षोडश वर्ग अध्ययन
षोडश वर्ग का फलित ज्योतिष में विशेष महत्व है। जन्मपत्री का सूक्ष्म अध्ययन करने में यह विशेष सहायक है। इन वर्गों के अध्ययन के बिना जन्मकुंडली का विश्लेषण अधूरा होता है क्योंकि जन्म कुण्डली से केवल जातक के शरीर, उसकी संरचना एवं स्वास्थ्य के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है, लेकिन षोडश वर्ग का प्रत्येक वर्ग जातक के जीवन के एक विशिष्ट कारकत्व या घटना के अध्ययन में सहायक होता है। जातक के जीवन के जिस पहलू के बारे में हम जानना चाहते हैं उस पहलू के वर्ग का जब तक हम अध्ययन न करें तो विश्लेषण अधूरा ही रहता है।
जैसे यदि जातक की सम्पत्ति, संपन्नता आदि के विषय में जानना हो, तो जरूरी है कि होरा वर्ग का अध्ययन किया जाए।
इसी प्रकार व्यवसाय के बारे में पूर्ण जानकारी के लिए दशमांश की सहायता ली जाए।
वर्ग क्या है ? वर्ग वास्तव में गहो और लग्न का सूक्ष्म विभाजन है। यह इसलिए भी आवश्यक है की एक लग्न मे कई जातक जन्म लेते है। लेकिन हर एक का गुण, शरीर, धन, पराक्रम, सुख, बुद्धि, भार्या, भाग्य एक सा नही होता। अतः यही जानने के लिए वर्ग बनाये जाते है। एक राशि 30 अंशो की होती है इसके सूक्ष्म विभाजन करने पर कुल सोलह वर्ग बनते है। इनके नाम इस प्रकार है :- 01 लग्न, 02 होरा, 03 द्रेष्काण, 04 चतुर्थांश, 05 सप्तमांश, 06 नवमांश, 07 दशांश, 08 द्वादशंश, 09 षोडशांश, 10 विशांश, 11 चतुर्विंशांश, 12 त्रिशांश, 13 खवेदांश, 14 अक्षवेदांश, 15 भांश, 16 षष्टयांश (1 / 60)
षट्वर्ग : लग्न, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, द्वादशांश, त्रिशांश ये छः वर्ग होते है।
सप्तवर्ग : उपरोक्त षट्वर्ग मे सप्तांश जोड़ देने पर सप्तवर्ग हो जाते है।
दसवर्ग : उपरोक्त सप्तवर्ग मे दशांश, षोड़शांश, षष्टयांश जोड़ देने पर दस वर्ग होते है।
जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिए किसी विशेष वर्ग का अध्ययन किए बिना फलित गणना में चूक हो सकती है। षोडश वर्ग में सोलह वर्ग होते हैं जो जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं की जानकरी देते हैं। जैसे -
होरा से सम्पत्ति व समृद्धि;
द्रेष्काण से भाई-बहन, पराक्रम,
चतुर्थांश से भाग्य, चल एवं अचल सम्पत्ति,
सप्तांश से संतान,
नवांश से वैवाहिक जीवन व जीवन साथी,
दशांश से व्यवसाय व जीवन में उपलब्धियां,
द्वादशांश से माता-पिता,
षोडशांश से सवारी एवं सामान्य खुशियां,
विंशांश से पूजा-उपासना और आशीर्वाद,
चतुर्विंशांश से विद्या, शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान आदि,
सप्तविंशांश से बल एवं दुर्बलता,
त्रिशांश से दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, अनिष्ट;
खवेदांश से शुभ या अशुभ फलों,
अक्षवेदांश से जातक का चरित्र,
षष्ट्यांश से जीवन के सामान्य शुभ-अशुभ फल आदि अनेक पहलुओं का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है।
षोडश वर्ग में सोलह वर्ग ही होते हैं, लेकिन इनके अतिरिक्त और चार वर्ग पंचमांश, षष्ट्यांश, अष्टमांश, और एकादशांश होते हैं।
पंचमांश से जातक की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, पूर्व जन्मों के पुण्य एवं संचित कर्मों की जानकारी प्राप्त होता है।
षष्ट्यांश से जातक के स्वास्थ्य, रोग के प्रति अवरोधक शक्ति, ऋण, झगड़े आदि का विवेचन किया जाता है।
एकादशांश जातक के बिना प्रयास के धन लाभ को दर्शाता है। यह वर्ग पैतृक सम्पत्ति, शेयर, सट्टे आदि के द्वारा स्थायी धन की प्राप्ति की जानकारी देता है।
अष्टमांश से जातक की आयु एवं आयुर्दाय के विषय में जानकारी मिलती है।
षोडश वर्ग में सभी वर्ग महत्वपूर्ण हैं, लेकिन आज के युग में जातक धन, पराक्रम, भाई-बहनों से विवाद, रोग, संतान वैवाहिक जीवन, साझेदारी, व्यवसाय, माता-पिता और जीवन में आने वाले संकटों के बारे में अधिक प्रश्न करता है।
इन प्रश्नों के विश्लेषण के लिए सात वर्ग
होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, दशमांश, द्वादशांश और त्रिशांश ही पर्याप्त हैं।
होरादि सात वर्गों का फलित में प्रयोग
होरा: जन्म कुंडली की प्रत्येक राशि के दो समान भाग कर सिद्धांतानुसार जो वर्ग बनता है होरा कहलाता है। इससे जातक के धन से संबंधित पहलू का अध्ययन किया जाता है।
होरा में दो ही लग्न होते हैं -
सूर्य का अर्थात् सिंह और चंद्र का अर्थात् कर्क। ग्रह या तो चंद्र होरा में रहते हैं या सूर्य होरा में। बृहत पाराशर होराशास्त्र के अनुसार गुरु, सूर्य एवं मंगल सूर्य की होरा में और चंद्र, शुक्र एवं शनि चंद्र की होरा में अच्छा फल देते हैं। बुध दोनोें होराओं में फलदायक है। यदि सभी ग्रह अपनी शुभ होरा में हो तो जातक को धन संबंधी समस्याएं कभी नहीं आएंगी और वह धनी होगा। यदि कुछ ग्रह शुभ और कुछ अशुभ होरा में होंगे तो फल मध्यम और यदि ग्रह अशुभ होरा में होंगे तो जातक निर्धन होता है।
द्रेष्काण: जन्म कुंडली की प्रत्येक राशि के तीन समान भाग कर सिद्धांतानुसार जो वर्ग बनता है वह दे्रष्काण कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह कुण्डली का तीसरा भाग है। द्रेष्कोण जातक के भाई-बहन से सुख, परस्पर संबंध, पराक्रम के बारे में जानकारी के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इससे जातक की मृत्यु का स्वरूप भी मालूम किया जाता है। द्रेष्काण से फलित करते समय लग्न कुंडली के तीसरे भाव के स्वामी, तीसरे भाव के कारक मंगल एवं मंगल से तीसरे स्थित बुध की स्थिति और इसके बल का ध्यान रखना चाहिए। यदि द्रेष्काण कुंडली में संबंधित ग्रह अपने शुभ स्थान पर स्थित है तो जातक को भाई-बहनों से विशेष लाभ होगा और उसके पराक्रम में भी वृद्धि होगी। इसके विपरीत यदि संबंधित ग्रह अपने अशुभ द्रेष्काण में हों तो जातक को अपने भाई-बहनों से किसी प्रकार का सहयोग प्राप्त नहीं होगा। यह भी संभव है कि जातक अपने मां-बाप की एक मात्र संतान हो।
सप्तांश वर्ग: जन्मकुंडली का सातवां भाग सप्तांश कहलाता है। इससे जातक के संतान सुख की जानकारी मिलती है। जन्मकुंडली में पंचम भाव संतान का भाव माना जाता है। इसलिए पंचमेश पंचम भाव के कारक ग्रह गुरु, गुरु से पंचम स्थित ग्रह और उसके बल का ध्यान रखना चाहिए। सप्तांश वर्ग में संबंधित ग्रह अपने उच्च या शुभ स्थान पर हो तो शुभ फल प्राप्त होता है अर्थात् संतान का सुख प्राप्त होता है। इसके विपरीत अशुभ और नीचस्थ ग्रह जातक को संतानहीन बनाता है या संतान होने पर भी सुख प्राप्त नहीं होता। सप्तांश लग्न और जन्म लग्न दोनों के स्वामियों में परस्पर नैसर्गिक और तात्कालिक मित्रता आवश्यक है।
नवांश वर्ग: जन्म कुंडली का नौवां भाग नवांश कहलाता है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्ग है। इस वर्ग को जन्मकुंडली का पूरक भी समझा जाता है। आमतौर पर नवांश के बिना फलित नहीं किया जाता। यह ग्रहों के बलाबल और जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाता है। मुख्य रूप से यह वर्ग विवाह और वैवाहिक जीवन में सुख-दुख को दर्शाता है। लग्नकुंडली में जो ग्रह अशुभ स्थिति में हो वह यदि नवांश में शुभ हो तो शुभ फलदायी माना जाता है। यदि ग्रह लग्न और नवांश दोनों में एक ही राशि में हो तो उसे वर्गोत्मता हासिल होती है जो शुभ सूचक है। लग्नेश और नवांशेश दोनों का आपसी संबंध लग्न और नवांश कुंडली में शुभ हो तो जातक का जीवन में विशेष खुशियों से भरा होता है। उसका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है और वह हर प्रकार के सुखों को भोगता हुआ जीवन व्यतीत करता है। वर-वधू के कुंडली मिलान में भी नवांश महत्वपूर्ण है। यदि लग्न कुंडलियां आपस में न मिलें, लेकिन नवांश मिल जाएं तो भी विवाह उत्तम माना जाता है और गृहस्थ जीवन आनंदमय रहता है। सप्तमेश, सप्तम् के कारक शुक्र (कन्या की कुंडली में गुरु), शुक्र से सप्तम स्थित ग्रह और उनके बलाबल की नवांश कुंडली में शुभ स्थितियां शुभ फलदायी होती हैं। ऐसा देखा गया है कि लग्न कुंडली में जातक को राजयोग होते हुए भी राजयोग का फल प्राप्त नहीं होता यदि नवांश वर्ग में ग्रहों की स्थिति प्रतिकूल होती है। देखने में जातक संपन्न अवश्य नजर आएगा, लेकिन अंदर से खोखला होता है। वह स्त्री से पेरशान होता है और उसका जीवन संघर्षमय रहता है।
दशमांश: दशमांश अर्थात् कुण्डली के दसवें भाग से जातक के व्यवसाय की जानकारी प्राप्त होती है। वैसे देखा जाए तो जन्मकुण्डली में दशम भाव जातक का कर्म क्षेत्र अर्थात् व्यवसाय का है। जातक के व्यवसाय में उतार चढ़ाव, स्थिरता आदि की जानकरी प्राप्त करने में दशमांश वर्ग सहायक होता है। यदि दशमेश, दशम भाव में स्थित ग्रह, दशम भाव का कारक बुध और बुध से दशम स्थित ग्रह दशमांशवर्ग में स्थिर राशि में स्थित हों और शुभ ग्रह से युत हों तो व्यवसाय में जातक को सफलता प्राप्त होती है। दशमांश लग्न का स्वामी और लग्नेश दोनों एक ही तत्व राशि के हों, आपस में नैसर्गिक और तात्कालिक मित्रता रखते हों तो व्यवसाय में स्थिरता देते हैं। इसके विपरीत यदि ग्रह दशमांश में चर राशि स्थित और अशुभ ग्रह से युत हो, लग्नेश और दशमांशेश में आपसी विरोध हो तो जातक का व्यवसाय अस्थिर होता है। दशमांश और लग्न कुंडली दोनों में यदि ग्रह शुभ और उच्च कोटि के हो तो जातक को व्यवसाय में उच्च कोटि की सफलता देते हैं।
द्वादशांश: लग्न कुण्डली का बारहवां भाग द्वादशांश कहलाता है। द्वादशांश से जातक के माता-पिता के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। लग्नेश और द्वादशांशेश इन दोनों में आपसी मित्रता इस बात का संकेत करती है कि जातक और उसके माता-पिता के आपसी संबंधी अच्छे रहेंगे। इसके विपरीत ग्रह स्थिति से आपसी संबंधों में वैमनस्य बनता है। इसके अतिरिक्त चतुर्थेश और दशमेश यदि द्वादशांश में शुभ स्थित हों तो भी जातक को माता-पिता का पूर्ण सुख प्राप्त होगा, यदि चतुर्थेश और दशमेश दोनों में से एक शुभ और एक अशुभ स्थिति में हो तो जातक के माता-पिता दोनों में से एक का सुख मिलेगा और दूसरे के सुख में अभाव बना रहेगा। इन्हीं भावों के और कारक ग्रहों से चतुर्थ और दशम स्थित ग्रहों और राशियों के स्वामियों की स्थिति भी द्वादशांश में शुभ होनी चाहिए। यदि सभी स्थितियां शुभ हों तो जातक को माता-पिता का पूर्ण सुख और सहयोग प्राप्त होगा अन्यथा नहीं।
त्रिंशांश: लग्न कुंडली का तीसवां भाग त्रिंशांश कहलाता है। इससे जातक के जीवन में अनिष्टकारी घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, बीमारी, आॅपरेशन आदि सभी का पता इस त्रिंशांश से किया जाता है। त्रिंशांशेश और लग्नेश की त्रिंशांश में शुभ स्थिति जातक को अनिष्ट से दूर रखती है। जातक की कुंडली में तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश और द्वादशेश इन सभी ग्रहों की त्रिंशांश में शुभ स्थिति शुभ जातक को स्वस्थ एवं निरोग रखती है और दुर्घटना से बचाती है। इसके विपरीत अशुभ स्थिति में जातक को जीवन भर किसी न किसी अनिष्टता से जूझना पड़ता है।
इन सात वर्गों की तरह ही अन्य षोड्श वर्ग के वर्गों का विश्लेषण किया जाता है। इन वर्गों का सही विश्लेषण तभी हो सकता है यदि जातक का जन्म समय सही हो, अन्यथा वर्ग गलत होने से फलित भी गलत हो जाएगा। जैसे दो जुड़वां बच्चों के जन्म में तीन-चार मिनट के अंतर में ही जमीन आसमान का आ जाता है, इसी तरह जन्म समय सही न होने से जातक के किसी भी पहलू की सही जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती। कई जातकों की कुंडलियां एक सी नजर आती हैं, लेकिन सभी में अंतर वर्गों का ही होता है। यदि वर्गों के विश्लेषण पर विशेष ध्यान दिया जाए तो जुड़वां बच्चों के जीवन के अंतर को समझा जा सकता है। यही कारण है कि हमारे विद्वान महर्षियों ने फलित ज्योतिष की सूक्ष्मता तक पहुंचने के लिए इन षोड्श वर्गों की खोज की और इसका ज्ञान हमें दिया।
No comments:
Post a Comment