Horashastra होराशास्त्रKis grah ki hora me kya karna chahiye
होरा शास्त्र से जातक की धन सम्पदा सुख सुविधा के विषय में विचार किया जाता है. संपति का विचार भी होरा लग्न से होता है, राशि, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, षोडश वर्ग, ग्रहों के दिग्बल, काल बल, चेष्टा बल, दृष्टिबल, ग्रहों के कारकत्व, योग, अष्टवर्ग, आयु, विवाह योग, मृत्यु प्रश्न एवं ज्योतिष के फलित नियम होरा शास्त्र के अंतर्गत आते हैं.
होरा लग्न या तो सूर्य का होता है या चन्द्रमा है यदि जातक सूर्य की होरा में उत्पन्न होता है तो वह पराक्रमी, स्वाभिमानी एवं बुद्धिमान दिखाई देता है. होरा में सूर्य के साथ यदि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ग्रह हों तो जातक को जीवन के आरम्भिक समय में संघर्ष का सामना करना पड़ सकता है.
यदि सूर्य की होरा में पाप ग्रह हों तो जातक को परिवार एवं आर्थिक लाभ में कमी का सामना करना पड़ता है. कार्य क्षेत्र में भी अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है. यदि जातक चन्द्रमा की होरा में होता है तथा शुभ ग्रहों का साथ मिलने पर व्यक्ति को सम्पदा,वाहन एवं परिवार का सुख प्राप्त होता है. परंतु चंद्र की होरा में यदि पाप ग्रह हों तो मानसिक तनाव का दर्द सहना पड़ सकता है.
ज्योतिष में होराशास्त्र का महत्व | Significance of Hora Shastra In Astrology
होरा शास्त्र ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग होता है. होरा शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थों में हमें इसके विस्तार रुप के दर्शन होते हैं. होरा शास्त्र में प्रसिद्ध ग्रन्थों के नामों में वृहद पाराशर होरा शास्त्र, सारावली, जातकालंकार, वृहत्जातक, मानसागरी, जातकाभरण, चिन्तामणि, ज्योतिष कल्पद्रुम, जातकतत्व होरा शास्त्र इत्यादि प्रमुख माने गए हैं. होरा शास्त्र के प्रमुख आचार्यों के नामों में पाराशर, कल्याणवर्मा, दुष्टिराज, मानसागर, गणेश, रामदैवज्ञ, नीपति आदि रहे हैं जिन्होंने अपनी विद्वता के द्वारा होरा शास्त्र की महत्ता को प्रदर्शित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
होरा शास्त्र का प्रभाव | Effect of Hora Shastra
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार एक अहोरात्र अर्थात दिन-रात में 24 होराएं होती हैं जिन्हें हम 24 घंटो के रूप में जानते हैं जिसके आधार पर हर एक घंटे की एक होरा होती है जो किसी ना किसी ग्रह की होती है. प्रत्येक वार की प्रथम होरा उस ग्रह की होती है जिसका वार होता है जैसे यदि रविवार है तो पहली होरा सूर्य की ही होगी जब आप होरा का निर्धारण करते हैं.
होरा का क्रम ग्रहों के आकार के क्रम पर स्वत: ही निर्धारित हो जाता है. जैसे गुरु को देखें कि वह आकार में सबसे बडा़ ग्रह है उसके बाद होरा स्वामी मंगल होता है. मंगल के बाद शनि और इस तरह से सभी ग्रह क्रम से अपने आकार के अनुसार चलते हैं. सभी अपने में महत्ता को दर्शाते हैं.
होरा स्वामी दो समूहों में बांटे गए हैं. पहले समूह में बुध, शुक्र तथा शनि आते हैं. दूसरे समूह में सूर्य, चन्द्रमा, मंगल तथा गुरु आते हैं. जब होरा का समूह प्रश्न के समय बदल रहा हो तब प्रश्न से संबंधित कोई मुख्य बदलव हो सकते हैं. इस तरह से जिस ग्रह की होरा चल रही है उस ग्रह से संबंधित फल प्राप्त हो सकते हैं. यदि होरेश अर्थात होरा स्वामी पीड़ित है तब कार्य सिद्धि में अड़चने भी आ सकती हैं |
होरा :- होरा शब्द अहोरात्र से लिया गया है अहोरात्र एक दिन + एक रात = 24 घंटे /प्रत्ये होरा एक घंटे की होती है सूर्योदय से एक घंटे तक उस वार की ही होरा सिद्ध होती है होरा तत्काल जानने के लिए उपरोक्त सारणी के द्वारा या पंचांग के 184 नम्बर प्रष्ठ से
अपनी जन्म राशि के स्वामी गृह के शत्रु ग्रहों की होरा में यात्रा विवाह आदि का त्याग किया जाता है / अन्यथा अशुभ परिणाम मिलते है
किस होरा में कौन सा कार्य करना चाहिय .....?
रवि की होरा :- राज्याभिषेक प्रशाशनिक कार्य नवीन पद ग्रहण राज्य सेवा औषधि निर्माण स्वर्ण ताम पत्र आदि मंत्र उपदेश गाय बैल का क्रय विक्रय उत्सव वाहन क्रय विक्रय आदि
सोम की होरा :- कृषि सम्बंधित कार्य नवीन वस्त्र धारण मोती रत्न अभ्शन धारण नवीन योजना कला सीखना बाग बगीचे चंडी की वस्तुओ का क्रय विक्रय
मंगल की होरा :- वाद विवाद मुकदमा जासूसी कार्य छल करना ऋण देना युद्ध निति सीखना शल्य क्रिया व्यायाम प्रारंभ
बुध की होरा :- साहित्य कार्य आरंभ करना पठन पाठन शिक्षा दीक्षा लेखन प्रकाशन शिल्प कला मैत्री खेल धान्य का संग्रह बही खाता लेखन हिसाब किताब लोन लेना .
गुरु की होरा :- दीक्षा संस्कार धार्मिक कार्य विवाह कार्य गृह शांति यज्ञ हवन दान्य पुण्य देवार्चन मांगलिक कार्य न्यायिक कार्य ,नवीन वस्त्र आभूषण धारण करना तीर्थाटन
शुक्र की होरा :- नृत्य संगीत प्रेम व्यवहार प्रयजन समागम अलंकार धारण लक्ष्मी पूजन क्यापरिक कार्य फिल्म निर्माण ऐश्वर्या वर्धक कार्य वाहन का क्रय विक्रय
शनि की होरा :- नौकर चाकर गृह प्रवेश मशीनरी कल पुर्जे का कार्य असत्य भाषण छल कपट गृह शांति के बाद संबिधा विसर्जन व्यापर आरंभ करना
पराशर सिद्धान्त - ज्योतिष का इतिहास
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नारद और वशिष्ठ के फलित ज्योतिष सिद्धान्तों के संबन्ध में आचार्य पराशर रहे है. आचार्य पराशर को ज्योतिष के इतिहास की नींव कहना कुछ गलत न होगा. यह भी कहा जाता है, कि कलयुग में पराशर के समान कोई ज्योतिष शास्त्री नहीं हुआ. ज्योतिष शास्त्रों का अध्ययन करने वालों के लिए इनके द्वारा लिखे ज्योतिष शास्त्र ज्ञान गंगा के समान है. इनके द्वारा लिखे गए ज्योतिष शास्त्र, जिज्ञासा शान्त करते है. तथा व्यवहारिक सिद्धान्तों के निकट होते है.
इसी संदर्भ में एक प्राचीन किवदंती है, कि एक बार महर्षि मैत्रेय ने आचार्य पराशर से विनती की कि, ज्योतिष के तीन अंग है. इसमें होरा, गणित, और संहिता में होरा सबसे अधिक मह्त्वपूर्ण है. होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है. अपने ज्योतिष गुणों के कारण आज यह ज्योतिष का सर्वाधिक प्रसिद्ध शास्त्र बन गया है.
आचार्य पराशर के जन्म समय और विवरण की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. कौटिल्य शास्त्र में भी महर्षि पराशर का वर्णन आता है. पराशर का नाम प्राचीन काल के शास्त्रियों में प्रसिद्ध रहे है. पराशर के द्वारा लिखे बृ्हतपराशरहोरा शास्त्र 17 अध्यायों में लिखा गया है.
पराशर का ज्योतिष में योगदान
इन अध्यायों में राशिस्वरुप, ग्रहगुणस्वरुप, लग्न विश्लेषण, षोडशवर्ग, राशिदृ्ष्टि, अरिष्ट,अरिष्टभंग, भावविवेचन, द्वादश भावों का फल निर्देश, अप्रकाशग्रह, ग्रहस्फूट, कारक,कारकांशफल,विविधयोग, रवियोग, राजयोग, दारिद्रयोग,आयुर्दाय, मारकयोग, दशाफल, विशेष नक्षत्र, कालचक्र, ग्रहों कि अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, त्रिकोणदशा, पिण्डसाधन, ग्रहशान्ति आदि का वर्णन किया गया है.
निम्न महत्वपूर्ण सिद्धांत सूत्र
फलित ज्योतिष के क्षेत्र में पराशर द्वारा दिए गए सिद्धांतों को बहुत उपयोग किया जाता है. पराशर द्वारा दिए गए सिद्धांतो को कुछ सूत्रों के रुप में बनाया गया है. संस्कृत श्लोक के रुप में निर्मित यह सूत्र कुण्डली विश्लेशण में बहुत महत्वपूर्ण सहायक होते हैं. वृहदपाराशर होराशास्त्र पर दिए गए नियमों को का निष्कर्ष एक बहुत ही संक्षिप्त रुप से हमें उनके दिए हुए इन सूत्रों में प्राप्त हो जाता है.
विंशोत्तरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए.
ग्रह जिस भाव में बैठा हो, उससे सातवें भाव को देखता है. इसके अलाव तीन ग्रह ऎसे हैं जिन्हें अतिरिक्त दृष्टि मिली है. शनि 3-10, गुरु 5-9 और मंगल 4-8 भाव स्थान को विशेष देखते हैं.
त्रिकोण(1-5-9) के स्वामी शुभ फलदायक होते हैं. त्रिषडाय(3-6-11) के स्वामी पाप फलदायक होते हैं.
त्रिषडाय का स्वामी अगर त्रिकोण का भी स्वामी हो तो अशुभ फल ही देगा.
बुध, गुरु, शुक्र और बली चंद्रमा अगर केन्द्र के स्वामी हैं तो शुभदायक नहीं होते हैं.
रवि, शनि, मंगल, कमजोर चंद्रमा और पाप प्रभाव युक्त बुध अगर केन्द्र के स्वामी हो तो अशुभ फल नहीं देते हैं.
लग्न से दूसरे और बारहवें भाव के स्वामी अन्य ग्रहों के संयोग से शुभ व अशुभ फल देते हैं.
गुरु और शुक्र को केन्द्राधिपति लगता है.
सूर्य और चंद्रमा को आठवें भाव का स्वामी होने पर दोष नहीं लगता.
राहु-केतु जिस भाव में जिस राशि में हों और जिस ग्रह के साथ बैठे हैं उसके अनुरुप फल देते हैं.
केन्द्र और त्रिकोण के स्वामी की दूसरी राशि अगर केन्द्र और त्रिकोण में ही हो तो यह स्थिति शुभफलदायक होती है.
नौवें और पांचवें भाव के स्वामी साथ केन्द्र के स्वामी का संबंध राजयोग कारक स्थिति को दर्शाता है.
केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों की दशा शुभदायक होती है.
एक ही ग्रह केन्द्र व त्रिकोण दोनों का स्वामी हो तो योगकारक होता है.
द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक स्थान माने गए हैं.
मारक ग्रहों की दशाओं में मृत्यु नही हो तो जन्म कुण्डली में बली पाप ग्रह की दशा मृत्यतुल्य कष्ट देती है.
ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में जिस भाव के स्वामी होते हैं उसके अनुसार फल देते हैं.
नवें भाव का स्वामी दसवें भाव में और दसवें भाव का स्वामी नवें भाव में हो तो राजयोग कारक स्थिति होती है. शुभ फल मिलते हैं.