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Shadbal षड्बल | ग्रह बल तथा उनके प्रभाव | Graha bal nirdharan | ग्रहों का बल :- ग्रह बलाबल

ग्रह बल तथा उनके प्रभाव |Graha bal nirdharan | ग्रहों का बल :- ग्रह बलाबल

Shadbal षड्बल

षड्बल :- षड्बल से तात्यापर्य उन 6 प्रकार की बलों से है जिसके द्वारा ग्रहों की गतिशीलता और शक्ति का पता चलता है षड्बल में निम्न लिखित 6 प्रकार के बल आते है |

ग्रहों का बल ६(छ:) प्रकार का होता है १. स्थान बल  २. दिग्बल अथवा दिशा बल ३. काल बल अथवा समय बल ४. नैसर्गिक बल ५. चेष्टा बल  ६. द्रग्बल अथवा द्रष्टि बल |

1.  स्थान बल अर्थात स्थिति के अनुसार बल 
2. दिग्बल अर्थात दिशाओं से प्राप्त बल
3. काल बल अर्थात समय विशेष से प्राप्त बल
4. चेष्टा बल अर्थात गति से प्राप्त बल     
5. नर्सैगिक बल
6. द्रिक बल अर्थात अन्य ग्रहों द्वारा दृष्टि संयोग से प्राप्त बल

(1) स्थान बल : Sthan bal

व्यक्ति की कुंडली में उच्च राशि में मूल त्रिकोण में, स्वग्रही तथा मित्र राशि में स्थित गृह को स्थान बली कहा अथवा माना जाता है |

स्थान बल :- प्रत्येक ग्रह एक राशि व भाव विशेष में होता है और इसकी स्थित अन्य ग्रहों के द्वारा द्रिस्ट होने के कारण यह निर्दिष्ट बल प्राप्त करता है जिसे स्थान बल कहा जाता है |
षड्लब के लिए गणना का आधार रूपा व षशट्यांश है |
एक रूपा = 60 षशट्यांश |
Stan bal ke prakar (स्थान बल के प्रकार):
स्थान बल में निम्न प्रकार के पांच बल आते है |
1. उच्च बल
2. सप्त्वर्गीय बल
3. युग्मा युग बल
4. केंद्र बल
5. द्रेष्कान बल

कोई भी ग्रह एक विशेष राशि में स्थित होता है तो वह उपर्युक्त किसी भी प्रकार से हो सकता है |
1. उच्च बल :- जब ग्रह अपने सर्वोच्च स्थान पर होता है तो उसे उच्च बल के रूप में 60 षशट्यांश बल अर्थात एक रूपा बल मिलता है | इस प्रकार ही अगर ग्रह अपने नीचस्थ स्थान पर होता है तो उसका ग्रह बल शुन्य हो जाता है | अर्थात उसको उच्च बल के रूप में 0 षशट्यांश बल मिलता है |

निम्न स्थान से उच्च स्थान की और जाते हुए उपरोक्त बल में वृद्धि होती है | इस प्रकार से ही उच्च स्थान से नीच स्थान की और जाते हुए उपरोक्त बल में कमी हो जाती है | भचक्र में इन दोनों स्थानों  के बीच की दूरी 180 अंश है | इस दुरी को तय करने पर ग्रह का षशट्यांश बल प्राप्त होता है |

2. सप्त्वर्गीय बल :- सप्त्वर्गो में स्थित होने के कारण ग्रह को बल प्राप्त होता है उसे सप्त वर्गीय बल कहा जाता है |यदि ग्रह मूल त्रिकोण राशि में स्थित है तो उसे 45 षशट्यांश बल मिलता है ग्रह यदि स्वराशी में है तो उसे 30 षशट्यांश बल मिलता है ग्रह यदि अधि मित्र की राशि में है तो उसे 22.5 षशट्यांश बल मिलता है |
पंचधामैत्री चक्र :-
सप्त्वर्गीय
युग्मायुग बल :- राशि चक्र व नवमांश चक्र में ग्रह सम व विषम राशि में स्थित होने के कारण उसे युग्म बल प्राप्त होता है उसे युग्मायुग्म बल कहते है |

चंद्रमा व शुक्र ग्रह D1 तथा D9 में समराशि में बलि होते है | और बलि होने पर  प्रत्येक में 15 षशट्यांश बल मिला है |

सूर्य मंगल बुध गुरु शनि विषम राशियों में स्थित होने पर बलवान होते है |

केंद्र बल :-केंद्र बल को केवल जन्मकुंडली के आधार पर ही देखा जाता है | केंद्र(1,4,7,10)  में स्थित ग्रहों को 60 षशट्यांश बल प्राप्त होता है | पनफर (2,5,8,11,) स्थित ग्रहों 30 षशट्यांश  बल प्राप्त होता है ओपोक्लिम(3,6,9,12) में स्थित ग्रह को 15 षशट्यांश बल प्राप्त होता है |

द्रेष्कान बल :-ग्रहों को तीन श्रेणियों में रखा गया है |

पुरुष                    नपुन्षक                  स्त्री

सूर्य मंगल गुरु             शनि बुध             शुक्र चन्द्र

पुरुष ग्रह जिस राशि में स्थित होते है उसके प्रथम द्रेष्कान में 0-10  में 15 षशट्यांश बल प्रदान किया गया है | दूसरे व तीसरे द्रेष्कान में शुन्य षशट्यांश बल मिलता है |

नपुंसक ग्रह जिस राशि में स्थित होते है उसके दूसरे द्रेष्कान में 15 षशट्यांश बल मिलता है जबकि प्रथम व तीसरे द्रेष्कान में शुन्य षशट्यांश बल मिलता है |

स्त्री ग्रह जिस राशि में स्थित होते है उसके तीसरे द्रेष्कान में 15 षशट्यांश बल मिलता है जबकि प्रथम व दूसरे द्रेष्कान में शुन्य षशट्यांश बल मिलता है |
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(2) दिग्बल अथवा दिशा बल dik bal Dasha bal

दिग्बल अथवा दिशा बल : बुध तथा गुरु लग्न में, चन्द्र एवं शुक्र चतुर्थ भाव या स्थान में शनि सप्तम में, मंगल दशम भाव अथवा स्थान में होतो दिग्बली अथवा दिशाओं का बली माना जाता है |

दिग्बली ग्रह जातक को अपनी दिशा में ले जाकर कई प्रकार से लाभ देने में सहायक बनते हैं. यह जातक को आर्थिक रूप से संपन्न बनाने में सहायक होते हैं तथा आभूषणों, भूमि-भवन एवं वाहन सुख देते हैं. व्यक्ति को वैभवता की प्राप्ति हो सकती है. जातक यशस्वी तथा सम्मानित व्यक्ति बनता है.

सूर्य | Sun

सूर्य के दिगबली होने पर व्यक्ति को आत्मिक रूप से मजबूत अंतर्मन की प्राप्ति होती है. वह अपने फैसलों के प्रति काफी सदृढ़ होता है. व्यक्ति में कार्यों को पूर्ण करने की जो स्वेच्छा उत्पन्न होती है वह बहुत ही महत्वपूर्ण होती है. व्यक्ति अन्य लोगों के लिए भी मार्गदर्शक बनकर उभरता है. सभी के लिए एक बेहतर उदाहरण रूप में वह समाज के लिए सहायक सिद्ध होता है. जन समाज कल्याण की चाह उसमें रहती है. व्यक्ति अपने निर्देशों का कडा़ई से पालन कराने की इच्छा रखता है. वह अपने कामों में सुस्ती नहीं दिखाता है उसकी यह प्रतिभा उसे आगे रखते हुए सभी के समक्ष सम्मानित कराती है.

चंद्रमा | Moon

चंद्रमा के दिग्बली होने पर व्यक्ति का मन शांत भाव से सभी कामों को करने की ओर लगा रहता है. जातक के मन में अनेक भावनाएं हर पल जन्म लेती रहती हैं. वह अपने मन को नियंत्रित करना जानता है जिस कारण वह उचित रूप से दूसरों के समक्ष स्वयं को प्रदर्शित करने की कला का जानकार होता है. जातक धन वैभव से युक्त होता है. रत्नों एवं वस्त्राभूषणों का सुख प्राप्त होता है. सरकार की कृपा प्राप्त होती है तथा समानित स्थान मिलता है. व्यक्ति का आकर्षण एवं दूसरों के साथ आत्मिक रूप से जुड़ जाना बहुत प्रबल होता है, इसी कारण यह जल्द ही दूसरों के चहेते बन जाते हैं. बंधु-बांधवों के चहेते होते हैं उनसे स्नेह प्राप्त करते हैं. जातक मान मर्यादा का पालन करने वाला होता है.

मंगल | Mars

मंगल ग्रह के दिग्बली होने पर व्यक्ति का साहस और शौर्य बढ़ता है. व्यक्ति भय की भावना से मुक्त होता है और वह किसि भी कार्य को करने से भय नहीं खाता है. जातक अपने मार्ग को स्वयं सुनिश्चित करने वाला होता है वह अपने नियमों तथा वचनों का पक्का होता है. वह विद्वान लोगों का आदर करने वाला होता है तथा दूसरों के लिए मददगार सिद्ध होता है. उसके कामों में स्वेच्छा अधिक झलकती है. किसी अन्य के कथनों को मानने में उसे कष्ट होता है. वह अपने नेतृत्व क चाह रखने वाला होता है वह चाहता है की दूसरे भी उसकी इच्छा का आदर करें और उसके निर्देशों का पालन करने वाले हों. जातक में धर्मिकता का आचरण करने की इच्छा रहती है वह अनेक व्यक्तियों को आश्रय देने वाला होता है.

बुध | Mercury

बुध के दिग्बली होने पर जातक का स्वभाव काफी प्रभावशाली बनता है. उसमें स्वयं के लिए विशेष अनुभूति प्रकट होती है. वह अपने अनुसार जीवन जीने की चाह रखने वाला होता है तथा किसी के आदेशों को सुनने की चाह उसमें नहीं होती है. व्यक्ति में चातुर्य का गुण प्रबल होता है, अपनी वाणी के प्रभाव द्वारा लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. जातक में स्नेह और सौहार्दय भी होता है वह दूसरों को अपने साथ जोड़ने वाला होता है तथा प्रेम की चाह रखता है. जातक जीवन में सुख सुविधाओं की चाह रखने वाला होता है वह जीवन को सामर्थ्य पूर्ण जीना चाहता है. हास-परिहास में पारंगत होता है और प्रसन्नचित रहने वाला वाक-कुशलता से युक्त होता है.

बृहस्पति | Jupiter

बृहस्पति के दिग्बली होने पर जातक को सुखों की प्राप्ति होती है. देह से स्वस्थ रहता है तथा मन से मजबूत होता है. हितकारी होता है तथा विद्वेष की भावना से मुक्त रहते हुए काम करने वाला होता है. जातक दूसरों के सहयोग के लिए प्रयासरत रहता है और मददगार होता है. जातक को विद्वान लोगों की संगति मिलती है तथा गुरूजनों की सेवा करके प्रसन्न रहता है. अन्न वस्त्र इत्यादि का सुख भोगने वाला होता है आर्थिक रूप से संतुष्ट रहता है. शत्रुओं के भय से मुक्त रहता है तथा निर्भयता से काम करने वाला होता है. जातक के विचारों को सभी लोग बहुत सम्मान देते हैं तथा प्रजा की दृष्टि में उसे सम्मान की प्राप्ति होती है.

शुक्र | Venus

शुक्र के दिगबली होने पर जातक के जीवन में सौंदर्य का आकर्षण प्रबल होता है. साजो सामान के प्रति उसे बहुत लगाव रहता है तथा वह अपने रहन सहन को भी बहुत उन्नत किस्म का जीने की चाहत रखने वाला होता है. व्यक्ति को स्वयं को सजाने संवारने की इच्छा खूब होती है वह अपने बनाव श्रृंगार पर खूब समय व्यतीत कर सकता है. जातक दूसरों के आकर्षण का आधार भी होता है. लोग इनकी ओर स्वत: ही खिंचे चले आते हैं. जातक देश-विदेश में प्रतिष्ठित होता है और धनार्जन करता है. उदार मन का तथा दूसरों के लिए समर्पण का भाव भी रखता है.

शनि | Saturn

शनि के दिग्बली होने पर जातक ब्राह्मण व देवताओं का भक्त तथा सेवक होता है. वह दूसरों के लिए सेवाकार्य करने वाला होता है. सहायक बनता है. भोग-विलास की इच्छा करने वाला होता है. गीत संगीत तथा नृत्य इत्यादि में व्यक्ति की की रूचि होती है. चतुरता पूर्ण कार्यों को अंजाम देने की कला का जानकार होता है तथा व्यापार कार्यों में निपुण रहता है.

पूर्व दिशा लग्न बुध व गुरु को दिग्बली हो जाते है बौधिक क्षमता ज्यादा होगी व्यकित्व अच्छा होगा /

दशम भाव में सूर्य व मंगल को दिग्बल प्राप्त है जो कैरियर के लिए है

सप्तम भाव शनि को दिग्बल प्राप्त है  विवाह के लिए

चतुर्थ भाव चन्द्र व शुक्र को दिग्बल प्राप्त है भौतिक सुख



ग्रहों का चतुर्विद सम्बन्ध :-

क्षेत्र सम्बन्ध :- जब दो गृह एक दुसरे की राशी में स्थित होते है तो क्षेत्र सम्बन्ध हो जाता है इसे परिवर्तन योग भी कहा जाता है /

द्रष्टि सम्बन्ध :-जब दो गृह एक दुसरे को पूर्ण द्रष्टि से देखते है /

स्थान द्रष्टि सम्बन्ध :- जब किसी गृह को उसकी अधिष्ठित राशी का स्वामी पूर्ण द्रष्टि से देखता हो तो स्थान द्रष्टि सम्बन्ध कहते है /

युति सम्बन्ध :- जब किसी भी भाव में दो गृह एक साथ बैठे हो तो युति सम्बन्ध होता है /

राज योग में अशुभ ग्रह राज योग खंडित कर देता है |
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(3) काल बल : व्यक्ति का रात्रि में जन्म हो तो चन्द्र, मंगल एवं शनि तथा दिन में जन्म हो तो सूर्य, बुध, तथा शुक्र, काल बली माने जाते हैं | मतान्तर से बुध को दिन व् रात्रि दोनों में ही काल बली माना जाता है |

नैसर्गिक बल : शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र चेष्टा बल तथा सूर्य, ये उत्तरोत्तर बली हैं, इन्हीं को नैसर्गिक बली कहा जाता है |

चेष्टा बल : मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष, मिथुन, इन छ: राशियों में से किसी में होने से सूर्य चेष्टा बली होता है | चन्द्र भी उक्त छ: राशियों में से होने से चेष्टा बली होता है | मंगल,बुध,गुरु,शुक्र,शनि,इनमें से जो भी चन्द्रमा के साथ हो वह चेष्टा बली होता है |

दृग्बल या द्रष्टि बल : जन्म कुंडली में जब किसी क्रूर गृह पर शुभ गृह की द्रष्टि पड़ती है तब वह क्रूर गृह भी शुभ गृह की द्रष्टि पाकर द्रग्बली हो जाता है

दृष्टी :ग्रहअपनी स्थिति से अन्य ग्रहों को जो नियमित दूरी पर हों पर दृष्टी डालते हैं | दृष्टी का प्रभाव शुभ भी हो सकता है और अशुभ भी | यह दृष्टी डालने वाले ग्रह के स्वभाव पर निर्भर करता है | ग्रहों की दृष्टी पूर्ण व् आंशिक होती है परन्तु हम केवल पूर्ण दृष्टी का प्रयोग करते हैं | सभी ग्रह अपने स्थान से सातवें भाव में स्थित ग्रहों को पूर्ण दृष्टी से देखते हैं | इसके साथ – साथ कुछ ग्रह अतिरिक्त विशेष पूर्ण दृष्टी रखते हैं | शनि अपने स्थान व् तीसरे तथा दसवें स्थान पर दृष्टी डालता है | मंगल अपने स्थान से चौथे और आठवें स्थान पर दृष्टी डालता है | ब्रहस्पति , राहू और केतु अपने स्थान से पांचवें और नवें स्थानों  पर दृष्टी डालते हैं | दृष्टी का प्रभाव भी हम तभी मानेंगे जब दृष्टी डालने वाले और दृष्ट ग्रह के भोगांश में अंशों का अंतर पांच अंश या पांच अंश से कम हो |

संयुक्त ग्रह युति : जब दो और ज्यादा ग्रहों के भोगांश का आपस में अंतर ५ अंश से कम हो तो उन ग्रहों की आपस में संधि मानी जाती है | यदि यह अंतर ५ अंश से अधिक हो तो उसका विशेष प्रभाव नहीं होगा | उदाहरनतया यदि सूर्य , बुध और शुक्र किसी राशि में क्रमशः २० अंश , २३ अंश , और १९ अंश पर हों तो यह तीनों ग्रह आपस में संयुक्त हैं या इनकी ग्रह युति है | जब अंतर २ अंश या इससे कम हो तो हम उसे घनिष्ठ रूप से सयुंक्त मानते हैं |

ग्रहों के भोगांश : ग्रहों के भोगांश अंशों में राशि चक्र की पृष्ठभूमि में नापा जाता है , और इसका उपयोग ग्रहों की विभिन्न राशियों में स्थित ग्रहों के आपसी सम्बन्ध और ग्रहों की शक्ति जांचने के लिए किया जाता है |


1. अपनी जन्म-कुण्डली में ग्रहों के अंशों को खोजिये, किस पन्ने पे दिया हुआ है, (अंश-Degree of planet's movement), मेरी बनायी Kundli-Remedies में ये दूसरे-तीसरे पन्ने पर होता है, जिसका शीर्षक है, " जन्म के समय ग्रहों की स्थिती".

2. इसमें सभी ग्रहों के अंश, यानि अंक ध्यान से देखिये ..

3. अगर कोई ग्रह 0-5 तक अंश में है, तो वह अभी उदित हो रहा है, यानि कमज़ोर है | ठीक इसी प्रकार से किसी ग्रह के अंश ये 25 से 30 तक के बीच हैं, तो वह अस्त हो रहा है, यानि यह भी कमज़ोर है, बाकी 5 से लेकर 25 तक के अंशों में आए सभी ग्रह बलवान माने जाते हैं ! जो ग्रह कमज़ोर है, उससे सम्बंधित रत्न धारण करने पर उस ग्रह का अच्छा फल मिलने लगेगा !

4. उसी जगह दाहिने में ग्रहों की "स्थिती" भी लिखी हुई होगी, ज़रा वह भी देखें !

5. अस्त या नीच या वक्री, या फिर तीनों - कमज़ोर ! इससे समबन्धित रत्न धारण करने से इसकी कमी की पूर्ति होगी !

6. उच्च या उच्च और वक्री- बलि ! इससे सम्बंधित रत्न धारण करना अत्यंत ही शुभ फल देगा !

7. कौन सा ग्रह किस राशि में है और इसका स्वामी कौन है, यह भी देखें !

ग्रहों की बालादि अवस्थाए :-

  विषम राशियों के लिए               सम राशियों के लिए

0 डिग्री से 6 डिग्री  बाल अवस्था         0 डिग्री से 6 डिग्री  मृत

 6 डिग्री से 12 डिग्री कुमार                    6 डिग्री से 12 डिग्री वृद्ध

12 डिग्री से 18 डिग्री युवा                     12 डिग्री से 18 डिग्री युवा 

18 डिग्री से 24 डिग्री वृद्ध              18 डिग्री से 24 डिग्री कुमार     

24 डिग्री से 30 डिग्री मृत              24 डिग्री से 30 डिग्री बाल अवस्था

बाल्यावस्था में ग्रह अत्यंत न्यून फल देता है।
कुमारावस्था में अर्द्ध मात्रा में फल देता है । युवावस्था का
ग्रह पूर्ण फल देता है। विर्धावस्था वाला अत्यंत अल्प
फल देता है और मिर्त अवस्था वाला ग्रह फल देने में
अक्षम होता है।

जाग्रतादि अवस्थाएँ:- ग्रहों की कई प्रकार की अवस्थाएं होती हैं. यह अवस्थाएँ ग्रहों के अंश अथवा अन्य कई नियमों के आधार पर आधारित होती हैं. इन्हीं अवस्थाओं में से ग्रहों की एक अवस्था जाग्रत या जाग्रतादि अवस्थाएँ होती हैं. इन अवस्थाओं के आधार पर ग्रह विभिन्न फलों का प्रतिपादन करते हैं.

विषम राशियों के लिए                        सम राशियों के लिए

0 डिग्री से १० डिग्री जाग्रत अवस्था              0 डिग्री से १० डिग्री सुषुप्त अवस्था

१० डिग्री से २० डिग्री स्वप्न अवस्था             १० डिग्री से २० डिग्री स्वप्न अवस्था     

२० डिग्री से 30 डिग्री सुषुप्त अवस्था      २० डिग्री से 30 डिग्री जाग्रत अवस्था

जाग्रत अवस्था | Jagarat Avastha

ग्रह उत्तम अवस्था में हो तो वह अपना सौ प्रतिशत फल देने वाला होता है. इसमें उसके गुण प्रभावशाली रुप से अच्छे फलों का प्रतिपादन करते हैं. जाग्रत अवस्था में ग्रह जागा हुआ होता है. ग्रह कैसे जागता है इसका विश्लेषण करते हैं. जब कुण्डली में ग्रह अपनी मूलत्रिकोण राशि में या स्वराशि अर्थात अपनी राशि में हो तो यह ग्रह की जाग्रत अवस्था कहलाती है.

जाग्रत अवस्था प्रभाव | Effect of Jagrat Awastha

इस अवस्था के कारण सुंदर वस्त्र एवं आभूषणों की प्राप्ति होती है. भवन, जमीन जायदाद एवं अन्य सुखों की प्राप्ति होती है. शिक्षा एवं ज्ञान में वृद्धि होती है. शत्रुओं का नाश होता है और भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति होती है. व्यक्ति विचारशील होकर कार्य करता है. उसे राजसी ठाठ बाट मिलता है, उच्च राजकीय सम्मान एवं पद की प्राप्ति होती है. भू-संपत्ति का लाभ मिलता है. व्यापार एवं व्यवसाय में वृद्धि होती है. शिक्षा एवं ज्ञान में वृद्धि होती है. अनेकों प्रकार की सुख एवं सुविधाओं की प्राप्ति होती है.

स्वप्न अवस्था | Swapna Awastha

इस अवस्था में ग्रह मध्यम बल का होता है. वह अपना पचास प्रतिशत तक फल देने वाला होता है. इसके अंतर्गत ग्रह की स्थिति को इस बात से समझा जाता है कि ग्रह या तो मित्र राशि में होता है या शुभ वर्गों के साथ युति में हो अथवा उनके द्वारा दृष्ट हो रहा हो तथा उस ग्रह को गुरू का सहयोग मिल रहा हो तो इस अवस्था को उस ग्रह की स्वप्न अवस्था कहते हैं.

स्वप्न अवस्था प्रभाव | Effect of Swapna Awastha

इस अवस्था में ग्रह के 50% फल मिलते हैं जिसके द्वारा कुछ शुभ फलों की प्राप्ति होती है. शांत प्रकृति देखी जा सकती है. व्यक्ति दान करने की चाह रखने वाला होता है. शास्त्रों के प्रति रुचि एवं लगाव होता है. पठन पाठन में मन लगाने वाला होता है. व्यक्ति के मित्रों की संख्या अच्छी होती है तथा व्यक्ति राजा का मंत्री या सलाहकार भी हो सकता है. वर्तमान समय में व्यक्ति किसी अच्छे पद पर सलाहकार का काम करने वाला हो सकता है.

सुसुप्त अवस्था | Susupta Awastha

इस अवस्थ अमें ग्रह अधम या अक्षम होता है. केवल सात प्रतिशत के करीब फल देता है. इस अवस्था में ग्रह नीच का होता है, ग्रह अपने शत्रु की राशी में हो सकता है. शत्रु के क्षेत्रीय होता हो या अशुभ ग्रहों के साथ हो तब यह उस ग्रह कि सुसुप्त या सोई हुई अवस्था होती है.

सुसुप्त अवस्था प्रभाव | Effect of Sususpta Awastha

इस अवस्था के कारण धार्मिकता का लोप होता है. बिमारी के लक्षण देखे जा सकते हैं. सोचने समझने की ताकत कम होती है विवेक पूर्ण कार्य नहीं हो पाता. व्यक्ति जीवन में लक्ष्यहीन सा महसूस करता है, झगडालू प्रवृत्ति होने लगती है. पांचवें भाव के प्रभावों क अलोप होने लगता है. इस अवस्था के कारण धन की हानी होती है. निर्बल होता है और प्रताड़ना मिलती है. नीच कर्म करने वाला होता है. स्वास्थ्य में हमेशा परेशानी बनी रह सकती है. शत्रुओं से परेशानियां, धन एवं मान सम्मान की हानी, शरीर की उर्जा का ह्रास होत है. तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करने की आदत होती है. कुतर्क करने वाला होता है.

वैदिक ज्योतिष में ग्रहों की कई प्रकार की अवस्थाओं का वर्णन मिलता है. यह अवस्थाएँ ग्रहों के अंश अथवा अन्य कई तरह के बलों पर आधारित होती हैं. बालादि अवस्था में ग्रहों को बल उनके अंशो के आधार पर मिलता है जबकि दीप्तादि  में राशि के आधार पर मिलता है. जैसे कि नाम से ही पता चलता है कि ये अवस्थाएँ ग्रह के प्रकाश को बताती हैं. जब ग्रह अपनी उच्च राशि, मूल त्रिकोण राशि और स्वराशि में होते हैं तो राशियों की स्थिति के अनुकूल फल देते हैं और इन्हें ही दीप्तादि अवस्था कहते हैं .

जिस प्रकार समाज में व्यक्ति एक-दूसरे के मित्र या शत्रु होते हैं उसी प्रकार ग्रह भी आपस में मित्रता, शत्रुता और समभाव रखते हैं उसी के अनुसार वह फल भी देते हैं. यह अवस्थाएँ ग्रहों की नैसर्गिक तथा तात्कालिक मित्रता को को मिलाकर पंचधा मैत्री से देखा जाता है.

दीप्त अवस्था | Dipta Avastha

जब भी कोई ग्रह कुण्डली में उच्च का हो या अपनी उच्च राशि में स्थित हो अथवा उच्च के अंश में स्थित हो तो वह उसकी दीप्त अवस्था होती है. इसमें वह अपने सम्पूर्ण फल देने में सक्षम होता है. इस अवस्था में ग्रह अपने पूर्ण प्रकाश युक्त होता है. दीप्त अवस्था में स्थित ग्रह की दशा आने पर वह ग्रह अपार सम्पदा प्रदान करता है.

दीप्त अवस्था प्रभाव | Effects Of Dipta Avastha

इस अवस्था से साहस, वैभव, धन संपत्ति, भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति, दीर्घकालिक खुशी, राजकीय मान सम्मान, राजकृपा, प्राप्त होती है. व्यक्ति शक्तिशाली, गुणवान व पुरूषार्थी होता है. उसके कार्यों में शालीनता होती है.

स्वस्थ अवस्था | Svastha Avastha

जब भी ग्रह कुण्डली में अपनी मूलत्रिकोण राशि में या स्वराशि में होता है तब वह स्वस्थ अवस्था में होता है. इसमें वह अच्छे फल देता है. व्यक्ति समाजिक यश प्राप्त करता है और हर क्षेत्र में उसे सफलता मिलती है. वह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है और यश, सम्पदा, सम्मान प्राप्त करता है.

स्वस्थ अवस्था प्रभाव | Effects Of Svastha Avastha

इस अवस्था में ग्रह अपने ही घर में माना जाता है. इस अवस्था में ग्रह अपने सारे फल देने में सक्षम होता है. ग्रह जिस भाव में स्थित होता है और जिन भावों का स्वामी होता है उनसे संबंधित सभी अशुभ व शुभ फल प्रदान करता है. जातक को धन, वाहन, भवन, आभूषण सभी कुछ प्राप्त होता है. भौतिक सुख, विलास पूर्ण वस्तुएं, आभूषण, अच्छा स्वास्थ्य, आराम-परस्त जीवन, भूमि सुख, दांपत्य सुख, संतान, धार्मिक विचारों से परिपूर्ण, पद्दोन्नति आदि मिलती है.

मुदित अवस्था | Mudita Avastha

जन्म कुण्डली में कोई भी ग्रह यदि अपनी मित्र की राशि में स्थित होता है तब वह उस ग्रह की मुदित अवस्था होती है. जिस प्रकार व्यक्ति अपने अच्छे मित्रों के साथ खुश रहता है ठीक उसी प्रकार ग्रह भी अपनी मित्र राशि में मुदित अर्थात प्रसन्न रहते हैं. मुदित अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति धन-सम्पत्ति व धार्मिक कार्यो में रुचि दर्शाता है. जातक किसी की सहायता से भी कार्य कर सकता है. इस अवस्था में स्थित ग्रह की दशा होने पर जातक जीवन में सफलता प्राप्त करता है तथा जीवन में नई ऊचाईयों को छूता है.

मुदित अवस्था प्रभाव | Effects Of Mudita Avastha

कुण्डली में यदि ग्रह अपनी मुदित अवस्था में स्थित है तब व्यक्ति को आर्थिक लाभ और धन प्राप्ति होती है. व्यक्ति सभ्य व्यवहार करने वाला होता है और उसे मानसिक संतोष की प्राप्ति होती है. उसे आभूषण, वस्त्र, वाहन का सुख मिलता है. धार्मिक प्रवृति जागृत होती है और मित्र के व्यवहार द्वारा अच्छे गुणों की प्राप्ति होती है.

शान्त अवस्था | Santa Avastha

कोई ग्रह कुण्डली में शुभ ग्रह की राशि में हो और वर्गो (सप्तमांश् नवांश, दशमाशं इत्यादि ) में अपने शुभ वर्गों में होता है तो वह उसकी शान्त अवस्था होती है. जातक धैर्यवान व शान्त प्रकृति का होता है. वह शास्त्रों का ज्ञाता होता है और दानी होता है. व्यक्ति बहुत से मित्रों से परिपूर्ण हो सकता है. व्यक्ति सरकारी अधिकारी होकर किसी उच्च पद पर आसीन हो सकता है.

शांत अवस्था प्रभाव | Effects Of Santa Avastha

यह अवस्था मानसिक संतोष की अनुभूति प्रदान करने वाली होती है. जातक मित्रता पूर्ण व्यवहार करने वाला होता है. एक अच्छे सलाहकार की भूमिका निभाने वाला होता है. लेखन कार्य में रुचि होती है. अधिक पाने की लालसा रहती है. मकान एवं जायदाद संबंधी सुख की प्राप्ति होती है. धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करना एवं योग ध्यान में रुचि उत्पन्न होती है.

शक्त अवस्था | Shakt Avastha

कुण्ड्ली में जब कोई ग्रह उदित अवस्था अर्थात ग्रह के अस्त होने से पहले की अवस्था में होता है तब यह ग्रह की शक्त अवस्था होती है. इस अवस्था में ग्रह इतना शक्तिशाली नहीं होता और पूर्ण फल देने में समर्थ नही होता है परन्तु वह अपने कार्य में सक्षम, शत्रु का नाश करने वाला, शौकीन मिजाज़ होता है. इस अवस्था में स्थित ग्रह की दशा होने पर जातक जीवन में कठिनाईयो के साथ सफलता प्राप्त करता है.

शक्त अवस्था प्रभाव | Effects Of Shakt Avastha

इस अवस्था के प्रभाव के परिणामस्वरुप व्यक्ति को मान सम्मान की प्राप्ति होती है, उसे जीवन में खुशी मिलती है. व्यक्ति को अपने कामों के लिए प्रसिद्धि मिलती है, उसके पुरुषार्थ में वृद्धि होती है, कार्यों को संपन्न करने की दक्षता होती है. व्यक्ति को अचानक से मिलने वाले परिणाम प्राप्त होते हैं. उतार- चढाव से भरी जिंदगी भी हो सकती है. लेकिन बहुत बुरे परिणाम नहीं मिलते हैं.

पीड़ित अवस्था | Peedit Avastha

कुण्डली में जब भी ग्रह सूर्य के समीप आते है तब वह अस्त हो जाते है. इस अवस्था में ग्रह अपना प्रभाव खो देते है. अस्त ग्रह की अवस्था उसकी पीडित अवस्था होती है. इस अवस्था में ग्रह अशुभ फल प्रदान करता है. जातक बुरे व्यसनों में लिप्त हो सकता है. यदि लग्नेश होकर ग्रह अस्त होगा तो जातक जीवन मे रोग ग्रस्त हो सकता है. जातक को अपने जीवन काल मे बदनामी मिल सकती है. पीडित ग्रह जातक को कार्य में असफलता देता है.

पीड़ित अवस्था प्रभाव | Effects Of Peedit Avastha

व्यक्ति को जीवन में धन हानि हो सकती है. जीवन साथी एवं बच्चों से अनबन और कलह की स्थिति उत्पन्न हो साक्ती है व्यक्ति रोग एवं व्याधि से प्रभावित हो सकता है, विशेषकर नेत्र संबंधी रोग परेशानी दे सकते हैं. व्यक्ति की किसी कारण से बदनामी हो सकती है अथवा वह पाप पूर्ण या अनैतिक कामों में लिप्त हो सकता है. व्यक्ति को अपने द्वारा किए प्रयासों में विफलता मिलती है और वह बुरी लत से प्रभावित हो सकता है.

दीन अवस्था | Deen Avastha

जब भी ग्रह कुण्डली में अपनी नीच राशि में होता है वह उसकी दीन अवस्था होती है. यहाँ ग्रह अपनी सारी शक्ति खो चुका होता है. व्यक्ति को अपने जीवन काल में संघर्षो से गुजरना पडता है. जीवन में निर्धनता का सामना करना पडता है. व्यक्ति सरकारी अधिकारियों से दुखी, भयभीत, अपने लोगो से शत्रुता, कानून व सामाजिक नियमों की अवहेलना करने वाला होता है.

दीन अवस्था प्रभाव | Effects Of Deen Avastha

ग्रह की इस अवस्था में व्यक्ति के बनते हुए काम बिगड़ जाते हैं. व्यक्ति कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक हो जाता है. हर परिस्थिति से डरने वाला, शोक संताप से पीड़ित, शारीरिक क्षमता में गिरावट का अनुभव होता है. संबंधियों से विरोध का सामना करना पड़ सकता है और घर परिवर्तन की स्थिति उत्पन्न होने की नौबत तक आ सकती है. व्यक्ति बिमारियों से ग्रस्त होता है एवं लोगों द्वारा तिरस्कृति भी हो सकता है.

विकल अवस्था | Vikal Avastha

जब भी कुण्डली के किसी भी भाव या राशि में ग्रह पाप (अशुभ) ग्रहों के साथ होता है तब वह ग्रह की विकल अवस्था होती है. जिस तरह से एक साधारण व्यक्ति यदि किसी ताकतवर या पाप कर्म करने वाले व्यक्ति के साथ बैठ जाता है तब वह स्वयं को बेचैन महसूस करता है. इसी तरह ग्रह भी पाप ग्रहों के साथ बेचैनी महसूस करते हैं और यही अवस्था ग्रह की विकल अवस्था होती है. ग्रह अपने फलानुसार फल नही दे पाता और वह साथ बैठे ग्रहों के अनुरुप फल देता है. इसके फल स्वरुप जातक नीच प्रकृति वाला होता है. जातक शक्तिहीन होकर दूसरों का सेवक होता है और बुरी संगति का संग करने वाला होता है.

विकल अवस्था प्रभाव | Effects Of Vikal Avastha

ग्रह की विकल अवस्था के परिणामस्वरुप व्यक्ति शक्तिहीन तथा बलहीन होता है. व्यक्ति की आत्म-सम्मान की हानि भी हो सकती है. मित्रों एवं सगे संबंधियों से अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. आत्मिक दुख, मानसिक प्रताड़ना, जीवन साथी तथा बच्चों से हानि एवं कष्ट की स्थिति पैदा हो सकती है. व्यक्ति को चोरों द्वारा हानि भी हो सकती है. उसके स्तरहीन लोगों से संबंध बनते हैं.

खल अवस्था | Khal Avastha

जब भी कुण्डली के किसी भी भाव या राशि में दो ग्रह या दो से अधिक ग्रह आपस में 1 अंश के अन्तर में हों तो यह गृह युद्ध की स्थिति होती है. इसमे से अधिक अंशो वाला ग्रह युद्ध में परास्त होता है. परास्त ग्रह खल अवस्था में माना जाता है वह जातक को निर्धन बनाता है और जातक क्रोधी स्वभाव वाला होता है. जातक दूसरों के धन पर बुरी दृष्टि रखने वाला होता है.

खल अवस्था प्रभाव | Effects Of Khal Avastha

ग्रह की इस अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति के अंदर शत्रुता की भावना पनपती है. वह अपने ही लोगों द्वारा प्रताड़ित होता है. स्वभाव से झगडालू हो सकता है. अपने पिता से व्यक्ति की अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. धन- संपत्ति एवं जायदाद की हानि हो सकती है. व्यक्ति गलत कार्यों द्वारा धन एकत्रित करना चाहेगा तथा अपना हित करने वाला व स्वार्थी प्रवृत्ति का हो सकता है.

दुखी अवस्था | Dukhi Avastha

जन्म कुण्डली में जब कोई ग्रह शत्रु ग्रह के क्षेत्र में हो अथवा शत्रु ग्रह की राशि में बैठा हो तो वह दुखी अवस्था में होता है. जिस तरह से यदि कभी किसी व्यक्ति को अपने शत्रु के घर में जाना पड़े तो वह वहाँ जाकर परेशानी का अनुभव करता है. इसी तरह से ग्रह भी शत्रु के घर में परेशान होता है. ग्रह की इस अवस्था के कारण व्यक्ति को अनेक कष्ट मिलते हैं. उसे परिस्थतियों के कारण कष्ट की अनुभूति होती है.

दुखी अवस्था प्रभाव | Effects Of Dukhi Avastha

ग्रह की इस अवस्था के कारण व्यक्ति का स्थान परिवर्तन होता है. अपने प्रिय जनों से अलग रहने की स्थिति पैदा हो सकती है. आग लगने का भय तथा चोरी का होने का भय व्यक्ति को सताता है. व्यक्ति के साथ सदा असमंजस की स्थिति बनी रहती है.

भाव संधि - जैसे बताया गया है, कि प्रत्येक भाव अपने भावस्फुट से लगभग 15 अंश पूर्व और 15 अंश पश्चात तक होता है और जहां से एक भाव का अंत और दुसरे का प्रारंभ होता है, उसे संधि कहते हैं | इसे दो भावों का योगस्थान समझ सकते हैं | भावों की संधि मालूम करना बड़ा सुगम है | किसी भाव के स्फुट को उसके आगामी भाव स्फुट में जोड़कर उसका अर्द्ध कर देने से उन दोनों भावों की संधिस्फुट हो जायेगी | जैसे मान किसी कुंडली में ‘लग्न स्फुट’ 0|12|20 और द्वितीय भाव स्फुट 1|8|50 है | इन दोनों का योग 1|12|10 जिसका आधा 0|25|35 हुआ और यही प्रथम और द्वितीय भावों की संधि हुई | ऐसे ही अन्य भी निकाली जा सकती है |

अब यदि कोई ग्रह मीन राशि में 25 अंश 35 कला के बाद है तो यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से मीन राशि में होने के कारण द्वादश भाव में प्रतीत होगा परन्तु मीन के 25 अंश 35 कला के बाद रहने के कारण उस ग्रह को लग्न या प्रथम भाव में रहने का फल होगा | इसी प्रकार द्वितीय भाव के मेष के 25 अंश 35 कला से वृष के 22 अंश 5 कला पर्यंत चला गया है | यदि कोई ग्रह मेष के 26 अथवा 27 अंशो में रहे तो यह प्रत्यक्ष रूप से लग्न में मालूम होगा पर वह द्वितीय भाव का फल होगा |२३ डिग्री से २७ डिग्री तक भाव संधि

भाव मध्य :- जब कोई ग्रह भाव के बीचो बीच होता है या फिर बिच से निकट होता है तो उसे स्वस्थ्य अवस्था में माना जाता है और ऐसा ग्रह पूर्ण फल देने में समर्थ होता है /

8 डिग्री से 12 डिग्री तक भाव मध्य



वृहद पराशर होरा शास्त्र जातक पारिजात शरावाली तथा फलदीपिका आदि प्रमाणित ग्रंथो में इन सभी बलो का सन्दर्भ मिलता है | दशा अंतर दशा में मिलने वाले शुभ अशुभ फल इस बात पर निर्भर करते है की उस ग्रह का सापेक्ष बल कितना है | सामान्य तौर पर दशानाथ का फल उस सपूर्ण दशा काल में मिलता है किन्तु अंतर दशा नाथ का फल प्रमुखतः अंतर दशा काल में ही प्राप्त होता है |

यदि दशा नाथ बलि हो और अंतर दशा नाथ निर्बल हो तो दशा नाथ का फल अधिक प्रभावी होता है |  और यदि अंतर दशा नाथ बलि हो और दशा नाथ निर्बल तो अंतर दशा नाथ ही अधिक प्रभावी होगी | अर्थात दशा नाथ और अंतर दशा में जो बलि होगा उसका ही फल देखने को मिलता है |

रत्न-धारण करते समय यह ध्यान रहे कि कभी भी शत्रु ग्रहों के रत्न एक साथ धारण न कर बैठें, नहीं तो दोनों रत्नों में से एक का भी फल नहीं मिल पाएगा, दोनों एक दुसरे के प्रभावों को समाप्त कर देंगे ! अक्सर लोग ऐसी भूल कर बैठते हैं, वैसे लोग दो या तीन रत्न एक साथ धारण कर सकते हैं.. इससे अधिक की आवश्यकता नहीं जान पड़ती ! 

Horashastra होराशास्त्र Hora in Jyotish | Hora Astrology

Horashastra होराशास्त्रKis grah ki hora me kya karna chahiye


होरा शास्त्र से जातक की धन सम्पदा सुख सुविधा के विषय में विचार किया जाता है. संपति का विचार भी होरा लग्न से होता है, राशि, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, षोडश वर्ग, ग्रहों के दिग्बल, काल बल, चेष्टा बल, दृष्टिबल, ग्रहों के कारकत्व, योग, अष्टवर्ग, आयु, विवाह योग, मृत्यु प्रश्न एवं ज्योतिष के फलित नियम होरा शास्त्र के अंतर्गत आते हैं.

होरा लग्न या तो सूर्य का होता है या चन्द्रमा है यदि जातक सूर्य की होरा में उत्पन्न होता है तो वह पराक्रमी, स्वाभिमानी एवं बुद्धिमान दिखाई देता है. होरा में सूर्य के साथ यदि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ग्रह हों तो जातक को जीवन के आरम्भिक समय में संघर्ष का सामना करना पड़ सकता है.

यदि सूर्य की होरा में पाप ग्रह हों तो जातक को परिवार एवं आर्थिक लाभ में कमी का सामना करना पड़ता है. कार्य क्षेत्र में भी अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है. यदि जातक चन्द्रमा की होरा में होता है तथा शुभ ग्रहों का साथ मिलने पर व्यक्ति को सम्पदा,वाहन एवं परिवार का सुख प्राप्त होता है. परंतु चंद्र की होरा में यदि पाप ग्रह हों तो मानसिक तनाव का दर्द सहना पड़ सकता है.

ज्योतिष में होराशास्त्र का महत्व | Significance of Hora Shastra In Astrology
होरा शास्त्र ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग होता है. होरा शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थों में हमें इसके विस्तार रुप के दर्शन होते हैं. होरा शास्त्र में प्रसिद्ध ग्रन्थों के नामों में वृहद पाराशर होरा शास्त्र, सारावली, जातकालंकार, वृहत्जातक,  मानसागरी, जातकाभरण, चिन्तामणि, ज्योतिष कल्पद्रुम, जातकतत्व होरा शास्त्र इत्यादि प्रमुख माने गए हैं. होरा शास्त्र के प्रमुख आचार्यों के नामों में पाराशर, कल्याणवर्मा, दुष्टिराज, मानसागर, गणेश, रामदैवज्ञ, नीपति आदि रहे हैं जिन्होंने अपनी विद्वता के द्वारा होरा शास्त्र की महत्ता को प्रदर्शित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

होरा शास्त्र का प्रभाव | Effect of Hora Shastra
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार एक अहोरात्र अर्थात दिन-रात में 24 होराएं होती हैं जिन्हें हम 24 घंटो के रूप में जानते हैं जिसके आधार पर हर एक घंटे की एक होरा होती है जो किसी ना किसी ग्रह की होती है. प्रत्येक वार की प्रथम होरा उस ग्रह की होती है जिसका वार होता है जैसे यदि रविवार है तो पहली होरा सूर्य की ही होगी जब आप होरा का निर्धारण करते हैं.

होरा का क्रम ग्रहों के आकार के क्रम पर स्वत: ही निर्धारित हो जाता है. जैसे गुरु को देखें कि वह आकार में सबसे बडा़ ग्रह है उसके बाद होरा स्वामी मंगल होता है. मंगल के बाद शनि और इस तरह से सभी ग्रह क्रम से अपने आकार के अनुसार चलते हैं. सभी अपने में महत्ता को दर्शाते हैं.

होरा स्वामी दो समूहों में बांटे गए हैं. पहले समूह में बुध, शुक्र तथा शनि आते हैं. दूसरे समूह में सूर्य, चन्द्रमा, मंगल तथा गुरु आते हैं. जब होरा का समूह प्रश्न के समय बदल रहा हो तब प्रश्न से संबंधित कोई मुख्य बदलव हो सकते हैं. इस तरह से जिस ग्रह की होरा चल रही है उस ग्रह से संबंधित फल प्राप्त हो सकते हैं. यदि होरेश अर्थात होरा स्वामी पीड़ित है तब कार्य सिद्धि में अड़चने भी आ सकती हैं |

होरा :- होरा शब्द अहोरात्र से लिया गया है अहोरात्र एक दिन + एक रात = 24 घंटे /प्रत्ये होरा एक घंटे की होती है सूर्योदय से एक घंटे तक उस वार की ही होरा सिद्ध होती है होरा तत्काल जानने के लिए उपरोक्त सारणी के द्वारा या पंचांग के 184 नम्बर प्रष्ठ से 
अपनी जन्म राशि के स्वामी गृह के शत्रु ग्रहों की होरा में यात्रा विवाह आदि का त्याग किया जाता है / अन्यथा अशुभ परिणाम मिलते है 

किस होरा में कौन सा कार्य करना चाहिय .....?
रवि की होरा :- राज्याभिषेक प्रशाशनिक कार्य नवीन पद ग्रहण राज्य सेवा औषधि निर्माण स्वर्ण ताम पत्र आदि मंत्र उपदेश गाय बैल का क्रय विक्रय उत्सव वाहन क्रय विक्रय आदि 
सोम की होरा :- कृषि सम्बंधित कार्य नवीन वस्त्र धारण मोती रत्न अभ्शन धारण नवीन योजना कला सीखना बाग बगीचे चंडी की वस्तुओ का क्रय विक्रय 
मंगल की होरा :- वाद विवाद मुकदमा जासूसी कार्य छल करना ऋण देना युद्ध निति सीखना शल्य क्रिया व्यायाम प्रारंभ 
बुध की होरा :- साहित्य कार्य आरंभ करना पठन पाठन शिक्षा दीक्षा लेखन प्रकाशन शिल्प कला मैत्री खेल धान्य का संग्रह बही खाता लेखन हिसाब किताब लोन लेना .
गुरु की होरा :- दीक्षा संस्कार धार्मिक कार्य विवाह कार्य गृह शांति यज्ञ हवन दान्य पुण्य देवार्चन मांगलिक कार्य न्यायिक कार्य ,नवीन वस्त्र आभूषण धारण करना तीर्थाटन 
शुक्र की होरा :- नृत्य संगीत प्रेम व्यवहार प्रयजन समागम अलंकार धारण लक्ष्मी पूजन क्यापरिक कार्य फिल्म निर्माण ऐश्वर्या वर्धक कार्य वाहन का क्रय विक्रय 

शनि की होरा :- नौकर चाकर गृह प्रवेश मशीनरी कल पुर्जे का कार्य असत्य भाषण छल कपट गृह शांति के बाद संबिधा विसर्जन  व्यापर आरंभ करना 

पराशर सिद्धान्त - ज्योतिष का इतिहास

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नारद और वशिष्ठ के फलित ज्योतिष सिद्धान्तों के संबन्ध में आचार्य पराशर रहे है. आचार्य पराशर को ज्योतिष के इतिहास की नींव कहना कुछ गलत न होगा. यह भी कहा जाता है, कि कलयुग में पराशर के समान कोई ज्योतिष शास्त्री नहीं हुआ. ज्योतिष शास्त्रों का अध्ययन करने वालों के लिए इनके द्वारा लिखे ज्योतिष शास्त्र ज्ञान गंगा के समान है. इनके द्वारा लिखे गए ज्योतिष शास्त्र, जिज्ञासा शान्त करते है. तथा व्यवहारिक सिद्धान्तों के निकट होते है. 

इसी संदर्भ में एक प्राचीन किवदंती है, कि एक बार महर्षि मैत्रेय ने आचार्य पराशर से विनती की कि, ज्योतिष के तीन अंग है. इसमें होरा, गणित, और संहिता में होरा सबसे अधिक मह्त्वपूर्ण है. होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है. अपने ज्योतिष गुणों के कारण आज यह ज्योतिष का सर्वाधिक प्रसिद्ध शास्त्र बन गया है. 

आचार्य पराशर के जन्म समय और विवरण की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. कौटिल्य शास्त्र में भी महर्षि पराशर का वर्णन आता है. पराशर का नाम प्राचीन काल के शास्त्रियों में प्रसिद्ध रहे है. पराशर के द्वारा लिखे बृ्हतपराशरहोरा शास्त्र 17 अध्यायों में लिखा गया है. 

पराशर का ज्योतिष में योगदान

इन अध्यायों में राशिस्वरुप, ग्रहगुणस्वरुप, लग्न विश्लेषण, षोडशवर्ग, राशिदृ्ष्टि, अरिष्ट,अरिष्टभंग, भावविवेचन, द्वादश भावों का फल निर्देश, अप्रकाशग्रह, ग्रहस्फूट, कारक,कारकांशफल,विविधयोग, रवियोग, राजयोग, दारिद्रयोग,आयुर्दाय, मारकयोग, दशाफल, विशेष नक्षत्र, कालचक्र, ग्रहों कि अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, त्रिकोणदशा, पिण्डसाधन, ग्रहशान्ति आदि का वर्णन किया गया है.

निम्न महत्वपूर्ण सिद्धांत सूत्र

फलित ज्योतिष के क्षेत्र में पराशर द्वारा दिए गए सिद्धांतों को बहुत उपयोग किया जाता है. पराशर द्वारा दिए गए सिद्धांतो को कुछ सूत्रों के रुप में बनाया गया है. संस्कृत श्लोक के रुप में निर्मित यह सूत्र कुण्डली विश्लेशण में बहुत महत्वपूर्ण सहायक होते हैं. वृहदपाराशर होराशास्त्र पर दिए गए नियमों को का निष्कर्ष एक बहुत ही संक्षिप्त रुप से हमें उनके दिए हुए इन सूत्रों में प्राप्त हो जाता है.

विंशोत्तरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए.

ग्रह जिस भाव में बैठा हो, उससे सातवें भाव को देखता है. इसके अलाव तीन ग्रह ऎसे हैं जिन्हें अतिरिक्त दृष्टि मिली है. शनि 3-10, गुरु 5-9 और मंगल 4-8 भाव स्थान को विशेष देखते हैं.

त्रिकोण(1-5-9) के स्वामी शुभ फलदायक होते हैं. त्रिषडाय(3-6-11) के स्वामी पाप फलदायक होते हैं.

त्रिषडाय का स्वामी अगर त्रिकोण का भी स्वामी हो तो अशुभ फल ही देगा.

बुध, गुरु, शुक्र और बली चंद्रमा अगर केन्द्र के स्वामी हैं तो शुभदायक नहीं होते हैं.

रवि, शनि, मंगल, कमजोर चंद्रमा और पाप प्रभाव युक्त बुध अगर केन्द्र के स्वामी हो तो अशुभ फल नहीं देते हैं.

लग्‍न से दूसरे और बारहवें भाव के स्‍वामी अन्य ग्रहों के संयोग से शुभ व अशुभ फल देते हैं.

गुरु और शुक्र को केन्द्राधिपति लगता है.

सूर्य और चंद्रमा को आठवें भाव का स्वामी होने पर दोष नहीं लगता.

राहु-केतु जिस भाव में जिस राशि में हों और जिस ग्रह के साथ बैठे हैं उसके अनुरुप फल देते हैं.

केन्द्र और त्रिकोण के स्वामी की दूसरी राशि अगर केन्द्र और त्रिकोण में ही हो तो यह स्थिति शुभफलदायक होती है.

नौवें और पांचवें भाव के स्वामी साथ केन्द्र के स्वामी का संबंध राजयोग कारक स्थिति को दर्शाता है.

केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों की दशा शुभदायक होती है.

एक ही ग्रह केन्द्र व त्रिकोण दोनों का स्वामी हो तो योगकारक होता है.

द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक स्थान माने गए हैं.

मारक ग्रहों की दशाओं में मृत्यु नही हो तो जन्म कुण्डली में बली पाप ग्रह की दशा मृत्यतुल्य कष्ट देती है.

ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में जिस भाव के स्वामी होते हैं उसके अनुसार फल देते हैं.

नवें भाव का स्वामी दसवें भाव में और दसवें भाव का स्वामी नवें भाव में हो तो राजयोग कारक स्थिति होती है. शुभ फल मिलते हैं.

स्वप्न ज्योतिष- विभिन्न स्वप्न फल Swapna jyotish phal

स्वप्न ज्योतिष- विभिन्न स्वप्न फल Swapna jyotish phal


1-शुभ स्वप्न एक दृष्टि मेंः

ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित कंस वध के बाद विरहाकुल यशोदा से मिलने दुखी नन्द मथुरा गए तब भगवान श्री कृष्ण ने तत्वज्ञान समझा कर सांत्वना दी। तब नन्द ने लोक कल्याण की भावना से कई प्रश्न श्री कृष्ण से पूछे। उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा - हे प्रभो किस स्वप्न के कारण सुख प्राप्ति के संकेत प्राप्त होते हैं और कौन-कौन से स्वप्न शुभ रहते हैं? श्री कृष्ण द्वारा नन्द को बताए शुभ स्वप्न इस प्रकार हैं - 

* धनदायक स्वप्न -

        स्वप्न में गाय, हाथी, घोड़ा, महल, पर्वत, पेड़ पर चढ़ना, भोजन करना, रोना, शस्त्र से जख्मी हो जाएँ, जख्म में कींडे़ पड़े, शरीर में रक्त एवं विष्ठा लगी हो इत्यादि।

* धन प्राप्ति के स्वप्न -

पेशाब से गीला होना, वीर्यपान करना, नर्क जाना, लाल नगरी जाना, लाल समुद्र में प्रवेश करना, अमृतपान करना, हाथी, राजा, सोना, बैल, गायक, दीपक, अन्न, फल, फूल, कन्या, सूत्र, ध्वज, रथ, पानी के महाकुम्भ, पान, सफेद धान, नट, नर्तकी, पादुका देखना, धनुष खींचना, घास का मैदान देखना, दीवार में कील ठोकना, धारदार शस्त्र प्राप्त हो, फूलों से लदा वृक्ष, सर्प , मांस, मछली, मोती, शंख, चन्दन, हीरा, आम, मद्य, आँवला, कमल, घर में वेश्या का प्रवेश होना, ब्राह्मण दम्पति, अनाज, मोतियों का हार, पुष्पांजली, गोरोचन, पताका, हल्दी, गन्ना मिलना, सरोवर, नदी, सफेद सांप, सफेद पर्वत, अग्नि उठाना।

* विश्वविख्यात कवि, विद्वान बनने का स्वप्न-

         स्वप्न में ब्राह्मण- ब्राह्मणी द्वारा महामंत्र दिया जाना, ब्राह्मण द्वारा पढ़ाया जाना, पुस्तक भेंट होना, अलँकारों से सजी कन्या द्वारा ग्रंथ भेंट होना, माँ की तरह पढ़ाया जाना, चश्मा लगाना, सुगन्ध लगाना।

* राजा समान ऊँचा पद पाना -

     ब्राह्मण दम्पति द्वारा मस्तक पर छत्र पकड़ना, सफेद अनाज बिखेरना, अमृत, दही, अच्छा पात्र देना, सफेद फूलमाला पहनकर रथ में बैठकर दही या खीर खाए, हाथी अपनी सूंड से उठाकर अपने मस्तक पर बिठाए, ब्राह्मण जिसे अपनी कन्या दे, स्वप्न में दिव्यनारी आकर कहे 'आप मेरे स्वामी हैं ' और स्वप्न दृष्ट एक दम उठ जाए। गाय का दूध, घी, कमल के पत्ते पर खीर, दही, दूध, घी, शहद एवं मिष्ठान खाए, तैरना, सिंह एवं बड़े जबड़े वाले पशु, सुअर, एवं बन्दरों के कारण पीड़ा, सीढ़ी देखना, टोपी देखना, मकान बनाना, मुरदे से बात करना, बाजार देखना, बड़ी दीवार देखना, धूप देखना।

नोट - स्वप्न में भस्म, कपास, हड्डियाँ इनको छोड़ कर अन्य सभी सफेद वस्तु दिखना शुभ होता है। हाथी घोड़ा ब्राह्मण को छोड़कर अन्य सभी काली वस्तुओं को देखना अशुभ है।

मरा हुआ दीखे =चिरंजीव होवें,

सुखी देखना=दुखी होने का संकेत है।

रोगी हुआ देखना=निरोगता प्राप्त हो

रवि चन्द्र के दर्शन होना।

* धन, विजय, प्रतिष्ठा, सुख, सम्पत्ति, पुत्र प्राप्ति -

          भरा हुआ कलश मिले, सन्तुष्ट ब्राह्मण अपने हृदय से लगाए, हाथ में फूल दे, काली माता के दर्शन, स्फटिक माला तथा इन्द्रधनुष प्राप्त हो, ब्राह्मण आशीर्वाद दे, सन्तुष्ट ब्राह्मण घर पर पधारे, ब्राह्मण दम्पती हँसते हुए फल प्रदान करें, आभूषणों से विभूषित दिव्य ब्राह्मण स्त्री मुस्कराते हुए मकान में प्रवेश करें, पैरों में बेड़ी पड़े, जल, बिच्छु या साँप देखे, सफेद वस्तुओं से अलंकृत स्त्री पुरुष को आलिंगन दें। खेती देखना, नारी देखना, खाई देखना, सफेद फूल देखना, तलवार देखना।

* पत्नी लाभ के स्वप्न -

          घोड़ी, मुर्गा, क्रौंच, पत्ती देखना, अचानक गाय मिलना।

नोट - स्वप्न में जिस घर में सपत्नी ब्राह्मण पधारेगा उस मकान में पार्वती के साथ शिव शंकर एवं लक्ष्मी के साथ नारायण का शुभागमन होता है।

* धन प्राप्ति के अन्य स्वप्न -

      दाँए हाथ का स्पर्श हो, लिंग छेद दर्शन, जी मिचलाना, सूर्य या चन्द्र को गटक जाना, नर मांस भक्षण करना, ऊँचे स्थान पर चढ़कर मिठाई खाए, गहरे पानी में गिरे पड़े, विष्ठा या वमन से बाहर पड़ी चीज खाए, रक्त या मूत्र पीए, शरसंधान करना, धान्य राशि, फल युक्त पेड़ पर चढ़ना, पर्वत शिखर पर चढ़ना, गाय का दुहना, हीरे-मोती, धान्य, चावल की बालियाँ, मूँग के दाने, शस्त्र देखना, झाग के साथ दूध पीना, अगूँठी पहनना, ऊँट देखना, सर के बाल कटे देखना, बालू देखना।

नोट - स्वप्न में सभी सफेद वस्तु देखना शुभ है केवल पकाए हुए चावल खाना अशुभ है। सफेद घोड़ा, सफेद हाथी, पँछी पर सवार होना द्रव्य हानि का संकेत हैं।

* जमीन जायदाद, बड़ा पद, सुख वैभव, भाग्योदय -

       पूर्ण जलाशय के दर्शन, परमात्मा को फल खाते देखना, चतुर्भुज भगवान, लक्ष्मी, सरस्वती, काली माता या शंकर जी के दर्शन, शहर का घेरा डालना, बैल, मनुष्य, पक्षी, हाथी, पर्वत पर चढ़कर पेयपान करना। रोटी खाना, लाल फल देखना, बादल आकाश में देखना।

* अन्य शुभ स्वप्न-

       स्वप्न में मस्तक काटा जाना या कटने का दृश्य देखना, शत्रु पर विजय प्राप्त करना, चाँदी सोने के बर्तन में खीर खाना, सिर पर फल गिरना, मच्छर-खटमल- मक्खी का काटना, रंगीन वस्त्र पहने स्त्री को आलिंगन देना, रोना, पछतावा करना, रत्न जटित पलँग पर सोना या आसनस्थ होना, वीणावादन या गायन करना, गीले कपड़े पहनना, अग्नि दाह के कारण परेशान, बारिश या अग्निकाण्ड की सूचना मिलना, पशु पक्षियों के कारण निद्रा भंग होना, जलता मकान देखना, पितरों के दर्शन होना, जल क्रीड़ा या स्नान करना, माता-पिता के दर्शन होना, तत्काल नींद आना या खुलना, शिवालय, इन्द्र धनुष, मुकुट, किले का तट, बन्दरगाह, छत्रचामर का दर्शन होना, उल्कापात, नक्षत्र, बिजली, मेघ का स्पर्श, नदी, समुद्र पार करना, फूल खाना या देखना, मिट्टी के बर्तन देखना, कस्तूरी, कपूर, चन्दन देखना, या उनका उपयोग करना, सजी स्त्रियाँ व मित्र बन्धुजन के दर्शन, नीलकण्ठ, सारस दीखना, हाथ में पताका, लता, बेली, हरे वृक्ष की टहनी पकड़ना, धूम्रपान करना, धूम्र रहित, ज्वाला रहित अग्नि का भक्षण करना, पानी सहित मछली हाथ में लेना, शंख के दर्शन, सेना या मृत्यु को निकट आते देखना, कर्णाभूषण, मोती, कौड़ी, बैल प्राप्त होना, बाजूबन्द, हार, मुकुट, पुल बान्धना, मिट्टी खाना, सौभाग्यद्रव्य -हल्दी-कुमकुम देखना या प्राप्त करना, नदी का भँवर, दुर्गा के दर्शन, तलवार, धनुष, छुरा, चक्र, गदा आदि देखना, वेदघोष, हाथी का चीखना, घोड़े का हिनहिनाना, नागकेसर, मालती, चमेली, तिल, लवण, लवंग, केला, अनार, नींबू, नारियल, सुपारी, चम्पा, इलायची, रेत, पान, गन्ना, शीशा, पीतल आदि देखना, फल फूल युक्त आम, नीम, मदार आदि काटना, सफेद सांप का काटना, नीम देना या उस पर चढ़ना, साँड, मोर, तोता, हंस, चील देखना, सिर का छेदन, अपना मरण देखना, प्रकाश देखना, कुत्ता देखना, कमल देखना, लोहा देखना, दातुन करना, धरती पर बिस्तर लगाना, नदी का पानी पीना, पत्थर देखना, जंगल देखना, दिया जलते देखना, पत्र पढ़ना, अनार पाना, आकाश देखना, कुएं में पानी देखना, पूरे नगर में वर्षा देखना, ज्योतिषी, सुहागिन स्त्री, गुरु, पुष्प लिए व्यक्ति, विवाह, स्त्री से प्रेम व्यक्त करना, धन प्राप्ति, समुद्र स्नान, तैरना, बालक, बालिकाएँ, दुष्ट को दण्ड देना, शत्रुदमन, परी, अप्सरा, गन्धर्व, संगति, मंडली, शर्बत पीना, तोरण, तीर्थ यात्रा, गंगा स्नान, बन्धन मुक्ति, शरीर का बढ़ना, देवार्चन व्रत, पहाड़ उड़ते देखना, कुटुम्बी की मृत्यु, विशाल भीड़, किला, विजय, ग्रन्थ रचना आदि। 

*अग्नि पुराण के अनुसार कुछ अन्य शुभ स्वप्न -

       अपनी नाभि में तृण या पेड़ उगाना, अपनी भुजा या मस्तक का दर्शन होना, सिर के बाल सफेद होना, चन्द्र, रवि तथा तारे पकड़ना, इन्द्र की ध्वजा को आलिंगन देना, पृथ्वी पर पड़ी जल धारा को अपने शरीर पर लेना, शत्रु की परेशानियाँ देखना, रक्त से नहाना, अपने मुँह से गाय-भैंस, सिंहनी, हथिनी या घोड़ी को दुहना, गाय के सींग से या चन्द्र से बरसी जलधारा से स्वयं को अभिषेक होना, महँगी मोटर या जहाज में बैठना, अपरिचित स्त्री से संभोग करते हुए देखना आदि।

अशुभ स्वप्न एक दृष्टि मेंः

*संकट सूचक स्वप्न -

       जोर से हँसना, खुद का विवाह, नाच गाना देखना, कान में उगे अशोक कदली के फूल देखना, तेल या नमक दिखाई दें, नग्न, नाक कटी हुई काली, शूद्र, विधवा, जटा, ताड़ी के फल देखना, चिढा हुआ ब्राह्मण या चिढी हुई ब्राह्मणी देखना, जंगली फूल, लाल फल, कपास, टांक, सफेद फूल देखना, हिरण का मरा हुआ बच्चा, मनुष्य का मस्तक, रूँडमाला दीखे, अपने टूटे हुए नाखून, बुझी आग, पूर्ण रूप से जली हुई चिता, शमशान, सूखी घास, लोहा, काली स्याही एवं काले घोड़े, टूटे-फूटे बरतन, जख्म, कुष्ठ-रोगी, लाल वस्त्र, जटाधारी, सूअर, भैंसा, काला अंधेरा, मरा हुआ प्राणी, योनी दर्शन, ब्राह्मण-ब्राह्मणी, छोटा बालक, कन्या, क्रोध में विलाप करना, लाल वस्त्र, वाद्य, नाचना, गाना, गायक, मृदंग बजाने वाला दीखें, सींग वाले प्राणी पर बच्चे या बड़े टूट पड़े, कटा हुआ नीचे गिरता हुआ पेड़, छुरी, धदकते अँगारे, पत्थरों की बारिश, रथ, मकान, पर्वत, पेड़, गाय, हाथी, घोड़ा, आकाश से पृथ्वी पर गिरते दीखे, ऊपर से गिर रहे ग्रह, पर्वत, धूमकेतु, टूटा हुआ मनुष्य दिखे, भयभीत गाय अपने बछड़े के साथ भाग जाए (धन नाश), मस्तक पर आच्छादित छत्र कोई छीने तो (पिता, गुरू का नाश), दाँत टूटते देखना, दरवाजा बन्द देखना, दलदल देखना, धुँआ देखना, रस्सी देखना, भूकम्प देखना, कैंची देखना, कोयला देखना, कीचड़ में फँसना, लोमड़ी देखना, मुर्दे को पुकारना, बाजार देखना, बिल्ली देखना, बिल्ली या बन्दर काटे, पत्थर देखना, चादर देखना, रत्न या नगीना देखना, आग जला कर पकड़ना, आँधी और बिजली गिरना, सूखा अन्न खाना, वर्षा अपने घर पर देखना, सूख बाग देखना।

*रोग ग्रस्त सूचक स्वप्न -

         दाँतों का गिरना, हविष्य के पदार्थ दूध, दही, छाछ एवं गुड़ शरीर को लगा दीखे, लाल फूलों की माला पहनी हुई, लाल रंग के वस्त्र पहने हुए स्त्री आलिंगन दे, पादुका, कपाल की हड्डी, लाल फूलों की माला, उड़द, मसूर, मूँग दिखे (फोड़े, जख्म), सेना, गिरगिट, कौआ, सियार, बन्दर, बिगड़ा हुआ भालू, सुअर, भैंसा, ऊँट, गधा हमला करें।

* मृत्यु के संकेतक स्वप्न -

         मुर्दा देखे, जख्मी, बिना सिर का धड़, मुँडन किए प्राणी नाचते देखना, मरा हुआ मनुष्य या काले रंग की मलेच्छ स्त्री आलिंगन दे, शत्रु, कौआ, मुर्गा, भालू आक्रमण करें, अभ्यंग स्नान करके गधा-ऊँट- भैंसा किसी पर सवार होकर दक्षिण में प्रस्थान करें, हँसने वाली, गाने वाली, काले वस्त्र परिधार किए काले रंग की विधवा दिखे, काले वस्त्र पहने काले रंग के फूलों की माला गले में डाले स्त्री आलिंगन दे, गधा या ऊँट के रथ में बैठे नींद खुल जाए, गन्दे कपड़े पहने, पाश एवं अस्त्र धारण किया हुआ यमदूत, काले फूल, काले फूलों की मालाएँ, शस्त्र धारी सेना, विकृतकायाधारी म्लेच्छ स्त्री आदि।

* अन्य अशुभ स्वप्न -

      अत्यन्त वृद्ध काले शरीर वाली नंगी स्त्री का नाचना, खुले केश वाली विधवा, सिर पर ताड़ के या कोई भी काले रंग के फलों का गिरना, मैला कुचैला, विकृत आकार, रुखे केश वाले मलेच्छ या गलित कुष्ठ से युक्त नंगा शूद्र देखना, सधवा, पुत्रवती, सती स्त्री या शिखा खोले ब्राह्मण को, रोष कुपित गुरु, सन्यासी या वैष्णव को देखना, घड़े का फोडा़ जाना, अँगार, भस्म या रक्त की वर्षा, सूर्य या चन्द्र को निस्तेज या ग्रहण लगा हुआ देखना, हाथ से दर्पण, दण्डादि गिरकर टूटना, गले का हार, माला आदि टूटना, काली प्रतिमा देखना, भस्मपुँज, हड्डियों का ढेर, ताड़ का फल, केश, नाखून, कौडि़याँ, कोयला देखना मरघट या चिता पर रखा मुर्दा, कुम्हार का चाक, तेली का कोल्हू, आधे जले या सूखे काठ, कुश, तृण, चलता हुआ घोड़ा, मुर्दे का चिल्लाता हुआ मस्तक, आग से जला हुआ स्थान देखना, भस्मयुक्त सूखा तालाब, जली मछली, लोहा, जला हुआ वन देखना, तिरस्कृत या अपमानित होना, फाँसी लगना, घबराना, पसीने-पसीने होना, घी लेना, मीठी चीज खाना, दुर्घटना होना, खाली बर्तन लेकर भटकना, लाल या काले वस्त्र पहनना, परदेशी की मृत्यु की सूचना, सांपों से क्रीड़ा, सांप का पेट में घुसना, हवा में उड़ना, दक्षिण की यात्रा, चोरी करना, चोरी होना आदि। 

अशुभ फल सूचक स्वप्नों की शान्ति के उपाय -

*अशुभ स्वप्न देखने पर स्वप्न को तुरंत ही यह स्वप्न किसी को सुना दें और पुनः सो जाएँ। स्वप्न के अशुभ फल प्राप्त नहीं होंगे।

*1000 गायत्री मंत्रों से हवन करें।

* ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’, मंत्र का 10,000 जप करें।

*‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गतिनाशिन्यै महामायायै स्वाहा’ का 10 बार जप करें।      

* महामृत्युञ्जय मंत्र का जप करें।

* ऋग्वेदोक्त ‘दुःस्वप्ननाशन सूक्त’ का पाठ 11 बार करें।

स्वप्न एक गूढ विद्या - स्वप्न की महत्ता तथा आध्यात्मिकता को स्वीकार करते हुए भारतीय तंत्रशास्त्र में भी इस विषय पर विशेष चर्चा की गई है। भारतीय ऋषियों ने कई मंत्रों का उल्लेख किया है, जिसके द्वारा मंत्र की अधिष्ठात्री शक्ति की कृपा से व्यक्ति अपना शुभाशुभ फल जान सकता है। इन साधनाओं में स्वप्नेश्वरी देवी, स्वप्नदेवी, स्वप्नचक्रेश्वरी तथा स्वप्न सिद्धि प्रमुख हैं।

* स्वप्न सिद्धि मंत्र - ‘ॐ ह्रीं नमो वाराहि अघोरे स्वप्नं दर्शय ठःठः स्वाहा’

  इस मंत्र को सोते समय ग्यारह सौ मंत्र का जप करने से ग्यारह दिन के भीतर ही प्रश्न का उत्तर स्वप्न में निश्चित रूप से मिल जाता है।

*स्वप्नदेवी मंत्र - ‘ॐ ह्रीं मानसे स्वप्नेश्वरि विचाय विद्ये वद वद स्वाहा’ 

एक लाख जप करने से प्रश्न का उत्तर स्वप्न में मिल जाता है।

*दुर्गासप्तशती प्रयोग -

" दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।

मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।"

      इस मंत्र का सोते समय 108 बार नित्य पाठ करने से शीघ्र ही प्रश्न का उत्तर स्वप्न के माध्यम से प्राप्त हो जाता है।

केन्द्राधिपत्य दोष Kendradhipati dosh

केन्द्राधिपत्य दोष Kendradhipati dosh


पाराशरी ज्योतिष में केन्द्राधिपत्य दोष और गुरु व शुक्र का विवरण
आकाशीय पिण्डों का निरीक्षण, अध्ययन तथा उसके प्रभावों का अध्ययन ही ज्योतिषशास्त्र है। ज्योतिष के विषय विभाग का क्षेत्र अतिविस्तृत है। अतः इस शास्त्र के विषय को अनेक भेदों एवं विभागों के अन्तर्गत बांटा गया है। प्रमुख रूप से ज्योतिष के तीन ही मुख्य स्कन्ध हैं- सिद्धान्त, संहिता व होरा। भारतीय ज्योतिषशास्त्र का समस्त फलादेश जातक की जन्मपत्रिका या जन्मकुंडली पर आश्रित है। जन्मकुण्डली के बारह भाव होते हैं। लग्न से प्रारंभ करते हुए इसे क्रमशः प्रथम-द्वितीय-तृतीय आदि भावों में जाना जाता है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में ‘जन्म-कुंडली’ आधारभूत आवश्यकता होती है। यह कुंडली किसी काल विशेष की आकाशीय स्थिति का मानचित्र होता है। कुण्डली में कुल बारह भाव होते हैं। ज्योतिषशास्त्र के विभिन्न ग्रंथों में प्रत्येक भाव के लिए अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। तथापि कुंडली के इन भावों को क्रमशः देह, धन, पराक्रम, सुख, पुत्र, शत्रु, स्त्री, मृत्यु, भाग्य, राज्य, लाभ एवं व्यय नामों से जाना जाता है। लग्न, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम इन चार स्थानों को ‘केन्द्र’ कहते हैं। इन्हीं को ‘चतुष्टय’ और ‘कंटक स्थान’ नामों से भी जाना जाता है। भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों में जन्मकुण्डली के कुछ भावों की ‘केन्द्र’ संज्ञा कही गई है। ‘केन्द्र’ संज्ञक भावों के विषय में महर्षि पराशर का मत है कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव केन्द्र संज्ञक हैं।1 ‘लोमश संहिता’ में महर्षि लोमश का भी मत है कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव ही ‘केन्द्र’ संज्ञक हैं।2  ‘कृष्णीयम्’ ग्रंथ के रचनाकार ने भी इन्हीं भावों को केन्द्र, चतुष्ट्य तथा कण्टक संज्ञा से निर्देशित किया है।3 ‘वृहत् पराशर होराशास्त्र’ में भी केन्द्र स्थानों के शुभत्व का वर्णन प्राप्त होता है। इसी प्रसंग में महर्षि पराशर केन्द्र स्थानों को ‘विष्णु-स्थान’ भी कहते हैं।4 इन केन्द्र स्थानों को अत्यन्त शुभ माना गया है और कहा गया है कि इन स्थानों तथा स्थानाधिपतियों के योग से अशुभ भी शुभ हो जाता है।5
केन्द्राधिपत्य दोष कहते किसे हैं? यह जानना आवश्यक है। इस विषय पर महर्षि पराशर ने अपने लघुकाय ग्रन्थ ‘लघुपाराशरी’ में विशेष रूप से चर्चा की है और कहा है- “न दिशन्ति शुभं नृणां सौम्याः केन्द्राधिपाः यदि। क्रूराश्चेदशुभं ह्येते प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम्।।”6 अभिप्राय यह है कि यदि शुभग्रह (गुरु, शुक्र, बुध व चन्द्र)7 केन्द्र स्थानों (1,4,7,10)8 के स्वामी हों तो वे जातक को अपना शुभ फल प्रदान नहीं करते हैं और पापग्रह (सूर्य, मंगल, शनि)9 भी यदि इन्हीं केन्द्र स्थानों के अधिपति हों तो जातक को पाप फल प्रदान नहीं करते। नैसर्गिक शुभ ग्रहों के रूप में बृहस्पति, शुक्र, पूर्ण चन्द्र तथा अकेला बुध इनकी गणना की गई है। स्पष्ट है कि गुरु व शुक्र के शुभत्व के लिए किसी विशिष्ट परिस्थिति की आवश्यकता नहीं होती है, वहीं चन्द्र तथा बुध के प्रसङ्ग में स्थिति किंचित भिन्न होती है। शुभ ग्रहों के केन्द्राधिपत्य दोष के बलाबल निर्धारण के प्रसङ्ग में महर्षि पराशर ने एक सूत्र का प्रतिपादन किया है- “केन्द्राधिपत्यदोषस्तु बलवान् गुरुशुक्रयोः।”10 अर्थात् जिन शुभग्रहों को केन्द्राधिपति होने के कारण दोष लगता है उनमें गुरु और शुक्र प्रमुख हैं। इसके बाद क्रमशः बुध तथा चन्द्रमा को केन्द्राधिपत्य दोष होता है- ‘बुधस्तदनु चन्द्रोऽपि भवेत् तदनु तद्विधः।’11 लघुपराशरी ग्रन्थ के विभिन्न टीकाकारों ने गुरु तथा शुक्र के मध्य केन्द्राधिपत्य दोष के प्रसङ्ग में गुरु को केन्द्राधिपत्य दोष अधिक होना स्वीकृत किया है। हम जानते हैं कि जातक के जीवन के सर्वप्रमुख सुख तथा इष्ट विषयों का विचार गुरु व शुक्र से ही किया जाता है,12 अतः इन दोनों में से किसी एक के भी केन्द्राधिपति होने पर जातक को उस ग्रह विशेष से संबंधित शुभ फलों की प्राप्ति में कमी बनी रहती है। अतः गुरु व शुक्र को केन्द्राधिपत्य दोष सर्वाधिक होता है इस सन्दर्भ में कोई मतभिन्नता नहीं है। परन्तु इन दोनों नैसर्गिक ग्रहों अर्थात् गुरु व शुक्र में से भी किस ग्रह को केन्द्राधिपत्य दोष सर्वाधिक होता है? यह विचारणीय प्रश्न है। इस सन्दर्भ में मेष लग्न से लेकर मीन लग्न अर्थात् कुल बारह लग्नों पर सूक्ष्म विश्लेषण तथा विमर्श करने पर ही उपरोक्त शङ्का का समाधान प्राप्त हो सकता है।
गुरु- गुरु चार लग्नों में केन्द्राधिपत्य दोष से पीड़ित होते हैं और ये लग्न हैं- मिथुन, कन्या, धनु और मीन। मिथुन लग्न की कुण्डली में गुरु की दोनों राशियाँ धनु तथा मीन क्रमशः सप्तम तथा दशम भाव में पड़ती हैं, अर्थात् सप्तम भाव तथा दशम भाव का अधिपति होने के कारण गुरु को केन्द्राधिपत्य दोष लगता है। इसी प्रकार कन्या लग्न की कुण्डली में भी गुरु द्वितीय तथा तृतीय केन्द्र स्थानों अर्थात् चतुर्थेश तथा सप्तमेश होने के कारण केन्द्राधिपत्य दोष से पीड़ित होते हैं। धनु लग्न की कुण्डली में लग्नेश तथा चतुर्थेश होने के कारण गुरु को यह दोष प्राप्त होता है जबकि मीन लग्न की जन्मकुण्डली में गुरु को यह दोष दशमेश तथा लग्नेश होने के कारण प्राप्त होता है। उपरोक्त परिस्थितियों में हम पाते हैं कि बृहस्पति की एक राशि यदि केन्द्र स्थान में पड़ती है, तो उसकी दूसरी राशि भी केन्द्र स्थान में पड़ जाती है। स्पष्ट है कि अपनी दोनों राशियों के केन्द्र स्थान में पड़ जाने के कारण बृहस्पति उस जातक को शुभ फल देने में असमर्थ हो जाते हैं।
शुक्र- शुक्र के सन्दर्भ में जब हम केन्द्राधिपत्य दोष के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि कुल बारह लग्नों में से आठ लग्न ऐसे हैं, जिनमें शुक्र केन्द्रेश होते हैं और उन्हें केन्द्राधिपत्य दोष प्राप्त होता है। ये लग्न हैं- मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर और कुम्भ। मेष लग्न की कुण्डली में शुक्र की राशि तुला तृतीय केन्द्र स्थान (सप्तम भाव) में रहती है और इसकी दूसरी राशि द्वितीय भाव में रहती है। वृष लग्न में शुक्र लग्नेश (प्रथम केन्द्रेश) और षष्ठेश होते हैं। कर्क लग्न में शुक्र द्वितीय केन्द्र स्थान (चतुर्थभाव) तथा एकादश भाव के अधिपति होते हैं। सिंह लग्न में शुक्र चतुर्थ केन्द्र स्थान (दशम भाव) तथा तृतीय स्थान के स्वामी होते हैं। तुला लग्न में शुक्र प्रथम केन्द्र स्थान (लग्न भाव) तथा अष्टम भाव के स्वामी होते हैं। वृश्चिक लग्न में शुक्र तृतीय केन्द्र स्थान (सप्तम भाव) तथा द्वादश भाव के अधिपति रहते हैं। मकर लग्न में शुक्र चतुर्थ केन्द्र स्थान के स्वामी तथा पञ्चम भाव (त्रिकोण) के स्वामी होते हैं। कुम्भ लग्न में भी शुक्र द्वितीय केन्द्र स्थान के स्वामी होने के साथ-साथ नवम भाव (त्रित्रिकोण) के स्वामी होते हैं। ध्यातव्य है कि शुक्र के केन्द्रेश होने की आठ संभावनाओं में से छः परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं, जबकि शुक्र केन्द्रेश होने के साथ-साथ त्रिक (3,8,12) स्थानों अथवा त्रिषडाय (3,6,11) स्थानों के भी अधिपति होते हैं। अभिप्राय यह है कि जहाँ गुरु को केन्द्राधिपत्य दोष लग्न की परिस्थिति में उनकी दूसरी राशि भी केन्द्र स्थानों में ही पड़ती है, इस कारण वे अपना शुभ फल देने में असमर्थ हो जाते हैं, परन्तु उनमें अशुभ फल देने की प्रवृत्ति का अभाव रहता है। वहीं दूसरी तरफ शुक्र के केन्द्राधिपति होने की परिस्थिति में 75% ऐसे अवसर होते हैं जब शुक्र की दूसरी राशि पाप स्थानों13 (त्रिक, त्रिषडाय) में पड़ती है। महर्षि पराशर ने 2,3,6,8,11,12 भावों को क्रूर और अशुभ संज्ञक माना है।14 जिसके कारण शुक्र शुभ फल देने में समर्थ तो नहीं ही रहते हैं, परन्तु उनमें अशुभ फल देने की संभावना अवश्य व्याप्त हो जाती है। बारह जन्म लग्नों में से जहाँ गुरु के केन्द्राधिपित होने की संभावना 33.33% होती है, वहीं शुक्र को केन्द्राधिपत्य दोष से पीडि़त होने की संभावना 66.66% रहती है। यद्यपि गुरु तथा शुक्र के शुभत्व की तुलना की जाए तो गुरु अवश्य श्रेष्ठ हैं, परन्तु केन्द्राधिपत्य दोष के बलाबल निर्धारण प्रसङ्ग में शुक्र को ही अधिक दोष होता है, यह मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है।

संदर्भ

1. बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्; 8/33
2. लोमशसंहिता; 6/106
3. कृष्णीयम्; 3/13
4. बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्; 42/28
5. शिवजातक, श्लो.13
6. लघुपाराशरी; 2/7
7. शम्भुहोराप्रकाश; 2/6
8. लोमशसंहिता; 6/106
9. सारावली; 4/9
10. लघुपाराशर; 2/10
11. वही; 2/11
12. उत्तरकालामृतम्; 38-41, 42-45
13. सर्वार्थचिंतामणि; 1/46
14. बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्; 33/37

Laghu Parashari Sutra पाराशरी सिद्धांत ( सभी 42 सूत्र )

Laghu Parashari Sutraपाराशरी सिद्धांत ( सभी 42 सूत्र )

लघुपाराशरी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके बिना फलित ज्योतिष का ज्ञान अधूरा है, इस पुस्तक का मूल नाम 'उडुदाय प्रदीप' है किन्तु यह लघुपाराशरी नाम से ही प्रसिद्ध है वस्तुतः, विंशोत्तरी दशा को ही मुख्य दशा मानने के कारण इसका नाम 'उडुदाय' रखा गया|

 'उडु' का अर्थ है नक्षत्र और 'दाय' का अर्थ है दशा अर्थात नक्षत्रों पर आधारित दशा,

 ज्ञातव्य है कि विंशोत्तरी दशा जन्मकालीन नक्षत्रों पर ही आधारित है.  इस पुस्तक का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि कलियुग में विंशोत्तरी दशा को ही सर्वाधिक फलदायी माना गया है | 
लघुपाराशरी संस्कृत श्लोकों में रचित लघु ग्रन्थ है। इसे 'जातकचन्द्रिका' भी कहते हैं। यह विंशोत्तरी दशा पद्धति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा वृहद् पाराशर होराशास्त्र पर आधारित है। इसके रचनाकार के बारे में ठीक-ठीक पता नहीं है किन्तु माना जाता है कि पाराशर के अनुयायियों ने इसकी रचना की।

इस पुस्तक में फलित ज्योतिष के अकाट्य सिद्धांत केवल ४२ श्लोकों में समेट दिए गए हैं, एक-एक सूत्र अपने आप में अमूल्य है |

ज्‍योतिष की एक नहीं बल्कि कई धाराएं साथ साथ चलती रही हैं। वर्तमान में दशा गणना की जिन पद्धतियों का हम इस्‍तेमाल करते हैं, उनमें सर्वाधिक प्रयुक्‍त होने वाली विधि पाराशर पद्धति है। सही कहें तो पारशर की विंशोत्‍तरी दशा के इतर कोई दूसरा दशा सिस्‍टम दिखाई भी नहीं देता है। 

लघुपाराशरी में 42 सूत्र या श्लोक हैं जो पाँच अध्यायों में विभक्त हैं।
1. संज्ञाध्याय
2. योगाध्याय
3. आयुर्दायाध्याय
4. दशाफलाध्याय
5. शुभाशुभग्रहकथनाध्याय

पाराशरी संहिता में निहित मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन और शुभ फलों की प्राप्ति के कारक : 
• जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे की राशि में होते हैं तो शुभ फल प्राप्त होते है। 
• जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे से दृष्टि संबंध में हो तो शुभ फल प्राप्त होते है। 
• कुंडली में ग्रहों की परस्पर युति होने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं। 
• कुंडली में एक ग्रह दूसरे ग्रह को संदर्भित करता हो तो शुभ फल प्राप्त होते हैं। 

इन स्थितियों में होती है शुभ फलों की प्राप्ति असंभव - 
महर्षि पाराशर मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर शुभ फलों की प्राप्ति के कारको में कुछ ऐसी बाधाओं का भी वर्णन है जिसके रहते शुभ फलों की प्राप्ति असंभव हो जाती है। उन बाधाओं का वर्णन नीचे दिया गया है। 


• नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्राधिपत्य रूप से दोषी न हो। 
• गुरु, मंगल, शनि तथा बुध ग्रहों की दूसरी राशि दुष्ट स्थानों में न हो। 
• पूर्व वर्णित चारों ही स्थितियों में ग्रहों की युति किसी अन्य पापी या क्रूर ग्रह से न हो। 
• ग्रह शत्रु गृही, नीचस्तंगत या पाप कर्तरी स्थिति में न हो। 
• ग्रहों को पाप मध्यत्व न प्राप्त हो। 



महर्षि पाराशर के फलित ज्‍योतिष संबंधी सिद्धांत लघु पाराशरी  में मिलते हैं। इनमें कुल जमा 42 सूत्र (42 sutras) हैं।
अगर आप केवल इन मूल सिद्धांतों को पढ़ें तो आपके दिमाग में भी ज्‍योतिष फलित के संबंध में कई विचार स्‍पष्‍ट हो जाएंगे। मैं केवल मूल सिद्धांत के हिंदी अनुवाद को पेश कर रहा हूं, इसमें न तो टीका शामिल है:-

1. यह श्रुतियों का सिद्धांत है जिसमें में प्रजापति के शुद्ध अंत:करण, बिम्‍बफल के समान लाल अधर वाले और वीणा धारण करने वाले तेज, जिसकी अराधना करता हूं, को समर्पित करता हूं।

2. मैं महर्षि पाराशर के होराशास्‍त्र को अपनी मति के अनुसार विचारकर ज्‍योतिषियों के आनन्‍द के लिए नक्षत्रों के फलों को सूचित करने वाले उडूदायप्रदीप ग्रंथ का संपादन करता हूं।

3. हम इसमें नक्षत्रों की दशा के अनुसार ही शुभ अशुभ फल कहते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार फल कहने में विशोंतरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए। अष्‍टोतरी दशा यहां ग्राह्य नहीं है।

4. सामान्‍य ग्रंथों पर से भाव, राशि इत्‍यादि की जानकारी ज्‍योति शास्‍त्रों से जानना चाहिए। इस ग्रंथ में जो विरोध संज्ञा है वह शास्‍त्र के अनुरोध से कहते हैं।

5. सभी ग्रह जिस स्‍थान पर बैठे हों, उससे सातवें स्‍थान को देखते हैं। शनि तीसरे व दसवें, गुरु नवम व पंचम तथा मंगल चतुर्थ व अष्‍टम स्‍थान को विशेष देखते हैं।

6. (अ) कोई भी ग्रह त्रिकोण का स्‍वामी होने पर शुभ फलदायक होता है। (लग्‍न, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण कहते हैं) तथा त्रिषडाय का स्‍वामी हो तो पाप फलदायक होता है (तीसरे, छठे और ग्‍यारहवें भाव को त्रिषडाय कहते हैं।)

6. (ब) अ वाली स्थिति के बावजूद त्रिषडाय के स्‍वामी अगर त्रिकोण के भी स्‍वामी हो तो अशुभ फल ही आते हैं। (मेरा नोट: त्रिषडाय के अधिपति स्‍वराशि के होने पर पाप फल नहीं देते हैं- काटवे।)

7. सौम्‍य ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र और पूर्ण चंद्र) यदि केन्‍द्रों के स्‍वामी हो तो शुभ फल नहीं देते हैं। क्रूर ग्रह (रवि, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र और पापग्रस्‍त बुध) यदि केन्‍द्र के अधिपति हों तो वे अशुभ फल नहीं देते हैं। ये अधिपति भी उत्‍तरोतर क्रम में बली हैं। (यानी चतुर्थ भाव से सातवां भाव अधिक बली, तीसरे भाव से छठा भाव अधिक बली)

8. लग्‍न से दूसरे अथवा बारहवें भाव के स्‍वामी दूसरे ग्रहों के सहचर्य से शुभ अथवा अशुभ फल देने में सक्षम होते हैं। इसी प्रकार अगर वे स्‍व स्‍थान पर होने के बजाय अन्‍य भावों में हो तो उस भाव के अनुसार फल देते हैं। (मेरा नोट: इन भावों के अधिपतियों का खुद का कोई आत्‍मनिर्भर रिजल्‍ट नहीं होता है।)

9. अष्‍टम स्‍थान भाग्‍य भाव का व्‍यय स्‍थान है (सरल शब्‍दों में आठवां भाव नौंवे भाव से बारहवें स्‍थान पर पड़ता है), अत: शुभफलदायी नहीं होता है। यदि लग्‍नेश भी हो तभी शुभ फल देता है (यह स्थिति केवल मेष और तुला लग्‍न में आती है)।

10. शुभ ग्रहों के केन्‍द्राधिपति होने के दोष गुरु और शुक्र के संबंध में विशेष हैं। ये ग्रह केन्‍द्राधिपति होकर मारक स्‍थान (दूसरे और सातवें भाव) में हों या इनके अधिपति हो तो बलवान मारक बनते हैं।

11. केन्‍द्राधिपति दोष शुक्र की तुलना में बुध का कम और बुध की तुलना में चंद्र का कम होता है। इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा को अष्‍टमेष होने का दोष नहीं लगता है।

12. मंगल दशम भाव का स्‍वामी हो तो शुभ फल देता है। किंतु यही त्रिकोण का स्‍वामी भी हो तभी शुभफलदायी होगा। केवल दशमेष होने से नहीं देगा। (यह स्थिति केवल कर्क लग्‍न में ही बनती है)

13. राहू और केतू जिन जिन भावों में बैठते हैं, अथवा जिन जिन भावों के अधिपतियों के साथ बैठते हैं तब उन भावों अथवा साथ बैठे भाव अधिपतियों के द्वारा मिलने वाले फल ही देंगे। (यानी राहू और केतू जिस भाव और राशि में होंगे अथवा जिस ग्रह के साथ होंगे, उसके फल देंगे।)। फल भी भावों और अधिपतियो के मु‍ताबिक होगा।

14. ऐसे केन्‍द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति जिनकी अपनी दूसरी राशि भी केन्‍द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्‍य स्‍थानों में नहीं पड़ती हो, तो ऐसे ग्रहों के संबंध विशेष योगफल देने वाले होते हैं।
Parashari Siddhant) में महर्षि पाराशर ने कुल 42 सूत्र फलित ज्‍योतिष के दिए हैं। इनमें से पहले 21 सूत्रों को सरल हिंदी में पूर्व के लेख  में लिख चुका हूं अब उससे आगे के सूत्र 22वें से 42वें तक इस भाग में…

22. धर्म और कर्म भाव के अधिपति यानी नवमेश और दशमेश यदि क्रमश: अष्‍टमेश और लाभेश हों तो इनका संबंध योगकारक नहीं बन सकता है। (उदाहरण के तौर पर मिथुन लग्‍न)। इस स्थिति को राजयोग भंग भी मान सकते हैं।

23. जन्‍म स्‍थान से अष्‍टम स्‍थान को आयु स्‍थान कहते हैं। और इस आठवें स्‍थान से आठवां स्‍थान आयु की आयु है अर्थात लग्‍न से तीसरा भाव। दूसरा भाव आयु का व्‍यय स्‍थान कहलाता है। अत: द्वितीय एवं सप्‍तम भाव मारक स्‍थान माने गए हैं।

24. द्वितीय एवं सप्‍तम मारक स्‍थानों में द्वितीय स्‍थान सप्‍तम की तुलना में अधिक मारक होता है। इन स्‍थानों पर पाप ग्रह हों और मारकेश के साथ युक्ति कर रहे हों तो उनकी दशाओं में जातक की मृत्‍यु होती है।

25. यदि उनकी दशाओं में मृत्‍यु की आशंका न हो तो सप्‍तमेश और द्वितीयेश की दशाओं में मृत्‍यु होती है।

26. मारक ग्रहों की दशाओं में मृत्‍यु न होती हो तो कुण्‍डली में जो पापग्रह बलवान हो उसकी दशा में मृत्‍यु होती है। व्‍ययाधिपति की दशा में मृत्‍यु न हो तो व्‍ययाधिपति से संबंध करने वाले पापग्रहों की दशा में मरण योग बनेगा। व्‍ययाधिपति का संबंध पापग्रहों से न हो तो व्‍ययाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों की दशा में मृत्‍यु का योग बताना चाहिए। ऐसा समझना चाहिए। व्‍ययाधिपति का संबंध शुभ ग्रहों से भी न हो तो जन्‍म लग्‍न से अष्‍टम स्‍थान के अधिपति की दशा में मरण होता है। अन्‍यथा तृतीयेश की दशा में मृत्‍यु होगी। (मारक स्‍थानाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों को भी मारकत्‍व का गुण प्राप्‍त होता है।)

27. मारक ग्रहों की दशा में मृत्‍यु न आवे तो कुण्‍डली में जो बलवान पापग्रह हैं उनकी दशा में मृत्‍यु की आशंका होती है। ऐसा विद्वानों को मारक कल्पित करना चाहिए।

28. पापफल देने वाला शनि जब मारक ग्रहों से संबंध करता है तब पूर्ण मारकेशों को अतिक्रमण कर नि:संदेह मारक फल देता है। इसमें संशय नहीं है।

29. सभी ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में अपने भाव के अनुरूप शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करते हैं। (सभी ग्रह अपनी महादशा की अपनी ही अंतरदशा में शुभफल प्रदान नहीं करते हैं – लेखक)

30. दशानाथ जिन ग्रहों के साथ संबंध करता हो और जो ग्रह दशानाथ सरीखा समान धर्मा हो, वैसा ही फल देने वाला हो तो उसकी अंतरदशा में दशानाथ स्‍वयं की दशा का फल देता है।

31. दशानाथ के संबंध रहित तथा विरुद्ध फल देने वाले ग्रहों की अंतरदशा में दशाधिपति और अंतरदशाधिपति दोनों के अनुसार दशाफल कल्‍पना करके समझना चाहिए। (विरुद्ध व संबंध रहित ग्रहों का फल अंतरदशा में समझना अधिक महत्‍वपूर्ण है – लेखक)

32. केन्‍द्र का स्‍वामी अपनी दशा में संबंध रखने वाले त्रिकोणेश की अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। त्रिकोणेश भी अपनी दशा में केन्‍द्रेश के साथ यदि संबंध बनाए तो अपनी अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। यदि दोनों का परस्‍पर संबंध न हो तो दोनों अशुभ फल देते हैं।

33. यदि मारक ग्रहों की अंतरदशा में राजयोग आरंभ हो तो वह अंतरदशा मनुष्‍य को उत्‍तरोतर राज्‍याधिकार से केवल प्रसिद्ध कर देती है। पूर्ण सुख नहीं दे पाती है।

34. अगर राजयोग करने वाले ग्रहों के संबंधी शुभग्रहों की अंतरदशा में राजयोग का आरंभ होवे तो राज्‍य से सुख और प्रतिष्‍ठा बढ़ती है। राजयोग करने वाले से संबंध न करने वाले शुभग्रहों की दशा प्रारंभ हो तो फल सम होते हैं। फलों में अधिकता या न्‍यूनता नहीं दिखाई देगी। जैसा है वैसा ही बना रहेगा।

35. योगकारक ग्रहों के साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की महादशा के योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में योगकारक ग्रह योग का शुभफल क्‍वचित देते हैं।

36. राहू केतू यदि केन्‍द्र (विशेषकर चतुर्थ और दशम स्‍थान में) अथवा त्रिकोण में स्थित होकर किसी भी ग्रह के साथ संबंध नहीं करते हों तो उनकी महादशा में योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में उन ग्रहों के अनुसार शुभयोगकारक फल देते हैं। (यानी शुभारुढ़ राहू केतू शुभ संबंध की अपेक्षा नहीं रखते। बस वे पाप संबंधी नहीं होने चाहिए तभी कहे हुए अनुसार फलदायक होते हैं।) राजयोग रहित शुभग्रहों की अंतरदशा में शुभफल होगा, ऐसा समझना चाहिए।

37-38. यदि महादशा के स्‍वामी पापफलप्रद ग्रह हों तो उनके असंबंधी शुभग्रह की अंतरदशा पापफल ही देती है। उन महादशा के स्‍वामी पापी ग्रहों के संबंधी शुभग्रह की अंतरदशा मिश्रित (शुभ एवं अशुभ) फल देती है। पापी दशाधिप से असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतरदशा अत्‍यंत पापफल देने वाली होती है।

39. मारक ग्रहों की महादशा में उनके साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की अंतरदशा में दशा मे

15. बलवान त्रिकोण और केन्‍द्र के अधिपति खुद दोषयुक्‍त हों, लेकिन39. मारक ग्रहों की महादशा में उनके साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की अंतरदशा में दशानाथ मारक नहीं बनता है। परन्‍तु उसके साथ संबंध रहित पापग्रह अंतरदशा में मारक बनते हैं।

40. शुक्र और शनि अपनी अपनी महादशा में अपनी अपनी अंतरदशा में अपने अपने शुभ फल देते हैं। यानी शनि महादशा में शुक्र की अंतरदशा हो तो शनि के फल मिलेंगे। शुक्र की महादशा में शनि के अंतर में शुक्र के फल मिलेंगे। इस फल के लिए दोनों ग्रहों के आपसी संबंध की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए।

41. दशम स्‍थान का स्‍वामी लग्‍न में और लग्‍न का स्‍वामी दशम में, ऐसा योग हो तो वह राजयोग समझना चाहिए। इस योग पर विख्‍यात और विजयी ऐसा मनुष्‍य होता है।

42. नवम स्‍थान का स्‍वामी दशम में और दशम स्‍थान का स्‍वामी नवम में हो तो ऐसा योग राजयोग होता है। इस योग पर विख्‍यात और विजयी पुरुष होता है।

महर्षि पाराशर के लघु पाराशरी फलित सिद्धांत सूत्र में कुल जमा ये ही 42 सूत्र दिए गए हैं।

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