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Shani Graha शनि ग्रह | शनि देव Shani Dev

Shani Graha शनि ग्रह | शनि देव Shani Dev

शनि की उत्पत्ति का पौराणिक वृत्तांत
महर्षि  कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या अदिति से हुआ जिसके गर्भ से विवस्वान (सूर्य ) का जन्म हुआ | सूर्य का विवाह त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से हुआ | सूर्य व संज्ञा के संयोग से वैवस्वत मनु व यम दो पुत्र तथा यमुना नाम की कन्या का जन्म हुआ | संज्ञा  अपने पति के अमित तेज से संतप्त रहती थी |सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन  न कर पाने पर  उसने अपनी छाया को अपने ही समान बना कर सूर्य के पास छोड़ दिया और स्वयम पिता के घर आ गयी | पिता त्वष्टा  को यह व्यवहार उचित नहीं लगा और उन्हों ने संज्ञा को पुनः सूर्य के पास जाने का आदेश दिया | संज्ञा ने पिता के आदेश की अवहेलना की और घोड़ी का रूप बना कर कुरु प्रदेश के वनों में जा कर रहने लगी |

               इधर सूर्य संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते रहे | कालान्तर में संज्ञा के गर्भ से भी  सावर्णि मनु और शनि दो पुत्रों का जन्म हुआ | छाया शनि से बहुत स्नेह करती थी और संज्ञा पुत्र  वैवस्वत मनु व यम से कम | एक बार बालक यम ने खेल खेल में छाया को अपना चरण दिखाया तो उसे क्रोध आ गया और उसने यम को चरण हीन होने का शाप दे दिया |  बालक यम ने डर कर पिता को इस विषय में बताया तो उन्हों ने शाप का परिहार बता दिया और  छाया संज्ञा से बालकों के बीच भेद भाव पूर्ण व्यवहार करने का कारण पूछा | सूर्य के भय से  छाया संज्ञा ने  सम्पूर्ण सत्य प्रगट कर दिया |

 संज्ञा  के इस व्यवहार से क्रोधित हो कर सूर्य अपनी ससुराल में गए | ससुर त्वष्टा ने समझा बुझा कर अपने दामाद को शांत किया और कहा –“ आदित्य ! आपका तेज सहन न कर सकने के कारण ही संज्ञा ने यह अपराध किया है और घोड़ी के रूप में वन में भ्रमण कर रही है | आप उसके इस अपराध को क्षमा करें और मुझे अनुमति दें की मैं आपके तेज को काट छांट कर सहनीय व मनोहर बना दूँ |अनुमति मिलने पर त्वष्टा  ने सूर्य के तेज को  काट छांट दिया और विश्वकर्मा ने उस छीलन से भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का निर्माण किया |मनोहर रूप हो जाने पर सूर्य संज्ञा को ले कर अपने स्थान  पर आ गए | बाद में संज्ञा ने नासत्य और दस्र नामक अश्वनी कुमारों को जन्म दिया | यम की घोर तपस्या से प्रसन्न हो कर महादेव ने उन्हें पितरों का आधिपत्य दिया और धर्म अधर्म के निर्णय करने का अधिकारी बनाया |यमुना व ताप्ती नदी के रूप में प्रवाहित हुई | शनि को नव ग्रह मंडल में स्थान दिया गया |

शनिदेव को ग्रहत्व कि प्राप्ति

स्कन्द पुराण में काशी खण्ड में वृतांत है कि छाया सुत शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य से प्रार्थना की कि मै ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ जिसे आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो और मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये चाहे वह देव,असुर,दानव, ही क्यों न हो | शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न हुए और उत्तर दिया कि इसके लिये उसे काशी जा कर भगवान शंकर कि आराधना करनी चाहिए | शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और शिव ने प्रसन्न हो कर शनि को ग्रहत्व प्रदान कर नव ग्रह मंडल में स्थान दिया |



शनि की क्रूर दृष्टि का रहस्य

ब्रह्म पुराण के अनुसार शनि देव बाल्य अवस्था से ही भगवान विष्णु के परम भक्त थे |हर समय उन के ही ध्यान में मग्न रहते थे | विवाह योग्य आयु होने पर  इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से संपन्न हुआ |इनकी पत्नी भी साध्वी एवम तेजस्विनी थी | एक  बार वह पुत्र प्राप्ति की कामना से शनिदेव के निकट आई | उस समय शनि ध्यान मग्न थे अतः उन्हों ने अपनी पत्नी की ओर दृष्टिपात तक नहीं किया |लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब शनि का ध्यान भंग नहीं हुआ तो  वह ऋतुकाल निष्फल हो जाने के कारण से क्रोधित हो गयी और शनि को शाप दे दिया कि – अब से तुम जिस पर भी दृष्टिपात करोगे वह नष्ट हो जाएगा |तभी से शनि कि दृष्टि को क्रूर व अशुभ समझा जाता है | शनि भी सदैव अपनी दृष्टि नीचे ही रखते हैं ताकि उनके द्वारा किसी का अनिष्ट न हो |फलित ज्योतिष में भी शनि कि दृष्टि को अमंगलकारी कहा गया है |

ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी शनि कि क्रूर  दृष्टि का वर्णन है | गौरी नंदन गणेश के जन्मोत्सव पर शनि बालक के दर्शन कि अभिलाषा से गए |मस्तक झुका कर बंद नेत्रों से माता पार्वती के चरणों में प्रणाम किया , शिशु गणेश माता कि गोद में ही थे | माँ पार्वती ने शनि को आशीष देते हुए प्रश्न किया ,” हे शनि देव ! आप गणेश को देख नहीं रहे हो इसका क्या कारण है |” शनि ने उत्तर दिया –“ माता ! मेरी सहधर्मिणी का शाप है कि मैं जिसे भी देखूंगा उसका अनिष्ट होगा ,इसलिए मैं अपनी दृष्टि नीचे ही रखता हूँ | “ पार्वती ने सत्य को जान कर भी दैववश शनि को बालक को देखने का आदेश दिया | धर्म को साक्षी मान कर शनि ने वाम नेत्र के कोने से बालक गणेश पर दृष्टिपात किया | शनि दृष्टि पड़ते ही गणेश का मस्तक धड से अलग हो कर गोलोक में चला गया | बाद में श्री हरि ने एक गज शिशु का मस्तक गणेश के धड से जोड़ा और उस में प्राणों का संचार किया |तभी से गणेश गजानन नाम से  प्रसिद्ध हुए |

शनि का शाकटभेद  योग
पद्म पुराण के अनुसार पूर्वकाल में जब शनि गोचर वश कृतिका नक्षत्र के अंतिम अंशों में पहुंचे तो विद्वान दैवज्ञों ने रघुकुल भूषण राजा दशरथ को सावधान किया कि शनि रोहिणी का भेदन करके आगे बढ़ने वाले हैं जिस से शाकट भेद योग बनेगा | इस योग के कारण 12 वर्ष तक संसार में भयंकर अकाल रहेगा | राजा दशरथ ने यह सुन कर अपने संहारास्त्र का संधान किया और नक्षत्र मंडल में शनि के समक्ष पहुँच गए |शनि राजा दशरथ के साहस व पौरुष से प्रसन्न हुए तथा उन्हें वर मांगने को कहा | दशरथ ने कहा कि आप लोक हित में रोहिणी में गोचर भ्रमण के समय कभी भी दीर्घ अवधि का दुर्भिक्ष न करें |शनि ने दशरथ कि प्रार्थना स्वीकार कि और कभी भी लंबी अवधि का दुर्भिक्ष न करने  का वचन दिया |


पुराणों में शनि  का स्वरूप एवम प्रकृति     

|मत्स्य पुराण के अनुसार शनि कि कान्ति इन्द्रनील मणि के समान है| शनि गिध्द पर सवार हाथ में धनुष बाण ,त्रिशूल व व्र मुद्रा से युक्त हैं |पद्म पुराण में शनि कि स्तुति में  दशरथ  उनकी प्रकृति का चित्रण करते हैं कि शनि का शरीर कंकाल के समान  है,पेट पीठ से सटा हुआ है, शरीर का ढांचा विस्तृत है जिस पर मोटे रोएं स्थित हैं | शनि के नेत्र भीतर को धसें हैं तथा दृष्टि नीचे कि और है |शनि तपस्वी हैं व मंद गति हैं | भूख से व्याकुल व अतृप्त रहते हैं |शनि का वर्ण कृष्ण के समान नील है |   

ज्योतिष शास्त्र में शनि  का स्वरूप एवम प्रकृति

प्रमुख ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार शनि दुष्ट ,क्रोधी , आलसी ,लंगड़ा ,काले वर्ण का ,विकराल ,दीर्घ व कृशकाय शरीर का है |द्रष्टि नीचे ही रहती है , नेत्र पीले व  गढ्ढे दार हैं |शरीर के अंग व रोम कठोर तथा नख व दांत मोटे हैं |शनि वात प्रकृति का तमोगुणी ग्रह है |

शनि का रथ एवम गति  

शनि का रथ लोहे का है |वाहन गिद्ध है |सामान्यतः यह एक राशि में 30 मास तक भ्रमणशील रहता है तथा सम्पूर्ण राशि चक्र को लगभग 30 वर्ष में पूर्ण करता है | इस मंद गति के कारण ही इसका नाम शनैश्चर व मंद प्रसिद्ध है | पद्म पुराण के अनुसार शनि जातक कि जन्म राशि से पहले ,दूसरे ,बारहवें ,चौथे व आठवें स्थान पर आने पर कष्ट देता है |

वैज्ञानिक परिचय
शनि सौरमंडल का एक सदस्य ग्रह है। यह सूरज से छटे स्थान पर है और सौरमंडल में बृहस्पति के बाद सबसे बड़ा ग्रह हैं। इसके कक्षीय परिभ्रमण का पथ १४,२९,४०,००० किलोमीटर है। शनि के ६० उपग्रह हैं। जिसमें टाइटन सबसे बड़ा है| शनि ग्रह की खोज प्राचीन काल में ही हो गई थी। शनि ग्रह की रचना ७५% हाइड्रोजन और २५% हीलियम से हुई है। जल, मिथेन, अमोनिया और पत्थर यहाँ बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं।नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड,इकसठ लाख मील दूर है.पृथ्वी से शनि की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख,तियालीस हजार मील दूर है.शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है,यह छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी कक्ष मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है.शनि धरातल का तापमान २४० फ़ोरनहाइट है.शनि के चारो ओर सात वलय हैं|

ज्योतिष शास्त्र में शनि
ज्योतिष शास्त्र में शनि  को पाप व अशुभ  ग्रह माना गया है | ग्रह मंडलमें शनि को सेवक का पद प्राप्त है| यह मकर  और कुम्भ  राशियों का स्वामी है |यह तुला   राशि में उच्च का तथा मेष राशि  में नीच का माना जाता है | कुम्भ इसकी मूल त्रिकोण राशि भी है |शनि  अपने स्थान से तीसरे, सातवें,दसवें  स्थानको पूर्ण दृष्टि से देखता है और इसकी दृष्टि को  अशुभकारक कहा गया है |जनमकुंडली मेंशनि  षष्ट ,अष्टम  भाव का कारक होता है |शनि   की सूर्य -चन्द्र –मंगल सेशत्रुता , शुक्र  – बुध से मैत्री और गुरु से समता है | यह स्व ,मूलत्रिकोण व उच्च,मित्र  राशि –नवांश  में ,शनिवार  में ,दक्षिणायनमें , दिन के अंत में ,कृष्ण पक्ष में ,वक्री होने पर  ,वर्गोत्तम नवमांश में बलवान व शुभकारक होता है |

कारकत्व
 प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथोंके अनुसार शनि लोहा ,मशीनरी ,तेल,काले पदार्थ,रोग, शत्रु,दुःख ,स्नायु ,मृत्यु ,भैंस ,वात रोग ,कृपणता ,अभाव ,लोभ ,एकांत, मजदूरी, ठेकेदारी ,अँधेरा ,निराशा ,आलस्य ,जड़ता ,अपमान ,चमड़ा, पुराने पदार्थ ,कबाडी ,आयु ,लकड़ी ,तारकोल ,पिशाच बाधा ,संधि रोग ,प्रिंटिंग प्रैस ,कोयला ,पुरातत्व विभाग इत्यादि का कारक है |

रोग  
जनम कुंडली में  शनि   अस्त ,नीच या शत्रु राशि का ,छटे -आठवें -बारहवें  भाव में स्थित हो ,पाप ग्रहों से युत  या दृष्ट, षड्बल विहीन हो तो  कोढ़ ,वात रोग ,स्नायु रोग , पैर व घुटने के रोग ,पसीने में दुर्गन्ध , संधिवात, चर्म रोग , दुर्घटना , उदासीनता , गठिया ,थकान ,पोलियो  इत्यादि रोग  उत्पन्न करता है |

फल देने का समय
शनि  अपना शुभाशुभ फल  36 से 42 वर्ष कि आयु में ,अपने वार व शिशिर ऋतु में,अपनी दशाओं व गोचर में( साढ़ेसाती व ढैया में ) प्रदान करता है |वृद्धावस्था पर भी  इस का अधिकार कहा गया है |

शनि का राशि फल

जन्म कुंडली में शनि का मेषादि राशियों में स्थित होने का फल इस प्रकार है :-

मेष में –शनि हो तो जातक व्यसन व परिश्रम से तप्त,उग्र स्वभाव का ,प्रपंची ,निष्ठुर ,धनहीन ,बन्धु वर्ग का निहंता ,कुरूप ,क्रोधी ,घृणित कार्य करने वाला व निर्धन होता है |

वृष   में  शनि  हो तो जातक सेवक , अनुचित भाषी ,निर्धन ,नीच मित्रों से युक्त ,मूढ़ ,व अधिक कार्यों में तत्पर होता है |

मिथुन में शनि हो तो जातक परिश्रमी ,अधिक ऋण व बंधन से पीड़ित ,कपटी ,आलसी ,कामी ,पाखंडी ,धूर्त व दुष्ट स्वभाव का होता है |

कर्क में  शनि  हो तो जातक बाल्यकाल में अस्वस्थ ,पंडित , मातृहीन ,सरल,  विशेष कार्य करने वाला ,विपरीत स्वभाव वाला ,प्रसिद्ध, मध्य अवस्था में राज तुल्य सुख प्राप्त करने वाला ,पर बाधक ,बन्धु विरोधी ,पर भोग से वृद्धि पाने वाला होता है |

सिंह में शनि  हो तो जातक लिखने –पढ़ने वाला ,ज्ञाता ,शालीनता से रहित ,स्त्री सुख से रहित ,भृति जीवी ,स्वजनों से हीन ,निन्दित कार्य करने वाला ,क्रोधी ,मनोरथों से भ्रांत ,मध्यम शरीर धारी होता है |

|कन्या में शनि हो तो जातक नपुंसक आकार वाला ,शठ ,परान्भोजी ,अपना कार्य करने को तत्पर ,परोपकारी होता है |

तुला मे शनि हो तो सभा व समुदाय में बड़ा ,विदेश भ्रमण से धन व सम्मान प्राप्त करने वाला ,सभा समुदाय में ज्येष्ठ ,राजा ,ज्ञाता ,स्व जनों से रक्षित धन वाला व धूर्त स्त्री का भोगी होता है |

वृश्चिकमें  शनि हो तो जातक द्रोही ,अहंकारी ,क्रोधी ,विष व शस्त्र से आहत,परधन का हरण करने वाला ,निन्दित कार्य करने वाला ,खर्च व रोगों से पीड़ित हो कर कष्ट भोगने वाला होता है

धनु में शनि हो तो जातक अध्ययन –व्यवहारिक शिक्षा में अनुकूल मति वाला ,गुणवान पुत्र से युक्त ,अपनी शालीनता व धर्माचरण से प्रसिद्ध ,अन्त्य अवस्था में अतुल लक्ष्मी का भोग करने वाला ,अल्पभाषी ,सरल व बहुत नाम वाला होता है |

मकर में  शनि हो तो जातक पर स्त्री व स्थान का भोगी ,गुणवान ,शिल्प ज्ञाता ,श्रेष्ठ वंश से पूजित ,समुदाय से सम्मानित ,स्नान आभूषण स्नेही ,क्रिया कला का ज्ञाता ,परदेश वासी होता है

कुम्भ में  शनि हो तो जातक झूठा ,व्यसनी ,धूर्त ,दुष्ट मित्र वाला ,स्थिर,ज्ञान कथा व स्मृति धर्म से दूर ,कटु वक्ता ,अनेक कार्यों को  आरम्भ करने वाला होता है |

मीन में   शनि हो तो जातक यज्ञ व शिल्प का प्रेमी ,शांत, मित्र व बन्धुओं में प्रधान ,नीति का ज्ञाता ,धन वृद्धि वाला ,धर्म व्यवहार रत ,नम्र ,गुणवान होता है |

(शनि पर किसी अन्य ग्रह कि युति या दृष्टि के प्रभाव से उपरोक्त राशि फल में परिवर्तन भी संभव है| )

शनि का सामान्य  दशा फल
जन्म कुंडली में शनि स्व ,मित्र ,उच्च राशि -नवांश का ,शुभ भावाधिपति ,षड्बली ,शुभ युक्त -दृष्ट हो तो शनि की दशा में राज सम्मान ,सुख वैभव ,धर्म लाभ,ग्राम -नगर व किसी संस्था के प्रधान पद कि प्राप्ति ,जन समर्थन , शनि के कारकत्व वाले पदार्थों से लाभ ,पश्चिम दिशा से लाभ ,स्टील ,कोयला व तेल कंपनियों के शेयरों से लाभ ,समाज कल्याण के कार्य ,पुराने आवास व वाहन कि प्राप्ति ,आध्यत्मिक ज्ञान व चिंतन ,विचारों में स्थिरता व प्रोढ़ता,व्यवसाय में सफलता ,पशुओं के व्यापार में सफलता ,वृद्धा स्त्री का संसर्ग प्राप्त होता है | जिस भाव का स्वामी शनि  होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में सफलता व लाभ होता है |

यदि शनि अस्त ,नीच शत्रु राशि नवांश का ,षड्बल विहीन ,अशुभभावाधिपति  पाप युक्त दृष्ट हो तो  शनि  की अशुभ दशा में उद्वेग,वाहन नाश ,अप्रीति ,स्त्री व स्वजनों से वियोग ,पराजय ,शराब व जुआ से अपकीर्ति ,वात जन्य रोग ,शुभ कार्यों में असफलता ,बंधन , आलस्य ,निराशा ,मानसिक तनाव , शरीर में शुष्कता व खुजली .थकान ,शरीर पीड़ा ,अंग भंग , नौकर व संतान से विरोध होता है |शनि के कारकत्व वाले पदार्थों से हानि होती है | जिस भाव का स्वामी शनि होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में असफलता व हानि होती है |

गोचर में शनि
जन्म या नाम राशि से 3,6 ,11वें स्थान पर शनि शुभ फल देता है |शेष स्थानों पर शनि का भ्रमण अशुभ कारक  होता है |

जन्मकालीन चन्द्र से प्रथम स्थान पर  शनि का गोचर( साढ़ेसाती के मध्य के अढ़ाई वर्ष )अपमान ,असफलता ,शारीरिक व मानसिक पीड़ा ,राज्य से भय ,आर्थिक हानि देता है | बुध्धि ठीक से काम नहीं करती व शरीर निस्तेज और मन अशांत रहता है |

दूसरे स्थान पर शनि के गोचर ( साढ़ेसाती के अंतिम अढ़ाई वर्ष ) से घर में अशांति और कलह क्लेश होता है | धन कि हानि ,नेत्र या दांत में कष्ट होता है | परिवार से अलग रहना पड़ जाता है |

तीसरे स्थान पर शनि का गोचर आरोग्यता , मित्र  व व्यवसाय लाभ ,शत्रु की पराजय ,साहस वृद्धि ,शुभ समाचार प्राप्ति ,भाग्य वृद्धि ,बहन व भाई के सुख में वृद्धि व राज्य से सहयोग दिलाता  है |

चौथे स्थान पर  शनि के  गोचर से स्थान परिवर्तन ,स्वजनों से वियोग या विरोध ,सुख हीनता ,मन में स्वार्थ व लोभ का उदय , वाहन से कष्ट ,छाती में पीड़ा होती है |

पांचवें स्थान पर  शनि के  गोचर से भ्रम ,योजनाओं में असफलता ,पुत्र को कष्ट, धन निवेश में हानि व उदर विकार होता है |

छ्टे स्थान पर  शनि के गोचर से धन अन्न व सुख कि वृद्धि ,रोग व शत्रु पर विजय व संपत्ति का लाभ होता है |

सातवें स्थान पर  शनि के  गोचर से दांत व  जननेंन्द्रिय सम्बन्धी रोग , मूत्र विकार ,पथरी ,यात्रा में कष्ट , दुर्घटना ,स्त्री को कष्ट या उस से विवाद , आजीविका में बाधा होती है|

आठवें स्थान पर शनि के गोचर से धन हानि ,कब्ज ,बवासीर इत्यादि गुदा रोग ,असफलता ,स्त्री को कष्ट ,राज्य से भय ,व्यवसाय में बाधा ,पिता को कष्ट ,परिवार में अनबन ,शिक्षा प्राप्ति में बाधा व संतान सम्बन्धी कष्ट होता है |

नवें  स्थान पर शनि के  गोचर से भाग्य कि हानि ,असफलता ,रोग व शत्रु का उदय ,धार्मिक कार्यों व यात्रा में बाधा आती है |

दसवें  स्थान पर शनि के  गोचर से मानसिक चिंता , अपव्यय ,पति या पत्नी  को कष्ट ,  कलह,नौकरी व्यवसाय में विघ्न , अपमान ,कार्यों में असफलता ,राज्य से परेशानी होती है |

ग्यारहवें स्थान पर शनि के गोचर से धन ऐश्वर्य की वृद्धि,  लोहा –चमड़ा –कोयला –सीमेंट –पत्थर –लकड़ी –मशीनरी आदि से लाभ ,आय में वृद्धि ,रोग व शत्रु से मुक्ति , कार्यों में सफलता, मित्रों का सहयोग मिलता है |

बारहवें स्थान पर  शनि के  गोचर  ( साढ़ेसाती के आरम्भ के अढ़ाई वर्ष ) से धन कि हानि ,खर्चों कि अधिकता ,संतान को कष्ट ,प्रवास ,परिवार में अनबन व भाग्य कि प्रतिकूलता होती है |

( गोचर में शनि के उच्च ,स्व मित्र,शत्रु नीच आदि राशियों में स्थित होने पर , अन्य ग्रहों से युति ,दृष्टि के प्रभाव से , अष्टकवर्ग फल से या वेध स्थान पर शुभाशुभ ग्रह होने पर उपरोक्त गोचर फल में परिवर्तन संभव है | )

शनि कि साढ़ेसाती व ढैया
ज्योतिष के अनुसार शनि की साढेसाती की मान्यतायें तीन प्रकार से होती हैं,पहली लगन से दूसरी चन्द्र लगन या राशि से और तीसरी सूर्य लगन से,उत्तर भारत में चन्द्र लगन से शनि की साढे साती की गणना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है.इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि से पूर्व राशि में गोचर वश प्रवेश करते हैं तो साढेसाती आरम्भ हो जातीहै  लगभग अढ़ाई वर्ष इस राशि में अगले अढ़ाई वर्ष जन्मराशी में और अंतिम अढ़ाई वर्ष जन्म राशि से अगली राशि में शनि का कुल गोचर काल साढ़े सात वर्ष होता है जिस कारण से इस अवधि को शनि की साढेसाती कहा जाता है | जन्म राशि से जब शनि चतुर्थ या अष्टम राशि में रहता  है तो शनि का ढैया कहा जाता है |

जन्म कुंडली में शनि बलवान , शुभ भावों का स्वामी  शुभ युक्त व शुभ दृष्ट हो कर शुभ फलदायक सिद्ध होता हो तो शनि कि साढेसाती या ढैया में अशुभ फल नहीं मिलता बल्कि उसका भाग्योत्थान व उत्कर्ष होता है |शनि के अष्टक वर्ग में यदि साढेसाती या ढैया कि राशि में चार या अधिक शुभ बिंदु प्राप्त हों तो भी शनि अशुभ फल नहीं देता | यदि जन्मकालीन शनि निर्बल ,अशुभ भावों का स्वामी , मारकेश ,पाप युक्त या दृष्ट ,अशुभ भावों में स्थित होने के कारण अशुभ कारक हो व अष्टक वर्ग में उस राशि में चार से कम शुभ बिंदु हों तो शनि कि साढेसाती या ढैया में चिता ,रोग व शत्रु से कष्ट ,अवनति ,आर्थिक हानि ,परिवार में मतभेद ,स्त्री व संतान को कष्ट ,कार्यों में विघ्न ,कलह ,अशांति होती है |

मेष ,कर्क ,सिंह,कन्या ,वृश्चिक ,मकर  मीन राशि को मध्य के अढ़ाई वर्ष , वृष ,सिंह ,कन्या,धनु,मकर कुम्भ,मीन के आरम्भ के अढ़ाई वर्ष तथा मिथुन ,तुला ,वृश्चिक,कुम्भ,व मीन के अंतिम अढ़ाई वर्ष साढेसाती में अधिक अशुभ फलदायक होते हैं |

शनि का पाया या चरण
शनि के गोचर का शुभाशुभ फल निश्चित करने के लिए शनि के पाए या चरण का विचार भी किया जाता है | जिस राशि में शनि हो वह यदि जन्म या नाम राशि से 3,7,10 वें स्थान पर हो तो सर्वश्रेष्ठ ताम्बे का पाया ,2-5-9 वें स्थान पर हो तो श्रेष्ठ चांदी का पाया ,1-6-11 वें स्थान पर हो तो मध्यम सोने का पाया तथा 4-8-12 वें स्थान पर हो तो अशुभ फलदायक लोहे का पाया होता है |

शनि शान्ति के उपाय
जन्मकालीन शनि  निर्बल होने के कारण अशुभ फल देने वाला हो या शनि कि साढ़ेसाती व ढैया अशुभ कारक हो तो निम्नलिखित उपाय करने से बलवान हो कर शुभ फल दायक हो जाता है |
रत्न धारण – नीलम लोहे या सोने की अंगूठी में पुष्य ,अनुराधा ,उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रों में जड़वा कर शनिवार  को  सूर्यास्त  के बाद  पुरुष दायें हाथ की तथा स्त्री बाएं हाथ की मध्यमा अंगुली में धारण करें | धारण करने से पहले ॐ  प्रां प्रीं प्रों  सः शनये  नमः मन्त्र के १०८ उच्चारण से इस में ग्रह प्रतिष्ठा करके धूप,दीप , नीले पुष्प,  काले तिल व अक्षत आदि से पूजन कर लें|

नीलम की सामर्थ्य न हो तो उपरत्न संग्लीली , लाजवर्त भी धारण कर सकते हैं | काले घोड़े कि नाल या नाव के नीचे के कील  का छल्ला धारण करना भी शुभ रहता है |

दान व्रत ,जाप –  शनिवार के नमक रहित व्रत रखें | ॐ  प्रां प्रीं प्रों  सः शनये  नमः मन्त्र का २३  ०००  की संख्या में जाप करें | शनिवार को काले उडद ,तिल ,तेल ,लोहा,काले जूते ,काला कम्बल , काले  रंग का वस्त्र इत्यादि का दान करें |

किसी लोहे के पात्र में सरसों का तेल डालें और उसमें अपने शरीर कि छाया देखें | इस तेल को पात्र व दक्षिणा सहित शनिवार को संध्या काल में दान कर दें |

श्री हनुमान चालीसा का नित्य पाठ करना भी शनि दोष शान्ति का उत्तम उपाय है |

                          दशरथ  कृत शनि  स्तोत्र

नमः कृष्णाय नीलाय शितिकंठनिभाय च |नमः कालाग्नि रूपाय कृतान्ताय च वै नमः ||

नमो निर्मोसदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च | नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ||

नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः | नमो दीर्घाय शुष्काय कालद्रंष्ट नमोस्तुते||

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरिक्ष्याय वै नमः|  नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने ||

नमस्ते सर्व भक्षाय बलि मुख नमोस्तुते|सूर्य पुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ||

अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोस्तुते| नमो मंद गते तुभ्यम निंस्त्रिशाय नमोस्तुते ||

तपसा दग्धदेहाय नित्यम योगरताय च| नमो नित्यम क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः||

ज्ञानचक्षुर्नमस्ते ऽस्तु    कश्यपात्मजसूनवे |तुष्टो ददासि वै राज्यम रुष्टो हरसि तत्क्षणात ||

देवासुर मनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा | त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः||

प्रसादं कुरु में देव  वराहोरऽहमुपागतः ||

पद्म पुराण में वर्णित शनि के  दशरथ को दिए गए वचन के अनुसार जो व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक शनि की लोह प्रतिमा बनवा कर शमी पत्रों से उपरोक्त स्तोत्र द्वारा पूजन करके तिल ,काले उडद व लोहे का दान प्रतिमा सहित करता है तथा नित्य विशेषतः शनिवार को भक्ति पूर्वक इस स्तोत्र का जाप करता है उसे दशा या गोचर में कभी शनि कृत पीड़ा नहीं होगी और शनि द्वारा सदैव उसकी रक्षा की जायेगी |

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