(पितृ दोष निवारण स्तोत्र) Pitra dosh nivaran stotra Pitra stotra- Pitra Suktam पितृ स्तोत्र पाठ - पितृ-सूक्तम्
अमावस्या हो या पूर्णिमा अथवा श्राद्ध पक्ष के दिनों में संध्या के समय तेल का दीपक जलाकर पितृ-सूक्तम् का पाठ करने से पितृदोष की शांति होती है और सर्वबाधा दूर होकर उन्नति की प्राप्ति होती है।
जो व्यक्ति जीवन में बहुत परेशानी का अनुभव करते हैं उनको तो यह पाठ प्रतिदिन अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे उनके जीवन के समस्त संकट दूर होकर उन्हें पितरों का आशीष मिलता है...।
पितृ स्तोत्र पाठ
मार्कंडेय पुराण (९४/३ -१३ ) में वर्णित इस चमत्कारी पितृ स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भी पितृ प्रसन्न एवम पितृदोष शांत हो जाता है।
पितृ स्तोत्र अर्थ:-
रूचि बोले – जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझ पर प्रसन्न हों।
मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है।
पितृ स्तोत्र पाठ
मार्कंडेय पुराण (९४/३ -१३ ) में वर्णित इस चमत्कारी पितृ स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भी पितृ प्रसन्न एवम पितृदोष शांत हो जाता है।
।। पितृ स्तोत्र पाठ ।।
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान्।।
मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा।
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।
प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।
तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:।
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज।।
पितृ स्तोत्र अर्थ:-
रूचि बोले – जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझ पर प्रसन्न हों।
मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है।
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।। पितृ-सूक्तम् ।।
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
॥ ॐ शांति: शांति:शांति:॥
अमावस्या को घर में एक छोटा सा हवन
तथापितरों के निमित्त श्राद्ध अवश्य करें
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अमावस्या को घर में एक छोटा सा हवन
तथापितरों के निमित्त श्राद्ध अवश्य करें
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हर अमावस्या को घर में एक छोटा सा आहुति प्रयोग करें।
सामग्री :
१. काले तिल, २. जौं, ३. चावल, ४. गाय का घी, ५. चंदन पाउडर, ६. गुगल, ७. गुड़, ८. देशी कपूर, गौ चंदन या कण्डा।
विधि: गौ चंदन या कण्डे को किसी बर्तन में डालकर हवनकुंड बना लें, फिर उपरोक्त ८ वस्तुओं के मिश्रण से तैयार सामग्री से, घर के सभी सदस्य एकत्रित होकर नीचे दिये गये देवताओं की १-१ आहुति दें।
आहुति मन्त्र:
१. ॐ कुल देवताभ्यो नमः, २. ॐ ग्राम देवताभ्यो नमः, ३. ॐ ग्रह देवताभ्यो नमः, ४. ॐ लक्ष्मीपति देवताभ्यो नमः ५. ॐ विघ्नविनाशक देवताभ्यो नमः
हर अमावस्या को पितरों के निमित्त श्राद्ध अवश्य करें हर अमावस्या को अपने पितरों का श्राद्ध भी अवश्य करना चाहियें अगर कोई श्राद्ध करने में असमर्थ है तो उसको कम से तिल मिश्रित जल तो अपने पितरों के निमित्त अर्पण करना ही चाहिये।
वराह पुराण के १३ अध्याय (पितरों का परिचय, श्राद्ध के समय का निरूपण तथा पितृगीत) में आता है कि श्राद्धकर्ता जिस समय श्राद्धयोग्य पदार्थ या किसी विशिष्ट ब्राह्मण को घर में आया जाने अथवा उत्तरायण या दक्षिणायन का आरम्भ, व्यतीपात योग हो, उस समय श्राद्ध का अनुष्ठान करे।
विषुव योग में, सूर्य और चन्द्र ग्रहण के समय, सूर्य के राश्यन्तर-प्रवेश में नक्षत्र अथवा ग्रहों द्वारा पीडित होने पर,
बुरे स्वप्न दिखने पर तथा घर में नवीन अन्न आने पर काम्य-श्राद्ध करना चाहिये।
जो अमावस्या अनुराधा, विशाखा एवं स्वाती नक्षत्र से युक्त हो, उसमें श्राद्ध करने से पितृगण आठ वर्षों तक तृप्त रहते हैं। इसी प्रकार जो अमावस्या पुष्य, पुनर्वसु या आर्द्रा नक्षत्र से युक्त हो, उसमें पूजित होने से पितृगण बारह वर्षों तक तृप्त रहते हैं।
जो पुरुष देवताओं एवं पितृगण को तृप्त करना चाह्ते हैं उनके लिये धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद अथवा शतभिषा नक्षत्र से युक्त अमावस्या अत्यन्त दुर्लभ हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठ! जब अमावस्या इन नौ नक्षत्रों से युक्त होती है, उस समय किया हुआ श्राद्पितृगण को अक्षय तृप्तिकारक होता हैं।
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी, भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की त्रियोदशी, माघमास की अमावस्या, चन्द्र या सूर्य ग्रहण के समय तथा चारों अष्टकाओं (प्रत्येक मास की सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी तिथियों के समूह की तथा पौष, माघ एवं फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथीयों को "अष्टका" की संज्ञा हैं) में अथवा उत्तरायण य दक्षिणायन के समय जो मनुष्य एकाग्रचित से पितरों को तिलमिश्रित जल भी दान कर देता है तो वह मानों सहस्त्र वर्षों के लिये श्राद्ध कर देता हैं।
यह परम रहस्य स्वयं पितृगणों का बताया हुआ हैं। कदाचित्त माघ मास की अमावस्या का यदि शतभिषा नक्षत्र से योग हो जाय तो पितृगण की तृप्ति के लिये यह परम उत्कृष्ट काल होता हैं।
द्विजवर! अल्प पुण्यवान पुरुषों को ऐसा समय नही मिलता और यदि माघ मास की अमावस्या का धनिष्ठा नक्षत्र से योग हो जाये तो उस समय अपने कुल में उत्पन्न पुरुष द्वारा दिये हुए अन्न एवं जल से पितृगण दस हजार वर्ष के लिये तृप्त हो जाते है तथा यदि माघी अमावस्या के साथ पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का योग हो और उस समय पितरों के लिये श्राद्ध किया जाय तो इस कर्म से पितृगण अत्यन्त तृप्त होकर पूरे युग तक सुख पूर्वक शयन करते है। गंगा, शतद्रु, विपाशा, सरस्वती और नैमिषारण्य में स्थित गोमती नही में स्नानकर पितरों का आदरपूर्वक तर्पण करने से मनुष्य अपने समस्त पापों को नष्ट कर देता है।
पितृगण सर्वदा य गान करते हैं कि वर्षाकाल में (भाद्रपद शुक्ल त्रियोदशी के) मघा नक्षत्र में तृप्त होकर फिर माघ की अमावस्या को अपने पुत्र-पौत्रादि द्वारा दी गयी पुण्य तीर्थों की जलांजली से हम कब तृप्त होंगें। विशुद्ध चित्त, शुद्ध धन, प्रशस्त काल, उपर्युक्त विधि, योग्य पात्र और परम भक्ति - ये सब मनुष्य को मनोवान्छित फल प्रदान करते हैं।