रत्नों का प्रयोग किस उद्देश्य से किया जा सकता है?
ज्योतिषशास्त्र में रत्नों के प्रयोग के विषय में दो प्रमुख सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं-
(१) अशुभ, पाप व क्रूर ग्रहशान्ति हेतु
(२) शुभ फलप्रद व योगकारक ग्रह पुष्टिकरण हेतु। अभिप्राय यह है कि यदि किसी जातक के जन्माङ्ग में कोई ग्रह अशुभ प्रभाव उत्पन्न कर रहा हो तो रत्नों का प्रयोग किया जाता है तथा यदि किसी शुभ ग्रह के शुभत्व को बढ़ाना है तो भी रत्नों का प्रयोग कर सकते हैं। ज्योतिषशास्त्रीय उपयोग के अतिरिक्त आयुर्वेद के औषधियों के रूप में भी रत्नों का प्रयोग होता है।
ग्रहशान्ति तथा ग्रह पुष्टिकरण के लिए रत्नों की प्रयोगविधि क्या एक ही है ?
नहीं! ग्रहशान्ति तथा ग्रह पुष्टिकरण हेतु रत्नों की प्रयोगविधि नितान्त ही भिन्न है। अनिष्टकारक ग्रहों की शान्ति के प्रसङ्ग में रत्नों को दान में देने का प्रावधान किया गया है। इन ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो ग्रह जन्माङ्ग, दशा, गोचर अथवा अष्टकवर्गादि में अशुभ हों उनसे सम्बन्धित रत्नों का दान करना चाहिए। इस दान से वे अशुभ ग्रह प्रसन्न होकर शुभ फल प्रदान करते हैं-
“ ये खेचरा गोचरतोऽष्टवर्गाद्दशा- क्रमाद्वाप्यशुभा भवन्ति। दानादिना ते सुतरां प्रसन्तास्तेऽधुना। ”
परन्तु जब ग्रहों को बलवान् करने की बात हो तो उन-उन ग्रहों से सम्बन्धित रत्नों को मुद्रिका, मणि अथवा किसी भी आभूषण के रूप में शरीर पर धारण करने का प्रावधान किया गया है-
“किरीटे कटिसूत्रे च कुण्डले कण्ठभूषणे। कीर्तिवक्त्रे मुद्रिकायां कङ्कणे बाहुभूषणे।।”
स्पष्ट है कि जातक के जन्माङ्ग में उपस्थित जो ग्रह शुभ फल देने वाले हों उनको और अधिक बल प्रदान करने तथा उनके प्रसन्नार्थ के लिए रत्नों को धारण करना चाहिए।
“धार्यं तुष्ट्यै भौम भान्वोः प्रवालं रौप्यं शुक्रेन्द्रोश्च हेमेन्दुजस्य। सूरेर्मुक्ता लोहमर्कात्मजस्य लाजावर्तः कीर्तितो राहुकेत्वाः।।”
रत्नों के चयन के लिए किसे आधार मानें दशा को या जनमाङ्गानुसार शुभाशुभ ग्रहाें को?
सामान्यतया लोकव्यवहार में यह दृष्टिगत होता है कि जातक के जन्माङ्गानुसार जिस ग्रह की दशान्तर्दशा या प्रत्यन्तर्दशा चल रही होती है उसी ग्रह से सम्बन्धित रत्न को धारण करने की सलाह जातक को दे दी जाती है। ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उन सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है, जिसके द्वारा जातक के लिए योगकारक ग्रहों की पहचान हो सके। इस सन्दर्भ में महर्षि पराशर प्रोक्त “वृहत्पराशरहोराशास्त्रम्” ग्रन्थ द्रष्टव्य है। इसके अनुसार लग्नेश, पंचमेश, नवमेश अर्थात् त्रिकोणाधिपति अत्यन्त शुभ फल प्रदान करने वाले तथा योगकारक होते हैं। केन्द्रेशों के शुभाशुभत्व के सन्दर्भ में अत्यन्त सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता होती है और तदुपरान्त ही उनसे सम्बन्धित रत्नों को पहनने की सलाह दी जा सकती है। जबकि दूसरी तरफ मात्र महादशेश या अन्तर्दशेश को आधार मान लेना और उनके शुभाशुभत्व का विचार किए बिना ही यजमान को रत्नधारण की सलाह दें तो यह उचित या शास्त्रीय विधि नहीं कही जा सकती है। अतः आवश्यक है कि पाराशरी सिद्धान्तों के आधार पर सर्वप्रथम जातक के लिए शुभ तथा अशुभ ग्रहों का निर्धारण कर लें तदुपरान्त ही किसी रत्न को धारण करने अथवा उसका दान करने के विषय में सलाह देना शास्त्रसम्मत होगा। कई बार ऐसा देखा जाता है कि जिस ग्रह की दशा चल रही हो उससे सम्बन्धित रत्न ही जातक को पहना दिया जाता है और सामान्यतया इस उपाय से जातक को कोई लाभ नही मिलता, अपितु कई बार उनका अनिष्ट भी हो जाता है। महर्षि पराशर ने स्पष्टतया कहा है कि कोई भी ग्रह अपनी दशा में स्वयं से सम्बन्धित शुभ या अशुभ फल नहीं देता है अपितु ग्रह अपने सहधर्मी ग्रहों की दशान्तर्दशा में शुभाशुभ फल जातक को प्रदान करते हैं? दशान्तर्दशेशों से सम्बन्धित रत्न धारण करने का सिद्धान्त अत्यधिक गहन चिन्तन व मनन के बाद ही उपयोग में लाना संभव हो सकता है।
रत्नोत्पत्तिविषयक सिद्धान्त - रत्नों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं। आधुनिक भूगर्भशास्त्र के अनुसार विभिन्न रत्नों की उत्पत्ति खनिजों से होती है। भूगर्भीय ताप तथा काल के प्रवाह में ये खनिज अपना स्वरूप परिवर्त्तित कर लेते हैं तथा क्रिस्टल या रवों के रूप में परिवर्तित होकर ‘रत्न’ कहलाते हैं। ज्योतिषशास्त्रीय तथा रत्नशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार दैत्यराज बलि तथा वज्रासुर असुर के शरीर से विभिन्न रत्नों की उत्पत्ति बताई गई है। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वान् महर्षि दधीचि की अस्थियों से रत्नोत्पत्ति को स्वीकार करते हैं। सर्वप्रमुख व सर्वमान्य सिद्धान्त दैत्यराज बलि विषयक ही माना जाता है। इसके अनुसार इन्द्र द्वारा दैत्यराज बलि के शरीर पर वज्राघात से बलि का शरीर विशुद्ध जाति व सुकर्मों के प्रभाव से रत्नों में परिवर्त्तित हो गया। राजा बलि की हड्डियों से हीरे, दाँतों से मोती, रक्त से माणिक्य, पित्त से पन्ना, आँखों से नीलम, हृत्रस से वैदूर्य, मेद से स्फ़टिक, माँस से पारस मूँगा, चमड़े से पुखराज तथा वीर्य से भीष्म उत्पन्न हुए। इन रत्नों में से सूर्य ने माणिक्य, चन्द्रमा ने मोती, मंगल ने मूँगा, बुध ने पन्ना, बृहस्पति ने पुखराज, शुक्र ने हीरा, शनि ने नीलम, राहु ने गोमेद और केतु ने वैदूर्य ग्रहण कर लिया, इसीलिए इन रत्नों को धाारण करने वाले उपर्युक्त ग्रहों के प्रकोप से पीडि़त नहीं हो पाते हैं।
अशुभ ग्रहों की शान्ति व पुष्टिकरण के लिए ज्योतिषशास्त्र में कौन से उपाय बताए गए हैं? ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में अलग-अलग समस्याओं के लिए अलग-अलग उपाय बताए गए हैं। दुष्ट ग्रहों, क्रूर ग्रहों, अशुभ ग्रहयोगों के दुष्प्रभावों से निवारण के लिए यज्ञ, हवन, दान, स्नान, जप, तीर्थगमन, कथा श्रवण, स्तुति, व्रत, अनुष्ठान, रत्न धारण आदि उपाय बताए गए हैं। प्राचीन ऋषियों ने ग्रह शान्ति व पुष्टिकरण हेतु विहित उपायों के सन्दर्भ में अपनी रचनाओं में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की है। इन उपायों में से कुछ अल्प श्रमसाध्य हैं जबकि कुछ उपाय कष्टसाधय हैं।
ज्योतिषशास्त्रीय उपायों में रत्नधारण को ही क्यों प्रमुखता दें?
ग्रह शान्ति व ग्रह पुष्टिकरण हेतु जो उपाय इन प्राचीन ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, उनकी एक लम्बी श्रृंखला है तथा इसमें धन का भी बहुत अधिक व्यय होता है। मन्त्रों के जप, अनुष्ठान, यज्ञ-हवनादि में मन, वचन और कर्म की शुद्धता अनिवार्य होती है। चाहे उच्चारण विषयक अशुद्धि हो अथवा आचार-विचार विषयक अशुद्धि हो, इनकी उपस्थिति निश्चय ही यजमान के इष्ट की पूर्त्ति में असमर्थ रहती है और साथ ही साथ यजमान के अनिष्ट का भी भय बना रहता है। यज्ञ, हवन, अनुष्ठान, जपादि में मन्त्रों के अशुद्ध उच्चारण के कारण अनिष्ट फल की प्राप्ति का उदाहरण वैदिक काल से ही उपलब्ध होता है जहाँ मन्त्र के एक अंश “इन्द्रशत्रु” शब्द में स्वरभेद के कारण यजमान का विनाश हो गया था साथ ही साथ इन अनुष्ठान-यज्ञादि के आयोजन हेतु विद्वान व योग्य आचार्यों की उपलब्धता भी अत्यन्त कष्टसाध्य हो जाती है। उपायों की इन श्रृंखला में रत्नधारण एक ऐसा विकल्प है जहाँ उपरोक्त अनिष्ट की संभावना का सबसे कम भय होता है। अल्प श्रमसाध्यता तथा रत्नों की सहजतापूर्वक उपलब्धि के कारण ज्योतिषशास्त्रोक्त उपायों में यह सर्वाधिक लोकप्रिय है। अतः इष्ट प्राप्ति हेतु तथा अनिष्टों से दूर रहने की इच्छा वालों को रत्नधारण के प्रति ही प्रयासरत होना श्रेष्ठ सिद्ध होता है।
सूर्यादि ग्रहों के लिए शास्त्रोक्त रत्न कौन-कौन हैं?
“माणिक्यं दिननायकस्य विमलं मुक्ताफलं शीतगोः, माहेयस्य च विद्रुमं मरकतं सौम्यस्य गारुत्मकम्। देवेज्यस्य च पुष्परागमसुराचार्यस्य वज्रं शनेः नीलं निर्मलमन्ययोश्च गदिते गोमेदवैदूर्यके।।” अर्थात् माणिक्य सूर्य का, मोती चन्द्रमा का, मूँगा मंगल का, पन्ना बुध का, पुखराज बृहस्पति ग्रह का, व्रज या हीरा शुक्र का, नीलम शनि का, गोमेद राहु का तथा लहसुनिया केतु ग्रह का रत्न कहा गया है।
रत्न धारण करने की प्रवृत्ति अर्वाचीन है या प्राचीन?
रत्न धारण करने सम्बन्धी साक्ष्यों की बात करें तो विश्व की सर्वाधिक प्राचीनतम रचना ऋग्वेद में भी रत्न धारण से सम्बन्धित प्रसङ्ग उपलब्ध होते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में ही ‘रत्न’ शब्द का प्रयोग हुआ है- “होतारम् रत्नधातमम्”। इसके अतिरिक्त भी ऋग्वेद में विभिन्न देवताओं के स्वरूप वर्णन प्रसङ्ग में भी विभिन्न रत्नजटित गृह, वस्त्र, अस्त्र, आभूषणादि का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद में रोगनाशक मणि आदि की भी विशद् चर्चा प्राप्त होती है। ज्योतिषशास्त्रीय प्राचीन ग्रन्थों यथा वृहत्पराशरहोराशास्त्रम् में भी रत्नादि के प्रयोग विषयक प्रसङ्ग मिलते हैं। वराहमिहिर ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘वृहत्संहिता’ के रत्न परीक्षाध्याय में कहा है कि शुभरत्न धारण करने से राजाओं का शुभ तथा अशुभ रत्नों को धारण करने से राजा का अशुभ होता है। अतः रत्नज्ञों द्वारा रत्नगत दैव की परीक्षा करके ही रत्न धारण करना चाहिए “रत्नेन शुभेन शुभं भवति नृपाणामनिष्टमशुभेन। यस्मादतः परीक्ष्यं दैवं रत्नाश्रितं तज्ज्ञैः।।” रामायण, महाभारत सदृश प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों व कालिदासादि प्रभृत् विद्वानों ने अपनी कालजयी रचनाओं में रत्न व इसके विविध स्वरूपों पर प्रकाश डाला है।
रत्नों के भार निर्धारण में किस सिद्धान्त का आश्रय लें?
जातक के लिए उचित रत्न के चयन के बाद दूसरी प्रमुख समस्या रत्नों के वजन को लेकर होती है। ज्योतिषियों का एक वर्ग जातक के शरीर के वजन के आधार पर रत्नाें के भार का निर्धारण करता है जबकि दूसरा वर्ग सम्बन्धित ग्रह के अंशात्मक मान तथा ग्रहों के बल को आधार मानकर रत्न के वजन का निर्धारण करते हैं। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में ऐसी कई विधियों का वर्णन किया गया है, जिससे ग्रहों के बली या उसकी निर्बलता का मूल्याङ्कन कर सकते हैं। ग्रहों के अंशात्मक मान तथा उसके द्वारा अधिष्ठित राशि के आधार पर ग्रहों की अवस्था का निर्धारण करने के बाद रत्नों के भार के सन्दर्भ में उचित निर्णय ले सकते हैं। निम्नलिखित तालिका ग्रहों की अवस्था तथा रत्नों का भार निर्धाारण करने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
विषम राशियों में ग्रह स्थित हों तो वे 0°-6° तक (बाल),6°-12°(कुमार),12°-18°(युवा),18°-24°(वृद्ध),24°-30°(मृत) अवस्था के माने जाते हैं।
जबकि सम राशियों में ग्रह स्थित हों तो ग्रह 24°-30°(बाल),18°-24°(कुमार),12°-18°(युवा),6°-12°(वृद्ध),0°-6°(मृत) अवस्था में होते हैं।
यदि ग्रह बाल या मृतावस्था में हो तो अधिक वजन के रत्नों की आवश्यकता होगी जबकि वृद्धावस्था, कुमार व युवावस्था में क्रमशः कम वजन के रत्नों की आवश्यकता होती है। ग्रहों के षड्बल के आधार पर ग्रहों की सबलता अथवा निर्बलता का निर्धारण करने के बाद रत्नों के भार का निर्धारण करना ही शास्त्र-सम्मत विधि है।
रत्नक्रय कब करें? और रत्न कैसा हो?
ग्रहों से सम्बन्धित रत्नों का क्रय उन ग्रहों से सम्बन्धित वार को करना चाहिए। अर्थात् माणिक्य रविवार को, मोती सोमवार को, मूँगा मंगलवार को खरीदना शास्त्र-सम्मत है। राहु-केतु के सन्दर्भ में कहा गया है “कुजवत केतु शनिवत राहु” अतः लहसुनिया के क्रय के लिए मंगलवार तथा गोमेद खरीदने के लिए शनिवार का दिन प्रशस्त माना गया है। रत्न खरीदते समय यह ध्यान रखें की रत्न सर्वथा शुद्धऔर दोषरहित हों- “रत्नानि धारयेत्कोशे शुद्धानि गुणवन्ति च।” शुद्ध रत्न जहाँ जातक को शुभ फल प्रदान करते हैं, वहीं अशुद्ध तथा दोषयुक्त रत्न को धारण करने से अनिष्ट की आशङ्का सदैव बनी रहती है।
रत्नधाारण अथवा उसके दान हेतु कौन सा वार व समय उचित है?
रत्न धारण अथवा उसके दान हेतु ग्रह से सम्बन्धित वार ही शास्त्रों में प्रशस्त कहे गए हैं। अर्थात् माणिक्य रविवार को, मोती सोमवार को, मूँगा मंगलवार को, पन्ना बुधवार को, पुखराज गुरुवार को, हीरा शुक्रवार को, नीलम शनिवार को, लहसुनिया बुधवार को तथा गोमेद रविवार को धारण करना चाहिए। “कुर्यात् सूर्यादिखेटानां जपदानधारणादिकम्। तेषां वारे च काले च तेनतुष्टा भवन्ति ते।।” जहाँ तक समय की बात है तो माणिक्य, मूँगा, पन्ना, पुखराज, नीलम व लहसुनिया रत्न को सूर्योदय के उपरान्त अगले एक घण्टे के अन्दर धारण कर लेना चाहिए। जबकि मोती, हीरा व गोमेद को सूर्यास्त के अगले एक घण्टे तक पहन लेना चाहिए।
रत्न धारण से पूर्व क्या उसकी प्राण प्रतिष्ठा अनिवार्य है अथवा इस विधि का त्याग किया जा सकता है?
रत्न धारण के सन्दर्भ में यह अनिवार्य है कि रत्नों को उनसे सम्बन्धित देवताओं के वैदिक, तान्त्रिक या पौराणिक मन्त्रों के द्वारा विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठा कर लें तभी उसको ज्योतिषशास्त्रीय उपाय के रूप में धारण करें। कहा भी गया है कि- “पूजा विना प्रतिष्ठां नास्ति न मन्त्रं विना प्रतिष्ठा च। तदुभय विप्रतिपन्नः पश्यतु गीर्वाण पाषाणम्।” अर्थात् प्राण-प्रतिष्ठा के बिना रत्न पाषाण मात्र हैं, तथा प्राण प्रतिष्ठित होने के बाद रत्न जीवन्त हो जाते हैं तथा जातक को शुभाशुभ फल देने में समर्थ हो जाते हैं। रत्नों के प्राण-प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में नवग्रह पूजन तथा हवन करना उचित होता है तथा रत्न विशेष के ग्रहों का षोडशोपचार पूजा, नियत संख्या में जप व हवन अत्यन्त अनिवार्य है।
रत्न धारण हेतु उचित धातु और हाथ की कौन सी अंगुली श्रेयस्कर है?
माणिक्य हेतु स्वर्ण धातु, मोती के लिए चाँदी, मूँगा के लिए ताँबा, पन्ना के लिए स्वर्ण, पुखराज के लिए स्वर्ण, हीरा के लिए स्वर्ण, नीलम के लिए लौह, गोमेद के लिए अष्टधातु व लहसुनिया के लिए भी स्वर्ण या अष्टधातु प्रशस्त माना गया है। माणिक्य को हाथ की अनामिका अंगुली में, मोती को कनिष्ठिका, मूँगा को अनामिका, पन्ना को कनिष्ठिका, पुखराज को तर्जनी, हीरा को अनामिका, गोमेद को मध्यमा या अनामिका जबकि लहसुनिया को अनामिका अंगुली में धारण करना चाहिए। सामुद्रिकशास्त्रम्, करलक्षण, हस्तसंजीवनम् ग्रन्थों के अनुशीलन से ग्रहों से सम्बन्धित अंगुलियों का ज्ञान अत्यन्त विस्तारपूर्वक प्राप्त हो सकता है, जिसका अनुप्रयोग रत्न धारण विषयक सिद्धान्तों में सहजतापूर्वक किया जा सकता है।
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