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मूल गण्डान्त शान्ति प्रयोग Mool Shanti

मूल गण्डान्त शान्ति प्रयोग Mool Shanti

जिस मूल नक्षत्र में शिशु का जन्म हुआ हो उसके दूसरे मूल नक्षत्र में स्नान कर श्वेत वस्त्र पहन कर जातक एवं पत्नी सहित यजमान (पिता) पूजा के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ आचमन प्राणायाम एवं आसन शुद्धि कर हाथ में अक्षत पुष्प लेकर
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवेत्यादि0 स्वस्त्ययन (मन्त्रों को) ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्चेत्यादि0 मङ्लमंत्र पढ़े। तदनन्तर प्रतिज्ञा संकल्प करे। ॐ अद्येत्यादि देशकालौ संकीत्र्य अमुकगोत्रोऽमुकशर्मा (वर्मागुप्तो वा सपत्नीकोऽहं अस्य बालकस्य अस्याः कुमार्याः वा मूलनक्षत्रा (ज्येष्ठा, आश्लेषा, मघा रेवती अश्विनी वा) तदधिकरणकामुकपादजननारिष्टनिवारणपूर्वकं तदीयायुर्बृद्ध- îुत्तरपित्रादिसम्बन्धिशुभफलप्राप्त्यर्थे श्रीपरमेश्वरप्रीतये च गोमुखप्रसवपूर्वकं अमुकनक्षत्रागण्डात् शान्तिमहं करिष्ये तन्निर्विघ्नतासिद्धîर्थं तदङ्त्वेन गणपत्यादिपूजनं च करिष्ये। तदनन्तर श्री गणपति, नवग्रह, नान्दीश्राद्ध, आदि कृत्य सामान्य पूजन विधि के अनुसार करायें अथवा स्वर्ण दान करें। तत्रा संकल्पः-ॐ अद्येत्यादि अमुकगोत्रस्यात्मजस्यामुकशर्मणः मूला (ज्येष्ठा, मघा रेवती वा) नक्षत्राधिकरणकजन्माङ्भूतकर्तव्याभ्युदयिकश्राद्धजन्य- फलसम्प्राप्त्यर्थममुं यथाशक्ति सुवर्णमग्निदैवतं यथानामगोत्रयामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रददे।
तदनन्तर आचार्य मण्डप से बाहर यजमान के घर के ईशान भाग में सफेद सरसों छींटे। ॐ आपो हिष्ठेत्यादि इस मंत्र (देंखें नित्य संध्या) से पञ्चगव्य द्वारा प्रोक्षण कर वहां चावल के आटे से अष्टदल कमल बनाकर उसके ऊपर यथाशक्ति अनाज फैलाकर उस अनाज के ऊपर नूतन बांस के सूप को रखकर उस पर तिल एवं कुश फैलाकर इसके ऊपर लाल वस्त्र फैलाकर उस पर शिशु का मुख पूर्व की ओर और पांव पश्चिम की ओर रखकर तिगुने मांगलिक सूत्रा से उस शिशु को सूप के साथ लपेटकर शिशु के समीप गोमुख लाकर शिशु स्पर्श करायें। पुनः गोमुख से शिश्ुा की उत्पत्ति का भावकर पञ्चगव्य से कुश द्वारा शिशु का मार्जन करे। तत्रा मंत्र ॐ विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु। आषिझ्तु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते।। अथवा गवामङ्गेषु इस मंत्र से गौ के सभी अङ्गों का स्पर्श करायें। ॐ गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भूवनानि चतुर्दश। यस्मात् तस्माच्छिवं मे स्यादिहलोके परत्रा च। तदनन्तर विष्णो श्रेष्ठ0 इस मंत्र से आचार्य शिशु को लेकर माता के हाथ में दे। तत्रा मन्त्र-ॐ विष्णो श्रेष्ठेन रूपेणास्यां नार्यां गवीन्यां पुमांसं पुत्रमाधेहि दशमे मासि सूतवे। उसके बाद माता गोमुख के पास से शिशु को लाकर गाय के पूछ भाग के तरफ शिशु को देखकर अपने पति के हाथ में दे। पिता-ॐ अङ्गादङ्गात् सम्भवसि
हृदयादधिजायसे। आत्मा वै पुत्रनामासि संजीव शरदः शतम्।। इस मंत्र से तीन बार शिशु के मस्तक को सूंघकर माता को दे दे। तदनन्तर आचार्य आपोहिष्ठा. इस मंत्र द्वारा बालक को पंचगव्य से सींचे। तदनन्तर पिता-गोमुखप्रसवाख्यकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु। आचार्य-ॐ पुण्याहं ॐ पुण्याहं इति ब्रूयात्। उसके बाद गाय अथवा गो निष्क्रयीभूत द्रव्य संकल्पपूर्वक आचार्य के लिए देकर यथाशक्ति नवग्रह की प्रीति हेतु गो, स्वर्ण, वस्त्र, अनाज आदि दें। संकल्प-ॐ अथ गोमुखप्रसवाख्यकर्मणः सांगतासिद्धîर्थं सूर्यादिनवग्रहाणां प्रीत्यर्थं चेमानि गोवस्त्रासुवर्णधान्यानि सदक्षिणानि तन्निष्क्रयीभूतानि द्रव्याणि वा यथानामगोत्रय ब्राह्मणायदातुमहमुत्सुजे। तदनन्तर ईशान दिशा में अनाज के ऊपर कलश स्थापन विधि द्वारा वरुण कलश को स्थपित कर उस पर चन्दन, अगुरु, कुंकुम, सभी प्रकार के चन्दन एवं श्वेत सरसों छीटें। कलश के ऊपर स्वर्ण निर्मित
अधिदेवता इन्द्र, प्रत्यभिदेवता जल सहित निर्ऋति प्रतिमा स्थापित कर अग्न्युत्तारण पूर्वक ॐ असुन्वन्त यजमानमिच्छंस्तेन सेत्वामन्विहितस्करस्य। अन्यमस्मादिच्छसा- तऽइत्यानमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु। इस मंत्र से पूजन करे। एवं आश्लेषा में सार्प, मघा में पितृ, ज्येष्ठा में इन्द्र, रेवती में पूषा, अश्विनी में अश्विनी की प्रतिमा तत्तद् मंत्रों के द्वारा अधिदेवता प्रत्यभिदेवता सहित स्थापित करे। आवाहन कर पूजन करें।
आश्लेषा मंत्र-ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु। येऽन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।।
मघा मन्त्र-ॐ उशन्तस्त्वा निधोमह्युशन्तःसमिधीमहि। उशन्नुशतऽआवह पितृन् हविषेऽअत्तवे।।
ज्येष्ठा मन्त्र-ॐ सयोषा इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्राहा शूर विद्वान्। जहि शत्राुरपमृधो नुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः।।
रेवती मन्त्र-ॐ पूषन्तव ब्रते वयं न रिष्येम कदाचन। स्तोतारस्त
इह स्मसि।।
अश्विनी मन्त्र-ॐ यावाङ्कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षितम्।। अग्न्युत्तारण एवं प्राण प्रतिष्ठा विशिष्ट पूजन विधि के अनुसार करायें। उसके चारों ओर सुपारियों एवं अक्षत पुंजों पर नक्षत्र के देवता अश्विनी आदि का आवाहन करे। ॐ अश्विभ्यां नमः अश्विनावाहयामि स्थापयामि।।1।।
ॐ यमाय0 यमं0 2। ॐ अग्नये0 अग्निं0 3।। ॐ प्रजापतये0 प्रजापतिं0 4।। ॐ सोमाय0 सोमं0 5। ॐ रुद्राय नमः रुदं0 6। ॐ अदितये0 7 अदितिं। ॐ बृहस्पतये0 बृहस्पतिं0 8 ॐ सर्पेभ्यो0 सर्पान्0 9। ॐ पितृभ्यो0 पितृन् 10 ॐ भगाय0 भगं0 11 ॐ अर्यम्णे0 अर्यमाणम् 12 ॐ सवित्रो0 सवितारं0 13। ॐ त्वष्ट्रे0 त्वष्टारम् 14 ॐ वायवे0 वायुं 15 ॐ इन्द्राग्नीभ्यां0 इन्द्राग्नीं0 16 ॐ मित्राय0 मित्रंा0 17 इन्द्राय0 इन्द्रं0 18 ॐ निर्ऋतये0 निर्ऋतिं 19। ॐ अद्म्îो0 अपः0 20। ॐ विश्वेभ्यो देवेभ्यो0 विश्वान् देवान्0 21। ॐ ब्रह्मणे0 ब्रह्माणम्0 22 ॐ विष्णवे विष्णंु0 23। ॐ वसुभ्यो0 वसून् 24। ॐ वरुणाय0 वरुणम्0 25। ॐ अजैकपदे0 अजैकपादं 26। ॐअहिर्बु-
ध्न्या0 अहिर्बुध्न्यम्27 ॐ पूष्णे0 पूषाणम् 28।। इत्यावाह्य ॐ मनोजूति0 इति मन्त्रोण ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ निर्ऋत्याद्यावाहितदेवताभ्यो नमः आवाहितदेवता इह सुप्रतिष्ठिता वरदा भवत इस प्रकार चन्दनादि द्वारा पूजा कर ॐ अनया पूजया निर्ऋत्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम्। मंत्र पढ़कर जल छोड़ दे। उसके बाद वरुण कलश के सीप चावल एवं गोधूम चूर्ण आदि द्वारा सफेद कमल बनाकर उसके ऊपर सप्त धान्य राशि को रखकर उसके बीच सौ छेद वाले कलश को रख उसके चारों ओर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से चार घड़ों को कलश स्थापन विधि (देखें सामान्य पूजन विधि) के अनुसार स्थापित करे। उसमें पहले घड़े में लाल चन्दन कमल, कुष्ट, प्रियंगु, शुंठी, मुस्ता, आमलक, वच, श्वेतसर्षप, मुरामांसी अगर उशीरादि उपलब्ध वस्तुओं को छोड़ें। तदनन्तर ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव0 इत्यादि परिशिष्ट में दिये गये रुद्राष्टाध्यायी के 5वें अध्याय के आदि से 16 मंत्र) रुद्राध्यायी को पढ़कर कलश स्पर्श करे। फूल छोड़ दे। दक्षिणकुंभ में पंचामृत, गजमद, तीर्थोदक, सप्तधान्यसुवर्णानि छोड़ दें। ॐ आशुः शिशान0 इस बारह मंत्रों का पाठ करें (देखें परिशिष्ट /रुद्राष्टाध्यायी /तृतीय अध्याय) पश्चिमकुंभ में सप्तमृत्तिका छोड़े। ॐ कृणुष्वाजः0 पांच मंत्रों को पढ़ें (देखें परिशिष्ट/रुद्राष्टा,) उत्तरकुंभे पंचरत्न, वट, अश्वत्थ, पलाश, प्लक्ष, उदुम्बर के पत्ते और सात कुंओं का जल छोड़ें। रक्षोहरण चार मंत्रों का जप करे। बीच के शत छिद्र वाले कलश में शत औषधियों उसके अभाव में सुलभ अच्छे वृक्षों के पल्लवों को विष्णुक्रान्ता, सहदेवी, तुलसी, शतावरी, कुश, कुंकुम को डालें। ॐ त्रयम्बकं इस मंत्र का 108 बार जप करे। जप के बाद कलश का स्पर्श करे तथा अक्षत, गंध और पुष्प छोड़ें और पूर्णपात्र पर वरुणावहन कर पूजन करे, तदनन्तर अग्निस्थापन स्थान से पश्चिम दिशा में किसी तरह से ऊपर शिकहर बांधकर वहीं बांस के पात्र में कम्बल के टुकड़े को फैलाकर उसके ऊपर सौ छिद्र वाले कलश रखें। तदनन्तर उस कलश के नीचे अच्छे काठ से निर्मित पीढ़ा को रखकर उसे श्वेत वस्त्र से ढक दें। वहां पुत्र एवं पत्नी के सहित यजमान को बैठाएं। उसके बाद शिक्य (शिकहर) में स्थित कलश में धीरे-
धीरे चार कुम्भों में स्थित जल को डालकर आचार्य अभिषेक मंत्र द्वारा सपत्नीक यजमान शिशु के ऊपर जल धारा गिराये। ॐ देवस्त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिाये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिसिझ्ाम्यसौ।। ॐ देवस्य त्वा0।। सरस्वत्यै वाचोयन्तु यन्त्रोणाग्नेः साम्राज्येनाभिषिंचामि ॐ देवस्य त्वा0।। अश्विनो भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभिषिंचामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभिषिंचामीन्द्र- स्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिंचामि। ॐ योऽसौ वज्रधरो देवो महेन्द्रो गजवाहनः। मूला (मघा, ज्येष्टाऽऽश्लेषा) जातस्य शिशोर्दोषं मातापित्रोः व्यपोहतु।।1।। ॐ योऽसौ शक्तिधरो देवो हुतभुङ्ग मेषवाहनः। सप्तजिह्नश्च देवोऽग्निर्मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) दोषं व्यपोहतु।।2।। योऽसौ
दण्डधरो देवो धर्मो महिषवाहनः। मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) जातशिशोर्दोषं व्यपोहतु यमो मम।।3।। ॐ योऽसौ खङ्धरो देवो निर्ऋतिर्राक्षसाधिपः। प्रशामयतु मूलोत्थं (ज्येष्ठोत्थं, मघोत्थं, सार्पोत्थं, गण्डोत्थं) दोषं गण्डान्तसम्भवम्।।4।। ॐ योऽसौ पाशधरो देवो वरुणश्च जलेश्वरः। नक्रवाहः प्रचेता वै मूला ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) दोषं व्यपोहतु।।5।। ॐ योऽसौ देवो जगत्प्राणो मारुतो मृगवाहनः। प्रशामयतु मूलोत्थं, (ज्येष्ठोत्थं, मघोत्थं, सार्पोत्थं, गण्डोत्थं) दोषं बालस्य शान्तिदः।।6।। ॐ योऽसौ
निधिपतिर्देवः खङ्भृद् वाजिवाहनः। मातापित्रोः शिशोश्चैव मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) दोषं व्यपोहतु।।7।। ॐ योऽसौपशुपतिर्देवः पिनाकी वृषवाहनः। आश्लेषा (मघा, ज्येष्ठा, मूला गण्डा) न्तदोषान्ममाशु व्यपोहतु।।8।। ॐ विघ्नेशः क्षेत्रापो दुर्गा लोकपाला नवग्रहाः। सर्वदोषप्रशमनं सर्वे कुर्वन्तु शान्तिदाः।।9।। ॐ मूलक्र्षे (ज्येष्ठाऽऽश्लेषा, गण्ड) जातबालस्य
मातृपित्रोर्धनस्य चा भ्रातृज्ञातिकुलस्थानां दोषं सर्वं व्यपोहतु।।10।।
ॐ पितरः सर्वभूतानां रक्षन्तु पितरः सदा। मूला (ज्येष्ठा, मघा, सार्प, गण्ड) नक्षत्राजातस्य वित्तं च ज्ञातिवान्धवान्।।11।। एवं ज्येष्ठा आश्लेषा आदि नक्षत्रों के शान्ति में ततद् निर्धारित मंत्रों के आधार पर तत्तद् कार्य करें।
तदनन्तर यजमान शिशु एवं पत्नी के साथ शुद्ध जल से स्नान कर दूसरा वस्त्र पहन गीले कपड़े को नापित (नाई) को देकर आचमन करे उसक बाद बैठकर यजमान ही
ॐ शिरोमेश्रीर्यशः इस मंत्र द्वारा अपने अंगों का स्पर्श करे। तद्यथा ॐ शिरो मे श्रीरस्तु शिर छूना चाहिए। इसी प्रकार सभी जगह समझना चाहिए। ॐ यशो मे मुखमस्तु। इति मुखम्। ॐ त्विषिर्मे केशाः सन्तु। इति मस्तकस्थान् केशान्। ॐ श्मश्रूणि सन्तु इति कूर्चमुखजरोमाणि। ॐ राजा मे प्राणा अमृतमस्तु इति नासिकायां प्राणान्। ॐ सम्राण्मे चक्षुरस्तु इति युगपच्चक्षुषी। ॐ विराट् मे श्रोत्रामस्तु। इति श्रोत्राम्। ॐ जिह्ना मे भद्रमस्तु। इति जिह्ना ॐ वाङ्मे महोऽस्तु। इति जिह्नामेव। ॐ मनो मे मन्युरस्तु। इति हृदयम्। (उदकोपस्पर्शः) ॐ स्वराण्मे भामोऽस्तु। इतिभुवोर्मध्यम्। ॐ मोदाः प्रमोदाः मेऽङ्गुल्यः सन्तु। इति हस्ताङगुलीः पादाङगुलीश्च। ॐ मोदाः प्रमोदाः मेऽङ्गानिः सन्तु। इति सर्वाङ्गानि। ॐ मित्रां मे सहोऽस्तु। इति स्वशरीरगतं बलम्। ॐबाहू मे बलमिन्द्रियं स्तां। इति बाहू। ॐ आत्मा मे क्षत्रामस्तु। इति हृदयम्। (उदकोपस्पर्शनम्) ॐ उरो मे क्षत्रामस्तु। इति हृदयमेव। ॐ पृष्ठं मे राष्ट्रमस्तु। इति पृष्ठवंशम्। ॐ उदरे मे राष्ट्रमस्तु इति उदरम्। ॐ अंसौ मे राष्ट्रंस्तां। इत्यंशौ ॐ ग्रीवाश्चमे राष्ट्रं सन्तु। इति ग्रीवा। ॐ श्रोणी में राष्ट्रंस्तां कटिद्वयम्। ॐ ऊरू मे राष्ट्रंस्तां। इत्यूरू। ॐ अरत्नी मे राष्ट्रंस्तां इत्यरत्नी। ॐ जानुनी मे राष्ट्रंष्तां इति जानुनी। ॐ विशो मेऽङ्गानि सर्वत्रा सन्तु। इति सर्वाङ्गानि। ॐ नाभिर्मे वित्तमस्तु। इति नाभिम्। ॐ नाभिर्मे विज्ञानमस्तु। इति नाभिमेव। ॐ पायुर्मेऽपचितिरस्तु। इतिपायुं। ॐ भसन्मेऽपचितिरस्तु। इति पायुमेव। ॐ आनन्दनन्दावाण्डौ मे स्तां। इत्यण्डौ। ॐ भगो मे यशोऽस्तु। इति लिङ्म् ॐ सौभाग्यं मे यशोऽस्तु। इति लिङ्मेव। ॐ जङ्घाभ्यां धर्मोऽस्मि। इति जंघे। ॐ पद्भ्îां धर्मोऽस्मि। इति पादौ। ॐ विशि राजा प्रतिसर्वदेहम्।
तदनन्तर आचार्य कुशकण्डिका कर। ॐ प्रजापतये स्वाहा0 से प्रारम्भ कर ॐ विश्ववम्र्मन् हविषा0 यहां तक हेाम प्रकरण के अनुसार हवन करे।
प्रधानहोम-एक हजार आठ या एक सौ आठ या अट्ठाइस या आठ आहूति प्रदान करे।
मूलनक्षत्राहोम-ओं असुन्वन्त मे यजमानमिच्छस्तेनस्येत्यामन्विर्हिंतस्करस्य। अन्यमस्मदिच्छ सातषाऽइन्द्र सगणो मरुद्मिः सोमं पिब वृत्राहा शूर विद्वान्। जहि शत्रूांरपमृधोनुदस्वा धा वयं कृणुहि विश्वतो नः स्वाहा।  
प्रत्यधिदेवता मंत्र-ॐ आपोहि ष्ठा मयोभुवस्तान ऊर्जे दधातन महे रणाय चक्षसे स्वाहा। आश्लेषामन्त्रा-ॐ नमोऽस्तुसर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः स्वाहा। अधिदेवता गुरु मन्त्र-ॐ बृहस्पते अतियदर्यो अर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु  यद्दीदयच्छवस ऋतं प्रजात तदसमासु द्रविणं धेहि चित्रंा स्वाहा। तत्प्रत्यधिदेवता पितृमन्त्रा-ॐ उषन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आवह पितृन् हविषे अत्तवे स्वाहा। मघा नक्षत्र मन्त्राहोम-पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः प्रपितामहेभ्यस्वधायिभ्यः स्वधानमः अक्षन् न पितरो मीमदंत पितरोतीतृपन्तः पितरः पितरः शुन्धघ्वं स्वाहा। तदधिदेवता सर्पमन्त्रा-ॐ नमोऽस्तु सर्पेति0 स्वा0 तत्प्रत्यधिदेवतामन्त्रा-ॐ भगं प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमान्धियमुदवाददन्नः भगं ँ नो जनय गोभिरश्वैर्भग प्रनृभिर्नृवन्तः श्याम  स्वाहा। ज्येष्ठानक्षत्रामन्त्राहोम-ॐ इन्द्र आसां नेतां बृहस्पतिर्दक्षिणायज्ञः पुर एतु सोमः। देवसेनानामभि- भञ्जयन्तीनाम्मरुतो यन्त्वग्रं स्वाहा। तदधिदेवतामन्त्रा-ॐ मित्रास्य च ऋषणीधृतो वो देवस्य सानसि। द्युम्नं चित्राश्रवस्तमं स्वाहा। तत्प्रत्यधिदेवता मन्त्र-ॐ असुन्वन्तम0 स्वाहा। रेवती मन्त्र होम-ॐ पूषन्तव व्व्रते व्ययन्न रिष्येम कदाचन स्तोतारस्त इह स्मसि  स्वाहा। अधिदेवतामन्त्रा-ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मा मा हि Ủ सीः। निवर्तयाम्यायुषेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायष्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय स्वाहा। प्रत्यधिदेवतामन्त्रा-ॐ यावाङ्कशा0 इत्यादि।
अश्विनी नक्षत्र मन्त्र होम-ॐ अश्विना तेजसा चक्षुः प्राणेन सरस्वती वीर्यम्। वाचेन्द्रो बलेनेन्द्राय दधुरिन्द्रियं स्वाहा। तदधिदेवता मन्त्र-ॐ पूषन्तव व्व्रते व्वयंन्न रिष्येम कदाचन। स्तोतारस्त इह स्मसि स्वाहा।
प्रत्यधिदेवतामन्त्रा-ॐयमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहा धर्माय स्वाहा
धर्मपित्रो स्वाहा। इति प्रधानादिदेवताहोम।
तदनन्तर नक्षत्र देवताओं को नाम मंत्रों के द्वारा प्रत्येक को आठ बार श्रुवा के द्वारा आहूति प्रदान कर स्विष्टत्कृद् होम करे। पुनः भूः से लेकर प्रजापति पर्यन्त नव आहुति करे। उसके बाद दिक्पालों के साथ-साथ बलिदान आदि सभी क्रियाओं केा करके

प्रधान कुम्भ में स्थित जल को लेकर ब्राह्मण, पत्नी शिशु सहित यजमान का अभिसिञ्चन करें। तदनन्तर मंगल स्नान के बाद दक्षिणा दान का संकल्प करें। ॐ अद्येह इदं घटं स्वर्णमूर्तिसहितं यथा नामगोत्रय0 उसके बाद कांस पात्र में स्थित घी में शिशु के मुख का अवलोकन कराना चाहिए। नए वस्त्र से आच्छादित शिशु केा माता के गोद में रखकर शंख ध्वनि के साथ पिता शिशु का घी से पूर्ण छाया पात्र में मुख देखकर एवं उसकी पत्नी विधिवत् मुख देखकर छाया पात्र संकल्प पूर्वक ब्राह्मण को दे। उसके बाद आवाहित देवताओं का उत्तरपूजन, सूर्याघ्र्यदान, 27 या 10 ब्राह्मणों को भोजन आदि कृत्य करे। आश्लेषादिगण्डान्तयोः प्रसवेऽपि इदमेवानुष्ठेयम्। इति मूलादिगण्डान्तशान्तिः।।

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