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Mahadasha, Antardasha, Pratyantar dasha phal | महादशा - अंतर्दशा - प्रत्यंतर दशा - सूक्ष्म अंतर दशा - प्राण दशा फल

Mahadasha, Antardasha, Pratyantar dasha phal | महादशा - अंतर्दशा - प्रत्यंतर दशा - सूक्ष्म अंतर दशा - प्राण दशा फल


दशा विभाजन Dasha vibhajan

1. महादशा  MD Mahadasha
2. अंतर्दशा AD Antardasha
3. प्रत्यंतर दशा PD Pratyantar dasha
4. सूक्ष्म दशा SD Suksham dasha
5. प्राण दशा PD Prana dasha

अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। 
प्रत्यंतर 6 महीनों तक, 
सूक्ष्म दशा दिनों तक
प्राण दशा घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं। 
दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा। 

दशा : गृह अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार शुभाशुभ परिणाम अपनी दशा एवं अन्तर्दशा में देते हैं | अन्तर्दशा ही किसी परिणाम की प्रमुख कारक होती है जबकि महादशा, अन्तर्दशा के परिणाम को मदद कराती है | यदि महादशा किसी अशुभ गृह की हो तथा अन्तर्दशा का स्वामी निर्बल हो तो उस दशा में जातक को कष्ट होगा |

प्रत्यंतर दशा का फल एक सीमित क्षेत्र तक होता है | ये दशाएं गोचर में किसी स्थिति को मदद करने तथा किसी विशेष घटना का अन्तर्दशा के स्वामी के अनुसार परिणाम देती हैं | 
यदि महादशा का स्वामी शुभ गृह कमजोर और दुष्प्रभावी हो तो भी यह कम हानि तथा कष्ट देता है | यदि किसी जन्म कुंडली में महादशा का स्वामी शुभ तथा शक्तिशाली होतो व्यक्ति अपने जीवन में उन्नति करता है एवं जीवन सुखी होता है | 

जन्म कुंडली में भावेशों की स्थिति अनुसार जीवन में घटित होने वाली महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत देने वाले प्रमुख बिन्दुओं में दशा क्रम महत्वपूर्ण है |

दशा क्रम में विंशोत्तरी दशा क्रम, अष्टोत्तरी दशा क्रम, योगिनी दशा क्रम, चर दशा क्रम, मांडू दशा क्रम प्रचलित हैं किन्तु घटनाओं के समय निर्धारण में विंशोत्तरी दशा क्रम का उपयोग ज्यादा होता है एवं प्रचलन में है |

राशि चक्र में ३६० अंश एवं १२० अंश का एक त्रिकोण होता है | विंशोत्तरी दशा क्रम में त्रिकोण के १२० अंश को आधार मानते हुए मनुष्य की आयु काल १२० वर्ष का निश्चित किया गया है | एवं इसी आयु काल में भ्रमण पथ पर नवग्रहों के सम्पूर्ण भ्रमण काल को भी देखा उनकी समयावधि भी १२० वर्ष पाई गई | इस प्रकार महर्षि पाराशर ने मानव जीवन के १२० वर्ष को आधार मानते हुए २७ नक्षत्रों को ९ ग्रहों में बांटकर प्रत्येक गृह को ३-३ नक्षत्रों का स्वामी बनाकर एक दशा क्रम या दशा पद्दति तैयार की | 

इसी पद्दति को विंशोत्तरी पद्दति कहते हैं | भ्रमण पथ पर भ्रमण काल में सुर्य आदि ग्रहों की आवर्ती – पुनरावृत्ति अनुसार नव ग्रहों का दशा क्रम कृतिका नक्षत्र से प्रारम्भ मानकर दशा वर्ष निश्चित किये गए |

जन्मकालीन चन्द्र की नक्षत्रात्मक स्थिति को ध्यान में रख कर ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा,प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा, और प्राण दशा ज्ञात करने की विधि तैयार की | 

नीचे ग्रहों की महा दशाएं क्रम से वर्णित हैं , जिनका विचार विंशोत्तरी दशा हेतु किया जाता है |

सूर्य     —–      ६ वर्ष

चन्द्रमा  —-   १० वर्ष

मंगल   —–    ७ वर्ष

राहू     —–     १८ वर्ष

गुरु     —–    १६ वर्ष

शनि    —–   १९ वर्ष

बुध     —–     १७ वर्ष

केतु     —–   ७ वर्ष

शुक्र     —–  २० वर्ष

विंशोत्तरी महादशा प्रणाली के अंतर्गत किसी ग्रह की महादशा में सभी अन्य ग्रह अपने – अपने हिस्से की अन्तर्दशा भोगते हैं | इसी अंश दशा को अन्तर्दशा कहा जाता है | किसी ग्रह की अन्तर्दशा उसी दशा से प्रारंभ होती है, जिसकी की महा दशा चल रही होती है | बाकि शेष अन्य अन्तर्दशा उपरोक्त क्रम से आती हैं |  

किसी भी घटना की जानकारी के साथ उसके घटने के समय की भी जानकारी आवश्यक होती है। इसके लिए दशा एवं गोचर की दो पद्धतियां विशेष हैं। दशा से घटना के समय एवं गोचर से उसके शुभाशुभ होने का ज्ञान प्राप्त होता है। 

प्रश्न: ज्योतिष में दशा और गोचर का क्या महत्व है? 
उत्तर: दशा और गोचर दोनों ही ज्योतिष में जातक को मिलने वाले शुभाशुभ फल का समय और अवधि जानने में विशेष सहायक हैं। इसलिए ज्योतिष में इन्हें विशेष स्थान और महत्व दिया गया है। 

प्रश्न: दशा और गोचर का आपसी संबंध क्या है? 
उत्तर: शुभाशुभ फलकथन के लिए दोनों को बराबर का स्थान दिया गया है। दशा का फल गोचर के बिना अधूरा है और गोचर का फल दशा के बिना। 

प्रश्न: दशा वास्तव में है क्या? 
उत्तर: प्रत्येक ग्रह अपने गुण-धर्म के अनुसार एक निश्चित अवधि तक जातक पर अपना विशेष प्रभाव बनाए रखता है जिसके अनुसार जातक को शुभाशुभ फल प्राप्त होता है। ग्रह की इस अवधि को हमारे महर्षियों ने ग्रह की दशा का नाम दे कर फलित ज्योतिष में विशेष स्थान दिया है। फलित ज्योतिष में इसे दशा पद्ध ति भी कहते हैं। 

प्रश्न: भारतीय ज्योतिष में कितने प्रकार की दशाएं होती हैं? 
उत्तर: भारतीय फलित ज्योतिष में 42 प्रकार की दशाएं एवं उनके फल वर्णित हैं, किंतु सर्वाधिक प्रचलित विंशोत्तरी दशा ही है। उसके बाद योगिनी दशा है। आजकल जैमिनी चर दशा भी कुछ ज्योतिषी प्रयोग करते देखे गये हैं। 

प्रश्न: विंशोत्तरी दशा ही सर्वाधिक प्रचलित क्यों? 
उत्तर: विंशोत्तरी दशा से फलकथन शत-प्रतिशत सही पाया गया है। महर्षियों और ज्योतिषियों का मानना है कि विंशोत्तरी दशा के अनुसार कहे गये फलकथन सही होते हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इस दशा की सर्वाधिक चर्चा की गई है। 

प्रश्न: यह कैसे जानें कि किस जातक का जन्म कौन सी दशा में हुआ? 
उत्तर: दशा चंद्रस्पष्ट पर आधारित है। जन्म समय चंद्र जिस नक्षत्र में स्पष्ट होता है, उसी नक्षत्र के स्वामी की दशा जातक के जन्म समय रहती है। नक्षत्र का जितना मान शेष रहता है, उसी के अनुपात में दशा शेष रहती है। 

प्रश्न: अंतर्दशा से क्या अभिप्राय है? 
उत्तर: किसी भी ग्रह की पूर्ण दशा को महादशा कहते हैं। महादशा के आगामी विभाजन को अंतर्दशा कहते हैं। यह विभाजन सभी ग्रहों की अवधि के अनुपात में रहता है। जो अनुपात महादशा की अवधि का है उसी अनुपात में किसी ग्रह की महादशा की अंतर्दशा होती है। उदाहरण के लिए शुक्र की दशा 20 वर्ष की होती है जबकि सभी ग्रहों की महादशा की कुल अवधि 120 वर्ष होती है। इस प्रकार शुक्र को 120 वर्षों में 20 वर्ष प्राप्त हुए। इसी अनुपात से 20 वर्ष में शुक्र की अंतर्दशा को 3 वर्ष 4 मास 0 दिन प्राप्त होते हैं जो कि शुक्र की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा की अवधि हुई। इसी प्रकार शुक्र महादशा में सूर्य की अंतर्दशा 1 वर्ष, चंद्र की अंतर्दशा 1 वर्ष 8 मास 0 दिन की होगी। 

प्रश्न: अंतर्दशा का क्रम किस आधार पर लेते हैं? 
उत्तर: अंतर्दशा का क्रम भी उसी क्रम में होता है जिस क्रम से महादशा चलती हैं अर्थात केतु, शुक्र, सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी। 

प्रश्न: प्रत्यंतर्दशा भी क्या अंतर्दशा की तरह होती है? 
उत्तर: प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभाजन होता है। 

प्रश्न: क्या इसके आगे भी दशा का विभाजन होता है? यदि हां, तो कहां तक? 
उत्तर: महादशा को अंतर्दशा में विभक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा में प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है। 

प्रश्न: दशा का इतना विभाजन करने से क्या लाभ होता है? 
उत्तर: फलकथन की सूक्ष्मता में पहुं¬चने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं। 

प्रश्न: क्या दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल देती है? 
उत्तर: दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा।

प्रश्न: कुंडली में यह कैसे जानें कि कौन सी दशा शुभ फल और कौन सी दशा अशुभ फल देगी? उत्तर: कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है। 

प्रश्न: दशा का फलकथन करते समय किन-किन बातों का विशेष विचार करना चाहिए? 
उत्तर: दशा फल करते समय कुंडली में आपसी संबंधों पर विशेष विचार करना चाहिए जैसे: 
1. दो या अधिक ग्रहों का एक ही भाव में रहना। 
2. दो या अधिक ग्रहों की एक दूसरे पर दृष्टि। 3. ग्रह की अपने स्वामित्व वाले भाव में बैठे ग्रह पर दृष्टि हो। 
4. ग्रह जिस ग्रह की राशि में बैठा हो, उस ग्रह पर दृष्टि भी डाल रहा हो। 
5. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों। 
6. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों और उनमें से कोई एक दूसरे पर दृष्टि डाले। 
7. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठकर एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हों। 
8. दशाफल विचार में लग्नेश से पंचमेश, पंचमेश से नवमेश बली होता है एवं तृतीयेश से षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश बली होता है। 9. इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध, पूर्ण चंद्र केंद्रेश हों तो शुभ फल नहीं देते, जब तक उनका किसी शुभ ग्रह से संबंध न हो। ऐसे ही पाप ग्रह क्षीण चंद्र, पापयुत बुध तथा सूर्य, शनि, मंगल केन्द्रेश हों तो पाप फल नहीं देते, जब तक कि उनका किसी पाप ग्रह से संबंध न हो। 
10. यदि पाप ग्रह केन्द्रेश के अतिरिक्त त्रिकोणेश भी हो तो उसमें शुभत्व आ जाता है। यदि पाप ग्रह केंद्रेश होकर 3, 6, 11 वें भाव का भी स्वामी हो तो अशुभत्व बढ़ता है। चतुर्थेश से सप्तमेश और सप्तमेश से दशमेश बली होता है। 

प्रश्न: महादशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा आदि का फल विचार कैसे करें? 
उत्तर: महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा। यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है। 

प्रश्न: गुरु की दशा में शुक्र का अंतर जातक को कैसा फल प्रदान करेगा? 
उत्तर: गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं। दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा। इसके विपरीत यदि गुरु मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी। 

प्रश्न: प्रत्यंतर्दशा भी क्या अंतर्दशा की तरह होती है? 
उत्तर: प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभाजन होता है। 

प्रश्न: क्या इसके आगे भी दशा का विभाजन होता है? यदि हां, तो कहां तक? 
उत्तर: महादशा को अंतर्दशा में विभक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा में प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है। 

प्रश्न: दशा का इतना विभाजन करने से क्या लाभ होता है? 
उत्तर: फलकथन की सूक्ष्मता में पहुंचने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं। 

प्रश्न: क्या दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल देती है? 
उत्तर: दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा। 

प्रश्न: कुंडली में यह कैसे जानें कि कौन सी दशा शुभ फल और कौन सी दशा अशुभ फल देगी? 

उत्तर: कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है। 

प्रश्न: दशा का फलकथन करते समय किन-किन बातों का विशेष विचार करना चाहिए? 

उत्तर: दशा फल करते समय कुंडली में आपसी संबंधों पर विशेष विचार करना चाहिए जैसे: 
1. दो या अधिक ग्रहों का एक ही भाव में रहना। 
2. दो या अधिक ग्रहों की एक दूसरे पर दृष्टि। 
3. ग्रह की अपने स्वामित्व वाले भाव में बैठे ग्रह पर दृष्टि हो। 
4. ग्रह जिस ग्रह की राशि में बैठा हो, उस ग्रह पर दृष्टि भी डाल रहा हो। 
5. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों। 
7. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों और उनमें से कोई एक दूसरे पर दृष्टि डाले। 
8. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठकर एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हों। दशाफल विचार में लग्नेश से पंचमेश, पंचमेश से नवमेश बली होता है एवं तृतीयेश से षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश बली होता है। 
इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध, पूर्ण चंद्र केंद्रेश हों तो शुभ फल नहीं देते, जब तक उनका किसी शुभ ग्रह से संबंध न हो। 
ऐसे ही पाप ग्रह क्षीण चंद्र, पापयुत बुध तथा सूर्य, शनि, मंगल केन्द्रेश हों तो पाप फल नहीं देते, जब तक कि उनका किसी पाप ग्रह से संबंध न हो। 
यदि पाप ग्रह केन्द्रेश के अतिरिक्त त्रिकोणेश भी हो तो उसमें शुभत्व आ जाता है। यदि पाप ग्रह केंद्रेश होकर 3, 6, 11 वें भाव का भी स्वामी हो तो अशुभत्व बढ़ता है। चतुर्थेश से सप्तमेश और सप्तमेश से दशमेश बली होता है। 

प्रश्न: महादशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा आदि का फल विचार कैसे करें? 
उत्तर: महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा। यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है। 

प्रश्न: गुरु की दशा में शुक्र का अंतर जातक को कैसा फल प्रदान करेगा? 
उत्तर: गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं। दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा।

दशा फल (Vimshottari Dasha Effect)
कई बार जन्म कुण्डली शुभ होने पर भी जातक को शुभ फल प्राप्त नहीं होते कभी दशा, कभी अन्तर्दशा व कभी गोचर में ग्रहों की ऎसी विषम स्थिति बन जाती है कि जातक व्याकुल हो जाता है. ऎसी परिस्थिति में उसमें आशा व उमंग जगाना ही ज्योतिषी की परीक्षा है.

शुभ फलदायी दशा (Dasha with positive results)
जो ग्रह जन्म कुण्डली में केन्द्र, त्रिकोण, लाभ या धन भाव में ( 1,2,4,5,7,9,10,11वें भाव ) स्थित हो या इन भावों के स्वामी हो तो इनकी दशा शुभ फल देती है. (The planets located in Kendras, Trikon, Labh or Dhana bhava, or if it is the lord of these bhavas will give good results in its dasha)
ग्रह उच्च राशि, स्वराशि या मित्र राशि में हो. ग्रह शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो शुभ फलों में वृ्द्धि करते हैं.
ग्रह भाव मध्य में स्थित हो या षडबल में बली हों तो उनकी दशा अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर दशा व सूक्ष्म दशा में धन ,स्वास्थ्य, सुख व सम्मान मिलता है.
त्रिषडाय या त्रिक भाव में स्थित पाप ग्रह ( सूर्य, मंगल, शनि, राहु ) अथवा दु:स्थान के स्वामी ग्रह यदि दु:स्थान में हो तो भी अपनी दशा व अन्तर्दशा मे शुभ फल दिया करते हैं.

राहु / केतु भी शुभ फलदायी (Positive results from Rahu and Ketu)
राहु या केतु केन्द्र में स्थित हो और त्रिकोणेश से सम्बन्ध बना रहे हो तो राजयोग बनाते है. इसी प्रकार राहु या केतु त्रिकोण में स्थित हो और केन्द्रेश से सम्बन्ध बना रहे हों तो भी राजयोग बनाते है. राहु या केतु केन्द्र, त्रिकोण के अलावा जन्म कुण्डली में किसी भी भाव में केन्द्रेश और त्रिकोणेश से सम्बन्ध बना रहे है शुभ फलदायी होते है. ये सम्बन्ध युति से, दृ्ष्टि से किसी भी प्रकार से बन सकते है.

पाप ग्रह शुभ युक्त या शुभ दृ्ष्ट होने पर शुभ (Malefic planets are auspicious when in association with benefic planets)
नैसर्गिक पाप ग्रह ( सुर्य, शनि, मंगल, राहु ) यदि पाप भाव ( तृ्त्तीय, षष्ठ, अष्टम व द्वादश भाव ) में स्थित हों तो अपनी दशा में भाई बहन का स्नेह सहयोग, रोग ऋण का नाश, बाधा व कष्ट की समाप्ति तथा मान वैभव की वृ्द्धि दिया करते है.
इसी प्रकार पाप भाव या दुष्ट भाव (3,6,8,12 भाव ) के स्वामी कहीं भी बैठ कर यदि शुभ ग्रह या शुभ भावों के स्वामी से युक्त या दृ्ष्ट हों तो वह दुष्ट ग्रह भी अप्नी दशा या भुक्ति में रोग, पीडा़, भय , कष्ट से मुक्ति दिलाकर धन वैभव बढा़एंगे.

शुभ ग्रहों का दशा फल विचार (Understanding results from benefic planets)
प्राय: शुभ ग्रह सबसे पहले उस भाव के फल देते हैं जिस भाव में ये स्थित हैं. मध्य में ये जिस राशि में स्थित है उसके अनुसार फल देते है. अन्त में जिन ग्र्हों से दृ्ष्ट होते हैं उन दृ्ष्ट ग्रहों का फल भी देते है.

अशुभ ग्रहों का दशा फल विचार (Results from Malefic planets)
अशुभ ग्रह सबसे पहले राशि सम्बन्धी फल देगा जिस राशि में ये ग्रह स्थित है. उसके बाद उस भाव के कारकत्व सम्बन्धी फल देगा जिसमें ये पाप ग्रह स्थित है. अन्त में विभिन्न ग्रहों की इस दशा नाथ या अन्तर्दशा नाथ पर पड़ने वाली दृ्ष्टि के अनुसार फल मिलेगा.

उच्च ग्रह की दशा (Dasha of exalted planet)
उच्च ग्रह की दशा में जातक को मान सम्मान तथा यश की प्राप्ति होती है.

नीच ग्रह की दशा (Dasha of debilitated planet)
नीच ग्रह की दशा में जातक को संघर्षों का सामना करना पड़ता है. परन्तु यदि ये नीच ग्रह तीसरे भाव, छठे भाव या एकादश भाव में स्थित हैं और इनका नीच भंग भी हो रहा है तो ये राजयोग देते है. इसे नीचभंग राजयोग कहते है.

वक्री ग्रह की दशा (Dasha of retrograde planet)
वक्री ग्रह जिन भावों में स्थित है और जिन भावों के स्वामी हैं उन भावों के कारकत्वों में कमी ला देते हैं. वक्री ग्रह बार-बार प्रयास कराते है. वक्री ग्रह की दशा में जातक के जीवन में उतार-चढाव काफी रहते है.

मंगल नीच (Debilitated Mars)
कर्क राशि में मंगल को नीच माना जाता है. परंतु कर्क लग्न के लिये मंगल योगकारी ग्रह है. अपनी मेष राशि से चतुर्थ ( सुख भाव ) में होने से व वृ्श्चिक से भाग्य भाव में ( नवम भाव )होने से व्यापार , व्यवसाय तथा मान सम्मान की वृ्द्धि तथा भाग्योदय किया करता है. मंगल की दशा अन्तर्दशा में जातक लाभ और प्रतिष्ठा पाता है.

ज्योतिषी को चाहिए कि सर्वप्रथम पत्रिका का भली भांति अध्ययन करे और फिर दशाफल का विचार करे. यह भी देखने में आता है कि दशा भी केवल आधी अधूरी ही देख कर फलादेश कर दिया जाता है. उदाहरण के लिए - गुरु की दशा है तो शुभ ही होगी, षष्ठेश की दशा है तो अशुभ ही होगी, तुला राशि का शनि तो अच्छे फल ही देगा आदि.

दशाफल का विचार करते हुए कम से कम किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए यह लेख इसी विषय पर आधारित है. कभी भी ग्रहों की दशा का विचार करना हो तो निम्नलिखित बातों को अवश्य परखना चाहिए:


१) दशा किस ग्रह की है
२) दशानाथ (जिसकी दशा हो वह ग्रह) जन्मपत्रिका में कहाँ स्थित है
३) दशानाथ के साथ कौन से ग्रह बैठे हैं
४) कौन से ग्रह दशानाथ पर दृष्टि द्वारा प्रभाव डाल रहे हैं
५) वह ग्रह कितने बलवान है जो दशानाथ पर दृष्टि अथवा युति द्वारा प्रभाव डाल रहे हैं
६) दशानाथ पर प्रभाव डालने वाले ग्रह किन भावों के स्वामी है  
७) दशानाथ कौन से भावों का स्वामी है
८) दशानाथ किन ग्रहों पर दृष्टि डाल रहा है
९) दशानाथ नैसर्गिक शुभ ग्रह है अथवा अशुभ
१०) दशानाथ किन भावों का कारक है
११) दशानाथ जिस राशि में है उसका स्वामी कौन है और कहाँ स्थित है
१२) दशानाथ जिस भाव में हैं उसका कारक कौन है और कहाँ स्थित है

जो ग्रह जिसका कारक हो, उससे सम्बंधित वस्तु अथवा विषय से/का लाभ अथवा हानि होती है. उदाहरण के लिए शुक्र वाहन का कारक है, गुरु पुत्र का, बुध वाणी का आदि.

यह तो केवल महादशा के लिए था. अन्तर्दशा के लिए अलग से विचार करना होता है. महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ का परस्पर सम्बन्ध कैसा है इस को ध्यान में रख कर फलादेश किया जाये तो परिणाम अच्छे मिलते हैं. प्रत्यन्तर्दशा और सूक्ष्म दशा भी होती हैं परन्तु यह निर्भर करता है कि जन्म समय कितना सटीक है.

(1) ग्रह कब ? कैसे ? कितना ? फल देते हैं इस बात का निर्णय दशा अन्तर्दशा से किया जाता है।

(2) दशा कई प्रकार की हैं, परन्तु सब में शिरोमणि विंशोत्तरी ही है।

(3) सबसे पूर्व कुंडली में देखिये की तीनो लग्नों ( चंद्र लग्न, सूर्य लग्न, और लग्न ) में कौन- सी दो लग्नों के स्वामी अथवा तीनो ही लग्नों के स्वामी परस्पर मित्र हैं। कुंडली के शुभ अशुभ ग्रहों का निर्णय बहुमत से निश्चित लग्नों के आधार पर करना चाहिए । उदाहरण के लिए यदि लग्न कुंभ है; सूर्य धनु में चंद्र वृश्चिक में है तो ग्रहों के शुभ-अशुभ होने का निर्णय वृश्चिक अथवा धनु लग्न से किया जायेगा अर्थात गुरु, सूर्य, चंद्र और मंगल ग्रह शुभ अथवा योगकारक होंगे और शुक्र , बुध तथा शनि अनिष्ट फलदायक होंगे।

(4) यदि उपर्युक्त नियमानुसार महादशा का ग्रह शुभ अथवा योगकारक बनता है तो वह शुभ फल करेगा । इसी प्रकार यदि अन्तर्दशा का ग्रह भी शुभ अथवा योगकारक बनता है तो फल और भी शुभ होगा।

(5) स्मरण रहे की अन्तर्दशा के स्वामी का फल दशानाथ की अपेक्षा मुख्य है- अर्थात यदि दशानाथ शुभ ग्रह न भी हो परंतु भुक्तिनाथ शुभ है तो फल शुभ होगा।

(6) यदि भुक्तिनाथ दशानाथ का मित्र हो और दशानाथ से शुभ भावों ( दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नवें, दशवें और ग्यारहवें ) में स्थित हो तो और भी शुभ ही फल देगा।

(7) यदि दशानाथ निज शुभ स्थान से भी अच्छे स्थान ( दूसरे, चौथे आदि ) में स्थित है तो और भी शुभ फल करेगा।

(8) परंतु सबसे आवश्यक यह है की शुभ भुक्तिनाथ में अच्छा बल होना चाहिए। यदि शुभ भुक्तिनाथ केंद्र स्थान में स्थित है, उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में स्थित है अथवा मित्र राशि में स्थित है और भाव मध्य में है, किसी पापी ग्रह से युक्त या दृष्ट नहीं, बल्कि शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट है, वक्री है तथा राशि के बिलकुल आदि में अथवा बिल्कुल अंत में स्थित नहीं है, नवांश में निर्बल नहीं है , तो भुक्तिनाथ जिस शुभ भाव का स्वामी है उसका उत्तम फल करेगा अन्यथा यदि ग्रह शुभ भाव का स्वामी है परंतु छठे, आठवे, बारहवें आदि नेष्ट (अशुभ) स्थानों में स्थित है, नीच अथवा शत्रु राशि का है, पापयुक्त अथवा पापदृष्ट है, राशि के आदि अथवा अंत में है, नवांश में निर्बल है, भाव संधि में है, अस्त है, अतिचारी है तो शुभ भाव का स्वामी होता हुआ भी बुरा फल करेगा।

(9) जब तिन ग्रह एकत्र हों और उनमे से एक नैसर्गिक पापी तथा अन्य दो नैसर्गिक शुभ हों और यदि दशा तथा भुक्ति नैसर्गिक शुभ ग्रहों की हो तो फल पापी ग्रह का होगा। उदाहरण के लिए यदि लग्न कर्क हो , मंगल, शुक्र तथा गुरु एक स्थान में कहीं हों, दशा गुरु की भुक्ति शुक्र की हो तो फल मंगल का होगा। यह फल अच्छा होगा क्यों की मंगल कर्क लग्न वालों के लिए योगकारक होता है।

(10) जब दशानाथ तथा भुक्तिनाथ एक भाव में स्थित हों तो उस भाव सम्बन्धी घटनाये देते हैं

(11) जब दशानाथ तथा भुक्ति नाथ एक ही भाव को देखते हों तो दृष्ट भाव सम्बन्धी घटनाये देते हैं।

(12) जब दशानाथ तथा भुक्ति नाथ परस्पर शत्रु हों, एक दूसरे से छठे, आठवें स्थित हों और भुक्तिनाथ लग्न से भी छठे , आठवें, बारहवें स्थित हो तो जीवन में संघर्ष, बाधायें, विरोध, शत्रुता, स्थान च्युति आदि अप्रिय घटनाएं घटती हैं।

(13) लग्न से दूसरे, चौथे, छठे, आठवें, ग्यारहवें तथा बारहवें भावों के स्वामी अपनी दशा भुक्ति में शारीरिक कष्ट देते हैं यदि महादशा नाथ स्वामी इनमे से किसी भाव का स्वामी होकर इन्ही में से किसी अन्य के भाव में स्थित हो अपनी महादशा में रोग देने को उद्धत होगा ऐसा ही भुक्ति नाथ के बारे में समझना चाहिए। ऐसी दशा-अन्तर्दशा आयु के मृत्यु खंड में आये तो मृत्यु हो जाती है।

(14) गुरु जब चतुर्थ तथा सप्तम अथवा सप्तम तथा दशम का स्वामी हो तो इसको केंद्राधिपत्य दोष लगता है। ऐसा गुरु यदि उपर्युक्त द्वितीय, षष्ठ आदि नेष्ट भावों में निर्बल होकर स्थित हो अपनी दशा भुक्ति में शारीरिक कष्ट देता है।

(15) राहु तथा केतु छाया ग्रह हैं। इनका स्वतंत्र फल नहीं है। ये ग्रह यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम आदि शुभ भावों में स्थित हों और उन भावों के स्वामी भी केंद्रादि स्थिति तथा शुभ प्रभाव के कारण बलवान हों तो ये छाया ग्रह अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल देते हैं।

(16) राहु तथा केतु यदि शुभ अथवा योगकारक ग्रहों के प्रभाव में हों और वह प्रभाव उनपर चाहे युति अथवा दृष्टि द्वारा पड़ रहा हो तो छाया ग्रह अपनी दशा- अन्तर्दशा में उन शुभ अथवा योगकारक ग्रहों का फल करेंगे


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