साथ हो तो षत्रु के अभिचार या प्रेतबाधा के कारण जातक की मृत्यु होती है। अथवा षुक्र व लग्न दोनों पापग्रहों के साथ व षनि 7वें हो तो षत्रु के अभिचार या देवषाप से मृत्यु होती है।
• तुला लग्न में गुरू, षुक्र व षनि की दु:स्थानों में युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• मकर लग्न में लग्नेष व लग्न पापग्रहों के मध्य हों, सप्तम भाव में भी पाप ग्रह हो तो जातक जीवन से निराष होकर आत्महत्या करता है।
• मकर लग्नस्थ सूर्य, मंगल, गुरू, राहू व चन्द्र एकसाथ हों तो भी षीघ्र मृत्यु होती है।
• चतुर्थेष मंगल 12वें हो, सप्तम भाव में कर्क का षनि हो, सप्तेष चन्द्र अश्टमस्थ हो तो 14वें वर्श में विमान दुर्घटना में मृत्यु सम्भावित होती है।
• मकर लग्न हा सूर्य, मंगल, व षनि दु:स्थानों में एकसाथ युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• कुंभ लग्न में लग्नेष व लग्न दोनों पापग्रहों के बीच हों, सूर्य निर्बल व सप्तम भाव में भी पापग्रह हो तो जातक आत्महत्या करता है।
• कुंभ लग्न में बुध, षुक्र, षनि की युति दु:स्थानों में एकसाथ हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• निर्बल चन्द्र षनि के साथ मेश राषि में अश्टमस्थ हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है।
• बुंध व लग्न पापग्रहों के बीच तथा सातवें भाव में मीन राषि में पापग्रह और सूर्य निर्बल हो तो जातक आत्महत्या करता है।
• सूर्य, मंगल, षनि अश्टम भाव में मेश राषि में हो, षुभ ग्रहों से दृश्ट न हों तो जातक की एक वर्श में मृत्यु हो जाती है।
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उपाय
1. आकस्मिक मृत्यु के बचाव के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।
जप रुद्राक्ष माला से पूर्वी मुख होकर करें।
 2. वाहन चलाते समय मादक वस्तुओं का सेवन न करें तथा अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन न करें अन्यथा पिशाची बाधा हावी होगी वैदिक गायत्री मंत्र कैसेट चालू रखें।
3. गोचर कनिष्ठ ग्रहों की दशा में वाहन तेजी से न चलायें।
4. मंगल का वाहन दुर्घटना यंत्र वाहन में लगायें, उसकी विधिवत पूजा करें।
5. नवग्रह यंत्र का विधिविधान पूर्वक प्रतिष्ठा कर देव स्थान में पूजा करें।
6. सूर्य कलाक्षीण हो तो आदित्य हृदय स्तोत्र, चन्द्र की कला क्षीण हो तो चन्द्रशेखर स्तोत्र, मंगल की कला क्षीण हो तो हनुमान स्तोत्र, शनि कला क्षीण हो तो दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ करें। राहु की कला क्षीण हो तो भैरवाष्टक व गणेश स्तोत्र का पाठ करें। गणित पद्धति से अरिष्ट दिन मृत्यु समय के लग्न, अरिष्ट मास का ज्ञान अरिष्ट मास:
1- लग्न स्फूट और मांदी स्फुट को जोड़कर जो राशि एवं नवांश हो उस राशि के उसी नवांश पर जब गोचर में सूर्य आता है तब जातक की मृत्यु होती है।
2- लग्नेश के साथ जितने ग्रह हां उन ग्रहों की महादशा वर्ष जोड़कर 12 का भाग दें। जो शेष बचे उसी संख्यानुसार सौर मास में अरिष्ट होगा।
अरिष्ट दिन:
1- मांदी स्फुट और चन्द्र स्फुट को जोड़कर 18 से गुणन करें उसमें शनि स्फुट को जोड़कर 9 से गुणन कर जोड़ दें। जब गोचर चन्द्र उस राशि के नवांश में जाता है तो उस दिन अरिष्ट दिन होगा। मृत्यु समय लग्न का ज्ञान: 2- लग्न स्फुट मांदी स्फुट और चन्द्र स्फुट को जोड़ देने से जो राशि आये उसी राशि के उदय होने पर जातक की मृत्यु होती है। अकस्मात मृत्यु से बचाव हेतु उपाय: सर्व प्रथम जातक की कुण्डली का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लें कि किस ग्रह के कारण अकस्मात मृत्यु का योग निर्मित हो रहा है। उस ग्रह का पूर्ण विधि-विधान से जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दानादि करके इस योग से बचा जा सकता है।
बृहत पराशर होरा शास्त्रम् के अनुसार: ‘‘सूर्यादि ग्रहों के अधीन ही इस संसार के प्राणियों का समस्त सुख व दुःख है। इसलिए शांति, लक्ष्मी, शोभा, वृष्टि, आयु, पुष्टि आदि शुभफलों की कामना हेतु सदैव नव ग्रहों का यज्ञादि करना चाहिए।’’ मूर्ति हेतु धातु: ग्रहों की पूजा हेतु सूर्य की प्रतिमा ताँबें से, चन्द्र की स्फटिक से, मंगल की लाल चन्दन से, बुध व गुरु की स्वर्ण से, शुक्र चांदी से, शनि की लोहे से , राहु की सीसे से व केतु की कांसे से प्रतिमा बनानी चाहिए। अथवा पूर्वोक्त ग्रहों के रंग वाले रेशमी वस्त्र पर उनकी प्रतिमा बनानी चाहिए।
 यदि इसमें भी सामथ्र्य न हो तो जिस ग्रह की जो दिशा है उसी दिशा में गन्ध से मण्डल लिखना चहिए।
विधान पूर्वक उस ग्रह की पूजा करनी चाहिए, मंत्र जप करना चाहिए। ग्रहों के रंग के अनुसार पुष्प, वस्त्र इत्यादि लेना चाहिए।
जिस ग्रह का जो अन्न व वस्तु हो उसे दानादि करना चाहिए।
ग्रहों के अनुसार समिधाएं लेकर ही हवनादि करना चाहिए।
ग्रहों के अनुसार ही भक्ष्य पदार्थ सेवन करने व कराने चाहिए।
जिस जातक की कुण्डली में ग्रह अशुभ फल देते हों, खराब हों, निर्बल हों, अनिष्ट स्थान में हों, नीचादिगत हो उस ग्रह की पूजा विधि-विधान से करना चाहिए। इन ग्रहों को ब्रह्माजी ने वरदान दिया है कि इन्हें जो पूजेगा ये उसे पूजित व सम्मानित बनाएंगे।
ग्रह-पीड़ा निवारण प्रयोग (दत्तात्रेय तंत्र के अनुसार): एक मिट्टी के बर्तन में मदार की जड़ (आक की जड़), धतूरा, चिर-चिरा, दूब, बट, पीपल की जड़, शमीर, शीशम, आम, गूलर के पत्ते, गो-घृत, गो दुग्ध, चावल, चना, गेहँ, तिल, शहद और छाछ भर कर शनिवार के दिन सन्ध्याकाल में पीपल वृक्ष की जड़ में गाड़ देने से समस्त ग्रहों की पीड़ा व अरिष्टों का नाश होता है।
 मंत्र: ऊँ नमो भास्कराय अमुकस्य अमुकस्य मम सर्व ग्रहाणां पीड़ानाशनं कुरु कुरु स्वाहा। इस मंत्र का घट गाड़ते समय 21 बार उच्चारण करें व नित्य 11 बार प्रातः शाम जप करें ।
इसके अतिरिक्त महामृत्युंजय का जाप व अनुष्ठान की अकस्मात मृत्यु योग को टालने में सार्थक है। इसके भी विभिन्न मंत्र इस प्रकार हैं एकाक्षरी ‘‘हौं’’ त्राक्षरी ‘‘ऊँ जूँ सः’’ चतुरक्षरी ‘‘ऊँ वं जूं सः’’ नवाक्षरी ‘‘ऊँ जं सः पालय पालय’’ दशाक्षरी ‘‘ऊँ जूं सः मां पालय पालय’’ पंचदशाक्षरी ‘‘ऊँ जं सः मां पालय पालय सः जं ऊँ’’ वैदिक-त्रम्बक मृत्युंजय मंत्र ‘‘त्रम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।’’ मृत्युंजय मंत्र ‘‘ऊँ भूः ऊँ स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे……………..माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः ऊँ भूः ऊँ।’’ मृत संजीवनी मंत्र ‘‘ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुव स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे……. माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। उपरोक्त उपायों को बुद्धिमत्ता पूर्वक विधि-विधान से किए जायें तो यह उपाय अकस्मात मृत्यु को टालने में सार्थक हो सकते हैं।
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दरअसल आधुनिक समाज में धर्म एवं धार्मिक भावना कम हो रही है। ऐसे में आत्महत्या जैसी बुराई के निवारण के लिए आवश्यक है कि ईश्वर भक्ति, योगा, चिंतन, मनन जैसे क्रियाकलाप रोज किए जाएं। ऐसा करने से आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होगा और आत्महत्या जैसे बुरे विचार आपके मस्तिष्क को छू भी नहीं पाएंगे।
वर्तमान दौर में किसी भी आयुवर्ग के व्यक्ति को असफलता सहज स्वीकार्य नहीं होती। किंतु यह स्थिति, किशोरावस्था व युवावस्था में बेहद संवेदनशील होती है। जब किसी युवा को लगने लगता है कि वह अपने अभिभावकों के स्वप्न को साकार नहीं कर पाएगा तो वह नकारात्मक सोच में डूब जाता है और इस तरह की परिस्थिति उसे कहीं न कहीं उसे आत्महत्या के लिए विवश करती है।
ज्योतिष की नजर से…
उज्जैन (मध्यप्रदेश) के विद्वान्  ज्योतिषी पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को आत्मा और चंद्रमा को मनु का कारक माना गया है। अष्टम चंद्रमा नीच राशि में अथवा राहु को शनि के साथ विष योग और केतु के साथ ग्रहण योग उत्पन्न करता है। ऐसे समय में मनुष्य की सोचने समझने में शक्ति कम कर देता है। उसकी वजह से वो अपनी निर्णय शक्ति खो देता है। अगर 12वें भाव में ऐसी युति होने पर फांसी या आत्महत्या का योग बनता है। इसी तरह अनन्य भाव में अलग- अलग परिणाम उत्पन करता है।
बचने के ये उपाय भी हैं कारगर—
शास्त्रों में इससे बचने के लिए शिव स्तुति, महामृत्युंजय मंत्र, शिवकवच, देवीकवच और शिवाभिषेक सबसे सहज सरल और प्रभावी उपाय हैं। किसी भी ग्रह के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए शुभ ग्रह की स्तुति और नीच ग्रह का दान श्रेष्ठ रहता है।
जिन्हें आत्महत्या के विचार आते हों, ऐसे व्यक्तियों को मोती एवं स्फटिक धारण करना चाहिए, और नियमित भगवान शिव का जलाभिषेक करना लाभप्रद रहते हैं। इसके अलावा पांच अन्न(गेहूं, ज्वार, चावल, मूंग,जवा और बाजरा) दान करना चाहिए। इसके साथ ही पक्षियों को इन अन्न के दाने भी खिलाना चाहिए।
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अकालमृत्यु कारण और निवारण :-
कई बार लोग प्रश्न करते है कि हम लोग रोज मंदिर जाते है खूब तीरथ व्रत भी करते है लेकिन शांति नहीं मिलती है उल्टा परेशानिया आ जाती है कई बार देखा गया है तीर्थों में गए लेकिन वापस घर नहीं आये या रस्ते में ही अकालमृत्यु को प्राप्त हो गए |
अकाल मृत्यु वो मरे जो काम करे चंडाल का,काल उसका क्या बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का –
ये इसलिए कहा गया है कि सभी भूत -प्रेत के अधिपति शिव जी है जो भक्त शिव कि पूजा करता है उसे काल कुछ नहीं करेगा ऐसा नहीं है जब जन्म हुआ है तो मृत्यु तो नियश्चित है परन्तु आकाल मृत्यु न हो उसके लिए शुद्ध मन से शिव जी कि पूजा करे।
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ज्योतिष में अकाल मृत्यु के योग—-
मानव शरीर में आत्मबल, बुद्धिबल, मनोबल, शारीरिक बल कार्य करते हैं।
चन्द्र के क्षीण होने से मनुष्य का मनोबल कमजोर हो जाता है, विवेक काम नहीं करता और अनुचित अपघात पाप कर्म कर बैठता है।
ग्रहों के दूषित प्रभाव से अल्पायु, दुर्घटना, आत्महत्या, आकस्मिक घटनाओं का जन्म होता है।
1. आकस्मिक मृत्यु के बचाव के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। जप रुद्राक्ष माला से पूर्वी मुख होकर करें।
2. वाहन चलाते समय मादक वस्तुओं का सेवन न करें तथा अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन न करें अन्यथा पिशाची बाधा हावी होगी वैदिक गायत्री मंत्र कैसेट चालू रखें।
3. गोचर कनिष्ठ ग्रहों की दशा में वाहन तेजी से न चलायें।
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अकस्मात मृत्यु से बचाव हेतु उपाय:
सर्व प्रथम जातक की कुण्डली का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लें कि किस ग्रह के कारण अकस्मात मृत्यु का योग निर्मित हो रहा है।
उस ग्रह का पूर्ण विधि-विधान से जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दानादि करके इस योग से बचा जा सकता है।
बृहत पराशर होरा शास्त्रम् के अनुसार: ‘‘सूर्यादि ग्रहों के अधीन ही इस संसार के प्राणियों का समस्त सुख व दुःख है। इसलिए शांति, लक्ष्मी, शोभा, वृष्टि, आयु, पुष्टि आदि शुभफलों की कामना हेतु सदैव नव ग्रहों का यज्ञादि करना चाहिए।’’
कई बार अनजाने में कई प्रकार कि गलतिया कर बैठते है जिसका परिणाम ठीक नहीं होता है कृपया इन बातों का ध्यान दीजिये —
1. किसी निर्जन एकांत या जंगल आदि में मलमूत्र त्याग करने से पूर्व उस स्थान को भलीभांति देख लेना चाहिए कि वहां कोई ऐसा वृक्ष तो नहीं है जिस पर प्रेत आदि निवास करते हैं अथवा उस स्थान पर कोई मजार या कब्रिस्तान तो नहीं है।
2. किसी नदी तालाब कुआं या जलीय स्थान में थूकना या मल-मूत्र त्याग करना किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि जल ही जीवन है। जल को प्रदूषित करने स जल के देवता वरुण रूष्ट हो सकते हैं।
3. घर के आसपास पीपल का वृक्ष नहीं होना चाहिए क्योंकि पीपल पर प्रेतों का वास होता है।
4. सूर्य की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।
5. गूलर , शीशम, मेहंदी, बबूल , कीकर आदि के वृक्षों पर भी प्रेतों का वास होता है। रात के अंधेरे में इन वृक्षों के नीचे नहीं जाना चाहिए और न ही खुशबुदार पौधों के पास जाना चाहिए।
6. महिलाये माहवारी के दिनों में चौराहे के वीच रस्ते में न जाये उन्हें अपने से दाहिने रखे
7. कहीं भी झरना, तालाब, नदी अथवा तीर्थों में पूर्णतया निर्वस्त्र होकर या नग्न होकर नहीं नहाना चाहिए।
8. हाथ से छूटा हुआ या जमीन पर गिरा हुआ भोजन या खाने की कोई भी वस्तु स्वयं ग्रहण न करें।
9. अग्नि व जल का अपमान न करें। अग्नि को लांघें नहीं व जल को दूषित न करें।
उपाय :-
1 :- जब भी घर से बहार निकले इनके नमो का सुमिरन कर के घर से निकले।
अश्व्त्थामा बलिर्व्यासो हनुमान्श्च विभीषणः कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः l
सप्तैतान्सस्मरे नित्यं मार्कण्डेययथाष्टकं जीवेद् वर्षशतं साग्रमं अप मृत्युविनिष्यति ll
ये सात नाम है जो अजर अमर है और आज भी पृथ्वी पर विराजमान है
2 . अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”
3 . राहु काल के समय यात्रा पर न जाये
4 . दिशाशूल के दिन यात्रा न करे
5 – शराब पीकर या तामसिक भोजन कर के धर्म क्षेत्र में न जाये
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अकाल मृत्यु का भय नाश करतें हैं महामृत्युञ्जय—–
ग्रहों के द्वारा पिड़ीत आम जन मानस को मुक्ती आसानी से मिल सकती है। सोमवार के व्रत में भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। इस व्रत को सावन माह में आरंभ करना शुभ माना जाता है।

Death astrology prediction आकस्मिक मृत्यु के स्थान का ज्ञान

Death astrology prediction आकस्मिक मृत्यु के स्थान का ज्ञान
1- लग्न की महादशा हो और अन्तर्दशा लग्न के शत्रु ग्रह की हो तो मनुष्य की अकस्मात मृत्यु होती है।
2- छठे स्थान के स्वामी का सम्बन्ध मंगल से हो तो अकस्मात आपरेशन से मृत्यु हो।
3- लग्न से तृतीय स्थान में या कारक ग्रह से तृतीय स्थान में सूर्य हो तो राज्य के कारण मृत्यु हो।
4- यदि शनि चर व चर राशि के नवांश में हो तो दूर देश में मृत्यु हो।
5- अष्टम में स्थिर राशि हो उस राशि का स्वामी स्थिर राशि में हो तो गृह स्थान में जातक की मृत्यु होती है। 6- द्विस्वभाव राशि अष्टम स्थान मं हो तथा उसका स्वामी भी द्विस्वभाव राशिगत हो तो पथ (रास्ते) में मृत्यु हो।
7- तीन ग्रह एक राशि में बैठे हों तो जातक सहस्र पद से युक्त पवित्र स्थान गंगा के समीप मरता है।
8- लग्न से 22 वें द्रेष्काण का स्वामी या अष्टमभाव का स्वामी नवम भाव में चन्द्र हो तो काशीतीर्थ बुध$शुक्र हो तो द्वारिका में मृत्यु हो।
9- अष्टम भाव में गुरु चाहे किसी राशि में हो व्यक्ति की मृत्यु बुरी हालत में होती है।
मृत्यु फांसी के द्वारा
1- द्वितीयेश और अष्टमेश राहु व केतु के साथ 6, 8, 12 वें भाव में हो। सारे ग्रह मेष, वृष, मिथुन राशि में हो।
2- चतुर्थ स्थान में शनि हो दशम भाव में क्षीण चन्द्रमा के साथ मंगल शनि बैठे हों
3- अष्टम भाव बुध और शनि स्थित हो तो फांसी से मृत्यु हो।
4- क्षीण चन्द्रमा पाप ग्रह के साथ 9, 5, 11 वे भाव में हो।
5- शनि लग्न में हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तथा सूर्य, राहु क्षीण चन्द्रमा युत हों तो जातक की गोली या छुरे से मृत्यु अथवा हत्या हो।
6- नवमांश लग्न में सप्तमेश राहु, केतु से युत 6, 8, 12 वें भाव मं स्थित हों तो आत्महत्या करता है।
7- चैथे व दसवें या त्रिकोण भाव में अशुभ ग्रह हो या अष्टमेश लग्न में मंगल से युत हो तो फांसी से मृत्यु होती है
8- क्षीण चन्द्रमा पाप ग्रह के साथ पंचम या एकादश स्थान में हो तो सूली से मृत्यु होती है।
दुर्घटना से मृत्यु योग
1- चतुर्थेश, षष्ठेश व अष्टमेश से सम्बन्ध हो तो मृत्यु वाहन दुर्घटना मं हो। 2- यदि अष्टम भाव में चन्द्र, मंगल, शनि हो तो मृत्यु हथियार द्वारा हो।
3- चन्द्र सूर्य मंगल शनि 8, 5 तथा 9 में हो तो मृत्यु ऊँचाई से गिरने समुद्र, तूफान या वज्रपात से हो।
4- अष्टमेश तथा अष्टम, षष्ठ तथा षष्ठेश और मंगल का इन सबसे सम्बन्ध हो तो मृत्यु शत्रु द्वारा होती है।
5- अष्टमेश एवं द्वादशेश में भाव परिवर्तन हो, इन पर मंगल की दृष्टि हो तो अकाल मौत हो। जन्म विषघटिका में होने से विष, अग्नि क्रूरजीव से मृत्यु हो।
6- जन्म लग्न से दशम भाव में सूर्य चतुर्थ भाव में मंगल हो तो मृत्यु वाहन दुर्घटना तथा सवारी से गिरने से होती है।
7- मंगल और सूर्य सप्तम भाव में, शनि अष्टम भाव में क्षीण चन्द्र के साथ हो तो पक्षी के कारण दुर्घटना में मृत्यु हो।
8- सूर्य, मंगल, केतु की यति हो जिस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो अग्नि दुर्घटना में मृत्यु हो। चन्द्र मेष$ वृश्चिक राशि में हो तो पाप ग्रह की दृष्टि से अग्नि अस्त्र से मृत्यु हो। 9- द्विस्वभाव राशि लग्न में सूर्य+चन्द्र हो तो जातक की मृत्यु जल में डूबने से हो।
10- लग्नेश और अष्टमेश कमजोर हो, मंगल षष्ठेश से युत हो तो मृत्यु युद्ध में हो। द्वादश भाव में मंगल अष्टम भाव में शनि से हथियार द्वारा हत्या हो।
11- यदि नंवाश लग्न में सप्तमेश शनि युत हो 6, 8, 12 में हो जहर खाने से मृत्यु हो ।
12- चन्द्र मंगल अष्टमस्थ हो तो सर्पदंश से मृत्यु होती है।
13- लग्नेश अष्टमेश और सप्तमेश साथ बैठे हों तो जातक स्त्री के साथ मरता है।
आत्म हत्या से मृत्यु योग
1- लग्न व सप्तम भाव में नीच ग्रह हों
2- लग्नेश व अष्टमेश का सम्बन्ध व्ययेश से हो। 3- अष्टमेश जल तत्व हो तो जल में डूबने से, अग्नि तत्व हो तो जलकर, वायु तत्व हो तो तूफान व बज्रपात से अपघात हो । 4- कर्क राशि का मंगल अष्टम भाव में पानी में डूबकर आत्मघात कराता है 5- यदि अष्टम भाव में एक या अधिक अशुभ ग्रह हो तो जातक हत्या, अपघात, दुर्घटना, बीमारी से मरता है। ग्रहों के अनुसार स्त्री पुरूष के आकस्मिक मृत्यु योग6- क्षीण चन्द्रमा अष्टम स्थान में हो उसके साथ मं$रा$शनि हो तो पिशाचादि दोष से मृत्यु हो।
7- जातक का जन्म विष घटिका में होने से उसकी मृत्यु विष, अग्नि तथा क्रूर जीव से होती है।
8- द्वितीय में शनि, चतुर्थ में चन्द्र और दशम में मंगल हो तो मुख मं कृमिरोग से मृत्यु होती है।
9- शुभ ग्रह दशम, चतुर्थ, अष्टम, लग्न में हो और पाप ग्रह से दृष्ट हो तो बर्छी की मार से मृत्यु हो।
10- यदि मंगल नवमस्थ और शनि, सूर्य राहु एकत्र हो, शुभ ग्रह दृष्ट न हो तो बाण से मृत्यु हो 11- अष्टम भाव में चन्द्र के साथ मंगल, शनि, राहु हो तो मृत्यु मिर्गी से हो।
12- नवम भाव में बुध शुक्र हो तो हृदय रोग से मृत्यु होती है।
13- अष्टम शुक्र अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो मृत्यु गठिया या मधुमेह से होती है
14- स्त्री की जन्म कुण्डली सूर्य, चन्द्रमा मेष राशि या वृश्चिक राशिगत होकर पापी ग्रहों के बीच हो तो महिला शस्त्र व अग्नि से अकाल मृत्यु को प्राप्त होती है।
15- स्त्री की जन्म कुण्डली में सूर्य एवं चन्द्रमा लग्न से तृतीय, षष्ठम, नवम, द्वादश भाव में स्थित हो तो तथा पाप ग्रहों की युति व दृष्टि हो तो महिला फंासी लगाकर या जल में कूद कर आत्म हत्या करती है।
16- द्वितीय भाव में राहु, सप्तम भाव में मंगल हो तो महिला की विषाक्त भोजन से मृत्यु हो
17- सूर्य एवं मंगल चतुर्थ भाव अथवा दशम भाव में स्थित हो तो स्त्री पहाड़ से गिर कर मृत्यु को प्राप्त होती है। 18- दशमेश शनि की व्ययेश एवं सप्तमेश मंगल पर पूर्ण दृष्टि से महिला की डिप्रेशन से मृत्यु हो।
19- पंचमेश नीच राशिगत होकर शत्रु ग्रह शुक्र एवं शनि से दृष्ट हो तो प्रसव के समय मृत्यु हो ।
20- महिला की जन्मकुण्डली में मंगल द्वितीय भाव में हो, चन्द्रमा सप्तम भाव में हो, शनि चतुर्थ भाव में हो तो स्त्री कुएं, बाबड़ी, तालाब में कूद कर मृत्यु को प्राप्त होती है।
लग्नेश के नवांश से मृत्यु, रोग अनुमान
1- मेष नवांश हो तो ज्वर, ताप जठराग्नि तथा पित्तदोष से मृत्यु हो
2- वृष नवांश हो तो दमा, शूल त्रिदोषादि, ऐपेंडिसाइटिस से मृत्यु हो।
3- मिथुन नवांश हो तो सिर वेदना,
4- कर्क नवांश वात रोग व उन्माद से मृत्यु हो।
5- सिंह नवांश हो तो विस्फोटकादि, घाव, विष, शस्त्राघात और ज्वर से मृत्यु।
6- कन्या नवांश हो तो गुह्य रोग, जठराग्नि विकार से मृत्यु हो।
7- तुला नवांश में शोक, बुद्धि दोष, चतुष्पद के आघात से मृत्यु हो।
8- वृश्चिक नवांश में पत्थर अथवा शस्त्र चोट, पाण्डु ग्रहणी वेग से।
9- धनु नवांश में गठिया, विष शस्त्राघात से मृत्यु हो।
10- मकर नवांश में व्याघ्र, शेर, पशुओं से घात, शूल, अरुचि रोग से मृत्यु।
11- कुंभ नवांश में स्त्री से विष पान श्वांस तथा ज्वर से मृत्यु हो।
12- मीन नवांश में जल से तथा संग्रहणी रोग से मृत्यु
1- गुलिक नवांश से सप्तम शुभग्रह हो तो मृत्यु सुखकारी होगी।
2- गुलिक नवांश से सप्तम स्थान में मंगल हो तो जातक की युद्ध लड़ाई में मृत्यु होगी।
3- गुलिक नवांश से सप्तम स्थान में शनि हो तो मृत्यु चोर, दानव, सर्पदंश से होगी।
4- गुलिक नवांश से सप्तम स्थान में सूर्य हो तो राजकीय तथा जलजीवांे से मृत्यु। अरिष्ट महादशा व दशान्तर में मृत्यु 1- अष्टमेश भाव 6, 8, 12 मं हो तो अष्टमेश की दशा-अन्तर्दशा में और दशमेश के बाद के ग्रह अन्तर्दशा में मृत्यु होती है।
2- कर्क, वृश्चिक, मीन के अन्तिम भाग ऋक्ष संधि कहलाते हैं। ऋक्ष सन्धि ग्रह की दशा मृत्युकारी होती है।
3- जिस महादशा में जन्म हो महादशा से तीसरा, पांचवां, सातवें भाव की महादशा यदि नीच, अस्त, तथा शत्रु ग्रह की हो तो मृत्यु होती है।
4- द्वादशेश की महादशा में द्वितीयेश का अन्तर आता है अथवा द्वितीयेश दशा में द्वादश अन्तर में अनिष्टकारी मृत्यु तुल्य होता है।
5- छिद्र ग्रह सात होते हैं
अकस्मात मृत्यु से बचाव हेतु उपाय: सर्व प्रथम जातक की कुण्डली का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लें कि किस ग्रह के कारण अकस्मात मृत्यु का योग निर्मित हो रहा है। उस ग्रह का पूर्ण विधि-विधान से जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दानादि करके इस योग से बचा जा सकता है।
बृहत पराशर होरा शास्त्रम् के अनुसार: ‘‘सूर्यादि ग्रहों के अधीन ही इस संसार के प्राणियों का समस्त सुख व दुःख है। इसलिए शांति, लक्ष्मी, शोभा, वृष्टि, आयु, पुष्टि आदि शुभफलों की कामना हेतु सदैव नव ग्रहों का यज्ञादि करना चाहिए।’’ मूर्ति हेतु धातु: ग्रहों की पूजा हेतु सूर्य की प्रतिमा ताँबें से, चन्द्र की स्फटिक से, मंगल की लाल चन्दन से, बुध व गुरु की स्वर्ण से, शुक्र चांदी से, शनि की लोहे से , राहु की सीसे से व केतु की कांसे से प्रतिमा बनानी चाहिए। अथवा पूर्वोक्त ग्रहों के रंग वाले रेशमी वस्त्र पर उनकी प्रतिमा बनानी चाहिए।
यदि इसमें भी सामथ्र्य न हो तो जिस ग्रह की जो दिशा है उसी दिशा में गन्ध से मण्डल लिखना पप पालय सः जं ऊँ’’ वैदिक-त्रम्बक मृत्युंजय मंत्र ‘‘त्रम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।’’ मृत्युंजय मंत्र ‘‘ऊँ भूः ऊँ स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे.................माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः ऊँ भूः ऊँ।’’ मृत संजीवनी मंत्र ‘‘ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुव स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे....... माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। उपरोक्त उपायों को बुद्धिमत्ता पूर्वक विधि-विधान से किए जायें तो यह उपाय अकस्मात मृत्यु को टालने में सार्थक हो सकते हैं।
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