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Scientific principles of Voodoo practices, Tantrik abhichaar by Putli vidhya, पुतली विद्या

Putli Vidhya Voodoo पुतली-विद्या (गढ़ंत विद्या)अभिचार कर्म रहस्य सिद्धान्त एवं निदान

अघोरपंथ के एक जंगलवासी साधक से इस विद्या को सीखने के लिए पहली बार मुझे ज्योतिष की भी शिक्षा उससे लेनी पड़ी थी। यह विद्या इस प्रकार है –

पुतली विद्या का स्वरुप और विधि प्रक्रिया

इसी प्रकार की एक विद्या अफ्रीका में भी ‘वुडु विद्या’ के नाम से चर्चा में रही है ; पर उसकी प्रकिया मुझे ज्ञात नहीं है। हमने अघोरपंथ की प्रक्रिया को सिद्ध करके देखा था। यह एक विद्या है और केवल विनाशक नहीं है। इससे दूर बैठकर किसी भी स्त्री-पुरुष के गंभीर लाइलाज रोगों की भी चिकित्सा की जा सकती है और इसका उपयोग वशीकरण, मोहन, स्तम्भन से लेकर मारण कार्यों तक किया जा सकता है।

पहला चरण – शत्रु के नक्षत्र का ज्ञान करना।

दूसरा चरण – साध्य के नक्षत्र वृक्ष, उसके बाल या अधोवस्त्र, काली मिट्टी का सात बार जल में घोलकर कपड़े से छने पानी में बैठी मिट्टी, चिता या साध्य के प्रयोग की वस्तु को जलाकर की गयी राख, नमक (सेंधा), सोंठ, पीपल , काली मिर्च , रसोई की कालिख , लहसुन , हिंग, गेरू, पीली सरसों , काली सरसों, ईख का रस या गुड़ , नीम की छाल का पिष्ठ आदि वस्तुओं का कर्म के अनुसार चयन किया जाता है। इसके बाद उड़द के आटे से पुतली का निर्माण होता है। बालों से बाल एवं रोमों की स्थापना की स्थापना की जाती है।

तीसरा चरण – यह पुतली नक्षत्रों के चारों चरणों के अनुसार अलग अलग होती है यानी 27×4 = 108 प्रकार की। इन सबकीलम्बाई अलग – अलग होती है (गुप्त)

चौथा चरण – पुतली की जो भी लम्बाई हो, उसके सिर से गर्दन का हिस्सा भाग , कमर से कंधों अक हिस्सा – 4 भाग एवं कमर से नीचे का हिस्सा उभाग होता है।

कर्म विधि

सबसे कठिन इसकी विधि प्रकिया है। राध्य की लग्न या चन्द्र राशि, से अशुभ कर्मों के लिए अष्टम और शुभ कर्मों के लिए पंचम भाव की स्थिति का प्रयोग किया जाता है। अशुभ कर्मों में जब अष्टम भाव (लग्न राशि में) दुर्बल और पंचम भाव बली होता है।
इसके अतिरक्ति समयकाल की राशि को भी इसी के अनुरूप चुना जाता है।
प्रत्येक स्त्री/पुरुष के शरीर में अमृत स्थान एवं विष- स्थान होते हैं। इनकी गति और व्याप्ति भी महीने के 30 दिन में चन्द्र तिथि के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। पुरुष एवं नारी में यह स्थिति विपरीत क्रम में होती है। कर्म के अनुसार इसका भी चयन करना होता है।
प्राण – प्रतिष्ठा

इसके बाद इस पुतली की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इसकी एक अलग प्रकिया है।

इसके बाद क्रियात्मक और हवन आदि

प्राण प्रतिष्ठा के बाद वशीकरण , आकर्षण , विद्वेषण , स्तम्भन , उच्चाटन और मारण की क्रियाएं शुभाशुभ भेद से तिथि , आकल, राशि-साध्य का शुभाशुभ काल आदि देखकर किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार विषयोग , मृत्यु योग, शूल योग, कंटक योग आदि अशुभ और इसी प्रकार शुभ योगों का चयन करके क्रिया की जाती है।

यह एक जटिल तंत्र क्रिया है। इन सारी क्रियाओं को करने में महीनों का वक्त लगता है।

अमृत स्थान एवं विष स्थान
शरीर में अमृत-स्थान:-
1. पुरूष में दांये से– (शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक) – अंगूठा, पैर, पीठ, कुहनी, घुटना, लिंग, नाभि, ह्रदय, स्तन, गला, नाक, कान, नाक, आँख, भों, कनपट्टी, कपोल, मूर्धा. इन तिथियों में यहाँ अमृत उत्त्पन्न होता है.
2. स्त्री में बाएं से – यही क्रम नारी में शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक बांये से दांये होता है.
3. कृष्ण प्रतिप्रदा से अमावस्या तक – (पुरूष में) ऊपर के क्रम का उल्टा यानी मूर्द्धा से नीचे की ओर |
4. कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक – (स्त्री में) उपर से नीचे उल्टा !

शरीर में विष-स्थान-
1. शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक–  ह्रदय, स्तन, कंठ, नाक, आँख, कान, भृकुटी-मध्य, मूर्धा-मध्य, शंख-मध्य, इस समय इन स्थानों से विषों की उत्त्पत्ति होती है और यह ऊपर की ओर गतिमान होता है |
2. शुक्ल दशमी से कृष्ण नवमी तक– भ्रूमध्य, शंखमध्य, कान, आँख, नाक, कंठ, स्तन, ह्रदय, नाभि, गुदामार्ग, जांघों की संधि, घुटने, पावों, पर का ऊपरी भाग, बांये पैर का अंगूठा, बाया पैर, इस काल में यहाँ विष उत्त्पन्न होता है और नीचे की और चलता है |
3. कृष्ण दशमी से अमावस्या तक – दाहिने पैर का अंगूठा, दायाँ पैर, पिंडली, घुटने, नाभि, लिंग या योनि, इस समय इन स्थानों से विष की उत्त्पत्ति होती है. इसकी गति वर्तुलाकार होती है |
विशेष – स्त्रियों में, जहाँ भी बांया-दांया लिखा है उसे उल्टा समझना चाहिए |

शुक्ल प्रतिपदा से पुरूष के दायें अंगूठे से उपर की और नारी में बांये अंगूठे से ऊपर की ओर एवं कृष्ण प्रतिपदा से पुरूष में ऊपर से बाएं होते बांये अंगूठे तक और नारी में दांये होते है|

शरीर के रहस्यमय मर्मस्थान:-
दो अंगूठे, दो घुटने, दो जंघाएँ, दायें बांये दो पीठ, दो उरू, एक सिवनी, एक गुदा, एक लिंग या योनि, दो पार्श्व, एक ह्रदय, दो स्तन, एक कंठ, दो कंधे, दो भृकुटी, दो कान, दो कनपट्टी, दो फाल, दो नासिकाएं, दो आँखें, दो कपाल – ये ३८ मर्म स्थान है !

निर्माण के पदार्थ:-
साध्य के बाल, प्रयोग किये अधोवस्त्र, कुम्हार के चाक की मिट्टी, साध्य के नक्षत्र वृक्ष की छाल, उड़द का आटा, पीपल, काली मिर्च, और गेरू –
ये शुभ कार्य के लिए प्रयुक्त होता है, अशुभ कार्य के लिए रसोई की कालिख, चिता की राख, सेंधा और समुद्री नमक, हींग, सोंठ, लहसुन भी मिलाया जाता है. बाल को छोड़ कर सभी को कूट कर पुतली बनाई जाती है. बाल से काट कर रोम और सर सहित अन्य बालों का प्रत्यारोपण किया जाता है|

होता क्या है?
किसी भी व्यक्ति के बाल, दांत आदि शरीर से अलग होकर तुरंत निष्क्रिय नहीं होते। ये 90 दिनों तक तो अपने आप ऊर्जा का उत्पादन करते रहते है और यह ऊर्जा उस व्यक्ति के शरीर की ऊर्जा के पॉजिटिव होती है। इसका रिसीवर केवल उस व्यक्ति का शरीर होता है। पुतली को छेदने, काटने , तपाने , द्रव्य में डालने आदि का प्रभाव उस स्त्री/ पुरुष पर होता है शक्तिशाली होता है। वह पृथ्वी पर कहीं भी हो, उसको प्रभावित करती है।

निदान

यदि कोई व्यक्ति स्त्री या पुरुष इससे पीड़ित है। कहीं कोई ऐसी तन्त्र क्रिया किया करता है, तो उसे ढूंढना और पुतली को नष्ट करना असम्भव है। इसके द्वारा तेज दर्द, सुई चुभने या भाला मारने जैसी पीड़ा , काटने – चीरने जैसी पीड़ा , ज्वर , उन्माद आदि भयानक रूप ले लेता है। जब तक पुतली पर अत्याचार होता रहेगा , पीड़ित भी पीड़ित रहेगा। कोई उपचार कारगर नहीं होगा। जो लोग इस विद्या को जानते मिले, उनका निदान एक मात्र था; पुतली ढूंढ कर नष्ट करो।

पर इसका एक निदान और भी रूप में पूर्णतया संभव है, जिसको मैंने करने जी न्यूज चैनल वालों दिखाया था। जप पीड़ित है, उसका पूरा ऊर्जा समीकरण ही बदल दो। वह उस पुतली की तरंगों का नेगेटिव रहेगा ही नहीं और वे अपने टारगेट को ढूंढती ही रह जाएगी।

कितने विस्मय की बात है। मिसाइलों , मोबाइल फोन, रेडियो सिग्नल , विभिन्न प्रकार के सेंसरों में इन्ही तरंगों की क्रियाएं होती है और सूत्र भी यही होता है; पर जब इस प्रकार की क्रियाओं की बात होती है; व्यक्ति इसे या तो चमत्कार समझ लेता है या काला जादू। हम लाख समझाएं लोग मानने के लिए तैयार नहीं कि यह कोई जादू नहीं है, इनमें भी वैज्ञानिक सूत्र ही काम करते हैं।

गड़ंत नष्ट करने हेतु परविद्या भक्षणी प्रयोग:-

इस मंत्र की यह विशेषता है कि विरोधी द्वारा प्रयोग की गई  विद्या का हरण कर, शमन कर देती है।
यह विद्या 1 लाख जप से सिद्व होती है। जिसे 14 से 21 दिनों में पूर्ण कर लेते हैं। यदि यह प्रोग्राम ठीक चला तो 5 किलो मीटर तक कोई भी विद्या कार्य नही करेगी। यदि इस मंत्र के बाद विपरीत प्रत्यगिरा मंत्र लगा कर जाप करे तो वह गड़ंत को नष्ट कर देता है।

संकल्प : ऊँ तत्सद्य..........प्रसाद सिद्धी द्वारा पर कृत्या नष्टार्थे पर-मंत्र, पर-तन्त्र, पर-यंत्र भक्षार्थे च मम सर्वाभीष्ठ सिद्धियर्थे भगवती बगला मूलमंत्र सम्पुटे पर विद्या भक्षिणी मंत्र एक लक्ष जपे अहम् कुर्वे।

मंत्र - परविद्या भक्षणी मन्त्र (127 अक्षर)

ऊँ ह्लीं श्रीं ह्रीं ग्लौं ऐ क्लीं हुं क्षौं बगला मुखि पर प्रयोगम् ग्रस ग्रस, ऊँ 8 ब्रम्हास्त्र रूपिणि पर विद्या-ग्रासिनि! भक्षय भक्षय, ऊँ 8 पर-प्रज्ञा हारिणि! प्रज्ञां भ्रंशय भ्रंशय ऊँ 8 स्तम्भ नास्त्र रूपिणि! बुद्धिं नाशय नाशय, पच्चेन्द्रिय-ज्ञांन भक्ष भक्ष, ऊँ 8 बगला मुखि हुं फट् स्वाहा।
( जहाँ 8 है वहां ह्लीं से क्षौम तक पढ़ें )

विनियोग : ऊँ अस्य श्री पर विद्या-भेदिनी बगला मुखी मन्त्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, पर विद्या भक्षिणी श्री बगलामुखी देवता, आं बीजं, ह्ल्रीं शक्ति, क्रो कीलंक, श्री बगला-देवी-प्रसाद सिद्धि द्वारा पर-विद्या भेदनार्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास : श्री ब्रह्मर्षये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, पर विद्या भक्षिणी श्री बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, आं बीजाय नमः गुहो, ह्ल्रीं शक्तिये नमः पदियोः, क्रों कीलकाये नमः सर्वाग्ङे, श्री बगलादेवी प्रसाद सिद्धि द्वारा पर विद्या भेदनार्थेजपे विनियोगाय नमः अज्जलौ।

कर-न्यास : आं हृीं क्रों अंगुष्ठाभ्यां नमः, वद वद तर्जनीभ्यां स्वाहा, वाग्वादिनि मध्यमाभ्यां वषट्, स्वाहा अनामिकाभ्यां हुं, ऐ क्लीं सौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ह्ल्रीं करतल-कर-पुष्टाभ्यां फट्।

अग्ङ न्यास : आं ह्ल्रीं क्रों हृदयाय नमः, वद वद शिर से स्वाहा, वाग्वादिनि शिखायै वषट्, स्वाहा कवचाय हुं, ऐं क्लीं सौ नेत्र-त्रयाय वौष्ट्, ह्ल्रीं अस्त्राय फट्।

ध्यान - 

सर्व मंत्र मयीं देवीं, सर्वाकर्षण-कारिणीम्।
सर्व विद्या भक्षिणी च भजेऽहं विधि पूर्वकम्।

हवन सामग्री : हल्दी, पीली सरसों साबुत लाल मिर्च हवन सामग्री जिसे कडुवे तेल में साना गया।

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