अघोर पंथ की उत्पत्ति और इतिहास:-
Baba Kinaram ji ki History
बाबा किनाराम
अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
बाबा किनाराम उत्तर भारतीय संत परंपरा के एक प्रसिद्ध संत थे, जिनकी यश-सुरभि परवर्ती काल में संपूर्ण भारत में फैल गई। वाराणसी के पास चंदौली जिले के ग्राम रामगढ़ में एक कुलीन रघुवंशी क्षत्रिय परिवार में सन् 1601 ई. में इनका जन्म हुआ था। बचपन से ही इनमें आध्यात्मिक संस्कार अत्यंत प्रबल थे। तत्कालीन रीति के अनुसार बारह वर्षों के अल्प आयु में, इनकी घोर अनिच्छा रहते हुए भी, विवाह कर दिया गया किंतु दो तीन वर्षों बाद द्विरागमन की पूर्व संध्या को इन्होंने हठपूर्वक माँ से माँगकर दूध-भात खाया। ध्यातव्य है कि सनातन धर्म में मृतक संस्कार के बाद दूध-भात एक कर्मकांड है। बाबा के दूध-भात खाने के अगले दिन सबेरे ही वधू के देहांत का समाचार आ गया। सबको आश्चर्य हुआ कि इन्हें पत्नी की मृत्यु का पूर्वाभास कैसे हो गया। अघोर पंथ के ज्वलंत संत के बारे में ऐक कथानक प्रसिद्ध है,कि ऐक बार काशी नरेश अपने हाथी पर सवार होकर शिवाला स्थित आश्रम से जा रहे थे,उन्होनें बाबा किनाराम के तरफ तल्खी नजरों से देखा,तत्काल बाबा किनाराम ने आदेश दिया दिवाल चल आगे,इतना कहना कि दिवाल चल दिया और काशी नरेश की हाथी के आगे - आगे चलने लगा। तब काशी नरेश को अपने अभिमान का बोध हो गया और तत्काल बाबा किनाराम जी के चरणों में गिर गये।
उत्तराखंड हिमालय में बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद किनाराम जी वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर रहनेवाले औघड़ बाबा कालूराम (कहते हैं, यह स्वयं भगवान दत्तात्रेय थे) के पास पहुँचे। कालूराम जी बड़े प्रेम से दाह किए हुए शवों की बिखरी पड़ी खोपड़ियों को अपने पास बुला-बुलाकर चने खिलाते थे। किनाराम को यह व्यर्थ का खिलवाड़ लगा और उन्होंने अपनी सिद्धि शक्ति से खोपड़ियों का चलना बंद कर दिया। कालूराम ने ध्यान लगाकर समझ लिया कि यह शक्ति केवल किनाराम में है। इन्हें देखकर कालूराम ने कहा-भूख लगी है। मछली खिलाओ। किनाराम ने गंगा तट की ओर मुख कर कहा-गंगिया, ला एक मछली दे जा। एक बड़ी मछली स्वत: पानी से बाहर आ गई। थोड़ी देर बाद कालूराम ने गंगा में बहे जा रहे एक शव को किनाराम को दिखाया। किनाराम ने वहीं से मुर्दे को पुकारा, वह बहता हुआ किनारे आ लगा और उठकर खड़ा हो गया। बाबा किनाराम ने उसे घर वापिस भेज दिया पर उसकी माँ ने उसे बाबा की चरणसेवा के लिए ही छोड़ दिया।
इन सब के बाद, कहते हैं, कालूराम जी ने अपने स्वरूप को दर्शन दिया और किनाराम को साथ, क्रींकुण्ड (भदैनी, वाराणसी) ले गए जहाँ उन्हें बताया कि इस स्थल को ही गिरनार समझो। समस्त तीर्थों का फल यहाँ मिल जाएगा। किनाराम तबसे मुख्यश: उसी स्थान पर रहने लगे। अपने प्रथम गुरु वैष्णव शिवाराम जी के नाप पर उन्होंने चार मठ स्थापित किए तथा दूसरे गुरु, औघड़ बाबा कालूराम की स्मृति में क्रींकुंड (वाराणसी), रामगढ़ (चंदौली), देवल (गाजीपुर) तथा हरिहरपुर (जौनपुर) में चार औघड़ गद्दियाँ कायम कीं।
और क्रीं कुंड के पास ही एक अघोर साहित्य की दुकान है जहाँ आपको कीनारामजी के द्वारा अघोर पर लिखी पुस्तके विवेक्सार और उन्मुनिराम भी मिल जायेगी ! आज के लिए इतना ही आगे...... समय मिलने पर
🙏🙏🙏 बाबा कीनाराम:-------
# भाग--दो #
**************************
सूर्य की रक्तिम आभा उस तेजस्वी के मुख को और भी रक्तिम कर रही थी। पास ही एक झोला पड़ा था और पड़ी थी सिन्दूर पुती हुई एक मानव खोपड़ी। धीरे-धीरे सन्यासी अपने नेत्र खोलता है, चारों तरफ सरसरी दृष्टि से लोगों को देखता है, फिर महादेव को प्रणाम कर कुछ मन्त्र पढ़ता है।
जलती चिताओं के पास पहुँच कर, उसमें से भस्म लेकर शरीर में लगाकर, अपने गन्तव्य की ओर चलने से पहले ज़मीन पर पड़ी उसी सिद्ध खोपड़ी से बोलता है--चल रे ! काहे ज़मीन पर पड़े पड़े सो रहा है ?
ये थे महान् अघोरी साधक कालूराम। उनका रोज़ का काम था साधना करना, कभी कभी शव साधना करना। यही क्रम वर्षो से चलता आ रहा था। प्रातः उठते ही अपनी सिद्ध खोपड़ी को आवाज़ लगाते। खोपड़ी हवा में उछलकर बाबा के हाथों में आ जाती और फिर उसे हाथ में लेकर भद्रवन की ओर चल पड़ते। आज जहाँ क्रीमकुण्ड है, वहां पहले घना वन था--औघड़ साधकों का साधना स्थल। तमाम औघड़ साधक वृक्षों के नीचे बैठे साधना करते रहते। बाबा कालूराम का उसी भद्रवन में एक विशेष् स्थान था जो वर्तमान में क्रीमकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान में आज उनकी समाधि भी है।
खैर, वह मानव खोपड़ी आज रोज की तरह उछलकर बाबा के हाथों में नहीं आयी, जहाँ की तहाँ पड़ी रही। बाबा कालूराम को पहले तो थोड़ा आवेश आ गया, उनका चेहरा तमतमा गया। लेकिन जब उन्होंने नज़र घुमाकर देखा--श्मशान के पास घने पीपल के वृक्ष के नीचे एक युवा साधक साधना रत है। बीस-बाइस साल का युवक, हल्की हल्की दाढ़ी-मूंछ, बड़े-बड़े घने घुंघराले काले बाल कंधों तक फैले हुए, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की पतली माला, हाथ में कमण्डल--साक्षात् बाल शिव जैसा मोहक स्वरूप। बाबा कालूराम को तुरन्त आभास हो गया कि वह कोई साधारण युवक नहीं है, कोई सिद्ध युवा साधक है। इसी युवक ने मेरी सिद्ध मानव खोपड़ी को स्तंभित कर् रखा है।
बाबा को अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रहा, बल्कि उस साधक को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया--जैसे कोई अपना वर्षों से बिछुड़ा हुआ अचानक सामने आ गया हो। बाबा कालूराम चलते हुए उस युवक के पास पहुंचे। युवक ने झुककर बाबा कालूराम का चरण स्पर्श किया और कहा--मैं कीनाराम और यह मेरा शिष्य बीजाराम है। बीजाराम ने भी बाबा का झुकाकर चरण स्पर्श किया। बाबा ने पूछा--काशी में कैसे आना हुआ ? कीनाराम बोले--गिरिनार से आ रहा हूँ तपस्या पूर्ण करके अपने गुरु की तलाश में। अनुभूति हुई कि गुरुदेव का दर्शन काशी में होगा, बस चला आया।
इतना कहकर कीनाराम चुप हो गए। बाबा कालूराम बस मुस्करा दिए, फिर बोले--तेरा गुरु तो तुझे मिल जायेगा, पहले कुछ खिलाओ, बड़ी भूख लगी है।
क्या खाएंगे ?--कीनाराम ने पूछा।
मछली खाने की इच्छा हो रही है।--बाबा कालूराम बोले। कीनाराम गंगा की ओर मुंह करके खड़े हो गए, फिर भगवती गंगा को हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। फिर कोई मन्त्र बुदबुदाया--देखते ही देखते दर्जनों मछलियां गंगा से उछल- उछल कर सामने जलती हुई चिता की आग में गिरने लगी। धड़ाधड़ एक के बाद एक मछली जलती चिता में गिर रही थी। बाबा कालूराम चिल्लाये--अरे ! पूरी गंगा की मछली निकाल देगा क्या ? बस कर, कीनाराम, बहुत है।
वहां पर खड़े लोगों ने देखा--चिता मछलियों से भर गई थी। कीनाराम बोले--बीजाराम, जा अच्छी-अच्छी भुनी हुई मछली ले आ बाबा के लिए। बीजाराम मछली निकाल कर ले आया।बाबा आनंदमग्न होकर मछली खाने लगे। इसके बाद बाबा कालूराम, कीनाराम और बीजाराम एक साथ चल पड़े भद्रवन की ओर।
Baba Kinaram ji ki History
बाबा किनाराम
अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
बाबा किनाराम उत्तर भारतीय संत परंपरा के एक प्रसिद्ध संत थे, जिनकी यश-सुरभि परवर्ती काल में संपूर्ण भारत में फैल गई। वाराणसी के पास चंदौली जिले के ग्राम रामगढ़ में एक कुलीन रघुवंशी क्षत्रिय परिवार में सन् 1601 ई. में इनका जन्म हुआ था। बचपन से ही इनमें आध्यात्मिक संस्कार अत्यंत प्रबल थे। तत्कालीन रीति के अनुसार बारह वर्षों के अल्प आयु में, इनकी घोर अनिच्छा रहते हुए भी, विवाह कर दिया गया किंतु दो तीन वर्षों बाद द्विरागमन की पूर्व संध्या को इन्होंने हठपूर्वक माँ से माँगकर दूध-भात खाया। ध्यातव्य है कि सनातन धर्म में मृतक संस्कार के बाद दूध-भात एक कर्मकांड है। बाबा के दूध-भात खाने के अगले दिन सबेरे ही वधू के देहांत का समाचार आ गया। सबको आश्चर्य हुआ कि इन्हें पत्नी की मृत्यु का पूर्वाभास कैसे हो गया। अघोर पंथ के ज्वलंत संत के बारे में ऐक कथानक प्रसिद्ध है,कि ऐक बार काशी नरेश अपने हाथी पर सवार होकर शिवाला स्थित आश्रम से जा रहे थे,उन्होनें बाबा किनाराम के तरफ तल्खी नजरों से देखा,तत्काल बाबा किनाराम ने आदेश दिया दिवाल चल आगे,इतना कहना कि दिवाल चल दिया और काशी नरेश की हाथी के आगे - आगे चलने लगा। तब काशी नरेश को अपने अभिमान का बोध हो गया और तत्काल बाबा किनाराम जी के चरणों में गिर गये।
उत्तराखंड हिमालय में बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद किनाराम जी वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर रहनेवाले औघड़ बाबा कालूराम (कहते हैं, यह स्वयं भगवान दत्तात्रेय थे) के पास पहुँचे। कालूराम जी बड़े प्रेम से दाह किए हुए शवों की बिखरी पड़ी खोपड़ियों को अपने पास बुला-बुलाकर चने खिलाते थे। किनाराम को यह व्यर्थ का खिलवाड़ लगा और उन्होंने अपनी सिद्धि शक्ति से खोपड़ियों का चलना बंद कर दिया। कालूराम ने ध्यान लगाकर समझ लिया कि यह शक्ति केवल किनाराम में है। इन्हें देखकर कालूराम ने कहा-भूख लगी है। मछली खिलाओ। किनाराम ने गंगा तट की ओर मुख कर कहा-गंगिया, ला एक मछली दे जा। एक बड़ी मछली स्वत: पानी से बाहर आ गई। थोड़ी देर बाद कालूराम ने गंगा में बहे जा रहे एक शव को किनाराम को दिखाया। किनाराम ने वहीं से मुर्दे को पुकारा, वह बहता हुआ किनारे आ लगा और उठकर खड़ा हो गया। बाबा किनाराम ने उसे घर वापिस भेज दिया पर उसकी माँ ने उसे बाबा की चरणसेवा के लिए ही छोड़ दिया।
इन सब के बाद, कहते हैं, कालूराम जी ने अपने स्वरूप को दर्शन दिया और किनाराम को साथ, क्रींकुण्ड (भदैनी, वाराणसी) ले गए जहाँ उन्हें बताया कि इस स्थल को ही गिरनार समझो। समस्त तीर्थों का फल यहाँ मिल जाएगा। किनाराम तबसे मुख्यश: उसी स्थान पर रहने लगे। अपने प्रथम गुरु वैष्णव शिवाराम जी के नाप पर उन्होंने चार मठ स्थापित किए तथा दूसरे गुरु, औघड़ बाबा कालूराम की स्मृति में क्रींकुंड (वाराणसी), रामगढ़ (चंदौली), देवल (गाजीपुर) तथा हरिहरपुर (जौनपुर) में चार औघड़ गद्दियाँ कायम कीं।
और क्रीं कुंड के पास ही एक अघोर साहित्य की दुकान है जहाँ आपको कीनारामजी के द्वारा अघोर पर लिखी पुस्तके विवेक्सार और उन्मुनिराम भी मिल जायेगी ! आज के लिए इतना ही आगे...... समय मिलने पर
🙏🙏🙏 बाबा कीनाराम:-------
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सूर्य की रक्तिम आभा उस तेजस्वी के मुख को और भी रक्तिम कर रही थी। पास ही एक झोला पड़ा था और पड़ी थी सिन्दूर पुती हुई एक मानव खोपड़ी। धीरे-धीरे सन्यासी अपने नेत्र खोलता है, चारों तरफ सरसरी दृष्टि से लोगों को देखता है, फिर महादेव को प्रणाम कर कुछ मन्त्र पढ़ता है।
जलती चिताओं के पास पहुँच कर, उसमें से भस्म लेकर शरीर में लगाकर, अपने गन्तव्य की ओर चलने से पहले ज़मीन पर पड़ी उसी सिद्ध खोपड़ी से बोलता है--चल रे ! काहे ज़मीन पर पड़े पड़े सो रहा है ?
ये थे महान् अघोरी साधक कालूराम। उनका रोज़ का काम था साधना करना, कभी कभी शव साधना करना। यही क्रम वर्षो से चलता आ रहा था। प्रातः उठते ही अपनी सिद्ध खोपड़ी को आवाज़ लगाते। खोपड़ी हवा में उछलकर बाबा के हाथों में आ जाती और फिर उसे हाथ में लेकर भद्रवन की ओर चल पड़ते। आज जहाँ क्रीमकुण्ड है, वहां पहले घना वन था--औघड़ साधकों का साधना स्थल। तमाम औघड़ साधक वृक्षों के नीचे बैठे साधना करते रहते। बाबा कालूराम का उसी भद्रवन में एक विशेष् स्थान था जो वर्तमान में क्रीमकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान में आज उनकी समाधि भी है।
खैर, वह मानव खोपड़ी आज रोज की तरह उछलकर बाबा के हाथों में नहीं आयी, जहाँ की तहाँ पड़ी रही। बाबा कालूराम को पहले तो थोड़ा आवेश आ गया, उनका चेहरा तमतमा गया। लेकिन जब उन्होंने नज़र घुमाकर देखा--श्मशान के पास घने पीपल के वृक्ष के नीचे एक युवा साधक साधना रत है। बीस-बाइस साल का युवक, हल्की हल्की दाढ़ी-मूंछ, बड़े-बड़े घने घुंघराले काले बाल कंधों तक फैले हुए, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की पतली माला, हाथ में कमण्डल--साक्षात् बाल शिव जैसा मोहक स्वरूप। बाबा कालूराम को तुरन्त आभास हो गया कि वह कोई साधारण युवक नहीं है, कोई सिद्ध युवा साधक है। इसी युवक ने मेरी सिद्ध मानव खोपड़ी को स्तंभित कर् रखा है।
बाबा को अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रहा, बल्कि उस साधक को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया--जैसे कोई अपना वर्षों से बिछुड़ा हुआ अचानक सामने आ गया हो। बाबा कालूराम चलते हुए उस युवक के पास पहुंचे। युवक ने झुककर बाबा कालूराम का चरण स्पर्श किया और कहा--मैं कीनाराम और यह मेरा शिष्य बीजाराम है। बीजाराम ने भी बाबा का झुकाकर चरण स्पर्श किया। बाबा ने पूछा--काशी में कैसे आना हुआ ? कीनाराम बोले--गिरिनार से आ रहा हूँ तपस्या पूर्ण करके अपने गुरु की तलाश में। अनुभूति हुई कि गुरुदेव का दर्शन काशी में होगा, बस चला आया।
इतना कहकर कीनाराम चुप हो गए। बाबा कालूराम बस मुस्करा दिए, फिर बोले--तेरा गुरु तो तुझे मिल जायेगा, पहले कुछ खिलाओ, बड़ी भूख लगी है।
क्या खाएंगे ?--कीनाराम ने पूछा।
मछली खाने की इच्छा हो रही है।--बाबा कालूराम बोले। कीनाराम गंगा की ओर मुंह करके खड़े हो गए, फिर भगवती गंगा को हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। फिर कोई मन्त्र बुदबुदाया--देखते ही देखते दर्जनों मछलियां गंगा से उछल- उछल कर सामने जलती हुई चिता की आग में गिरने लगी। धड़ाधड़ एक के बाद एक मछली जलती चिता में गिर रही थी। बाबा कालूराम चिल्लाये--अरे ! पूरी गंगा की मछली निकाल देगा क्या ? बस कर, कीनाराम, बहुत है।
वहां पर खड़े लोगों ने देखा--चिता मछलियों से भर गई थी। कीनाराम बोले--बीजाराम, जा अच्छी-अच्छी भुनी हुई मछली ले आ बाबा के लिए। बीजाराम मछली निकाल कर ले आया।बाबा आनंदमग्न होकर मछली खाने लगे। इसके बाद बाबा कालूराम, कीनाराम और बीजाराम एक साथ चल पड़े भद्रवन की ओर।
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