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Putli Vidhya |Voodoo पुतली-विद्या (गढ़ंत विद्या)अभिचार कर्म रहस्य सिद्धान्त एवं निदान

Putli Vidhya |Voodoo पुतली-विद्या (गढ़ंत विद्या)अभिचार कर्म रहस्य सिद्धान्त एवं निदान

अघोरपंथ के एक जंगलवासी साधक से इस विद्या को सीखने के लिए पहली बार मुझे ज्योतिष की भी शिक्षा उससे लेनी पड़ी थी। यह विद्या इस प्रकार है –

पुतली विद्या का स्वरुप और विधि प्रक्रिया

इसी प्रकार की एक विद्या अफ्रीका में भी ‘वुडु विद्या’ के नाम से चर्चा में रही है ; पर उसकी प्रकिया मुझे ज्ञात नहीं है। हमने अघोरपंथ की प्रक्रिया को सिद्ध करके देखा था। यह एक विद्या है और केवल विनाशक नहीं है। इससे दूर बैठकर किसी भी स्त्री-पुरुष के गंभीर लाइलाज रोगों की भी चिकित्सा की जा सकती है और इसका उपयोग वशीकरण, मोहन, स्तम्भन से लेकर मारण कार्यों तक किया जा सकता है।

पहला चरण – शत्रु के नक्षत्र का ज्ञान करना।

दूसरा चरण – साध्य के नक्षत्र वृक्ष, उसके बाल या अधोवस्त्र, काली मिट्टी का सात बार जल में घोलकर कपड़े से छने पानी में बैठी मिट्टी, चिता या साध्य के प्रयोग की वस्तु को जलाकर की गयी राख, नमक (सेंधा), सोंठ, पीपल , काली मिर्च , रसोई की कालिख , लहसुन , हिंग, गेरू, पीली सरसों , काली सरसों, ईख का रस या गुड़ , नीम की छाल का पिष्ठ आदि वस्तुओं का कर्म के अनुसार चयन किया जाता है। इसके बाद उड़द के आटे से पुतली का निर्माण होता है। बालों से बाल एवं रोमों की स्थापना की स्थापना की जाती है।

तीसरा चरण – यह पुतली नक्षत्रों के चारों चरणों के अनुसार अलग अलग होती है यानी 27×4 = 108 प्रकार की। इन सबकीलम्बाई अलग – अलग होती है (गुप्त)

चौथा चरण – पुतली की जो भी लम्बाई हो, उसके सिर से गर्दन का हिस्सा भाग , कमर से कंधों अक हिस्सा – 4 भाग एवं कमर से नीचे का हिस्सा उभाग होता है।

कर्म विधि

सबसे कठिन इसकी विधि प्रकिया है। राध्य की लग्न या चन्द्र राशि, से अशुभ कर्मों के लिए अष्टम और शुभ कर्मों के लिए पंचम भाव की स्थिति का प्रयोग किया जाता है। अशुभ कर्मों में जब अष्टम भाव (लग्न राशि में) दुर्बल और पंचम भाव बली होता है।
इसके अतिरक्ति समयकाल की राशि को भी इसी के अनुरूप चुना जाता है।
प्रत्येक स्त्री/पुरुष के शरीर में अमृत स्थान एवं विष- स्थान होते हैं। इनकी गति और व्याप्ति भी महीने के 30 दिन में चन्द्र तिथि के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। पुरुष एवं नारी में यह स्थिति विपरीत क्रम में होती है। कर्म के अनुसार इसका भी चयन करना होता है।
प्राण – प्रतिष्ठा

इसके बाद इस पुतली की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इसकी एक अलग प्रकिया है।

इसके बाद क्रियात्मक और हवन आदि

प्राण प्रतिष्ठा के बाद वशीकरण , आकर्षण , विद्वेषण , स्तम्भन , उच्चाटन और मारण की क्रियाएं शुभाशुभ भेद से तिथि , आकल, राशि-साध्य का शुभाशुभ काल आदि देखकर किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार विषयोग , मृत्यु योग, शूल योग, कंटक योग आदि अशुभ और इसी प्रकार शुभ योगों का चयन करके क्रिया की जाती है।

यह एक जटिल तंत्र क्रिया है। इन सारी क्रियाओं को करने में महीनों का वक्त लगता है।

अमृत स्थान एवं विष स्थान
शरीर में अमृत-स्थान:-
1. पुरूष में दांये से– (शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक) – अंगूठा, पैर, पीठ, कुहनी, घुटना, लिंग, नाभि, ह्रदय, स्तन, गला, नाक, कान, नाक, आँख, भों, कनपट्टी, कपोल, मूर्धा. इन तिथियों में यहाँ अमृत उत्त्पन्न होता है.
2. स्त्री में बाएं से – यही क्रम नारी में शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक बांये से दांये होता है.
3. कृष्ण प्रतिप्रदा से अमावस्या तक – (पुरूष में) ऊपर के क्रम का उल्टा यानी मूर्द्धा से नीचे की ओर |
4. कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक – (स्त्री में) उपर से नीचे उल्टा !

शरीर में विष-स्थान-
1. शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक–  ह्रदय, स्तन, कंठ, नाक, आँख, कान, भृकुटी-मध्य, मूर्धा-मध्य, शंख-मध्य, इस समय इन स्थानों से विषों की उत्त्पत्ति होती है और यह ऊपर की ओर गतिमान होता है |
2. शुक्ल दशमी से कृष्ण नवमी तक– भ्रूमध्य, शंखमध्य, कान, आँख, नाक, कंठ, स्तन, ह्रदय, नाभि, गुदामार्ग, जांघों की संधि, घुटने, पावों, पर का ऊपरी भाग, बांये पैर का अंगूठा, बाया पैर, इस काल में यहाँ विष उत्त्पन्न होता है और नीचे की और चलता है |
3. कृष्ण दशमी से अमावस्या तक – दाहिने पैर का अंगूठा, दायाँ पैर, पिंडली, घुटने, नाभि, लिंग या योनि, इस समय इन स्थानों से विष की उत्त्पत्ति होती है. इसकी गति वर्तुलाकार होती है |
विशेष – स्त्रियों में, जहाँ भी बांया-दांया लिखा है उसे उल्टा समझना चाहिए |

शुक्ल प्रतिपदा से पुरूष के दायें अंगूठे से उपर की और नारी में बांये अंगूठे से ऊपर की ओर एवं कृष्ण प्रतिपदा से पुरूष में ऊपर से बाएं होते बांये अंगूठे तक और नारी में दांये होते है|

शरीर के रहस्यमय मर्मस्थान:-
दो अंगूठे, दो घुटने, दो जंघाएँ, दायें बांये दो पीठ, दो उरू, एक सिवनी, एक गुदा, एक लिंग या योनि, दो पार्श्व, एक ह्रदय, दो स्तन, एक कंठ, दो कंधे, दो भृकुटी, दो कान, दो कनपट्टी, दो फाल, दो नासिकाएं, दो आँखें, दो कपाल – ये ३८ मर्म स्थान है !

निर्माण के पदार्थ:-
साध्य के बाल, प्रयोग किये अधोवस्त्र, कुम्हार के चाक की मिट्टी, साध्य के नक्षत्र वृक्ष की छाल, उड़द का आटा, पीपल, काली मिर्च, और गेरू –
ये शुभ कार्य के लिए प्रयुक्त होता है, अशुभ कार्य के लिए रसोई की कालिख, चिता की राख, सेंधा और समुद्री नमक, हींग, सोंठ, लहसुन भी मिलाया जाता है. बाल को छोड़ कर सभी को कूट कर पुतली बनाई जाती है. बाल से काट कर रोम और सर सहित अन्य बालों का प्रत्यारोपण किया जाता है|

होता क्या है?
किसी भी व्यक्ति के बाल, दांत आदि शरीर से अलग होकर तुरंत निष्क्रिय नहीं होते। ये 90 दिनों तक तो अपने आप ऊर्जा का उत्पादन करते रहते है और यह ऊर्जा उस व्यक्ति के शरीर की ऊर्जा के पॉजिटिव होती है। इसका रिसीवर केवल उस व्यक्ति का शरीर होता है। पुतली को छेदने, काटने , तपाने , द्रव्य में डालने आदि का प्रभाव उस स्त्री/ पुरुष पर होता है शक्तिशाली होता है। वह पृथ्वी पर कहीं भी हो, उसको प्रभावित करती है।

निदान

यदि कोई व्यक्ति स्त्री या पुरुष इससे पीड़ित है। कहीं कोई ऐसी तन्त्र क्रिया किया करता है, तो उसे ढूंढना और पुतली को नष्ट करना असम्भव है। इसके द्वारा तेज दर्द, सुई चुभने या भाला मारने जैसी पीड़ा , काटने – चीरने जैसी पीड़ा , ज्वर , उन्माद आदि भयानक रूप ले लेता है। जब तक पुतली पर अत्याचार होता रहेगा , पीड़ित भी पीड़ित रहेगा। कोई उपचार कारगर नहीं होगा। जो लोग इस विद्या को जानते मिले, उनका निदान एक मात्र था; पुतली ढूंढ कर नष्ट करो।

पर इसका एक निदान और भी रूप में पूर्णतया संभव है, जिसको मैंने करने जी न्यूज चैनल वालों दिखाया था। जप पीड़ित है, उसका पूरा ऊर्जा समीकरण ही बदल दो। वह उस पुतली की तरंगों का नेगेटिव रहेगा ही नहीं और वे अपने टारगेट को ढूंढती ही रह जाएगी।

कितने विस्मय की बात है। मिसाइलों , मोबाइल फोन, रेडियो सिग्नल , विभिन्न प्रकार के सेंसरों में इन्ही तरंगों की क्रियाएं होती है और सूत्र भी यही होता है; पर जब इस प्रकार की क्रियाओं की बात होती है; व्यक्ति इसे या तो चमत्कार समझ लेता है या काला जादू। हम लाख समझाएं लोग मानने के लिए तैयार नहीं कि यह कोई जादू नहीं है, इनमें भी वैज्ञानिक सूत्र ही काम करते हैं।

Par vidhya Bhakshini

गड़ंत नष्ट करने हेतु परविद्या भक्षणी प्रयोग:-

इस मंत्र की यह विशेषता है कि विरोधी द्वारा प्रयोग की गई  विद्या का हरण कर, शमन कर देती है।
यह विद्या 1 लाख जप से सिद्व होती है। जिसे 14 से 21 दिनों में पूर्ण कर लेते हैं। यदि यह प्रोग्राम ठीक चला तो 5 किलो मीटर तक कोई भी विद्या कार्य नही करेगी। यदि इस मंत्र के बाद विपरीत प्रत्यगिरा मंत्र लगा कर जाप करे तो वह गड़ंत को नष्ट कर देता है।

संकल्प : ऊँ तत्सद्य..........प्रसाद सिद्धी द्वारा पर कृत्या नष्टार्थे पर-मंत्र, पर-तन्त्र, पर-यंत्र भक्षार्थे च मम सर्वाभीष्ठ सिद्धियर्थे भगवती बगला मूलमंत्र सम्पुटे पर विद्या भक्षिणी मंत्र एक लक्ष जपे अहम् कुर्वे।

मंत्र - परविद्या भक्षणी मन्त्र (127 अक्षर)

ऊँ ह्लीं श्रीं ह्रीं ग्लौं ऐ क्लीं हुं क्षौं बगला मुखि पर प्रयोगम् ग्रस ग्रस, ऊँ 8 ब्रम्हास्त्र रूपिणि पर विद्या-ग्रासिनि! भक्षय भक्षय, ऊँ 8 पर-प्रज्ञा हारिणि! प्रज्ञां भ्रंशय भ्रंशय ऊँ 8 स्तम्भ नास्त्र रूपिणि! बुद्धिं नाशय नाशय, पच्चेन्द्रिय-ज्ञांन भक्ष भक्ष, ऊँ 8 बगला मुखि हुं फट् स्वाहा।
( जहाँ 8 है वहां ह्लीं से क्षौम तक पढ़ें )

विनियोग : ऊँ अस्य श्री पर विद्या-भेदिनी बगला मुखी मन्त्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, पर विद्या भक्षिणी श्री बगलामुखी देवता, आं बीजं, ह्ल्रीं शक्ति, क्रो कीलंक, श्री बगला-देवी-प्रसाद सिद्धि द्वारा पर-विद्या भेदनार्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास : श्री ब्रह्मर्षये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, पर विद्या भक्षिणी श्री बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, आं बीजाय नमः गुहो, ह्ल्रीं शक्तिये नमः पदियोः, क्रों कीलकाये नमः सर्वाग्ङे, श्री बगलादेवी प्रसाद सिद्धि द्वारा पर विद्या भेदनार्थेजपे विनियोगाय नमः अज्जलौ।

कर-न्यास : आं हृीं क्रों अंगुष्ठाभ्यां नमः, वद वद तर्जनीभ्यां स्वाहा, वाग्वादिनि मध्यमाभ्यां वषट्, स्वाहा अनामिकाभ्यां हुं, ऐ क्लीं सौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ह्ल्रीं करतल-कर-पुष्टाभ्यां फट्।

अग्ङ न्यास : आं ह्ल्रीं क्रों हृदयाय नमः, वद वद शिर से स्वाहा, वाग्वादिनि शिखायै वषट्, स्वाहा कवचाय हुं, ऐं क्लीं सौ नेत्र-त्रयाय वौष्ट्, ह्ल्रीं अस्त्राय फट्।

ध्यान - 

सर्व मंत्र मयीं देवीं, सर्वाकर्षण-कारिणीम्।
सर्व विद्या भक्षिणी च भजेऽहं विधि पूर्वकम्।

हवन सामग्री : हल्दी, पीली सरसों साबुत लाल मिर्च हवन सामग्री जिसे कडुवे तेल में साना गया।

नोट:- पर-विद्या भक्षिणी प्रयोग से पहले माँ बगलामुखी की दीक्षा दक्षिणाचार पद्धिति या वामाचार पद्धिति से दीक्षित गुरु द्वारा प्राप्त करें एवं गुरु बनाने में सावधानी बरतें !

चेतावनी:- बिना अनुभवी गुरु के निरिक्षण में कोई भी क्रिया न करें !

Ishtadev | इष्टदेव निर्धारण के विविध आधार | Choose Jata devi devta by Astrology

Ishtadev | इष्टदेव निर्धारण के विविध आधार |Choose Ista devi devta by Astrology

Ishtadev | इष्टदेव निर्धारण के विविध आधार
ईष्टदेव ( Ishtadev) को जानने की विधियों में भी विद्वानों में एक मत नही है। कुछ लोग नवम् भाव और उस भाव से सम्बन्धित राशि तथा राशि के स्वामी के आधार पर ईष्टदेव का निर्धारण करते है।

वही कुछ लोग पंचम भाव और उस भाव से सम्बन्धित राशि तथा राशि के स्वामी के आधार पर ईष्टदेव का निर्धारण करते है।

कुछ विद्वान लग्न लग्नेश तथा लग्न राशि के आधार पर इष्टदेव का निर्धारण करते है।

त्रिकोण भाव में सर्वाधिक बलि ग्रह के अनुसार भी इष्टदेव का चयन किया जाता है।

महर्षि जैमिनी जैसे विद्वान के अनुसार कुंडली में आत्मकारक ग्रह के आधार पर इष्टदेव का निर्धारण करना चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि कुंडली में आत्मकारक ग्रह का निर्धारण कैसे होता है ? महर्षि जेमिनी के अनुसार जन्मकुंडली में स्थित नौ ग्रहों में जो ग्रह सबसे अधिक अंश पर होता है चाहे वह किसी भी राशि में कयों न हो वह आत्मकारक ग्रह होता है।

Ishatdev | इष्टदेव का निर्धारण पंचम भाव के आधार पर

ईष्टदेव ( Ishtadev) या देवी का निर्धारण हमारे जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से होता है। ज्योतिष में जन्म कुंडली के पंचम भाव से पूर्व जन्म के संचित धर्म, कर्म, ज्ञान, बुद्धि, शिक्षा,भक्ति और इष्टदेव का बोध होता है। यही कारण है अधिकांश विद्वान इस भाव के आधार पर इष्टदेव का निर्धारण करते है।नवम् भाव सेउपासना के स्तर का ज्ञान होता है ।

हालांकि यदि आप अपने इष्टदेव निर्धारण नहीं कर पा रहे तो बिना किसी कारण के ईश्वर के जिस स्वरुप की तरफ आपका आकर्षण हो, वही आपके ईष्ट देव हैं ऐसा समझकर पूजा उपासना करना चाहिए।

पंचम भाव में स्थित ग्रह के आधार पर इष्ट देव (Ishatdev) का चयन

सूर्य-            विष्णु तथा राम

चन्द्र-          शिव, पार्वती, कृष्ण

मंगल-         हनुमान, कार्तिकेय, स्कन्द,

बुध-            दुर्गा, गणेश,

वृहस्पति-    ब्रह्मा, विष्णु, वामन

शुक्र-           लक्ष्मी, मां गौरी

शनि-           भैरव, यम, हनुमान, कुर्म,

राहु-             सरस्वती, शेषनाग, भैरव

केतु-            गणेश, मत्स्य

पंचम भाव में स्थित राशि के आधार इष्टदेव (Ishatdev) का निर्धारण

मेष:           सूर्य, विष्णुजी

वृष:            गणेशजी।

मिथुन:       सरस्वती, तारा, लक्ष्मी।

कर्क:           हनुमानजी।

सिह:           शिवजी।

कन्या:        भैरव, हनुमानजी, काली।

तुला:           भैरव, हनुमानजी, काली।

वृश्चिक:      शिवजी।

धनु:            हनुमानजी।

मकर:          सरस्वती, तारा, लक्ष्मी।

कुंभ:            गणेशजी।

मीन:            दुर्गा, सीता या कोई देवी।




आपके इष्ट देवी / देवता कौन हैं?

जैमिनी ज्योतिष के अनुसार आत्म कारक के आधार पर जातक के इष्ट देवता का निर्धारण किया जाता है। हमारी जन्म कुंडली में जो ग्रह सबसे अधिक अंशों पर होता है उसे आत्म कारक माना जाता है। आत्म कारक नवांश वर्ग कुंडली में जिस राशि में स्थित होता है उसे कारकांश लग्न कहा जाता है। इष्ट देव का निर्धारण करने के लिए हमें यह देखना होता है कि कारकांश लग्न से बारहवें भाव में स्थित राशि कौन सी है और उसका स्वामी ग्रह कौन है, उसी से संबंधित देवी देवता ही हमारे इष्ट देवी-देवता होते हैं।

इस पद्धति के अनुसार पर इष्ट देवता का निर्धारण करने के लिए जो भी ग्रह आता है उसके अनुसार देवी देवता की जानकारी पर आधारित कुल देवता की पहचान की जाती है। आइये अब जानते हैं कि कारकांश लग्न से बारहवें भाव से सम्बन्ध बनाने वाला ग्रह निम्नलिखित हो तो हमें किस देवी देवता की पूजा करनी चाहिए:

ग्रह एवं उनसे संबंधित देवी - देवता:

सूर्य ग्रह

आपको भगवान शिव अथवा श्री महाविष्णु जी के अवतार श्री राम जी की पूजा अर्चना करनी चाहिए।

चंद्र ग्रह

आपको माता सरस्वती अथवा भगवान हरि विष्णु के अवतार श्री कृष्ण जी की पूजा करनी चाहिए।

मंगल ग्रह

आपको भगवान कार्तिकेय, श्री मुरुगन स्वामी अथवा भगवान हनुमान की पूजा करनी चाहिए।

बुध ग्रह

आपके लिए भगवान हरि विष्णु जी अथवा श्री थिरुमल जी की पूजा अर्चना करना हितकर रहेगा।

बृहस्पति ग्रह

आपको भगवान दत्तात्रेय को मानना चाहिए। साथ ही आप भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा भी कर सकते हैं।

शुक्र ग्रह

आप माता महालक्ष्मी अथवा माता पार्वती की पूजा अर्चना कर सकते हैं।

शनि ग्रह

आपके लिए भगवान ब्रह्मा जी अथवा श्री अयप्पा स्वामी जी की पूजा करना बेहतर रहेगा।

राहु ग्रह

आपके लिए माता दुर्गा की पूजा सर्वश्रेष्ठ साबित होगी।

केतु ग्रह

आपको भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए।

पंचम भाव पद्धति से भी होते है इष्ट देवता

इस पद्धति के अतिरिक्त एक अन्य अधिक मान्य पद्धति है आपकी जन्म कुंडली के पंचम भाव के आधार पर इष्ट देवता का निर्धारण करना। पंचम भाव हमारे पूर्व जन्म के कर्म और विश्वास का द्योतक होता है। इसलिए अपने विभिन्न पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर उनसे संबंधित देवी देवता की पूजा करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है।

इस पद्धति के अनुसार जन्म कुंडली के पंचम भाव में जो ग्रह स्थित होता है उसे संबंधित देवी / देवता हमारे इष्ट होते हैं। यदि कोई भी ग्रह पंचम भाव में स्थित ना हो तो पंचम भाव के स्वामी अथवा पंचम भाव में स्थित राशि के आधार पर इष्ट देव की पहचान कर सकते हैं। लेकिन आजकल पंचम भाव पद्धति की जगह ज्योतिष विशेषज्ञ जैमिनी ज्योतिष पद्धति का इस्तेमाल करना ज्यादा उचित समझते हैं क्योंकि जैमिनी ज्योतिष पद्धति के परिणाम ज्यादा सटीक आते हैं।

वास्तव में इष्ट देव की शक्तियों हमारे अंतर में विराजमान होती हैं हमें केवल उनको पहचान ना होता है और उसके लिए उनकी पूजा करने से हमारा संबंध उनसे जुड़ जाता है। ऐसा करने से हमें अपने इष्ट की कृपा मिलती है और जीवन में सफलता की ऊंचाइयां प्राप्त होने की संभावना बढ़ जाती है।

Tantra Aur Jyotish | तंत्र और ज्योतिष ज्योतिष अनुसार साधना चयन

Tantra Aur Jyotish | तंत्र और ज्योतिष
ज्योतिष अनुसार साधना चयन


तंत्र-मंत्र मे ज्योतिष का बहुत महत्व है क्योंकि आज कल मंत्र जाप करने वाले साधक/साधिका सिर्फ मंत्र जाप मे मेहनत करते है और परिणाम स्वरुप जब उन्हे असफलता प्राप्त हो तो वह निराश हो जाते है
कुंडली मे स्थित ग्रहयोग से ये जानना आसान है के हमें कौनसी साधना में मंत्र में या तंत्र में सफलता प्राप्त होगी

जब तक सही ज्ञान नहीं प्राप्त होगा तब तक जीवन मे भटकना चलता रहेगा, इसलिये तंत्र के इस क्षेत्र मे हमे ग्रह, नक्षत्र और योग को जानना जरुरी है
जैसे मान लिजिये कोई महाकाली साधना कर रहा है और उसको कोई ग्रह साधना मे बाधक हो तो वह साधक सफलता प्राप्त करने हेतु चाहे कितना भी मेहनत कर ले उसको सफलता शीघ्र नही प्राप्त होती है और नाही साधना मे उसको कोई अनुभुती प्राप्त होती है 
इस संसार मे बहोत सारे दिव्य मंत्र है जिनका असर तुरंत परिणामदायक होता है फिर भी लोगो को उन मंत्रो से लाभ नही मिल पाता है

आपको यह ज्ञान होना चाहिए कि हमारे नसीब मे कौनसी सिद्धी है और उसके लिये क्या उपाय करने होगे,कौनसे मंत्र का जाप करने से वो सिद्धी मिलेगी

1)आपके जीवन मे कौनसे भगवान की आराधना करने से आपकी इच्छाये पूर्ण होगी?
2)किस प्रकार के मंत्रो मे आप को जीवन मे सफलता मिलेगा उदाहरण शाबर,अघोर,वैदिक या तान्त्रोत्क मंत्र से?
3)आपके कुंडली मे येसा कौनसा ग्रह है जिसके जाप करने से आपके इह जन्म एवं पूर्व जन्म दोष का नाश होगा?
4)वह कौनसा ग्रह है आपके कुंडली मे जिसके कृपा से आपको प्रत्येक क्षेत्र मे सफलता मिलेगी?
5)आनेवाले एक वर्ष मे कौनसे मुहूर्त मे कौनसा मंत्र जाप करे,जो आपके लिये सिद्धीप्रद हो?
6)कौनसी सिद्धी आपके नसीब मे है?
7)अगर आप लंबे समय से कोई मंत्र जाप कर रहे है तो उसमे क्या उपाय करने से आपको सिद्धी मिलेगी जो अब तक नही मिली?
संपूर्ण ब्रह्माण्ड १२ राशियों और २७ नक्षत्रों में विभाजित है , और हमारी जन्म कुंडली को भी उसी काल पुरुष का ही रूप मान कर १२ भागो में विभक्त किया गया है और इन्ही भागो में जिन्हें स्थान या भाव भी कहा जाता है, में ये नौ ग्रह स्थित हो कर अपना प्रभाव दिखाते हैं. प्रत्येक भाव में जो भी राशि होती है उस राशि का स्वामी भावेश कहलाता है . इन भावों में ग्रहों की स्थिति ही तो जीवन के ऐसे ऐसे खेल दिखाती है की बस पूछो मत ....................

और इन खेलों का पता हमें चलता कहाँ से हैं ..... हाँ भाई उसी लग्न स्थान से जो की जातक या पृथ्वी का प्रतीक है जन्म कुंडली में , और जहाँ से खड़ा होकर जातक देख सकता है भिन्न भिन्न स्थानों पर अवस्थित ग्रहों का प्रभाव . याद रखिये जन्मकुंडली की सत्यता और शुद्धता का निर्धारण गर्भ कुंडली या बीज कुंडली के द्वारा होता हैं अन्यथा सामान्य कुंडलियाँ तो मात्र दिल को बहलाने के ही काम आती हैं जिनके द्वारा ज्योतिष के अधिकांश सिद्धांत अनुमान मात्र ही रह जाते हैं ..... कारण साफ़ है क्योंकि जन्म समय की सत्यता कैसे की जाये , कैसे सही जन्म समय का निर्धारण किया जाये ....... ये अत्यंत ही दुष्कर कार्य है. अब जब जन्म समय ही शुद्ध नहीं होगा तो उस समय पर आधारित जन्मकुंडली से भला सही फल कथन कैसे किया जा सकता है . तब तो आपके द्वारा किया गया फलित मात्र अनुमान ही तो रह जायेगा ना.

यदि सही जन्म कुंडली हो तो फल कथन भी सत्य होगा और सत्य होगा जीवन के प्रत्येक पक्षों का दिग्दर्शन भी .

( चित्र में जनम कुंडली में जो भाव क्रमाक दिए गए हैं ,ये बदलते नहीं हैं ये स्थाई हैं , हाँ ये जरूर हैं की ,ज्योतिष की गणित के हिसाब से इन भाव में आने वाले अंक बदल जाते हैं. (जनम के समय के अनुसार ).अब आप पचम और नवम भाव देख सकते हैं,आप अपनी कुडली में lagna भाव स्थान पर क्या अंक लिखा हैं उन्हें देख ले, आप अपनी लग्न जान गए हैं.प्रिय मित्र यदि १ लिखा हैं तो मेष हैं, २ लिखा हैं तो वृषभ ,कृपया लिस्ट के अनुसार देख ले.)

इस लेख का आशय मात्र जातक की कुंडली के साधना पक्षों का अध्यन करना ही है , जिससे ये जाना जा सकता है की किस ग्रह स्थिति से कैसी साधना और किस पद्धति में सफलता मिलती है , इसकी जानकारी मात्र हो जाये. ये सूत्र सद्गुरुदेव द्वारा प्रदान किये गए हैं . जो की साधक को अपनी कुंडली देख कर सही पद्धति का निर्धारण करना सिखाते हैं( याद रखिये ये निर्धारण स्वयं के द्वारा का है क्यूंकि यदि हम गुरु के चरणों में उपस्थित होकर प्रार्थना करते हैं तो वो बिना किसी कुंडली के भी आपको उस पद्धति से परिचित करा देते हैं).

पिछले किसी लेख में मैंने आपको पंचम और नवम भाव से इष्ट का निर्धारण बताया था , आज हम कई अनछुए और नवीन सूत्रों के द्वारा अपने आध्यात्मिक जीवन का अध्यन करेंगे. तो शुरुआत करते हैं जन्म लग्न द्वारा इष्ट के निर्धारण से ......

1. मेष लग्न – सूर्य,दत्तात्रेय , गणेश
2. वृषभ- कुलदेव ,शनि
3. मिथुन-कुलदेव , कुबेर
4. कर्क- शिव, गणेश
5. सिंह- सूर्य
6. कन्या- कुलदेव
7. तुला- कुलदेवी
8. वृश्चिक- गणेश
9. धनु- सूर्य ,गणेश
10. मकर - कुबेर,हनुमंत,कुलदेव,शनि
11. कुम्भ- शनि, कुलदेवी,हनुमान
12. मीन- दत्तात्रेय,शिव,गणेश

यदि जन्मकुंडली में बलि ग्रह हो........

सूर्य तो व्यक्ति शक्ति उपासना कर अभीष्ट पाता है,
चंद्र हो तो तामसी साधनों में रूचि रखता है,
मंगल हो शिव उपासना
बुध हो तो तंत्र साधना में
गुरु हो तो साकार ब्रह्मोपासना में
शुक्र हो तो मंत्र साधना में
शनि हो तो मन्त्र तंत्र में निष्णात व विख्यात

इसी प्रकार..............

प्रथम भाव या चंद्रमा पर शनि की दृष्टि हो तो जातक सफल साधक होता है.

चंद्रमा नवम भाव में किसी भी ग्रह की दृष्टि से रहित हो तो व्यक्ति श्रेष्ट सन्यासी होता है.

दशम भाव का स्वामी सातवे घर में हो तो तांत्रिक साधना में सफलता मिलती है

नवमेश यदि बलवान होकर गुरु या शुक्र के साथ हो तो सफलता मिलती ही है.

दशमेश दो शुभ ग्रहों के मध्य हो तब भी सफलता प्राप्त होती है .

यदि सभी ग्रह चंद्रमा और ब्रहस्पति के मध्य हो तो तंत्र के बजाय मंत्र साधना ज्यादा अनुकूल रहती है .

केन्द्र या त्रिकोण में सभी ग्रह हो तो प्रयत्न करने पर सफलता मिलती ही है.

गुरु, मंगल और बुध का सम्बन्ध बनता हो तो सफलता मिलती है .

शुक्र व बुध नवम भाव में हो तो ब्रह्म साक्षात्कार होता है.

सूर्य उच्च का होकर लग्न के स्वामी के साथ हो तो व्यक्ति श्रेष्ट साधक होता है .

लग्न के स्वामी पर गुरु की दृष्टि हो तो मन्त्र मर्मज्ञ होता है.

दशम भाव का स्वामी दशम में ही हो तो साकार साधनों में सफलता मिलती है.

दशमेश शनि के साथ हो तो तामसी साधनों में सफलता मिलती है.

राहु अष्टम का हो तो व्यक्ति अद्भुत व गोपनीय तंत्र में प्रयत्नपूर्वक सफलता पा सकता है.

पंचम भाव से सूर्य का सम्बन्ध बन रहा हो तो शक्ति साधना में सफलता मिलती है.

नवम भाव में मंगल का सम्बन्ध तो शिवाराधक होकर सफलता पाता है.

नवम में शनि स्वराशि स्थित हो तो वृद्धावस्था में व्यक्ति प्रसिद्द सन्यासी बनता है.

ज्योतिष / जन्म कुंडली के अनुसार जपिये शाबर मन्त्र—

शाबर मन्त्रों के सम्बन्ध में कुछ लोग यह कहते हैं कि उन्होंने शाबर-मन्त्र ‘जप’ कया, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । वास्तव में ‘मन्त्र-सिद्धि’ न हो, तो जप दो बार या तीन बार करना चाहिए । फिर भी मन्त्र-सिद्धि न हो, तो उसके लिए अन्य कारणों को खोजना चाहिए ।
मन्त्र-सिद्धि न होने के बहुत से कारण हैं । एक कारण ग्रहों की दशा है । ‘ज्योतिष-विद्या’ के अनुसार ग्रहों की दशा ज्ञात करें । शाबर मन्त्र का जप किया जाए, तो साधना में सिद्धि अवश्य मिलती है । जिन लोगों को मन्त्र-साधना में निष्फलता मिली है, उनके लिए तो ज्योतिष विद्या का अवलम्बन उपयोगी है जी, साथ ही जो लोग मन्त्र साधना करने के लिए उत्सुक हैं, वे भी ज्योतिष विद्या का अवलम्बन लेकर यदि साधना प्रारम्भ करें, तो उन्हें विशेष सफलता प्राप्त हो सकती है ।
अस्तु, साधना-काल में जन्म-लग्न-चक्र के अनुसार कौन ग्रह अनुकूल है या कौन ग्रह प्रतिकूल है, यह जानना बहुत महत्त्व-पूर्ण है । साधना को यदि कर्म समझा जाए, तो जन्म-चक्र का दशम स्थान उसकी सफलता या असफलता का सूचक है । प्रायः ज्योतिषी नवम-स्थान को मुख्य मानकर साधना की सिद्धि या असिद्धि या उसका बलाबल नियत करते हैं । साधना में चूँकि कर्म अभिप्रेत है, अतः जन्म-चक्र का दशम स्थान का विचार उचित होगा । वैसे कुछ लोग पञ्चम स्थान को भी महत्त्व देते हैं ।
ज्योतिष के नियमानुसार साधक के जन्म-चक्र के नवम स्थान में जिस ग्रह का प्रभाव होता है, वैसी ही प्रकृति वह धारण करता है । इससे यह ज्ञात होता है कि साधक की प्रकृति सात्त्विक होगी या राजसिक या तामसिक ।
जन्म चक्र में यदि ‘गुरु, बुध, मंगल′ एक साथ होते हैं, तो साधक सगुण उपासना में प्रवृत्त होता है । जन्म चक्र में गुरु के साथ यदि बुध है, तो साधक सात्त्विक देवी-देवताओं की उपासना में प्रवृत्त होता है । ऐसे ही यदि दशमेश नवम स्थान में होता है, तो साधक सात्त्विक – देवोपासक बनता है ।
जन्म चक्र के आधार पर सात्त्विक उपासना के मुख्य-मुख्य योग इस प्रकार हैं –
१॰ दशमेश उच्च हो और साथ में बुध और शुक्र हो ।
२॰ लग्नेश दशम स्थान में हो ।
३॰ दशमेश नवम स्थान में हो और पाप-दृष्टि से रहित हो ।
४॰ दशमेश दशम स्थान या केन्द्र में हो ।
५॰ दशमेश बुध हो तथा गुरु बलवान और चन्द्र तृतीय हो ।
६॰ दशमेश व लग्न की युति हो ।
७॰ दशमेश व लग्नेश का स्वामी एक ही हो ।
८॰ दशमेश यदि शनि है, तो साधक तामसी बुद्धिवाला होता हुआ भी उच्च साधक व तपस्वी बनता है । यदि शनि राहु के साथ हो, तो रुचि तामसिक उपासना में अधिक लगेगी ।
९॰ सूर्य, शुक्र अथवा चन्द्र यदि दशमेश हो, तो जातक दूसरे की सहायता से ही उपासक बनता है ।
१०॰ पञ्चम स्थान परमात्मा से प्रेम का सूचक होता है । पञ्चम और नवम स्थान यदि शुभ लक्षणों से युक्त होते है, तो जातक अति सफल उपासक बनता है ।
११॰ पञ्चम स्थान में पुरुष ग्रहों का यदि प्रभाव रहता है, तो जातक पुरुष देव-देवताओं का उपासक बनता है । यदि स्त्री ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है, तो जातक स्त्री-देवता या देवी की उपासना में रुचि रखता है । पञ्चम स्थान में सूर्य की स्थिति से यह ज्ञात होता है कि जातक शक्ति का कैसा उपासक बन सकता है ।
१२॰ नवम स्थान में या नवम स्थान के ऊपर मंगल की दृष्टि होती है, तो जातक भगवान् शिव की उपासना करता है । कुछ लोग मंगल को गनुमान् जी का स्वरुप मानते हैं । अतः इससे हनुमान् जी की उपासना बताते हैं । ऐसे ही कुछ लिगों का मत है कि गुरु-ग्रह के बल से शिव जी की उपासना में सफलता मिलती है । नवम स्थान में शनि होने से कुछ लोग तामसिक उपासनाओं में रुचि बताते हैं । नवम स्थान में शनि होने पर श्री हनुमान् जी का सफल उपासक बना जा सकता है ।
इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में उपासना सम्बन्धी अनेक योग हैं । शाबर मन्त्र को सिद्ध करने में कौन-कौन-से योग महत्त्व-पूर्ण हैं, इससे सम्बन्धी कुछ योग इस प्रकार हैं –
१॰ नवम स्थान में शनि हो, तो साधक शाबर मन्त्र में अरुचि रखता है अथवा वह शाबर-साधना सतत नहीं करेगा । यदि वह शाबर साधना करेगा, तो अन्त में उसको वैराग्य हो जाएगा ।
२॰ नवम स्थान में बुध होने से जातक को शाबर मन्त्र की सिद्धि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है अथवा शाबर मन्त्र की साधना में प्रतिकूलताएँ आएँगी ।
३॰ पञ्चम स्थान के ऊपर यदि मंगल की दृष्टि हो, तो जातक कुल-देवता, कुल-देवी का उपासक होता है । पञ्चम स्थान के ऊपर गुरु की दृष्टि हो, तो साधक शाबर साधना में विशेष सफलता मिलती है । पञ्चम स्थान पर सूर्य की दृष्टि हो तो साधक सूर्य या विष्णु की उपासना में सफल होता है । यदि राहु की दृष्टि हो, तो वह भैरव उपासक बनता है । इस प्रकार के साधक को यदि पथ-निर्देशन नहीं मिलता, तो वह निम्न स्तर के देवी-देवताओं की उपासना करने लगता है ।
४॰ ज्योतिष विद्या का प्रसिद्ध ग्रन्थ “जैमिनि-सूत्र” है । इसके प्रणेता महर्षि जैमिनि है । इस ग्रन्थ से उपासना सम्बन्धी उत्तम मार्ग-दर्शन मिलता है यथा –
क॰ सबसे अधिक अंशवाले ग्रह को आत्मा-कारक ग्रह कहते हैं । नवमांश में यदि यदि आत्मा-कारक शुक्र हो, तो जातक लक्ष्मी की साधना करता है । ऐसे जातक को लक्ष्मी देवी के मन्त्र की साधना से लाभ-ही-लाभ मिलता है ।
ख॰ नवमांश में यदि आत्मा-कारक मंगल होता है, तो जातक भगवान् कार्तिकेय की उपासना से लाभान्वित होता है ।
ग॰ बुध व शनि से भगवान् विष्णु और गुरु के बलाबल से भगवान् सदा-शिव की उपासना लाभदायक होती है ।
घ॰ राहु से तामसिक देवी-देवताओं की उपासना सिद्ध होती है ।
ङ॰ शनि के उच्च-कोटि के होने पर साधक को उच्च-कोटि की सिद्धि सहज में मिलती है । इसके विपरित यदि शनि निम्न-कोटि का होता है, साधना की सिद्धि में विलम्ब होता है ।
च॰ जन्म-चक्र में यदि द्वादश स्थान में राहु होता है, तो साधक परमात्मा के साक्षात्कार हेतु उत्साहित रहता है । ऐसे बन्धुओं को मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र की सिद्धि द्वारा भौतिक लाभ-प्राप्ति से दूर रहना चाहिए, क्योंकि द्वादश स्थान मोक्ष-प्राप्ति का सूचक है । द्वादश स्थान में राहु के होने से वह साधना की सिद्धि में सहायक और लाभ-प्रद रहता है ।
छ॰ दशम स्थान में यदि सूर्य हो, तो साधक को भगवान् राम की उपासना करनी चाहिए और दशम स्थान में यदि चन्द्र हो, तो कृष्ण की उपासना करनी चाहिए ।
ज॰ सधम स्थान में यदि गुरु हो, तो साधक अन्तः-प्रेरणा या अन्तः-स्फुरण से उपासना करता है और सफल होता है ।

साधना क्षेत्र में सफलता के कुछ विशेष ग्रह योग
प्रत्येक व्यक्ति की यह जानने की इच्छा होती है कि साधना के क्षेत्र में उसे कहाँ तक सफलता मिलेगी जिसके लिये ज्योतिष का सहारा लिया जा सकता है जिसके कुछ उदाहरण निम्न हैं :-
१. यदि जन्म-कुण्डली में बृहस्पति, मंगल एवं बुद्ध साथ हो या परस्पर दृष्टि हो तो वह व्यक्ति साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है |
२. गुरु-बुद्ध दोनों ही नवम भाव में हो तो वह ब्रह्म साक्षात्कार कर सकने में सफल होता है |
३. सूर्य उच्च का होकर लग्नेश के साथ हो तो वह श्रेष्ठ साधक होता है |
४. यदि लग्नेश पर गुरु की दृष्टि हो तो वह स्वयं मंत्र स्वरुप हो जाता है, मंत्र उसके हाथों में खेलते हैं |
५. यदि दशमेश दशम स्थान में हो तो वह व्यक्ति साकार उपासक होता है |
६. दशमेश शनि के साथ हो तो वह व्यक्ति तामसिक उपासक होता है |
७. अष्टम भाव में राहू हो तो जातक अद्भुत मंत्र-साधक तांत्रिक होता है |
८. दशमेश का शुक्र या चन्द्रमा से सम्बन्ध हो तो वह दूसरों की सहायता से उपासना-साधना में सफलता प्राप्त करता है |
९. यदि पंचम स्थान में सूर्य हो, या सूर्य की दृष्टि हो तो वह शक्ति उपासना में पूर्ण सफलता प्राप्त करता है |
१०. यदि पंचम एवं नवम भाव में शुभ बली ग्रह हों तो वह सगुणोपासक होता है |
११. नवम भाव में मंगल हो या मंगल की दृष्टि हो तो वह शिवाराधना में सफलता पा सकता है |
१२. यदि नवम स्थान में शनि हो तो वह साधू बनता है | ऐसा शनि यदि स्वराशी या उच्चराशी का हो तो व्यक्ति वृद्धावस्था में विश्व प्रसिद्द सन्यासी होता है |
१३. जन्म-कुंडली में सूर्य बली हो तो शक्ति उपासना करनी चाहिए |
१४. चन्द्रमा बलि हो तो तामसी उपासना में सफलता मिलती है |
१५. मंगल बली हो तो शिवोपासना से मनोरथ प्राप्त करता है |
१६. बद्ध प्रबल हो तो तंत्र साधना में सफलता प्राप्त करता है |
१७. गुरु श्रेष्ठ हो तो साकार ब्रह्म उपासना से ख्याति मिलती है |
१८. शुक्र बलवान हो तो मंत्र साधना में प्रणता पाता है |
१९. शनि बलवान हो तो तंत्र एवं मंत्र दोनों में ही सफलता प्राप्त करता है |
२०. ये लग्न या चन्द्रमा पे दृष्टि हो तो जातक सफल साधक बन सकता है |
२१. यदि चन्द्रमा नवम भाव में हो और उसपर किसी भी ग्रह की दृष्टि न हो तो वह व्यक्ति निश्चय ही सन्यासी बनकर सफलता प्राप्त करता है |
२२. दशम भाव में तीन ग्रह बलवान हों, वे उच्च के हों, तो निश्चय ही जातक साधना में सफलता प्राप्त करता है |
२३. दशम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो जातक तांत्रिक होता है |
२४. दशम भाव में उच्च राशी के बुद्ध पर गुरु की दृष्टि हो तो जातक जीवन मुक्त हो जाता है |
२५. बलवान नवमेश गुरु या शुक्र के साथ हो तो व्यक्ति निश्चय ही साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है |
२६. यदि दशमेश दो शुभ ग्रहों के बिच में हो तो जातक को साधना में सम्मान मिलता है |
२७. यदि वृषभ का चन्द्र गुरु-शुक्र के साथ केंद्र में हो तो व्यक्ति उपासना क्षेत्र में उन्नत्ति करता है |
२८. दशमेश लग्नेश पर परस्पर स्थान परिवर्तन योग यदि जन्म-कुण्डली में हो तो व्यक्ति निश्चय ही सिद्ध बनता है |
२९. यदि सभी ग्रह चन्द्र और गुरु के बीच हों तो व्यक्ति तांत्रिक क्षेत्र की अपेक्षा मंत्रानुष्ठान में विशेष सफलता प्राप्त कर सकता है |
३०. यदि केंद्र और त्रिकोण में सभी ग्रह हो तो साधक प्रयत्न कर किसी भी साधनों में सफलता प्राप्त कर सकता है |
यहाँ एक बात आपके सामने रखना चाहूँगा ,एक कहानी के माध्यम से, सत्य घटना हैं,दतिया के आदरणीय पूज्य स्वामीजी महाराज का एक शिष्य उनके पास आया और कहा की वह कई साल से छिन्नमस्ता साधना कर रहा हैं पर सफलता उसे नहीं मिल रही हैं, उसे जबाब मिला माँ बगलामुखी की साधना करो, साधक को एक ही रात में जो अनुभव हुए उससे वह तो हिल गया ,अगले दिन स्वामी जी से कारण पूछने पर की क्यों सालो साल छिन्नमस्ता माँ की साधना से फल नहीं मिला, यहाँ एक दिन में ही माँ बल्गामुखी से मिल गया, स्वामी जी ने कहा, बेटा तेरा अकाउंट tranfer कर दिया हैं और कुछ नहीं, साधक के फिर से पूछने पर उन्होंने कहा की माँ तो एक ही हैं, वास्तव में बेटा तू अपने कुल (घर ) में चल रही छिन्नमस्ता साधना को करता आया हैं, परन्तु पिछेले कई जन्मो के उसके संस्कार माँ बगलामुखी के थे. इसी कारन उन्होंने उसके द्वारा किये गए जप को बल्गामुखी माँ के जप में बदल दिया. अब आप लोग समझे ,की सदगुरुदेव की क्या आवश्यकता होती हैं और क्यों .

यहाँ तक की इस ब्लॉग के एक लेखक को पूज्य सदगुरुदेव जी ने माँ छिन्नमस्ता की साधन बताए थी, परन्तु उनसे वोह पत्र में लिखी बात भूल गए ,और वह माँ तारा की साधना करते रहे, कई वर्ष के बाद उन्हें वह पत्र मिला, अपनी गलती समझ कर उन्होंने सदगुरुदेव से बात की, परन्तु जबाब आया की माँ तारा की साधन ही करते रहो,बदलने की जरूरत नहीं हैं. वोह ये बात समझ नहीं पाए की पहले तो सदगुरुदेव ने कुछ और बोला था, अब क्योँ नहीं बदल सकते हैं, कई वर्षों के बाद उन्हें ये ज्ञात हुए की दस महाविद्या वास्तव में मूल रूप से तीन महाविद्या हैं और माँ छिन्नमस्ता ,का माँ तारा में ही समहिती करण माना जाता हैं.

तो अवलोकन कीजिये अपनी कुंडली का और देखिये क्या कहती है आपकी कुंडली ?
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