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द्वादश भाव नवग्रह फल Navgrah phal in 12 Houses | 12 lagna द्वादश लग्न फल

द्वादश भाव नवग्रह फल Navgrah phal in 12 Houses

१ मेष लग्न में लग्नस्थ ग्रहों का फल:-मेष लग्न का स्वामी मंगल है.इस लग्न में मंगल लग्नेश और अष्टमेश होता है.गुरू, सूर्य, चन्द्र इस लग्न में कारक ग्रह की भूमिका निभाते हैं .बुध, शुक्र और शनि मेष लग्न में अकारक और अशुभ ग्रह का फल देते हैं.
मेष लग्न में लग्नस्थ सूर्य का फल :- मेष लग्न की कुण्डली में सूर्य पंचम भाव का स्वामी होता है.त्रिकोण का स्वामी होने से सूर्य इनके लिए शुभ कारक ग्रह होता है.लग्न में सूर्य की उपस्थिति से व्यक्ति दिखने में सुन्दर और आकर्षक होता है.इनमें स्वाभिमान एवं आत्मविश्वास होता है.शिक्षा की स्थिति अच्छी होती है.ये अपनी बातों को कायम रहते हैं.कभी कभी अकारण विवाद में भी उलझ जाते हैं.पिता से सहयोग प्राप्त होता है.जीवन के उत्रार्द्ध में पिता से विवाद होने की भी संभावना रहती है.आर्थिक स्थिति अच्छी होती है.सूर्य अगर पाप ग्रहों से पीड़ित नहीं हो तो सरकार एवं सरकारी पक्ष से लाभ मिलने की संभावना रहती है.सूर्य के प्रभाव से संतान सुख प्राप्त होता है.सूर्य अपनी पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव में स्थित शुक्र की तुला राशि को देखता है.इसके प्रभाव से व्यक्ति को सुन्दर जीवनसाथी प्राप्त होता है.जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त होता है परन्तु कभी कभी अनबन होने से गृहस्थ सुख बाधित होता है
मेष लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:- चन्द्रमा मेष लग्न की कुण्डली में सुखेश होता .प्रथम भाव में इसकी स्थिति होने से व्यक्ति शांत प्रकृति का परन्तु चंचल होता है.कल्पनाशील और भोग विलास की इच्छा रखने वाला होता है.इन्हें माता और मातृ पक्ष का सहयोग प्राप्त होता है.भूमि, भवन एवं वाहन सुख प्राप्त होता है.प्रकृति एवं सौन्दर्य के प्रति ये स्वत: आकर्षित होते है.शीत रोग जैसे सर्दी, जुकाम एवं कफ से पीडित होते हैं.छाती सम्बन्धी रोग की भी संभावना रहती है.धन की स्थिति अच्छी होती है.सरकार एवं सरकारी पक्ष से लाभ होता है.सप्तम भाव में स्थित तुला राशि पर चन्द्र की दृष्टि के कारण इनका जीवनसाथी गुणवान, कला प्रेमी और सहयोगी होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ मंगल:-मेष लग्न की कुण्डली में मंगल लग्नेश और अष्टमेश होता है.लग्नेश होने से मंगल अष्टम भाव के दोष से मुक्त होता है.मंगल लग्नस्थ होने से व्यक्ति हृष्ट पुष्ट स्वस्थ और निरोग होता है.मंगल इन्हे पराक्रमी और साहसी बनाता है.इनमें उग्रता और जिद्दीपन होता है.अपने आत्मबल से कठिन से कठिन कार्य को पूरा करने का सामर्थ्य रखते हैं.समान में सम्मानित और प्रतिष्ठित होते हैं.कमज़ोरों के लिए इनके दृदय मे दया का भाव होता है.धर्म के प्रति आस्थावान होते हैं.मंगल अपनी पूर्ण दृष्टि से चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है.इसके कारण भूमि एवं वाहन सुख प्राप्त होता हैं.दुर्घटना की भी संभावना रहती है.जीवनसाथी से वैमनस्य होता है जिसके कारण वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है.अगर मंगल दूषित होता है तो सुख में कमी आती है
मेष लग्न में लग्नस्थ बुध:- बुध मेष लग्न की कुण्डली में अकारक और अशुभ ग्रह होता है.यह इस लग्न की कुण्डली में तृतीय और छठे भाव का स्वामी होता है.बुध जब लग्न में विराजमान होता है तो व्यक्ति को बुद्धिमान एवं ज्ञानी बनता है.शिक्षा के प्रति इनमें अभिरूचि होती है.लेखन एवं कला के क्षेत्र में अच्छी संभावना होती है.बुध की दशावधि में सगे सम्बन्धियो से विवाद अथवा मन मुटाव होता है.षष्ठेश बुध के प्रभाव से पेट सम्बन्धी रोग, मिर्गी, अमाशय जन्य रोग एवं भूलने की बीमारी होने की आशंका रहती है.व्यापार में इन्हें अच्छी सफलता मिलती है.सप्तम भाव पर बुध की दृष्टि संतान के सम्बन्ध में कष्ट देता है.जीवनसाथी के स्वास्थ को प्रभावित करता है.सप्तमस्थ तुला राशि पर बुध की दृष्टि से जीवनसाथी गुणी होता है.वैवाहिक जीवन सामान्य रहता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ गुरू:- मेष लग्न की कुण्डली में गुरू भाग्येश और व्ययेश होता है.द्वादश भाव का स्वामी होने से गुरू अकारक और अशुभ फलदायी होता है लेकिन त्रिकोण का स्वामी होने से इसका अशुभ प्रभाव दूर हो जाता है और यह शुभ कारक ग्रह बन जाता है.मेष लग्न की कुण्डली में गुरू के लग्नस्थ होने से व्यक्ति विद्वान और ज्ञानी होता है.इनकी वाणी प्रभावशाली और ओजस्वी होती है.गुरू इन्हें समाज में सम्मानित और प्रतिष्ठित बनाता है.लग्नस्थ गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.इसके प्रभाव से संतान सुख प्राप्त है.धार्मिक कार्यो में अभिरूचि होती है.शत्रु ग्रह की राशि तुला से दृष्टि सम्बन्ध होने के कारण जीवनसाथी से मन मुटाव रहता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र मेष लग्न की कुण्डली में द्वितीयेश और सप्तमेश होता है.इस लग्न की कुण्डली में यह कष्टकारी और रोगकारक ग्रह की भूमिका निभाता है.लग्न में इसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति दिखने मे सुन्दर होता है परंतु स्वास्थ सम्बन्धी परेशानियों को लेकर पीड़ित होता है.शुक्र की दशावधि में इन्हें विशेष कष्ट होता है.विपरीत लिंग के व्यक्ति के प्रति इनमें विशेष आकर्षण होता है.इस आकर्षण के कारण इन्हें कष्ट भी होता है.धन की हानि होती है.संगीत एवं कला के क्षेत्र में इनकी अभिरूचि होती है.प्रथमस्थ होकर शुक्र प्रथम भाव में स्वराशि तुला को देखता है जिससे जीवनसाथी सुन्दर और विनोदी स्वभाव का होता है.इनके प्रति प्रेम रखता है परंतु अपनी आदतों के कारण वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ शनि:-मेष लग्न की कुण्डली में शनि कर्मेश होने से शुभ किन्तु आयेश होने से अशुभ कारक हो जाता है.इस लग्न की कुण्डली में शनि की उपस्थिति होने से व्यक्ति दुबला पतला एवं क्रोधी होता है.ये परिश्रमी होते हैं मेहनत के अनुसार लाभ नहीं मिलने से असंतोष बना रहता है.कार्यो में बाधाओं का सामना करना होता है.धन की स्थिति सामान्य रहती है.लग्नेश शनि तृतीय सप्तम एवं दशम को पूर्ण दृष्टि से देखता है जिसके कारण मित्रों एवं सगे सम्बन्धियों से अपेक्षित सहयोग मिलने में कठिनाई आती है.नौकरी एवं व्यापार में अस्थिरता बनी रहती है.जीवनसाथी से वैमनस्य होता है.अगर शनि शुभ ग्रह से युत अथवा दृष्ट होता है तो शुभ परिणाम प्राप्त होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ राहु:-राहु मेष लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होने से व्यक्ति में आत्मविश्वास का अभाव होता है.पेट सम्बन्धी रोग से परेशान होता है.जीवन में काफी संघर्ष करना होता है.नौकरी एवं व्यापार में सफलता के लिए काफी परिश्रम करना होता है.व्यापार की अपेक्षा नौकरी में अधिक सफलता मिलती है.प्रथमस्थ राहु सप्तम भाव में स्थित तुला राशि को देखता है फलत: साझेदारों एवं मित्रो से अपेक्षित सहयोग का अभाव होता है.जीवनसाथी रोग से पीड़ित होता है.गृहस्थ जीवन का सुख प्रभावित होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ केतु:- मेष लग्न की कुण्डली में केतु लग्नस्थ होने से व्यक्ति शारीरिक तौर पर शक्तिशाली होता है.आमतौर पर ये स्वस्थ और नीरोग होते हैं.इनमें साहस और आत्मविश्वास होता है जिससे शत्रु वर्ग इनसे भयभीत रहते हैं.समाज में सम्मान एवं यश प्राप्त होता है.राजनीति और कूटनीति में सफल होते हैं.माता एवं मातृ पक्ष से सहयोग प्राप्त होता है.जीवनसाथी एवं संतान पक्ष से कष्ट की अनुभूति होती है.
२ वृषभ लग्न में नवग्रह का प्रभाव
राशि चक्र की दूसरी राशि वृष है.आपकी कुण्डली के लग्न भाव में यह राशि है तो आपका लग्न वृष कहलता है.आपके लग्न के साथ प्रथम भाव में जो भी ग्रह बैठता है वह आपके लग्न को प्रभावित करता है.आपके जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह कहीं लग्न में बैठे हुए ग्रहों का प्रभाव तो नहीं है।
वृषभ लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-इस लग्न में सूर्य कारक ग्रह एवं चतुर्थेश होता है.लग्न भाव में सूर्य अपने शत्रु शुक्र की राशि में स्थित होकर शुभ फल में कमी करता है.माता पिता से इन्हें सामान्य सुख मिलता है.सरकारी क्षेत्र भी इनके लिए सामान्य रहता है.सप्तम भाव पर सूर्य की दृष्टि होने से जीवनसाथी से मतभेद, दाम्पत्य जीवन में तनाव व कष्ट होता है.यह द्विपत्नी योग भी बनाता है.रोजगार में अस्थिरता एवं साझेदारों से परेशानियों का सामना करना होता है.इस लग्न में प्रथम भाव में सूर्य होने से कम उम्र में ही बाल गिरने लगते हैं.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा इस लग्न में अकारक होता है लेकिन सम ग्रह की राशि में होने से यह सामान्य रूप से उत्तम फल देने वाला होता है.लग्नस्थ चन्द्र के प्रभाव से मनोबल एवं आत्मबल बना रहता है.भाई बंधुओं से सहयोग एवं सुख प्राप्त होता है.वाणी में मिठास एवं मधुरता रहती है.चन्द्रमा अपनी पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है.चन्द्रमा की दृष्टि जीवनसाथी के संदर्भ में उत्तम परिणामदायक होता है.जीवनसाथी सुन्दर और आकर्षक होता है.वैवाहिक जीवन सामान्य रूप से सुखमय होता है.आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ मंगल:-वृषभ लग्न की कुण्डली में मंगल सप्तमेश एवं द्वादशेश होता है.यह इस लग्न में सम होता है.प्रथम भाव में उपस्थित मंगल आकर्षक और सुन्दर शरीर प्रदान करता है.इसके प्रभाव से व्यक्तित्व गौरवपूर्ण होता है.आत्मविश्वास भरपूर रहता है.इस लग्न में मंगल सप्तमेश और द्वादशेश होने से साझेदारों से एवं रोजगार में लाभ होता है.देश विदेश की यात्राओं का भी योग बनता रहता है.लग्न में स्थित मंगल की दृष्टि चतुर्थ भाव पर रहती है परिणामत: भूमि, भवन, वाहन एवं माता के सुख में कमी आती है.सप्तम भाव से दृष्टि सम्बन्ध होने के कारण विवाह में विलम्ब होता है.इन्हें संतान एवं पत्नी के कारण कष्ट होता है.चोट लगने एवं रक्त विकार की संभावना रहती है.इन्हें कर्ज की स्थिति का भी सामना करना होता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ बुध:-बुध वृषभ लग्न की कुण्डली में कारक ग्रह होता है.यह इस लग्न में द्वितीयेश और पंचमेश होकर शुभ परिणामदायक होता है.प्रथम भाव में स्थित बुध बुद्धिमान एवं धनवान बनाता है.इन्हें कारोबार में अच्छी सफलता मिलती है.लग्नस्थ बुध विनोदी व्यक्तित्व प्रदान करता है.ऐसा व्यक्ति जीवन को आनन्द और उल्लास के साथ जीने की इच्छा रखता है.इन्हें सरकारी पक्ष से अनुकूलता प्राप्त होती है.जीवनसाथी के संदर्भ में भी यह बुध मंगलकारी होता है.लग्नस्थ बुध सुन्दर और बुद्धिमान जीवनसाथी प्रदान करता है.करोबार एवं रोजगार में लाभ दिलाता है.साझेदारी खूब फलती है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ गुरू:-गुरू वृषभ लग्न में अकारक होता है और अष्टम एवं एकादश भाव का स्वामी होता है.शत्रु ग्रह की राशि में स्थित गुरू मंदा फल देता है.व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है.आजीविका के विषय में परेशानियों का सामना करना होता है.इन्हें मानसिक परेशानियों का भी सामना करना होता है.परिश्रम के अनुपात में लाभ नहीं मिल पाता है.लग्न मे बैठा गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.गुरू की दृष्टि के कारण व्यक्ति का भाग्य मंदा रहता है.गुरू इनके ज्ञान, संतान एवं धर्म को प्रभावित करता है.सप्तम भाव गुरू की दृष्टि में होने से वैवाहिक जीवन में जीवनसाथी से अनुकूल सम्बन्ध नहीं रहता.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र वृषभ लग्न की कुण्डली में लग्नेश व षष्ठेश होता है.शुक्र लग्नस्थ होकर व्यक्ति को सुन्दर और आकर्षक बनाता है.यह व्यक्ति को आत्मबल एवं आत्मविश्वास प्रदान करता है.षष्ठेश शुक्र रोग और व्याधियां देता है.शुक्र की दशा के समय स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.प्रथम भाव में स्थित शुक्र सप्तम भाव को देखता है जिससे भौतिक सुख की प्राप्ति होती है.वैवाहिक जीवन प्रेमपूर्ण होता है.रोजगार में उत्तमता रहती है.साझेदारों एवं मित्रों से सहयोग मिलता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ शनि:-वृषभ लग्न की कुण्डली में शनि नवम एवं दशम भाव का स्वामी होता है.यह राशि शनि के मित्र की राशि है.इस राशि में शनि कारक ग्रह होता है.लग्न में वृषभ राशि में बैठा शनि व्यक्ति को अत्यधिक परिश्रमी और कार्य कुशल बनता है.शारीरिक रूप से ताकतवर और पुष्ट बनता है.सरकारी पक्ष से एवं पिता से सहयोग एवं लाभ प्रदान करता है.प्रथम भाव में स्थित शनि की दृष्टि तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव पर रहती है.इनका भाग्योदय जन्म स्थान से दूर जाकर होता है.ससुराल पक्ष से लाभ एवं सम्मान प्राप्त होता है.जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त होता है.शनि की दृष्टि से विवाह में विलम्ब होता है एवं भाई बंधुओं से सहयोग नहीं मिल पाता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ राहु:-राहु वृषभ लग्न की कुण्डली में प्रथम भाव में स्थित होने से राहु के गोचर काल में स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है.राहु कार्यों में बाधा डालता है और अवरोध पैदा करता है.लगनस्थ राहु व्यक्ति को गुप्त विद्याओं में पारंगत बनाता है.इस भाव में स्थित राहु वैवाहिक जीवन को कलहपूर्ण बनाता है.जीवनसाथी से असहयोग प्राप्त होता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ केतु:- वृषभ लग्न की कुण्डली में लग्न भाव में स्थित केतु व्यक्ति को अल्पशिक्षित और लालची बनाता है साथ ही परिश्रमी और कर्मठ भी बनाता है.ये अपनी मेहनत और लगन से असंभव कार्य को भी संभव कर लेते हैं.परिश्रमी होने के बावजूद इनमें साहस की कमी रहती है.स्वतंत्र विचार से किसी काम को पूरा करना इनके लिए कठिन होता है.लॉटरी, जुआ एवं सट्टे में इनका धन बर्बाद होता है.
मिथुन लग्न में नवग्रह का प्रभाव
राशि चक्र की तीसरी राशि मिथुन है.आपकी कुण्डली के लग्न भाव में यह राशि है तो आपका लग्न मिथुन कहलता है.आपके लग्न के साथ प्रथम भाव में जो भी ग्रह बैठता है वह आपके लग्न को प्रभावित करता है.आपके जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह कहीं लग्न में बैठे हुए ग्रहों का प्रभाव तो नहीं है।
३मिथुन लग्न में सूर्य:-मिथुन लग्न की कुण्डली में लग्न में बैठा सूर्य अपने मित्र की राशि में होता है.सूर्य के प्रभाव से व्यक्ति के चेहरे पर रक्तिम आभा छलकती है.व्यक्ति सुन्दर और आकर्षक होता है.इनका व्यक्ति उदार होता है.इनमें साहस धैर्य और पुरूषार्थ भरा होता है.बचपन में इन्हें कई प्रकार के रोगों का सामना करना होता है.युवावस्था में कष्ट और परेशानियों से गुजरना होता है.वृद्धावस्था सुख और आनन्द में व्यतीत होता है.इन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना होता है.सप्तम भाव पर सूर्य की दृष्टि होने से विवाह में विलम्ब होता है.वैवाहिक जीवन अशांत रहता है.
मिथुन लग्न में चन्द्रमा:-मिथुन लग्न में चन्द्रमा धन भाव का स्वामी होता है.इस राशि में चन्द्रमा लगनस्थ होने से व्यक्ति धनवान और सुखी होता है.इनका व्यक्तित्व अस्थिर होता है.मन चंचल रहता है.मनोबल ऊँचा और वाणी में कोमलता रहती है.इनके व्यक्तित्व में हठधर्मिता और अभिमान का भी समावेश रहता है.संगीत के प्रति इनके मन में प्रेम होता है.लग्न में बैठा चन्द्र सप्तम भाव को देखता है जिससे जीवनसाथी सुन्दर और ज्ञानी प्राप्त होता है.गृहस्थी सुखमय रहती है.आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है क्योकि बचत करने में ये होशियार होते हैं.चन्द्र के साथ पाप ग्रह होने पर चन्द्र का शुभत्व प्रभावित होता है अत: चन्द्र को प्रबल करने हेतु आवश्यक उपाय करना चाहिए.
मिथुन लग्न में मंगल:-मंगल मिथुन लग्न की कुण्डली में अकारक होता है . यह इस राशि में षष्ठेश और एकादशेश होता है.मिथुन लग्न में मंगल लगनस्थ होता है तो व्यक्ति को ओजस्वी और पराक्रमी बनाता है.जीवन में अस्थिरता बनी रहती है.व्यक्ति यात्रा का शौकीन होता है.सेना एवं रक्षा विभाग में इन्हें कामयाबी मिलती है.इन्हें माता पिता का पूर्ण सुख नहीं मिल पाता है.शत्रुओं से भी इन्हें कष्ट मिलता है.सप्तम भाव पर मंगल की दृष्टि से गृहस्थ जीवन में कई प्रकार की कठिनाईयां आती हैं.जीवनसाथी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों से पीड़ित होता है.
मिथुन लग्न में बुध:-बुध मिथुन लग्न का स्वामी है.इस लग्न में यह शुभ और कारक ग्रह होता है.मिथुन लग्न में प्रथम भाव में बैठा बुध व्यक्ति को बुद्धिमान, वाक्पटु और उत्तम स्मरण शक्ति प्रदान करता है.इनमें प्राकृतिक तौर पर कुशल व्यवसायी के गुण मौजूद होते हैं.आर्थिक दशा सामान्य रूप से अच्छी रहती है क्योंकि आय के मामले में एक मार्ग पर चलते रहना इन्हें पसंद नहीं होता.एक से अधिक स्रोतों से आय प्राप्त करना इनके व्यक्तित्व का गुण होता है.इन्हें लेखन, सम्पादन एवं प्रकाशन के क्षेत्र में कामयाबी मिलती है.भूमि, भवन एवं वाहन का सुख मिलता है.जीवनसाथी से इन्हें सहयोग एवं प्रसन्नता मिलती है.
मिथुन लग्न में गुरू:- मिथुन लग्न में गुरू सप्तम और दशम भाव का स्वामी होता है.दो केन्द भाव का स्वामी होने से मिथुन लग्न में यह अकारक ग्रह होता है.प्रथम भाव में गुरू के साथ बुध हो तो यह गुरू के अशुभ प्रभाव में कमी लाता है.गुरू के लग्नस्थ होने से व्यक्ति सुन्दर और गोरा होता है.गुरू के प्रभाव से इन्हें सर्दी, जुकाम एवं कफ की समस्या रहती है.ये चतुर, ज्ञानी और सत्य आचरण वाले व्यक्ति होते हैं.इन्हें समाज से मान सम्मान प्राप्त होता है.गुरू की विशेषता है कि यह जिस भाव को देखता है उससे सम्बन्धित विषय में शुभ फल प्रदान करता है अत: पंचम, सप्तम एवं नवम भाव से सम्बन्धित विषय में व्यक्ति को अनुकूल परिणाम प्राप्त होता है.अगर लग्न में गुरू के साथ पाप ग्रह हों तो परिणाम कष्टकारी होता है.
मिथुन लग्न में शुक्र:-मिथुन लग्न की कुण्डली में शुक्र पंचमेश और द्वादशेश होता है.त्रिकोणश होने के कारण इस लग्न में शुक्र कारक ग्रह होता है.लग्न में मित्र की राशि में बैठा शुक्र शुभ प्रभाव देने वाला होता है.जिनकी कुण्डली में यह स्थिति होती है वह दुबले पतले लेकिन आकर्षक होते हैं.इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति ये अधिक लगाव रखते अत: सुख सुविधाओं में धन खर्च करना भी इन्हें पसंद होता है.समाज में सम्मानित व्यक्ति होते हैं.सप्तम भाव पर इसकी दृष्टि होने से वैवाहिक जीवन में जीवनसाथी से लगाव एवं प्रेम रहता है.शुक्र के प्रभाव से इनका विवाहेत्तर अथवा विवाह पूर्व अन्य सम्बन्ध भी हो सकता है.
मिथुन लग्न में शनि:-मिथुन लग्न में कुण्डली में शनि अष्टम और नवम भाव का स्वामी होता है.त्रिकोण भाव का स्वामी होने से शनि अष्टम भाव के दोष को दूर करता है  और कारक की भूमिका निभाता है.मिथुन लग्न की कुण्डली में लग्न में बैठा शनि स्वास्थ्य के मामले में कुछ हद तक पीड़ा देता है.इसके प्रभाव से व्यक्ति दुबला पतला होता है और वात, पित्त एवं चर्मरोग से परेशान होता है.यह भाग्य को प्रबल बनाता है एवं ईश्वर के प्रति श्रद्धावान बनाता है.लग्नस्थ शनि की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से व्यक्ति में कामेच्छा अधिक रहती है.दशम भाव पर शनि की दृष्टि राज्य पक्ष से दंड एवं कष्ट देता है.माता पिता के सम्बन्ध में कष्ट देता है.शनि व्यक्ति को परिश्रमी बनाता है.
मिथुन लग्न में राहु :-राहु मिथुन लग्न में मित्र राशि में होता है.इस राशि में राहु उच्च का होने से यह व्यक्ति को चालाक और कार्य कुशल बनाता है.व्यक्ति अपना काम निकालने में होशियार होता है.इनमें साहस भरपूर रहता है.लगनस्थ राहु व्यक्ति को आकर्षक एवं हृष्ट पुष्ट काया प्रदान करता है.मिथुन लग्न की स्त्रियों को लग्नस्थ राहु संतान के संदर्भ में कष्ट देता है.राहु इनके वैवाहिक जीवन में कलह उत्पन्न करता है.इनकी कुण्डली में यह द्विभार्या योग बनाता है.
मिथुन लग्न में केतु :-केतु मिथुन लग्न की कुण्डली में लगनस्थ होने से व्यक्ति में स्वाभिमान की कमी रहती है.ये स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अपेक्षा दूसरों के साथ काम करना पसंद करते हैं.व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना इन्हें पसंद होता है.इनमें स्वार्थ की प्रवृति होती है.केतु के प्रभाव से वात एवं पित्त रोग इन्हें परेशान करता है.कामेच्छा भी इनमें प्रबल रहती है.वैवाहिक जीवन में उथल पुथल की स्थिति रहती है.विवाहेत्तर सम्बन्ध की संभावना भी केतु के कारण प्रबल रहती है.
४ कर्क लग्न में नवग्रह का फल:-
कर्क लग्न में नवग्रह फल कर्क लग्न का स्वामी चन्द्रमा है.अगर आपका लग्न भी कर्क है तो आप घूमने के शौकीन होंगे.आपकी कल्पनाशीलता और स्मरण क्षमता अच्छी होगी.आप में निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ने की इच्छा होगी.अगर आपकी कुण्डली के लग्न भाव में कोई ग्रह बैठा है तो इससे आप प्रभावित होंगे.ग्रहों का प्रभाव आपके लिए शुभ है या अशुभ जानिए.
कर्क लग्न की कुण्डली मे लग्नस्थ सूर्य:-कर्क लग्न की कुण्डली में सूर्य द्वितीय भाव का स्वामी होता है.प्रथम भाव में चन्द्रमा की राशि कर्क में होने से यह स्वास्थ्य के सम्बन्ध में कष्टकारी होता है.सूर्य की दशा में स्वास्थ्य को लेकर व्यक्ति परेशान होता है.इनमें अभिमान एवं उग्रता रहती है.इन्हें व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना पसंद होता है.सरकारी मामलों में इन्हें परेशानियों का सामना करना होता है.पिता के साथ अनबन रहती है.इन्हें स्थिर होकर बैठना पसंद नहीं होता है.सगे सम्बन्धियों से विरोध का सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नेश होने से शुभ कारक ग्रह होता है.इस लग्न में चन्द्रमा स्वराशि का होता है तो उदार और परोपकारी होता है.इनमें ईश्वर के प्रति आस्था और बड़ों के प्रति सम्मान और आदर होता है.इनका मनोबल ऊँचा रहता है.अपने प्रयास से समाज में उच्च स्थान प्राप्त करते हैं.व्यापार में इन्हें सफलता मिलती है.कला के क्षेत्र में भी इन्हें अच्छी सफलता मिलती है.चन्द्रमा की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से जीवनसाथी के सम्बन्ध में उत्तम फल देता है.व्यक्ति को विद्वान एवं ज्ञानवान बनता है.धन भाव चन्द्रमा का प्रभाव होने से आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.विवाह के पश्चात इन्हें विशेष लाभ मिलता है.कटु सत्य एवं स्पष्ट कथन के कारण इन्हें विरोध का भी सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली मे लग्नस्थ मंगल:-मंगल कर्क लग्न की कुण्डली में पंचमेश और दशमेश होता है.यह दशमेश और त्रिकोणेश होने से कर्क लग्न में मंगलकारी होता है . मंगल के प्रभाव से व्यक्ति क्रोधी और उग्र होता है.इनमें महत्वाकांक्षा अधिक रहती है.राजकीय पक्ष से मंगल इन्हें लाभ प्रदान करता है.प्रथम भाव में बैठा मंगल चतुर्थ भाव एवं अष्टम भाव को देखता है.मंगल की दृष्टि से व्यक्ति को आर्थिक लाभ मिलता रहता है लेकिन व्यय भी उसी अनुपात में होता रहता है.धन संचय कर रख पाना इनके लिए कठिन होता है.वैवाहिक जीवन में मधुरता की कमी रहती है क्योंकि मंगल की दृष्टि से सप्तम भाव प्रभावित होता है.पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण रहता है.लग्नस्थ मंगल के प्रभाव से व्यक्ति संतान सुख प्राप्त करता है.स्वभाव में चतुराई और लालच के कारण कभी कभी इन्हें अपमान का भी सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ बुध:-बुध कर्क लग्न की कुण्डली में अशुभ कारक ग्रह होता है.यह इस लग्न में तृतीय और द्वादश भाव का स्वामी होता है.बुध अगर लग्न भाव में स्थित हो तो व्यक्ति का व्यवहार और आचरण संदेहपूर्ण होता है.आजीविका के तौर पर नौकरी इन्हें पसंद होता है.व्यापार में इनकी रूचि बहुत कम रहती है.अगर ये जल से सम्बन्धित वस्तुओ का करोबार करते हैं तो व्यापार भी इनकें लिए लाभप्रद और उन्नति कारक होता है.इन्हें सगे सम्बन्धियों एवं भाईयों से विशेष लगाव नहीं रहता.सप्तम भाव पर बुध की दृष्टि होने से गृहस्थ जीवन में तनाव बना रहता है.साझेदारों से हानि होती है.शत्रुओं के कारण कठिनाईयो का सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ गुरू:-आपकी जन्म कुण्डली के लग्न भाव में कर्क राशि है अत: आप कर्क लग्न के है.आपकी कुण्डली में गुरू षष्टम एवं नवम भाव का स्वामी है.षष्टम का स्वामी होने से जहां गुरू दूषित होता है वहीं त्रिकोणेश होने से शुभ फलदायी भी होता है.लग्न में बैठा गुरू व्यक्तित्व को आकर्षक बनाता है.यह अपनी पूर्ण दृष्टि से पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.पंचम भाव में गुरू की दृष्टि संतान के संदर्भ में शुभ फलदायी होती है.सप्तम भाव में जीवनसाथी के विषय में उत्तमता प्रदान करती है.नवम भाव पर दृष्टि होने से भाग्य प्रबल रहता है.जीवन धन धान्य से परिपूर्ण होता है.व्यवहार में उदारता और दायभाव शामिल रहता है.अगर लग्न में स्थित गुरू पाप ग्रहों से दृष्ट अथवा युत हो तो गुरू की शुभता हेतु उपाय करना चाहिए..
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ शुक्र:-चन्द्र की राशि कर्क में शुक्र अकारक ग्रह होता है.यह इस लग्न की कुण्डली में चतुर्थ और एकादश भाव का स्वामी होता है.दो केन्द्र भाव का स्वामी होने से शुक्र को केन्द्राधिपति दोष लगता है.शक्र लग्नस्थ होने से व्यक्ति में साहस की कमी रहती है.इनके मन में अनजाना भय बना रहता है.आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.नौकरी एवं व्यापार दोनों में ही इन्हें अच्छी सफलता मिलती है.शुक्र की दृष्टि सप्तम भाव में स्थित शनि की राशि पर होने से व्यक्ति में काम की भावना अधिक रहती है.स्त्रियों से इनका विशेष लगाव रहता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ शनि:-कर्क लग्न की कुण्डली में शनि सप्तमेश और अष्टमेश होता है.इस लग्न की कुण्डली में शनि अशुभ, कष्टकारी एवं पीड़ादायक होता है.इस राशि में शनि लग्नस्थ होने से व्यक्ति के  स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.व्यक्ति दुबला पतला होता है.इनका स्वभाव विलासी होता है.ये सुख कामी होते हैं.अपना अधिकांश धन भोग विलास में खर्च करते हैं.लग्नस्थ शनि माता पिता के सुख में कमी करता है.संतान के विषय में भी यह कष्टकारी होता है.शनि अपनी पूर्ण दृष्टि से तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव को देखता है.इसके कारण से भाईयों एवं कुटुम्बों से विशेष सहयोग नहीं मिल पाता है.गृहस्थी सुख में कमी आती है.शनि आर्थिक लाभ प्रदान करता है तो खर्च के भी कई रास्ते खोल देता है.नेत्र सम्बन्धी रोग की भी संभावना रहती है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ राहु:-राहु कर्क लग्न की कुण्डली में प्रथम भाव में स्थित होने से व्यक्ति को विलासी बनाता है.इनका मन सुख सुविधाओं के प्रति आकर्षित होता है.व्यापार में सफलता प्राप्त करने के लिए इन्हें कठिन परिश्रम करना होता है.नौकरी में इन्हें जल्दी सफलता मिलती है.राहु अपनी सातवीं दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है जिससे वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण होता है.जीवनसाथी से सहयोग नहीं मिलता है.साझेदारी में नुकसान होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ केतु :-कर्क लग्न की कुण्डली मे प्रथम भाव में बैठा केतु स्वास्थ्य को प्रभावित करता है.केतु की दशा के समय स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.समाजिक मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा के प्रति ये विशेष उत्सुक होते हैं.इनके गुप्त शत्रु भी होते हैं जिनके कारण परेशानियों का सामना करना होता है.सप्तम भाव पर केतु की दृष्टि इस भाव के फल को मंदा कर देती है.इस भाव के केतु से पीड़ित होने के कारण वैवाहिक जीवन के सुख में कमी आती है.केतु इन्हें विवेहेत्तर सम्बन्ध के लिए भी प्रेरित करता है.
५ सिंह लग्न में नवग्रह का फल
जिस व्यक्ति का जन्म सिंह लग्न में होता है वे दिखने में सुन्दर और हृष्ट पुष्ट होते है.ये महत्वाकांक्षी और हठीले स्वभाव के होते हैं.ये जितने साहसी होते हैं उतने ही आत्मविश्वासी होते हैं.इनमें साहस और आत्म विश्वास भरपूर रहता है.राजनीति में इनकी रूचि रहती है.इस लग्न की कुण्डली मे प्रथम भाव में स्थित ग्रह किस प्रकार फल देते हैं इसे देखिए.
सिंह लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-सूर्य सिंह लग्न की कुण्डली में लग्नेश होकर शुभ कारक ग्रह होता है.स्वराशि में स्थित सूर्य व्यक्ति को गुणवान और विद्वान बनाता है. यह व्यक्ति को आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाता है.आपनी कार्य कुशलता एवं प्रतिभा के कारण सामाज में सम्मानित होते हैं.ये जिस काम में हाथ डालते हैं उसे पूरे मनोयोग से करते हैं.कार्यो में बार बार परिवर्तन करना इन्हें पसंद नहीं होता.ये पराक्रमी होते हैं.दूसरों की सहायता उदारता पूर्वक करते हैं.प्रथम भाव में स्थित सूर्य सप्तम में स्थित शनि की राशि कुम्भ को देखता है जिससे दाम्पत्य जीवन में तनाव बना रहता है.मित्रों एवं साझेदारों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता है.
सिंह लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा सिंह लग्न की कुण्डली में द्वादश भाव का स्वामी होता है.अपनी दशावधि में यह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के फल प्रदान करता है.सिंह राशि में चन्द्रमा लग्न में स्थित होता है तो व्यक्ति का स्वभाव चंचल होता है.इनका मन स्थिर नहीं रहता है और न ये एक स्थान पर टिक कर रहना पसंद करते हैं.ये किसी की मदद निस्वार्थ रूप से करना पसंद करते हैं.ये नेक और सज्जन होते हैं.इन्हें माता पिता से प्रेम और सहयोग प्राप्त होता है.चन्द्र इन्हें राजनीति में सफलता दिलाने सहयोग करता है.सप्तम भाव पर चन्द्र की दृष्टि कुम्भ पर होने से वैवाहिक जीवन में कठिनाई आती है.चन्द्र के साथ पाप ग्रह होने पर चन्द्र के शुभत्व में कमी आती है अत: चन्द्र का उपाय करना चाहिए.
सिंह लग्न मे लग्नस्थ मंगल:-मंगल सिंह लग्न की कुण्डली में शुभ कारक ग्रह होता है .यह इस लग्न में चतुर्थ और नवम भाव का स्वामी होता है.लग्न में मंगल व्यक्ति को साहसी, निडर और आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाता है.व्यक्ति एक से अधिक साधनो से धन प्राप्त करता है.लग्न में बैठा मंगल चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है.मंगल की दृष्टि साझेदारों से विरोध का कारण बनती है.वैवाहिक जीवन में उथल पुथल मचाती हैं एवं शत्रुओं से पीड़ित करती है.मंगल इन्हें संतान सुख दिलाता है परंतु काफी इंतजार के बाद.
सिंह लग्न में लग्नस्थ बुध:-सिंह लग्न की कुण्डली में बुध द्वितीय और एकादश भाव का स्वामी होता है.यह इस लग्न के व्यक्ति के लिए धन का कारक होता है.इस लग्न में अगर बुध लग्न में विराजमान होता है तो व्यक्ति धनवान होता है.इनमें कलात्मकता के प्रति लगाव रहता है.ये कला के किसी क्षेत्र से सम्बन्ध भी रखते हैं.इन्हें शत्रुओं का भय बना रहता है.सप्तम भाव पर बुध की दृष्टि जीवनसाथी के प्रति लगाव पैदा करता है.ये अपने जीवनसाथी से प्रेम करते हैं परंतु जीवनसाथी से इन्हें अनुकूल सहयोग नहीं मिल पाता.संतान सुख विलम्ब से प्राप्त होता है.बुध के साथ पाप ग्रह अथवा शत्रु ग्रह की युति होने से बुध के शुभ प्रभाव में कमी आती है.
सिंह लग्न में लग्नस्थ गुरू:-गुरू सिंह लग्न की कुण्डली में पंचमेश और अष्टमेश होता है.इस राशि में गुरू लग्नस्थ होने से व्यक्ति शारीरिक तौर पर सुन्दर और आकर्षक होता है.इनकी वाणी प्रभावशाली होती है.गुरू इन्हें बुद्धिमान एवं ज्ञानी बनाता है.पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर गुरू की दृष्टि होने से व्यक्ति उदार, दयालु और नेक विचारों वाला होता है.इनमें धन संचय करने की प्रवृति होती है.ज्ञान और बुद्धि से इन्हें उच्च पद प्राप्त होता है.नौकरी एवं व्यवसाय दोनों में ही इन्हें सफलता मिलती है.मान सम्मान भी इन्हें खूब मिलता है.जीवनसाथी एवं संतान पक्ष से इन्हें सुख एवं सहयोग प्राप्त होता है.पाप ग्रहों से युत अथवा दृष्टि गुरू होने पर गुरू के फल में कमी आती है अत: गुरू का उपचार करना चाहिए.
सिंह लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र सिंह लग्न में तृतीयेश और दशमेश होता है.इस लग्न में यह केन्द्राधिपति दोष से पीड़ित होकर अकारक ग्रह बन जाता है.शुक्र अगर सिंह राशि में लग्नस्थ होता है तो व्यक्ति को सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान करता है.शुक्र के प्रभाव से व्यक्ति का मन भौतिक सुखों के प्रति आकर्षित रहता हैं.ससुराल पक्ष से समय समय पर लाभ प्राप्त होता है.शुक्र सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है जिससे व्यक्ति अपने धन का अपव्यय करता है.इस स्थिति में व्यक्ति स्वयं पर संयम नहीं रखता है तो अन्य व्यक्ति से इनके अनैतिक सम्बन्ध भी हो सकते हैं जिसके कारण आर्थिक कठिनाईयों से भी इन्हें गुजरना होता है.सप्तम भाव में शुभ ग्रह स्थित हो अथवा इस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति जीवनसाथी के प्रति वफादार होता है.
सिंह लग्न में लग्नस्थ शनि:-इस लग्न में यह अकारक ग्रह की भूमिका निभाता है.सिंह लग्न की कुण्डली में लग्न में बैठा शनि अशुभ फलदायी होता है.यह व्यक्ति को असामाजिक कार्यो के प्रति प्रेरित करता है.यह व्यक्ति को अपयश का भागी बनाता है.लग्न में विराजमान शनि तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव को अपनी पूर्ण दृष्टि से देखता है.शनि की दृष्टि के प्रभाव से व्यक्ति चालाक और छल करने वाला होता है.अपने व्यवहार के कारण इन्हे मित्रों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता है.जीवनसाथी से भी कष्ट मिलता है.दूसरों की धन सम्पत्ति पर इनकी लालच भरी निगाह रहती है.शनि के साथ शुभ ग्रहों की युति हो या शनि शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो शनि की अशुभता में कमी आती है.
सिंह लग्न में लग्नस्थ राहु:-सिंह लग्न की कुण्डली में राहु अशुभ फलदायी होता है.इस लग्न में प्रथम भाव में बैठा राहु व्यक्ति के आत्मबल को कमज़ोर करता है.आत्मविश्वास के अभाव में व्यक्ति स्वतंत्रत रूप से निर्णय लेने से घबराता है.इन्हें मान सम्मान बनाये रखने के लिए काफी प्रयास करना होता है.तंत्र मत्र एवं गुप्त विद्याओं के प्रति विशेष लगाव होता है.राजनीति में इन्हें राहु का सहयोग मिलता है.राहु की सप्तम दृष्टि के प्रभाव से व्यवसाय एवं कारोबार में साझेदारों एवं मित्रों से सहयोग नहीं मिल पाता है.व्यवसाय में नुकसान भी सहना होता है.स्त्री पक्ष से भी इन्हें कष्ट प्राप्त होता है.
सिंह लग्न में लग्नस्थ केतु:-सिंह राशि सूर्य की राशि है.केतु सूर्य का शत्रु है अत: इस राशि में केतु शुभ फल नहीं देता है.लग्न में केतु विराजमान हो तो व्यक्ति का स्वास्थ्य मंदा रहता है.केतु की दशा काल में स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.माता पिता से विशेष लगाव नहीं रहता है.मनसिक परेशानियां और चिंताएं इन्हें घेरे रहती हैं.सप्तम भाव पर केतु की पूर्ण दृष्टि के कारण वैवाहिक जीवन के सुख में कमी आती है.जीवनसाथी बीमार होता है अथवा उससे अनबन रहती है. 
६ कन्या लग्न में नवग्रहों का फल
बुध कन्या राशि का स्वामी है. इस लग्न में जन्म लेने वाला व्यक्ति बुद्धिमान, विवेकशील और व्यवसाय में निपुण होता है. इस लग्न में जिस व्यक्ति का जन्म होता है वे कल्पनाशील और कोमल हृदय के होते हैं. इस लग्न में लग्नस्थ ग्रह का फल अलग अलग होता है जैसे
कन्या लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-कन्या लग्न की कुण्डली में सूर्य द्वादशेश होकर सम रहता है  जिस व्यक्ति की कुण्डली में कन्या लग्न में सूर्य लग्नस्थ होता है वह दिखने में सुन्दर होते है. इनका व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है. इन्हें सर्दी, खांसी एवं हृदय से सम्बन्धी रोग होने की संभावना रहती है. सूर्य के प्रभाव से इन्हें विदेश यात्रा के भी कई अवसर प्राप्त होते हैं. लग्नस्थ सू्र्य की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से गृहस्थ जीवन के सुख में न्यूनता आती है. कृषि एवं जल क्षेत्र से सम्बन्धित कारोबार इनके लिए लाभप्रद होता है. लग्न में बैठा सूर्य अशुभ ग्रहों से युत अथवा दृष्ट हो तो सूर्य का उपचार करना चाहिए अन्यथा सूर्य का शुभत्व प्रभावित होता है.
कन्या लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा कन्या लग्न की कुण्डली में एकादशेश होता है. इस लग्न में यह अकारक ग्रह होता है. लग्नस्थ होने पर चन्द्रमा व्यक्ति को सुन्दर और कल्पनाशील बनाता है. चन्द्रमा के प्रभाव से व्यक्ति दयालु और आत्मविश्वासी होता है. ये अपने जीवन में तीव्र गति से प्रगति करते हैं. सप्तम भाव में स्थित गुरू की राशि पर चन्द्रमा की दृष्टि होने से जीवनसाथी के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रहता है. जीवनसाथी से अपेक्षित सहयोग भी प्राप्त होता है. इन्हें अचानक लाभ मिलता है. अगर लग्नस्थ चन्द्र अशुभ ग्रह से दृष्ट अथवा युत होता है तो कष्टकारी एवं पीड़ादायक होता है.
कन्या लग्न मे लग्नस्थ मंगल:-मंगल कन्या लग्न की कुण्डली में तृतीयेश और अष्टमेश होकर अकारक ग्रह की भूमिका निभाता है. मंगल कन्या लग्न में लग्नस्थ होकर व्यक्ति को क्रोधी और उग्र बनाता है. चतुर्थ भाव पर मंगल की दृष्टि भाईयों से अनुकूल सम्बन्ध बनाता है दूसरी ओर माता पिता से मतभेद पैदा करता है. प्रथम भाव में स्थित मंगल पिता को स्वास्थ्य सम्बन्धी पीड़ा देता है. अष्टम भाव पर मंगल की दृष्टि होने से शारीरिक कष्ट की संभावना रहती है. गृहस्थी के लिए मंगल की यह स्थिति शुभकारी नहीं रहती। लग्नस्थ मंगल सप्तम भाव के फल को पीड़ित करता है. साझेदारो से इन्हें धोखा मिलने की संभावना रहती है.
कन्या लग्न में लग्नस्थ बुध:-बुध कन्या लग्न की कुण्डली में लग्नेश और कर्मेश होकर प्रमुख कारक ग्रह होता है. लग्नेश के स्वराशि में स्थित होने से व्यक्ति स्वस्थ सुन्दर और आकर्षक होता है. बुध व्यक्ति को दीर्घायु बनता है. लग्नेश बुध के प्रभाव से व्यक्ति आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है. अपने आत्मबल से व्यवसाय एवं कारोबार में निरन्तर प्रगति करता है. इन्हें समाज से सम्मान और आदर प्राप्त होता है. प्रथम भाव में स्थित बुध सप्तम भाव को अपनी पूर्ण दृष्टि से देखता है. बुध की दृष्टि से सुयोग्य जीवनसाथी प्राप्त होता है. गृहस्थ जीवन खुशहाल और आनन्दमय रहता है.
कन्या लग्न में लग्नस्थ गुरू:-कन्या लग्न की कुण्डली में गुरू अकारक ग्रह होता है. यह चतुर्थ और सप्तम भाव का स्वामी होता है. गुरू के लग्नस्थ होने से व्यक्ति को अपने जीवन में पिता के नाम से पहचान मिलती है. सगे सम्बन्धियों से अनबन रहती है. पुत्रों से आदर और सहयोग प्राप्त होता है. पैतृक सम्पत्ति से इन्हें लाभ मिलता है. प्रथम भाव में स्थित गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है. गुरू की दृष्टि से व्यक्ति दीर्घायु, पुत्रवान और विख्यात होता है. गुरू अशुभ ग्रहों से युत अथवा दृष्ट होता है तो संतान के लिए कष्टकारी होता है.
कन्या लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र कन्या लग्न की कुण्डली में धनेश और भाग्येश होकर कारक ग्रह होता है. लग्न में कन्या राशि में बैठा शुक्र व्यक्ति को जीवन में प्रगति की राह पर आगे ले जाता है. शुक्र के प्रभाव से व्यक्ति संगीत अथवा कला के अन्य क्षेत्रों में रूचि रखता है. इनमें धार्मिक भावनाओं का समावेश होता है. इन्हें व्यवसाय में अच्छी सफलता मिलती है. सरकार एवं सरकारी विभाग से इन्हें सहयोग प्राप्त होता है. लग्नस्थ शुक्र की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से जीवनसाथी सुयोग्य और सहयोगी प्राप्त होता है. शुक्र अशुभ ग्रहों से युत अथवा दृष्ट होने पर शुक्र का शुभत्व प्रभावित होता है .
कन्या लग्न में लग्नस्थ शनि:-कन्या लग्न की कुण्डली में शनि सम होता है. इस लग्न में यह पंचमेश व षष्ठेश होता है. शनि के प्रभाव से व्यक्ति शारीरिक तौर पर मजबूत होता है. कठिन परिश्रम करने में ये पीछे नहीं रहते. ज्ञान एवं बुद्धिमता में भी ये आगे होते हैं. इनका पारिवारिक जीवन अशांत रहता है. संतान से सहयोगात्मक सम्बन्ध नहीं रहता. प्रथमस्थ शनि तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव को देखता है जिससे संतान के विषय में इन्हें कष्ट का सामना करना होता है. जीवनसाथी देखने में सुन्दर और आध्यात्मिक विचारों वाला होता है. परंतु स्वभाव से जिद्दी और क्रोधी होता है. गृहस्थ जीवन में इससे कभी कभी परेशानियों का भी सामना करना होता है.
कन्या लग्न मे लग्नस्थ राहु:-राहु कन्या लग्न में प्रथम भाव में स्थित होने से व्यक्ति लम्बा और सुडौल दिखता है. इनमें चतुराई और स्वार्थ की भावना रहती है. अपना काम किसी भी प्रकार से निकाल लेते हैं. स्त्री की कुण्डली में सप्तम भाव पर राहु की दृष्टि होने से संतान के सम्बन्ध मे कष्टकारी होता है. राहु की यह दृष्टि जीवनसाथी को पीड़ित करता है. पारिवारिक जीवन को अशांत और कलहपूर्ण बनाता है.
कन्या लग्न में लग्नस्थ केतु:-प्रथम भाव मे कन्या लग्न में स्थित केतु व्यक्ति को स्वार्थी बनाता है. इससे प्रभावित व्यक्ति में स्वाभिमान की कमी रहती है. गुप्तचरी एवं जासूसी के काम में इन्हें सफलता मिलती है. इन्हें वात रोग होने की संभावना रहती है. कमर में भी इन्हें पीड़ा रहती है. सप्तम भाव केतु से दृष्ट होने के कारण इस भाव से सम्बन्धित फल पीड़ित होता है. यह जीवनसाथी को रोगग्रस्त करता है. सप्तम भाव शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट नहीं होने से  विवाहेत्तर सम्बन्ध की भी संभावना रहती है.
७ तुला लग्न में लग्नस्थ ग्रह का फल
तुला लग्न का स्वामी शुक्र है.इस लग्न में जन्म लेने वाले व्यक्ति दिखने में सुन्दर होते हैं.ये सत्यवादी और अनुशासनप्रिय होते हैं.इनमें परोपकारिता की भावना रहती है.गृहस्थ जीवन भी आमतौर पर खुशहाल होता है.इस लग्न में प्रथम भाव मे स्थित ग्रह के कारण अलग अलग व्यक्तियों को अलग अलग अनुभूति होती है.

तुला लग्न में लग्नस्थ सूर्य:- तुला लग्न की कुण्डली में सूर्य एकादश भाव का स्वामी होने से अकारक ग्रह होता है.शत्रु की राशि में लग्न में बैठा सूर्य व्यक्ति को नेत्र सम्बन्धी रोग देता है.आय भाव का स्वामी होने से बार बार आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है.आय के साधनों में कमी लाता है.लग्न में सूर्य के साथ पाप ग्रहों की युति हो अथवा पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो व्यक्ति उग्र और क्रोधी स्वभाव का होता है.प्रथम भाव में स्थित सूर्य अपनी सप्तम दृष्टि से सप्तम भाव में स्थित मेष राशि को देखता है.सूर्य की दृष्टि मंगल की राशि पर होने से व्यक्ति साहसी और पराक्रमी होता है.इनका विवाह विलम्ब से होता है एवं जीवनसाथी से सहयोग का अभाव रहता है।

तुला लग्न में लग्नस्थ चन्द्रमा:चन्द्र तुला लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होने से व्यक्ति का बचपन संघर्षमय और कठिन होता है.युवावस्था एवं वृद्धावस्था सुख और आनन्द से गुजरता है.चन्द्र इन्हें गुणी और विद्वान बनता है.इनका मन कल्पनाशील एवं अस्थिर होता है.कन्या लग्न की कुण्डली में चन्द्र अगर लग्नस्थ होता है तो माता के साथ स्नेहपूर्ण सम्बन्ध की संभावना कम रहती है.इन लग्न में चन्द्र दशमेश होकर अशुभ कारक होता है.सप्तम भाव पर इसकी दृष्टि होने से जीवनसाथी क्रोधी, साहसी एवं महत्वाकांक्षी होता है.लग्नस्थ चन्द्र अगर शुभ ग्रहों से युत अथवा दृष्ट हो तो सप्तम भाव से सम्बन्धित उत्तम फल प्राप्त होता है.

तुला लग्न में लग्नस्थ मंगल: तुला लग्न की कुण्डली में मंगल द्वितीय और सप्तम भाव का स्वामी होता है.प्रथम भाव में स्थित मंगल व्यक्ति को द्वितीयेश होने के कारण आर्थिक लाभ प्रदान करता है.व्यापार एवं कारोबार में अच्छी सफलता देता है.स्वतंत्र कार्य करने से इन्हें लाभ मिलता है जबकि साझेदारी में नुकसान की अधिक संभावना रहती है.लग्नस्थ मंगल अपनी पूर्ण दृष्टि से चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है.सुख भाव मंगल से दृष्ट होने के कारण भाईयों से अपेक्षित सहयोग का अभाव होता है.पूर्ण भौतिक सुख मिलने की संभावना कम रहती है.वैवाहिक जीवन में कठिनाईयां आती हैं.अष्टम भाव पीडि़त होने से मंगल की दशावधि में स्वास्थ्य स्म्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है.

तुला लग्न में लग्नस्थ बुध: बुध तुला लग्न की कुण्डली में नवमेश और द्वादशेश होता है.यह इस लग्न में कारक ग्रह की भूमिका निभाता है.लग्नस्थ होकर यह व्यक्ति को नवम एवं दशम भाव का फल देता है.यह व्यक्ति को धार्मिक एवं बुद्धिमान बनता है.इनमें श्रेष्ठ जनों के प्रति श्रद्धा का भाव रहता है.सरकार एवं सरकारी तंत्र से सहयोग व सम्मान प्राप्त होता है.जन्म स्थान से दूर इनका भाग्य फलित होता है.इन्हें माता पिता का स्नेह और सहयोग प्राप्त होता है.बुध अपनी पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है जिससे वैवाहिक जीवन सामान्य रूप से सुखमय होता है.संतान एवं जीवनसाथी से सहयोग मिलता है.लग्नस्थ बुध अगर पाप ग्रहों से पीड़ित होता है तो धन, सुख एवं गृहस्थी में बाधक होता है.

तुला लग्न में लग्नस्थ गुरू :आपका लग्न तुला है तो आपकी कुण्डली में गुरू अकारक ग्रह है.यह तृतीय और षष्टम भाव का स्वामी है.गुरू अगर कुण्डली में लग्नस्थ है तो यह आपको आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाता है.आपको विद्वान एवं साहसी भी बनाता है.आप अपनी बुद्धि एवं क्षमता से जीवन में धन व मान सम्मान अर्जित करते हैं.लग्न में बैठा गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है. पंचम भाव पर गुरू की दृष्टि इस लग्न के लिए संतान कारक है. यह आपको बौद्धिक क्षमता एवं उच्च शिक्षा भी प्रदान करता है. भाईयों से सहयोग दिलाता है.जीवनसाथी से सहयोगात्मक एवं प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनाता है.मातृ पक्ष से लाभ दिलाता है.

तुला लग्न में लग्नस्थ शुक्र: तुला लग्न की कुण्डली में शुक्र लग्नेश और अष्टमेश होता है.इस लग्न में यह कारक ग्रह की भूमिका निभाता है.प्रथम भाव में शुक्र की स्थिति से व्यक्ति उर्जावान एवं आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है.शुक्र के शुभ प्रभाव से व्यक्ति समान्यत: स्वस्थ और निरोग रहता है.सौन्दर्य के प्रति आकर्षण रहता है.संगीत एवं कला में अभिरूचि होती है.सप्तम भाव पर शुक्र की पूर्ण दृष्टि होने से व्यक्ति के कई प्रेम प्रसंग होते हैं.गृहस्थ जीवन में इस विषय के कारण जीवनसाथी से मनमुटाव भी होता है.भोग विलास की वस्तुओं में धन खर्च करना इन्हें पसंद होता है.

तुला लग्न में लग्नस्थ शनि: कन्या लग्न की कुण्डली में शनि चतुर्थेश और पंचमेश होकर केन्द्र एवं त्रिकोण भाव का स्वामी होता है.इन दोनों भाव का स्वामी होने से शनि प्रमुख कारक ग्रह होता है इस लग्न मे शनि के लग्नस्थ होने से माता पिता से स्नेह व सहयोग प्राप्त होता है.शैक्षणिक स्थिति अच्छी रहती है.तकनीकी शिक्षा में इन्हें विशेष कामयाबी मिलती है.शनि अपनी पूर्ण दृष्टि से तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव को देखता है.इसके प्रभाव से इनमें दया और करूणा की भावना का अभाव होता है.विवाह में विलम्ब होता है एवं गृहस्थ जीवन में जीवनसाथी से मतभेद होता है.शनि इन्हें धनवान बनाने के साथ ही भूमि और वाहन का सुख भी प्रदान करता है. सगे सम्बन्धियों से विवाद और मनमुटाव की संभावना रहती है.

तुला लग्न में लग्नस्थ राहुआपका जन्म तुला लग्न में हुआ है और लग्न भाव में राहु बैठा है तो आपको स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है.राहु अन्तर्मुखी बनाता है जिसके कारण किसी कार्य को पूरा करने से पहले उसके विषय में किसी से जिक्र नहीं करते.कार्य पूरा होने से पूर्व जिन योजनाओं का जिक्र करते हैं वह कार्य कठिनाई से होता है.लग्न में बैठा राहु पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.राहु की दृष्टि से शिक्षा में रूकावट, जीवनसाथी एवं संतान से असहयोग और भाग्य की हानि होती है।

तुला लग्न में लग्नस्थ केतु केतु तुला लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होकर पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.लग्न में बैठा केतु व्यक्ति को परिश्रमी और साहसी बनाता है.साहस और परिश्रम के बल पर व्यक्ति कठिनतम कार्यों को भी पूरा करने की क्षमता रखता है.दूसरों के धन पर इनकी दृष्टि होती है.शिक्षा में केतु बाधक होता है.आमतौर पर इनमें धार्मिक भावनाओं का अभाव होता है.मन में अनजाना भय रहता है.सट्टा एवं जुए में धन अपव्यय होता हैं

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ ग्रह का फल

वृश्चिक लग्न का स्वामी मंगल है.सूर्य, चन्द्र, गुरू इस लग्न में कारक ग्रह होते हैं.मंगल भी लग्नेश होने से कारक होता है.अकारक ग्रह के रूप में बुध, शुक्र और शनि मंदा फल देते हैं.लग्न भाव में जब नवग्रह बैठते हैं तो यह किस प्रकार के व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं, एवं किस ग्रह का क्या फल होता है देखिए!

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ सूर्य:वृश्चिक लग्न की कुण्डली में सूर्य दशमेश होने से कारक ग्रह होता है .मंगल की राशि में लग्नस्थ होकर सूर्य व्यक्ति को आत्मबल प्रदान करता है.यह बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी बनाता है.सरकारी पक्ष से लाभ दिलाता है.सूर्य कर्मेश होने से व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिलने की भी प्रबल संभावना रहती है.जिस व्यक्ति की कुण्डली में यह स्थिति होती है उन्हें पिता से सहयोग एवं स्नेह प्राप्त होता है.सप्तम भाव में स्थित शुक्र की राशि वृष पर सूर्य की दृष्टि होने से श्रृंगार एवं सौन्दर्य की वस्तुओं के कारोबार में इन्हें विशेष लाभ मिलता है.जीवनसाथी से वैमनस्य रहता है लेकिन माता से स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहता है.

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:चन्द्रमा वृश्चिक लग्न की कुण्डली में भाग्येश और त्रिकोणेश होता है.यह इस लग्न के जातक के लिए शुभ फलदायी होता है.लग्न में चन्द्र स्थित होने से व्यक्ति दिखने में सुन्दर और आकर्षक होता है.इनका व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है.इनकी धार्मिक भावना गहरी होती है.तीर्थाटन से इन्हें आनन्द प्राप्त होता है.दया और करूणा की भावना भी इनमें रहती है.इन्हें कमर दर्द एवं पित्त रोग की संभावना रहती है.भाग्य के बल से इनका काम आसानी से बनता है एवं मान सम्मान व यश प्राप्त करते हैं.सप्तम भाव पर चन्द्र की दृष्टि होने से सुन्दर और सुयोग्य जीवनसाथी प्राप्त करते हैं.जीवनसाथी से इन्हें सहयोग प्राप्त होता है.

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ मंगल:वृश्चिक लग्न में मंगल लग्नेश होने से शुभ कारक ग्रह होता है.षष्टम भाव का स्वामी होने से इसका शुभत्व प्रभावित होता है फिर भी लग्नेश होने से शुभ प्रभाव ही देता है.लग्नस्थ होने पर यह विशेष लाभकारी होता है.प्रथम भाव में स्थित होकर यह व्यक्ति को दीर्घायु प्रदान करता है.यह व्यक्ति को शारीरिक तौर पर शक्तिशाली, परिश्रमी और नीरोग बनाए रखता है.शत्रुओ से ये भयभीत नहीं होते हैं.समाज में इनका सम्मान और आदर होता है.मातृ पक्ष से इन्हें लाभ प्राप्त होता है.लग्नस्थ मंगल चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है.मंगल जिस भाव को देखता है उस भाव के फल को पीड़ित करता है फलत: भूमि, भवन एवं वाहन सुख मंदा होता है.माता से भी मेतभेद की संभावना रहती है.जीवनसाथी को कष्ट होता है.वैवाहिक जीवन में कठिनाईयों का सामना करना होता है.

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ बुध: बुध शुभ ग्रह होने पर भी इस लग्न में अष्टमेश और द्वादशेश होने से अशुभ और अकारक ग्रह बन जाता है.वृश्चिक लग्न की कुण्डली में बुध लग्नस्थ होने पर व्यक्ति को साहसी एवं ज्ञानी बनाता है .बुध के प्रभाव से व्यक्ति खाने पीने का शौकीन होता है.इनके जन्म के पश्चात पिता की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है.पिता एवं पिता पक्ष से स्नेह एवं लाभ मिलता है.लग्नस्थ बुध पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव में स्थित शुक्र की राशि वृष को देखता है.इसके प्रभाव से जीवनसाथी एवं संतान से सहयोग प्राप्त होता है.धन संचय करने की कला में निपुण होते हुए भी कई बार अपनी आदतों और शौक के कारण इन्हें आर्थिक कठिनाईयों का भी सामना करना होता है.बुध पाप ग्रह से युत अथवा दृष्ट हो तो गृहस्थ जीवन कलहपूर्ण होता है.खर्च की अधिकता के कारण ऋण भी लेना पड़ता है.

वृश्चिक लग्न में लग्न्स्थ गुरू: गुरू वृश्चिक लग्न की कुण्डली में द्वितीयेश और पंचमेश होता है.द्वितीयेश होने से इसका शुभत्व प्रभावित होता है लेकिन त्रिकोणेश होने से कारक ग्रह का फल देता है.इस लग्न की कुण्डली में गुरू अगर लग्नस्थ होता है तो व्यक्ति दिखने में सुन्दर और आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है.गुरू के प्रभाव से उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त करते हैं और बुद्धिमान होते हैं.वाणी प्रभावशाली होती है.भविष्य के लिए धन संचय करने की प्रवृति के कारण आमतौर पर इनका जीवन सुख और आनन्द में व्यतीत होता है.लग्नस्थ गुरू अपनी पूर्ण दृष्टि से पंचम, सप्तम और नवम भाव को देखता है.गुरू की दृष्टि से व्यक्ति धनवान, संतानवान और सम्मानित होता है.जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त होता है.

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ शुक्र:शुक्र वृश्चिक लग्न की कुण्डली में सप्तमेश और द्वादशेश होने से अकारक और अशुभ ग्रह के रूप में कार्य करता है.शुक्र कुण्डली में लग्नस्थ होता है तो शरीर और व्यवहार पर विपरीत प्रभाव डालता है.स्वास्थ्य की हानि करता है.मानसिक रूप से परेशान करता है.व्यक्ति को कामी और विलासी बनाता है.लग्नस्थ शुक्र पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव में स्वराशि वृष को देखता है.जीवनसाथी से मतभेद होता है.जीवनसाथी का स्वास्थ्य प्रभावित होने से कष्ट होता है.साझेदारों से हानि होती है.वस्त्र, श्रृंगार और सुगंधित पदार्थो के कारोबार से इन्हें लाभ होता है.कृषि से सम्बन्धित कारोबार भी इनके लिए लाभप्रद होता है

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ शनिवृश्चिक लग्न की कुण्डली में शनि तृतीयेश और चतुर्थेश होने से अकारक ग्रह हो जाता है.जिस व्यक्ति की कुण्डली में यह प्रथम भाव में होता है उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है .इन्हें सरकारी पक्ष से कष्ट होता है.दुर्घटना की संभावना रहती है.स्त्रियों की कुण्डली में वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ शनि संतान के विषय में कष्टकारी होता है.प्रथमस्थ शनि तृतीय, सप्तम एव दशम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है.शनि की दृष्टि फल से भाईयो से सहयोग प्राप्त होता है.विपरीत लिंग वाले व्यक्तियो से लाभ मिलता है.कई प्रेम प्रसंग होते है.ससुराल पक्ष से लाभ होता है परन्तु जीवनसाथी से वैमनस्य रहता है.

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ राहु  इस लग्न की कुण्डली में राहु लग्नस्थ होने से व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा देता है.स्वास्थ्य की हानि करता है.राहु की दशावधि में रोग की संभावन रहती है.इससे प्रभावित व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी रहती है.लग्नस्थ राहु पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर दृष्टिपात करता है .राहु की दृष्टि से व्यक्ति को रोजगार एवं कारोबार में कठिनाईयों का सामना करना होता है.अचानक हानि की संभावना रहती है.इनके कई प्रेम प्रसंग होते हैं.वैवाहिक जीवन में कठिनाईयों का सामना करना होता है.जीवनसाथी से विवाद और मुनमुटाव होता है.

वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ केतु केतु वृश्चिक लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होने से व्यक्ति आमतौर पर स्वस्थ रहता है.केतु के प्रभाव से व्यक्ति शारीरिक तौर पर शक्तिशाली और सुदृ़ढ होता है.सामाजिक प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान प्राप्त होता है.मातृपक्ष से स्नेह और सहयोग मिलता है.पंचम, सप्तम एवं नवम भाव केतु से दृष्ट होने से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.जीवनसाथी और संतान के संदर्भ में कष्ट की अनुभूति होती है.

धनु लग्न में लग्नस्थ ग्रहों का फल

धनु लग्न का स्वामी गुरू है . इस लग्न में जिनका जन्म होता है वे मानवीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं.दूसरों के प्रति दया का भाव रखते हैं. सादगी पसंद करते हैं. ईश्वर के प्रति आस्थावान और भाग्यशाली होते हैं. इस लग्न में आपका जन्म हुआ है तो यह देखिए कि लग्न में स्थित ग्रह आपको किस प्रकार से प्रभावित कर रहे हैं।

धनु लग्न में लग्नस्थ सूर्य यह अगर लग्न में विराजमान होता है तो व्यक्ति को स्वस्थ और सुन्दर शरीर देता है. ज्ञान, बुद्धि एवं आत्मबल प्रदान करता है. वाणी प्रभावशाली और आकर्षित करने वाली होती है. व्यापार एवं नौकरी दोनों ही इनके लिए लाभप्रद होता है परंतु नौकरी में विशेष सफलता मिलती है. लेखन, वाचन एवं बौद्धिक कार्यो में लोकप्रियता प्राप्त करते हैं. चित्रकला व शिल्पकला में इनकी अभिरूचि होती है. लग्नस्थ सूर्य सप्तम भाव में बुध की राशि मिथुन को देखता है सूर्य की दृष्टि फल से धन, यश और मित्रों से सहयोग प्राप्त होता है. आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है. भाग्येश सूर्य सरकारी क्षेत्र से लाभ दिलाता है. जीवनसाथी एवं संतान सुख प्राप्त होता है.

धनु लग्न में लग्नस्थ चन्द्र चन्द्रमा धनु लग्न की कुण्डली में अष्टमेश होने पर भी समफलदायी होता है. यह अगर लग्न में स्थित होता है तो व्यक्ति का मन अस्थिर रहता है. अनुसंधानात्मक कार्यों में इनकी रूचि रहती है. लग्नस्थ चन्द्र के कारण व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है. व्यक्ति यात्रा का शौकीन होता है. इन्हें प्राकृतिक दृष्य एवं जल क्षेत्र प्रिय होता है. कला के विभिन्न क्षेत्रों में एवं लेखन में इनकी अभिरूचि होती है. इन विषयों में इन्हें सफलता और कामयाबी भी जल्दी मिलती है. चन्द्र की दृष्टि सप्तम भाव में सिंह राशि पर होती है जो इसकी मित्र राशि है फलत: सुन्दर और सुयोग्य जीवनसाथी प्राप्त होता है. संतान सुख विलम्ब से प्राप्त होता है.

धनु लग्न में लग्नस्थ मंगल मंगल धनु लग्न की कुण्डली में पंचमेश और द्वादशेश होकर शुभ कारक ग्रह होता है .मंगल गुरू की राशि धनु में लग्नस्थ होने से शिक्षा के मार्ग में अवरोध पैदा करता है. विपरीत लिंग के प्रति लगाव पैदा करता है. मंगल इन्हें परिश्रमी बनाता है. व्यक्ति अपनी मेहनत और क्षमता से धन अर्जित करता है. प्रथमस्थ मंगल चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है. इसकी दृष्टि से गृहस्थ जीवन में पति पत्नी के मध्य वैमनस्य होता है, यदा कदा विवाद भी उत्पन्न होता है.

धनु लग्न मे लग्नस्थ बुध बुध धनु लग्न की कुण्डली में सप्तम और दशम दो केन्द्र भाव का स्वामी होता है. दो केन्द्रभाव का स्वामी होने से यह अकारक ग्रह बन जाता है. परंतु बुध लग्नस्थ होने से व्यक्ति को सुन्दर और नीरोग का काया प्रदान करता है. माता पिता से स्नेह और सहयोग प्रदान करता है.सरकार एवं सरकारी विभाग से लाभ एवं सम्मान दिलाता है. ससुराल पक्ष से इन्हें समय पर लाभ मिलता है.बुध सप्तम भाव में स्थित स्वराशि को देखता है जिससे जीवनसाथी सुन्दर और सहयोगी प्राप्त होता है.मित्रों एवं साझेदारों से लाभ प्राप्त होता है. व्यापार में लाभ मिलता है. आर्थिक स्थिति मजबूत रहती है.

धनु लग्न में लग्नस्थ गुरू गुरू धनु लग्न की कुण्डली में लग्नेश और चतुर्थेश होता है। कुण्डली में गुरू जब स्वराशि धनु में लग्नस्थ होता है तो व्यक्ति को सुन्दर और स्वस्थ काया प्रदान करता है।व्यक्ति बुद्धिमान और ज्ञानी होता है। समाज में मान सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। भूमि, भवन एवं वाहन सुख प्राप्त होता है। प्रथम भावस्थ गुरू की पूर्ण दृष्टि पंचम भाव में मेष राशि पर, सप्तम में मिथुन पर और नवम भाव में सिंह राशि पर होती है। गुरू की दृष्टि फल से व्यक्ति साहसी और उदार होता है। जीवनसाथी और संतान से सुख प्राप्त करता है। जीवन ऐश्वर्य और सुख से परिपूर्ण होता है। नौकरी एवं कारोबार में सफलता मिलती है। शत्रुओं का भय होता है परंतु वे अहित नहीं कर पाते।

धनु लग्न में लग्नस्थ शुक्र धनु लग्न की कुण्डली में शुक्र अकारक और अशुभ ग्रह होता है। यह इस लग्न की कुण्डली में छठे और ग्यारहवें भाव का स्वामी होता है । शुक्र धनु लग्न में लग्नस्थ होने से व्यक्ति दिखने में सुन्दर होता है परंतु शुक्र के षष्ठेश होने से व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है। शुक्र एकादशेश होने से आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनता है। राजकीय क्षेत्र से लाभ प्रदान करता है। शुक्र के प्रभाव से इन्हें सरकारी नौकरी मिलने की संभावना भी प्रबल रहती है। संगीत एवं कला के प्रति लगाव रहता है। शुक्र सप्तम भाव में मित्र ग्रह बुध की राशि मिथुन को पूर्ण दृष्टि से देखता है फलत: इनका जीवनसाथी सुन्दर और सहयोगी होता है। गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है।

धनु लग्न में लग्नस्थ शनि शनि धनु लग्न की कुण्डली में द्वितीय और तृतीय भाव का स्वामी होता है। इस लग्न में शनि लग्नस्थ होने से व्यक्ति दुबला पतला होता है शनि के प्रभाव से व्यक्ति नेत्र रोग से पीड़ित होता है। इन्हें स्वतंत्र निर्णय लेने में कठिनाई होती है। जीवन में प्रगति हेतु दूसरों से सलाह एवं सहयोग इनके लिए अपेक्षित होता है। धन संचय की प्रवृति होती है। शेयर, सट्टा एवं लांटरी से इन्हें कभी कभी अचानक लाभ मिलता है। लग्नस्थ शनि तृतीय भाव में कुम्भ राशि को, सप्तम भाव मे मिथुन राशि को एवं दशम भाव में बुध की राशि कन्या को देखता है।इन भावों में शनि की दृष्टि होने से मित्रों से अपेक्षित लाभ और सहयोग नहीं मिल पाता है। साझेदारों से हानि होती है। दाम्पत्य जीवन में कष्ट की अनुभूति होती है।

धनु लग्न लग्नस्थ राहु धनु लग्न की कुण्डली में राहु लग्नस्थ होने से व्यक्ति लम्बा और हृष्ट पुष्ट होता है। इनकी बुद्धि कुटनीतिक होती है। अपना कार्य किसी भी तरह निकालना जानते हैं। स्वहित सर्वोपरि इनका सिद्धान्त होता है। राहु की दृष्टि से संतान सुख में बाधा और जीवनसाथी से सहयोग मिलने की संभावना कम रहती है। जीवनसाथी स्वास्थ्य के कारण परेशान होता है।

धनु लग्न में लग्नस्थ केतु केतु की उपस्थिति धनु लग्न की कुण्डली में प्रथम भाव में होने से व्यक्ति के स्वास्थ में उतार चढाव होता रहता है। कमर और जोड़ों में दर्द रहता है। आत्मबल का अभाव होने से किसी महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने कठिनाई महसूस करते हैं। व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना इन्हें पसंद होता है। रहस्यमयी चीज़ों में इनकी रूचि रहती है।
१० मकर लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ ग्रह
मकर लग्न में जिस व्यक्ति का जन्म होता है वे दुबले पतले होते हैं. समान्यतया इनकी शादी विलम्ब से होती है. इन्हें नियम और अनुशासन पर चलना पसंद होता है. ये थोड़े से जिद्दी और रूढ़िवादी होते हैं ये अपने कार्यों में किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते हैं. मकर लग्न में लग्नस्थ ग्रह इन्हें किस प्रकार से प्रभावित करते हैं यह देखिए!
मकर लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-सूर्य मकर लग्न की कुण्डली में अष्टम भाव का स्वामी होता है लग्न भाव में सूर्य की स्थिति होने से व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है. हड्डियों में दर्द एवं पेट सम्बन्धी रोग की संभावना प्रबल रहती है. दृष्टि दोष की भी संभावना रहती हैं. लालच और स्वार्थ की भावना रहती है. शत्रु राशि में सूर्य की उपस्थिति होने के कारण जीवन में कठिन परिस्थितियों एवं बाधाओं का सामना करना होता है. परिश्रम और आत्मबल से कठिनाईयों पर विजय प्राप्त करते हैं. पिता से तनाव होता है. सगे सम्बन्धियों से भी विरोध का सामना करना होता है. व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना पसंद होता है. गृहस्थी में उतार चढ़ाव होता रहता है.
मकर लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा मकर लग्न की कुण्डली में सप्तम भाव का स्वामी होता है. शत्रु राशि में लग्नस्थ होकर चन्द्रमा व्यक्ति को सुन्दर काया प्रदान करता है . चन्द्र के प्रभाव से व्यक्ति का मन चंचल और विनोदी होता है. सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होता है. चन्द्र के शत्रु राशि में होने से आंख और कान में तकलीफ का सामना करना होता है. लग्न में बैठा चन्द्र सप्तम भाव में अपनी राशि कर्क को देखता है जिससे जीवनसाथी सुन्दर और गुणी प्राप्त होता है. जीवनसाथी से सहयोग एवं समय समय पर लाभ प्राप्त होता है.
मकर लग्न में लग्नस्थ मंगल:-मकर लग्न की कुण्डली में मंगल सुखेश और लाभेश होता है. मंगल इस  इस राशि में लग्नस्थ होने से यह व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का होता है. इन्हें अपना वर्चस्व बनाये रखना पसंद होता है. पिता एवं पिता पक्ष से सहयोग प्राप्त होता है. पिता के नाम से इन्हें समाज में मान सम्मान एवं आदर प्राप्त होता है. शनि के प्रभाव से जीवन के उत्तरार्द्ध में संभावना ऐसी बनती है कि पिता से विवाद के कारण इन्हें पैतृक सम्पत्ति का त्याग करना होता है. प्रथम भाव में बैठा मंगल चतुर्थ सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है. इन भावो पर मंगल की दृष्टि के कारण व्यक्ति धार्मिक प्रवृति का होता है. मंगली दोष के कारण गृहस्थ जीवन का सुख बाधित होता है.
मकर लग्न में लग्नस्थ बुध:-बुध मकर लग्न लग्न की कुण्डली में षष्ठेश और नवमेश होता है .बुध लग्नस्थ होने से व्यक्ति बुद्धिमान और ज्ञानी होता है. इन्हें राजकीय सेवा का अवसर प्राप्त होता है. इनमें ईश्वर के प्रति आस्था और दया की भावना रहती है. कला के प्रति अभिरूचि होती है. मान सम्मान एवं यश प्राप्त होता है. आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है. सप्तम भाव में स्थित कर्क राशि पर बुध की दृष्टि होने से जीवनसाथी सुन्दर होता है. षष्ठेश की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से जीवनसाथी का स्वभाव उग्र होता है. संतान प्राप्ति में विलम्ब होता है.
मकर लग्न में लग्नस्थ गुरू:-मकर लग्न की कुण्डली में गुरू व्ययेश और तृतीयेश होकर अकारक ग्रह की भूमिका निभाता है. लग्न में गुरू की उपस्थिति से व्यक्ति ज्ञानी और गुणवान होता है. इनकी बौद्धिक क्षमता उत्तम होती है परंतु ये अपने गुण और योग्यता का समुचित उपयोग नहीं कर पाते हैं. दूसरों के विचारों से सदैव प्रभावित रहते हैं जिसके कारण कठिनाईयो का भी सामना करना होता है. लग्नस्थ गुरू की दृष्टि पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर रहती है. गुरू की दृष्टि से विवाह के पश्चात इनका भाग्योदय होता है. मकर लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र मकर लग्न की कुण्डली में पंचमेश और सप्तमेश होता है. इस लग्न के लिए शुक्र शुभ कारक ग्रह होता है. लग्न में इसकी उपस्थिति से व्यक्ति सुन्दर और बुद्धिमान होता है. शुक्र इन्हें चंचल और स्वार्थी बनता है. इनमें अवसरवादिता भी होती है. ये आमतौर पर अपने मतलब से दोस्ती करते हैं. विपरीत लिंग वाले व्यक्ति के प्रति इनमें विशेष आकर्षण होता है. सप्तम भाव में स्थित कर्क राशि पर शुक्र की दृष्टि होने से जीवनसाथी प्यार करने वाला होता है. सुख दु:ख में सहयोग और साथ देता है
मकर लग्न में लग्नस्थ शनि:-शनि मकर लग्न की कुण्डली में लग्नेश और द्वितीयेश होता है. लग्नेश होने से यह शुभ और कारक ग्रह होता है. लग्न में शनि की उपस्थिति से व्यक्ति भाग्यशाली होता है. शारीरिक तौर पर हृष्ट पुष्ट और शक्तिशाली होते है परंतु वाणी सम्बन्धी दोष की संभावना रहती है. नौकरी एवं व्यापार दोनो में इन्हें अच्छी सफलता मिलती है. राजकीय सेवा का इन्हें अवसर प्राप्त होता है. माता से स्नेह प्राप्त होता है.सप्तम भाव पर शनि की दृष्टि होने से जीवनसाथी को कष्ट होता है. वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है.
मकर लग्न में लग्नस्थ राहु:-राहु मकर लग्न की कुण्डली प्रथम भाव में उपस्थित होने से जीवन में स्थायित्व का अभाव होता है. अकारण भटकाव होता है. कार्यो में बाधाएं आती है जिससे बनता हुआ काम बिगड़ जाता है. व्यापार की अपेक्षा नौकरी इनके लिए लाभप्रद होता है. व्यवसाय में कठिनाईयां आती है और हानि की संभावना रहती है. सप्तम भाव पर राहु की दृष्टि साझेदारों एवं मित्रों से अपेक्षित सहयोग में बाधक होता है. गृहस्थ जीवन के सुख में न्यूनता लाता है.
मकर लग्न में लग्नस्थ केतु:-मकर लग्न की कुण्डली में केतु प्रथम भाव में स्थित होने से व्यक्ति के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है. समय समय पर विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों एवं मुश्किलों का सामना करना होता है. विपरीत लिंग वाले व्यक्ति के प्रति विशेष आकर्षण होता है. शत्रुओं के कारण इन्हें कष्ट होता है. समाज में मान सम्मान के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करते हैं जिसके कारण अपयश का भागी बनना पड़ता है. सप्तम भाव पर केतु की दृष्टि जीवनसाथी को कष्ट देता है. जीवनसाथी से सुख एवं सहयोग में कमी लाता है.
१३ कुम्भ लग्न में लग्नस्थ ग्रह
कुम्भ लग्न का स्वामी शनि है. इस लग्न में सूर्य, शुक्र एवं शनि शुभ कारक ग्रह होते हैं. चन्द्रमा, मंगल, बुध एवं गुरू अशुभ और अकारक ग्रह होते हैं.अगर आपका जन्म कुम्भ लग्न में हुआ है तो प्रथम भाव में स्थित ग्रह आपकी कुण्डली को किस प्रकार प्रभावित करते हैं इसे देखिए.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-कुम्भ लग्न की कुण्डली में सूर्य सप्तमेश होता है. केन्द्र भाव में स्थित होकर यह शुभ कारक ग्रह का फल देता है. कुम्भ लग्न की कुण्डली में सूर्य अगर लग्नस्थ होता है तो व्यक्ति दिखने में सुन्दर और आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है .स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है. सप्तमेश सूर्य लग्नस्थ होने से जीवनसाथी सुन्दर और सहयोगी होता है. यदा कदा आपस में विवाद होता है. मित्रों एवं साझेदारो से सहयोग व लाभ मिलता है. व्यापार एवं कारोबार में जल्दी कामयाबी मिलती है. आर्थिक स्थिति सामान्य रहती है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्र कुम्भ लग्न की कुण्डली में छठे भाव का स्वामी होकर अकारक ग्रह की भूमिका निभाता है. प्रथम भाव में चन्द्र की स्थिति होने से व्यक्ति को सर्दी, खांसी, कफ और पाचन सम्बन्धी रोग होने की संभावना रहती है. चन्द्रमा की इस स्थिति के कारण व्यक्ति का मन चंचल और अशांत रहता है. पारिवारिक जीवन में आपसी कलह और विवाद की संभावना रहती है. चन्द्र की दृष्टि सप्तमस्थ सूर्य की राशि सिंह पर रहती है. इस दृष्टि सम्बन्ध के कारण जीवनसाथी सुन्दर और महत्वाकांक्षी होता है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ मंगल:-मंगल कुम्भ लग्न की कुण्डली में तृतीय और दशम भाव का स्वामी होता है. इस लग्न में मंगल अशुभ और अकारक ग्रह की भूमिका निभाता है. मंगल लग्नस्थ होने से व्यक्ति शारीरिक तौर पर सुदृढ़ और बलवान होता है. इनमें साहस और पराक्रम भरपूर होता है. अपनी मेहनत से कठिन से कठिन कार्य को भी पूरा करने की कोशिश करते हैं. पिता एवं पिता पक्ष से इन्हें अनुकूल सहयोग प्राप्त होता है. समाज में सम्मानित और प्रतिष्ठित होते हैं. स्वभाव में उग्रता के कारण अकारण विवादों में भी उलझना पड़ता है. मंगल की दृष्टि पंचम में वृष, सप्तम में सिंह और अष्टम में कन्या राशि पर होने से जीवनसाथी गुणी और व्यवहारिक होता है. वैवाहिक जीवन समान्यत: सुखमय होता है. सप्तमेश और मंगल के पीड़ित अथवा पाप प्रभाव में होने से सप्तम भाव से सम्बन्धित सुख न्यून हो जाता है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ बुध:-बुध कुम्भ लग्न की कुण्डली में पंचमेश और अष्टमेश होता है. अष्टमेश होने के कारण यह अकारक और अशुभ फलदायी होता है लग्न में इसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति बुद्धिमान और ज्ञानी होता है. शिक्षा के क्षेत्र में इन्हे सफलता मिलती है. वाणी से लोगों को प्रभावित करने की क्षमता होती है. जलक्षेत्र इन्हें बहुत पसंद होता है. नौका विहार एवं जलयात्रा में इन्हें आनन्द मिलता है. अष्टमेश बुध का लग्नस्थ होना रोग कारक होता है. बुध की दशावधि में मानसिक परेशानी और कष्ट की अनुभूति होती है. प्रथमस्थ बुध सप्तम भाव में स्थित सिंह राशि को देखता है फलत: जीवनसाथी से मतभेद और विवाद होता होता है. विवाहेत्तर सम्बन्ध की भी संभावना रहती है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ गुरू:-कुम्भ लग्न की कुण्डली मे गुरू अकारक ग्रह होता है. यह द्वितीय और एकादश भाव का स्वामी होता है. लग्न में इसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति बुद्धिमान व ज्ञानी होता है. इनमें आत्मबल और आत्मविश्वास होता है. मन अस्थिर और चंचल होता है. गायन और संगीत में अभिरूचि रहती है. वाणी प्रभावशाली होती है. धन संचय की कला में निपुण होते हैं फलत: आर्थिक परेशानियों का सामाना कम ही करना होता है. लग्न में बैठा गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर दृष्टि डालता है. गुरू की दृष्टि से सगे सम्बन्धियो से लाभ प्राप्त होता है. पिता पक्ष से लाभ मिलता है. संतान एवं जीवनसाथी से सुख प्राप्त होता है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-कुम्भ लग्न की कुण्डली में शुक्र सुखेश और भाग्येश होता है. सुखेश और भाग्येश होने से यह पमुख कारक ग्रह होता है. लग्न की इसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति दिखने में सुन्दर और आकर्षक होता है. ये बुद्धिमान और गुणी होते हैं. अध्यात्म में इनकी अभिरूचि होती है. पूजा पाठ एवं धार्मिक कार्यो मे इनकी अभिरूचि होती है. माता से स्नेह और सहयोग प्राप्त होता है. भूमि, भवन एव वाहन का सुख प्राप्त होता है. शुक्र सप्तमस्थ सिंह राशि को देखता है फलत: वैवाहिक जीवन का सुख न्युन होता है. जीवनसाथी से वैमनस्य होता है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ शनि:-शनि कुम्भ लग्न की कुण्डली मे लग्नेश और द्वादशेश होकर कारक ग्रह की भूमिका निभाता है. लग्नेश शनि स्वराशि में स्थित होकर व्यक्ति को स्वस्थ और नीरोग काया प्रदान करता है. शनि के प्रभाव से व्यक्ति आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है. अपने व्यक्तित्व एवं आत्मबल के कारण समाज में यश और प्रतिष्ठित होता है. लग्न में बैठा शनि तृतीय भाव में मेष राशि, सप्तम में सिंह राशि एवं दशम में वृश्चिक राशि को देखता है. शनि की दृष्टि से भाईयों से अपेक्षित सहयोग का अभाव होता है. जीवनसाथी से वैमनस्य होता है फलत: वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ राहु:-प्रथम भाव में अष्टम ग्रह राहु की उपस्थिति से स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है. राहु की दशा काल में पेट सम्बन्धी रोग की संभावना रहती है कारोबार एवं व्यापार में कठिनाईयों का सामना करना होता है. व्यवसाय की अपेक्षा नौकरी इन्हें फलती है. लग्नस्थ राहु सप्तम भाव में सूर्य की राशि सिंह को देखता है. शत्रु ग्रह की राशि पर राहु की दृष्टि वैवाहिक जीवन के सुख को मंदा करता है. साझेदारी में इन्हें लाभ मिलने की संभावना कम रहती है. गुप्त विषयो एवं विद्याओ में इनकी रूचि होती है. आत्मविश्वास की कमी के कारण निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करते हैं.
कुम्भ लग्न में लग्नस्थ केतु :-केतु कुम्भ लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होकर व्यक्ति को अस्थिर बनाता है .विपरीत लिंग वाले व्यक्ति में इनकी विशेष अभिरूचि होती है. इनके कई प्रेम प्रसंग होते हैं. भोग विलास में इनका मन रमता है. माता पिता से विवाद और मनमुटाव होने की संभावना रहती है. सप्तम भाव पर केतु की दृष्टि होने से गृहस्थ सुख का अभाव होता है. व्यक्ति के अन्य व्यक्ति से सम्बन्ध के कारण परिवार मे तनाव होता है. केतु के साथ शुभ ग्रहो की युति अथवा दृष्टि सम्बन्ध होने से केतु का अशुभ प्रभाव कम होता है.
१२ लग्नस्थ ग्रहों का प्रभाव मीन लग्न में
मीन लग्न का स्वामी गुरू होता है. इस लग्न में चन्द्र, मंगल और गुरू कारक ग्रह होते हैं. सूर्य, बुध, शुक्र एवं शनि इस लग्न में अकारक ग्रह बनकर मंदा फल देते हैं.आपका जन्म मीन लग्न मे हुआ है और लग्न में कोई ग्रह है तो उस गह का प्रभाव जीवन पर्यन्त आप पर बना रहेगा.  ग्रहो के अनुरूप मिलने वाला फल इस प्रकार है जैसे.

मीन लग्न में लग्नस्थ सूर्य का प्रभाव:-सूर्य मीन लग्न की कुण्डली में षष्ठेश होता है. छठे भाव का स्वामी होने से सूर्य अकारक हो जाता है. मीन लग्न में लग्नस्थ होकर सूर्य व्यक्ति को स्वस्थ और नीरोग बनाता है. जिनकी कुण्डली में यह स्थिति होती है वह आत्मविश्वासी और परिश्रमी होते हैं. किसी भी कार्य को पूरे मनोयोग से करते हैं. शत्रुओं और विरोधियो से डरते नहीं हैं. सूर्य की पूर्ण दृष्टि सप्तम भाव में कन्या राशि पर होती है. व्यापार की अपेक्षा नौकरी में इन्हें कामयाबी मिलती है. वैवाहिक जीवन में जीवनसाथी से अनबन के कारण गृहस्थी का सुख प्रभावित होता है.
मीन लग्न में लग्नस्थ चन्द्र का प्रभाव:-मीन लग्न की कुण्डली में चन्द्रमा पंचमेश होता है. इस लग्न में त्रिकोणेश होने से चन्द्रमा शुभ कारक ग्रह होता है .लग्न में इसकी स्थिति व्यक्ति के लिए सुखद और शुभ होता है. चन्द्रमा के प्रभाव से व्यक्ति सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी होता है. इनकी वाणी मधुर और प्रभावशाली होती है. इनमें आत्मविश्वास रहता है जिससे किसी भी कार्य से घबराते नहीं हैं. मातृ पक्ष एवं माता से सुख और स्नेह प्राप्त होता है. चन्द्र पूर्ण दृष्टि से बुध की राशि कन्या को देखता है. इसके प्रभाव से जीवनसाथी और संतान पक्ष से सुख एवं सहयोग प्राप्त होता है.
मीन लग्न में लग्नस्थ मंगल का प्रभाव:-मंगल मीन लग्न की कुण्डली में द्वितीय और नवम भाव का स्वामी होता है. लग्न में इसकी उपस्थिति से व्यक्ति शक्तिशाली और पराक्रमी होता है. यह व्यक्ति को जिद्दी बनाता है. अध्यात्म में इनकी रूचि होती है. दूसरो की मदद करने में आगे रहते हैं. इनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहती है. धन अपव्यय नहीं करते हैं. इन्हें दृष्टि दोष और कर्ण दोष होने की संभावना रहती है. प्रथम भाव में स्थित मंगल चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को अपनी दृष्टि से प्रभावित करता है. इसके प्रभाव से मित्रों एवं साझेदारों से लाभ प्राप्त होता है. माता एवं माता समान महिला से स्नेह और सहयोग प्राप्त होता है.
मीन लग्न मे लग्नस्थ बुध का प्रभाव:-बुध मीन लग्न की कुण्डली में चतुर्थ और सप्तम भाव का स्वामी होकर केन्द्राधिपति दोष से दूषित होता है. लग्न में बुध की उपस्थिति से व्यक्ति परिश्रमी होता है. अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर धन अर्जित करता है. पैतृक सम्पत्ति से इन्हें विशेष लाभ नहीं मिल पाता है. महिलाओं से इन्हें विशेष सहयोग और लाभ मिलता है. लग्न में बैठा बुध सप्तम भाव में अपनी राशि को देखता है. इसके प्रभाव से व्यापार एवं कारोबार में मित्रों एवं साझेदारों से सहयोग प्राप्त होता है. गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है. अनुकूल जीवनसाथी प्राप्त होता है जिनसे सहयोग मिलता है.
मीन लग्न में लग्नस्थ गुरू का प्रभाव:-गुरू मीन लग्न की कुण्डली में लग्नेश और दशमेश होता है. लग्नेश होने के कारण दो केन्द्र भाव का स्वामी होने पर भी इसे केन्द्राधिपति दोष नहीं लगता .लग्न में इसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति अत्यंत भाग्यशाली होता है. शारीरिक तौर पर स्वस्थ और सुन्दर होता है. स्वभाव से दयालु और विनम्र रहता है. धर्म के प्रति आस्थावान और आत्मविश्वास से परिपूर्ण रहता है. लग्नस्थ गुरू अपनी पूर्ण दृष्टि से पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है. इसके प्रभाव से पिता एवं संतान से सुख प्राप्त होता है. गृहस्थ जीवन सुखमय होता है.
मीन लग्न में लग्नस्थ शुक्र का प्रभाव:-शुक्र मीन लग्न की कुण्डली में तृतीय और अष्टम भाव का स्वामी होता है. इस लग्न की कुण्डली में यह अकारक होता है. इस लग्न में शुक्र प्रथम भाव में होने से व्यक्ति सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी होता है. इन्हें वात रोग होने की संभावना रहती है. अपने काम में ये निपुण होते हैं. ये साहसी और पराक्रमी होते हैं. ये किसी भी चीज़ को गहराई से जाने बिना संतुष्ट नहीं होते. माता से सुख और सहयोग की संभावना कम रहती है. संतान के संदर्भ में कष्ट होता है. सप्तम भाव पर शुक्र की पूर्ण दृष्टि होने से गृहस्थ जीवन समान्यत: सुखमय रहता है.
मीन लग्न में लग्नस्थ शनि का प्रभाव:-शनि मीन लग्न की कुण्डली में एकादशेश और द्वादशेश होता है. लग्न भाव में शनि की उपस्थिति होने से व्यक्ति दुबला पतला होता है.शनि के प्रभाव से व्यक्ति नेत्र रोग से पीड़ित होता है. इन्हें स्वतंत्र निर्णय लेने में कठिनाई होती है. जीवन में प्रगति हेतु दूसरों से सलाह एवं सहयोग इनके लिए अपेक्षित होता है. धन संचय की प्रवृति होती है. शेयर, सट्टा एवं लांटरी से इन्हें कभी कभी अचानक लाभ मिलता है. लग्नस्थ शनि तृतीय भाव में वृष राशि को, सप्तम भाव मे कन्या राशि को एवं दशम भाव में गुरू की राशि धनु को देखता है. इन भावों में शनि की दृष्टि होने से मित्रों से अपेक्षित लाभ और सहयोग नहीं मिल पाता है. साझेदारों से हानि होती है. दाम्पत्य जीवन में कष्ट की अनुभूति होती है।
मीन लग्न में लग्नस्थ राहु का प्रभाव:-राहु मीन लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होने से व्यक्ति हृष्ट पुष्ट काया का स्वामी होता है. राहु इन्हें चतुर और चालाक बनाता है. इनमें स्वार्थ की भावना रहती है. अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए ये किसी से मित्रता करते हैं. अपना काम किस प्रकार से निकालना चाहिए इसे अच्छी तरह समझते हैं. इनमें साहस भरपूर होता है. लग्नस्थ राहु सप्तम भाव में स्थित बुध की कन्या राशि को देखता है. इसके प्रभाव से संतान के संदर्भ में कष्ट की संभावना रहती है. जीवनसाथी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों से पीड़ित होता है. गृहस्थी में कठिनाईयों का सामना करना होता है.
मीन लग्न में लग्नस्थ केतु का प्रभाव:-केतु मीन लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होने से व्यक्ति स्वास्थ सम्बन्धी परेशानियों से पीड़ित होता है. कमर दर्द और वात रोग होने की संभावना रहती है. आत्मविश्वास का अभाव होता है. स्वतंत्र निर्णय लेने में इन्हें कठिनाई होती है. व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना इन्हें पंसद होता है. स्वार्थ सिद्धि के लिए सामाजिक नियमों का उलंघन करने से भी परहेज नहीं करते.  सप्तम भाव पर केतु की दृष्टि जीवनसाथी के लिए कष्टकारी होता है. केतु इन्हें विवाहेत्तर सम्बन्ध की ओर प्रेरित करता है फलत: गृहस्थ जीवन का सुख प्रभावित होता है. आर्थिक स्थिति सामान्य होती है.

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