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Pret Karma प्रेत कर्म

Pret Karma प्रेत कर्म

मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। 
सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।

विशेष—प्रेत कर्म या अंत्येष्टि कर्म संबंधी पुस्तकों में माना गया है कि अरण और शवदाह के अनंतर मृत व्यक्ति को आतिवाहिक शरीर मिलता है । इसके उपरांत जब उसके पुत्रादि उसके निमित्त दशगात्र का पिंडदान करते है तब दशपिंडों से क्रमशः उसके शरीर के दश अंग गठित होकर उसको एक नया शरीर प्राप्त होता है । इस देह में उसकी प्रेत संज्ञा होती है ।

षोडश श्राद्ब और सपिंडन के द्बारा क्रमशः उसका यह शरीर भी छुट जाता है और वह एक नया भोगदेह प्राप्त कर अपने बाप दादा और परदादा आदि के साथ पितृलोक का निवासी बनता है अथवा कर्मसंस्कारा- नुसार स्वर्ग नरक आदि में सुखदुःखादि भोगता है । इसी अवस्था में उसको पितृ कहते है । जबतक प्रेतभाव बना रहता है तब तक मृत व्यक्ति पितृ संज्ञा पाने का अधिकारी नहीं होता । इसी से सपिंडीकरण के पहले जहाँ जहाँ आवश्यकता पड़ती है प्रेत नाम से ही उसका संबोधन किया जाता है । पितरों अर्थात् प्रेतत्व से छूटे हुए पूर्वजों की तृप्त ि के लिये श्राद्ब, तर्पण आदि पुत्रादि का कर्तव्य माना गया है। 

मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। पितृपूजा के समय वंशज अपने लिये भी मंगलकामना करते हैं।

प्रथम दस दानों का प्रयोजन मृतकों का अध्यात्मनिर्माण है। मृत्यु के ११वें दिन एकोद्दिष्ट नामक दान दिया जाता है अगले दो मास में प्रत्येक मास एक बार और अगले १२ मासों में प्रत्येक छह मास की समाप्ति पर एक अंतिम दान द्वारा इन संस्कारों की कुल संख्या १६ कर दी जाती है। श्राद्ध संस्कारों के संपन्न हो जाने पर पहला शरीर नष्ट हो जाता है और आगामी अनुभवों के लिये नए शरीर का निर्माण होता है।

पिण्ड चावल और जौ के आटे, काले तिल तथा घी से निर्मित गोल आकार के होते हैं जो अन्त्येष्टि में तथा श्राद्ध में पितरों को अर्पित किये जाते हैं। 
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स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं ।

Shradha ke prakar - श्राद्ध के प्रकार:


Shradha ke prakar - श्राद्ध के प्रकार:

मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।

पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।

भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति। 

अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। 


हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। 

पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। 

दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। 

मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।

नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।

नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।

पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।

सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।

गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।

शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।

कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।

यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।

पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।

पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।

मान्य स्थान- गया
जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है।



Antim Sanskar Vidhi अन्त्येष्टि संस्कार

Antim Sanskar Vidhi अन्त्येष्टि संस्कार

हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अन्तिम संस्कार है, जिसमें जाति व धार्मिक मत के अनुसार भिन्नता होते हुए भी सामान्यत: मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ। दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। आदर्श रूप से संस्कार गर्भधारण के क्षण से ही शुरू हो जाते हैं और व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरण पर संपन्न किए जाते हैं। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है, मंत्री व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है और आनुष्ठानिक भेंटें तैयार की जाती हैं। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए है। बौधायन पितृमेधसूत्र (3.1.4) में कहा गया है-
जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्।
(जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृत-संस्कार, "अंत्येष्टि" से परलोक को)।
इसके बाद ब्राह्मणों में 10 दिन तक (क्षत्रिय में 12, वैश्यों में 15 और शूद्रों में 30 दिन) परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष या तो दफ़न कर दिया जाता है या फिर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।
अनिवार्य संस्कार
यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन[1] ने पुन: कहा है-
जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्।
तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्।
अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति।
तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:।
  (उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए)।
तस्यान्मातरं पितरमाचार्य पत्नीं पुत्रं शि यमन्तेवासिनं पितृव्यं मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कृर्वन्ति।।
[इसीलिए यदि मृत्यु हो ही जाए तो, माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्ण उसका दाह करना चाहिए]।
विधियाँ
अंत्येष्टिक्रिया की विधियाँ कालक्रम से बदलती जा रही हैं। पहले शव को वैसा ही छोड़ दिया जाता था, या जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। बाद में उसे किसी वृक्ष की डाल से लटका देते थे। आगे चलकर समाधि (गाड़ने) की पृथा चली। वैदिक काल में जब यज्ञ की प्रधानता हुई, तो मृत शरीर भी यज्ञाग्नि द्वारा ही दग्ध होने लगा और दाहसंस्कार की प्रधानता हो गई (ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिता:[2])। हिन्दुओं में शव का दाह संस्कार ही बहुप्रचलित है; यद्यपि किन्हीं-किन्हीं अवस्थाओं में अपवाद रूप से जल-प्रवाह और समाधि की प्रथा भी अभी जीवित है।
खण्ड-विभाजन
सम्पूर्ण अंत्येष्टि संस्कार को निम्नांकित खण्डों विभाजित किया जा सकता है-
(1)मृत्यु के आगमन के पूर्व की क्रिया
सम्बन्धियों से अन्तिम विदाई
दान-पुण्य
वैतरणी (गाय का दान)
मृत्यु की तैयारी
(2)प्राग्-दाह के विधि-विधान
(3)अर्थी
(4)शवोत्त्थान
(5)शवयात्रा
(6)अनुस्तरणी (राजगवी: श्मशान की गाय)
(7)दाह की तैयारी
(8)विधवा का चितारोहण (कलि में वर्जित)
(9)दाहयज्ञ
(10)प्रत्यावर्तन (श्मशान से लौटना)
(11)अदककर्म
(12)शोकार्तों के सान्त्वना
(13)अशौच (सामयिक छूत: अस्पृश्यता)
(14)अस्थिसंचयन
(15)शान्तिकर्म
(16)श्मशान (अवशेष पर समाधिनिर्माण)। आजकल अवशेष का जलप्रवाह और उसके कुछ अंश का गंगा अथवा अन्य किसी पवित्र नदी में प्रवाह होता है।
(17)पिण्डदान (मृत के प्रेत जीवन में उसके लिए भोजन-दान)।
(18)सपिण्डीकरण (पितृलोक में पितरों के साथ प्रेत को मिलाना)। यह क्रिया बारहवें दिन, तीन पक्ष के अन्त में अथवा एक वर्ष के अन्त में होती है। ऐसा विश्वास है कि प्रेत को पितृलोक में पहुँचने में एक वर्ष लगता है।

विशेष क्रियाएँ
असामयिक अथवा असाधारण स्थिति में मृत व्यक्तियों के अंत्येष्टि संस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ होती हैं। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-सन्न्यासी-वानप्रस्थ, प्रवासी और पतित के संस्कार विभिन्न विधियों से होते हैं।
धार्मिकविश्वास
हिन्दुओं में जीवच्छ्राद्ध की प्रथा भी प्रचलित है। धार्मिक हिन्दू का विश्वास है कि सदगति (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अंत्येष्टि संस्कार आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् उसकी सविधि अंत्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते-जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला बनाकर उसका दाह होता है। शेष क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। बहुत से लोग सन्न्यास आश्रम में प्रवेश के पूर्व अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेते हैं।


यदि मरण-वेला का पहले आभास हो जाए तो- आसन्नमृत्यु व्यक्ति को चाहिए कि वह समस्त बाह्य पदार्थों और कुटुंब मित्रादिकों से चित्त हटाकर परब्रह्म का ध्यान करे। गीता में कहा है- ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।। अर्थात यदि व्यक्ति मरण समय भी भगवान के ध्यान में लीन हो सके तो भी वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है। कुटम्बिजन-कत्र्तव्य: इस समय कुटुम्बियों और साथियों का कत्र्तव्य है कि वे आसन्न-मृत्यु के चारों ओर आध्यात्मिक वातावरण बनावें। जो दान करना चाहें- अन्नदान, द्रव्यदान, गोदान, गायत्री जपादि यथाशक्ति यथाविधि उस व्यक्ति के हाथ से करावें अथवा उसकी ओर से स्वयं करें। गर्भाधानादि संस्कारों की विधि-कर्तृक होने पर भी संस्कार पुत्र का ही होता है। इसी प्रकार दाह-संस्कार की क्रिया पुत्र-कर्तृक होने पर भी संस्कार मृतक का ही होगा। पिंडदान आदि श्राद्धक्रिया मृतक को परलोक में शुभफल-दात्री है। अन्त्येष्टि संस्कार अन्य संस्कारों की भांति मृतक के आत्मा को शुद्ध करने वाला है। आसन्न-मृत्यु व्यक्ति को यथासंभव आचमन-मार्जन आदि करा संकल्प कराके ‘ऊँ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु’ उच्चारण करा, दान कराना चाहिये। मरण-समय का कृत्य: मरणबेला में आसन्न-मृत्यु पुरुष को पृथ्वी को गोबर से लीप कुशाएं बिछा, ऊन आदि का वस्त्र बिछाकर दक्षिण में सिर कर लिटा देना चाहिए। उस समय भी वह, यदि कर सके तो ईशावास्य पुरुष-सूक्त अथवा गीतासहस्त्रनाम आदि स्तोत्र का पाठ करें अथवा सुने। प्राण छोड़ते समय: पुत्रादि उत्तराधिकारी पुरुष गंगोदक छिड़कंे। प्राण निकल जाने पर वह अपनी गोद में मृतक को सिर रख उसके मुख, नथुने, दोनों आंखों और कानों में घी बूदें डाल, वस्त्र में ढंक, कुशाओं वाली भूमि पर तिलों को बिखेर कर उत्तर की ओर सिर करके लिटा दें। शव-स्नान: दाह-कर्म का अधिकारी पुत्र आदि दाढ़ी-मूंछ सहित सिर का मुंडन कराकर स्नान करे और शुद्ध वस्त्र (धोती-अंगोछा आदि) धारण कर मृतक के समीप जाये। इस समय वह सब तीर्थों का ध्यान करता हुआ, मृतक को शुद्ध जल से स्नान करावे। फिर उस पर चंदन-गंध आदि का लेपन कर मुख में स्नान करावे। फिर उस पर चंदन-गंध आदि का लेपन कर मुख में पंचरत्न, गंगाजल, और तुलसी धरे तथा शुद्ध वस्त्र (कफन) में लपेट कर अर्थी पर रख भली भांति बांध दे। पिंड दान: इसके पश्चात् शव के दक्षिण ओर बैठ अपसव्य होकर पिंड दान करें। ये छः हैं, प्रत्येक में संकल्प पढ़कर जमीन पर आसन-दान, फिर संकल्प पढ़कर पिंड पर अवनेजन डाल दें और फिर संकल्प पढ़कर उसको शव की छाती पर रख दें। इसी प्रकार 5 पिंड दें। तिल-सहित घी-शक्कर मिलाकर जौ के आटे का पिंड बनाया जाता है। पिंडदान का सामान्य संकल्प ः संकल्प- अद्य .......गोत्रस्य .........प्रेतस्य प्रेततानिवृत्यर्थ उक्तमलोक प्राप्त्यर्थंमौध्र्वदैहिकं कर्म करिष्ये। प्रथमशव-पिंड-संकल्प: अद्य-गोत्र-प्रेत पिंडस्थानेऽत्रावनेनित्त्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्। अद्य-गोत्र-प्रेत मृत्युस्थाने शवो नामक एष पिंडस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठातम्। अद्य..... गोत्र पितर..........प्रेत पिंडोपरि प्रत्यवनेजनजलं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्। इस प्रकार तीन संकल्प पढ़ पिंड को प्रेत के वस्त्र में छाती पर बांध दें और शव को घर के द्वार तक ले आयंे। द्वार पर दूसरा पान्थ पिंड अरथी ले जाना चैराहे पर तीसरा पिंड विश्राम स्थान पर चैथा पिंड चिताचयन। होम-विधान आदि क्रियाएं करनी चाहिए।

मृतक-कर्म की रीतियाँ

मृतक-कर्म की रीतियाँ


वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर पुत्रवान कुटुम्बी, आस्तिक धनी काशीवास कर लेते थे, अथवा अन्यत्र कहीं गंगा-तट पर निवास करके ईश्वर-भजन करते थै । पर अब लोग पुत्रादि के समीप रहना आवश्यक समझते हैं । मृत्यु के समय गीता और श्रीमद्भागवतादि का पाठ सुनना, रामनाम का जप करना स्वर्गदायक समझा जाता है । गोदान और दश-दान कराके, होश रहते-रहते मृतक को चारपाई से उठाकर जमीन में लिटा दिया जाता है । प्राण रहते गंगा जल ड़ाला जाता है । प्राण निकल जाने पर मुख-नेत्र-छिद्रादि में सुवर्ण के कण ड़ाले जाते हैं । फिर स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं । शहर व गाँव के मित्र, बांधव तथा पड़ोसी उसे श्मशान ले जाने के लिए मृतक के घर पर एकत्र होते हैं । मृतक के ज्येष्ठ पुत्र, उसके अभाव में कनिष्ठ पुत्र, भाई-भतीजे या बांधव को मृतक का दाह तथा अन्य संस्कार करने पड़ते हैं । जौ के आटे से पिंडदान करना होता है । नूतन वस्र के गिलाफ (खोल) में प्रेत को रखते हैं, तब रथी में वस्र बिछाकर उस प्रेस को रख ऊपर से शाल, दुशाले या अन्य वस्र ड़ाले जाते हैं । मार्ग में पुन: पिंड़दान होता है । घाट पर पहुँचकर प्रेत को स्नान कराकर चिता में रखते हैं । श्मशान-घाट ज्यादातर दो नदियों के संगम पर होते हैं । पुत्रादि कर्मकर्ता अग्नि देते हैं । कपाल-क्रिया करके उसी समय भ कर देते हैं । देश की तरह तीसरे दिन चिता नहीं बुझाते । उसी दिन बुझाकर जल से शुद्ध कर देते हैं । कपूतविशेष (कपोत यानि कबूतक के तुल्य सिर पर बाँधना होता है । इस 'छोपा' कहते हैं । मुर्दा फूँकनेवाले सब लोगों को स्नान करना पड़ता है । पहले कपड़े भी धोते थे । अब शहर में कपड़े कोई नहीं धोता । हाँ, देहातों में कोई धोते हैं । गोसूत्र के छींटे देकर सबकी शुद्धि होती है । देहात में बारहवें दिन मुर्दा फूँकनेवालों का 'कठोतार' के नाम से भोजन कराया जाता या सीधा दिया जाता है । नगर में उसी समय मिठाई, चाय या फल खिला देते हैं । कर्मकर्ता को आगे करके घर को लौटते हैं । मार्ग में एक काँटेदार शाखा को पत्थर से दबाकर सब लोग उस पर पैर रखते हैं । श्मशान से लौटकर अग्नि छूते हैं, खटाई खाते हैं ।

कर्मकर्ता को एक बार हविष्यान्न भोजन करके ब्रह्मणचर्य-पूर्वक रहना पड़ता है । पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें या नवें दिन से दस दिन तक प्रेत को अंजलि दी जाती है, तथा श्राद्ध होता है ।

मकान के एक कमरे में लीप-पोतकर गोबर की बाढ़ लगाकर दीपक जला देते हैं । कर्मकर्ता को उसमें रहना होता है । वह किसी को छू नहीं सकता । जलाशाय के समीप नित्य स्नान करके तिलाञ्जलि के बाद पिंडदान करके छिद्रयुक्त मिट्टी की हाँड़ी को पेड़ में बाँध देते हैं, उसमें जल व दूध मिलाकर एक दंतधावन (दतौन) रख दिया जाता है और एक मंत्र पढ़ा जाता है, जिसका आशय इस प्रकार है - "शंख-चक्र गदा-धारी नारायण प्रेतके मेक्ष देवें । आकाश में वायुभूत निराश्रय जो प्रेत है, यह जल मिश्रित दूध उसे प्राप्त होवे । चिता की अग्नि से भ किया हुआ, बांधवों से परिव्यक्त जो प्रेत है, उसे सुख-शान्ति मिले, प्रेतत्व से मुक्त होकर वह उत्तम लोक प्राप्त करे ।" सात पुश्तके भीतर के बांधव-वर्गों को क्षौर और मुंडन करके अञ्जलि देनी होती है । जिनके माता-पिता होते हैं, वे बांधव मुंडन नहीं करते, हजामत बनवाते हैं । दसवें दिन कुटुम्बी बांधव सबको घर की लीपा-पोती व शुद्धि करके सब वस्र धोने तथा बिस्तर सुखाने पड़ते हैं । तब घाट में स्नान व अञ्जलिदान करने जाना पड़ता है । १० वें दिन प्रेत कर्म करने वाला हाँड़ी को फोड़ दंड व चूल्हे को भी तोड़ देता है, तथा दीपक को जलाशय में रख देता है । इस प्रकार दस दिन का क्रिया-कर्म पूर्ण होता है । कुछ लोग दस दिन तक नित्य दिन में गरुड़पुराण सुनते हैं । 

ग्यारहवें दिन का कर्म एकादशाह तथा बारहवें दिन का द्वादशाह कर्म कहलाता है । ग्यारहवें दिन दूसरे घाट में जाकर स्नान करके मृतशय्या पुन: नूतन शय्यादान की विधि पूर्ण करके वृषोत्सर्ग होता है, यानि एक बैल के चूतड़ को दाग देते हैं । बैल न हुआ, तो आटे गा बैल बनाते हैं । ३६५ दिन जलाये जाते हैं । ३६५ घड़े पानी से भरकर रखे जाते हैं । पश्चात् मासिक श्राद्ध तथा आद्य श्राद्ध का विधान है ।

द्वादशाह के दिन स्नान करके सपिंडी श्राद्ध किया जाता है । इससे प्रेत-मंडल से प्रेत का हटकर पितृमंडल में पितृगणों के साथ मिलकर प्रेत का बसु-स्वरुप होना माना जाता है । इसके न होने से प्रेत का निकृष्ट योनि से जीव नहीं छूट सकता, ऐसा विश्वास बहुसंख्यक हिन्दुओं का है । इसके बाद पीपल-वृक्ष की पूजा, वहाँ जल चढ़ाना, फिर हवन, गोदान या तिल पात्र-दान करना होता है । इसके अनन्तर शुक शान्ति तेरहवीं का कर्म ब्रह्मभोजनादि इसी दिन कुमाऊँ में करते हैं । देश में यह तेरहवीं को होता है ।

श्राद्ध - प्रतिमास मृत्यु-तिथि पर मृतक का मासिक श्राद्ध किया जाता है । शुभ कर्म करने के पूर्व मासिक श्राद्ध एकदम कर दिए जाते हैं, जिन्हें "मासिक चुकाना" कहते हैं । साल भर तक ब्रह्मचर्य पूर्वक-स्वयंपाकी रहकर वार्षिक नियम मृतक के पुत्र को करने होते हैं । बहुत सी चीजों को न खाने व न बरतने का आदेश है । साल भर में जो पहला श्राद्ध होता है, उसे 'वर्षा' कहते हैं ।

प्रतिवर्ष मृत्यु-तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है । आश्विन कृष्ण पक्ष में प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध किया जाता है । काशी, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में तीर्थ-श्राद्ध किया जाता है । तथा गयाधाम में गया-श्राद्ध करने की विधि है । गया में मृतक-श्राद्ध करने के बाद श्राद्ध न भी करे, तो कोई हर्ज नहीं माना जाता । प्रत्येक संस्कार तथा शुभ कर्मों में आभ्युदयिक "नान्दी श्राद्ध" करना होता है । देव-पूजन के साथ पितृ-पूजन भी होना चाहिए । कर्मेष्ठी लोग नित्य तपंण, कोई-कोई नित्य श्राद्ध भी करते हैं । हर अमावस्या को भी तपंण करने की रीति है । घर का बड़ा ही प्राय: इन कामों को करता है । 

शिल्पकार हरिजन जो सनातनधर्मी हैं, वे अमंत्रक क्रिया-कर्म तथा मुंडन करते हैं, और श्राद्ध ज्यादातर आश्विन कृष्ण अमावस्या को करते है । जमाई या भांजे ही उनके पुरोहित होते हैं ।

Narayan-Nagbali नारायणबलि-नागबलि प्रेतदोष- पित्रदोष-नाग दोष:-

Narayan-Nagbali नारायणबलि-नागबलिप्रेतदोष- पित्रदोष-नाग दोष:-

दुर्घटना में मृत अथवा आत्महत्या किए हुए मनुष्य का क्रियाकर्म न होने से उसका लिंगदेह (सूक्ष्म शरीर) प्रेत बनकर भटकता रहता है और कुल में संतान की उत्पत्ति नहीं होने देता । उसी प्रकार, वंशजों को अनेक प्रकार के कष्ट देता है । ऐसे लिंगदेहों को प्रेतयोनि से मुक्त कराने के लिए नारायणबलि करनी पडती है ।

यह दोष पीढ़ी दर पीढ़ी कष्ट पहुंचाता है, जब तक कि इसका विधि-विधानपूर्वक निवारण न किया जाए। आने वाली पीढ़ीयों को भी कष्ट देता है। इस दोष के निवारण के लिए कुछ विशेष दिन और समय तय हैं जिनमें इसका पूर्ण निवारण होता है। 

नारायण बलि का उद्देश्य मुख्यत: पितृदोष निवारण करना है। नागबलि का उद्देश्य सर्प/ सांप/ नाग हत्या का दोष निवारण करना है। चूंकि केवल नारायण बलि या नागबलि कर नहीं सकते, इसलिए ये दोनों विधियां एक साथ ही करनी पड़ती हैं। 

नारायण नागबली मुहूर्त 2019 Narayan Nag bali Muhurat 2019 - 2020


क्या है नारायणबलि और नागबलि:-
शास्त्रों में पितृदोष निवारण के लिए नारायणबलि-नागबलि कर्म करने का विधान है। 
नारायणबलि और नागबलि दो अलग-अलग विधियां हैं। नारायणबलि का मुख्य उद्देश्य पितृदोष निवारण करना है और नागबलि का उद्देश्य सर्प या नाग की हत्या के दोष का निवारण करना है। इनमें से कोई भी एक विधि करने से उद्देश्य पूरा नहीं होता इसलिए दोनों को एक साथ ही संपन्न करना पड़ता है।

नारायणबलि और नागबलि दोनों विधि मनुष्य की अपूर्ण इच्छाओं और अपूर्ण कामनाओं की पूर्ति के लिए की जाती है। इसलिए दोनों को काम्य कहा जाता है। 

क्यों की जाती है नारायणबलि पूजा
प्राय: यह कर्म जातक के दुर्भाग्य संबधी दोषों से मुक्ति दिलाने के लिए किये जाते हैं।
1. प्रेतयोनी से होने वाली पीड़ा दूर करने के लिए नारायणबलि की जाती है।
2. परिवार के किसी सदस्य की आकस्मिक मृत्यु हुई हो। आत्महत्या, पानी में डूबने से, आग में जलने से, दुर्घटना में मृत्यु होने से ऐसा दोष उत्पन्न होता है।
3. जिस परिवार के किसी सदस्य या पूर्वज का ठीक प्रकार से अंतिम संस्कार, पिंडदान और तर्पण नहीं हुआ हो उनकी आगामी पीढि़यों में पितृदोष उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्तियों का संपूर्ण जीवन कष्टमय रहता है, जब तक कि पितरों के निमित्त नारायणबलि विधान न किया जाए।
4. यह विधि विशेष कर संतानहीनता दूर करने के लिए संतति सुख प्राप्ति के लिए की जाती है। इसके लिए पति-पत्नी के शारीरिक दोष भी प्रमुख कारण हैं।

यह कर्म किस प्रकार और कौन कर सकता है ?

1. यह कर्म प्रत्येक वह व्यक्ति कर सकता है जो अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है। जिन जातकों के माता-पिता जीवित हैं वे भी यह विधान कर सकते हैं।

2. संतान प्राप्ति, वंश वृद्धि, कर्ज मुक्ति, कार्यों में आ रही बाधाओं के निवारण के लिए यह कर्म पत्नी सहित करना चाहिए। यदि पत्नी जीवित न हो तो कुल के उद्धार के लिए पत्नी के बिना भी यह कर्म किया जा सकता है।

3. यदि पत्नी गर्भवती हो तो गर्भ धारण से पांचवें महीने तक यह कर्म किया जा सकता है। घर में कोई भी मांगलिक कार्य हो तो ये कर्म एक साल तक नहीं किए जा सकते हैं। माता-पिता की मृत्यु होने पर भी एक साल तक यह कर्म करना निषिद्ध माना गया है।

नारायण बलि कर्म विधि हेतु मुहुर्त-
त्रिपादपंचकं वर्ज्य प्रारंभ्ये तु बलिद्वये ।
अन्य दोषस्य संप्राप्तीरस्मिन कार्य न दु:ख ।।

सामान्यतया नारायण बलि कर्म पौष तथा माघ महिने में तथा गुरु, शुक्र के अस्तंगत होने पर नहीं किये जाने चाहिए। परन्तु ‘निर्णय सिंधु के मतानुसार इस कर्म के लिए केवल नक्षत्रों के गुण व दोष देखना ही उचित है। नारायण बलि कर्म के लिए धनिष्ठा, पंचक एवं त्रिपाद नक्षत्र को निषिद्ध माना गया है । धनिष्ठा नक्षत्र के अंतिम दो चरण, शत्भिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती इन साढ़े चार नक्षत्रों को धनिष्ठा पंचक कहा जाता है। कृतिका, पुनर्वसु, उत्तरा विशाखा, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद, ये छ: नक्षत्र ‘त्रिपाद नक्षत्र माने गये है।

स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किंवदन्ति खास कारणों से प्रचरित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- २22 में ”उद्धृत नारायण बली प्रकरण निर्णय में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तीर कराई जा सकती है अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है |

Narayan-Nagbali Vidhi नारायणबलि-नागबलि विधि :-

नारायणबलि  Narayan bali

अनुष्ठान (विधि)
अनुष्ठान करने का उचित समय 
नारायणबलि का अनुष्ठान करने के लिए किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तथा द्वादशी उचित होती है । एकादशी को अधिवास (देवता की स्थापना) कर द्वादशी को श्राद्ध करें । (वर्तमान में अधिकतर लोग एक ही दिन अनुष्ठान करते हैं ।) संतति की प्राप्ति हेतु यह अनुष्ठान करना हो, तो उस दंपति को स्वयं यह अनुष्ठान करना चाहिए । यह अनुष्ठान श्रवण नक्षत्र, पंचमी अथवा पुत्रदा एकादशी में से किसी एक तिथि पर करने से अधिक लाभ होता है । 

२. अनुष्ठान करने के लिए उचित स्थान

नदी तीर जैसे पवित्र स्थान पर यह अनुष्ठान करें ।

३. पद्धति

पहला दिन : प्रथम तीर्थ में स्नान कर नारायणबलि संकल्प करें । दो कलशों पर श्रीविष्णु एवं वैवस्वत यम की स्वर्णप्रतिमा स्थापित कर उनकी षोडशोपचार पद्धति से पूजा करें । तत्पश्चात, उन कलशों की पूर्व दिशा में दर्भ (कुश) से एक रेखा खींचकर उस पर कुश को उत्तर-दक्षिण बिछा दें और ‘शुन्धन्तां विष्णुरूपी प्रेतः’ यह मंत्र पढकर दस बार जल छोडें ।

तत्त्पश्चात दक्षिण दिशा में मुख कर अपसव्य (यज्ञोपवीत दाहिने कँधे पर) होकर विष्णुरूपी प्रेत का ध्यान करें । उन फैलाए हुए कुशों पर मधु, घी तथा तिल से युक्त दस पिंड ‘काश्यपगोत्र अमुकप्रेत विष्णुदैवत अयं ते पिण्डः’ कहते हुए दें । पिंडों की गंधादि से पूजा कर, उन्हें नदी अथवा जलाशय में प्रवाहित कर दें । यहां पहले दिन का अनुष्ठान पूरा हुआ ।


दूसरा दिन : मध्याह्न में श्रीविष्णु की पूजा करें । पश्चात १, ३ अथवा ५ ऐसी विषम संख्या में ब्राह्मणों को निमंत्रित कर एकोद्दिष्ट विधि से उस विष्णुरूपी प्रेत का श्राद्ध करें । यह श्राद्ध ब्राह्मणों के पादप्रक्षालन से आरंभ कर तृप्ति-प्रश्न (हे ब्राह्मणों, आप लोग तृप्त हुए क्या ?, ऐसे पूछना) तक मंत्ररहित करें । श्रीविष्णु, ब्रह्मा, शिव एवं सपरिवार यम को नाममंत्रों से चार पिंड दें । विष्णुरूपी प्रेत के लिए पांचवां पिंड दें । पिंडपूजा कर उन्हें प्रवाहित करने के पश्चात ब्राह्मणों को दक्षिणा दें । एक ब्राह्मण को वस्त्रालंकार, गाय एवं स्वर्ण दें । तत्पश्चात प्रेत को तिलांजलि देने हेतु ब्राह्मणों से प्रार्थना करें । ब्राह्मण कुश, तिल तथा तुलसीपत्रों से युक्त जल अंजुलि में लेकर वह जल प्रेत को दें । पश्चात श्राद्धकर्ता स्नान कर भोजन करे । धर्मशास्त्रों में लिखा है कि इस अनुष्ठान से प्रेतात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।


स्मृतिग्रंथों के अनुसार नारायणबलि एवं नागबलि एक ही कामना की पूर्ति करते हैं, इसलिए दोनों अनुष्ठान साथ-साथ करने की प्रथा है । इसी कारण इस अनुष्ठान का संयुक्त नाम ‘नारायण-नागबलि’ पडा ।



नागबलि Nagbali

पहले के किसी वंशज से नाग की हत्या हुई हो, तो उस नाग को गति न मिलने से वह वंश में संतति के जन्म को प्रतिबंधित करता है । वह किसी अन्य प्रकार से भी वंशजों को कष्ट देता है । इस दोष के निवारणार्थ यह अनुष्ठान किया जाता है ।

अनुष्ठान (विधि)

संतति की प्राप्ति के लिए यह अनुष्ठान करना हो, तो उस दंपति को अपने हाथों से ही यह अनुष्ठान करना चाहिए । अनुष्ठान पुत्रप्राप्ति के लिए करना हो, तो श्रवण नक्षत्र, पंचमी अथवा पुत्रदा एकादशी, इनमें से किसी एक तिथि पर करने से अधिक लाभ होता है ।’

नारायण-नागबालि विधि करते समय हुई अनुभूतियां

नारायण-नागबलि अनुष्ठान करते समय वास्तविक प्रेत पर अभिषेक करने का दृश्य दिखाई देना तथा कर्पूर लगाने पर प्रेत से प्राणज्योति बाहर निकलती दिखाई देना

‘नारायण-नागबलि अनुष्ठान में नारायण की प्रतिमा की पूजा करते समय मुझे लगा कि ‘इस अनुष्ठान से वास्तव में पूर्वजों को गति मिलनेवाली है ।’ उसी प्रकार, आटे की प्रेतप्रतिमा पर अभिषेक करते समय लग रहा था जैसे मैं वास्तविक प्रेत पर ही अनुष्ठान कर रहा हूं । अंत में प्रतिमा की छाती पर कर्पूर लगाने पर प्रेत से प्राणज्योति बाहर जाती दिखाई दी और मेरे शरीर पर रोमांच उभरा । 



ये अनुष्ठान कौन कर सकता है ?
१. ये काम्य अनुष्ठान हैं । यह कोई भी कर सकता है । जिसके माता-पिता जीवित हैं, वह भी कर सकते हैं ।
२. अविवाहित भी अकेले यह अनुष्ठान कर सकते हैं । विवाहित होने पर पति-पत्नी बैठकर यह अनुष्ठान करें ।

निषेध
१. स्रियों के लिए माहवारी की अवधि में ये अनुष्ठान करना वर्जित है ।
२. स्त्री गर्भावस्था में ५वें मास के पश्चात यह अनुष्ठान न करे ।
३. घर में विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभकार्य हो अथवा घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, तो यह अनुष्ठान एक वर्ष तक न करें । 

पद्धति  
अनुष्ठान करने हेतु पुरुषों के लिए धोती, उपरना, बनियान तथा महिलाओं के लिए साडी, चोली तथा घाघरा इत्यादि नए वस्त्र (काला अथवा  हरा रंग न हो) लगते हैं । ये नए वस्त्र पहनकर अनुष्ठान करना पडता है । तत्पश्चात ये वस्त्र दान करने पडते हैं । तीसरे दिन सोने के नाग की (सवा ग्राम की) एक प्रतिमा की पूजा कर दान किया जाता है ।

अनुष्ठान में लगनेवाली अवधि
नारायण-नागबलि अनुष्ठान तीन दिनों का होता है |

Dah sanskar vidhi - antim sanskar vidhi दाह संस्कार विधि

दाह संस्कार विधि Dah sanskar vidhi - antim sanskar vidhi दाह संस्कार विधि


पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्एक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है।

1. वयस्क पुरुष / महिला मृत्यु संस्कार
दाह संस्कार हेतु लगने वाली सामग्री :-

2. बांस लम्बाई 8 फीट, खपच्ची, घास या पैरा सूखा अर्थी को नरम बनाने हेतु, सुतली 150 ग्राम, रंगीन सूत 1 बड़ी गिट्टी, एक काली हॉडी, कण्डे 15 नग, सफेद मलमल 2.5 मीटर + 1.5 मीटर, एक भाल, 1 लाल घड़ा, लोटा, थैला, जल परिक्रमा हेतु यथाशक्ति माला-फूल, चन्दन की लकड़ी 1 मूठा, कुछ छिपली, रार डेढ़ किलो, तिली-जवा 50-50 ग्राम, गंगाजल, इत्र 1 शीशी, शहद 1 शीशी, माचिस 1 नग, लाई धान की 500 ग्राम, कुछ चिल्लर, केले के पत्ते 2 नग, जौ का आटा 500 ग्राम, मर्दाना सफेद धोती 1 नग, पंचक की स्थिति में बेसन 200 ग्राम। मृतक महिला होने पर एक साड़ी सुहाग सामग्री।
ध्यान दें कि :- प्रचलित नियमानुसार (मृतक) पुरुष का दाह संस्कार पिता का पुत्र द्वारा बड़ा या छोटा पुत्र न होने की स्थिति में भाई अथवा भतीजों द्वारा संस्कार किया जाना चाहिये। सुहागन महिला का संस्कार पति द्वारा किया जाना चाहिये। एकल स्थिति (मृतक) की होने पर समाज की पंचाग्नि दी जानी चाहिये।

कृत्य विधि 
सर्वप्रथम घर में मृतक शरीर को भूमि पर दरी आदि बिछाकर लिटा दे, ऊपर से साफ चादर ओढ़ा दें। अर्थी तैयार होने पर आचार्य, नाई को बुलाकर घर के अन्दर आचार्य की सलाह से जौ के आटा से तिल जौ डालकर बायें हाथ से दाह संस्कार करने वाले व्यक्ति को 5 पिंड तैयार करना चाहिये, यदि न बने तो नाई सहयोग करें, पश्चात शास्त्रीय विधि से मृतक के लिये एक पिण्ड का दान करें। तत्पश्चात (मृत देह को) मृतक के पुत्र, चाचा आदि परिवार जन उठाकर अर्थी पर रखें। नाई काली हाड़ी में अग्नि प्रज्वलित कर रख लें, बाहर पुन: आचार्य द्वारा शास्त्रीय विधि से पिण्डदान कराया जाय। पष्चात परिवार के सभी लोग मृतक के दर्शन करें, माला फूल चढ़ाये एवं यथा उचित चरण स्पर्श करें। पश्चात व्यविस्थत कर अर्थी को कान्धा देने प्रथम पुत्र, भाई, बन्धु-बान्धव, परिवार के ही लोग सम्मिलित हो पुत्र की मृत्यु पर पिता को कन्धा देना वर्जित है। क्रमश: अन्य सभी व्यक्ति अर्थी को कन्धा देने का पुण्य लाभ लेते हुए शमशान की ओर प्रस्थान करते हैं। रास्ते में धान की लाई/मखाने चिल्लर सिक्कों के साथ अर्थी के उपर से फेंकते हुए ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है’ का मुखोच्चारण करते हुए चलते जाते हैं। शमशान घाट के निकट पीपल अथवा बटवृक्ष अथवा नियत स्थान पर अर्थी को उतार दें। एवं पुन: एक पिण्डदान कर अगरबत्ती लगायें तथा कुछ नगद राशी स्थान कर्ज उतारने वहीं छोड़ दें एवं अर्थी को उठायें व घुमाकर आगे को पीछे कर शमशान घाट ले जाकर निश्चित स्थान पर रख मृतक के शरीर को बन्धन मुक्त करें, यदि कोई जेवर आदि धारण किये हों, उन्हें उतारकर रख लें, यदि मृतक सुहागन महिला है, तो सभी जेवर एवं चूड़ी आदि उतार कर लाये

दाह संस्कार
घर की महिलायें इन्हें शुभ मानते हुये परस्पर बांट लेती हैं। पश्चात यदि मृतक पुरुष है, तो नाई द्वारा दाढ़ी बनाने के उपरान्त संस्कार करने वाले को पुराने वस्त्र अलग कर स्नान करा, चिता में उत्तर की ओर सिर कर लिटायें तथा वहां पर आचार्य द्वारा 5 में से शेष दो पिण्ड दान कराये जॉंये, बाद में दसों इन्द्रियों में दस चन्दन की लकड़ी मस्तक एवं नेत्र में कपूर तथा मस्तक से पैरों तक सभी जोड़ो में घी सहित तिली-जवा रखें पश्चात इत्र शहद आदि छोडे़, बाद में अगरबत्ती जला चिता की परिक्रमा कर एक ओर लगा दें, तत्पश्चात जलती हुई पांच लकड़ी उठाकर मुखाग्नि दें, चिता जलने से जब ब्रहा्राण्ड (मस्तक) खुल जाय तब कपाल क्रिया का एक बांस लेकर तिली-जवा, मिश्रित घी में एक सिरा डुबाकर मृतक के कपाल से तीन बार स्पर्ष करते हुये, परिक्रमा लगायें, पश्चात चिता के ऊपर से फेंक दें। तत्पश्चात जल धारा हेतु घडे़ के जल में गंगाजल मिलाकर नाई एक पत्थर से घड़े में छिद्र कर देता है, जिससे धारा प्रवाहित होती है, कन्धे में रखकर चिता की 3 परिक्रमा कर चिता की ओर पीठ कर छोड़ देना चाहिये। पश्चात दाहकर्म करने वाले को लेकर परिवार सहित उसी समय घड़े में छेद करने वाली कंकड़ी को दाहकर्म करने वाले को अपने पास रख लेना चाहिये। इसी को रखकर शुद्धता तक तिलांली देना चाहिये, बाद में नदी में विसर्जन कर लेना चाहिये। सामान्य जन चन्दन लकड़ी की आहुति देते हुये चिता की एक प्रदक्षिणा करें, पश्चात वहीं बने सभा भवन में एकत्र हो कर शोकसभा सम्पन्न करें। उसी सभा में शोकाकुल परिवार से कुछ कर खारी एवं शुद्धता के समय की घोषण करें। यह घोषण समाज के अध्यक्ष अथवा उपिस्थत पंच अथवा समाज के ही किसी सम्मानीय  सम्मानीय बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा करवानी चाहिये। पश्चात वहां से बिदा ले, मार्ग में पड़ने वाले नदी, तालाब, पनघट में स्नानकर दाह संस्कार करने वाले के साथ सभी परिवारजन, मृतक को तिलां ली देवें। ततपश्चात घर में आकर द्वार पर पहले से नाई द्वारा रखी लोहे की कड़ाही में रखी नीम की पत्ती तथा जल से पांव धो लेवे कुछ जल अपने उपर छिड़क लें तथा नीम पत्ती दांत से खुटकने का अर्थ करये दिनों से हैं, पश्चात घर में 13 दिनों तक स्वादहीन भोजन (बिना हल्दी नमक) का प्रथम दिन सभी के लिये अनिवार्य है, बाद के 13 दिनों में हल्दी सभी को वर्जित है, शेष सादा भोजन खा सकते हैं। दैनिक रूप से प्रतिदिन सांयकाल घर के बाहर दातून तथा डबुलिया में पानी एवं एक दीपक दक्षिण दिशा की ओर जलाकर रखना चाहिये, शुद्धता तक घर के अन्दर मृत का चित्र उनके सोने के कमरे में रखकर प्रतिदिन दिया जलाना चाहिये तथा नियम, संयम से रहना चाहिये। पान आदि का सेवन सम्पूर्ण परिवार को नही करना चाहिये। पूर्व में घट बांधे जाते थे,

नोट :-
अ. दाह संस्कार पंचक में दोषपूर्ण होने के कारण परिमार्जन स्वरूप मृतक के साथ चार बेसन के पुतले बनाकर अर्थी के साथ में रख दिये जाते हैं, जिससे पंचक दोष का शमन हो जाता है। (पंचक का शांति विधान दषगात्र/त्रयादषी के साथ करवा लेना आवष्यक है)।
ब. शुद्धता 3 दिन से कम में नही होनी चाहिये। परन्तु परिस्थति बस कम समय में भी की जा सकती है।
स. तेरहवीं में मृत्यु भोज पूर्णत: वर्जित है।
द. दाह संस्कार सूर्यास्त होने के उपरान्त नहीं किया जाना चाहिये। परन्तु परिस्थति बस कर सकते है।

2. बाल्य मृत्यु संस्कार :-
छोटे बालक-बालिकाओं (12 वर्ष उम्र तक) का ही अन्तिम संस्कार भूमिदाह के रूप में करना चाहिये। क्योंकि कन्या रजस्वला होने पर स्त्रीत्व प्राप्त कर लेती है तथा बालक कर्ण छेदन के पश्चात । पूर्व काल में कर्ण छेदन के समय हम गहोई जन में, जगत जननी के नाम से दुर्गा जनेऊ का संस्कार किया जाता था, जो बालक को (दीक्षित) होने की परिधि में ला देता था तथा इस आयोजन हेतु अधिकतम 11 वर्ष आयु सीमा निर्धारित थी। चूंकि ‘दीक्षित’ बालक पुरुषत्व की परिधि में आता है, अत: 12 वर्ष से अधिक उम्र के बालक-बालिकाओं का दाहसंस्कार ही किया जाना चाहिये  

3. शिशु मृत्यु संस्कार (पांच वर्ष से कम आयु के लिये) :-
बालक, बालिकाओं के शवों का भूमिदाह करने हेतु
निम्न सामग्री की आवश्यकता होती है :-
कफन का वस्त्र सफेद 2 मीटर नीचे गडढ़े में बिछाने हेतु 1 मीटर, नमक 3 किलो, राई 100 ग्राम, अगरबत्ती एक पुड़ा, फूल-माला, कपूर 5 ग्राम, पंचरत्नी 1 नग, दिया या मोम बत्ती 1 नग। ऐसे बालक का दाहसंस्कार पिता के छोटे भाइयों अथवा यदि बड़े पुत्र आदि हो तो उनके द्वारा किया जाना चाहिये। शमशान भूमि में जाकर किसी अच्छे स्थान का चयन कर उपयुक्त गहराई में नमक डालकर शव को रखें पश्चात पंचरत्नी शव के हाथ में रखें पुन: नमक डालकर प्रथम परिवार उपिस्थत सदस्य उस पर पांच अंजली मिट्टी डाले बाद में सभी सदस्य शव को अच्छी तरह से मिट्टी से ढंक दें पुन: जल छिड़ककर धरा से समतल करें तथा राई बो दें तत्पश्चात् वजनदार पत्थर आदि रख दें, ताकि जानवर आदि शव को नुकसान न पहुंचायें पश्चात पुष्पों से स्थान को सुसज्जित कर दें। धूप दीप जलाकर आरती करें तथा परम पिता परमात्मा से उसके मोक्ष हेतु प्रार्थना करें, संभव हो, तो उसी समय वहां पर वृक्षारोपण कर दें। इस संस्कार का सूतक मात्र स्नान तक ही होता है। स्नान उपरान्त सूतक समाप्त हो जाता है। आगे की कोई रस्म नहीं की जाती, यदि आप चाहें तो दूसरे या तीसरे अथवा जब भी उचित समझें कन्या भोजन एवं गरीबों को व बा्रम्हणों को ‘उसके’ नाम से भोजन करायें तथा यथा शक्ति दान आदि करें, इससे स्वयं को तथा मृत आत्मा को परम शांति की प्राप्ति होती है।
नोट :- स्मरण रहे जब कभी भी किसी तीर्थ पर गया जी अथवा बद्रीनाथ में पूर्वजों का पिण्डदान करें, तब उन सभी बाल्य आत्माओं के नाम का भी पिण्डदान करें, जो परिवार में जन्मी पर नहीं रहीं। 6-7 वर्ष से अधिक तथा 12 वर्ष से कम आयु के बाल्य दाह संस्कार में शव को अर्थी में ले जाना उचित होगा। अत: अर्थी ही बनाना चाहिये, इसमें बांसों की लम्बाई 6 फीट रखनी

नोट :- (अ) यदि शोकाकुल परिवार चाहे तो पांच वर्ष से अधिक के बालक, बालिकाओं का भी दाह संस्कार किया जा सकता है परन्तु आगे के सम्पूर्ण कार्य दाह संस्कार के विधान अनुसार जिसमें त्रयोदशी भी सम्मिलत है, करने होंगें।
(ब) मृतक की अस्थियाँ विसर्जन हेतु निर्णय करना कि कहां विसर्जन की जानी है, इसका प्रथम अधिकार मृतक की पत्नी अथवा पति तथा पुत्रों को है, यह उनका दायित्व है कि वह मृतक की पूर्व इच्छा एवं परिवार जन की परामर्श अनुसारअस्थि विसर्जन का कार्य सम्पन्न करें, इसके लिये कोई बन्धन नहीं है।

फूल एवं भस्मी-संस्कार:
इस संस्कार के लिये निम्न सामग्री को
सुविधानुसार एक दिन पहले जुटा लें। गाय का गोबर, 1 पाव गाय का दूध, गंगाजल, इत्र 2 शीशी, शहद 2 शीशी, पंचरत्नी 2 नग, घड़ा ढक्कन सहित 1 नग, दिया छोटे 6 नग, मीठा तेल 200 ग्राम, लम्बी बाती 1 पैकेट, अगरबत्ती 2 पैकेट, माचिस 1 नग, कपूर 10 ग्राम, राई 100 ग्राम, नमक खड़ा 1 किलो, गेंहू 1 किलो, लोहे की कीलें 3 इंची 5 नग, कच्चा सूत/रंगीन सूत 1 मिट्टी, माला बड़ी 3 नग, छोटी 4 नग, खुले फूल 500 ग्राम, काली तिल 25 ग्राम, जौ का आटा 200 ग्राम, खुले पान 10 नग, लगा पान 1 नग, पुरुष के लिये अथवा सुहागन के लिये, मीठा 250 ग्राम के 2 डिब्बे, फल पांच किस्म के 2 जगह (केला नहीं), कुछ नगद सिक्के आदि (सेविंग मुण्डन कराने के लिये व्लेड, फिटकिरी आदि, फूल के लिये 1 थैली, खारी (भस्मी) के लिये एक बड़ी बोरी, चांदी की छोटी 1 गाय की प्रतिमा, सीधा (आटा, उड़द की दाल, चावल, शुद्ध घी, शक़्क़र, नमक आदि) 2 जगह, मृतक के पुराने वस्त्र, पांच पुराने बर्तन, 1 लोटा, 1 मीटर सफेद वस्त्र।


खारी (भस्मी) फूल उठाना
प्रात: 8 बजे अपने बन्धु बान्धवों परिजनों सहित शमशान घाट (नोट- दाह क्रिया करने वाला व्यक्ति घर से स्नान करके जाय) सर्वप्रथम चिता स्थल को दूध छिड़कें, पुन: गंगाजल छिड़ककर थैली में सबसे पहले एक पंचरत्नी डाले तथा दाह करने वाला व्यक्ति लकड़ी की चमीटी बना या फूलों से दबाकर पांच फूल चुनकर थैली में रख लें। इसे भूमि पर न रखें। बाद में पूरी भस्मी अच्छी तरह समेटकर बोरी में भर लें। तथा साफ स्थान पर रख लें। पश्चात 1 बाल्टी पानी में गाय का गोबर घोलकर चिता स्थल की भूमि अच्छी तरह से लीप दें तथा पूरे में राई बिखरा दें, तात्पर्य यह कि जली हुई भूमि को उपजाउ बना दें। नमक भी पूरी तरह फैला दें, फिर जल से भरे हुये कुम्भ में गंगाजल, दूध डालें तथा दिये को उसके उपर रखकर चिता के मध्य में रख दें। दिया में तेलबत्ती भी भर दें। फिर चिता के चारों कोने में लोहे की कीलें गाड़ दें तथा कच्चा सूत चारों तरफ लपेटकर सैया का रूप दें। धागे की पिण्डी को घडे़ तक ले जाकर वहीं छोड़ दें। रंगीन सूत घड़े में लपेटें, चिता के चारों कोने में चार जल कुम्भ (डुबलिया) रखकर उनपर दिया तेलबत्ती डालकर रख दें। फिर सर्वप्रथम बीच का दीप प्रज्वलित कर बाद में चारों दीप जला दें। पुन: गंगाजल छिड़ककर स्नान करायें, पश्चात बीच कुभ में माल्यार्पण करें, लटकने वाला भाग पैरों की ओर रखें। दीप की ज्योति दक्षिण की ओर रखें, शेष छोटी मालायें चारों कुम्भों में पहनायें, बीच के कुम्भ की माला के निचले छोर की तरफ एक पत्तल अथवा दोना में फल रख दें। मीठा का डिब्बा खोलकर रखें। फिर नेत्र बन्दकर मृतक आत्मा से भोजन जल ग्रहण करने का अनुरोध करें। अगरबत्ती (सुगन्ध) जलाकर उसकी सुगन्ध घड़े की ओर करें। इत्र रूई में डालकर कुम्भ के पास रख दें या माला में पिरा दें, यदि मृतक पुरुष अथवा सुहागन महिला है, तो चिता स्थल पर गुलाल फैला दें, साथ में लगा हुआ पान,फलों के पास रख दें, फिर एक दिये में कपूर जला दें, इसके बाद उपिस्थत सभी जनों को फूल दे दें तथा पूर्ण चिता स्थल पर फूल बिखेर दें। चिता के उत्तर की ओर ईश्वर का नाम अंकित कर दें। सभी लोग परिक्रमा कर प्रमाण करें। शमशान में डोम को कम से कम 11/-, 21/- तथा एक सीधा की पोटली उसे दें दें। फूल यदि इलाहाबाद संगम ले जाना हो तो थैली में मृतक का नाम लिखकर वहीअस्थिया भण्डार गृह में रखवा दें, अथवा पीपल के पेड़ पर टांग दें।


खारी (भस्मी) विसर्जन:-
फूल एवं भस्मी विसर्जन का कार्य:- खारी (भस्मी) को साथ लाए हुये बड़ी बोरी में भरकर समीप की नदी के तट पर रख दें। बोरी का मुख खोल दें, फिर उसके अन्दर पहले पंचरत्नी डाल दें, गंगाजल, गाय का दूध, घी, शहद, इत्र, फूलमाला चढ़ाकर, अगरबत्ती जलाकर पूजन कर भस्मी जल में विसर्जन कर देवें।
गंगा तट संगम में फूल एवं भस्मी विसर्जन का कार्य :- अपने पंडा जी/महापात्र द्वारा बताई क्रिया विधि के अनुसार पिण्ड दान/भस्मी/‘फूल (अस्थिया) विसर्जन का कार्य करें

शुद्धता:-
यदि खारी (भस्मी) के दिन ही शुद्धता करनी हो, तो शमशान घाट पर बैठकर बाल बनवायें (पिता की मृत्यु होने पर सभी पुत्रों का सिर मुडवाये) अन्य की मृत्यु पर संस्कार करने वाले व्यक्ति को बाल बनवाना मुण्डन करवाना अनिवार्य है, शेष परिवार वालों की इच्छा पर निर्भर करता है, वैसे बड़ों की मृत्यु पर बाल देना धार्मिक दृष्टि से उत्तम कार्य होता है। यहां घर पर महिलायें घर की साफ-सफाई करके सभी वस्त्र आदि धोकर, सफाई, पुताई आदि जो सम्भव एवं आवश्यक हो करलें। शुद्धता के दिन शाम के समय रिश्तेदार बन्धु बाधव, मित्र, समाज आदि के लोग बैठने आते है। अत: 4 बजे के पूर्व घर के उचित स्थान पर अथवा खुले आंगन में बिछाई बिछाकर रखें। घर के मुखिया का उपिस्थत रहना अनिवार्य है।

पगड़ी रस्म एवं देव दर्शन:-
यह आयोजन शुद्धता के दिन सांय ठीक चार बजे निर्धारित समय पर ही पूर्ण किया जाता है, इस आयोजन में स्थानीय समाज के पंच गण, बन्धु बान्धव, कुटुम्बीजन, नाते - रिश्तेदार एवं अन्य समाज सम्प्रदाय के परिचित ईस्ट मित्र उपरोक्त काल निश्चित समय पर एकत्रित होते हैं। अत: शोकाकुल परिवार को चाहिये कि नियत समय से पूर्व संभावित आगमन की संख्या के अनुसार उपयुक्त स्थान पर उनके बैठने आदि की व्यवस्था कर देना चाहिये। तथा वहां पर किसी उंचे स्थान पर या टेबल आदि के ऊपर साफ सुन्दर वस्त्र बिछाकर मृतक का फे्रम किया हुआ चित्र रख दें तथा माल्यार्पण कर इत्र आदि सुगन्धि लगाकर अगरबत्ती दानी किसी थाली आदि मेंरख कर जला दें एवं शुद्ध घी का दीप ज्योति जलाकर चित्र के सामने रख दें। एवं उपिस्थत के आंकलन अनुसार खुले फूल गुलाब की पंखुडी आदि एक साफ सुन्दर पात्र मे जनसमुदाय द्वारा दी जाने वाली पुष्पांजलि हेतु रख दें।

पगड़ी रस्म 
वस्तुत: पगड़ी रस्म में (मृतक के साले) अर्थात मामा की ही पगड़ी लगती है (कारण) पिता की मृत्यु होने पर पुत्रों की मां के भाई का सबसे बड़ा अधिकार भांजो पर जाता है तथा मुखिया चयनित कर जिम्मेदारी सौंपने में उसका कोई विरोध भी नहीं कर सकता। पगड़ी बंधवाने तथा मुखिया बनने का दायित्व बोध वर्तमान में लोग नहीं समझते इसे मात्र रस्म अदायगी मानते है। मूल भाव यह है कि आज से घर परिवार समाज के मुखिया के रूप में आपको जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। अब से हमें आप सभी को इसके सम्मान की रक्षा करनी होगी। महिलाओं तथा बच्चों की मृत्यु होने पर पगड़ी बंधन नहीं होगा, केवल देव दर्शन होंगें।

देव दर्शन 
पूर्व निश्चित समय ठीक 4 बजे उपिस्थत समाज के पंचगण व बुजुर्ग प्रतिष्ठत जन दाह संस्कार करने वाले, सदस्य के सिर पर मामा के द्वारा पगडी बंधवाते हैं तथा पास मे मंदिर में दर्शन करने हेतु शोकाकुल परिवार को आगे कर ले जाते है। ईश्वर के दर्शन करा चरणामृत लेते हैं।

पुष्प श्रद्वांजली 
वापस आकर सभी लोग अपना स्थान ग्रहण करते हैं। शोकाकुल परिवार के सभी पुरुष सदस्यों से थाली में रखी हल्दी गांठो का स्पर्श कराया जाता है, फिर एक कोरे कागज में दाह कर्म करने वाले सदस्य से भगवान के 5 नाम लिखकर कुटुम्ब के अन्य पुरुष सदस्यों से भी एक-एक भगवान के नाम का लेखन किया जाता है। इसके बाद थाली में लगे पान रखकर पारिवारिक सदस्यों को खाने के लिये कहा जाता है।

ऐसी मान्यता है कि मृत आत्मा की स्वर्ग यात्रा के इन तेरह दिन तक प्राणी के विछोह पश्चात उस आत्मा द्वारा प्राणीरूप मानव शरीर रखकर उनके परिवार के लिये जो ममता मोह पूर्वक सत्कार सेवा दायित्व किये गये अब उनकी पार्थिव देह को समाज के शास्त्र सम्मत नियमानुसार पंचतत्वों में विलीन कर उनकी आत्मा को इस परिवार के बंधन से मुक्त कर ईश्वर से शोकपूर्वक प्रार्थना करते रहे कि हे प्रभू! आपके लोक में आने वाली इस आत्मा को मोक्ष प्रदान करें। उस प्राणी के स्वर्गवासी होने पर अब इस परिवार की जिम्मेदारी रूपी पगड़ी का उत्तराधिकारी सबसे पहले मंदिर जाकर ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। समाज के पंच, प्रतिष्ठत जनों, पड़ोसियों , रिश्तेदारों के सामने मृत प्राणी के छूटे अधूरे कार्यो सहित सभी दातित्व लेकर स्मृति शेष शोक के साथ लोक व्यवहार के कार्यो का मार्ग प्रशस्त होता है। जबलपुर पंचायत अध्यक्ष एवं उपिस्थत सम्माननीय प्रतिनिधी जन अपने उरगार में स्वर्गासीन व्यक्ति के योगदान, उपलब्धियों आदि का वर्णन कर परिवार को सदमार्ग पर चलते हुये जीवन यापन का परामर्श देते हैं तथा सभी स्थितियों में समाज उनके साथ है ऐसा साहस व भरोसा दिलाते हैं। स्वर्गवासी आत्मा की शांति के लिये सभी उपिस्थत जन 2 मिनिट का मौन रख ईश्वर से प्रार्थना करते हैं एवं यथागत के छायाचित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर सभा का समापन होता है।

नोट :- कृपया शुद्धता के दिन बैठक कक्ष में चाय आदि की पेशकाश न करें।

त्रयोदशी संस्कार 
नोट :- इस अवसर पर दिया जाने वाला मृत्यु भोज बन्द है।फिर भी समाज के बन्धुगज इस कार्यक्रम को नयारूप देकर गंगभोज भण्डारा के नाम से मृत्यु भोज का आयोजन कर रहे है जिसे पुर्णत: बन्द किया जावें ।

1. गंगाजली पूजन :-
इस पूजन हेतु शुद्धता अथवा दशगात्र के समय लाया गया गंगाजल अथवा नर्मदाजल, ताम्र अथवा पीतल के एक पात्र में रख, उसका पूजन किया जाता है। मृतक के तेरह दिन पूर्ण होने पर सम्पूर्ण मृत्यु संस्कार पिण्डदान आदि कराये जाते हैं, साथ में छ: मासी/वर्षी का कार्य भी उसी समय सुविधानुसार कराया जा सकता है, अत: वर्शी का पूजन आचार्य द्वारा अलग से कराया जाता है, उसके लिये मृतक का चित्र बनाने गंगाजी अथवा अन्य पवित्र नदी की रेंणुका (रज) की आवश्यकता होती है।

सामान सूची :-
पूजन सामग्री - गंगाजली, गंगाजल से पूर्ण, गाय गोबर, गाय का दूध 200 ग्राम ‘रेणुका’ इत्र, गुलाबजल, रोरी, अक्षत, शहद, मिष्ठान्न, बताशा आदि, चन्दन घिसा हुआ, गोपी चन्दन 25 ग्राम, तुलसी की माला 25 नग, सफेद वस्त्र 1 मीटर, लाल वस्त्र 1 मीटर, सुपाड़ी बड़ी, लौंग, इलायची, खुले पान, कलश का पात्र, बेल, मीठा 100 ग्राम, दिया, बाती, अगरबत्ती, माचिस 1 नग, कपूर, फूलमाला, 500 ग्राम चावल की खीर अथवा 500 ग्राम खोवा शक्कर, पत्तल (गड्डी दोना 1) पूजन का जल पात्र, कुशा पैंती, जनेऊ 30 नग, रंगीन सूत / सफेद कच्चा सूत 1 मिट्टी, काली तिल 50 ग्राम आदि चांदी का तार 1 नग।

आचार्य को दान हेतु सामग्री 
नये वस्त्र धोती, कुरता, गमछा, शैया (खटिया) गद्दा, पल्ली, दरी, चादर,तकिया, मच्छरदानी, जूते, छड़ी, अन्नदान स्वेच्छानुसार, चांदी-स्वर्ण आभूषण आदि यथाशक्ति दक्षिणा।
ब्राम्हणों का दान 25 (13+12) नग :- 1- लोटा, गिलास, थाली आदि में से कोई एक पात्र 25 नग, 2- गमछा, टावल, धोती, कुरता, चादर, आदि में से कोई एक 25 नग साथ में उपर लिखी गोपीचन्दन, तुलसी माला, जनेउ, प्रत्येक पात्र में एक-एक प्रति वस्तु रखें, नगद राशि 21 /-, 51/- रू. प्रत्येक पात्र में रखकर, भोजन उपरान्त उन्हें भेंट देकर चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ग्रहण करें। साथ में पूज्य आचार्य जी को आसन में बिठा, उनका पूजन कर (रोरी, तिलक, माला से) आशीर्वाद ग्रहणकर, उन्हें भोजन करा साथ में दान सामग्री दे बिदा करें। नोट :- पूजन के समय 2 भोग की थाली निकालें, एक मृत आत्मा हेतु, एक गंगा पूजन हेतु (गंगा पूजन की थाली का प्रसाद सपरिवार ग्रहण करें। मृतक की थाली का प्रसाद आचार्य के बताये अनुसार अर्पित करें। 1 थाली गौ की निकालें तथा कुत्ता के लिये भोजन निकालें। पश्चात ब्राम्हण समाज को भोजन करायें, उसके बाद मानदान एवं बाहर से आये अतिथियों को भोजन करायें, पश्चात दाहकर्मकरने वाला स्वयं अपने पूर्ण परिवार के साथ अपने पूर्वजों पितामहों का स्मरण कर, भोजन का थोड़ा सा मिश्रण अग्नि को समर्पित कर स्वंय भोजन ग्रहण करें। इसके अतिरिक्त यथाशक्ति अनाथ निराश्रित भिच्छु आदि का भोजन तथा वस्त्र आदि दान देकर उनका आशीर्वाद लें।

नोट :- यह केवल साधारण जानकारी मात्र है इसके जानकार पंडित जी से सम्पर्क करने के बाद ही विधि विधान को पूर्ण माने 
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