धनु लग्न के स्वामी बृहस्पति हैं जो देवताओं के गुरु माने गये हैं. बृहस्पति के प्रभाव के कारण धनु लग्न में जन्मे जातक धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं. अधिकारप्रिय, करुणामय और मर्यादापूर्वक व्यवहार इनका स्वभाव है. इस लग्न में जन्मे जातक गेहुएं रंग , विशाल नेत्र ओर उन्नत ललाट वाले बुद्धिजीवी होते हैं.
धनु लग्न में जन्म लेने वाले जातक पेशे से राजनीतिज्ञ, बैंकर, व्यवसायी, अच्छे सलाहकार, वकील, प्रोफेसर, अध्यापक, संन्यासी अथवा उच्चकोटि के उपदेशक होते हैं। अपने भाषण में ये अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा व क्षमता लगा देते हैं। यदि ऐसे जातक सैनिक बनें तो युद्ध में पीठ नहीं दिखाते। दीन दुखियों की सहायता के लिए ये सदैव तत्पर रहते हैं। दूसरों को व्यर्थ सताने वालो का ये खुलकर विरोध करते हैं, यहां तक की उसे दंडित करने से भी नहीं चूकते। आत्मविश्वासी होने के कारण ये सदैव सीधे तनकर चलते हैं। झूंठे आडम्बरों बनावट एवं दिखावट से ऐसे जातक कोसों दूर होते हैं। प्रायः लोग इन्हें समझने में भूल कर जाते हैं। धनु लग्न के जातकों का भाग्योदय 16, 22 एवं 32 वें वर्ष में होता है।
धनु लग्न में जन्म लेने वाले जातक लम्बे कद के एवं गठीली देह युक्त होते हैं। इनका चेहरा, बड़ा की कलात्मक एवं सुंदल होता है, मानो किसी साँचे में तराशा गया हो। इनकी नासिका का अग्र भाग नुकीला एवं घुमावदार होता है। ऐसे जातकों की गर्दन प्रायः लम्बी होती है, व कान बड़ा आकार लिए होते हैं। ऐसे जातक न्याय प्रिय, साधु स्वभाव वाले, निःस्वार्थ भाव से सबके कार्य करने वाले, मेधावी, स्वाभिमानी, धनवान, उदार हृदय वाले, शान्ति प्रिय, अनेक भाषाओं को समझने वाले, दिखावट व आडम्बरों से दूर ही रहने वाले, सदाचारी एवं धार्मिक प्रवृत्ति वाले, कवित्व एवं साहित्य में गहन रूचि रखने वाले, सृजनात्मक कार्यों के कर्ता, बुद्धिशाली एवं विवेकशील, दयालु एवं गंभीर प्रवृत्ति वाले, स्पष्ट एवं प्रभावशाली वक्ता एवं अवसरों का भरपूर लाभ उठाने वाले होते हैं। स्वदिष्ट भोजन पदार्थों से यथा संभव दूर ही रहने की चेष्टा करते हैं। धनु लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को प्रेम एवं शान्ति से ही काबू किया जा सकता है।
आप अध्यन में विशेष रूचि रखते हैं. धनु लग्न में जन्मे जातक प्रायः स्वस्थ होते हैं . स्वभाव से शांत परन्तु अभिमानी और धार्मिक होते है. धनु लग्न के जातक अत्यंत बुद्धिमता का परिचय देते हुए अपने जीवन के कार्यों को पूरा करते हैं. आप अपने आदर्शों और सिद्धांतों पर अडिग रह कर जीवन में सांसारिक सुखों का भोग करने में सफल होते है.
धनु लग्न के जातक अपने कार्यों को नियमों के अनुसार करना हे पसंद करते हैं , आप दूसरों के लिए आदर्श होते हैं परन्तु अपने किसी कार्य के लिए आप दूसरों पर विश्वास नहीं करते. स्वभाव से दानी ओर समाज में मान प्रतिष्ठा पाने में आप कामयाब होते हैं. गणित , राजनीति , क़ानून एवं ज्योतिष जैसे विषयों में आपकी रूचि रहती है तथा अपने परिश्रम से आप इन क्षेत्रों में सफलता भी अर्जित करते हैं.
ऐसे जातक प्रायः दार्शनिक विचार के हेाते हैं। आस्तिकता का पुट भी इनमें कुछ अधिक होता है, इसलिए पुरानी रूढ़ियों में जकड़े रहना इनकी नियति बन जाती है। ये सहज ही दूसरों पर विश्वास कर लेते हैं, पर दूसरे लोग इनकी इस सादगी का अनुचित लाभ उठाते हैं, फलतः इन्हें धोखा भी खाना पड़ता है। बनावट से ऐसे जातक कोसों दूर भागते हैं. प्रायः लोग इन्हें समझने मे भूल कर जाते है।
धनु लग्न में जन्मे जातक दूसरों के प्रति द्वेष या इर्ष्या की भावना नहीं रखते हैं . अपने अथक परिश्रम तथा धैर्य के कारण आप जीवन में सफलता अर्जित करते हैं. आप विरोधी पक्ष से भी उदारता ओर सम्मान के भाव से मिलते हैं जिसके कारण समाज में आपका आदर होता है.
आर्थिक रूप से आपकी स्तिथि समान्यतः सुदृढ़ हे रहती है तथा आप दूसरों की आर्थिक मदद से भी नहीं हिचकिचाते हैं. आपके स्वभाव में तेजस्विता स्वाभाविक रूप से दिखती है परन्तु यदा कदा उग्रता का भी आप प्रदर्शन करते हैं. राजनीती के क्षेत्र में आप सफलता अर्जित कर सकते हैं. राजकार्य या सरकारी सेवाएं भी आपके लिए अनुकूल हैं परन्तु श्रेष्ठ ओर अनुसंधान कार्यों में ही आपकी रूचि रहेगी और इन्ही कार्यों के द्वारा आपकी प्रतिष्ठा भी बनेगी.
धनु लग्न के जातकों की धर्म के प्रति पूर्ण आस्था होती है. जीवन में कई बार आप तीर्थ यात्रा करेंगे. अपनी व्यवहार कुशलता के कारण आप अपने मित्रों और सहयोगियों के प्रिय तथा सम्मानीय होते हैं. जीवन में कई बार आपको अपने करीबियों से इच्छित सहयोग की प्राप्ति होती है. धनु लग्न के जातक अपने लक्ष्य के प्रति बहुत सचेत और चेष्टावान होते हैं. पूर्ण एकाग्रता के साथ लक्ष्य भेदन की कला में आप निपुण होते हैं. धनु लग्न के पुरुष अल्प्संतती वाले होते है. बचपन में आर्थिक तंगी को झेलते हैं. व्यवसाय ओर प्रेम दोनों ही क्षेत्रों में शत्रुओं का सामना करना पड़ता है.
लग्न स्वामी गुरु, चिन्ह धर्नुधर हैं जिसका पीछे का शरीर घोड़े का होता है हाथ में धनुष जिस पर बाण चढ़ा हुआ होता है, तत्व अग्नि, जाति क्षत्रिय, स्वभाव द्विस्भावी, आराध्य बजरंग बलि होते हैं ।
धनु लग्न के जातक का व्यक्तित्व व् विशेषताएँ। Dhanu Lagn jatak – Sagittarius Ascendent
राशि स्वामी वृहस्पति होने से धनु लग्न के जातक कुशाग्र बुद्धि के स्वामी होते हैं । अद्भुत ऊर्जा के स्वामी ऐसे जातक की नजर हमेशा अपने लक्ष्य पर टिकी रहती है जो लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक होती है । जिस काम में लग जाए उसे पूरा करके ही दम लेते हैं । आधा घोडा ,अग्नि तत्व , व् क्षत्रिय वर्ण इनकी तीव्रता दर्शाते हैं । ज्ञान और गति इस राशि का जीवन के प्रति व्यापक दृष्टिकोण हैं । ये अपनी बात को अथॉरिटी के साथ सबके समक्ष रखते हैं । ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा इनकी तीव्र होती है । इनके स्वभाव में नैसर्गिक तीव्रता होने से कभी कभार इन्हे घमंडी भी समझ लिया जाता है । स्वभाव से काफी रोमेंटिक होते हैं ।
धनु लग्न में जन्म लेने वाले जातक प्रायः दार्शनिक एवं धार्मिक प्रवृत्ति वाले होते हैं। ये पुरानी रूढि़यों एवं संस्कारों में अटूट विश्वास करते हैं एवं उन्ही का अनुसरण करते हैं। जिस प्रकार ये स्वमं स्वभाव एवं मन ने निश्छल एवं सरल होते हैं, ऐसे ही दूसरों को भी समझते हैं। जिस कारण से ये दूसरों पर शीघ्र विश्वास कर लेते हैं, परन्तु दूसरे लोग इनकी इस सादगी का अनुचित लाभ उठाते हैं। जिसके फलस्वरूप इन्हे प्रायः धोखा मिलता है। मेष, मिथुन एवं सिंह लग्न वाले जातकों से इनकी भली प्रकार से पटरी खाती है। धनु लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को फेफड़े एवं वायु सम्बन्धी रोगों एवं विकारों से ग्रसित होने की सम्भावना रहती है। सूर्य, बुध एवं बृहस्पति ग्रह इनको शुभ फल प्रदान करते है एवं शनि व चन्द्रमा अशुभ फल प्रदान करने वाले होते हैं।
धनु लग्न के नक्षत्र Dhanu Lagna Nakshatra :
धनु राशि भचक्र की नवें स्थान पर आने वाली राशि है । राशि का विस्तार 240 अंश से 270 अंश तक फैला हुआ है । मूल नक्षत्र के चार चरण , पूर्वाषाढा नक्षत्र के चार चरण , व् उत्तराषाढा नक्षत्र के प्रथम चरण के संयोग से धनु लग्न बनता है ।
लग्न स्वामी : गुरु
लग्न चिन्ह : प्रतीक धर्नुधर हैं जिसका पीछे का शरीर घोड़े का होता है हाथ में धनुष जिस पर बाण चढ़ा हुआ होता है
तत्व: अग्नि
जाति: क्षत्रिय
स्वभाव : द्विस्भावी
लिंग : पुरुष संज्ञक
अराध्य/इष्ट : बजरंग बलि
ध्यान देने योग्य है की यदि कुंडली के कारक गृह भी तीन, छह, आठ, बारहवे भाव या नीच राशि में स्थित हो जाएँ तो अशुभ हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में ये गृह अशुभ ग्रहों की तरह रिजल्ट देते हैं ।
गुरु Jupiter:
लग्नेश होने से कुंडली का कारक गृह बनता है ।
मंगल Mars:
पंचम व् द्वादश का स्वामी है । धनु लग्न में कारक होता है ।
सूर्य Sun:
नवमेश होने से धनु लग्न की कुंडली में एक कारक गृह होता है ।
बुद्ध Mercury :
सप्तमेश , दशमेश होने से इस कुंडली में सम गृह होता है ।
धनु लग्न के लिए अशुभ/मारक ग्रह – Ashubh Grah / Marak grah Dhanu Lagn – Sagittarius Ascendant
शनि :
द्वितीयेश , तृतीयेश होने से धनु लग्न की कुंडली में एक मारक गृह होता है ।
शुक्र :
छठे व् ग्यारहवें का स्वामी होने से इस लग्न कुंडली में मारक बनता है ।
चंद्र :
अष्टमेश होने से मारक बनता है ।
किसी भी कारक या सम गृह के रत्न को भी धारण किया जा सकता है , लेकिन इसके लिए ये देखना अति आवश्यक है की गृह विशेष किस भाव में स्थित है । यदि वह गृह विशेष तीसरे , छठे , आठवें या बारहवें भाव में स्थित है या नीच
धनु लग्न के लिए शुभ रत्न | Auspicious Gemstones for Sagittarius Ascendant
लग्नेश गुरु , पंचमेश मंगल व् नवमेश सूर्य कुंडली के कारक गृह हैं । अतः इनसे सम्बंधित रत्न पुखराज , मूंगा व् माणिक धारण किया जा सकता है । इस लग्न कुंडली में बुद्ध सप्तमेश व् दशमेश होकर एक सम गृह बनता है । सौम्य गृह होने से धारण किया जा सकता है । किसी भी कारक या सम गृह के रत्न को धारण किया जा सकता है , लेकिन इसके लिए ये देखना अति आवश्यक है की गृह विशेष किस भाव में स्थित है । यदि वह गृह विशेष तीसरे , छठे , आठवें या बारहवें भाव में स्थित है या नीच राशि में पड़ा हो तो ऐसे गृह सम्बन्धी रत्न कदापि धारण नहीं किया जा सकता है । कुछ लग्नो में सम गृह का रत्न कुछ समय विशेष के लिए धारण किया जाता है , फिर कार्य सिद्ध हो जाने पर निकल दिया जाता है । इसके लिए कुंडली का उचित निरिक्षण किया जाता है । उचित निरिक्षण या जानकारी के आभाव में पहने या पहनाये गए रत्न जातक के शरीर में ऐसे विकार पैदा कर सकते हैं जिनका पता लगाना डॉक्टर्स के लिए भी मुश्किल हो जाता है |
ध्यान देने योग्य है की मारक गृह का रत्न किसी भी सूरत में रेकमेंड नहीं किया जाता है , चाहे वो विपरीत राजयोग की स्थिति में ही क्यों न हो ।
कोई भी निर्णय लेने से पूर्व कुंडली का उचित विवेचन अवश्य करवाएं । आपका दिन शुभ व् मंगलमय हो ।
आकाश के 240 डिग्री से 270 डिग्री तक के भाग को धनु राशि के नाम से जाना जाता है. जिस जातक के जन्म समय में यह भाग आकाश के पूर्वी क्षितिज में उदित होता दिखाई देता है, उस जातक का लग्न धनु माना जाता है. धनु लग्न की कुंडली में मन का स्वामी चंद्र अष्टम भाव का अधिपति होता है. यह जातक व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
सूर्य नवम् भाव का स्वामी होकर धनु लग्न के जातक के भाग्य और धर्म का प्रतिनिधित्व करता है. यह जातक के धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
मंगल पंचम और द्वादश भाव का स्वामी होता है. पंचमेश होने कारण यह बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि संदर्भों का प्रतिनिधित्व करता है एवम द्वादशेश होने के नाते निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
शुक्र षष्ठ और एकादश भाव का स्वामी होता है. षष्ठेश होने के नाते यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. एवम द्वादशेश होने के कारण लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
बुध सप्तम भाव का स्वामी होकर जातक के लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रनिधित्व करता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
बृहस्पति प्रथम भाव का स्वामी होकर लग्नेश होता है. यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में बृहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
शनि द्वितीय और तृतीय भाव का स्वामी होता है. द्वितीयेश होने के कारण यह जातक के कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब विषयक मामलों का प्रतिनिधि होता है वहीं तॄतीयेश होने के कारण यह नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों को प्रतिनिधित्व देता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
राहु दशम भाव का स्वामी होकर धनु लग्न में जातक के राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयक प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
केतु चतुर्थ भाव का स्वामी होकर जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
धनु लग्न वालों के लिए मित्र और शत्रु रत्न
1: धनु लग्न में सूर्य नौवे भाव का स्वामी होता है जो भाग्य का घर है। सूर्य लग्नेश गुरू से मित्रतापूर्ण संबंध भी रखता है। इसलिए इस लग्न के व्यक्ति आर्थिक लाभ, भाग्यांन्नति एवं पितृ-सुख आदि के लिए इसे पहन सकते हैं। सूर्यकी महादशा में यह रत्न विशेष फायदेमंद होता है।
2: धनु लग्न में चंद्रमा आठवें भाव का स्वामी है। आठवां भाव मारक होता है इसलिए इस लग्न के जातकों को मोती धारण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से इन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
3: धनु लग्न में मंगल पंचम और बारहवें भाव का स्वामी होता है। जो कि शुभ हैं इसलिए संतान सुख, यश-कीर्ति, मान-सम्मान, बुद्धि-वृद्धि तथा भाग्योदया के लिए मूंगा अवश्य धारण करना चाहिए।
4: धनु लग्न में बुध सातवें और दसवें भाव का स्वामी होता है। यह केंद्राधिपति दोष से दूषित होता है लेकिन इसके बाद भी यदि बुध लग्न, दूसरे, पांचवें, नवें, दसवें या ग्यारवें भाव में स्थित हो तो पन्ना धारण करने से बुध की महादशा में आर्थिक लाभ, व्यवसायमें उन्नति तथा समृद्धि में बढ़ोत्तरी होती है। यदि बुध किसी निकृष्ट भाव में स्थित हो तो प्न्ना पहनना ही श्रेयस्कर होता है।
5: धनु में गुरू लग्न और चौथे भाव का स्वामी होता है। यह अत्यंत शुभ परिस्थिति बनाता है इसलिए इस लग्न में पुखराज आजीवन धारण करना चाहिए।
6: धनु लग्नम में शुक्र छठें व ग्यारवें भाव का स्वामी है। इसलिए यह इस लग्न के लिए शुभ ग्रह नहीं माना गया है। लग्न स्वामी गुरू और शुक्र भी एक दूसरे के शत्रु ग्रह हैं इसलिए इस लग्न में जातको कों हीरा नहीं पहनना चाहिए।
7: धनु लग्न में शनि दूसरे और तीसरे भाव का स्वामी होता है। ये दोनों भाव अशुभ हैं और गुरू और शनि में शत्रुता भी है इसलिए इस लग्न वाले व्यक्ति नीलम न पहनें।