गोचर - फलित Transit of planets - Predictions
दशा का मतलब होता है "समय की अवधि", जिसे एक निश्चित ग्रह द्वारा शासित किया जाता है। यह विधि चंद्रमा नक्षत्र पर आधारित है जिसकी वजह से इसकी भविष्यवाणी को सटीक माना जाता है। विंशोत्तरी दशा को "महादशा" के नाम से भी जाना जाता है। दशा अवधि को सरल शब्दों में घटनाक्रम का नाम दिया जा सकता है। हम सभी के जीवन में एक के बाद एक घट्नाएं लगातार बदलती रहती है। किस के बाद कौन सी घटना घटित होगी इसका निर्धारण दशा क्रम के आधार पर होता है। जन्म कुंडली में बन रहे योगों के फल दशा काल में प्राप्त होते हैं।
ग्रह गतिशील हैं और वे एक राशि से दूसरी राशि में सदैव भ्रमण करते रहते हैं। जन्म समय जो ग्रह
जिस राशि में जितने अंशों पर होता है उनको ही लग्न स्थिर करके उस स्थान पर स्थापित कर दिया
जाता है। यही जातक का जन्मचक्र (कुंडली) होता है। जन्मचक्र के आधार पर ही
दशा का निर्णय करके शुभ-अशुभ समय को इंगित करा जाता है।
फलादेश में गोचर का महत्व
जन्म समय के बाद ग्रह जिस-जिस राशि में भ्रमण करते रहते हैं वह स्थिति गोचर कहलाती है। गो शब्द संस्कृत भाषा की ''गम्'' धातु से बना है। गम् का अर्थ है 'चलने वाला' आकाश में अनेक तारे है। वे सब स्थिर हैं। तारों से ग्रहों को पृथक दिखलाने के कारण ग्रहों को गो नाम रखा गया है। चर का अर्थ है 'चलना' अर्थात् अस्थिर बदलने वाला इसलिये गोचर का अर्थ हुआ ग्रहों का चलन अर्थात ग्रहों का परिवर्तित प्रभाव।जन्म कुण्डली में ग्रहों का एक स्थिर प्रभाव है और गोचर में ग्रहों का उस समय से परिवर्तित बदला हुआ प्रभाव दिखलाई पड़ता है।
फल कथन (फलित) के सटीक होने में गोचर की भूमिका अत्यंत ही महत्वपुर्ण हो जाति है। गोचर का महत्त्व प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक बना हुआ है। ग्रहों की गति हमेशा ही बनी रही है। ज्योतिष में शोधपरक कार्यों में गोचर का बहुत महत्त्व होता है क्योंकि बड़े ग्रहों (जैसे शनि, गुरु, राहु, केतु) का पुनः उसी स्थान से भ्रमण होना प्रायः घटना की पुनरावृत्ति का संकेत होता है। मात्र गोचर के माध्यम से ही एक ज्योतिषी जातक का दैनिक, मासिक या वार्षिक भविष्य कथन कर सकता है। गोचर की गणना चन्द्र राशि के आधार पर की जाती है। यदि चंद्रमा बली नहीं है अर्थात अंशों में कम या अमावस्या का है तो इस स्थिति में लग्न से ग्रहों का भ्रमण अधिक सटीक प्रभावशाली मानते हुए गोचर का भविष्य फल कथन करना उपयुक्त रहता है तथा फलित भी अधिक सटीक होता है। यदि किसी जातक की कुंडली में महादशा और अन्तद्रशा दोनों ही योगकारक ग्रह की चल रही है तथा उस जातक का गोचर भी उच्छा हो तो वह उस जातक का गोचर भी अच्चा हो तो वह उस जातक के जीवन का सर्वश्रेष्ट समय होता है। इस समय का यदि जातक सदुपयोग करे तो उसे हर कार्य में सफलता मिलती है। मेहनत का शुभ परिणाम शीघ्र ही प्राप्त होती है। जातक सफलता की उन ऊँचाइयों को छूता है जिसकी कल्पना वह स्वयं नही कर सकता। इस प्रकार की स्थिति बहुत ही अल्प देखने में आयी है। यह स्थिति प्रारब्ध की देन है। ठीक इसके विपरीत यदि किसी जातक की कुंडली में महादशा और अंतर्दशा दोनों ही जातक के लिए हक में नहीं हैं तब इस स्थिति में हमनें देखा है कि जातक के लिए गोचर का महत्त्व बहुत अधिक बढ जाता है।
दशा और गोचर दोनों में श्रेष्ठ कौन हैं?
दशा और गोचर दोनों का महत्व समझने के बाद आईये समझते है कि दोनों के दोष क्या हैं?
विंशोतरी दशा की प्रशंसा लगभग सभी ज्योतिष शास्त्रों में की गई है। फिर भी इस विशोंतरी दशा की कुछ कमियां सामने आती हैं। जैसे:
सामान्यत: प्रयोग करने पर विशोंतरी दशा में निम्न दोष या कमियां सामने आती हैं।
• विशोंतरी दशा चंद्र स्पष्ट पर आधारित दशा
• विंशोतरी दशा की भुक्त और भोग्य दशा का निर्धारण चंद्र स्पष्ट से निकाला जाता है। इसमें जरा भी गलती या त्रुटि होने पर एक बड़ा अंतर आने की संभावनाएं रहती हैं। जबकि गोचर से फलादेश करने के लिए मात्र लग्न या चंद्र राशि और अन्य ग्रहों की स्थिति की जानकारी होना ही काफी है। जन्म समय में कुछ मिनटों का अंतर होने पर भी कई बार दशा में अंतर आने से फलादेश में सटिकता नहीं आ पाती है। इसके विपरीत गोचर के ग्रहों में चंद्र तीव्र गति ग्रह हैं। वह सवा दो दिन के लगभग राशि बदलता है। इसलिए गोचर का प्रयोग कर किया गया फलादेश सही रहता है।
• विशोंतरी दशाओं का क्रम और वर्ष संख्या किस आधार पर ली गई है। इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं मिलता है।
• अनेकों अनेक ज्योतिष शास्त्र विभिन्न दशाओं का वर्णन करते हैं। विंशोतरी दशा भी इनमें से एक है। ग्रहों का क्रम सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि है। जबकि विशोंतरी महादशा क्रम केतु, शुक्र, सूर्य,
1. व्यक्ति की कुण्डली में घटना विशेष के घटित होने की सूचना हो।
2. महादशा, अंतरदशा समय विशेष पर उसे सूचित कर रही हों तथा
3. गोचर में अर्थात् उस दिन समय विशेष पर ग्रहों की स्थिति भी वैसा ही कुछ निर्देशित कर रही है।
इसे यूँ समझा जा सकता है कि एक व्यक्ति मान ले उसके विवाह का प्रश्न है और वह जानना चाहता
है कि वह कब होगा तो सर्वप्रथम तो कुण्डली में देखना होगा कि इस व्यक्ति के “विवाह योग“ हैं भी
या नहीं। यदि नहीं तो फिर लाख विवाह संबंधी दशाएं चलें, गोचर में वैसी स्थितियाँ बने बात कार्यरूप
में परिणित नहीं हो पायेगी। लेकिन यदि विवाह योग है तो फिर अनुमान लगाना होगा कि लगभग
कितनी आयु में होगा विवाह शीघ्र 24-25 तक, सामान्य रूप में 26-28 वर्ष, विलम्ब में 28-29 से 34-35
तक या बहुत विलम्ब से 45-50 तक। जब इसका निर्णय हो जाए तो दशाओं पर ध्यान देना होगा
कि उस समय मध्य कब योग कारक अर्थात घटना विशेष को फलदायी करने वाले ग्रह से संबंधित
दशा चलेंगी। यदि समय मध्य दो तीन ऐसे ही ग्रहों की दशा निकट हों तो ग्रहों के बलाबल, कारकत्व
आदि का विचार करके दशा विशेष को परिणाम सूचक माना जाना चाहिए। लेकिन घड़ी में जैसे छोटी
सुई (महत्वपूर्ण सुई) के बारह पे रहने पर भी बारह तभी बजते हैं जब बड़ी सुई भी वहीं आ जाती है।
यदि सूक्ष्म गणना हो तो सेकेण्ड की सुई भी वहीं आ जाए, याने कि बारह नम्बर पर जिस क्षण ऐसा होता
है टन-टन की आवाज गूँज पड़ती है। सीधे रूप में कहें तो घटना विशेष घटित हो जाती है।
इस प्रकार उपरोक्त स्थिति से गुजरने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गोचर का अपना महत्व होता है
किंतु यह एक तो अधिक सूक्ष्मता हेतु है और दूसरा सहायक रूप में है। अतः कुण्डली व दशा के
महत्वपूर्ण व श्रेष्ठ होते हुए भी घटना घटित होने का सूक्ष्म विचार गोचर से ही संभव है।
गोचर का अध्ययन करने में मुख्य हैं चन्द्र राशि अर्थात जन्म के समय चंद्रमा को राशि विशेष पर स्थिति। इसके
आधार पर ही ग्रहों की नाप-तौल, शुभ-अशुभ के रूप में करी जाती है।
सूर्य का भ्रमण, बारह राशियों में चन्द्र राशि से: जब सूर्य उस राशि में भ्रमण करता है जिसमें
जन्मालिक चन्द्रमा हो तो व्यक्ति को धन-हानि, अपयश, बीमारी का सामना करना पड़ता है। जब सूर्य
चन्द्रराशि से दूसरी राशि में हो तो आर्थिक पक्ष निर्बल व धोखे की संभावना होती है। सूर्य चन्द्रराशि
से तीसरी राशि में होने पर सुख, व्याधियों से मुक्ति, यश देता है। इसी प्रकार संक्षिप्त रूप में कहें तो;
सूर्य जन्मकालिक चन्द्रराशि से जब-जब “तीसरी, छठी, दसवी व ग्यारहवीं राशि“ में भ्रमण करता है तब
वह शुभ फल देता है अन्य राशियों में भ्रमण करते समय अशुभ फल।
चन्द्र का भ्रमण, बारह राशियों में चंद्र राशि से: जब चन्द्रमा, जन्मकालिक “पहली, तीसरी, छठी,
सातवीं, दसवीं, ग्यारहवीं“ राशि में भ्रमण करता है तो शुभ फलदायक होता है। अन्य राशियों में अशुभ।
मंगल का भ्रमण, बारह राशियों में चन्द्र राशि से: जब मंगल, जन्मकालिक चन्द्रमा की राशि से
“तीसरी, छठी, ग्यारहवीं“ राशि में भ्रमण करता है तो शुभ फलदायक होता है। अन्य में अशुभ नहीं।
बृहृस्पति भ्रमण, बारह राशियों में चन्द्र राशि से: जब बृहृस्पति, जन्मकालिक चन्द्रमा की राशि से
“दूसरी, पांचवीं, सातवीं नवीं, ग्यारहवीं“ राशि में भ्रमण करता है तो शुभ फलदायक अन्यथा नहीं।
बुध का भ्रमण, बारह राशियों में चन्द्र राशि से: जब बुध जन्मकालिक चन्द्रमा की राशि से “चौथी,
छठी, आठवीं, दसवीं, ग्यारहवीं“ राशि में भ्रमण करता है तो शुभ फलदायक होगा अन्यथा नहीं।
शनि का भ्रमण, बारह राशियों में चन्द्र राशि से: जब शनि, जन्मकालिक चन्द्रमा की राशि से
“तीसरी, छठी, ग्यारहवीं“ राशि में भ्रमण करता है तो शुभ फलदायी सिद्ध होता है। अन्यथा नहीं।
शुक्र का भ्रमण, बारह राशियों में चन्द्र राशि से: जब शुक्र, जन्मकालिक चन्द्रमा राशि से “दूसरी,
तीसरी, चौथी, पाँचवीं, आठवीं, नवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं“ राशि में भ्रमण करता है तो शुभ फलदायी होगा
अन्यथा नहीं।
गोचर में ग्रह शुभ होने पर भी पूर्ण फलदायी तभी सिद्ध होते हैं जब वे वेध रहित हो। वेध में देखा
जाता है कि ग्रह से स्थान विशेष पर कोई भी अन्य ग्रह न हो। यदि वहाँ पर ग्रह होता है तो वेध हो
जाने से परिणाम में “शुभ“ न्यून हो जाता है अन्यथा पूर्ण परिणाम प्राप्त होते हैं। ऊपर सप्त ग्रहों के शुभ
स्थान जन्मकालिक चन्द्रराशि के आधार पर बताये जा चुके हैं, उन्हीं स्थान विशेष के लिए (चन्द्रराशि के
आधार पर) वेध स्थान निम्न होंगे:
सूर्य शुभ स्थान वेध स्थान
3 9
6 12
10 4
11 5
चन्द्र शुभ स्थान वेध स्थान
1 5
3 9
6 12
7 2
10 4
11 8
मंगल शुभ स्थान वेध स्थान
3 12
6 9
11 5
बृहृस्पति शुभ स्थान वेध स्थान
2 12
5 4 7 3
9 10
11 8
शुक्र शुभ स्थान वेध स्थान
1 8
2 7 3 1
4 10
5 9
8 5
9 11
11 6 12 3
बुध शुभ स्थान वेध स्थान
2 5
4 3
6 9
8 1
10 8
11 12
शनि शुभ स्थान वेध स्थान
3 12
6 9
11 5
नोट: कोई भी ग्रह दूसरे ग्रह के लिए वेध का कारण बन सकता है मात्र सूर्य और शनि में तथा चन्द्र
व बुध में किसी प्रकार का वेध नहीं होता है।
एक उदाहरण द्वारा इसे सहज समझा जा सकता है। माना किसी व्यक्ति की जन्म राशि मेष (जन्म
समय चन्द्रमा मेष राशि में था) है उसे चन्द्र के गोचर फल को जानना है। दिन विशेष को पंचांगानुसार
माना चन्द्रमा मिथुन राशि (जन्मराशि से तीसरी राशि) में भ्रमण कर रहा है तो यह शुभ स्थिति है। यह
चन्द्रमा अपना पूर्ण फल देगा अन्यथा नहीं इसके लिए वेधस्थान को भी देखना होगा। चन्द्रमा के तीसरे
स्थान के लिए वेधस्थान को भी देखना होगा। चन्द्रमा के तीसरे स्थान के लिए वेध स्थान है - नवम स्थान अतः
यह स्थान खाली होना चाहिए, कोई ग्रह न हो। मात्र बुध हो सकता है क्योंकि चन्द्र व बुध में परस्पर
वेध नहीं होता किंतु शनि, सूर्य, मंगल, शुक्र, बृहृस्पति में से एक या एकाधिक ग्रहों के होने पर वेध
हो जाने के कारण शुभ परिणाम की प्राप्ति नहीं होगी ।
गोचर अध्ययन में यदि हम यह भी ध्यान रखें कि कोई ग्रह अपना पूर्ण, समग्र फल कितने अंशों के
मध्य देता है तो संभवतः हम घटना के घटित होने के गणना का सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने में
सफल हो सकते हैं। ग्रहों के यह अंश निम्न प्रकार हैं:
सूर्य प्रथम 10 अंश (0 से 10)
शनि अंत के 10 अंश (20 से 30)
चन्द्र अंत के 10 अंश (20 से 30)
मंगल प्रथम 10 अंश (0 से 10)
बुध पूर्ण 30 अंश (0 से 30)
बृहस्पति मध्य के 10 अंश (10 से 20)
शुक्र मध्य के 10 अंश (10 से 20)
गोचर द्वारा इसी क्रम में और भी सूक्ष्मता से विचार होता है। गोचर का अर्थ है दैनिक ग्रह गति
का अध्ययन। किसी भी घटना के घटित होने के पीछे मुख्यतः तीन रूपों से उसकी व्याख्या की जा
सकती है।
जन्मपत्री में किसी भी घटना की जानकारी के साथ उसके घटने के समय की भी जानकारी आवश्यक होती है। इसके लिए दशा एवं गोचर की दो पद्धतियां विशेष हैं।
दशा से घटना के समय एवं गोचर से उसके शुभाशुभ होने का ज्ञान प्राप्त होता है। दशा और गोचर दोनों ही ज्योतिष में जातक को मिलने वाले शुभाशुभ फल का समय और अवधि जानने में विशेष सहायक हैं। इसलिए ज्योतिष में इन्हें विशेष स्थान और महत्व दिया गया है। शुभाशुभ फलकथन के लिए दोनों को बराबर का स्थान दिया गया है। दशा का फल गोचर के बिना अधूरा है और गोचर का फल दशा के बिना। दोनों को आपसी संबंध समझने के लिए सबसे पहले दशा को समझते हैं-
ज्योतिषशास्त्र में परिणाम की प्राप्ति होने का समय जानने के लिए जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनमें से एक विधि है विंशोत्तरी दशा। विंशोत्तरी दशा का जनक महर्षि पाराशर को माना जाता है। पराशर मुनि द्वारा बनाई गयी विंशोत्तरी विधि चन्द्र नक्षत्र पर आधारित है। इस विधि से की गई भविष्यवाणी कामोवेश सटीक मानी जाती है, इसलिए ज्योतिषशास्त्री वर्षों से इस विधि पर भरोसा करके फलकथन करते आ रहे हैं। विशोत्तरी दशा पद्धति ज्यादा लोकप्रिय एवं मान्य है। विंशोत्तरी दशा के द्वारा हमें यह भी पता चल पाता है कि किसी ग्रह का एक व्यक्ति पर किस समय प्रभाव होगा।
"महर्षि पराशर" को विंशोत्तरी दशा का पिता माना जाता है। वैसे तो महर्षि ने 42 अलग-अलग दशा सिस्टम के बारे में बताया, लेकिन उन सब में यह सबसे अच्छी दशा प्रणाली में से एक है।
प्रत्येक ग्रह अपने गुण-धर्म के अनुसार एक निश्चित अवधि तक जातक पर अपना विशेष प्रभाव बनाए रखता है जिसके अनुसार जातक को शुभाशुभ फल प्राप्त होता है। ग्रह की इस अवधि को हमारे महर्षियों ने ग्रह की दशा का नाम दे कर फलित ज्योतिष में विशेष स्थान दिया है। फलित ज्योतिष में इसे दशा पद्धति भी कहते हैं। भारतीय फलित ज्योतिष में 42 प्रकार की दशाएं एवं उनके फल वर्णित हैं, किंतु सर्वाधिक प्रचलित विंशोत्तरी दशा ही है। उसके बाद योगिनी दशा है। आजकल जैमिनी चर दशा भी कुछ ज्योतिषी प्रयोग करते देखे गये हैं।
विंशोतरी दशा महत्व
विंशोत्तरी दशा से फलकथन शत-प्रतिशत सही पाया गया है। महर्षियों और ज्योतिषियों का मानना है कि विंशोत्तरी दशा के अनुसार कहे गये फलकथन सही होते हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इस दशा की सर्वाधिक चर्चा की गई है। दशा चंद्रस्पष्ट पर आधारित है। जन्म समय चंद्र जिस नक्षत्र में स्पष्ट होता है, उसी नक्षत्र के स्वामी की दशा जातक के जन्म समय रहती है। नक्षत्र का जितना मान शेष रहता है, उसी के अनुपात में दशा शेष रहती है। किसी भी ग्रह की पूर्ण दशा को महादशा कहते हैं। महादशा के आगामी विभाजन को अंतर्दशा कहते हैं। यह विभाजन सभी ग्रहों की अवधि के अनुपात में रहता है। जो अनुपात महादशा की अवधि का है उसी अनुपात में किसी ग्रह की महादशा की अंतर्दशा होती है। उदाहरण के लिए शुक्र की दशा 20 वर्ष की होती है जबकि सभी ग्रहों की महादशा की कुल अवधि 120 वर्ष होती है। इस प्रकार शुक्र को 120 वर्षों में 20 वर्ष प्राप्त हुए। इसी अनुपात से 20 वर्ष में शुक्र की अंतर्दशा को 3 वर्ष 4 मास 0 दिन प्राप्त होते हैं जो कि शुक्र की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा की अवधि हुई। इसी प्रकार शुक्र महादशा में सूर्य की अंतर्दशा 1 वर्ष, चंद्र की अंतर्दशा 1 वर्ष 8 मास 0 दिन की होगी।
अंतर्दशा का क्रम भी उसी क्रम में होता है जिस क्रम से महादशा चलती हैं अर्थात केतु, शुक्र, सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी। प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभाजन होता है। महादशा को अंतर्दशा में विभक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा में प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है।
फलकथन की सूक्ष्मता में पहुंचने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं। दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा। कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।
दशा फल करते समय कुंडली में आपसी संबंधों पर विशेष विचार करना चाहिए जैसे: 1। दो या अधिक ग्रहों का एक ही भाव में रहना। 2। दो या अधिक ग्रहों की एक दूसरे पर दृष्टि। 3। ग्रह की अपने स्वामित्व वाले भाव में बैठे ग्रह पर दृष्टि हो। 4। ग्रह जिस ग्रह की राशि में बैठा हो, उस ग्रह पर दृष्टि भी डाल रहा हो। 5। दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों। 7। दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों और उनमें से कोई एक दूसरे पर दृष्टि डाले। 8। दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठकर एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हों। दशाफल विचार में लग्नेश से पंचमेश, पंचमेश से नवमेश बली होता है एवं तृतीयेश से षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश बली होता है। इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध, पूर्ण चंद्र केंद्रेश हों तो शुभ फल नहीं देते, जब तक उनका किसी शुभ ग्रह से संबंध न हो। ऐसे ही पाप ग्रह क्षीण चंद्र, पापयुत बुध तथा सूर्य, शनि, मंगल केन्द्रेश हों तो पाप फल नहीं देते, जब तक कि उनका किसी पाप ग्रह से संबंध न हो। यदि पाप ग्रह केन्द्रेश के अतिरिक्त त्रिकोणेश भी हो तो उसमें शुभत्व आ जाता है। यदि पाप ग्रह केंद्रेश होकर 3, 6, 11 वें भाव का भी स्वामी हो तो अशुभत्व बढ़ता है। चतुर्थेश से सप्तमेश और सप्तमेश से दशमेश बली होता है।
महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा। यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है। जैसे- गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं। दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा। इसके विपरीत यदि गुरु मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी।
प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभाजन होता है। महादशा को अंतर्दशा में विभक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा में प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है। फलकथन की सूक्ष्मता में पहुंचने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं।
दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा। कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।
वक्री गुरु का कुंडली या जीवन में प्रभाव
वक्री ग्रहों के संबंध में ज्योतिष प्रकाशतत्व में कहा गया है कि-“क्रूरा वक्रा महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभा।।” अर्थात क्रूर ग्रह वक्री होने पर अतिक्रूर फल देते हैं तथा सौम्य ग्रह वक्री होने पर अति शुभफल देते हैं। जातक तत्व और सारावली के अनुसार यदि शुभग्रह वक्री हो तो मनुष्य को राज्य, धन, वैभव की प्राप्ति होती है किंतु यदि पापग्रह वक्री हो तो धन, यश, प्रतिष्ठा की हानि होकर प्रतिकूल फल की संभावना रहती है। जन्म समय में वक्री ग्रह जब गोचरवश वक्री होता है तो वह शुभफल प्रदान करता है बशर्ते ऐसे जातक की शुभ दशांतर्दशा चल रही हो। क्या हैं वक्री ग्रह: फलित ज्योतिष के अनुसार जब कोई ग्रह किसी राशि में गतिशील रहते हुए अपने स्वाभाविक परिक्रमा पथ पर आगे को न बढ़कर पीछे की ओर (उल्टा) गति करता है तो वह वक्री कहा जाता है। जो ग्रह अपने परिक्रमा पथ पर आगे को गति करता है तो वह मार्गी कहा जाता है। वक्री ग्रह कुंडली में जातक विशेष के चरित्र-निर्माण की क्रिया में सहायक होते हैं। जिस भाव और राशि में वे वक्री होते हैं उस राशि और भाव संबंधी फलादेश में काफी कुछ परिवर्तन आ जाता है। सूर्य एवं चंद्र मार्गी ग्रह हैं, ये कभी भी वक्री नहीं होते हैं। वक्री होने पर शुभाशुभ परिवर्तन: भारतीय ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति जिस भाव में स्थित होकर वक्री होता है, उस भाव के फलादेशों में अनुकूल व सुखद परिवर्तन आते हैं। आमतौर पर बृहस्पति के वक्री होने पर व्यक्ति अपने परिवार-कुटुंब, देश, संतान, जिम्मेदारियों, धर्म व कत्र्तव्य के प्रति ज्यादा चितिंत हो जाता है। जन्म कुंडली के दूसरे स्थान में आकर जब बृहस्पति वक्री होता है, तब अपनी दशा-अन्तर्दशा में अपार धन-दौलत देता है। नवम भाव में वक्री होने पर जातक के भाग्य द्वार खोल देता है एवं द्वादश स्थान में वक्री होने पर जातक को जन्मभूमि की ओर ले जाता है। मकर राशि में भले ही नीच का गुरु विराजमान हो परंतु यदि वह वक्री हो तो उच्च की तरह ही शुभ फल प्रदान करेगा। वक्री गुरु का प्रभाव: गुरु विद्या-बुद्धि और धर्म-कर्म का स्थाई कारक ग्रह है। मनुष्य के विकास के लिए यह अति महत्वपूर्ण ग्रह है। गुरु का मनुष्य के आंतरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक जीवन पर समुचित प्रभाव पड़ता है। गोचरवश गुरु के वक्री रहते हुए धैर्य व गम्भीरता से कार्य की पकड़ कर नई योजना व नए कार्यों को गति देनी चाहिए। जिन जातकों के जन्म समय में गुरु वक्री हो, उनको गोचर भ्रमणवश वक्री होने पर अटके कार्यों में गति एवं सफलता मिलेगी और शुभ फलों की प्राप्ति होगी। बृहस्पति और अन्य राशिगत प्रभाव: वर्तमान में कर्क राशि में गोचर भ्रमणवश पहले, चैथे, आठवें, बारहवें गुरु के अशुभ प्रभाव से प्रभावित कर्क, मेष, धनु एवं सिंह राशि के व्यक्तियों को राहत मिलेगी, जब बृहस्पति वक्री होता है तो ऐसे व्यक्तियों के भाग्य में परिवर्तन आता है। कर्क राशि में गतिशील वक्री गुरु अपनी पंचम पूर्ण दृष्टि से वृश्चिक राशि में गतिशील नैसर्गिक रूप से पापग्रह शनि को देखेगा। जब कोई शुभ ग्रह वक्री होकर किसी अशुभ ग्रह से दृष्टि संबंध बनाता है तो उसके अशुभ फलों में कमी आकर शुभत्व में वृद्धि होती है। अतः इस दौरान शनि की ढैया से पीड़ित मेष व सिंह राशि के जातक एवं साढ़ेसाती से प्रभावित तुला, वृश्चिक व धनु राशि के व्यक्तियों को राहत मिलेगी, उनके बिगडे़ और अटके काम बनने लगेंगे। वक्री गुरु के प्रभाव से अन्य समस्त राशियां भी प्रभावित होंगी। कब होते हैं गुरु वक्री: बृहस्पति अपनी धुरी पर 9 घंटा 55 मिनट में पूरी तरह घूम लेता है। यह एक सेकेंड में 8 मील चलता है तथा सूर्य की परिक्रमा 4332 दिन 35 घटी 5 पल में पूरी करता है। स्थूल मान से गुरु एक राशि पर 12 या 13 महीने रहता है। एक नक्षत्र पर 160 दिन व एक चरण पर 43 दिन रहता है। बृहस्पति ग्रह अस्त होने के 30 दिन बाद उदय होता है। उदय के 128 दिन बाद वक्री होता है। वक्री के 120 दिन बाद मार्गी होता है तथा 128 दिन बाद पुनः अस्त हो जाता है। कर्क राशि में वक्री गुरु के गोचर भ्रमण से पहले, चैथे, आठवें, बारहवें बृहस्पति के अशुभ प्रभाव से प्रभावित कर्क, मेष, धनु एवं सिंह राशि के जातकों को राहत मिलेगी। साथ ही शनि पर वक्री गुरु की कृपा दृष्टि से मेष, सिंह राशि पर गतिशील शनि की ढैया एवं तुला, वृश्चिक, धनु राशि के जातकों को शनि की साढे़साती के अशुभ प्रभाव से मुक्ति मिलेगी। गुरु की दशा लगने पर बड़ों का आदर सम्मान करें। अपने बुजुर्गों का आशीर्वाद लें तथा गुरुवार का व्रत करने से गुरु के शुभ फलों में वृद्धि हो जाती है जबकि अशुभ फलों में कमी आती है। वक्री गुरु की दशा होने पर गुरु से संबंधित वस्तुओं यथा केसर, हल्दी, पीले कपड़े, फूल, सोना, पीतल आदि का दान देना भी शुभ फल देता है।
जब आप कुण्डली को देखें तो लग्न, लग्नेश को देखें कि वह किस हालत में है अर्थात बली हैं या निर्बल है या सामान्य सी अवस्था में ही हैं. फिर आप चंद्रमा को देखें कि किस राशि में है और बली है या निर्बल है? उसके बाद आप चंद्र जिस राशि में है उस राशि स्वामी का अध्ययन करें, इसे चंद्रेश कहेगें. चंद्र व चन्द्रेश का बल भी देखा जाना चाहिए. अगर ये चारों बली हैं तो कुण्डली काफी बली हो जाती है. इनके बलाबल में कमी होने पर कुण्डली कमजोर हो जाती है. इसी तरह से कुण्डली के हर पहलू का निरीक्षण किया जाता है.
भाव का परिचय – Introduction Of House in Astrology
जन्म कुंडली में बारह भाव होते हैं और सभी भाव जीवन के किसी ना किसी क्षेत्र से संबंध रखते हैं. कुण्डली में कुछ भाव अच्छे तो कुछ भाव बुरे भी होते हैं. जिस भाव में जो राशि होती है उसका स्वामी उस भाव का भावेश कहलाता है. हर भाव में भिन्न राशि आती है लेकिन हर भाव का कारक निश्चित होता है इसलिए भाव, भावेश तथा भाव के कारक का अध्ययन जरुर करना चाहिए कि वह कुण्डली में किस अवस्था में है. अकसर व्यक्ति भाव तथा भाव स्वामी यानि भावेश का ही अध्ययन करता है और कारक को भूल जाता है. जिससे फलित भी कई बार ठीक नहीं बैठता है.
कुण्डली में पहले, पांचवें तथा नवें भाव को अत्यधिक शुभ माना गया है और इन्हें त्रिकोण स्थान कहा गया है. फिर चौथे,सातवें, दसवें भाव को त्रिकोण से कुछ कम शुभ माना गया है और इन्हें केन्द्र स्थान कहा गया है. पहले भाव को त्रिकोण तथा केन्द्र दोनों का ही दर्जा दिया गया है. तीसरे, छठे तथा एकादश भाव को त्रिषडाय का नाम दिया गया है और इन्हें अशुभ भाव ही कहा गया है. दूसरे, आठवें तथा बारहवें भाव को सम कहा गया है लेकिन आठवें व बारहवें भाव में समता जैसी कोई बात दिखाई नहीं देती है बल्कि आठवां भाव तो सदैव रुकावट देता है. फिर भी जो रिसर्च करते हैं उनकी कुण्डली में इसी भाव से रिसर्च देखी जाती है. साथ ही पैतृक संपत्ति व बिना कुछ किए धन की प्राप्ति अथवा कमीशन आदि इसी भाव से देखा जाता है. इसलिए यह भाव कई बातों में अशुभ होने के साथ कई बार शुभता भी दे देता है. शायद इसी वजह से इस भाव को सम कहा गया है.
बुरे भाव के स्वामी अच्छे भावों से संबंध बनाए तो अशुभ होते हैं. अच्छे भाव के स्वामी अच्छे भाव से संबंध बनाए तो शुभ माने जाते हैं. किसी भाव के स्वामी का अपने भाव से पीछे जाना अच्छा नहीं होता है जैसे कि पंचम भाव का स्वामी यदि अपने भाव से एक भाव पीछे चतुर्थ भाव में चला जाता है तब इसे कई बातों में अच्छा नहीं माना जाता है. वैसे त्रिकोण का संबंध केन्द्र से बनना राजयोग दे रहा है लेकिन पांचवें भाव से मिलने वाली अन्य कुछ बातों में कमी आ सकती है क्योंकि हर भाव का पिछला भाव उससे बारहवाँ बन जाता है और बारहवाँ भाव व्यय भाव हैं जिससे उस भाव के फलों का व्यय या ह्रास हो जाता है. यदि भाव स्वामी का अपने भाव से अगले भाव में जाता है तब यह अच्छा माना जाता है क्योंकि आगे जाना भाव के फलों में वृद्धि करने वाला होता है लेकिन यहाँ भी यह देखना जरुरी है कि अगला भाव बुरा तो नहीं है अगर हां तब फलों में वृद्धि तो होगी लेकिन पहले कुछ हानि भी हो सकती है यदि भाव स्वामी पीड़ित हो रहा है.
ग्रहो की स्थिति – Planetary Position In The Horoscope
ग्रह स्थिति का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण है. पहले यह देखें कि किस भाव में कौन सा ग्रह गया है. ग्रह जिस राशि में स्थित है वह उसके साथ कैसा व्यवहार करती है अर्थात ग्रह मित्र राशि में स्थित है या शत्रु राशि में स्थित है. ग्रह उच्च, नीच, मूल त्रिकोण या स्वराशि में है, यह देखें. ग्रह, कुंडली के अन्य कौन से ग्रहों से संबंध बना रहा है. जिनसे संबंध बना रहा है वह शुभ हैं या अशुभ हैं, यह जांचे. जन्म कुंडली में ग्रह किसी तरह के योग में शामिल है या नहीं. इन सभी बातों को आप “+” या “-” से लिख सकते हैं कि कितनी बातें कुण्डली के लिए अच्छी हैं और कितनी खराब. इससे आप कुंडली की क्षमता का पता भी लगा सकते हैं कि कुंडली में देने की क्षमता कितनी है.
जो ग्रह स्थिति आप जन्म कुण्डली में देख रहे हैं उन्हें नवांश कुण्डली में जरुर देखें क्योंकि कई बार जन्म कुण्डली का बली ग्रह नवांश में जाकर कमजोर हो जाता है तब अच्छे फलों की प्राप्ति नहीं होती है और अकसर व्यक्ति समझ नहीं पाता कि कुंडली बली होने पर भी शुभ फल क्यों नहीं दे पा रही है. इसलिए वर्ग कुंडलियों का अध्ययन आवश्यक माना गया है. जिस भाव के फल देखने हैं तो उस भाव से संबंधित वर्ग कुंडली का अध्ययन करें. उदाहरण के लिए यदि संतान संबंधी फल देखने हैं तब जन्म कुण्डली के पंचम भाव, पंचमेश तथा संतान का कारक ग्रह गुरु का जन्म कुण्डली में तो अध्ययन करेगें ही, साथ ही इन सभी को सप्तांश कुंडली में भी देखेगें कि यहाँ इनकी क्या स्थिति है. साथ ही सप्तांश कुंडली के लग्न, लग्नेश, पंचम भाव, पंचमेश का भी अध्ययन करेगें. जितनी कम पीड़ा उतना अच्छा फल होगा. इसी तरह से सभी वर्ग कुंडलियों का अध्ययन किया जाएगा तभी सटीक फलादेश दिया जा सकता है.
कुंडली का फलकथन – Prediction Of Birth Chart
भाव तथा ग्रह के अध्ययन के बाद फलित करने का प्रयास करें. पहले भाव से लेकर बारहवें भाव तक के फलों को देखें. कौन सा भाव क्या देता है और वह कब अपना फल देगा यह जानने का प्रयास करें. भाव, भावेश तथा कारक तीनो की कुंडली में स्थिति का अवलोकन करें. यदि तीनो बली हैं तो चीजें बहुत अच्छी होगी, दो बली हैं तब कुछ कम लेकिन फिर भी अच्छी होगी और यदि तीनो ही कमजोर हैं तब शुभ फल नहीं मिलेगे.
दशा का अध्ययन – Study of Dasha Period in Horoscope
सर्वप्रथम यह देखें कि जन्म कुंडली में किस ग्रह की दशा चल रही है. जिस ग्रह की दशा चल रही है वह किस भाव का स्वामी है और कहाँ स्थित है, देखें. महादशा नाथ और अन्तर्दशानाथ आपस में मित्र है या शत्रु हैं, देखें. कुंडली के अध्ययन के समय महादशानाथ से अन्तर्दशानाथ किस भाव में है, देखें. उदाहरण के लिए महादशानाथ जिस भाव में स्थित है तो उस भाव से अन्तर्दशानाथ कौन से भाव में आता है, यह देखें. माना महादशानाथ पांचवें भाव में है और अन्तर्दशानाथ बारहवें भाव में है तब दोनों ग्रह एक – दूसरे से 6/8 अक्ष पर स्थित होगें, इसे षडाष्टक योग भी कहा जाता है जो कि शुभ फल देने वाला नहीं होगा. इसी तरह से यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ आपस में शत्रुता का भाव रखते हैं तब भी शुभ फलों में कमी हो सकती है. शुभ फल मिलने के लिए या किसी कार्य की सिद्धि होने के लिए महादशानाथ, अन्तर्दशानाथ तथा प्रत्यंतरदशानाथ में से किन्हीं दो का आपस में मित्र होना जरुरी है.
इसके बाद यह देखें कि महादशानाथ बली है या निर्बल है. महादशानाथ का जन्म कुंडली और नवांश कुंडली दोनो में अध्ययन जरुरी है.
गोचर का अध्ययन – Study of Transit in Horoscope
दशा के अध्ययन के साथ गोचर का अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है. किसी काम की सफलता के लिए अनुकूल दशा के साथ अनुकूल गोचर भी आवश्यक है. किसी भी महत्वपूर्ण घटना के लिए शनि तथा गुरु का दोहरा गोचर जरुरी है. ये दोनो ग्रह जब किसी भाव अथवा भाव स्वामी को एक साथ दृष्ट करते हैं तब उस भाव के फल मिलने का समय शुरु होता है लेकिन संबंधित भाव के फल तभी मिलेगें जब उस भाव से संबंधित दशा भी चली हुई हो और कुंडली उस भाव संबंधित फल देने का प्रोमिस भी कर रही हो. यदि दशा अनुकूल नहीं होगी केवल ग्रहों का गोचर हो रहा होगा तब भी फलों की प्राप्ति नहीं होती है.
गोचर ग्रहों का जातक पर फल
गोचर ग्रहों से यह मतलब होता है की वर्तमान में
आसमान में ग्रह किन राशियों में भ्रमण कर रहे है.
गोचर ग्रहों का अध्ययन जातक की चन्द्र राशि से किया जाता है . गोचर ग्रहों का जातक के वर्तमान
जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है .यदि गोचर मे
सूर्य जनम राशी से इन भावो में हो तो इसका फल इस
प्रकार होता है .
प्रथम भाव में – इस भाव में होने पर रक्त में कमी की
सम्भावना होती है . इसके अलावा गुस्सा आता है पेट
में रोग और कब्ज़ की परेशानी आने लगती है . नेत्र रोग
, हृदय रोग ,मानसिक अशांति ,थकान और सर्दी गर्मी
से पित का प्रकोप होने लगता है .इसके आलवा फालतू
का घूमना , बेकार का परिश्रम , कार्य में बाधा
,विलम्ब ,भोजन का समय में न मिलना , धन की हानि
, सम्मान में कमी होने लगती है परिवार से दूरियां
बनने लगती है .
द्वितीय भाव में – इस भाव में सूर्य के आने से धन की
हानि ,उदासी ,सुख में कमी , असफ़लत अ, धोका .नेत्र
विकार , मित्रो से विरोध , सिरदर्द , व्यापार में
नुकसान होने लगता है .
तृतीय भाव में – इस भाव में सूर्य के फल अच्छे होते है
.यहाँ जब सूर्य होता है तो सभी प्रकार के लाभ
मिलते है . धन , पुत्र ,दोस्त और उच्चाधिकारियों से
अधिक लाभ मिलता है . जमीन का भी फायदा
होता है . आरोग्य और प्रसस्नता मिलती है . शत्रु
हारते हैं . समाज में सम्मान प्राप्त होता है .
चतुर्थ भाव – इस भाव में सूर्य के होने से ज़मीन
सम्बन्धी , माता से , यात्रा से और पत्नी से समस्या
आती है . रोग , मानसिक अशांति और मानहानि के
कष्ट आने लगते हैं .
पंचम भाव – इस भाव में भी सूर्य परेशान करता है .पुत्र
को परेशानी , उच्चाधिकारियों से हानि और रोग व्
शत्रु उभरने लगते है .
६ ठे भाव में – इस भाव में सूर्य शुभ होता है . इस भाव
में सूर्य के आने पर रोग ,शत्रु ,परेशानियां शोक आदि दूर
भाग जाते हैं .
सप्तम भाव में – इस भाव में सूर्य यात्रा ,पेट रोग ,
दीनता , वैवाहिक जीवन के कष्ट देता है स्त्री – पुत्र
बीमारी से परेशान हो जाते हैं .पेट व् सिरदर्द की
समस्या आ जाती है . धन व् मान में कमी आ जाती है
.
अष्टम भाव में – इस में सूर्य बवासीर , पत्नी से
परेशानी , रोग भय , ज्वर , राज भय , अपच की
समस्या पैदा करता है .
नवम भाव में – इसमें दीनता ,रोग ,धन हानि , आपति ,
बाधा , झूंठा आरोप , मित्रो व् बन्धुओं से विरोध का
सामना करन पड़ता है .
दशम भाव में – इस भाव में सफलता , विजय , सिद्धि ,
पदोन्नति , मान , गौरव , धन , आरोग्य , अच्छे मित्र
की प्राप्ति होती है .
एकादश भाव में – इस भाव में विजय , स्थान लाभ ,
सत्कार , पूजा , वैभव ,रोगनाश ,पदोन्नति , वैभव पितृ
लाभ . घर में मांगलिक कार्य संपन्न होते हैं .
द्वादश भाव में – इस भाव में सूर्य शुभ होता है
.सदाचारी बनता है , सफलता दिलाता है अच्छे
कार्यो के लिए , लेकिन पेट , नेत्र रोग , और मित्र भी
शत्रु बन जाते हैं .
चन्द्र की गोचर भाव के फल
प्रथम भाव में – जब चन्द्र प्रथम भाव में होता है तो
जातक को सुख , समागम , आनंद व् निरोगता का
लाभ होता है . उत्तम भोजन ,शयन सुख , शुभ वस्त्र की
प्राप्ति होती है .
द्वितीय भाव – इस भाव में जातक के सम्मान और धन
में बाधा आती है .मानसिक तनाव ,परिवार से अनबन ,
नेत्र विकार , भोजन में गड़बड़ी हो जाती है . विद्या
की हानि , पाप कर्मी और हर काम में असफलता
मिलने लगती है .
तृतीय भाव में – इस भाव में चन्द्र शुभ होता है .धन ,
परिवार ,वस्त्र , निरोग , विजय की प्राप्ति
शत्रुजीत मन खुश रहता है , बंधु लाभ , भाग्य वृद्धि
,और हर तरह की सफलता मिलती है .
चतुर्थ भाव में – इस भाव में शंका , अविश्वास , चंचल
मन , भोजन और नींद में बाधा आती है .स्त्री सुख में
कमी , जनता से अपयश मिलता है , छाती में विकार ,
जल से भय होता है .
पंचम भाव में – इस भाव में दीनता , रोग ,यात्रा में
हानि , अशांत , जलोदर , कामुकता की अधिकता
और मंत्रणा शक्ति में न्यूनता आ जाती है .
सिक्स्थ भाव में – इस भाव में धन व् सुख लाभ मिलता
है . शत्रु पर जीत मिलती है .निरोय्गता ,यश आनंद ,
महिला से लाभ मिलता है .
सप्तम भाव में – इस भाव में वाहन की प्राप्ति होती
है. सम्मान , सत्कार ,धन , अच्छा भोजन , आराम काम
सुख , छोटी लाभ प्रद यात्रायें , व्यापर में लाभ और
यश मिलता है .
अष्टम भाव में – इस भाव में जातक को भय , खांसी ,
अपच . छाती में रोग , स्वांस रोग , विवाद ,मानसिक
कलह , धन नाश और आकस्मिक परेशानी आती है.
नवम भाव में – बंधन , मन की चंचलता , पेट रोग ,पुत्र से
मतभेद , व्यापार हानि , भाग्य में अवरोध , राज्य से
हानि होती है .
दशम भाव में – इस में सफलता मिलती है . हर काम
आसानी से होता है . धन , सम्मान ,
उच्चाधिकारियों से लाभ मिलता है . घर का सुख
मिलता है .पद लाभ मिलता है . आज्ञा देने का
सामर्थ्य आ जाता है .
एकादश भाव में – इस भाव में धन लाभ , धन संग्रह ,
मित्र समागम , प्रसन्नता , व्यापार लाभ , पुत्र से
लाभ , स्त्री सुख , तरल पदार्थ और स्त्री से लाभ
मिलता है .
द्वादस भाव में – इस भाव में धन हानि ,अपघात ,
शारीरिक हानियां होती है .
मंगल ग्रह का प्रभाव गोचर में इस प्रकार से होता
है.प्रथम भाव में जब मंगल आता है .तो रोग्दायक हो
कर बवासीर ,रक्त विकार ,ज्वर , घाव , अग्नि से डर ,
ज़हर और अस्त्र से हानि देता है.
द्वतीय भाव में –यहाँ पर मंगल से पित ,अग्नि ,चोर से
खतरा ,राज्य से हानि , कठोर वाणी के कारण हानि
, कलह और शत्रु से परेशानियाँ आती है .
तृतीय भाव – इस भाव में मंगल के आ जाने से चोरो और
किशोरों के माध्यम से धन की प्राप्ति होती है शत्रु
डर जाते हैं . तर्क शक्ति प्रबल होती है. धन , वस्त्र ,
धातु की प्राप्ति होती है . प्रमुख पद मिलता है .
चतुर्थ भाव में – यहं पर पेट के रोग ,ज्वर , रक्त विकार ,
शत्रु पनपते हैं .धन व् वस्तु की कमी होने लगती है .गलत
संगती से हानि होने लगती है . भूमि विवाद , माँ
को कष्ट , मन में भय , हिंसा के कारण हानि होने
लगती है .
पंचम भाव – यहाँ पर मंगल के कारण शत्रु भय , रोग ,
क्रोध , पुत्र शोक , शत्रु शोक , पाप कर्म होने लगते हैं
. पल पल स्वास्थ्य गिरता रहता है .
छठा भाव – यहाँ पर मंगल शुभ होता है . शत्रु हार
जाते हैं . डर भाग जाता हैं . शांति मिलती है. धन –
धातु के लाभ से लोग जलते रह जाते हैं .
सप्तम भाव – इस भाव में स्त्री से कलह , रोग ,पेट के
रोग , नेत्र विकार होने लगते हैं .
अष्टम भाव में – यहाँ पर धन व् सम्मान में कमी और
रक्तश्राव की संभावना होती है .
नवम भाव – यहाँ पर धन व् धातु हानि , पीड़ा ,
दुर्बलता , धातु क्षय , धीमी क्रियाशीलता हो
जाती हैं.
दशम भाव – यहाँ पर मिलाजुला फल मिलता हैं,
एकादश भाव – यहाँ मंगल शुभ होकर धन प्राप्ति
,प्रमुख पद दिलाता हैं.
द्वादश भाव – इस भाव में धन हानि , स्त्री से कलह
नेत्र वेदना होती है .
बुध का गोचर में प्रभाव –
प्रथम भाव में – इस भाव में चुगलखोरी अपशब्द , कठोर
वाणी की आदत के कारण हानि होती है .कलह बेकार
की यात्रायें . और अहितकारी वचन से हानियाँ
होती हैं .
द्वीतीय भाव में – यहाँ पर बुध अपमान दिलाने के
बावजूद धन भी दिलाता है .
तृतीय भाव – यहाँ पर शत्रु और राज्य भय दिलाता है
. ये दुह्कर्म की ओर ले जाता है .यहाँ मित्र की
प्राप्ति भी करवाता है .
चतुर्थ भाव् – यहाँ पर बुध शुभ होकर धन दिलवाता है
.अपने स्वजनों की वृद्धि होती है .
पंचम भाव – इस भाव में मन बैचैन रहता है . पुत्र व् स्त्री
से कलह होती है .
छठा भाव – यहाँ पर बुध अच्छा फल देता हैं. सौभाग्य
का उदय होता है . शत्रु पराजित होते हैं . जातक
उन्नतशील होने लगता है . हर काम में जीत होने लगते हैं
सप्तम भाव – यहं पर स्त्री से कलह होने लगती हैं .
अष्टम भाव – यहाँ पर बुध पुत्र व् धन लाभ देता है
.प्रसन्नता भी देता है .
नवम – यहाँ पर बुध हर काम में बाधा डालता हैं .
दशम भाव – यहाँ पर बुध लाभ प्रद हैं. शत्रुनाशक ,धन
दायक ,स्त्री व् शयन सुख देता है .
एकादश भाव में – यहाँ भी बुध लाभ देता हैं . धन ,
पुत्र , सुख , मित्र ,वाहन , मृदु वाणी प्रदान करता है .
द्वादश भाव- यहाँ पर रोग ,पराजय और अपमान देता
है
गुरु का गोचर प्रभाव- प्रथम भाव में =======
इस भाव में धन नाश ,पदावनति , वृद्धि का नाश ,
विवाद ,स्थान परिवर्तन दिलाता हैं .द्वितीय भाव
में – यहाँ पर धन व् विलासता भरा जीवन दिलाता है
.
तृतीय भाव में – यहाँ पर काम में बाधा और स्थान
परिवर्तन करता है .
चतुर्थ भाव में – यहाँ पर कलह , चिंता पीड़ा
दिलाता है .
पंचम भाव – यहाँ पर गुरु शुभ होता है .पुत्र , वहां ,पशु
सुख , घर ,स्त्री , सुंदर वस्त्र आभूषण , की प्राप्ति
करवाता हैं .
छथा भाव में – यहाँ पर दुःख और पत्नी से अनबन
होती है.
सप्तम भाव – सैय्या , रति सुख , धन , सुरुचि भोजन ,
उपहार , वहां .,वाणी , उत्तम वृद्धि करता हैं .
अष्टम भाव – यहाँ बंधन ,व्याधि , पीड़ा , ताप
,शोक , यात्रा कष्ट , मृत्युतुल्य परशानियाँ देता है .
नवम भाव में – कुशलता ,प्रमुख पद , पुत्र की सफलता ,
धन व् भूमि लाभ , स्त्री की प्राप्ति होती हंत .
दशम भाव में- स्थान परिवर्तन में हानि , रोग ,धन
हानि
एकादश भाव – यहाँ सुभ होता हैं . धन ,आरोग्य और
अच्छा स्थान दिलवाता है .
द्वादश भाव में – यहाँ पर मार्ग भ्रम पैदा करता है .
मंगल ग्रह का प्रभाव गोचर में इस प्रकार से होता
है.प्रथम भाव में जब मंगल आता है .तो रोग्दायक हो
कर बवासीर ,रक्त विकार ,ज्वर , घाव , अग्नि से डर ,
ज़हर और अस्त्र से हानि देता है.
द्वतीय भाव में –यहाँ पर मंगल से पित ,अग्नि ,चोर से
खतरा ,राज्य से हानि , कठोर वाणी के कारण हानि
, कलह और शत्रु से परेशानियाँ आती है .
तृतीय भाव – इस भाव में मंगल के आ जाने से चोरो और
किशोरों के माध्यम से धन की प्राप्ति होती है शत्रु
डर जाते हैं . तर्क शक्ति प्रबल होती है. धन , वस्त्र ,
धातु की प्राप्ति होती है . प्रमुख पद मिलता है .
चतुर्थ भाव में – यहं पर पेट के रोग ,ज्वर , रक्त विकार ,
शत्रु पनपते हैं .धन व् वस्तु की कमी होने लगती है .गलत
संगती से हानि होने लगती है . भूमि विवाद , माँ
को कष्ट , मन में भय , हिंसा के कारण हानि होने
लगती है .
पंचम भाव – यहाँ पर मंगल के कारण शत्रु भय , रोग ,
क्रोध , पुत्र शोक , शत्रु शोक , पाप कर्म होने लगते हैं
. पल पल स्वास्थ्य गिरता रहता है .
छठा भाव – यहाँ पर मंगल शुभ होता है . शत्रु हार
जाते हैं . डर भाग जाता हैं . शांति मिलती है. धन –
धातु के लाभ से लोग जलते रह जाते हैं .
सप्तम भाव – इस भाव में स्त्री से कलह , रोग ,पेट के
रोग , नेत्र विकार होने लगते हैं .
अष्टम भाव में – यहाँ पर धन व् सम्मान में कमी और
रक्तश्राव की संभावना होती है .
नवम भाव – यहाँ पर धन व् धातु हानि , पीड़ा ,
दुर्बलता , धातु क्षय , धीमी क्रियाशीलता हो
जाती हैं.
दशम भाव – यहाँ पर मिलाजुला फल मिलता हैं,
एकादश भाव – यहाँ मंगल शुभ होकर धन प्राप्ति
,प्रमुख पद दिलाता हैं.
द्वादश भाव – इस भाव में धन हानि , स्त्री से कलह
नेत्र वेदना होती है .
बुध का गोचर में प्रभाव –
प्रथम भाव में – इस भाव में चुगलखोरी अपशब्द , कठोर
वाणी की आदत के कारण हानि होती है .कलह बेकार
की यात्रायें . और अहितकारी वचन से हानियाँ
होती हैं .
द्वीतीय भाव में – यहाँ पर बुध अपमान दिलाने के
बावजूद धन भी दिलाता है .
तृतीय भाव – यहाँ पर शत्रु और राज्य भय दिलाता है
. ये दुह्कर्म की ओर ले जाता है .यहाँ मित्र की
प्राप्ति भी करवाता है .
चतुर्थ भाव् – यहाँ पर बुध शुभ होकर धन दिलवाता है
.अपने स्वजनों की वृद्धि होती है .
पंचम भाव – इस भाव में मन बैचैन रहता है . पुत्र व् स्त्री
से कलह होती है .
छठा भाव – यहाँ पर बुध अच्छा फल देता हैं. सौभाग्य
का उदय होता है . शत्रु पराजित होते हैं . जातक
उन्नतशील होने लगता है . हर काम में जीत होने लगते हैं
सप्तम भाव – यहं पर स्त्री से कलह होने लगती हैं .
अष्टम भाव – यहाँ पर बुध पुत्र व् धन लाभ देता है
.प्रसन्नता भी देता है .
नवम – यहाँ पर बुध हर काम में बाधा डालता हैं .
दशम भाव – यहाँ पर बुध लाभ प्रद हैं. शत्रुनाशक ,धन
दायक ,स्त्री व् शयन सुख देता है .
एकादश भाव में – यहाँ भी बुध लाभ देता हैं . धन ,
पुत्र , सुख , मित्र ,वाहन , मृदु वाणी प्रदान करता है .
द्वादश भाव- यहाँ पर रोग ,पराजय और अपमान देता
है
गुरु का गोचर प्रभाव- प्रथम भाव में =======
इस भाव में धन नाश ,पदावनति , वृद्धि का नाश ,
विवाद ,स्थान परिवर्तन दिलाता हैं .द्वितीय भाव
में – यहाँ पर धन व् विलासता भरा जीवन दिलाता है
.
तृतीय भाव में – यहाँ पर काम में बाधा और स्थान
परिवर्तन करता है .
चतुर्थ भाव में – यहाँ पर कलह , चिंता पीड़ा
दिलाता है .
पंचम भाव – यहाँ पर गुरु शुभ होता है .पुत्र , वहां ,पशु
सुख , घर ,स्त्री , सुंदर वस्त्र आभूषण , की प्राप्ति
करवाता हैं .
छथा भाव में – यहाँ पर दुःख और पत्नी से अनबन
होती है.
सप्तम भाव – सैय्या , रति सुख , धन , सुरुचि भोजन ,
उपहार , वहां .,वाणी , उत्तम वृद्धि करता हैं .
अष्टम भाव – यहाँ बंधन ,व्याधि , पीड़ा , ताप
,शोक , यात्रा कष्ट , मृत्युतुल्य परशानियाँ देता है .
नवम भाव में – कुशलता ,प्रमुख पद , पुत्र की सफलता ,
धन व् भूमि लाभ , स्त्री की प्राप्ति होती हंत .
दशम भाव में- स्थान परिवर्तन में हानि , रोग ,धन
हानि
एकादश भाव – यहाँ सुभ होता हैं . धन ,आरोग्य और
अच्छा स्थान दिलवाता है .
द्वादश भाव में – यहाँ पर मार्ग भ्रम पैदा करता है .
गोचर शुक्र का प्रथम भाव में प्रभाव –जब शुक्र यहाँ
पर अथोता है तब सुख ,आनंद ,वस्त्र , फूलो से प्यार ,
विलासी जीवन ,सुंदर स्थानों का भ्रमण ,सुगन्धित
पदार्थ पसंद आते है .विवाहिक जीवन के लाभ प्राप्त
होते हैं .
द्वीतीय भाव में – यहाँ पर शुक्र संतान , धन , धान्य ,
राज्य से लाभ , स्त्री के प्रति आकर्षण और परिवार
के प्रति हितकारी काम करवाता हैं.
तृतीय भाव – इस जगह प्रभुता ,धन ,समागम ,सम्मान
,समृधि ,शास्त्र , वस्त्र का लाभ दिलवाता हैं .यहाँ
पर नए स्थान की प्राप्ति और शत्रु का नास
करवाता हैं .
चतुर्थ भाव –इस भाव में मित्र लाभ और शक्ति की
प्राप्ति करवाता हैं .
पंचम भाव – इस भाव में गुरु से लाभ ,संतुष्ट जीवन ,
मित्र –पुत्र –धन की प्राप्ति करवाता है . इस भाव
में शुक्र होने से भाई का लाभ भी मिलता है.
छठा भाव –इस भाव में शुक्र रोग , ज्वर ,और असम्मान
दिलवाता है .
सप्तम भाव – इसमें सम्बन्धियों को नास्ता करवाता
हैं .
अष्टम भाव – इस भाव में शुक्र भवन , परिवार सुख ,
स्त्री की प्राप्ति करवाता है .
नवम भाव- इसमें धर्म ,स्त्री ,धन की प्राप्ति होती हैं
.आभूषण व् वस्त्र की प्राप्ति भी होती है .
दशम भाव – इसमें अपमान और कलह मिलती है.
एकादश भाव – इसमें मित्र ,धन ,अन्न ,प्रशाधन
सामग्री मिलती है .
द्वादश भाव – इसमें धन के मार्ग बनते हिया परन्तु
वस्त्र लाभ स्थायी नहीं होता हैं .
शनि की गोचर दशा
प्रथम भाव – इस भाव में अग्नि और विष का डर
होता है. बंधुओ से विवाद , वियोग , परदेश गमन ,
उदासी ,शरीर को हानि , धन हानि ,पुत्र को हानि
, फालतू घोमना आदि परेशानी आती है .
द्वितीय भाव – इस भाव में धन का नाश और रूप का
सुख नाश की ओर जाता हैं .
तृतीय भाव – इस भाव में शनि शुभ होता है .धन ,परवर
,नौकर ,वहां ,पशु ,भवन ,सुख ,ऐश्वर्य की प्राप्ति
होती है .सभी शत्रु हार मान जाते हैं .
चतुर्थ भाव –इस भाव में मित्र ,धन ,पुत्र ,स्त्री से
वियोग करवाता हैं .मन में गलत विचार बनने लगते हैं
.जो हानि देते हैं .
पंचम भाव – इस भाव में शनि कलह करवाता है जिसके
कारण स्त्री और पुत्र से हानि होती हैं .
छठा भाव – ये शनि का लाभकारी स्थान हैं. शत्रु व्
रोग पराजित होते हैं .सांसारिक सुख मिलता है .
सप्तम भाव – कई यात्रायें करनी होती हैं . स्त्री –
पुत्र से विमुक्त होना पड़ता हैं .
अष्टम भाव – इसमें कलह व् दूरियां पनपती हैं.
नवम भाव – यहाँ पर शनि बैर , बंधन ,हानि और हृदय
रोग देता हैं .
दशम भाव – इस भाव में कार्य की प्राप्ति , रोज़गार
, अर्थ हानि , विद्या व् यश में कमी आती हैं
एकादश भाव – इसमें परस्त्री व् परधन की प्राप्ति
होई हैं .
द्वादश भाव – इसमें शोक व् शारीरिक परेशानी
आती हैं .
शनि की २,१,१२ भावो के गोचर को साढ़ेसाती और
४ ,८ भावो के गोचर को ढ़ैया कहते हैं .
शुभ दशा में गोचर का फल अधिक शुब होता हैं .अशुभ
गोचर का फल परेशान करता हैं .इस उपाय द्वारा
शांत करवाना चाहिए .अशुभ दस काल मेशुब फल कम
मिलता हैं .अशुभ फल ज्यादा होता हैं .
पूजा कैसे करें – जब सूर्य और मंगल असुभ हो तो लाल
फूल , लाल चन्दन ,केसर , रोली , सुगन्धित पदार्थ से
पूजा करनी चाहिए . सूर्य को जलदान करना चाहिए
.शुक्र की पूजा सफ़ेद फूल, व् इत्र के द्वारा दुर्गा जी
की पूजा करनी चाहिए . शनि की पूजा काले फूल
,नीले फूल व् काली वस्तु का दान करके शनि देव की
पूजा करनी चाहिए . गुरु हेतु पीले फूल से विष्णु देव
की पूजा करनी चाहिए .बुध हेतु दूर्वा घास को गाय
को खिलाएं .
गोचर फल
सभी ग्रह चलायमान हैं.सभी ग्रहों की अपनी रफ्तार
है कोई ग्रह तेज चलने वाला है तो कोई मंद गति से
चलता है.ग्रहों की इसी गति को गोचर कहते हैं .ग्रहों
का गोचर ज्योतिषशास्त्र में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान
रखता है.ग्रहों के गोचर के आधार पर ही ज्योतिष
विधि से फल का विश्लेषण किया जाता है.प्रत्येक
ग्रह जब जन्म राशि में पहुंचता है अथवा जन्म राशि से
दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवें,दशवें,
ग्यारहवें या बारहवें स्थान पर होता है तब अपने गुण
और दोषों के अनुसार व्यक्ति पर प्रभाव डालता है
.गोचर में ग्रहों का यह प्रभाव गोचर का फल कहलता
है.शनि, राहु, केतु और गुरू धीमी गति वाले ग्रह हैं अत:
यह व्यक्ति के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं
इसलिए गोचर में इनके फल का विशेष महत्व होता
है.अन्य ग्रह की गति तेज होती है अत: वे अधिक समय
तक प्रभाव नहीं डालते हैं .
सूर्य का गोचर फल: गोचर में सूर्य जब तृतीय, षष्टम,
दशम और एकादश भाव में आता है तब यह शुभ फलदायी
होता है.इन भावों में सूर्य का गोचरफल सुखदायी
होता है.इन भावों में सूर्य के आने पर स्वास्थ्य अनुकूल
होता है.मित्रों से सहयोग, शत्रु का पराभव एवं धन
का लाभ होता है.इस स्थिति में संतान और जीवन
साथी से सुख मिलता है साथ ही राजकीय क्षेत्र से
भी शुभ परिणाम मिलते हैं.सूर्य जब प्रथम, द्वितीय,
चतुर्थ, पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम एवं द्वादश में पहुंचता है
तो मानसिक अशांति, अस्वस्थता, गृह कलह, मित्रों
से अनबन रहती है.इन भावों में सूर्य का गोचर राजकीय
पक्ष की भी हानि करता है.
चन्द्र का गोचर फल:
गोचर में चन्द्रमा जब प्रथम, तृतीय, षष्टम, सप्तम, दशम
एवं एकादश में आता है तब यह शुभ फलदेने वाला होता
है .इन भावों में चन्द्रमा के आने पर व्यक्ति को स्त्री
सुख, नवीन वस्त्र, उत्तम भोजन प्राप्त होता है.चन्द्र
का इन भावों में गोचर होने पर स्वास्थ्य भी अच्छा
रहता है.इन भावों को छोड़कर अन्य भावों में चन्द्रमा
का गोचर अशुभ फलदायी होता है.मानसिक क्लेश,
अस्वस्थता, स्त्री पीड़ा व कार्य बाधित होते हैं.
मंगल का गोचर फल:
मंगल को अशुभ ग्रह कहा गया है लेकिन जब यह तृतीय
या षष्टम भाव से गोचर करता है तब शुभ फल देता है
.इन भावों में मंगल का गोचर पराक्रम को बढ़ाता है,
व शत्रुओं का पराभव करता है.यह धन लाभ, यश कीर्ति
व आन्नद देता है.इन दो भावों को छोड़कर अन्य
भावो में मंगल पीड़ा दायक होता है.तृतीय और षष्टम
के अलावा अन्य भावों में जब यह गोचर करता है तब
बल की हानि होती है, शत्रु प्रबल होंते हैं.अस्वस्थता,
नौकरी एवं कारोबार में बाधा एवं अशांति का
वातावरण बनता है.
बुध का गोचर फल:
गोचर वश जब बुध द्वितीय, चतुर्थ, षष्टम अथवा
एकादश में आता है तब बुध का गोचर फल व्यक्ति के
लिए सुखदायी होता है इस गोचर में बुध पठन पाठन में
रूचि जगाता है, अन्न-धन वस्त्र का लाभ देता
है.कुटुम्ब जनों से मधुर सम्बन्ध एवं नये नये लोगों से
मित्रता करवाता है.अन्य भावों में बुध का गोचर
शुभफलदायी नहीं होता है.गोचर में अशुभ बुध स्त्री से
वियोग, कुटुम्बियों से अनबन, स्वास्थ्य की हानि,
आर्थिक नुकसान, कार्यों में बाधक होता है.
बृहस्पति का गोचर फल:
बृहस्पति को शुभ ग्रह कहा गया है.यह देवताओं का गुरू
है और सात्विक एवं उत्तम फल देने वाला लेकिन गोचर
में जब यह द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम, एकादश भाव में
आता है तभी यह ग्रह व्यक्ति को शुभ फल देता है अन्य
भावों में बृहस्पति का गोचर अशुभ प्रभाव देता है
.उपरोक्त भावों में जब बृहस्पति गोचर करता है तब
मान प्रतिष्ठा, धन, उन्नति, राजकीय पक्ष से लाभ
एवं सुख देता है.इन भावों में बृहस्पति का गोचर शत्रुओं
का पराभव करता है.कुटुम्बियों एवं मित्रों का
सहयोग एवं पदोन्नति भी शुभ बृहस्पति देता
है.उपरोक्त पांच भावों को छोड़कर अन्य भावों में जब
बृहस्पति का गोचर होता है तब व्यक्ति को
मानसिक पीड़ा, शत्रुओं से कष्ट, अस्वस्थता व धन की
हानि होती है.गोचर में अशुभ होने पर बृहस्पति
सम्बन्धों में कटुता, रोजी रोजगार मे उलझन और
गृहस्थी में बाधक बनता है.
शुक्र का गोचर में फल:
आकाश मंडल में शुक्र सबसे चमकीला ग्रह है जो भोग
विलास एवं सुख का कारक ग्रह माना जाता है.शुक्र
जब प्रथम, द्वितीय, पंचम, अष्टम, नवम एवं एकादश भाव
से गोचर करता है तब यह शुभ फलदायी होता है .इन
भावों में शुक्र का गोचर होने पर व्यक्ति को भौतिक
एवं शारीरिक सुख मिलता है.पत्नी एवं स्त्री पक्ष से
लाभ मिलता है.आरोग्य सुख एवं अन्न-धन वस्त्र व
आभूषण का लाभ देता है.हलांकि प्रथम भाव में जब यह
गोचर करता है तब अपने गुण के अनुसार यह सभी प्रकार
का लाभ देता है परंतु अत्यधिक भोग विलास की ओर
व्यक्ति को प्रेरित करता है.अन्य भावों में शुक्र का
गोचर अशुभ फलदायी होता है.गोचर में अशुभकारी
शुक्र होने पर यह स्वास्थ्य एवं धन की हानि करता
है.स्त्री से पीड़ा, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग, शत्रु
बाधा रोजी रोजगार में कठिनाईयां गोचर में अशुभ
शुक्र का फल होता है.द्वादश भाव में जब शुक्र गोचर
करता है तब अशुभ होते हुए भी कुछ शुभ फल दे जाता है
शनि का गोचर फल:
शनि को अशुभ ग्रह कहा गया है.यह व्यक्ति को कष्ट
और परेशानी देता है लेकिन जब यह गोचर में षष्टम या
एकादश भाव में होता है तब शुभ फल देता है .नवम भाव
में शनि का गोचर मिला जुला फल देता है.अन्य
भावों में शनि का गोचर पीड़ादायक होता है.गोचर
में शुभ शनि अन्न, धन और सुख देता, गृह सुख की
प्राप्ति एवं शत्रुओं का पराभव भी शनि के गोचर में
होता है.संतान से सुख एवं उच्चाधिकारियों से
सहयोग भी शनि का शुभ गोचर प्रदान करता है.शनि
का अशुभ गोचर मानसिक कष्ट, आर्थिक कष्ट, रोजी-
रोजगार एवं कारोबार में बाधा सहित स्वास्थ्य पर
भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है.
राहु एवं केतु का गोचर फल:
राहु और केतु छाया ग्रह हैं जिन्हें शनि के समान ही
अशुभकारी ग्रह माना गया है.ज्योतिषशास्त्र के
अनुसार गोचर में राहु केतु उसी ग्रह का गोचर फल देते
हैं जिस ग्रह के घर में जन्म के समय इनकी स्थिति होती
है.तृतीय, षष्टम एवं एकादश भाव में इनका गोचर शुभ
फलदायी होता है जो धन, सुख एवं
अष्टक वर्ग एवं गोचर
साधारणतया जन्मकालीन चंद्रमा से ग्रहों की गोचर
स्थिति देखकर फलित की विधि है जैसे गोचरगत शनि
जब चंद्रमा से तीसरे, छठे एवं ग्यारहवें स्थान पर होंगे
तो शनि जातक को शुभफल देंगे परंतु प्रश्न यह उठता है
कि शनि एक राशि में अढ़ाई वर्ष रहते हैं तो क्या पूरे
अढ़ाई वर्ष शुभफल देंगेक् साथ ही यदि वह भाव जिसमें
वह राशि स्थित है बलहीन है तो भी भाव संबंधी
फलों की गुणवत्ता वही होगी जैसी तब कि जिस
भाव से शनि गोचर कर रहे हैं, बली हैक् अथवा इस
प्रकार कहें कि यदि संबंधित भाव में शुभ बिन्दुओं की
संख्या कुछ भी हो बीस या चालीसक् तो क्या फल
की शुभता वही होगीक् इन्हीं कारणों के कारण जो
सामान्य रूप से गोचरफल पंचांग आदि में दिया रहता
है, महान् विद्वानों के मत के अनुसार उसको गौण ही
समझा जायेे। सूक्ष्म विचार के लिए अन्य विधियों में
अष्टक वर्ग विधि सबसे श्रेष्ठ है। इस लेख में यह बताने
का प्रयत्न किया जायेगा कि गोचरफल की
न्यूनाधिक गणना किस प्रकार से की जायेक् पहले
चर्चा कि जा चुकी है कि सात ग्रह व आठवाँ लग्न,
इन सभी द्वारा शुभ-अशुभ बिन्दु देने की प्रणाली है।
यदि सातों ग्रह व लग्न सभी एक-एक शुभ बिन्दु
किसी भाव को प्रदान करते हैं तो कुल मिलाकर
अधिकतम आठ शुभ बिन्दु किसी भाव को प्राप्त हो
सकते हैं अर्थात् कोई अशुभ बिन्दु (अशुभ बिन्दु को
कभी-कभी रेखा से भी दर्शाते हैं) नहीं अत:
विचारणीय भाव संबंधी अधिकतम शुभफल प्राप्त
होगा। यदि सात शुभ बिन्दु हैं तो शुभफल अधिकतम
आठ का सातवां भाग होगा। इसी प्रकार क्रम से
अनुपात के अनुसार शुभता को एक फल प्राçप्त के
स्केल पर नाप सकते हैं व कितना प्राप्त होगा इसकी
गणना कर सकते हैं। एक अन्य विधि फलित की है कि
जन्मकालीन चंद्रमा या लग्न से गोचर का ग्रह उपचय
स्थान में (3, 6, 10, 11वे) हो अथवा मित्र ग्रह हो
अथवा स्वराशि में हो, उच्च का हो एवं उसमें चार से
अधिक शुभ रेखायें हों तो शुभफल में और भी अधिकता
आती है। इसके विपरीत यदि गोचर का विचाराधीन
ग्रह चंद्रमा से या जन्मकालीन लग्न से उपचय स्थान
(3, 6, 10, 11वें को छो़डकर सभी अन्य आठ स्थान) में
हो तो उस राशि में शुभ बिन्दुओं की अधिकता भी
हो तो भी अशुभ फल ही मिलता है। यदि उपचय
स्थान में होकर ग्रह शत्रु क्षेत्री, नीच का अथवा
अस्तंगत होवे व शुभ बिन्दु भी कम हों तो अशुभ फल
की प्रबलता रहेगी। यह ग्रहों का गोचर हुआ जिसका
विचार जन्मकालीन चंद्रमा अथवा जन्मकालीन लग्न
से करना होता है। अब चंद्रमा के स्वयं के गोचर का
विचार करें। चंद्रमा यदि उपचय स्थान में हों (अपनी
जन्मकालीन स्थिति से) शुभ रेखा अधिक भी परंतु
चंद्रमा स्वयं कमजोर हो (यहां गोचर में) तो फल अशुभ
ही हो। लेकिन इस विधि में गोचर ग्रह का विचार
ग्रह के राशि में विचरण के आधार पर करते हैं। प्रथम
गोचर विधि में जो प्रश्न उठा था कि यदि शनि जैसे
ग्रह का गोचर अध्ययन करना हो जो एक राशि में
अढ़ाई वर्ष रहते हैं तो क्या इस ग्रह के फल शुभ या
अशुभ अढ़ाई वर्ष रहेंगेक् यह प्रश्न इस विधि में उभरकर
सामने आता है। अब अष्टक वर्ग आधार पर तीसरी
विधि की चर्चा करते हैं। प्रत्येक राशि 300 की
होती है। प्रत्येक राशि को आठ भागों में बांटते हैं।
प्रत्येक भाग को "कक्ष्या" कहते हैं। जातक-पारिजात
में दिए गए इस सिद्धात के अनुसार प्रत्येक कक्ष्या का
स्वामी ग्रह होता है। जैसे सबसे बाहरी कक्ष्या का
स्वामी ग्रह शनि, फिर क्रम में बृहस्पति, मंगल, सूर्य,
शुक्र, बुध, चंद्रमा व लग्न - इस प्रकार आठ कक्ष्याओं के
आठ स्वामी ग्रह हुए। यदि देखें तो इनका क्रम ग्रहों के
सामान्य भू-मण्डल में परिक्रमा पथ पर आधारित है।
पृथ्वी से सबसे दूर शनि फिर बृहस्पति आदि-आदि हैं।
पृथ्वी को कक्ष्या पद्धति में जातक से दर्शाया है
क्योंकि पृथ्वी पर प़डने वाले प्रभाव का अध्ययन
किया जा रहा है। इस गोचर फलित की विधि का
नाम प्रस्ताराष्टक विधि है। आगे बढ़ने से पहले
प्रस्ताराष्टक वर्ग बनाने की विधि की चर्चा करते
हैं। राशि व ग्रहों का एक संयुक्त चार्ट बनाते हैं। बांयें
से दांयें बारह कोष्टक बनाते हैं, व आठ कोष्ठक ऊपर से
नीचे। प्रत्येक कोष्ठक बांयें से दांयें एक राशि का
द्योतक है व ऊपर से नीचे वाला एक ग्रह का। आठवाँ
कोष्ठक लग्न का है। सही मायने में यह बृहस्पति का
अष्टक वर्ग है बस ग्रह रखने का क्रम बदल गया है। यहां
पर ग्रहों का क्रम (कक्ष्या) ग्रहों के वास्तविक
परिभ्रमण के आधार पर रखा गया है। पृथ्वी से सबसे दूर
व उसके बाद पृथ्वी से दूरी के क्रम में। जैसा कि ऊपर
चर्चा कर चुके हैं कि एक राशि को आठ भाग मेे बांट
लेते हैं तो प्रत्येक ग्रह का भाग 30/8 अर्थात् 3045"
हुआ अर्थात् मेष में शनि की कक्ष्या, राशि में
0-3045" तक हुई। दूसरी कक्ष्या बृहस्पति की है जो
3045" से 7030" तक होगी आदि-आदि। अब यह
देखना है कि बृहस्पति का गोचरफल जातक को कैसा
होगाक् जून 2009 में बृहस्पति कुंभ राशि की पहली
कक्ष्या में गोचर कर रहे हैं। यहाँ पर राशि स्वामी
शनि प्रदत्त एक शुभ बिन्दु है अत: बृहस्पति का गोचर
उपर्युक्त जातक को शुभफल देगा। इसी प्रकार
बृहस्पति की कक्ष्या में कुंभ राशि को शुभ बिन्दु
प्राप्त है अत: बृहस्पति के गोचर की शुभता का क्रम
बृहस्पति को 3045" से 7030" कुंभ में गोचर करते समय
जारी रहेगा। 7030" से 11015" तक मंगल की कक्ष्या
है वहां भी मंगल द्वारा प्रदत्त एक शुभ बिन्दु है अत:
कुंभ में 10030" अंश तक गोचरगत बृहस्पति शुभफल देंगे।
फिर चतुर्थ कक्ष्या में सूर्य द्वारा कोई शुभ बिन्दु कुंभ
राशि को प्रदान नहीं किया गया है अत: शुभता का
क्रम अचानक रूक जाएगा व गति विपरीत होती सी
नजर आएगी पर इसके साथ पांचवीं कक्ष्या में फिर
शुक्र द्वारा प्रदत्त शुभ बिन्दु है उसके उपरान्त बुध
द्वारा शुभ बिन्दु है अत: बृहस्पति के 11015" से 140
तक गोचर करते समय शुभ बिन्दु हैं अत: बृहस्पति के
11015" से 140 तक गोचर करते समय शुभफल की गति
धीमी होगी जो 140 पार करते-करते पुन: गति पक़ड
लेगी। इसको यूं समझें कि कोई वाहन सामान्य गति से
स़डक पर जा रहा है, सामने अवरोध आने पर स्पीड कम
करनी प़डती है या रूकना भी प़डता है व उस अवरोध
को पार कर पुन: स्पीड पक़ड लेते हैं। यहां यह बात भी
ध्यान देने की है कि कुछ प्रतीक्षा करने से या तो
गतिरोध हट जाता है, हम धैर्य से प्रतीक्षा करते हैं
अथवा हम गतिरोध के दांयें-बांयें से ध्यान व
समझदारी से निकल जाते हैं। वास्तव में यही स्थिति
ग्रह के साथ है या तो हम सहनशीलता से धैर्य रखें, बुरा
वक्त निकल जायेगा या फिर दायें-बांये से निकल
जायें अर्थात् ग्रह का उपचार दान, जप आदि कर
बाधाओं को पार कर जायें। अन्य ग्रहों का भी गोचर
का विचार इसी विधि से करते हैं कौन ग्रह किस
विषय का कारक है या किस भाव का स्वामी है उस
भाव संबंधी विषयों के बारे में फलित करने हेतु ग्रह का
चयन करते हैं। विचारणीय ग्रह के पथ में जो ग्रह शुभ
बिन्दु प्रदान करते हैं व शुभ बिन्दु प्रदान करने वाले
ग्रह से संबंधित विषय का (अर्थात् शुभ बिन्दु देने वाले
ग्रह किस संबंध अथवा वस्तु को दर्शाते हैं) जातक को
लाभ देने में सहायक होंगे। जैसे उपरोक्त उदाहरण में
बृहस्पति कुंभ में गोचर करते समय शनि की कक्ष्या से
गुजर रहे हैं, शनि ने यहां शुभ बिन्दु प्रदान किया है
अत: इस समय बृहस्पति के गोचर को शुभफल प्रदान करने
में नौकर-चाकर, निम्न जाति/श्रेणी के लोग, लोहे
की वस्तुएं आदि जातक को लाभ देंगी। कुछ विद्वान
राशि के स्थान पर भाव के आठ भाग कर कक्ष्या
स्थापित करने की ब