Kanya Lagna/कन्या लग्न
जन्म कुण्डली का पहला खाना सम्पूर्ण कुण्डली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग होता है। ज्योतिष भाषा में इस खाने को प्रथम भाव अथवा लग्न भाव भी कहा जाता है। ज्योतिषाचार्य किसी भी जातक की जन्म कुण्डली में लग्न एवं लग्नाधिपति अर्थात लग्नेश की स्थिति को देख कर ही सम्बंधित जातक के रंग, रूप, शारीरिक गठन, आचरण, स्वभाव एवं स्वास्थ्य आदि के सम्बन्ध में विवेचना कर देते हैं। कुछ अनुभवी एवं ज्ञानी ज्योतिषाचार्य तो किसी भी जातक की आभा, मुखमण्डल, आदतें एवं व्यवहार को देखकर ही सम्बंधित जातक के जन्म लग्न का एकदम सटीक पता लगा लेते हैं।
किसी जातक की जन्म कुण्डली का फलादेश बहुत कुछ उस जातक की कुण्डली के लग्न भाव की राशि, लग्नेश एवं उसकी स्थिति, लग्न भाव में स्थित ग्रह, लग्न भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह, ग्रहों की युति तथा लग्न भाव की दृष्टि आदि से प्रभावित होता हैं। लोक प्रकृति, भौगोलिक एवं सामाजिक स्थितियाँ भी सम्बंधित जातक के कुण्डली फलादेश को प्रभावित करती हैं। यहां हम कन्या लग्न में जन्मे जातक का फलादेश प्रस्तुत कर रहे हैं :-
कन्या लग्न :
कन्या लग्न में जन्म लेने वाले जातक पेशे से जज, परामर्श दाता, वकील, गणितज्ञ, व्यापारी, आलोचक एवं कलाकार भी हो सकते हैं। राजनीति के क्षेत्र में प्रसिद्धि हो सकते है। अध्ययन में इनकी विशेष रूचि होती है। अपने स्वभाव के अनुसार ये हर कार्य में जल्दी में तो करते ही हैं एवं अनिर्णय की स्थिति में बिना सोचे विचारे भी करते हैं। भावुक प्रवृत्ति के कारण निरन्त संघर्ष करते करते जब ऐसे जातक थक हार जाते हैं तब इनमें हीनता की भावना गृह कर जाती है। इनके द्विअर्थी संवादों के कारण इनकी बातों से कोई निष्कर्ष निकालना कठिन होता है। ऐसे जातक अपने स्वभाववश सदैव दिवास्वप्न में खोये रहते है। ये एक तरह से हवाई किलों का निर्माण करते रहते हैं। चारपाई पर पड़े पड़े ही इनके मन मस्तिष्क में योजनाएँ बनती व बिगड़ती रहती है। कन्या लग्न में जन्म लेने वाले जातकों का भाग्योदय 24, 25, 32 और 33वें वर्ष में होता है।
कन्या लग्न में जन्म लेने वाले जातकों का स्वभाव भी प्रायः स्त्रियोचित ही होता है। स्त्री तुल्य हाव भाव व क्रिया कलापों की झलक इनमें प्रायः देखने को मिलती हैं। कन्या लग्न में जन्म लेने वाले जातक छोटे कद के साथ साथ कोमल देह युक्त होते हैं। इनका वर्ण गौर एवं नाक तीखी एवं आकृति सौम्य होती है। इनके केश घने, माथा चौड़ा एवं बाजू छोटे होते है। ये अपने समस्त क्रिया कलाप गुप्त रूप से करने वाले होते हैं, किसी को इनके कार्यों की भनक तक नहीं लगने पाती। बड़ी उम्र में भी ये युवा की भाँती ही दिखाई देते हैं। इनकी भाषा मधुर होती है। ये विचारशील, लज्जाशील, तीव्र स्मरण शक्ति से युक्त, साहित्य के प्रति रूचि रखने वाले, धैर्यशील एवं आत्म विश्वासी होते हैं।
अपने तुच्छ लाभ एवं स्वार्थ की सिद्धि हेतु ये दूसरे की बड़ी से बड़ी हानि तक कर डालते हैं। विपरीत योनि के प्रति इनका झुकाव होना स्वाभाविक है, परन्तु प्रणय प्रसंगों में इन्हें सफलता कम ही मिलती है।
कन्या लग्न के जातक का व्यक्तित्व व् विशेषताएँ। Kanya Lagn jatak – Virgo Ascendent
कन्या राशि का स्वामी बुध होने से ऐसे जातक बुद्धिमान होते हैं । वाद विवाद में कुशल व् अच्छे वक्त होते हैं । कालपुरुष की कुंडली में कन्या राशि छठे भाव में आने से ऐसे जातकों के जीवन में संघर्ष अपेक्षाकृत अधिक रहता है, शत्रुओं व् बीमारियों से दो चार होना पड़ता है! कोर्ट कचहरी के चक्करों में भी उलझने की सम्भावना बनी रहती है । कन्या राशि के जातक कैलकुलेशन में फ़ास्ट होते हैं व् इन्हे बुद्धि से जुड़े कार्यों में ज्यादा आनंद आता है! पृथ्वी तत्त्व होने से ये धैर्यवान होते हैं! जल्दबाजी में कोई कार्य करना पसंद नहीं करते! ये राशि निरंतर आगे बढ़ते रहने व् दूसरों के घाव भरने की प्रेरणा देती है! यदि लग्न कुंडली में बुद्ध कमजोर हो जाये तो ऐसे जातक बुद्धि के बजाये ह्रदय से काम लेने लगते है जो भौतिक लाभ के लिए बाधक हो जाता है ।
कन्या लग्न के नक्षत्र: Virgo Lagna Nakshatra
कन्या राशि के अंतर्गत उत्तराफ़ाल्गुनी नक्षत्र के दूसरे, तीसरे और चौथे चरण,चित्रा के पहले दो चरण और हस्त नक्षत्र के चारों चरण आते है।
इसका विस्तार 150 से 180 अंश है।
लग्न स्वामी : बुध
चिन्ह: गेहूं की बाली हाथ में लिए कुंवारी कन्या
तत्व: पृथ्वी
जाति: वैश्य
लिंग: पुरुष,
अराध्य/इष्ट : गणेश, विष्णु
कन्या लग्न के लिए शुभ/कारक ग्रह – Shubh Grah / Kanya grah Kark Lagn – Virgo Ascendent
ध्यान देने योग्य है की यदि कुंडली के कारक गृह भी तीन, छह, आठ, बारहवे भाव या नीच राशि में स्थित हो जाएँ तो अशुभ हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में ये गृह अशुभ ग्रहों की तरह रिजल्ट देते हैं । आपको ये भी बताते चलें की अशुभ या मारक गृह भी यदि छठे, आठवें या बारहवें भाव के मालिक हों और छह, आठ या बारह भाव में या इनमे से किसी एक में भी स्थित हो जाएँ तो वे विपरीत राजयोग का निर्माण करते हैं । ऐसी स्थिति में ये गृह अच्छे फल प्रदान करने के लिए बाध्य हो जाते हैं । यहां ध्यान देने योग्य है की विपरीत राजयोग केवल तभी बनेगा यदि लग्नेश बलि हो । यदि लग्नेश तीसरे छठे, आठवें या बारहवें भाव में अथवा नीच राशि में स्थित हो तो विपरीत राजयोग नहीं बनेगा ।
बुध Mercury :
लग्नेश होने से बुद्ध कन्या लग्न की कुंडली में कारक बनता है ।
शुक्र Venus :
दुसरे व् नवें भाव का स्वामी व् लग्नेश बुद्ध का अति मित्र होने से कारक गृह बनता है ।
शनि Saturn :
पांचवे , छठे का स्वामी है । अतः कारक है ।
गुरु Jupiter :
चौथे व् सातवें का स्वामी होने से कन्या लग्न में सम गृह होता है ।
कन्या लग्न के लिए अशुभ/मारक ग्रह – Ashubh Grah / Marak grah Kanya Lagn – Virgo Ascendant
मंगल Mars :
तीसरे व् आठवें घर का स्वामी व् लग्नेश का अति शत्रु है । अतः मारक है ।
चंद्र Moon :
ग्यारहवें घर का स्वामी है । अतः मारक है ।
सूर्य Sun :
बारहवें घर का स्वामी होने से मारक होता है ।
कोई भी निर्णय लेने से पूर्व कुंडली का उचित विवेचन अवश्य करवाएं । आपका दिन शुभ व् मंगलमय हो ।
कन्या लग्न की कुंडली के अनुसार मन का स्वामी चंद्र एकादश भाव का स्वामी होता है. यह जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी जैसे विषयों का प्रतिनिधित्व करता है . जातक की जन्मकुंडली या दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
सूर्य द्वादश भाव का स्वामी होकर जातक के निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
मंगल तॄतीय एवम अष्टम भाव का स्वामी होता है. तॄतीयेश के नाते नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता जैसे विषयों का प्रनिधि होता है जबकि अष्टमेश होने के कारण व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
शुक्र द्वितीय और नवम् भाव का स्वामी होता है. द्वितीयेश होने के कारण कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब एवम नवमेश होने के कारण धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
बुध प्रथम (लग्नेश) और दशम भाव का स्वामी होता है. लग्नेश होने के नाते रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है जबकि दशमेश होने के कारण राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
बृहस्पति चतुर्थ भाव का स्वामी होकर यह जातक के माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में बृहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
शनि पंचम और षष्ठ भाव का स्वामी होता है. पंचमेश होने के नाते बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का एवम षष्ठेश होने के कारण यह जातक के लिये रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
राहु प्रथम भाव का स्वामी होकर लग्नेश होता है. यह जातक के रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
केतु सप्त भाव का स्वामी होकर जातक के लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड जैसे विषयों का प्रतिनिधि ग्रह होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.