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Panchang पंचांग

 पंचांग- पाँच अंग है, 
1. तिथि
2. वार
3. नक्षत्र
4. योग 
5. करण। 

इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ (पद्धति) हैं- 
1. चंद्र आधारित
2. नक्षत्र आधारित 
3. सूर्य आधारित  ।

(1)चंद्र आधारित:-
एक वर्ष में 12 महीने होते है, और प्रत्येक महीने में 15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। 
कृष्ण पक्ष में चंद्रमा की कलाएं घटती है और शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कलाएं बढ़ती है। 
दो पक्षो का एक माह और छ माह का एक अयन होता है। और दो अयनों क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन को मिलाकर एक वर्ष होता है। 
मकर संक्रांति को सूर्य उत्तरायण हो जाएगा मतलब गर्मियों में पूरे से उत्तर की ओर खिसका रहता है और सर्दियों में थोड़ा दक्षिण की तरफ खिसका रहता है। 

नक्षत्र:- नक्षत्रों की संख्या 27 है, जो इन दो अयनों की राशियों में भ्रमण करते रहते है। माना जाता है कि ये 27 नक्षत्र असल में दक्ष प्रजापति की पुत्रियां ही है, जो चन्द्रमा से ब्याही गई थी। 27 नक्षत्रों के नाम इस प्रकार है- चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और हस्त। ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य ‘अभिजीत’ नक्षत्र भी माना जाता है।

चंद्रवर्ष के अनुसार, जिस भी महीने की पूर्णमासी को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है, उसी नक्षत्र के नाम पर उस महीने का नाम रखा गया है जो इस प्रकार है:- 

चित्रा नक्षत्र के नाम पर चैत्र मास, विशाखा नक्षत्र के नाम पर वैशाख, ज्येष्ठा के नाम पर ज्येष्ठ, आषाढ़ा के नाम पर आषाढ़, श्रवण के नाम पर श्रावण, भाद्रपद के नाम पर भाद्रपद, अश्विनी के नाम पर अश्विन, कृतिका के नाम पर कार्तिक, पुष्य के नाम पर पौष, मघा के नाम पर माघ और फाल्गुनी के नाम पर फाल्गुन मास। 

वार:– वार संख्या में 7 होते है। सात वारों के नाम इस प्रकार है:- सोमवार, मंगलवार से रविवार तक। वारों के नामकरण में होरा की भूमिका है |

तिथि:- तिथियों की संख्या 16 है जो इस प्रकार है:- प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्टी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या। 
जैसे की पहले ही ऊपर बताया गया है, एक मास में 15-15 दिनों के दो पक्ष होते हैं। प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक की तिथियां दोनों पक्षों में आती हैं। प्रतिपदा से लेकर से लेकर अमावस्या तक कृष्ण पक्ष रहता है, और प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष रहता है। 
प्रत्येक तिथि की अवधि 19 घण्टे से लेकर 24 घण्टे तक की होती है। 

योग:- 
सूर्य- चंद्र कि विशेष दूरियों की स्तिथियों को योग कहते हैं। 
जो संख्या में 27 हैं। 
इनके नाम इस प्रकार है- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्यमान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतिपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इंद्र और वैधृति। 

27 योगों में से, विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिघ और वैधृति कुल 9 योगों को अशुभ माना गया है तथा सभी प्रकार के शुभ कामो में इनसे बचने की सलाह दी जाती है। 

करण:- एक तिथि में दो करण होते हैं। एक पूर्वार्ध में और एक उत्तरार्ध में। 
कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। विष्टि करण को ही भद्रा कहा गया है। 

भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने जाते है। 

तिथियां संख्या में १६ होती है जो इस प्रकार है:- प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्टी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा। 
सबसे पहले तो यह जानिए की “तिथि” होती क्या है। चंद्रमा की एक कला को “तिथि” कहा जाता है। चंद्रवर्ष के अनुसार एक महीने में १५-१५ दिनों के दो पक्ष:- कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष होते है, शुक्ल पक्ष को ही सुदी कहते है, और कृष्ण पक्ष को बदी। दोनों पक्षो को मिलाकर एक चंद्रमाह में ३० तिथियां होती है। यहाँ थोड़ी सी जानकारी भ चक्र या राशि चक्र के बारे में भी ले लेते है। राशि चक्र तारामंडलों का वह समूह है जो उस मार्ग पर आते है जिस मार्ग से सूर्य एक वर्ष में खगोलीय गोले का एक चक्कर लेता है, इस चक्र को १२ बराबर भागों में बांटा गया है, जो १२ राशियां है। प्रत्येक राशि का मान ३० अंश होता है। इस प्रकार राशि चक्र में ३६० अंश होते है, और एक महीने में तिथियों की संख्या ३०, अतः ३६०/३०= १२ अंश की एक तिथि होती है। 
तिथि का मान चंद्रमा और सूर्य के अंशों में अंतर करने पर आता है। चंद्रमा अपने परिक्रमण पथ पर एक दिन में १३ अंश आगे बढ़ता है वहीँ सूर्य एक दिन में एक अंश आगे बढ़ता है, जिससे सूर्य से चंद्रमा की दूरी १३-१ = १२ अंश की होती है। 
यह सूर्य और चंद्रमा की गति का अंतर है और यही “तिथि” है। 
चंद्रमा की अनियमित गति के कारण कभी कभी यह अंतर इतना हो जाता है कि एक ही वार में दो या तीन तिथियों का स्पर्श हो जाता है, तब बीच वाली तिथि का लोप माना जाता है और उसे “क्षय तिथि” कहा जाता है। 
इसी प्रकार असंतुलित गति के कारण ही कभी कभी एक ही तिथि में दो या तीन वारों का स्पर्श भी हो जाता है, तब उसे “वृद्धि तिथि” कहते है। तिथियां सूर्योदय से सूर्योदय तक नही होती, बल्कि एक निश्चित समय से दूसरे दिन एक निश्चित समय तक रहती है। 
प्रत्येक तिथि की अवधि समान नही होती। तारीख़ तथा वार २४ घण्टे के होते है, लेकिन तिथि सदा २४ घण्टे की नही होती, तिथि में वृद्धि-क्षय होते है। 
कभी कभी एक ही तिथि दो दिन हो जाती है, तो कभी एक दिन में ही दो तिथि भी हो जाती है। इसका कारण यह है कि तारीख़ तथा वार, सौरमान से होते है किन्तु तिथि, नक्षत्र और योग चंद्रमान से होते है। 
सौरमान से जहाँ एक सौरदिन २४ घण्टे का होता है वहीँ एक चंद्रदिन लगभग २४ घंटे ५४ मिनट का होता है। 
सौरमान और चंद्रमान में लगभग ५४ मिनट का अंतर होता है, इसीलिए तिथि में वृद्धि या क्षय होना स्थान विशेष के सूर्योदय पर निर्भर करता है। 
वृद्धि और क्षय, दोनों ही प्रकार की तिथियां अतिनिन्दित मानी गई है, इनमें मंगल कार्य वर्जित कहे गए है। 
तिथि निर्णय जिस कर्म का जो काल हो, उस काल में व्याप्त तिथि जब हो तब उस कर्म को करना चाहिए। 

तिथि की वृद्धि-क्षय से ज्यादा फ़र्क नही पड़ता। सूर्योदय से मध्यान्ह तक जो तिथि न हो, वह खंडित माननी चाहिए, उसमे व्रतों का आरंभ अथवा समाप्ति नही करनी चाहिए। 
एकादशी व्रत के लिए सूर्योदयव्याप्त तिथि लेनी चाहिए। यदि दो दिन एकादशी में ही सूर्योदय हो रहा हो तो व्रत दूसरे दिन करना चाहिए। जिस तिथि में सूर्योदय हो, उसे पूर्ण तिथि मानते है।

दैवकर्म में पूर्णाहव्यापिनी, श्राद्धकर्म में कुतुपकाल (८ वाँ मुहूर्त) व्यापिनी तथा रात्रि(नक्त) व्रतों में प्रदोषकालव्यापिनी तिथि लेनी चाहिए। 

तिथियों की संज्ञा तिथियों की पांच संज्ञाएं मानी गई है जो इस प्रकार है- 
नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। 
1. प्रतिपदा, षष्टी और एकादशी, ये “नंदा” तिथि है।
2. द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी, ये ” भद्रा” तिथि है। 
3. तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी, ये “जया” तिथि है। 
4. चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी, ये “रिक्ता” तिथि है। 
5. पंचमी, दशमी, अमावस और पूर्णिमा, ये “पूर्णा” तिथि है। 
सिद्धा तिथि सिद्धातिथि सब दोषों का नाश करती है, और भक्तिभाव से किए गए सभी कार्य सिद्ध करती है। 
1. प्रतिपदा, षष्टी और एकादशी, अगर “शुक्रवार” को हो, 
2. द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी, “बुधवार” को हो, 
3. तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी, “मंगलवार” को हो, 
4. चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी, “शनिवार” को हो 
5. पंचमी, दशमी, अमावस और पूर्णिमा, “गुरुवार” को हो तो ऐसी तिथियों को “सिद्धा तिथि” माना जाता है। 

तिथियों के फलाफल:- 
प्रतिपदा सिद्धि देने वाली है, द्वितीया कार्यसाधन करने वाली है, तृतीया आरोग्य देने वाली है, चतुर्थी हानिकारक है,पञ्चमी शुभ देने वाली है, षष्ठी अशुभ है, सप्तमी शुभ है,अष्टमी व्याधि नाश करती है, नवमी मृत्यु देने वाली है, दशमी द्रव्य देने वाली है, एकादशी शुभ है, द्वादशी-त्रयोदशी सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है, चतुर्दशी उग्र है, पूर्णिमा पुष्टि देने वाली है तथा अमावास्या अशुभ है। 

नन्दा तिथि खुशियों को बढ़ाने के लिए उपयुक्त मानी जाती है इसलिए यह मनोरंजन पार्टी और मूवी रिलीज आदि से सम्बन्धित कार्यों के लिए शुभ फलदायी होती है. भद्रा से भाग्य का विचार किया जाता है और यह स्वास्थ्य, सफलता, नई नौकरी एवं व्यवसाय की शुरुआत तथा किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से मुलाकात के लिए शुभ होती है. जया तिथि उच्च अंक से सफलता, जैसे- प्रतियोगिता, परीक्षा तथा मुकेदमेबाजी के लिए शुभ होती है. रिक्ता तिथि अशुभकारी फलों को शुभ बनाने तथा किसी चीज से छुटकारा पाने, जैसे- सर्जरी दुश्मनों के खात्मा और कर्ज से मुक्ती के लिए उपयुक्त होती है. इसी तरह पूर्णा तिथि परिपूर्णता तथा बहुलता के सन्दर्भ में शिक्षा. खेती आदि के लिए शुभ फलदायी होती है.

 नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा. 1-6-11 तिथि को नन्दा तिथि कहते हैं यह तिथि खुशी को दर्शाती है. 2-7-12 तिथि को भद्रा कहा जाता है वृद्धि को दर्शाती है. 3-8-13 जया तिथि कही जाती हैं, इनमें विजय की प्राप्ति होती है. 4-9-14 रिक्ता तिथि होती हैं यह अधिक अनुकूल नहीं होती हैं. 5-10-15 पूर्णा तिथियों में आती हैं यह शुभता को दर्शाती हैं.


ग्रहों की जन्मतिथि सप्तमी- सूर्य की, चतुर्दशी- चन्द्रमा की, दशमी- मंगल की,द्वादशी- बुध की, एकादशी- बृहस्पति की, नवमी- शुक्र की,अष्टमी- शनि की, पूर्णिमा- राहु की तथा अमावास्या केतु की जन्मतिथियाँ हैं, इन्हें शुभ कार्य में वर्जित करनी चाहिये।

तिथि दोष शांति पूजा TithiDosha Shanti Puja upay

तिथि दोष शांति पूजा Tithi Dosha Shanti Puja upay


Janam Dosha - If Child birth on below tithis then it requires shanti
1. Amavasya birth
2. Krishnapaksh Chaturdashi birth
3. Kshaya Tithi birth
4. Gand Tithi Birth

1. Birth on Amavasya – Birth of a child or any other animal like elephant, horse, and buffalo on Krishnapaksh Amavasya results to the destruction of property at that place. Whereas birth of the cow, bird, deer, or maid child is related to the financial losses.

If it is Kuhu Amavasya then there is a destruction of life and money both. If born on Darsh Amavasya then parents become poor, or become blind. 

In this situation it is must to compose or balance the Amavasya Tithi by performing the shanti puja and offerings by a priest (Brahmana), it helps the child from self destruction.
Related God- Rudra, Indra, Pitr.
Ten offerings- cow, cloths, gold, land, til, ghee, grains, jaggery, salt and silver.

2. Krishnapaksh Chaturdashi Birth:-
Krishnapaksh Chaturdashi is divided into six parts.Its first part is auspicious; however its other parts are very inauspicious. The second part is associated with the loss of father, third part is death of mother, third part is destruction of maternal uncle and his genetics, fourth part destroys the self lineage and sixth part is the loss of money and children. Therefore any child born with the second to sixth part need to do Gomukh Prasav Shanti.                                                   God- RUDRA.


3. Kshaya Tithi Birth
There is no special crisis related with the child born under Kshaya Tithi. However the shanti puja is still favorable.

4. Birth on Gand Tithi 
(BIRTH in the later ghatika’s of Panchami, Dashmi, Poornima and Amavasya Tithi or in the First ghatika (1 ghatika= 24 minutes) of Shasthi, Ekadashi, Krishna Pratipada and Shukla Pratipada) Tithi then it falls under “Tithi Gand”.

In Tithi Gand, birth of a Purvardhan child then immediately this shanti Puja should be performed after the jananshauch (bathe after 10 days of the birth of child).  

Offerings should be bull and wealth. If the child is born Uttarardhan in the Tithi Gand then only shanti needs to be performed. Chaturthi’s 8 ghatika (8*24 minutes), Shashti’s 9, Ashtami’s 14, Navami’s 25, Dwadashi’s 10 and Chaturdashi 5 ghatika’s are supposed to be prohibited.


जनन शांती – माहिती ,कधी जनन शांती करावी
जनन शांती म्हणजे जन्माच्या वेळेचा अशुभ असा काळ विविध वाईट योगावर जन्म झाल्यानंतर त्या बाळावर येणारी संकटे, पीडा व त्याच्या जवळच्या नातेवाईकास होणारा मानसिक त्रास याचे वर्णन आपल्या ग्रंथात आढळते. आणि या कुयोगामुळे त्या बाळाला सुद्धा मानसिक त्रास, आरोग्य विषयक समस्या, शैक्षणिक उत्कर्षास बाधा होणे असा प्रकारचा त्रास होऊ शकतो. त्यामुळे आपल्या ऋषी मुनींनी यावर सविस्तर उपाय करून ठेवले आहेत. आपल्या हातुन त्या देवतेचे विधिवत पूजन झाल्यास तो दोष निघून जातो व प्रसन्नता लाभते.


शक्यतो बालकाच्या जन्मापासून  बाराव्या दिवशी जनन शांती करावी त्यावेळी मुहूर्त वगैरे पाहण्याची आवश्यकता नाही त्यावेळी नाही जमल्यास योग्य दिवशी मुहूर्त पाहून अग्नी पृथ्वी वर असताना  योग्य गुरुजींकडून करून घ्यावी .

सर्व साधारण पुढील कुयोगावर जन्म झाल्यास शांती करतात. – तिथी , कृष्ण चतुर्दशी , अमावस्या , क्षयतिथी – रुद्र अभिषेक + शांती

पंचमी + षष्ठी, दशमी – एकादशी, पौर्णिमा – प्रतिपदा – अमावस्या प्रतिपदा – ह्यांच्या संधीकालच्या दोन घटी यांना तिथी गंडात म्हणतात. लग्न मुंड

(शांती) कर्क – सिंह, वृश्चिक – धनु – मीन – मेष, ह्यांच्या लग्न संधीच्या घटिकेला लग्न गंडांत म्हणतात.

अन्य कारणे : यमल (जुळी संतती), एकनक्षत्र (भावंडांचे एकच नक्षत्र किंवा आई/वडील व मूल यांचे एकच नक्षत्र असल्यास), त्रिकप्रसव (तीन पुत्रांनंतर कन्याजन्म किंवा तीन कन्यांनंतर पुत्रजन्म), सदंत (दात असलेल्या बालकाचा जन्म), अधोमुखजन्म (पायाळू), षड्ग्रहादि (पत्रिकेतील एकाच स्थानात ६ ग्रहांची युती असेल तर), (पौष महिन्यात स्त्रीची पहिली प्रसूती झाली तर), विपरीतजनन (चमत्कारिक अवयव, अवयवन्यूनता व अवयवाधिक्य), इ. या अशा वेगवेगळ्या शांती मध्ये देवता त्यांच हवन वेगवेगळं असतं तसेच जनन शांती सोबत गोप्रसव शांत केली जाते त्यामधे गाईची पूजा, गाईला तीन प्रदक्षिणा गाईने बालकाला हुंगणे अवघ्राण म्हणजे मातापित्यांनी बालकाची टाळू हुंगणे इत्यादी अंतर्भूत असते .  शिवाय जातकाचा जन्म झाल्यावर योग्य ज्योतिषांकडून त्याची पत्रिका बनवून घ्यावी योग्य वेळी ह्या सगळ्या शांती केल्या म्हणजे बालकाचे भविष्य उज्वल होते

धर्मसिंधुप्रमाणे जननशांती शास्त्रार्थ
१) मूळ नक्षत्राच्या प्रथम चरणावर पुत्राचा जन्म झाल्यास पित्याला त्रास संभवतो. तिसर्‍या चरणी धननाश व चतुर्थ चरणी कुलनाश होतो. तसेच मूळ नक्षत्राच्या प्रथम चरणावर पुत्रीचा जन्म हा सासऱ्यासाठी व द्वितीय चरण सासू

साठी त्रासदायक ठरते. पुढील चरणांचे फल तसेच जाणावे. म्हणून मूळ नक्षत्राच्या कोणत्याही चरणावर जन्म झाला असल्यास शांती करावी. ज्येष्ठा नक्षत्राच्या शेवटच्या दोन घटिका म्हणजे ९६ मिनिटे व मूळ नक्षत्राच्या सुरवातीच्या दोन घटिका म्हणजे ९६ मिनिटे या १९२ मिनिटांच्या कालावधीस अभुक्त मूळ असे म्हणतात. अभुक्त मूळ असता जन्म झाल्यास आठ वर्षे बालकास अन्यत्र ठेवावे (म्हणजेच त्याचा त्याग करावा.) व त्यानंतर त्याची शांती करावी. मूळ नक्षत्राचा दोष आठ वर्षे पर्यंत असतो. म्हणून इतका काल पर्यंत मुलाचे दर्शन वर्ज्य करावे.

२) आश्‍लेषा नक्षत्राच्या द्वितीय चरणी धननाश, तिसर्‍या चरणी मातेला व चतुर्थ चरणी पित्याला तसेच सासू–सासरे यांना त्रासदायक असते . या करिता आश्‍लेषा नक्षत्राच्या कोणत्याही चरणावर जन्म झाला असल्यास शांती करावी.

३) ज्येष्ठा नक्षत्रावर कन्या जन्मल्यास ज्येष्ठ दिरास त्रास. ज्येष्ठा नक्षत्राचे समान दहा भाग केल्यास पहिल्या भागात बालकाचा जन्म झाल्यास – मातेची आई, दुसरा भाग – आईचे वडिल, तिसरा भाग – मामा , चौथा भाग – माता, पाचवा भाग – स्वतः , सहावा भाग – गोत्रज, सातवा भाग – पिता व माता अशा दोन्ही कुलांसाठी त्रासदायक , आठवा भाग – ज्येष्ठ बंधु, नववा भाग – सासरा व दहावा भाग – सर्वांना त्रासदायक ठरू शकतो. याकरिता ज्येष्ठा नक्षत्रावर जन्मलेल्या बालकांची शांती करावी.

टीप – म्हणून मूळ, आश्‍लेषा, ज्येष्ठा नक्षत्राच्या कोणत्याही चरणावर जन्मलेल्या बालकाची शांती करून घ्यावी.

४) चित्रा नक्षत्राचा पूर्वार्ध – पुष्य नक्षत्राचे मधले दोन चरण, पूर्वाषाढा – तिसरा चरण, उत्तरा फाल्गुनी – प्रथम चरण या नक्षत्रांवर बालकाचा जन्म झाल्यास पिता, पुत्र, भ्राता व स्वतः यांचा नाश होतो. याकरिता – अ) चित्रा नक्षत्राचा पूर्वार्ध – गोप्रसवशांति करून नक्षत्र देवतेची पूजा व अजा दान करावे.

ब) पुष्य नक्षत्राचे मधले दोन चरण – गोप्रसव शांति करून नक्षत्र देवतेची पूजा व गाईचे दान करावे.

क) पूर्वाषाढा – तिसरा चरण – नक्षत्र देवतेची पूजा व सुवर्ण दान करावे.

ड) उत्तरा फाल्गुनी प्रथम चरण – नक्षत्र देवतेची पूजा व तिलपात्र दान करावे.

५) मघा नक्षत्राच्या पहिल्या चरणात जन्म झाल्यास मूळ नक्षत्राप्रमाणे फळ जाणावे त्या ठिकाणी गोप्रसवशांती, नक्षत्र देवतेचे पूजन व ग्रहमख ही करावी. मघा नक्षत्राच्या पहिल्या १९२ मिनिटात जन्म झाला असल्यास नक्षत्र गंडातशांती करावी.

६) रेवती नक्षत्राच्या शेवटच्या १९२ मिनिटात व अश्विनी नक्षत्राच्या पहिल्या १९२ मिनिटात जन्म झाला असल्यास नक्षत्र गंडांत शांति करावी. अन्य वेळा जन्म असेल तर शांती नाही.

७) विशाखा नक्षत्राच्या चतुर्थ चरणी जन्म झाला असल्यास फक्त ग्रहमुख करावा. नक्षत्रशांती नाही.

८) इतर सर्व नक्षत्रांच्या शांती नाहीत.

९) शांतीचा मुख्य काल – जन्म झाल्यावर बाराव्या दिवशी अथवा जन्मनक्षत्री अथवा शुभ दिवशी शांति करावी. जन्म झाल्यावर बाराव्या दिवशी शांति करावयाची असेल तर सांगितलेली नक्षत्रे, आहुति, अग्निचक्रे इत्यादी पहाण्याची जरूरी नाही. इतर काली शांती करावयाची असेल तर अवश्य पहावे. अग्निचक्र पंचांगात दिलेले असते. ते पहावे किंवा शु. १ पासून चालू तिथिपर्यंत तिथि मोजून येणार्‍या संख्येत १ मिळवावा. रविवार पासून चालू दिवसांपर्यंत दिवस मोजावेत. तो अंक मागील अंकात मिळवावा. या बेरजेस ४ ने भागून बाकी ० किंवा ३ उरल्यास अग्नि भूमीवर, २ उरल्यास पाताळी, १ उरल्यास स्वर्गलोकी अग्नि जाणावा. शांतीचे दिवशी अग्नि भुमीवर असावा. आहुति पाहण्याचा प्रकार असा – सूर्यनक्षत्रापासून आरंभ करून चंद नक्षत्रापर्यंत नक्षत्रे मोजावीत. ३ ३ नक्षत्रे मिळून एक ग्रहाचे मुखी आहुति पडते. पहिल्या ३ नक्षत्री सूर्याचे मुखी, दुसर्‍या ३ नक्षत्री बुधाचे मुखी, तिसर्‍या ३ नक्षत्री शुक्राचे मुखी, चौथ्या ३ नक्षत्री शनीचे मुखी, पाचव्या ३ नक्षत्री चंद्राचे मुखी, सहाव्या ३ नक्षत्री मंगळाचे मुखी, सातव्या ३ नक्षत्री गुरूचे मुखी, आठव्या ३ नक्षत्री राहूचे मुखी, नवव्या ३ नक्षत्री केतूचे मुखी आहुति जाणावी. ज्या दिवशी शुभ ग्रहाचे मुखी आहुति पडते तो दिवस शुभ व पापग्रहाचे मुखी आहुति असेल तर तो अशुभ दिवस मानावा.

शांतीकर्मामध्ये अग्निचक्र अवश्य पहावे.

तीन उत्तरा, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, शततारका, पुनर्वसु, स्वाती, मघा, अश्विनी, हस्त, पुष्य, अनुराधा व रेवती ही नक्षत्रे असताना, आणि गुरुशुक्राचा अस्त नसताना व मलमास नसेल तर तो दिवस शुभ मानावा.
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