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PurushaSukta पुरुष सूक्त (Purusha Suktam in hindi)

PurushaSukta पुरुष सूक्त (Purusha Suktam in hindi)

Importance of Purusha Suktam


पुराणों के अन्दर सम्पूर्ण पापों से छुटकारा पाने का श्रेष्ठतम उपाय “पुरूष-सुक्त” है। जो व्यक्ति प्रतिदिन 1 बार ‘पुरूष-सूक्त’ का पाठ करता है, वह अपने इस जन्म में किये हुऐ प्रतिदिन के पापों से छुटकारा पा लेता है, साथ ही जो व्यक्ति प्रतिदिन पुरूष-सूक्त के 5 पाठ करता है, वह इस जन्म के पापों के साथ-साथ पुर्व-जन्म के भी तमाम पापों से छुटकारा पा लेता है। 

रूद्र-सूक्त का महत्त्व Importance of Rudra Suktam

जिस प्रकार सभी पापों का नाश करने में ‘पुरूष-सूक्त’ बेमिशाल है, उसी प्रकार सभी दुखों एवं शत्रुओं का नाश करने में ‘रूद्र-सूक्त’ बेमिशाल है। ‘रूद्र-सूक्त’ जहाँ सभी दुखों का नाश करता है, और शत्रुओं का नाश करता है, वहीं यह अपने साधक कि सम्पूर्ण रूप से रक्षा भी करता है। ‘रूद्र-सूक्त’ का पाठ करने वाला साधक सम्पूर्ण पापों, दुखों और भयों से छुटकारा पाकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है। शास्त्रों में ‘रूद्र-सूक्त को ‘अमृत’ प्राप्ति का ‘साधन’ बताया गया है। 

|| ओम नमो नारायणाय ||
||ॐ नमो भगवते वासुदेवायः||
|| ॐ विष्णवे नमः ||

 || शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम् , विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् | लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् , वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

Shantakaram Bhujaga Shayanam, Padmanabham Suresham. Vishvadharam Gagana Sadrusham, Megha Varnam Shubhangam. Lakshmi Kantam Kamala Nayanam, Yogibhir Dhyana Gamyam. Vande Vishnum Bhava Bhaya Haram, Sarva Lokaia Kanatham.

॥ पुरुषसूक्त ॥

ॐ तच्छं योरावृणीमहे | गातुं यज्ञाय | गातुं यज्ञपतये |
दैवी स्वस्तिरस्तु नः | स्वस्तिर्मानुषेभ्यः |ऊर्ध्वं जिगातु भेषजम्  शं नो अस्तु द्विपदे | शं चतुष्पदे ||      
                   !!ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!                          

Purusha Sukta viniyog

(यजुर्वेदः 31.18) ऋग्वेद १०.९० सूक्त पुरुष सूक्त कहलाता है। इस सूक्त का ऋषि नारायण है और देवता पुरुष है। पुरुष वह है जो प्रकृति को प्रभावित कर सके। पुरुष सूक्त को समझने की कुंजी हमें स्कन्द पुराण ६.२३९ से प्राप्त होती है जहां पुरुष सूक्त का विनियोग विष्णु की मूर्ति की अर्चना के विभिन्न स्तरों पर किया गया है। 


                     पुरुष सूक्त Purusha Sukta


Learn Purusha Suktam



Purusha Suktam in hindi meaning


|| शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम् , विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् | लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् , वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

Shantakaram Bhujaga Shayanam, Padmanabham Suresham. Vishvadharam Gagana Sadrusham, Megha Varnam Shubhangam. Lakshmi Kantam Kamala Nayanam, Yogibhir Dhyana Gamyam. Vande Vishnum Bhava Bhaya Haram, Sarva Lokaia Kanatham.

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
 स भूमिँसर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।।
(जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।)
पुरुषऽएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।
(जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।)
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः।
पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।
(विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
 ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनऽअभि।।4।।
(चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।)
ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।
स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः।।5।।
(उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।)
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये।।6।।
(उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।)
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।7।।
(उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।)
तस्मादश्वाऽअजायन्त ये के चोभयादतः।
 गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताऽअजावयः।।8।।
(उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।)
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
 तेन देवाऽअयजन्त साध्याऽऋषयश्च ये।।9।।
(मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।)
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
 मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाऽउच्येते।।10।।
(संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।)
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्याँ शूद्रोऽअजायत।।11।।
(विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।)
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत।।12।।
(विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।)
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
 वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः।।14।।
(जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।)
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
 देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽअबध्नन् पुरुषं पशुम्।।15।।
(देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।)
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
 ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।
(आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।)
 (शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!)

Purusha Suktam

ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्। 
स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥ 
पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्। 
उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥ 
एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः। 
पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥ 
त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः। 
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥ 
ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः। 
स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥ 
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्। 
पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥ 
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत117॥ 
तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥ 
तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः। 
तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥ 
यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥ 
मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥ 
ब्राह्मणो ऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः। 
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥ 
चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखाद् ऽग्निर अजायत॥12॥ 
नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत। 
पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥ 
यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञम् ऽतन्वत। 
वसन्तो अस्य आसीद् आज्यम् ग्रीष्मऽ इध्मः शरद्धविः॥14॥ 
सप्तास्या आसन् परिधय त्रिः सप्त समिधः कृताः। 
देवा यद् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥ 
यज्ञेन यज्ञम ऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्। 
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥ 

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Rudrasuktam  ॥ रूद्र-सूक्तम् ॥ 

नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। 
बाहुभ्याम् उत ते नमः॥1॥ 
या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी। 
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥2॥ 
यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे । 
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥3॥ 
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । 
यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥4॥ 
अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । 
अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥5॥ 
असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बभ्रुः सुमंगलः। 
ये चैनम् रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो ऽवैषाम् हेड ऽईमहे ॥6॥ 
असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 
उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः ॥7॥ 
नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। 
अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥8॥ 
प्रमुंच धन्वनः त्वम् उभयोर आरत्न्योर ज्याम्। 
याश्च ते हस्तऽ इषवः परा ता भगवो वप ॥9॥ 
विज्यं धनुः कपर्द्दिनो विशल्यो बाणवान्ऽ उत। 
अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषंगधिः॥10॥ 
या ते हेतिर मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । 
तया अस्मान् विश्वतः त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥11॥ 
परि ते धन्वनो हेतिर अस्मान् वृणक्तु विश्वतः। 
अथो यऽ इषुधिः तवारेऽ अस्मन् नि-धेहि तम् ॥12॥ 
अवतत्य धनुष्ट्वम् सहस्राक्ष शतेषुधे। 
निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥13॥ 
नमस्तऽ आयुधाय अनातताय धृष्णवे। 
उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥14॥ 
मा नो महान्तम् उत मा नोऽ अर्भकं मा नऽ उक्षन्तम् उत मा नऽ उक्षितम्। 
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रूद्र रीरिषः॥15॥ 
मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नोऽ अश्वेषु रीरिषः। 
मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधिर हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥16॥ 


(Invocation)
oḿ taccham yoravṛni mahe
ghatun yajñāya
ghatun yajñapataye
daivi svastirastu naha
svastir manuṣebhyāḥ
urdhvam jigatu bhesajam
śam no astu dvipade
śam catuś-pade
oḿ śāntiḥ śāntiḥ śāntiḥ


(1) oḿ sahasra śīrṣā puruṣaḥ  sahasrākṣaḥ sahasrapāt
sa bhūmim viṣvato vṛtvā  atyatiṣṭad daśāngulam

(2) puruṣa evedagaḿ sarvam  yad bhūtam yac ca bhavyam 
utāmṛtatvasyeṣānaḥ yad annenātirohati


(3) etāvān asya mahima  ato jyāyāgaḿśca pūruṣaḥ 
pādo 'sya viṣvā bhūtāni  tripādasyāmṛtam divi

(4)tripād ūrdhva udait puruṣaḥ  pādo 'syehābhavatpunaḥ 
tato viṣva.n vyakrāmat  sāśanānaśane abhi

(5) tasmāt virād ajāyata  virājo adhipūruṣa ḥ 

sa jāto atyaricyata  paścād bhūmimatho puraḥ



(6)yatpuruṣena haviṣā  devā yajñam atanvata 

vasanto asyāsī-dājyam  grīṣma idhma śaraddhaviḥ


(7) saptāsyā san paridayaḥ  triḥ saptaḥ samidaḥ krtāḥ 

deva yad yajñam tanvānāḥ  abadhnan puruṣam paśum


(8) tam yajñam barhiṣi prokṣan  puruṣam jātam agrataḥ 

tena devā ayajanta  sādhyā ṛṣayaś ca ye

(9) tasmād yajñat sarvahutaḥ  sambhṛtam prṣadājyam 

paṣūgaḿstya gaś cakre vāyavyān  āraṇyān grāmyās ca ye

(10) tasmād yajñat sarvahutaḥ  ṛcaḥ sāmāni jajnire 

chandāgaḿsi jajnire tasmāt  yajus tasmād ajāyanta

(11) tasmādaṣvā ajāyanta  ye ke cobhayādataḥ 

gāvoham jagnyire tasmāt  tasmajjatā ajāvayaḥ

(12) yat puruṣam vyadadhuḥ  katidhā vyakalpayan 

mukham kimasya kau bāhū  kavūrū pādā ucyete

(13) brāhmaṇo asya mukhamāsīt  bāhū rājanyaḥ krtaḥ 

ūru tadasya yad vaiṣya  padbhyām ṣūdro ajāyata

(14) candramā manaso jātaḥ  cakṣo sūryo ajāyata 

mukhādīndrascāgnischa  prāṇādvāyurajāyata


(15) nābhyā āsīdantarikṣam  ṣīrṣṇau dhyauḥ samavartata 

padbhyām bhūmir diṣaḥ ṣrotrāt  tathā lokām akalpayan

(16) vedāhametam puruṣam mahāntam  ādityavarṇam tamasastu pāre 

sarvāṇi rūpāṇi vicitya dhīraḥ  nāmāni krtvābhivadan yadāste


(17) dhātā purastādhyamudājahāra  ṣakraḥ pravidvān pradiṣaṣcatasraḥ 

tamevam vidhvānamrta iha bhavati  nānyaḥ panthā ayanāya vidhyate


(18) yagnyena yagnya-mayajanta devaḥ  tāni dharmāṇi prathamānāsann 

te ha nākam mahimānaḥ sacante  yatra pūrve sādhyāḥ santi devāḥ

(19) adbhyassambhootaḥ prthivyai rasācca  viśvakarmaṇassamavartatādhi

tasya tvaṣṭā vidadhadroopameti  tatpuruṣasya viśvamājānamagre


(20) vedāhametam puruṣam mahāntam  ādityavarṇam tamasas pārastāt 

tamevam vidhvānamrta iha bhavati  nānyaḥ panthā vidhyate ayanāya


(21) prajāpatischarati garbhe antaḥ  ajāyamāno bahudhā vijāyate 

tasya dhīrāḥ parijānanti yonim  marīchīnām padamiccanti vedhasaḥ


(22) yo devebhya ātapati  yo devānām purohitaḥ

purvo yo devebhyo jātaḥ  namo rucāya brāhmaye


(23) rucam brāmham janayantaḥ  deva agre tadabruvan

yastvaivam brāhmaṇo vidhyāt  tasya deva asan vaśe


(24) hṛśca te lakṣmīśca patnyau  ahorātre pārśve
nakṣatrāṇi roopam  aśvinau vyāttam
iśtam maniśana
amun maniśana
sarvam maniśana

oḿ śāntiḥ śāntiḥ śāntiḥ



TRANSLATION
(Invocation) We worship and pray to the Supreme Lord for the welfare of all beings. May all miseries and shortcomings leave us forever so that we may always sing for the Lord during the holy fire ceremonies. May all medicinal herbs grow in potency so that all diseases may be cured. May the gods rain peace on us. May all the two-legged creatures be happy, and may all the four-legged creatures also be happy. May there be peace in the hearts of all beings in all realms.



1) The Purusa (the Supreme Being) has a thousand heads, a thousand eyes and a thousand feet. He has enveloped this world from all sides and has (even) transcended it by ten angulas or inches.



2) All this is verily the Purusa. All that which existed in the past or will come into being in the future (is also the Purusa). Also, he is the Lord of immortality. That which grows profusely by food (is also the Purusa).



3) So much is His greatness. However, the Purusa is greater than this. All the beings form only a quarter (part of) Him. The three-quarter part of His, which is eternal, is established in the spiritual domain.



4) The Purusa with the three-quarters (of His energy) ascended above (the spiritual energy). His one quarter of material energy becomes this creation again (and again). Then He pervades this universe comprising a variety of sentient beings and insentient objects.



5) From Him (the Adi Purusa or original Supreme Being) was born the Virat (or Virat Purusa, the immense universal form). Making this Virat as the substratum (another) Purusa (or being, Brahma) (was born). As soon as he was born, he multiplied himself. Later, he created this earth and then, the bodies (of the living beings).



6) When the devas (the demigods or beings of light) performed a yajna (or sacrificial ritual), using the Purusa as the havis (sacrificial material) for the yajna (ritual), the Vasanta (spring) became the ajya (ghee), the Grishma (summer) served as idhma (pieces of wood) and the sharad (autumn) filled the place of havis (obligatory material like the purodasha or rice-cake).



7) For this (yajna or spiritual ceremony) there were seven paridhis (fuel pieces serving as borders). And, twenty-one items were made the samit or sacrificial fuel sticks. When the devas were performing this yajna or ceremony, they tied the Purusa (himself) as the pasu (sacrificial animal).



8) The devas, the sadhyas and the rsis performed the sacrifice by using that Purusa as the means of yajna, the Purusa who had been born in the beginning, after sprinkling him with water by the barhis (or sacrificial grass).



9) From that yajna (or sacrificial ritual) wherein the Cosmic Being was Himself the oblation, was produced the prasajya (or curds mixed with ghee). Birds flying in the air, wild animals of the forest as also the domesticated animals of the villages were also produced.



10) From that yajna (or sacrifice) wherein the Cosmic Being was Himself the oblation, were born the riks (the mantras of the Rg-veda) and the samans (the mantras of the Sama-veda). From that (yajna) the meters (like Gayatri) were born. From that (yajna again) the yujas (the Yajura-veda) was born.



11) From that were born the horses, as also animals (like donkeys and mules) which have two rows of teeth. From that were born the cattle. From that (again) were born goats and sheep.



12) (Now some questions are raised by the sages) When the gods decided to (mentally) sacrifice the ViratPurusa (and produce further creation), in how many ways did they do it? What became of his face or mouth? What became of his two arms? What became of His two thighs? What were (the products of) the two feet called?



13) From His face (or the mouth) came the brahmanas. From His two arms came the rajanya (the ksatriyas). From His two thighs came the vaisyas. From His two feet came the sudras.



14) From His mind was born the moon. From His two eyes was born the sun. From His mouth were born Indra and Agni. From His breath was born the air.



15) From (His) navel was produced the antariksha (the space between the earth and the heavens). Dyuloka (or heaven) came into existence from His head. The bhumi (the earth) evolved out of His feet, and deek (or spacial directions) from His ears. Similarly (the demigods) produced the worlds (too).



16) I know (through intuitive experience) this great Purusa (the Supreme Being), the wise one, who, having created the various forms and the nomenclatures (for those forms), deals with them by those names, and who is beyond darkness and is brilliant like the sun.



17) In the ancient days, Prajapati (Brahma) praised Him. Indra who knows all the four quarters also spoke about Him. Anyone who knows Him thus, will become immortal even in this life. For attaining liberation there is no other path (than knowledge of this Purusa, the Supreme Lord).



18) The (demi)gods worshiped (the Supreme Creator in the form of) yajna through yajna (sacrifical ceremonies). Those very processes became the primary dharmas (laws guiding humanity). Those great ones attain that heaven where the ancient devas (demigods) and sadhyas live.



19) The ViratPurusa manifested Himself from out of (the all-pervading) water as also the essence of the element of earth. This ViratPurusa was born out of the greatness of the ParamaPurusa, the Creator. The (ParamaPurusa, known as) Tvashta engaged Himself in the act of creating (the fourteen planetary systems), (which form of the expanded) figure (of the ViratPurusa). (Thus) the entire creation (related to the ViratPurusa) came into existence in the very beginning of creation.



20) I have known that great Purusa (Supreme Being) who is brilliant like the sun and who is beyond all darkness. One who knows Him thus becomes immortal (even) here. There is no other path for liberation than this.



21) Prajapati (the Supreme Creator) moves inside the cosmic womb. (Though) unborn He takes birth in a variety of ways. The wise ones know His (real nature) as the origin (of the universe). The (secondary) creators desire to attain the positions of Marichi and others.



22) Obeisances to Him, the self-luminous Brahman, who shines for the (demi)gods, who is the leader of the rituals of the gods and who was born even before the gods.



23) In the beginning of creation, the gods, manifesting the light of Brahman, addressed Brahman thus: "That brahmana who realizes (You) thus, all the gods will come under his control."



24) O Purusa! The goddesses Hri (modesty) and Sri (Lakshmi, wealth) are Your consorts. Day and night are Your lateral limbs. The stars are Your form. The Ashvins are your widely opened (mouth). (O Purusa) fulfill our desire for self-knowledge as also our desire for the enjoyments of this world (like longevity, cows, and horses). Give us all that we need. Om, let there be peace, peace, peace.

 Purusha Suktam पुरुष सूक्तं

The Purusha Suktam is one of the Pancha Suktams of the Sri Vaishnava sampradaya or tradition. The other four are the Narayana Suktam, Sri Suktam, Bhu Suktam, and the Nila Suktam.

The Purusha Suktam is seen earliest in the Rig Veda, as the 90th Suktam of its 10th mandalam, with 16 mantrams. Later, it is seen in the Vajasaneyi Samhita of the Shukla Yajur Vedam, the Taittriya Aranyaka of the Krishna Yajur Vedam, the Sama Veda, and the Atharvana Veda, with some modifications and redactions.


The Purusha in the title of the Purusha Sukta refers to the Parama Purusha, Purushottama, Narayana, in his form as the ViraaT Purusha. He was the source of all creation. It describes this form of his, as having countless heads, eyes, legs, manifested everywhere, and beyond the scope of any limited method of comprehension. All creation is but a fourth part of him. The rest is unmanifested.

Purusha as Brahma remained inactive, and Aniruddha Narayana, one of the four aspects of Narayana in the first tier at the base of the Vishaaka Yoopa, asked him ``Why do you do nothing?'' ``Because of not knowing,'' Brahma replied. ``Perform a yajna. Your senses, the devas, shall be the ritviks. Your body shall be the havis. Your heart, the altar. And I shall be he who enjoys the havis -- the offering. From your body sacrificed, shall you create bodies for all living creatures, as you have done in kalpas before this.'' Thus says the sAkalya brAmhaNA.


The objection to Purusha Sukta is that it advocates caste system and makes the lower classes subservient to elite. Sukta describes manifestations of  God  in the human beings as well as in the creation. It does not attribute to the present cast system. It is merely a socio-economic division. Srimad Bhagawad Geeta says,


This yajna was called ``sarvahut'', the offering of all. The act of creation itself grew out of yajna, the rite of sacrifice. Who was worshipped at this sacrifice? It was the Purusha. Who performed it? Brahma, the creative aspect of the Purusha. Who were the ritvik priests ? The devas, who are the Purusha's senses. Who was tied as the beast of the sacrifice? Brahma, again. What was barhis, the altar of the sacrifice? All of nature. Who was the fire? The Purusha's heart. What was sacrificed? Again, the Purusha himself, his great body that contained all of creation.

In a way, this is a message of love, that the Purusha would consume himself in the fire of creation, to create all the worlds. From this sacrifice did all of creation emanate. This is central to the message of the Purusha Sukta.

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात |सभूमिं विश्वतो वर्त्वात्यतिष्ठद दशाङगुलम ||

Sahstra Sheerha Purushah; Sahasraaksha Saharpaat.Sa Bhoomir Vishwatho Vruthwaa.Atyathishta Ddhasangulam. 1-1


The Purusha has thousand heads,He has thousand eyes,He has thousand feet,He is spread all over the universe,And is beyond the count with ten fingers.पुरुष जिसके हज़ार सर थे , जिसकी हज़ार आंखें थी , जिसके कई पैर थे , जो कि सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त था , और वहां भी जिनको मापना संभव नहीं था अर्थात अनंत तक

पुरुष एवेदं सर्वं यद भूतं यच्च भव्यम |उताम्र्तत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||

Purusha Evedagum Sarvam.Yad Bhootam yadcha Bhavyam.Utaa Amrutatwasyeshana. Yad Annena Adhirohati. 1-2


This Purusha is all the past,All the future and the present,He is the lord of deathlessness,And he rises from hiding,From this universe of food.वह पुरुष ही भूत , भविष्य और वर्तमान है  , वह ही शाश्वतता का स्वामी है , वह स्वयं को अप्रकट से प्रकट करता है , इस सृष्टि रुपी भोजन से

एतावानस्य महिमातो जयायांश्च पूरुषः |पादो.अस्यविश्वा भूतानि तरिपादस्याम्र्तं दिवि ||

EtaaVaanasya Mahimaa.Ato Jyaayascha Purushaa.Padosya Vishwaa Bhootanee.Tripaadasyaamrutam Divi. 1-3


This Purusha is much greater,Than all his greatness in what all we see,And all that we see in this universe is but his quarter,And the rest three quarters which is beyond destruction,Is safely in the worlds beyond.वह पुरुष बहुत ही महान { बड़ा } है , उसकी बडाई उससे भी अधिक है , वह इस सृष्टि का एक चौथाई हिस्से में ही स्वयं को प्रकट करता है , उसके दो तिहाई हिस्से तो अव्यक्त हैं और वे अविनाशी हैं और वे पार  कि दुनिया में सुरक्षित हैं

तरिपादूर्ध्व उदैत पुरुषः पादो.अस्येहाभवत पुनः |ततो विष्वं वयक्रामत साशनानशने अभि ||

Tripaaddurdhwa Udait Prurushah. Paadosye Haabha vaat Punah.Tato Vishvangvyakramat.Sashanaana Shane Abhi. 1-4


Above this world is three quarters of Purusha,But the quarter, which is in this world,Appears again and again,And from that is born the beings that take food,And those inanimate ones that don’t take food.And all these appeared for every one of us to see.उस पुरुष के दो तिहाई हिस्से इस ब्रह्माण्ड के बहार हैं, उसका केवल एक चौथाई हिस्सा ही इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त है , वह बार बार व्यक्त होता है ,उन जीवों के रूप में जो भोजन ग्रहण करते हैं, और उन निर्जीवों के रूप में भी जो कि भोजन ग्रहण नहीं करते , उनसब के रूप में जो हमारे आँखों के सामने हैं

तस्माद विराळ अजायत विराजो अधि पूरुषः |स जातोत्यरिच्यत पश्चाद भूमिमथो पुरः ||

Tasmaat Viraad Jayata. Viraajo Adhi Purusha.Sa Jaato Atya Richyata. Paschaad Bhoomi Matho Purah. 1-5

From that Purusha was born,The scintillating, ever shining universe,And from that was born the Purusha called Brahma,And he spread himself everywhere,And created the earth and then,The bodies of all beings.
उस पुरुष से ही यह चमकता हुआ ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ , जिससे ब्रह्मा  पुरुष उत्पन्न हुए , और ब्रह्मा जी ने ये पृथ्वी और जीवों के शरीर बनाये

यत पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |वसन्तोस्यासीदाज्यं गरीष्म इध्मः शरद धविः ||

Yat Purushena Havishaa. Devaa Yagna Matanvaat.Vasanto Asyaasee Daajyam. Greeshma Idhma Sharaddhavih. 1-6

The spring was the ghee,The summer was the holy wooden sticks,And the winter the sacrificial offering,Used or the sacrifice conducted by Devas through thought,In which they also sacrificed the ever-shining Purusha.
बसंत कि ऋतु घी थी , ग्रीष्म ऋतु पवित्र लकड़ी की लाट्ठी थी ,सर्दी की ऋतु हविष्य था और देवों ने पुरुष को यज्ञ में आहूत किया

Saptaasyasan Paridhayah. Tri Sapta Samidha Krutaah.Devaa Yad yagnam Tanvaanah. Abadhnan Purusham Pasum. 1-7

Seven meters were its boundaries,Twenty one principles were holy wooden sticks,And Devas carried out the sacrifice,And Brahma was made as the sacrifice .सात मीटर उसकी सीमा थी , इक्कीस आदर्श उसकी यज्ञ में इस्तेमाल होने वाली लकड़ियाँ थीं , देवताओं ने वह यज्ञ किया और ब्रह्मा जी की आहुति यज्ञ में दी गयी 

Tam Yagnam Barhisi Prokshan. Purusham Jaatam Agratah.Tena Deva Ayajanta. Saadhya Rushayasch ye. 1-8

Sprinkled they the Purusha,Who was born first,On that sacrificial fire.And the sacrifice was conducted further,By the Devas called Sadyas,And the sages who were there. तो इस प्रकार कौन उस यज्ञ की अग्नि में से सबसे पहले कौन प्रकट हुआ ?इस प्रकार उस यज्ञ को आगे बढाया गया, उन देवताओं द्वारा जो की सध्य कहलाते थे  और उन साधुओं  द्वारा जो वहां उपस्थित थे
Tasmaad Yagnat Sarva Hutah. Sam Brutam Prushada Ajyam.Pashus Ta Aschakre Vaayavyaan. Aaranyaan Graamyascha ye. 1-9

From this sacrifice called “All embracing”.Curd and Ghee came out,Animals  were born,Birds that travel in air were born,Beasts of the forest were born,And also born were those that live in villagesइस प्रकार उस यज्ञ जिसका नाम 'सर्वहुत ' था, सबसे पहले घी और दहीं  प्रकार हुए , फिर पशु, फिर पक्षी ,दैत्य जो जंगलों में रहते थे , और वो जो गाँव में रहते थे

 Tasmaad Yagnat Sarva Hutah.Rucha Saamanee Jagniree.Chanadaa Si Jagnire Tasmaat.Yajus Tasmaat Yaayata. 1-10

From this sacrifice called “All embracing”’The chants of Rig Veda were born,The chants of Sama Veda were born,And from that the well-known meters were born,And from that Yajur Veda was born. इस प्रकार उस यज्ञ जिसका नाम 'सर्वहुत ' था , ऋग्वेद की ऋचाएं प्रकट हुयीं ,  सामवेद की ऋचाएं प्रकट हुयीं , और छंद  प्रकट हुए , और यजुर्वेद प्रकट हुआ


Tasmad Ashwaa Ajaayanta. Ye ke chobhaya Ta Tah. Gavooha Janjire Tasmaat. Tasmad Gnata Ajaavayah. 1-11

From that the horses came out, From that came out animals with one row of teeth, From that came out cows with two rows of teeth, And from that that came out sheep and goats.


Yad Purusham Vyadhadhu.Katidhaa Vyakalpayan.Mukham Kimsya Ko Baahu. Kaavuruu Paada  Uchyaete. 1-12

When the Purusha was made By their thought process by the Devas,How did they make his limbs?How was his face made?Who were made as His hands?Who were made as his thighs and feet?जब देवताओं की चिंतन प्रक्रिया से उस पुरुष का जन्म हुआ , तो उसका मुख कैसे बना ,उसके हाथ पैर टांगें कैसे बनी ?


ब्राह्मणोंअस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः | ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||

Brahmanosya Mukham Aseed.Bahu Rajanya Krutah. Ooru Tadasys Yad Vaisya.Padbhyo Shudro Aajayata. 1-13


His face became Brahmins*, His hands were made as Kshatriyas*, His thighs became Vaisyas*, And from his feet were born the Shudras*. ब्राह्मन उसका मुख बने , क्षत्रिय उसकी भुजाएं बने , उसकी जांघें वैश्य थे और उसके चरणों से शूद्रों का जन्म हुआ

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत | मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च पराणाद वायुरजायत ||

Chandrama Manaso Jaatah.Chaksho Suryo Ajayata. Mukhad Indras Cha Agnis Cha.Pranad Vaayuarajayata. 1-14


From his mind was born the moon, From his eyes was born the sun, From his face was born Indra and Agni, And from his soul was born the air. उसके मन से चन्द्र बने , उसकी आँखों से सूर्य का जन्म हुआ ,उसके मुख से इन्द्र और अग्नि बने और उसके प्राणों से वायु बनी

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो दयौः समवर्तत | पद्भ्यां भूमिर्दिशः शरोत्रात तथा लोकानकल्पयन ||
Naabhya Aaseed Antareksham.Sheershno Dhou Samavartatah. Padbyaam Bhoomir Dishaa Srotrat.Tatha Lokaankalpayan. 1-15


From his belly button was born the sky, From his head was born the heavens, From his feet was born the earth, From his ears was born the directions, And thus was made all the worlds, Just by his holy wish. उस पुरुष की नाभि से आकाश का जन्म हुआ , उसके सिर से स्वर्ग बना ,उसके चरणों से पृथ्वी बनी , और उसके कानों से दिशाओं का जन्म हुआ , तथा इस प्रकार सभी लोकों{संसारों } का जन्म हुआ , केवल इस दिव्य इच्छा से


Vedahametam Purusham Mahantam.Aditya Varnam Tamasatu Paare, Sarvaani Roopani Vichintya Dheera. Namaani Krutwa Abhivadan Yadaaste. 1-16

I know that heroic Purusha, who is famous, Who shines like a sun, And who is beyond darkness, Who created all forms, Who named all of them, And who rules over them.मैं उस महान , प्रसिद्ध पुरुष को जानता हूँ , जो सूर्य के भांति चमकता है ,जो अन्धकार से परे है , जिसने सभी स्वरूपों को बनाया , जिसने सबको नाम दिया और जो सब पर राज्य करता है

Dhaata Purastaad Yamudhajahara.Shacra Pravidhaan Pradhisascha Tatra. Tamevam Vidwaan AnuMruthaiha Bhavati. Naanya Pantha Ayanaaya Vidhyate. 1-17

The learned one who knows that Purusha Whom the creator, considered as one before Him, And whom the Indra understood in all directions, Would attain salvation even in this birth, And there is no need for him to search for any other path.ज्ञानीजन उस पुरुष को जानते हैं , जो की सृष्टि से भी पहले था , जिसने इसको अची तरह से समझ लिया है , वह इस जन्म में ही मुक्ति प्राप्त कर लेगा , उसके लिए किसी दूसरे पथ को तलाशने  की आवश्यकता नहीं है

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि परथमान्यासन | ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याःसन्ति देवाः ||
 Yagnena Yagnamaya Janta Devaa. Taani Dharmani Pradhamanyasan. Teha Naakam Mahimaana Sachante.Yatra Poorve Saadhyaa Santi Devaa. 1-18


Thus the devas worshipped the Purusha, Through this spiritual yagna, And that yagna became first among dharmas. Those who observe this Yagna, Would for sure attain, The heavens occupied by Saadya devas. इसप्रकार देवताओं ने सबसे पहले पुरुष की आराधना की , यद्यपि यह एक अध्यात्मिक यज्ञ  था , फिर भी यह धर्म  में सबसे पहले हुआ , जो यह यज्ञ करते हैं, वे अवश्य ही  स्वर्ग को प्राप्त करेंगे जिनको सध्य देवताओं ने प्राप्त किया है

Adhbhyaa Sambhoota Pruthvyai Rasaascha.Viswakarmanas Samavartaadhi. Tasyas Twashtaa Vidhadh Drupameti.Tad Purushasya Vishwa Maajanam Agre. 2-1

From water and essence of earth was born, The all pervading universe. From the great God who is the creator, Then appeared that Purusha And the great God, who made this world, Is spread as that Purusha, in all fourteen worlds. And also the great form of Purusha, Came into being before the start of creation. जल और पृथ्वी से बनी हुयी है यह सृष्टि , जो सर्वत्र है , उस महान परमात्मा , जो कि सब कुछ करता है , उस पुरुष का जन्म हुआ , और वह पुरुष चौदह लोकों में फैला है , इस सृष्टि के आरंभ से पहले पुरुष की उत्पत्ति हुयी

Vedaham Etam Purusham Mahaantam.Aadityavarna Tamasa Parastaat. Tamevam Vidwan Amrutaiha Bhavati.Nanya Panthaa Vidhyate Ayanaaya. 2-2

I know that great Purusha, Who shines like the sun, And is beyond darkness, And the one who knows him thus, Attains salvation even in this birth, And there is no other method of salvation.
मैं उस महान , पुरुष को जानता हूँ , जो सूर्य के भांति चमकता है,जो अन्धकार से परे हैजो इसे जानता है, वही इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करता है , मुक्ति प्राप्त करने का कोई और मार्ग नहीं है


Prajapatis Charati Garbheantah. Aajayamano Bahudha Vijaayate. Tasya Dheera Parijananti Yonim. Mareechinaam Padamicchanti Vedhasah. 2-3

The Lord of the universe, Lives inside the universe, And without being born, Appears in many forms, And only the wise realize his real form, And those who know the Vedas, Like to do the job of, Savants like Mareechi.इस सृष्टि का स्वामी , इस सृष्टि में ही रहता है , और वह बिना जन्म लिए अनेक रूपों में प्रकट होता है , केवल विद्वान ही उसको उसके वास्तविक स्वरुप में पहचानते हैं , और जो वेदों के ज्ञाता हैं , वे मरीचि की भांति  पंडित  ,विद्वान का कार्य करते हैं

Yo Devebhya Aatapati. Yo Devaanaam Purohitah. Poorvo Yo Devebhyo Jaatah.Namo Ruchaaya Braahmaye. 2-4

Salutations to ever shining brahmam, Who gave divine power to devas, Who is a religious teacher of devas, And who was born before devas. उस ब्रह्म को प्रणाम है जिसने देवताओं को दिव्य शक्ति दी , जो कि देवताओं का अध्यात्मिक गुरु है , और जो देवताओं से भी पहले हुआ

Rucham Braahmam Janayantah.Devaa Agne Tadha Bruvan. Yastaiva Baraahmano Vidyaat. Tasya Deva Asan Vase. 2-5

The devas who teach the taste in Brahmam, Told in ancient times, That. He who has interest in Brahmam, Would have the devas under his control. उसे  जिसे ब्रह्म प्राप्ति में रूचि है , वह देवताओं को वश में कर लेता है , वो देवता जो ब्रह्म सुख का प्रतिपादन करते हैं


Hreescha Te Lakshmischa Patnyaou.Ahoratre Paarshwe. Nakshatraani Roopam.Ashwinou Vyaatam. 2-6

Hree and Lakshmi are your wives, Day and night are your right and left, The constellation of stars your body, And Aswini devas your open mouth. हे पुरुष , ह्री और लक्ष्मी आपकी दो पत्नियाँ हैं ,दिन और रात आपका दायाँ और बायाँ भाग हैं ,आपके सारे शरीर में तारे हैं और अश्विन देव आपके मुख पर हैं

Ishtam Manishaana.Amum Manishaana.Sarvam Manishaana. 2-7

Give us the knowledge that we want, Give us the pleasures of this world, And give us everything of this and other worlds.हे पुरुष आप हमें ज्ञान दीजिये , सुख दीजिये और इस लोक और दुसरे लोकों का सबकुछ दीजिये



पुरुष  सूक्तं , वैष्णव सम्प्रदाय के 5  सूक्तों में से एक है शेष चार सूक्त हैं नारायण सूक्तं, श्री सूक्तं , भू सूक्तं और नील सूक्तं

पुरुष सूक्तं को हम सबसे पहले ऋग्वेद में देखते हैं , ऋग्वेद के  दसवें मंडल का   90 वां सूक्त पुरुष सूक्त है , इसके बाद हम इसे सामवेद और अथर्ववेद में भी कुछ परिवर्तन के साथ देख सकते हैं

पुरुष सूक्त के शीर्षक पुरुष पुरुषोत्तम , नारायण हैं , जो की विराट पुरुष के रूप में हैं उनसे ही सारी सृष्टि  का निर्माण हुआ , इस सूक्त में बताया गया है कि उनके हज़ार सर  , कई आंखें , कई टांगें  हैं , वे हर जगह व्याप्त हैं , वे समझ से परे हैं , सारी सृष्टि उनका चौथा हिस्सा है केवल , और उनका बाकी का हिस्सा अव्यक्त है

वह पुरुष ब्रह्मा के रूप में मंद रहा , और अनिरुध नारायण जो कि  नारायण के चार रूपों में से एक है , ने कहा कि ''तुम कुछ करते क्यों नहीं ?''ब्रह्मा ने उत्तर दिया , '' क्यूंकि मैं कुछ जानता नहीं '' , तब अनिरुध नारायण ने कहा , '' तुम  यज्ञ करो , तुम्हारी इन्द्रियां  जो कि देवता हैं ,ऋत्विक बनेंगी , तुम्हारा शरीर हविष्य बनेगा , तुम्हारा ह्रदय यज्ञ कि वेदी बनेगा , मैं उस हविष्य को ग्रहण करूँगा , तुम अपने शरीर का बलिदान दो उससे सभी शरीर बनेंगे , ऐसा ही करो जैसा कि तुम अन्य कल्पो में करते आये हो ''

इस तरह से वह यज्ञ ''सर्वहूत '' यज्ञ हुआ { जिसमे सब कुछ की आहुति दी गयी हो } उत्पत्ति की संरचना इसप्रकार यज्ञ से हुयी इस यज्ञ में पुरुष को आहुति दी गयी , ब्रह्मा द्वारा , ऋत्विक ब्रह्मिन , देवता बने जो की ब्रह्मा की इन्द्रियां थे , यज्ञ प्रकृति रुपी वेदी पर किया गया , यज्ञ की अग्नि पुरुष का ह्रदय थी ,, यज्ञ में आहुति किसकी दी गयी  ?  पुरुष की , जिसमे सारी सृष्टि समाहित थी

इस प्रकार पुरुष सूक्त , प्रेम का सन्देश देता है की पुरुष स्वयं को ही सृष्टि की अग्नि  में ग्रहण करेगा , ताकि सृष्टि का सृजन हो सके , इस प्रकार आहुति , बलिदान से ही सारी सृष्टि का प्रारंभ हुया , यही पुरुष सूक्तं का सन्देश है ॐ 



REMARKS/EXTRA INFORMATION:


This was originally sung by Lord Brahma. This prayer is very dear to Lord Krsna.


श्री पुरुष सुक्तं | नारायण सूक्तम् Purusha sukta - Narayan suktam

श्री पुरुष सुक्तं :
ॐ तच्चं॒ योरावृ॑णीमहे । गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं य॒ज्ञप॑तये । दैवी॓ स्व॒स्तिर॑स्तु नः । स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॓ । शं चतु॑ष्पदे ।    ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑ ॥

स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः । स॒ह॒स्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात् ।  स भूमिं॑ वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वा । अत्य॑तिष्ठद्दशांगु॒लम् ॥
पुरु॑ष ए॒वेदग्ं सर्वम्॓ । यद्भू॒तं यच्च॒ भव्यम्॓ । उ॒तामृ॑त॒त्व स्येशा॑नः । य॒दन्ने॑नाति॒रोह॑ति ॥
ए॒तावा॑नस्य महि॒मा । अतो॒ ज्यायाग्॑‍श्च॒ पूरु॑षः । पादो॓‌உस्य॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ । त्रि॒पाद॑स्या॒मृतं॑ दि॒वि ॥
त्रि॒पादू॒र्ध्व उदै॒त्पुरु॑षः । पादो॓‌உस्ये॒हा‌உ‌உभ॑वा॒त्पुनः॑ । ततो॒ विष्व॒ण्-व्य॑क्रामत् । सा॒श॒ना॒न॒श॒ने अ॒भि ॥
तस्मा॓द्वि॒राड॑जायत । वि॒राजो॒ अधि॒ पूरु॑षः । स जा॒तो अत्य॑रिच्यत । प॒श्चाद्-भूमि॒मथो॑ पु॒रः ॥
यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॓ । दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत । व॒स॒ंतो अ॑स्यासी॒दाज्यम्॓ । ग्री॒ष्म इ॒ध्मश्श॒रध्ध॒विः ॥
स॒प्तास्या॑सन्-परि॒धयः॑ । त्रिः स॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः । दे॒वा यद्य॒ज्ञं त॑न्वा॒नाः । अब॑ध्न॒न्-पुरु॑षं प॒शुम् ॥
तं य॒ज्ञं ब॒र्॒हिषि॒ प्रौक्षन्॑ । पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒तः । तेन॑ दे॒वा अय॑जंत । सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये ॥
तस्मा॓द्य॒ज्ञात्-स॑र्व॒हुतः॑ । संभृ॑तं पृषदा॒ज्यम् । प॒शूग्-स्ताग्‍श्च॑क्रे वाय॒व्यान्॑ । आ॒र॒ण्यान्-ग्रा॒म्याश्च॒ ये ॥
तस्मा॓द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुतः॑ । ऋचः॒ सामा॑नि जज्ञिरे । छंदाग्ं॑सि जज्ञिरे॒ तस्मा॓त् । यजु॒स्तस्मा॑दजायत ॥
तस्मा॒दश्वा॑ अजायंत । ये के चो॑भ॒याद॑तः । गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॓त् । तस्मा॓ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑ ॥
यत्पुरु॑षं॒ व्य॑दधुः । क॒ति॒था व्य॑कल्पयन् । मुखं॒ किम॑स्य॒ कौ बा॒हू । कावू॒रू पादा॑वुच्येते ॥
ब्रा॒ह्म॒णो॓‌உस्य॒ मुख॑मासीत् । बा॒हू रा॑ज॒न्यः॑ कृ॒तः । ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ । प॒द्भ्याग्ं शू॒द्रो अ॑जायतः ॥
च॒ंद्रमा॒ मन॑सो जा॒तः । चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत । मुखा॒दिंद्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ । प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥
नाभ्या॑ आसीद॒ंतरि॑क्षम् । शी॒र्ष्णो द्यौः सम॑वर्तत । प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिशः॒ श्रोत्रा॓त् । तथा॑ लो॒काग्म् अक॑ल्पयन् ॥
वेदा॒हमे॑तं पुरु॑षं म॒हांतम्॓ । आ॒दि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑स॒स्तु पा॒रे । सर्वा॑णि रू॒पाणि॑ वि॒चित्य॒ धीरः॑ । नामा॑नि कृ॒त्वा‌உभि॒वद॒न्॒, यदा‌உ‌உस्ते॓ ॥
धा॒ता पु॒रस्ता॒द्यमु॑दाज॒हार॑ । श॒क्रः प्रवि॒द्वान्-प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः । तमे॒वं वि॒द्वान॒मृत॑ इ॒ह भ॑वति । नान्यः पंथा॒ अय॑नाय विद्यते ॥
य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजंत दे॒वाः । तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् । ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचंते । यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्यास्संति॑ दे॒वाः ॥
अ॒द्भ्यः संभू॑तः पृथि॒व्यै रसा॓च्च । वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त॒ताधि॑ । तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द्रू॒पमे॑ति । तत्पुरु॑षस्य॒ विश्व॒माजा॑न॒मग्रे॓ ॥
वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हांतम्॓ । आ॒दि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः॒ पर॑स्तात् । तमे॒वं वि॒द्वान॒मृत॑ इ॒ह भ॑वति । नान्यः पंथा॑ विद्य॒ते‌உय॑नाय ॥
प्र॒जाप॑तिश्चरति॒ गर्भे॑ अ॒ंतः । अ॒जाय॑मानो बहु॒धा विजा॑यते । तस्य॒ धीराः॒ परि॑जानंति॒ योनिम्॓ । मरी॑चीनां प॒दमिच्छंति वे॒धसः॑ ॥
यो दे॒वेभ्य॒ आत॑पति । यो दे॒वानां॓ पु॒रोहि॑तः । पूर्वो॒ यो दे॒वेभ्यो॑ जा॒तः । नमो॑ रु॒चाय॒ ब्राह्म॑ये ॥
रुचं॑ ब्रा॒ह्मं ज॒नय॑ंतः । दे॒वा अग्रे॒ तद॑ब्रुवन् । यस्त्वै॒वं ब्रा॓ह्म॒णो वि॒द्यात् । तस्य॒ दे॒वा अस॒न् वशे॓ ॥
ह्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्यौ॓ । अ॒हो॒रा॒त्रे पा॒र्श्वे । नक्ष॑त्राणि रू॒पम् । अ॒श्विनौ॒ व्यात्तम्॓ ।
इ॒ष्टं म॑निषाण । अ॒मुं म॑निषाण । सर्वं॑ मनिषाण ॥ तच्चं॒ योरावृ॑णीमहे । गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं य॒ज्ञप॑तये । दैवी॓ स्व॒स्तिर॑स्तु नः । स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॓ । शं चतु॑ष्पदे ।

ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑ ॥


2. नारायण सूक्तम् :

ॐ स॒ह ना॑ववतु । स॒ह नौ॑ भुनक्तु । स॒ह वी॒र्यं॑ करवावहै । ते॒ज॒स्विना॒वधी॑तमस्तु॒ मा वि॑द्विषा॒वहै॓ ॥ ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑ ॥ॐ ॥ स॒ह॒स्र॒शीर्॑षं दे॒वं॒ वि॒श्वाक्षं॑ वि॒श्वशं॑भुवम् । विश्वं॑ ना॒राय॑णं दे॒व॒म॒क्षरं॑ पर॒मं पदम् । वि॒श्वतः॒ पर॑मान्नि॒त्यं॒ वि॒श्वं ना॑राय॒णग्ं ह॑रिम् । विश्व॑मे॒वेदं पुरु॑ष॒-स्तद्विश्व-मुप॑जीवति । पतिं॒ विश्व॑स्या॒त्मेश्व॑र॒ग्ं॒ शाश्व॑तग्ं शि॒व-मच्युतम् । ना॒राय॒णं म॑हाज्ञे॒यं॒ वि॒श्वात्मा॑नं प॒राय॑णम् । ना॒राय॒णप॑रो ज्यो॒ति॒रा॒त्मा ना॑राय॒णः प॑रः । ना॒राय॒णपरं॑ ब्र॒ह्म॒ तत्त्वं ना॑राय॒णः प॑रः । ना॒राय॒णप॑रो ध्या॒ता॒ ध्या॒नं ना॑राय॒णः प॑रः । यच्च॑ कि॒ंचिज्जगत्स॒र्वं॒ दृ॒श्यते॓ श्रूय॒ते‌உपि॑ वा ॥
अंत॑र्ब॒हिश्च॑ तत्स॒र्वं॒ व्या॒प्य ना॑राय॒णः स्थि॑तः । अनंत॒मव्ययं॑ क॒विग्ं स॑मु॒द्रे‌உंतं॑ वि॒श्वशं॑भुवम् । प॒द्म॒को॒श-प्र॑तीका॒श॒ग्ं॒ हृ॒दयं॑ चाप्य॒धोमु॑खम् । अधो॑ नि॒ष्ट्या वि॑तस्या॒ंते॒ ना॒भ्यामु॑परि॒ तिष्ठ॑ति । ज्वा॒ल॒मा॒लाकु॑लं भा॒ती॒ वि॒श्वस्याय॑त॒नं म॑हत् । संतत॑ग्ं शि॒लाभि॑स्तु॒ लंब॒त्याकोश॒सन्नि॑भम् । तस्यांते॑ सुषि॒रग्ं सू॒क्ष्मं तस्मिन्॓ स॒र्वं प्रति॑ष्ठितम् । तस्य॒ मध्ये॑ म॒हान॑ग्निर्-वि॒श्वार्चि॑र्-वि॒श्वतो॑मुखः । सो‌உग्र॑भु॒ग्विभ॑जंति॒ष्ठ॒-न्नाहा॑रमज॒रः क॒विः । ति॒र्य॒गू॒र्ध्वम॑धश्शा॒यी॒ र॒श्मय॑स्तस्य॒ संत॑ता । स॒ंता॒पय॑ति स्वं दे॒हमापा॑दतल॒मस्त॑कः । तस्य॒मध्ये॒ वह्नि॑शिखा अ॒णीयो॓र्ध्वा व्य॒वस्थि॑तः । नी॒लतो॑-यद॑मध्य॒स्था॒द्-वि॒ध्युल्ले॑खेव॒ भास्व॑रा । नी॒वार॒शूक॑वत्त॒न्वी॒ पी॒ता भा॓स्वत्य॒णूप॑मा । तस्या॓ः शिखा॒या म॑ध्ये प॒रमा॓त्मा व्य॒वस्थि॑तः । स ब्रह्म॒ स शिवः॒ स हरिः॒ सेंद्रः॒ सो‌உक्ष॑रः पर॒मः स्व॒राट् ॥
ऋतग्ं स॒त्यं प॑रं ब्र॒ह्म॒ पु॒रुषं॑ कृष्ण॒पिंग॑लम् । ऊ॒र्ध्वरे॑तं वि॑रूपा॑क्षं॒ वि॒श्वरू॑पाय॒ वै नमो॒ नमः॑ ॥
ॐ ना॒रा॒य॒णाय॑ वि॒द्महे॑ वासुदे॒वाय॑ धीमहि । तन्नो॑ विष्णुः प्रचो॒दया॓त् ॥   ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑ ॥
राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥ रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥ वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: । जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥ इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: । अश्वमेधायुतं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥

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