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तिथियों का ज्ञान:- Tithi Jyotish - 2

तिथियों का ज्ञान:- Tithi Jyotish - 2

तिथि की वृद्धि-क्षय से ज्यादा फ़र्क नही पड़ता। सूर्योदय से मध्यान्ह तक जो तिथि न हो, वह खंडित माननी चाहिए, उसमे व्रतों का आरंभ अथवा समाप्ति नही करनी चाहिए। 

एकादशी व्रत के लिए सूर्योदयव्याप्त तिथि लेनी चाहिए। यदि दो दिन एकादशी में ही सूर्योदय हो रहा हो तो व्रत दूसरे दिन करना चाहिए। जिस तिथि में सूर्योदय हो, उसे पूर्ण तिथि मानते है।

दैवकर्म में पूर्णाहव्यापिनी, श्राद्धकर्म में कुतुपकाल (८ वाँ मुहूर्त) व्यापिनी तथा रात्रि(नक्त) व्रतों में प्रदोषकालव्यापिनी तिथि लेनी चाहिए। 

चंद्रवर्ष के अनुसार, जिस भी महीने की पूर्णमासी को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है, उसी नक्षत्र के नाम पर उस महीने का नाम रखा गया है जो इस प्रकार है:- 

चित्रा नक्षत्र के नाम पर चैत्र मास, विशाखा नक्षत्र के नाम पर वैशाख, ज्येष्ठा के नाम पर ज्येष्ठ, आषाढ़ा के नाम पर आषाढ़, श्रवण के नाम पर श्रावण, भाद्रपद के नाम पर भाद्रपद, अश्विनी के नाम पर अश्विन, कृतिका के नाम पर कार्तिक, पुष्य के नाम पर पौष, मघा के नाम पर माघ और फाल्गुनी के नाम पर फाल्गुन मास। 

सभी तिथियों की अपनी एक अध्यात्मिक विशेषता होती है जैसे अमावस्या पितृ पूजा के लिए आदर्श होती है, चतुर्थी गणपति की पूजा के लिए, पंचमी आदिशक्ति की पूजा के लिए, छष्टी कार्तिकेय पूजा के लिए, नवमी राम की पूजा, एकादशी व द्वादशी विष्णु की पूजा के लिए, तृयोदशी शिव पूजा के लिए, चतुर्दशी शिव व गणेश पूजा के लिए तथा पूर्णमा सभी तरह की पूजा से सम्बन्धित कार्यकलापों के लिए अच्छी होती है.

सूर्य और चंद्रमा के अंतराल (दूरी) से तिथियां निर्मित होती हैं। अमावस्या के दिन सूर्य एवं चंद्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं। अत: उस दिन सूर्य और चंद्रमा का भोग्यांश समान होता है। चंद्रमा अपनी शीघ्र गति से जब 12 अंश आगे बढ़ जाता है तो एक तिथि पूर्ण होती है-

‘भक्या व्यर्कविधोर्लवा यम कुभिर्याता तिथि: स्यात्फलम्’।

जब चंद्रमा सूर्य से 24 अंश की दूरी पर होता है तो दूसरी तिथि होती है। इसी तरह सूर्य से चंद्रमा 180 अंश की दूरी पर होता है तो पूर्णिमा तिथि होती है और जब 360 अंश की दूरी पर होता है तो अमावस्या तिथि होती है।

तिथि क्षय एवं वृद्धि-
ग्रहों की आठ प्रकार की गति होती है। अत: ग्रहों की विभिन्न गतियों के कारण ही तिथि क्षय एवं वृद्धि होती है।
एक तिथि का क्षय 63 दिन 54 घटी 33 कला पर होती है।

जिसमें एक सूर्योदय हो वह शुद्ध, जिसमें सूर्योदय न हो वह क्षय और जिसमें दो सूर्योदय हो वह वृद्धि तिथि कहलाती है।

क्षय और वृद्धि तिथियां शुभ कार्यों में वर्ज्य और शुद्ध तिथि शुभ होती है।

तिथियों की गणना शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होती है।

शुक्ल पक्ष की तिथि
शून्य अंश से 12 अंश तक प्रतिपदा
12 से 24 अंश तक द्वितीया
24 से 36 अंश तक तृतीया
36 से 48 अंश तक चतुर्थी
48 से 60 अंश तक पंचमी
60 से 72 अंश तक षष्ठी
72 से 84 अंश तक सप्तमी
84 से 96 अंश तक अष्टमी
96 से 108 अंश तक नवमी
108 से 120 अंश तक दशमी
120 से 132 अंश तक एकादशी
132 से 144 अंश तक द्वादशी
144 से 156 अंश तक त्रयोदशी
156 से 168 अंश तक चतुर्दशी
168 से 180 अंश तक पूर्णिमा

कृष्ण पक्ष की तिथि-(ह्रास मान अंशों के अनुसार)
180 से 168 अंश तक प्रतिपदा
168 से 156 अंश तक द्वितीया
156 से 144 अंश तक तृतीया
144 से 132 अंश तक चतुर्थी
132 से 120 अंश तक पंचमी
120 से 108 अंश तक षष्ठी
108 से 96 अंश तक सप्तमी
96 से 84 अंश तक अष्टमी
84 से 72 अंश तक नवमी
72 से 60 अंश तक दशमी
60 से 48 अंश तक एकादशी
48 से 36 अंश तक द्वादशी
36 से 24 अंश तक त्रयोदशी
24 से 12 अंश तक चतुर्दशी
12 से शून्य अंश तक अमावस्या

(कृष्ण पक्ष की गणना 180 अंश चंद्रमा से 360 अंश के संक्रमण के दौरान ह्रास मान अंशों की गति के अनुसार किया जाता है)

तिथि विवरण
प्रतिपदा तिथि- यह वृद्धि और सिद्धप्रद तिथि है। स्वामी अग्नि देवता, नन्दा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ। इस तिथि में कूष्माण्ड दान एवं भक्षण त्याज्य है।

द्वितीया- यह सुमंगला और कार्य सिद्धिकारी तिथि है। इसके स्वामी ब्रह्मा हैं। भद्रा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में कटेरी फल का दान और भक्षण त्याज्य है।

तृतीया तिथि- यह सबला और आरोग्यकारी तिथि है। इसकी स्वामी गौरी जी हैं। जया नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में नमक का दान व भक्षण त्याज्य है।

चतुर्थी तिथि- यह खल और हानिप्रद तिथि है। इसके स्वामी गणेश जी हैं। रिक्ता नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में तिल का दान और भक्षण त्याज्य है।

पंचमी तिथि- यह धनप्रद व शुभ तिथि है। इसके स्वामी नागराज वासुकी हैं। पूर्णा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ और कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में खट्टी वस्तुओं का दान और भक्षण त्याज्य है।

षष्ठी तिथि- कीर्तिप्रद तिथि है। इसके स्वामी स्कंद भगवान हैं। नन्दा नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण पक्ष में मध्यम फलदायी, तैल कर्म त्याज्य।

सप्तमी तिथि- मित्रप्रद व शुभ तिथि है। इसके स्वामी भगवान सूर्य हैं। भद्रा नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, आंवला त्याज्य।

अष्टमी तिथि- बलवती व व्याधि नाशक तिथि है। इसके देवता शिव जी हैं। जया नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, नारियल त्याज्य।

नवमी तिथि- उग्र व कष्टकारी तिथि है। इसकी देवता दुर्गा जी हैं। रिक्ता नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, काशीफल (कोहड़ा, कद्दू) त्याज्य।

दशमी तिथि- धर्मिणी और धनदायक तिथि है। इसके देवता यम हैं। पूर्णा नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, त्याज्य कर्म परवल है।

एकादशी तिथि- आनंद प्रदायिनी और शुभ फलदायी तिथि है। इसके देवता विश्व देव हैं। नन्दा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म दाल है।

द्वादशी तिथि- यह यशोबली और सर्वसिद्धिकारी तिथि है। इसके देवता हरि हैं। भद्रा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म मसूर है।

त्रयोदशी तिथि- यह जयकारी और सर्वसिद्धिकारी तिथि है। इसके देवता मदन (कामदेव) हैं। जया नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म बैंगन है।

चतुर्दशी तिथि- क्रूरा और उग्रा तिथि है। इसके देवता शिवजी हैं। रिक्ता नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म मधु है।

पूर्णिमा तिथि- यह सौम्य और पुष्टिदा तिथि है। इसके देवता चंद्रमा हैं। पूर्णा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में पूर्ण शुभ, त्याज्य कर्म घृत है।

अमावस्या तिथि- पीड़ाकारक और अशुभ तिथि है। इसके स्वामी पितृगण हैं। फल अशुभ है, त्याज्य कर्म मैथुन है।

शुभ ग्राह्य तिथियां
बच्चे नाम रखना- प्रतिपदा (कृष्ण पक्ष) तथा इसके अतिरिक्त दोनों पक्षों की 2, 3, 7, 10, 11, 12 व 13वीं तिथि तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
विद्यारंभ- शुक्ल पक्ष में 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13वीं तिथि तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
मुण्डन संस्कार- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
दुकान एवं बहीखाता प्रारंभ करना- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 7, 10, 12, 13वीं तिथि तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
नौकरी आरंभ करना- दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
वाहन खरीदने के लिए- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
गृहारंभ एवं शिलान्यास- नींव खोदने एवं मकान बनवाने के लिए कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
नूतन घर में प्रवेश- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
भूमि खरीदने के लिए- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 5, 6, 10, 11, 13 तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
विवाह मुहूर्त- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
(अधिकांश कार्यों में 4, 9, 14 तिथियों को जिन्हें रिक्ता नाम से ख्याति है, त्याज्य माना गया है। )
विशेष-
यदि रविवार को द्वादशी तिथि हो तो क्रकच और दग्धा नाम कुयोग तथा प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी होने पर मृत्युदा (पीड़ाकारक) योग होता है। इस दिन शेष सभी तिथियां शुभ हैं।
सोमवार को एकादशी होने पर क्रकच और दग्धा कुयोग और द्वितीया, सप्तमी तथा द्वादशी होने पर मृत्युदा योग होता है। शेष सभी तिथियां शुभ हैं।
मंगलवार को दशमी होने क्रकच और पंचमी होने पर दग्ध नामक कुयोग तथा प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी होने पर मृत्युदा नामक योग होता है। तृतीया, अष्टमी तथा त्रयोदशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
बुधवार को नवमी होने पर क्रकच, तृतीया होने पर दग्ध नामक कुयोग और तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी होने पर मृत्युदा नामक योग होता है। द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
गुरुवार को अष्टमी, षष्ठी होने पर क्रमश: क्रकच और दग्ध कुयोग तथा चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी होने पर मृत्युदा योग, पंचमी, दशमी, पूर्णिमा होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
शुक्रवार को सप्तमी होने पर क्रकच, अष्टमी होने पर दग्ध नाम कुयोग, द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी होने पर मृत्युदा योग और प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
शनिवार को षष्ठी होने पर क्रकच और नवमी होने पर दग्ध नामक कुयोग तथा पंचमी, दशमी पूर्णिमा होने पर मृत्युदा योग और चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
(उपरोक्त दोष मध्याह्न के पश्चात न्यून हो जाते हैं और यदि सर्वार्थसिद्धि योग, अमृत योग, रवियोग इत्यादि दोषसंघ निवारक योग होता है तो तिथि जन्म दोष समाप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त चंद्रबल यदि उत्तम है तो भी तिथि के कारण उत्पन्न कुयोगों का निवारण हो जाता है- क्रकचो मृत्यु योगाख्यो दिने दग्ध तथैव च। चंद्रे शुभे क्षयं यान्ति वृक्षा वज्राहता इव।।)


एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की होती है। चंद्र मास में ३० तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।
तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।

हिन्दू काल गणना के अनुसार मास में ३० तिथियाँ होतीं हैं, जो दो पक्षों में बंटीं होती हैं। चन्द्र मास एक अमावस्या के अन्त से शुरु होकर दूसरे अमावस्या के अन्त तक रहता है. अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र का भौगांश बराबर होता है. इन दोनों ग्रहों के भोंगाश में अन्तर का बढना ही तिथि को जन्म देता है. तिथि की गणना निम्न प्रकार से की जाती है.
हमारे पर्व-त्योहार हिन्दी तिथियों के अनुसार ही होते हैं, इसके पीछे एक विशेष कारण है। पर्व-त्योहारों में किसी विशेष देवता की पूजा की जाती है। अतः स्वाभाविक है कि वे जिस तिथि के अधिपति हों, उसी तिथि में उनकी पूजा हो। यही कारण है कि उस विशेष तिथि को ही उस विशिष्ट देवता की पूजा की जाए। तिथियों के स्वामी संबंधी वर्णन निम्न है :
प्रतिपदा- अग्नयादि देवों का उत्थान पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को होता है। अग्नि से संबंधित कुछ और विशेष पर्व प्रतिपदा को ही होते हैं।
द्वितीया- प्रजापति का व्रत प्रजापति द्वितीया इसी तिथि को होता है।
तृतीया- चूँकि गौरी इसकी स्वामिनी है, अतः उनका सबसे महत्वपूर्ण व्रत हरितालिका तीज भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया को ही महिलाएँ करती हैं।
चतुर्थी- गणेश या विनायक चतुर्थी सर्वत्र विख्यात है। यह इसलिए चतुर्थी को ही होती है, क्योंकि चतुर्थी के देवता गणेश हैं।
पंचमी- पंचमी के देवता नाग हैं, अतः श्रावण में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की दोनों चतुर्थी को नागों तथा मनसा (नागों की माता) की पूजा होती है।
षष्ठी- स्वामी कार्तिक की पूजा षष्ठी को होती है।
सप्तमी- देश-विदेश में मनाया जाने वाला सर्वप्रिय त्योहार प्रतिहार षष्ठी व्रत (डालाछठ) यद्यपि षष्ठी और स्वामी दोनों दिन मनाया जाता है, किंतु इसकी प्रधान पूजा (और उदयकालीन सूर्यार्घदान) सप्तमी में ही किया जाता है। छठ पर्व के निर्णय में सप्तमी प्रधान होती है और षष्ठी गौण। यहाँ ज्ञातव्य है कि सप्तमी के देवता सूर्य हैं।
वस्तुतः सायंकालीन अर्घ्य में हम सूर्य के तेजपुंज (सविता) की आराधना करते हैं, जिन्हें 'छठमाई' के नाम से संबोधित करके उन्हें प्रातःकालीन अर्घ्य ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया जाता है, जिसे ग्रामीण अंचलों में 'न्योतन' कहा जाता है, पुनः प्रातःकालीन सूर्य को 'दीनानाथ' से संबोधित किया जाता है।

तिथि = चन्द्र का भोगांश - सूर्य का भोगांश
शुक्ल पक्ष में १-१४ और पूर्णिमा-शुक्ल पक्ष हिन्दू काल गणना अनुसार पूर्णिमांत माह के द्वितीयार्ध पक्ष (१५ दिन) को कहते हैं। यह पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक होता है।
पूर्णिमा
चैत्र की पूर्णिमा के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है।
वैशाख की पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है।
ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन वट सावित्री मनाया जाता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू-पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। इसी दिन कबीर जयंती मनाई जाती है।
श्रावण की पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का पर्व मनाया जाता है।
भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन उमा माहेश्वर व्रत मनाया जाता है।
अश्विन की पूर्णिमा के दिन शरद पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
कार्तिक की पूर्णिमा के दिन पुष्कर मेला और गुरुनानक जयंती पर्व मनाए जाते हैं।
मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन श्री दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है।
पौष की पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयंती मनाई जाती है। जैन धर्म के मानने वाले पुष्यभिषेक यात्रा प्रारंभ करते हैं। बनारस में दशाश्वमेध तथा प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर स्नान को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
माघ की पूर्णिमा के दिन संत रविदास जयंती, श्री ललित और श्री भैरव जयंती मनाई जाती है। माघी पूर्णिमा के दिन संगम पर माघ-मेले में जाने और स्नान करने का विशेष महत्व है।
फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन होली का पर्व मनाया जाता है।

कृष्ण पक्ष में १-१४ और अमावस्या-कृष्ण पक्ष हिन्दू काल गणना अनुसार पूर्णिमांत माह के उत्तरार्ध पक्ष (१५ दिन) को कहते हैं। यह पक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक होता है।
अमावस्या



तिथियाँ शुक्लपक्ष (Shukla Pakshya) की प्रतिपदा (Pratipada) से गिनी जाती है. पूर्णिमा (Purnima) को 15 तथा अमावस्या (Amabasya) को 30 तिथि कहते हैं. जिस दिन सूर्य व चन्द्रमा में 180º का अन्तर (दूरी) होता है अर्थात सूर्य व चन्द्र आमने सामने होते हैं तो वह पूर्णिमा तिथि कहलाती है. और जब सुर्य व चन्द्रमा एक ही स्थान पर होते हैं अर्थात 0º का अन्तर होता है तो अमावस्या तिथि कहलाती है. भचक्र का कुलमान (Kulman) 360º है, तो एक तिथि=360»30=12º अर्थात सूर्य-चन्द्र में 12º का अन्तर पडने पर एक तिथि होती है.
उदाहरण स्वरुप 0º से 12º तक प्रतिपदा (शुक्ल पक्ष) 12º से 24º तक द्वितीय तथा 330º से 360º तक अमावस्या इत्यादि. भारतीय ज्योतिष की परम्परा में तिथि की वृद्धि एंव तिथि का क्षय भी होता है. जिस तिथि में दो बार सूर्योदय आता है वह वृद्धि तिथि कहलाती है तथा जिस तिथि में एक भी सूर्योदय न हो तो उस तिथि का क्षय हो जाता है. उदाहरण के लिए एक तिथि सूर्योदय से पहले प्रारम्भ होती है तथा पूरा दिन रहकर अगले दिन सूर्योदय के 2 घंटे पश्चात तक भी रहती है तो यह तिथि दो सूर्योदय को स्पर्श कर लेती है. इसलिए इस तिथि में वृद्धि हो जाती है . इसी प्रकार एक अन्य तिथि सूर्योदय के पश्चात प्रारम्भ होती है तथा दूसरे दिन सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाती है, क्योंकि यह तिथि (Tithi) एक भी सूर्योदय को स्पर्श नहीं करती अतः क्षय होने से तिथि क्षय (Tithikshya) कहलाती है.

ये युगादि तिथियाँ बताई गयी हैं, अब मन्वन्तर की प्रारंभिक तिथियों का श्रवण कीजिये । अश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, चैत्र और भाद्र की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की पूर्णिमा, कार्तिक की पूर्णिमा, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ की पूर्णिमा – ये मन्वन्तर की आदि तिथियाँ हैं, जो दान के पुण्य को अक्षय करने वाली हैं ।
क्ष और ग्रहण के सम्बन्ध में जानकारी
पक्ष और ग्रहण के सम्बन्ध में जानकारी
एक महीने में दो पक्ष होते है -----पहला पक्ष कृष्ण पक्ष और दूसरा पक्ष शुक्ल पक्ष |
कृष्ण पक्ष में अमावस्या होती है और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा होती  है |  जब भी ग्रहण होते है तो अमावस्या को सूर्य ग्रहण होता है | पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण होता है |
पूर्णिमा के बाद का पहला दिन [ प्रतिपदा ] कृष्ण पक्ष का होता है, जबकि अमावस्या के बाद का पहला दिन [ प्रतिपदा ] शुक्ल पक्ष का होता है |

तिथियों की पूर्ण जानकारी
तिथियाँ १५ होती है और पक्ष में भी १५ होती  है |
तिथियों के स्वामी ---- प्रतिपत का स्वामी = अग्नि ,  द्वितीय का = ब्राह्ग  , तृतीया का स्वामी =  पार्वती शिव , चतुर्थ का स्वामी = गणेशजी , पंचमी का स्वामी =सर्पदेव ( नाग ) , षष्ठी का स्वामी = कार्तिकेय , सप्तमी का स्वामी = सूर्यदेव , अष्टमी का स्वामी = शिव , नवमी का स्वामी = दुर्गाजी , दशमी का स्वामी = यमराज , एकादशी का स्वामी = विश्वदेव , द्वादशी का स्वामी = विष्णु भगवान , त्रयोदशी का स्वामी = कामदेव , चतुर्दशी का स्वामी = शिव , पूर्णिमा का स्वामी = चन्द्रमा , अमावस्या का स्वामी = पित्रदेव |
नोट -- जिस देवता की जो विधि कही गई है उस तिथि में उस देवता की पूजा , प्रतिष्ठा , शांति विशेष हितकर होती है |

 नोट -- शुक्ल पक्ष में नंदा , भद्रा  , जया , रिक्त , और पूर्ण क्रम से अशुभ , मध्य और शुभ होती है |
अर्थात  शुक्ल पक्ष में ऊपर लिखी हुई
प्रथम खंड की पांच तिथियाँ  अशुभ होती है |
 द्वितीया खंड की पाँच तिथियाँ मध्यम
और तृतीया के पाँच तिथियाँ उत्तम होती है |

इसी तरह कृष्ण पक्ष में-- 
प्रथम खंड की पाँच तिथियाँ शुभ होती है |
द्वितीया की  पाँच तिथियाँ मध्य होती है |

तृतीया से  पाँच तिथियाँ अशुभ होती है |
सामान्यत: तिथियों को ५ पांच श्रेणियों  में बांटा  गया है |
१.  नंदा तिथि : दोनों पक्षों की प्रतिपदा , षष्ठी व्  एकादशी (१,६,११,) नंदा तिथि कहलाती है | तिथि  गंडांत काल /समय प्रथम घटी  या शुरुआत के २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए इन तिथियों को शुभ माना जाता है |
२.  भद्रा तिथि : दोनों पक्षों की द्वितीया , सप्तमी , व् द्वादशी (२,७,१२,) भद्रा तिथि  कहलाती है | व्रत,जप, ताप, दान-पुण्य,
जैसे  धार्मिक  कार्यों के लिए ही शुभ मानी जाती है |
३.  जया तिथि : दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी , व् त्रयोदशी (३,८,१३,) जया तिथि कहलाती है | गायन , वादन  जैसे शुभ कार्य ही  किये जा सकते हैं |
४.  रिक्ता तिथि : दोनों पक्षों की चतुर्थी , नवमी,व् चतुर्दशी (४,९,१४,) रिक्ता तिथि कहलाती है | तीर्थ यात्राएँ, मेले आदि के लिए ठीक होती हैं |
५.  पूर्णा तिथि : दोनों पक्षों की पंचमी , दशमी, पूर्णिमा, और  अमावस (५,१०,१५,३०,) पूर्णा तिथि  कहलाती हैं | तिथि
गंडांत काल  तिथि के अंतिम एक घटी या अंतिम २४ मिनट को छोड़कर सभी प्रकार के मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ
शुभ मानी जाती हैं |

ऋतु (Seasons) : वर्ष में कुल ६ ऋतुएँ होती हैं , एक ऋतु की अवधि दो मास की होती है | अलग – अलग ऋतुओं में अलग - अलग मौसम होता है
ऋतुओं में मौसम एवं अवधि की समय सारिणी

विशेष तिथियाँ :  उपरोक्त तिथियों में कुछ तिथियाँ विशेष कहलाती हैं | जिनमें  कुछ तिथियाँ अच्छी व् मंगलमय होती हैं
एवं कुछ तिथियाँ अशुभ या शुभ कार्यों के लिए वर्जित होती हैं | ये तिथियाँ निम्न प्रकार से हैं :
१.  युगादि तिथियाँ  :सतयुग प्रारम्भ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी , त्रेतायुग प्रारम्भ तिथि – वैशाख शुक्ल तृतीया ,
द्वापरयुग प्रारम्भ तिथि – माघ कृष्ण पक्ष अमावस ,कलियुग प्रारम्भ तिथि – भाद्रपद कृष्ण पक्ष त्रयोदशी आदि तिथियाँ हैं |
२.  सिद्धा  तिथियाँ :  मंगलवार की ३,८, १३, तृतीया , अष्टमी, त्रयोदशी, बुधवार की  २,७, १२  द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी, गुरूवार की ५,१०,१५, पंचमी, दशमी, पूर्णिमा, व् अमावस , शुक्रवार की १,६,११, प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी, और शनिवार की ४,९,१४, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी , तिथियाँ सिद्धा तिथियाँ कहलाती हैं  तथा सभी कार्यों के लिए शुभ मानी जाती हैं |
३.  पर्व तिथियाँ : कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी, और अमावस  तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और
संक्रान्ति  तिथि पर्व तिथि कहलाती हैं |इनको शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ दिया जाता है |
४.  प्रदोष तिथियाँ : द्वादशी तिथी अर्धरात्रि पूर्व , षष्ठी तिथि रात्रि से ४ चार घंटा ३० तीस मिनट पूर्व, एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ तीन घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं , इनमें सभी शुभ  कार्य वर्जित हैं |
५.  दग्धा , विष, हुताशन , तिथियाँ : दग्ध, विष, हुताशन, तिथियाँ क्रमशः  रविवार को १२,४, १२, सोमवार  को ११,६,६, मंगलवार को ५,७,७  बुधवार को ३,२,८, गुरूवार को  ६,८,९, शुक्रवार को  ८,९,१०, शनिवार को ९,७,११, होती हैं | उपरोक्त  सभी वारों में जो तिथियाँ आती हैं  वो क्रमशः दग्धा , विष, हुताशन  तिथियों में आती हैं | ये सभी तिथियाँ  अशुभ और  हानिकारक मानी जाती हैं |
६.  वृद्धि तिथि :  सूर्योदय के पूर्व प्रारम्भ  होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि वृद्धि तिथि कहलाती है| इसे तिथि वृद्धि भी कहते हैं, सभी मुहूर्तों के लिए ये अशुभ होती है |
७.  क्षय तिथि : सूर्योदय के पश्चात प्रारम्भ  होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि क्षय तिथि कहलाती है | इसे तिथि क्षय भी कहते हैं , ये तिथि भी सभी मुहूर्तों के लिए अशुभ होती है |
८.  गंड तिथि :  सभी पूर्णा तिथियों  ५,१०,१५,३०, यानी  पंचमी , दशमी, पूर्णिमा , अमावस  कि अंतिम एक घटी या २४
मिनट  तथा नंदा तिथियों १,६,११, यानी  प्रतिपदा , षष्ठी, एकादशी  की  प्रथम एक घटी या २४ मिनट  गंड तिथियों की
श्रेणी में आती हैं | इन्हें  तिथि गंडांत भी कहते हैं | इन तिथियों की उक्त घटी अथवा २४ मिनट को सभी मुहूर्तों के लिए वर्जित माना  जाता  है , अतः इस समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए |


नन्दा(Nanda Tithi) , भद्रा (Bhadra Tithi) , जया (Jaya Tithi) , रिक्ता (Rikta Tithi) और पूर्णा तिथियां (Poorna Tithi) एक पक्ष में तीन चरण में आती हैं. शुक्ल पक्ष के प्रथम चरण में ये तिथियां अशुभ, द्वितीय चरण में मध्यम फल देने वाली तथा तृतीय में उपयुक्त और शुभफलदायी होती हैं. परन्तु कृष्ण पक्ष में यह क्रम उल्टा चलता है. प्रथम चरण में ये तिथियां उपयुक्त एवं शुभफलदायी, द्वितीय में मध्यम फल देने वाली तथा तृतीय में अशुभ होती हैं.

शुक्ल पक्ष की तिथि के प्रथम चरण में चन्द्र सौर चन्द्र वृत में 60 अंश पर रहता है इसलिए इस दौरान चन्द्रमा अशुभ फलदायी होता है. दुसरे चरण में चन्द्र 60 से 120 अंश पर रहता है और इस दौरान चन्द्रमा न ही ज्यादा अशुभ और न ही शुभ होता है. तीसरे में चन्द्र 120 से 180 अंश पर रहता है और इस दौरान चन्द्रमा बहुत ज्यादा अशुभफलदायी होता है. परन्तु कृष्ण पक्ष में पहले चरण के दौरान चन्द्र 180 से 240 के अंश पर रहता है तथा अत्यधिक शुभ फलदायी होता है. इस पक्ष के दूसरे चरण में चन्द्र 240 से 300 के अंश पर रहता है और इस दौरान चन्द्रमा से प्राप्त फल न ही ज्यादा शुभ होते हैं और न ही अशुभ. इसी तरह इस पक्ष के तीसरे चरण में चन्द्र 300 से 360 के अंश पर रहता है और यह बहुत ही ज्यादा अशुभ फलदायी होता है.

Inauspicious Tithis(अशुभ फलदायी तिथियां )

शुभ कार्यो के लिए चौथी, छठवीं, आठवीं, नौवीं, बारहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं तिथियों को अशुभ फलदायी माना जाता है. इन तिथियों में व्यक्ति को कार्य करने तथा नये कार्य की शुरुआत करने से बचना चाहिए. इन तिथियों में कुछ अपवादों को छोड़ दें तो व्यक्ति को शुभ फल नहीं मिलते, इसमें छठी तिथि बहुत ज्यादा अशुभ फलदायी नहीं होती. अगर शुक्र अथवा गुरु लग्न में है तो व्यक्ति को अशुभ फल नही मिलता क्योंकि यह अशुभ तिथि के नकारात्मक प्रभाव को नष्ट कर देता है. इसी तरह अगर कोण शुभ हैं तो रिक्ता तिथि के नकारात्मक प्रभाव भी कम हो जाते हैं. अगर गुरु अच्छी अथवा अपने मित्रवत राशि में हो तो इस स्थिति में छठवीं, आठवीं और पन्द्रवीं राशि अशुभ फल नहीं देती.


Paksha Chitra Tithis(पक्ष चित्रा तिथियां )

उपरोक्त अशुभ तिथियों को पक्ष चित्रा तिथी के नाम से भी जाना जाता है, जिसका मतलब कमजोर स्थिति से है. यह तिथियां मन में बुरे विचार और दुख का कारक होती हैं और इनसे व्यक्ति की कमजोरी और उसके अनिश्चित व्यवहार का विचार किया जाता है.


Parva Tithis(पर्व तिथियां )

चौथी, आठवीं, बारहवीं, पन्द्रहवीं और संक्रान्ति के दौरान आने वाली तिथियों को पर्व तिथि के नाम से जाना जाता है, जिसका मतलब टूटना होता है. इन तिथियों में आमने-सामने बदलाव और परिवर्तन का कार्य करने से व्यक्ति को अच्छे फल नहीं मिलते. अत: इस दौरान व्यक्ति को शुभ कार्य की शुरुआत करने से बचना चाहिए. लेकिन अगर कुछ मूलभूत बदलाव करने हो तो पर्व तिथि सूक्ष्म रुप से ही सही परन्तु व्यक्ति के पक्ष में होती है.


Black Tithis(काली तिथियां )

शुक्ल पक्ष की पहली और कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं तिथि को काली तिथि के नाम से जाना जाता है. शुभ कार्य की शुरुआत के लिए कुछ विशेष मामलों को छोड़ दें तो इन तिथियों को अच्छा नहीं माना जाता है, क्योंकि इन तिथियों के दौरान चन्द्रमा डूबा तथा सूक्ष्म रुप से फलदायी होता है.


Krishna Paksha Tithis(कृष्ण पक्ष की तिथियां )

कृष्ण पक्ष की पहली पांच तिथियां शुभ होंगी या अशुभ कुछ नहीं कहा जा सकता परन्तु पहली तिथि को छोड़कर शुक्ल पक्ष की पहली पांच तिथियां शुभ फलदायी होती हैं. कृष्ण पक्ष की दूसरी पांच तिथियां शुक्ल पक्ष की तिथियों की तुलना में न ही ज्यादा शुभ और न ही अशुभ होती हैं. इसलिए अगर कोई अच्छा विकल्प नहीं है तो इस दौरान कार्य करना व्यक्ति के लिए अच्छा रहता है. कृष्ण पक्ष की अन्तिम पांच तिथियों में कुछ अन्धी तिथियां आती हैं इसलिए इस दौरान किसी शुभ कार्य की शुरुआत करने से बचना चाहिए.


Kshaya and blind tithis(क्षय और अन्धी तिथियां )

तिथि उस स्थिति में प्रभावकारी मानी जाती है जब वह एक सूर्योदय में पूरी हो जाये, परन्तु अगर कोई तिथि दो सूर्योदय में पूरी होती है तो उसे अन्धी तिथि कहा जाता है. इसी तरह अगर कोई तिथि सूर्योदय से शुरु होकर सूर्यास्त की बजाय अगले सूर्योदय को खत्म होती है तो उसे क्षय तिथि कहते हैं. यह दोनों तिथियां अच्छी नहीं मानी जाती अत: व्यक्ति को इन तिथियों के दौरान शुभ कार्य की शुरुआत करने से बचना चाहिए.


Birth Tithi(जन्म तिथि )

जिस पक्ष और तिथि में व्यक्ति का जन्म हुआ हो उस पक्ष की तिथि से व्यक्ति को बचना चाहिए.


Shunya Tithis(शून्य तिथियां )

प्रत्येक महिने की कुछ शून्य तिथियां होती हैं, कौन सी तिथि शून्य तिथी है इस सम्बन्ध में कालप्रकाशिका और मूहुर्त चिन्तामणि तरह-तरह के विचार रखते हैं. कालप्रकाशिका से सिर्फ महिने के आधार पर शून्य तिथि का निर्धारण किया जाता है, जबकी मूहुर्त चिन्तामणि से पक्ष और महिने दोंनों के आधार पर शून्य तिथि का निर्धारण होता है. परन्तु कालप्रकाशिका द्वारा महीने के आधार पर निकाली गयी तिथि मूहुर्त चिन्तामणी से पक्ष के आधार पर निकाली गयी तिथि ज्यादा प्रभावकारी मानी जाती है.
शून्य तिथि के गलत प्रभाव को कम करने का अगर कोई उपाय नहीं है तो इस दौरान किसी भी स्थिति में कार्य को पूरा करने से बचना चाहिए. अगर कार्य समाप्ति की ओर हो और उसे समाप्त करने में कुछ परेशानी आ रही हो तो शून्य तिथी में कार्य करना कुछ स्थितियों में शुभ फलदायी होता है. जैसे-
अगर तिथि का स्वामी दुस्थान में बैठा हो और शून्य राशि दुस्थाना के स्वामी के अलावा किसी अन्य ग्रह में नहीं बैठा हो अथवा तिथि का स्वामी दुस्थान के स्वामी से सम्बन्ध बना रहा हो.
इस स्थिति में सृजनशील और फायदेमंद कार्यक्रम करना भी उपयुक्त रहता है क्योंकि इन मामलों में शून्य तिथि के सारे गलत प्रभाव खत्म हो जाते हैं. अगर स्थिति पक्ष में नहीं है तो शून्य तिथि की थोड़ी परेशानियों के बाद निम्न स्थितियों में तिथि पक्ष में आ सकेगी. अगर लग्न का स्वामी अपनी राशि से सम्बन्ध बना रहा हो तो शून्य तिथि के नकारात्मक प्रभाव समाप्त हो जायेंगे. अगर चन्द्रमा की तरह गुरु भी उसी नक्षत्र में हो तो शून्य तिथि के सारे प्रभाव समाप्त हो जाते हैं. अगर सभी शुभफल मजबूत स्थिति में हो तो इस स्थिति में भी शून्य तिथि के सारे प्रभाव समाप्त हो जाते हैं.


Blind Tithis(अन्धी तिथियां )

शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं चौदहवीं पन्द्रवीं तथा कृष्ण पक्ष की पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी तिथि को अन्धी तिथि कहा जाता है. शुक्ल पक्ष की आठवीं, नौवी, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं तिथि को अर्धदृष्टी तथा चौदहवीं और पन्द्रवीं को पूर्णदृष्टी तिथि कहा जाता है. कृष्ण पक्ष की पहली, आठवीं, नौवीं, दसवीं को अर्धदृष्टी तिथि तथा दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, छठवीं और सातवीं को पूर्णदृष्टी तिथि कहा जाता है.

अर्धदृष्टी कुछ हद तक ही शुभ फलदायी होती है तथा पूर्णदृष्टी कार्य की शुरुआत के लिए बहुत ही ज्यादा अच्छी और उपयुक्त होती है. अन्धी तिथि कुछ अपवादों को छोड़कर शुभ फलदायी नहीं होती इसलिए इस तिथि के दौरान कार्य की शुरुआत करना अच्छा नही होता परन्तु अगर बुध तीसरे, छठे, दसवें अथवा ग्यारहवें तथा चन्द्रमा नौवें तथा दसवें घर में हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ रही हो तो अन्धी तिथि के सारे नकारात्मक प्रभाव समाप्त हो जाते हैं.

अगर बुध, गुरु अथवा शुक्र चौथे, सातवें, अथवा दसवें घर में शुभ होकर स्थित हो तो भी अन्धी तिथि के नकारात्मक प्रभाव खत्म हो जाते हैं. अगर ग्रह शुभ स्थिति में अथवा लगन में हो तो अन्धी तिथि के सारे नकारात्मक प्रभाव समाप्त हो जाते हैं. अगर चन्द्रमा चौथे, सातवें, नौवें तथा दसवें घर में हो तो भी अन्धी तिथि का गलत व्यक्ति पर नहीं पड़ता.


Yugadi and Manvadi Tithis(युगादि और मनवादी तिथियां )

ऎसा माना जाता है कि निम्न महिनों और तिथियों मे इन युगों की शुरुआत हुई और इन्हें युगादि तिथि कहते है.सत्ययुग कार्तिक महिने में शुक्ल पक्ष की नौवीं तिथि से सत्ययुग की शुरुआत होती है.
त्रेतायुग- बैशाख महिने में शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि से सत्यगुग की शुरुआत होती है.
द्वापरयुग- भद्रपद महिने की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि से द्वापर युग की शुरुआत होती है.
कलयुग- मेघ मास की अमावस्या को कलयुग की शुरुआत हुई.
ऎसा माना जाता है कि निम्न महिनों और तिथियों में इन मनवन्तर की शुरुआत हुई और इन्हें मनोवादि तिथी कहते है. जैसे स्वायाम्भूवा मनवन्तर की शुरुआत चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि को तथा ब्रह्म स्वर्णी मनवन्तर की शुरुआत मेघ मास की शुक्ल पक्ष की सातवीं तिथि को हुई.

मनवादी तिथि के सन्दर्भ में तीनों मनवन्तरों के कुछ अलग विचार हैं जिसमें से पहला मुहूर्त चिन्तामणि से आता है और अन्य सभी कालप्रकाशिका से आते हैं. परन्तु इस तरह की युति बहुत ही कम बनती है और इस सन्दर्भ में जानकारी का भी काफी अभाव है.

मुहूर्त चिन्तामणि (Muhurta Chinatamani) के अनुसार जो तिथि युग और मनवन्तर से होती है वह कार्य की शुरुआत के लिए अच्छी नही होती. इसलिए व्यक्ति को दान-पुण्य, पवित्र नदी में स्नान, तीर्थयात्रा और इसी तरह के धार्मिक कार्यकलापो के अलावा कोई नया कार्य नही करना चाहिए. कालप्रकासिका के अनुसार सिर्फ वेदों के अध्ययन के लिए समय उपयुक्त नही होता.


Vishnadi Tithis(विषनाडी तिथि )

सभी तिथियों का एक अलग समय होता है जब वे अपना नकारात्मक प्रभाव देती हैं इस अवधि को विषनाडी तिथि कहते हैं, यह तिथि कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी मामलों में शुभफल नहीं देती है. विषनाडी तिथि चार नाडियों के लिए मौजूद होती है. पहली नाडी को पतन का कारक कहा जाता है, दूसरी नाडी व्यक्ति विशेष की जिन्दगी को प्रभावित करती है, तीसरी नाडी सभी तरह की चीजों और सभी लोगों के पतन का कारक होती है. चौथी नाडी परिवार की खुशहाली को नुकसान पहुंचाने का कारक होती है.

अगर चन्द्रमा नौवें अथवा दसवें घर में हो और उस पर बृहस्पति की दृष्टि पड़ रही हो तो विषनाडी के अशुभ प्रभाव समाप्त हो जाते हैं. इसी तरह अगर लग्न में शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा अपने नवमांस में उच्च का हो अथवा सिंहासनमासा में हो तो भी विषनाडी के गलत प्रभाव समाप्त हो जाते हैं.


लग्न तालिका के १२ भाव

उत्तर भरत में लग्न तालिका नीचे दिए गए चित्र के अनुसार बनाई जाती है | इसमें जो बारह खाने बने हैं उनमें चित्र की तरह केंद्र के प्रथम भाव से प्रारंभ करके घडी की सुइ की उलटी दिशा में चलते हुए बारहवें भाव तक बनाए जाते हैं | उक्त बारह भाव में प्रत्येक भाव मनुष्य के जीवन के किसी विशेष क्षेत्र को तथा किसी विशेष अंग की स्थिति बताता है | प्रत्येक भाव का विस्तृत अध्ययन अलग से किया जायेगा | उदाहरणार्थ प्रथम भाव मनुष्य के सामान्य शारीरिक गठन व सिर के सम्बन्ध में बताता है |

चित्र -१

जन्म तालिका में राशियों और ग्रहों को प्रदर्शित करना – किसी व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी अपने परिपथ पर चलते हुए जिस राशि में है, वह राशि की क्रम संख्या के रूप में प्रथम भाव में लिखी जाती है तथा उसके आगे कि राशियाँ घडी की सुइयों के उलटी दिशा में क्रमश दुसरे, तीसरे…..आदि भावों में लिखी जाती है | इस राशि को ही जन्म राशि कहते हैं |

उदाहरण के लिए – यदि किसी व्यक्ति का जन्म चित्र २ के अनुसार उस समय हुआ है, जब पृथ्वी ३० डिग्री एवं ६० डिग्री के बीच अर्थात वृष राशि में थी तो लग्न तालिका के प्रथम भाव में वृष राशि की क्रम संख्या अर्थात २ लिखा जायेगा तथा उसके बाद द्वितीय, तृतीय आदि भावों में लिखा जायेगा | बारहवें भाव में राशि क्रम संख्या १ (मेष) लिखा जायेगा |

राशियों को अंकित करने के बाद अन्य ग्रहों की स्थिति जन्म के समय देख कर उसे सम्बंधित राशि वाले भाव में लिखा जायेगा | उदाहरणार्थ चित्र २ के अनुसार, जन्म के समय बृहस्पति वृष (२) राशि में व चंद्रमा मिथुन (३) राशि में है | अतः चित्र ३ में प्रथम भाव में बृहस्पति व द्वितीय भाव में चंद्रमा लिखा गया है | इसी प्रकार चित्र २ में जन्म के समय शनि व राहु सिंह (५) राशि में, शुक्र मकर (१०) राशियों में, बुध, सूर्य व केतु कुम्भ (११) राशि में तथा मंगल मीन वृष (१२) राशि में है | अतः चित्र ३ में इसी के अनुसार सम्बंधित राशि वाले भाव में इन ग्रहों के नाम लिखे गए हैं | जन्म के समय पृथ्वी किस राशि में, किस डिग्री पर थी तथा अन्य ग्रहों की क्या स्थिति है, इसको ज्ञात करने के लिए गणना का सहारा लिया जाता है जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी | यहाँ केवल हम कुंडली को समझ रहे हैं.. और उसका कांसेप्ट साफ़ कर रहे हैं | इसकी गणना कैसे करते हैं, वो आगे बताया जायेगा |



लग्न कुंडली व चन्द्र कुंडली – चित्र ३ में वृष राशि में जन्मे व्यक्ति की लग्न कुंडली प्रदर्शित है | यह कुंडली चित्र २ के अनुसार पृथ्वी व अन्य ग्रहों की स्थिति प्रदर्शित करते हुए बनाई गयी है | किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में ज्योतिषीय अध्ययन के लिए जन्म कुंडली के अतिरिक्त चन्द्र कुंडली भी बनाई जाती है | उत्तर भारत में बहुधा जन्म के समय पृथ्वी जिस जिस राशि में होती है उस राशि को उस व्यक्ति की ‘लग्न राशि’ या संक्षेप में केवल ‘लग्न’ कहते हैं तथा जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है उसे ‘चन्द्र राशि’ या संक्षेप में केवल ‘राशि’ कह देते हैं | किसी व्यक्ति की चन्द्र कुंडली बनाने के लिए उसकी लग्न कुंडली में चंद्रमा जिस राशि में हो उस राशि को प्रथम भाव में लिख देते हैं तथा उसके आगे की राशियाँ द्वितीय आदि भाव में पूर्व में दी गयी विधि से ही लिखते हैं |

इसके बाद लग्न कुंडली में जो ग्रह जिस राशि में है उसी राशि में वह ग्रह लिख देते हैं | उदाहरणार्थ चित्र ३ में बनाई गयी लग्न कुंडली की चन्द्र कुंडली चित्र ४ के अनुसार होगी | चित्र ३ में चंद्रमा राशि संख्या ३ (मिथुन) में है अतः चित्र ४ में प्रथम भाव में ३ लिखा गया है तथा उसके बाद की राशियाँ द्वितीय, तृतीय आदि भाव में लिखी गयी हैं | जो ग्रह जिस राशि में चित्र ३ में है, वह उसी राशि में चित्र ४ में लिखा गया है | यदि किसी व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी व चंद्रमा एक ही राशि में हो तो उसकी लग्न कुंडली के प्रथम भाव में चंद्रमा ही होगा | अतः उसकी लग्न कुंडली और चन्द्र कुंडली एक समान होगी |



कुंडली बनाने से पहले हमें जन्म समय निकालना आना चाहिए, पर उसके लिए पहले समय के कांसेप्ट को और अच्छे से समझना चाहिए | सीधे जन्म समय का गणित भी बताया जा सकता है, पर हमारा उद्देश्य हर चीज को बारीकी से समझना है इसलिए हम कोई जल्दी नहीं करेंगे | हमने समय को पहले भी संक्षेप में बताया हैं यहाँ घडी और सूर्य के अनुसार समय की चर्चा करेंगे |

भारत वर्ष में स्टैण्डर्ड टाइम ८० डिग्री ५ मिनट रेखांश (देशांतर) निर्धारित हुआ है | किसी विशेष स्थान का समय नहीं है बल्कि ८२ डिग्री ५ मिनट पर रेखांश पर जितने स्थान पड़ते हैं उन सब का यही स्थानक समय समझना चाहिए | इसी के अनुसार भारतवर्ष भर की घड़ियाँ मिलाई जाती है | जब ८२ डिग्री ५ मिनट रेखांश के देशो में १२ बजते हैं तो सम्पूर्ण भारत की घड़ियों में उस समय १२ बजते हैं | इसके कारण व्यवहारिक रीति से कारोबार करने में सुविधा हो गयी कि यदि एक घडी में १२ बजेंगे तो सरे भारतवर्ष में १२ बजेगा |

१.७.१९०५ में यह स्टैण्डर्ड समय की व्यवस्था नहीं थी | इसके पहले ऐसा नहीं होता था, प्रत्येक स्थानों में पृथक पृथक समय ही प्रचलित था |

जिस प्रकार भारतवर्ष का स्टैण्डर्ड समय निर्धारित हुआ है उसी प्रकार प्रत्येक देश का पृथक पृथक स्टैण्डर्ड समय निर्धारित कर दिया गया है और ग्रीनविच समय को मध्य जान कर उसके हिसाब से यह समय निर्धारित हुआ है | बर्मा का स्टैण्डर्ड समय ६.३० मिनट है अर्थात बर्मा भारतवर्ष के समय से १ घंटा बढ़ा हुआ है | दूसरी लड़ाई के समय बर्मा में लड़ाई होने के कारण बर्मा का स्टैण्डर्ड समय भारत में लागू कर दिया गया था यानि की पुराने समय में १ घंटा आगे बढ़ा दिया गया था जो तारिख १ सितम्बर १९४२ से १५ ऑक्टोबर १९४५ के २ बजे तक प्रचलित रहा |

अब के समय में घड़ियों में २ समस्या हैं | एक तो यह कि यदि एक घडी बंद होती है तो दूसरी घडी से मिलान करने पर २-४ मिनट का अंतर प्रत्येक घडी में आ ही जाता है | रेलवे या पोस्ट ऑफिस से बहुत कम घड़ियाँ मिली हुई होती हैं |

दूसरी समस्या यह कि आजकल जो घड़ियाँ बनती हैं वो किसी नियमित गति से ही चलती है अर्थात वह घडी एक दिन में जिस गति से चलेगी सदा उसी गति से वह घडी चलती रहेगी | अर्थात १२ घंटे में जिस प्रकार घंटे का काँटा एक बार पूरा घूम कर फिर १२ पर आएगा और उसके लिए जितना समय लगेगा सदा उतना ही समय प्रतिदिन उस घडी में उसी प्रकार घंटे का कांटा एक बार पूरा घूम जाने में लगेगा | ऐसा नहीं होता कि कभी १२ घंटा लगा हो और कभी ११.५० घंटे में एक बार काँटा पूरा घूम गया हो | इस प्रकार घडी की चाल एक सी बनी रहती है |

अब सूर्य का विचार कीजिये जिसका समय बताने के लिए ये घड़ियाँ बनी हैं | सूर्य की प्रतिदिन की गति एक सी नहीं होती | कभी दिन भर में ५७ कला गति होती है, कभी वह गति प्रतिदिन क्रमशः बढ़ते बढ़ते ६१ कला तक हो जाती है और फिर घटने लगती है | इस प्रकार सूर्य की गति घटती बढती रहती है | जबकि घडी ऐसी नहीं बनी होती जो सूर्य की गति के अनुसार कभी घडी की गति धीमी या तेज हो जाये |

अतः किसी स्थान का सही लोकल समय वही होगा जो धुप घडी के अनुसार वहां का समय होगा | धुप घडी के समय को स्थानिक समय या लोकल टाइम कहते हैं | परन्तु घड़ियों में जो दोपहर का समय प्रकट होता है वह वहां के ठीक दोपहर का समय नहीं होता |

स्थानीय समय २ प्रकार का होता है |

क) प्रत्यक्ष स्थानीय समय (Apparent Local Time)

ख) मध्यम स्थानीय समय (Local Mean Time)

प्रत्यक्ष समय और मध्यम स्थानीय समय – इस प्रकार सूर्य के और घड़ियों के समय के अंतर की कठिनाई दूर करने के लिए ज्योतिषियों ने एक नकली सूर्य आकाश में घूमता हुआ मान लिया है | इस सूर्य को मध्यम सूर्य कहते हैं जो भूमध्य रेखा पर एक सी गति से घुमते हुए मान लिया गया है  और इस मध्यम सूर्य (Mean Sun) के समय का मिलान सच्चे सूर्य के समय से उस समय होता है जब कि सच्चा सूर्य मेघ सम्पात (Vernel Equinox) में होता है और उस समय दिन रात बराबर होते हैं |

जो समय अपने असली सूर्य से प्रकट होता है उसे स्पष्ट समय या प्रत्यक्ष समय कहते हैं परन्तु जो मध्यम सूर्य के चलने के कारण जो समय प्रकट होता है वह मध्यम समय कहलाता है | अपनी घड़ियाँ इसी मध्यम समय को बतलाती हैं अर्थात घडी के समय को मध्यम समय कहेंगे | मध्यम समय और स्पष्ट समय के अंतर को बेलांतर (Equation of Time) कहते हैं | यह अंतर १६ मिनट से अधिक का नही होता |

मध्यम सूर्य का ६ बजे ठीक उगना, १२ बजे दोपहर होना और ६ बजे संध्या के समय अस्त मानते हैं | परन्तु वास्तविक सूर्य के उदय अस्त के समय में प्रतिदिन अंतर पड़ता है |

बता चुके हैं कि घडी का समय मध्यम समय है और इससे जो स्थानीय समय निकाला गया है वह भी मध्यम स्थानीय समय ही होगा | इस प्रकार निकाल गया स्थानीय समय भी शुद्ध नहीं है क्योंकि यह समय भी घडी के अनुसार निकला है जबकि सूर्य की गति एक सी नहीं रहती लेकिन घड़ियों की गति एक सी रहती है इस कारण इस मध्यम समय को सूर्य के अनुसार करना पड़ता है | इसमें ऊपर बताये गए तरीके से बेलांतर संस्कार करने से ही शुद्ध समय निकलता है | इस शुद्ध समय को लेकर इष्ट काल (आगे बतया जायेगा ) निकाल कर ही कुंडली बनायी जाती है |

 देशांतर संस्कार – कोई देश ग्रीनविच से जितने रेखांश दूरी पर हो उसके घंटा मिनट बना लीजिये | यदि वह देश ग्रीनविच से पूर्व में है तो ग्रीनविच समय से जोड़ देंगे और यदि पश्चिम में हो तो घटा देंगे तो वहां का समय निकल आएगा | इस प्रकार से इष्ट देश के समय का अंतर ज्ञात हो जायेगा इसे ही देशांतर संस्कार कहते हैं |

जैसे किसी स्थान का देशांतर ग्रीनविच से १० डिग्री पूर्व है तो १ डिग्री = ४ मिनट के हिसाब से १० डिग्री = १० x ४ = ४० मिनट का नातर ग्रीनविच से पड़ेगा | इसी प्रकार भारत के ८२ डिग्री ५ मिनट को भी निकाला जा सकता है |

आज कल घड़ियाँ जो समय बताती हैं वह स्टैण्डर्ड समय है और बहुधा लोग इसे ही नोट करते हैं | इस कारण उस समय की शुद्धि की आवश्यकता होती है |

जैसे – यदि भरत का देशांतर ८२ डिग्री ५ मिनट = ५ घंटा – ३० मिनट पूर्व है | जबलपुर ८० डिग्री ० मिनट पर है तो ८०x४ = ३२० मिनट = ५ घंटा २० मिनट मतलब १० मिनट का अंतर रहेगा | अतः घडी में जब १२ बजेंगे तो जबलपुर का स्थानीय समय ११ बजाकर ५० मिनट होगा |

ऐसे ही काशी का देशांतर ग्रीनविच से ८३ डिग्री ० मिनट पूर्व है तो ८३x४ = ५ घंटा ३२ मिनट | यहाँ काशी का देशांतर ८२ डिग्री ५ मिनट से अधिक है तो २ मिनट (दोनों का अंतर) घडी के समय में जोड़ देंगे | जब स्टैण्डर्ड समय (घडी में) १२ बजेगा तो काशी में २ मिनट अधिक होगा अर्थात १२ बजाकर २ मिनट होगा |

पंचांग ज्योतिष Panchang Astrology

पंचांग ज्योतिष Panchang Astrology

तिथि – चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि माना गया है | अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष और पूर्णिमा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष कहलाती हैं |
अमावस्या – अमावस्या तीन प्रकार की होती है | सिनीवाली, दर्श और कुहू | प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से बिद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं |
तिथियों की संज्ञाएँ – 1|6|11 नंदा, 2|7|12 भद्रा, 3|8|13 जया, 4|9|14 रिक्ता और  5|10|15 पूर्णा तथा  4|6|8|9|12|14 तिथियाँ पक्षरंध्र संज्ञक हैं |
नन्दाभद्राजयारिक्तापूर्णा
१०
१११२१३१४१५, ३०
नन्दा तिथियाँ – दोनों पक्षों की प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी (१,६,११) नन्दा तिथियाँ कहलाती हैं | प्रथम गंडात काल अर्थात अंतिम प्रथम घटी या २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए शुभ माना जाता है |
भद्रा तिथियाँ – दोनों पक्षों की द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी (२,७,१२) भद्रा तिथि होती है | व्रत, जाप, तप, दान-पुण्य जैसे धार्मिक कार्यों के लिए शुभ हैं |
जया तिथि – दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी व त्रयोदशी (३,८,१३) जया तिथि मानी गयी है | गायन, वादन आदि जैसे कलात्मक कार्य किये जा सकते हैं |
रिक्ता तिथि – दोनों पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है | तीर्थ यात्रायें, मेले आदि कार्यों के लिए ठीक होती हैं |
पूर्णा तिथियाँ – दोनों पक्षों की पंचमी, दशमी और पूर्णिमा और अमावस (५,१०,१५,३०) पूर्णा तिथि कहलाती हैं | तिथि गंडात काल अर्थात अंतिम १ घटी या २४ मिनट पूर्व सभी प्रकार के लिए मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं |
इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |
१. युगादी तिथियाँ – सतयुग की आरंभ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेता युग आरम्भ तिथि – बैसाख शुक्ल तृतीया, द्वापर युग आरम्भ तिथि – माघ कृष्ण अमावस्या, कलियुग की आरंभ तिथि – भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी | इन सभी तिथियों पर किया गया दान-पुण्य-जाप अक्षत और अखंड होता है | इन तिथियों पर स्कन्द पुराण में बहुत विस्तृत वर्णन है |
२. सिद्धा तिथियाँ – इन सभी तिथियों को सिद्धि देने वाली माना गया है | इसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि इनमे किया गया कार्य सिद्धि प्रदायक होता है |
मंगलवार१३
बुधवार१२
गुरूवार१०१५
शुक्रवार११
शनिवार१४
पर्व तिथियाँ – कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और संक्रांति तिथि पर्व कहलाती है | इन्हें शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ा दिया जाता है |
प्रदोष तिथियाँ – द्वादशी तिथि अर्ध रात्रि पूर्व, षष्ठी तिथि रात्रि से ४ घंटा ३० मिनट पूर्व एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं | इनमें सभी शुभ कार्य वर्जित हैं |
दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ –
वार/तिथिरविवारसोमवारमंगलवारबुधवारगुरूवारशुक्रवारशनिवार
दग्धा१२११
विष
हुताशन१२१०११
उपरोक्त सभी वारों के नीचे लिखी तिथियाँ दग्धा, विष, हुताशन तिथियों में आती हैं | यह सभी तिथियाँ अशुभ और हानिकारक होती हैं |
मासशून्य तिथियाँ – ऐसा कहा जाता है कि इन तिथियों पर कार्य करने से कार्य में उस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती |
शुक्ल पक्षकृष्ण पक्ष
चैत्र८,९८,९
बैसाख१२१२
ज्येष्ठ१३१४
आषाढ़
श्रावण२,३२,३
भाद्रपद१,२१,२
अश्विन१०,१११०,११
कार्तिक१४
मार्गशीर्ष७,८७,८
पौष४,५४,५
माघ
फाल्गुन
वृद्धि तिथि – सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि ‘वृद्धि तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि वृद्धि’ भी कहते हैं | ये सभी मुहूर्त के लिए अशुभ होती है |
क्षय तिथि – सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि ‘क्षय तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि क्षय’ भी कहते हैं | यह तिथि सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दी जाती है |
गंड तिथि – सभी पूर्ण तिथियों (५,१०,१५,३०) की अंतिम २४ मिनट या एक घटी तथा नन्दा तिथियों (१,६,११) की प्रथम २४ मिनट या १ घटी गंड तिथि की श्रेणी में आती हैं | इन तिथियों की उक्त घटी को सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दिया जाता है |
तिथि श्रेणियां – केलेंडर की तिथियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहों से प्रभावित रहती हैं | अतः इन ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |
१. सूर्य प्रभावित तिथियाँ – १, १०, १९, २८ और ४,१३, २२, ३१
२. चन्द्र प्रभावित तिथियाँ – २,११,२०, २९, और ७,१६,२५
३. मंगल प्रभावित तिथियाँ – ९, १८, २७
४. बुध प्रभावित तिथियाँ – ५,१४,२३
५. गुरु प्रभावित तिथियाँ – ३,१२,२१,३०
६. शुक्र प्रभावित तिथियाँ – ६,१५,२४
७. शनि प्रभावित तिथियाँ – ८,१७,२६
करण –  तिथि या मिति के अर्ध भाग को करण कहते हैं | एक तिथि में २ करण आते हैं | अतः मास की ३० तिथियों में करणों की ६० बार पुनरावृत्ति होती है | कुल ११ प्रकार के करण होते हैं  | इनमें चार करण (किन्सतुघ्न, शकुन, चतुष्पद और नाग) स्थिर होते हैं | शेष ७ करणों (बालव, तैतिल, वणिज, बव, कौलव, गरज और विष्टि) की मास में ८-८ बार पुनरावृत्ति होती है | स्थिर करणों में पहला करण किन्सतुघ्न सबसे पहले शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को आता है | शेष तीन स्थिर करण शकुन, चतुष्पद और नाग क्रमशः कृष्णपक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस को आते हैं | यह चारों करण अशुभ माने गए हैं | इनमें शुभ कार्य नहीं करने चाहिए | आठवें करण विष्टि को ही भद्रा कहते हैं | भद्रा भी सभी शुभ कार्यों के लिए त्याज्य है | विशेषतः जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में आता है | इस समय भद्रा पृथ्वी पर निवास करती है |
हमने नक्षत्रों की चर्चा अध्याय १ में संक्षिप्त में की थी | यहाँ फिर से हम उसकी आगे चर्चा करते हैं पर यहाँ भी हम थोडा ही लिखेंगे और आगे जैसे जैसे इसका सन्दर्भ आएगा, इसे और विस्तार देंगे |
नक्षत्रों को ७ श्रेणियों में दृष्टी के आधार पर, ३ श्रेणियों में, शुभाशुभ फल के आधार पर ३ श्रेणियों में तथा चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर ४ श्रेणियों में बांटा गया है | विशिष्ट पहचान वाले कुल १७ नक्षत्रों में ५ नक्षत्र पञ्चसंज्ञक, ६ नक्षत्र मूलसंज्ञक और ६ नक्षत्रों की कुछ घटी गंड नक्षत्र की श्रेणी में आती हैं |
स्वभाव के आधार पर – नक्षत्रों की स्वभाव के आधार पर ७ श्रेणियों होती हैं | ध्रुव, चंचल, उग्र, मिश्र, क्षिप्रा, मृदु और तीक्ष्ण |
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र – ४,१२,,२१,२६ चार नक्षत्र स्थिर नक्षत्र होते हैं | भवन निर्माण कार्य, कृषि कार्य, बाग़ बगीचे लगाने, गृह प्रवेश, नौकरी ज्वाइन करने, उपनयन संस्कार आदि के लिए शुभ होता है |
२. चंचल (चार) स्वभाव – ७,१५,२२,२३,२३ चंचल नक्षत्र होते हैं | घुड़सवारी करना, मोटर या कार आदि चलाना सीखना, मशीन चलाना, यात्रा करना आदि गतिशील कार्यों के लिए शुभ होते हैं |
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र – २,१०,११,२०,२५ पांच नक्षत्र उग्र होते हैं | भट्टे लगाना, गैस जलाना, सर्जरी करना, मार पीट करना, अस्त्र-शस्त्र चलाना, व्यापार करना, खोज कार्य करना, शोध कार्य करना आदि हेतु शुभ होते हैं |
४. मिश्र (साधारण) नक्षत्र – ३,१६ दो नक्षत्र मिश्र होते हैं | लोहा भट्टी व गैस भट्टी के कार्य, भाप इंजन, बिजली सम्बन्धी कार्य, दवाइयां बनाने आदि हेतु शुभ होते हैं |
५. क्षिप्रा (लघु) नक्षत्र – १,८,१३ व अभिजीत ये चार नक्षत्र क्षिप्रा होते हैं | नृत्य, गायन, रूप सज्जा, नाटक, नौटंकी आदि कार्य करना, दूकान करना, आभूषण बनाना, शिक्षा कार्य, लेखन, प्रकाशन हेतु शुभ होते हैं |
६. मृदु (मित्रवत) नक्षत्र – ५,१४,१७,२७ ये चार नक्षत्र मृदु नक्षत्र होते हैं | कपडे बनाना, सिलाई कार्य, कपडे पहनना, खेल कार्य, आभूषण बनाना एवं पहनना, व्यापार करना, सेवा कार्य, सत्संगति आदि हेतु शुभ होते हैं |
७. तीक्ष्ण (दारुण) नक्षत्र – ६,९,१८,१९ ये चार नक्षत्र तीक्ष्ण अर्थात दुखदायी  होते हैं | हानिकारक कार्य करना, लड़ाई झगडे करना, जानवरों को वश में करना, काला जादू सीखना, मैस्मेरिस्म आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |
दृष्टी के आधार पर – दृष्टी के आधार पर नक्षत्रों की तीन श्रेणी होती हैं | अधोमुखी, उर्ध्वमुखी व त्रियंगमुखी |
१. अधोमुखी नक्षत्र – नीचे की ओर दृष्टी रखने वाले २,३,९,१०,११,१६,१९,२०,२५ कुल ९ नक्षत्र हैं | कुआँ, तालाब, मकान की नीव, बेसमेंट, सुरंग बनवाना, खान खोदना, पानी व सीवर के पाईप डालना जैसे भूमिगत कार्यों के लिए शुभ होते हैं |
२. उर्ध्वमुखी नक्षत्र – ऊपर की दृष्टी रखने वाले (४,६,८,१२,२१,२२,२३,२४,२६) कुल ९ नक्षत्र होते हैं | मंदिर निर्माण, बहुमंजिली भवन निर्माण, मूर्ती स्थापना, ध्वज फहराना, राज्याभिषेक, मंडप बनवाना, बाग़ लगवाना, पहाड़ पर चढ़ना आदि कार्यों हेतु शुभ होते हैं |
३. त्रियंगमुखी नक्षत्र – दायें, बाएं व सम्मुख दृष्टी रखने वाले १,५,७,१३,१४,१५,१७,१८,२७ कुल ९ नक्षत्र हैं | घुड़सवारी करना, मोटर गाडी चलाना, सड़क बनवाना, पशु खरीदना, नाव चलाना, कृषि करना, आवागमन आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |
शुभाशुभ फल के आधार पर – इनमें तीन श्रेणी होती हैं | शुभ, मध्यम एवं अशुभ |
१. शुभ फलदायी – १,४,८,१२,१३,१४,१७,२१,२२,२३,२४,२६,२७ कुल १३ नक्षत्र शुभ फलदायी होते हैं |
२. मध्यम फलदायी – ५,७,१०,१६ कुल चार नक्षत्र थोडा फल देते हैं |
३. अशुभ फलदायी – २,३,६,९,११,१५,१८,१९,२०,२५ ये शेष दस नक्षत्र अशुभ फलदायी होते हैं |
चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर – कुल चार श्रेणी होती हैं | अंध लोचन, मंद लोचन, मध्य लोचन एवं सुलोचन |
१. अन्ध लोचन – ४,७,१२,१६,२०,२३,२७ अन्ध लोचन होती है | इन नक्षत्रों में खोई वस्तु पूर्व दिशा में जाती है और शीघ्र मिल जाती है |
२. मन्द लोचन – ७,५,९,१३,१७,२१,२४ मंद्लोचन नक्षत्र हैं | खोई वस्तु, पश्चिम दिशा में जाती है | प्रयत्न करने पर मिल जाती है |
३. मध्य लोचन – २,६,१०,१४,१८,२५ इन छह नक्षत्रों में चोरी गयी वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है | सूचना मिलने पर भी नहीं मिलती |
४. सुलोचन – ३,८,११,१५,१९,२२,२६ इन ७ नक्षत्रों में वस्तु उत्तर दिशा में जाती है | न तो वस्तु मिलती है और न कोई उसकी सूचना मिलती है |
विशिष्ट श्रेणियां – विशिष्ट पहचान वाले १७ नक्षत्रों की निम्नलिखित ३ श्रेणियां हैं |
१. पञ्चसंज्ञक नक्षत्र – अंतिम ५ नक्षत्र (२३,२४,२५,२६,२७) पंचंक संज्ञक नक्षत्र होते हैं | इनमें पंचक दोष माना जाता है | किसी भी प्रकार के शुभ कार्य नहीं करने चाहिए |
२. मूल संज्ञक नक्षत्र – ९, १०, १८, १९, २७, १ कुल ६ नक्षत्र मूल संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में जन्मे बालक हेतु २७ दिन बाद उसी नक्षत्र के आने पर शांति पाठ एवं हवन कराना शुभ माना गया है |
३. नक्षत्र गंडात – कुछ नक्षत्रों की कुछ घटियाँ गंडात श्रेणी में आती हैं | यह समय सभी शुभ कार्यों के लिए अशुभ माना जाता है | इनमें ३ नक्षत्रों (१,१०,१९) की प्रारंभ की २ घटी तथा ३ नक्षत्रों की (९,१८,२७) की अंतरिम २ घटी होती हैं |
इसके अलावा कुछ संज्ञाएँ और मिलती हैं |
१. दग्ध संज्ञक नक्षत्र – रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगल को उत्तराषाढ, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्र को ज्येष्ठा एवं शनि को रेवती दग्ध संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में शुभ कार्य करना वर्जित है |
नक्षत्रों को भी दो प्रकार का कहा गया है |
अ – दिन नक्षत्र – प्रतिदिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है वह दिन नक्षत्र है |
ब – सूर्य नक्षत्र – जिस नक्षत्र पर सूर्य हो वह सूर्य नक्षत्र है |
 इसी प्रकार कोई ग्रह जिस नक्षत्र पर हो, वह उस ग्रह का नक्षत्र होता है |
नक्षत्र भाव वृद्धि – जो नक्षत्र ६० घडी पूर्ण होकर दूरे दिन चला जाए और दुसरे दिन का स्पर्श हो जाए अर्थात घटिकाओं में जो नक्षत्र पड़ता है उसे भाववृद्धि कहते हैं |
योग – कुल मिला कर २७ योग होते हैं | जैसे कि अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चंद्रमा दोनों मिल कर ८०० कलाएं आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएं आगे चलते हैं तब २, इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियों – २१६०० कलाएं अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं | सूर्य और चंद्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़ कर तथा कलाएं बना कर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है | शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं | शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं | इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुना कर के सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घतिकाएं आती हैं |
२७ योगों के नाम इस प्रकार हैं |
`१. विष्कम्भ२. प्रीति३. आयुष्मान४. सौभाग्य
५. शोभन६. अतिगंड७. सुकर्मा८. धृति
९. शूल१०. गंड११. वृद्धि१२. ध्रुव
१३. व्याघात१४. हर्षण१५. वज्र१६. सिद्धि
१७. व्यतिपात१८. वरीयन१९. परिघ२०. शिव
२१. सिद्ध२२. साध्य२३. शुभ२४. शुक्ल
२५. ब्रह्म२६. एन्द्र२७. वैधृति
योगों के स्वामी –
योगस्वामीयोगस्वामीयोगस्वामीयोगस्वामी
`१. विष्कम्भयम२. प्रीतिविष्णु३. आयुष्मानचंद्रमा४. सौभाग्यब्रह्मा
५. शोभनबृहस्पति६. अतिगंडचंद्रमा७. सुकर्माइंद्र८. धृतिजल
९. शूलसर्प१०. गंडअग्नि११. वृद्धिसूर्य१२. ध्रुवभूमि
१३. व्याघातवायु१४. हर्षणभग१५. वज्रवरुण१६. सिद्धिगणेश
१७. व्यतिपातरूद्र१८. वरीयनकुबेर१९. परिघविश्वकर्मा२०. शिवमित्र
२१. सिद्धकार्तिकेय२२. साध्यसावित्री२३. शुभलक्ष्मी२४. शुक्लपार्वती
२५. ब्रह्मअश्विनीकुमार२६. एन्द्रपितर२७. वैधृतिदिति
परिध योग का आधा भाग त्याज्य है, उत्तरार्ध शुभ है | विष्कम्भ योग की प्रतम पांच घटिकाएं, शूल योग की प्रथम सात घटिकाएं, गंड और व्याघात योग की प्रथम छह घटिकाएं, हर्षण और वज्र योग की नौ घटिकाएं एवं वैधृति और व्यतिपात योग समस्त परित्यज्य है |
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