तैलंग स्वामी एक तपस्वी महात्मा थे। जिनका जन्म दक्षिण भारत के विजियाना जनपद के होलिया नगर में हुआ था। इनकी जन्मतिथि अज्ञात है। इनका बचपन का नाम तैलंगधर था।
जीवन परिचय
तैलंग स्वामी को वैराग्य की प्रवृत्ति बचपन से ही थी। माँ की मृत्यु के बाद उसकी चिता के स्थान पर ही लगभग 20 वर्ष तक साधना करते रहे। माँ की मृत्यु के बाद तैलंग स्वामी घूमने निकल गये। सबसे पहले वह पटियाला पहुंचे और भगीरथ स्वामी से सन्न्यास की दीक्षा ली। फिर नेपाल, तिब्बत, गंगोत्री, यमुनोत्री, प्रयाग, रामेश्वरम, उज्जैन आदि की यात्रा करते हुए अंत में काशी पहुँचे और वहीं रह गए। काशी में पंचगंगा घाट पर आज भी तैलंग स्वामी का मठ है। यहाँ पर स्वामी जी कृष्ण की जिस मूर्ति की पूजा करते थे उसके ललाट पर शिवलिंग और सिर पर श्रीयंत्र बना हुआ है। मठ के मंडप में लगभग 25 फुट नीचे एक गुफा है जहाँ बैठकर वे साधना किया करते थे। कहा जाता है कि वे धूप और शीत की परवाह किए बिना बहुधा मणिकर्णिका घाट पर पड़े रहते थे। जब भीड़ जुड़ने लगती तो किसी निर्जन स्थान पर चले जाते। उनका कहना था कि योगी बिना प्राणवायु के भी जीवित रहने की शक्ति प्राप्त कर सकता है।
तैलंग स्वामी की संक्षेप में कथाएँ :
उडीसा प्रान्तके विजना जनपदमें स्थित होलिया नामक गांवमें भूमिपति अर्थात् जमींदार नृसिंहधरके घरमें इनका जन्म हुआ। इनके जन्मसे पूर्वकी एक घटना इसप्रकार है – नृसिंहधरकी पत्नी विद्यावती देवी एक दिन देवालयमें (मन्दिरमें) पूजा करने गईं तो मन्दिरके द्वारपर एक सरल स्वभाव बालकको देखकर पूछा, “पुत्र, कहां रहते हो ? यहां क्यों बैठे हो ?” बालकने कहा – “मुझे प्रसाद चाहिए !” विद्यावतीने कहा, “ठीक है, पूजा कर लूं तब प्रसाद दूंगी । तुम यहीं बैठे रहना ! जाना मत !” पूजा समाप्त कर विद्यावती देवी बाहर आईं तो देखा कि बालक वहां नहीं था । इधर-उधर दूरतक दृष्टि दौडानेपर भी बालकका कहीं पता नहीं चला । दूसरे दिन नि:सन्तान विद्यावती देवीने स्वप्नमें देखा कि एक श्वेत हाथी उनके शरीरमें प्रवेश कर गया । पति नृसिंहधरने यह स्वप्न सुनकर कहा, “यह तो शुभ सङ्केत है। अब हमें कोई अलौकिक घटनाकी प्रतीक्षा करनी होगी ।” दो माह पश्चात् विद्यावतीने गर्भ धारण किया । तबसे उन्हें स्वप्नमें प्राय: शंकरजीके दर्शन हुआ करते थे । तैलंग स्वामीको शिवका अंशावतार माना जाता है, ध्यान रहे ! यदि माताके गर्भमें कोई उच्च कोटिका जीवका पदार्पण हुआ हो तो गर्भवती माताको दिव्य अनुभूतियां होती हैं ।
इ. उनके बाल्यकालमें स्वामीजीकी माताको हुई उनकी दिव्यतासे सम्बन्धित अनुभूति
जन्मके छठे दिवस अशौच स्नानके पश्चात् विद्यावती नवजात शिशुको लेकर मन्दिरमें आईं और बाहर प्रांगणमें शिशुको लिटाकर अन्दर पूजा करने लगीं । पूजाके अन्तमें उन्होंने देखा कि शिवलिङ्गसे एक ज्वाला निकलकर मन्दिरको प्रकाशित करती हुई बालकके अन्दर समाविष्ट हो गई । यह दृश्य देखकर माता विद्यावती अत्यधिक भयभीत हो गईं । उन्होंने अपने पुत्रको उठाकर गले लगा लिया और उसे चूमने लगीं । सांवले रंग और बडे-बडे नेत्रोंवाला उनका शिशु, उन्हें दीर्घकाय दिखाई दिया और ऐसा लगता था कि वह विद्यावतीसे कुछ गोपनीय बात कहनेवाला हो । वंशपरम्पराको ध्यानमें रखते हुए बालकका नाम शिवराम तैलङ्गधर रखा गया । शिवराम तैलङ्गधर ही आगे चलकर तैलंग स्वामी हुए । इनका एक सौतेला भाई श्रीधर भी था ।
ई. तैलङ्गधरसे गणपति स्वामीके रूपमें उनका आध्यात्मिक प्रवास
ख्रिस्ताब्द १६४७ में श्री नृसिंहधरका देहान्त हो गया और ख्रिस्ताब्द १६५८ में माता विद्यावती भी चल बसी । मांकी चिताको अग्नि देनेके पश्चात् शिवराम वहीं श्मशानमें बैठ गए और घर नहीं गए । उनके भाई, श्रीधर वहीं श्मशानमें फल-फूल भोजन आदि लाकर शिवरामको देते थे । शिवराम श्मशानमें कभी बैठे रहते कभी सो जाते । बरसातमें श्रीधरने शिवरामके लिए एक कुटिया बना दी । कालान्तरमें शिवरामकी कुटियामें भगीरथ स्वामी नामके एक संन्यासी आए और एक मासतक श्मशानमें साथ-साथ रहनेके पश्चात् शिवराम भगीरथ स्वामीके साथ पुष्कर चले गए जहां कभी विश्वामित्र ऋषिने तपस्या की थी । ख्रिस्ताब्द १६८५ ई. में भगीरथ स्वामीने शिवरामको दीक्षा देकर उन्हें बीज मन्त्रका उपदेश दिया और परम्परानुसार उनका नया नाम गणपति स्वामी रख दिया ।
उ. गणपति स्वामीसे सम्बन्धित कुछ अलौकिक घटनाएं
उ. १. गणपति स्वामीसे सम्बन्धित प्रथम दिव्य अनुभूति
मृत व्यक्तिको जीवन दान दी
ख्रिस्ताब्द १६९५ में भगीरथ स्वामी कहीं चले गए और ख्रिस्ताब्द १६९७ में गणपति स्वामी रामेश्वरम पहुंचे, यहांपर उन्होंने एक मृतव्यक्तिके ऊपर अपने कमण्डलुसे जल छिडककर उसे पुनर्जीवित कर दिया । यह उनके जीवनकी उनकेद्वारा की गई प्रथम अलौकिक घटना थी । आपको बता दें, सन्तों, सिद्धों और योगियोंमें यह ईश्वर प्रदत्त क्षमता होती है ।
उ. २. घायल बाघका स्वामीजीके समक्ष भीगी बिल्ली समान वर्तन करना
ख्रिस्ताब्द १७०१ ई. में स्वामीजी हिमालयके क्षेत्रमें प्रवेश करते हुए आगे बढ गए । एक वनमें रुचिकर स्थान देखकर वे वहां समाधिमें बैठ गए । यह स्थान नेपाल राज्यके अधीन था । वहां उस वनमें एक गुहा (गुफा) थी । स्वामीजी कभी गुहाके बाहर रहते तो कभी अन्दर रहते । एक बार नेपाल नरेश अपने सैनिकों और सेनापतिके साथ आखेटपर निकले । सेनापतिने एक बाघपर गोली चलाई । गोली लगते ही वह बाघ आगे भाग गया । बाघका पीछा करते हुए सेनापति, स्वामीजीकी गुहाके निकट आए तो देखा कि बाघ स्वामीजीके पैरोंके समीप लेटा है और स्वामीजी उसकी पीठपर हाथ फेर रहे हैं । घायल बाघ स्वभावत: विक्षिप्त (पागल) होकर अत्यन्त क्रूर और हिंसक हो जाता है; किन्तु सेनापतिने देखा कि वह स्वामीजीके पास भीगी बिल्लीके समान सो रहा है ।
सेनापतिके साथ सभी लोग प्रणाम कर स्वामीजीके पास खडे हो गए । स्वामीजीने कहा, “हिंसासे प्रतिहिंसा जन्म लेती है । मैं हिंसक नहीं हूं । इसीलिए यह मेरे पास आ कर अहिंसक हो गया । जब तुम किसीको जीवन-दान नहीं दे सकते तो किसीका जीवन लेनेका भी अधिकार तुम्हें नहीं है।” नेपाल नरेशने जब गणपति स्वामीके विषयमें सुना तो वे ढेर सारे हीरे-रत्न इत्यादि लेकर स्वामीजीके दर्शनके लिए पहुंचे । स्वामीजी ने कहा, “मुझे इन सबकी आवश्यकता नहीं है । इन्हें निर्धनोंमें बांट दो !” इसके पश्चात् उनकी शंकाओंका समाधान कर, उन्हें अनेक उपदेश देकर, स्वामीजीने राजाको सन्तुष्ट किया । अपना प्रचार बढता देख स्वामीजी त्रस्त हो गए और एक दिन बिना किसीको बताए उत्तरकी ओर बढ गए।
सन्तोंके दो प्रकार होते हैं – व्यष्टि सन्त एवं समष्टि सन्त, व्यष्टि सन्त स्वयंकी साधनापर ध्यान केन्द्रित करते हैं एवं समाजाभिमुख नहीं रहते हैं, वे यदि योग्य पात्र मिले तो उन्हें ज्ञान अवश्य देते हैं; किन्तु अधिकांशत: वे उनकी संख्या वृद्धिमें अत्यधिक रुचि नहीं लेते हैं । समष्टि सन्त समाजाभिमुख होते हैं वे समाजको धर्मशिक्षण देते हैं और शिष्यकी आध्यात्मिक प्रगति हेतु विशेष प्रयास करते हैं ।
उ. ३. नर्मदाके जलको दूध बनाकर उसका पान करना
गणपति स्वामी ११९ वर्षकी आयु पूर्ण करनेके समय ख्रिस्ताब्द १७८६ में नर्मदाके किनारे मार्कण्डेय ऋषिके आश्रममें दिखाई दिए । मार्कण्डेय आश्रमके गुरु खाकी बाबा थे । उस आश्रममें बहुतसे साधु- सन्यासी थे जो उन्हें साधारण साधु समझते थे । ध्यान रखें, उच्च कोटिके सन्तों और सिद्धोंका सभी अभिज्ञान (पहचान) नहीं कर पाते हैं । एक दिनकी घटनाका वर्णन करते हुए खाकी बाबाने कहा, “कल जब रात्रिके अन्तिम प्रहरमें मैं स्नान और साधना करनेके लिए नर्मदाके किनारे पहुंचा तो देखा कि दूधकी नदी बह रही है । मुझे लगा कि मैं भ्रममें हूं । पास जानेपर देखा तो ज्ञात हुआ कि नर्मदाका पूरा जल दूध बन गया है और गणपति स्वामी अंजलि भर-भर कर दूध पी रहे हैं । मेरे नदीमें हाथ डालते ही सारा दूध पानी हो गया । तत्पश्चात् देखा कि स्वामीजी नदी तटसे ऊपर आ रहे हैं । मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह उनकी सिद्धिका ही प्रताप था जिस कारण यह चमत्कार घटा था । मात्र उच्चतम स्तरके योगी ही ऐसी विभूतिका प्रदर्शन कर सकते हैं।” इस घटनाके सम्बन्धमें पूछनेपर स्वामीजी हंस दिए और उत्तर देना टाल दिया । तत्पश्चात् गणपति स्वामीजीने वहांके साधुओं एवं सन्तोंको षट्चक्र साधनाके विषयमें विस्तारके साथ समझाया । एक दिन वहांसे पुनः बिना किसीको बताए, वे प्रयाग आ गए और एक निर्जन स्थानमें आसीन होकर योगाभ्यास करने लगे । इसी क्रममें एक दिन स्वामीजीने झंझावात (आंधी-तूफान)और भयंकर वर्षाके कारण डूबती हुई एक नौकाको यात्रियों सहित बचा लिया ।
उ. ४. गणपति स्वामीका काशीमें ब्राह्मणीके मृतपतिको जीवनदान दिया जाना
अवधपतनके पश्चात् प्रयागमें गृहयुद्ध आरम्भ हो गया और स्वामीजी काशी चले गए । वहां जाकर भदैनीके पास वे तुलसी वनमें रहने लगे । वहां उन्होंने लोलार्ककुण्डमें रहनेवाले ब्रह्मासिंह नामक कुष्ठ रोगीको रोगमुक्त किया । सन्तोंके पास लोगोंको कष्टमुक्त करनेकी भी ईश्वरप्रदत्त शक्ति होती है । हरिश्चन्द्र घाटपर एक नि:सन्तान विधवा ब्राह्मणीके मृतपतिको जीवनदान दिया ।
उ. ५. स्वामीजीद्वारा एक हंडिया चूनेका घोल सहज सेवन कर लेना
कुछ समय पश्चात् स्वामीजी तुलसीवनसे हटकर दशाश्वमेध घाटपर रहने लगे वे मात्र एक कौपीन धारण करते थे और यहीं आकर वे तैलंग स्वामीके रूपमें प्रसिद्ध हुए । वहां भी आर्त्त लोगोंने उन्हें पुनः त्रस्त करना आरम्भ कर दिया । एक क्रूर व्यक्तिकी इच्छाको जब स्वामीजीने पूरी नहीं की तब उसने स्वामीजीको तडपा कर मारनेके लिए एक हंडिया चूनेका घोल लेकर स्वामीजीके पास आया और कहा, “स्वामीजी मैं यह भैंसका गाढा दूध लेकर आया हूं, आप इसे ग्रहण करें ! उसके उद्देश्यको समझकर स्वामीजी पूरा घोल पी गए । वह व्यक्ति घर जाकर छटपटाने लगा । इधर स्वामीजीने थोडी देर पश्चात् मूत्र त्याग किया सारा घोल मूल रूपमें बहा दिया । कष्टसे पीडित वह व्यक्ति भागा-भागा स्वामीजीके पास आया और क्षमा मांगने लगा । करुणामय स्वामीजीने उसे क्षमा कर दिया । देखिए ! सर्व सामान्य व्यक्तिकी यदि स्वार्थसिद्धि न हो तो वह सन्तों और योगियोंसे भी प्रतिशोध लेनेसे नहीं चूकता है और करुणाके सागर रूपी सन्त उन्हें सिखाने हेतु सर्व कष्ट सहन कर, उन्हें अपनी चूकका भान होनेपर उन्हें क्षमा भी कर देते हैं ।
उ. ६. अंग्रेज रक्षकोंद्वारा स्वामीजीको बन्दी बनानेपर उन्हें बन्दी न बना पाना
मुगलोंका शासन समाप्त हो गया था और काशीका जिलाधीश एक अंग्रेजको नियुक्त किया गया था । उसने स्वामीजीको नंगे न रहकर वस्त्र पहननेका निर्देश दिया । स्वामीजीने उसकी बात अनसुनी कर दी तो उसने स्वामीजीको कारागृहमें बन्द करनेका आदेश दिया। रक्षकोंने अर्थात् पुलिसने स्वामीजीको पकडकर कारागृहमें डाल दिया; किन्तु वे वहांसे अन्तर्धान हो गए और कारागृहकी छतपर विचरण करते दिखाई दिए, रक्षकोंने उन्हें पुनः कोठरीमें बन्द किया; किन्तु वे पुनः कोठरीके बारह घूमते दिखाई दिए । एक बंगाली सज्जनने जिलाधीशको स्वामीजीकी योगविभूतिके विषयमें बतलाया और जिलाधीशने प्रत्यक्ष उनकी दिव्यताके विषयमें जान ही लिया था; अतः उसने स्वामीजीको मुक्त कर दिया ।
उ. ७. स्वामीजीद्वारा दो राजाओंके अहंकारको भंग करना
ख्रिस्ताब्द १८८० में एक बार काशीनरेशके पास उज्जैननरेश आए । काशीनरेशने उनसे स्वामीजीकी चर्चा की । दर्शनके लिए दोनों राजा रामनगरसे बजरासे चलकर बिन्दुमाधवके धरहराके पास आकर रुके । काशीनरेशने नाविकोंको (मल्लाहोंको) नाव किनारे लगानेको कहा और देखा कि तैलङ्ग स्वामी उड कर बजरेपर आ बैठे । स्वामीजीने उज्जैननरेशसे कहा, “कहिए राजन् ! मुझसे क्या पूछना चाहते हैं ?” उज्जैननरेशने अनेक प्रश्न किए । स्वामीजीने सब प्रश्नोंके सन्तोषप्रद उत्तर दिए । स्वामीजी जानते थे कि राजाओंकी ज्ञानपिपासा श्मशानवैराग्य समान क्षणिक होती है । सहसा स्वामीजीने काशीनरेशके हाथसे खड्ग (तलवार) ले ली और उसे उलट-पुलट कर देखनेके पश्चात् गंगाजीमें फेंक दिया । इसपर दोनों राजा कुपित हो गए । काशीनरेशने स्वामीजीसे कहा, “जबतक तलवार नहीं मिलती आप यहीं बैठे रहें !” स्वामीजीकी इस धृष्टताके लिए काशीनरेश स्वामीजीको बन्दी बनाकर रामनगर ले जाना चाहते थे । स्वामीजीने गंगाजीमें हाथ डाला और एक जैसी दो तलवारें निकालकर राजासे कहा, “इनमेंसे जो तुम्हारी है वह ले लो ।” दोनों राजा अपनी तलवारका अभिज्ञान न कर पानेके कारण लज्जित और किंकर्त्तव्यविमूढ हो गए । स्वामीजीने उनकी तलवार उनके हाथमें देते हुए कहा कि जब तुम्हें अपनी वस्तुका अभिज्ञान नहीं है तब यह कैसे कहते हो कि यह तुम्हारी है ? इतना कह कर वे नदीमें कूद गए । राजाने संध्यातक प्रतीक्षा की कि तैलङ्ग स्वामी ऊपर आएं तो उनसे क्षमा मांगे । अन्तमें हार कर नदीके माध्यमसे क्षमा मांगी और प्रणाम कर रामनगर चले गए ।
ए. रामकृष्ण परमहंस एवं तैलंग स्वामीजीका मधुर मिलन
ख्रिस्ताब्द १८१० ई. में स्वामीजी दशाश्वमेध छोडकर पञ्चगंगा घाटपर आ गए । इन्हीं दिनों तैलंग स्वामीको रामकृष्ण परमहंसने देखते ही दोनों हाथ उठा कर उन्हें गले लगा लिया था और रामकृष्ण् परमहंसको तैलंग स्वामीमें ही साक्षात् विश्वनाथ महादेवके दर्शन वहीं सडकपर ही हो गए । हुआ यह कि रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्योंके साथ काशी आए । मन था कि भोलेनाथके दर्शन और उपासना करें ! स्नान करके शिष्योंके साथ विश्वनाथ गलीमें जैसे ही घुसे, एक महाकाय नंग-धडंग सांवला सा साधु अकस्मात् ही उनके समक्ष आ गया । कुछ क्षण एक-दूसरेको निहारनेके पश्चात् दोनों ही एक-दूसरेके गले लग गए । शिष्य आश्चर्यचकित थे । कुछ देर दोनों ही बेहाल रोते हुए लिपटे रहे । तत्पश्चात् वहीं मार्गपर ही वार्तालाप हुआ । बस वहींसे रामकृष्ण परमहंस वापस लौट गए । शिष्योंने पूछा, “महाराज, विश्वनाथजीके दर्शन नहीं करेंगे क्या ?” स्वामीजीने उत्तर दिया, “वह तो हो गए । स्वयं विश्ववनाथ भगवान ही तैलंग स्वामीके रूपमें मेरे गले लिपटे थे ।” रामकृष्णके अनुसार तैलंग स्वामी परमहंस स्तरके सन्त थे ।
ऐ. स्वामीजीद्वारा समाधिकी पूर्वसूचना देना एवं जल समाधि लेना
उन्होंने प्राण त्यागनेकी तिथि एक मास पूर्व ही निश्चित कर ली थी । प्रत्येक मनुष्येको पोथी माननेवाले शिव स्वरूपी ये अवधूत, ख्रिस्ताब्द १८८७ की पौष शुक्ल एकादशीको २८० वर्षकी आयुमें ब्रह्मलीन हो गए । समाधि लेनेके पूर्व स्वामीजीने अपने भक्तोंको निर्देश दिया था, “मेरे नापकी एक पेटिका (बॉक्स) बनवा लेना, जिससे मैं उसमें लेट सकूं । ‘बक्से’में मुझे लिटा कर उसमें ताला लगा देना । पञ्चगंगाघाटके किनारे अमुक स्थानमें मुझे गिरा देना ।’
उनके निर्देशानुसार उन्हें जलसमाधि दे दी गई । सामान्य मनुष्य मृत्युके अधीन होता है और मृत्यु सन्तोंके अधीन होती है; इसलिए वे अपने देह-त्य्यागकी पूर्व सूचना अपने शिष्योंको दे देते हैं ।
जीवन परिचय
तैलंग स्वामी को वैराग्य की प्रवृत्ति बचपन से ही थी। माँ की मृत्यु के बाद उसकी चिता के स्थान पर ही लगभग 20 वर्ष तक साधना करते रहे। माँ की मृत्यु के बाद तैलंग स्वामी घूमने निकल गये। सबसे पहले वह पटियाला पहुंचे और भगीरथ स्वामी से सन्न्यास की दीक्षा ली। फिर नेपाल, तिब्बत, गंगोत्री, यमुनोत्री, प्रयाग, रामेश्वरम, उज्जैन आदि की यात्रा करते हुए अंत में काशी पहुँचे और वहीं रह गए। काशी में पंचगंगा घाट पर आज भी तैलंग स्वामी का मठ है। यहाँ पर स्वामी जी कृष्ण की जिस मूर्ति की पूजा करते थे उसके ललाट पर शिवलिंग और सिर पर श्रीयंत्र बना हुआ है। मठ के मंडप में लगभग 25 फुट नीचे एक गुफा है जहाँ बैठकर वे साधना किया करते थे। कहा जाता है कि वे धूप और शीत की परवाह किए बिना बहुधा मणिकर्णिका घाट पर पड़े रहते थे। जब भीड़ जुड़ने लगती तो किसी निर्जन स्थान पर चले जाते। उनका कहना था कि योगी बिना प्राणवायु के भी जीवित रहने की शक्ति प्राप्त कर सकता है।
तैलंग स्वामी की संक्षेप में कथाएँ :
उडीसा प्रान्तके विजना जनपदमें स्थित होलिया नामक गांवमें भूमिपति अर्थात् जमींदार नृसिंहधरके घरमें इनका जन्म हुआ। इनके जन्मसे पूर्वकी एक घटना इसप्रकार है – नृसिंहधरकी पत्नी विद्यावती देवी एक दिन देवालयमें (मन्दिरमें) पूजा करने गईं तो मन्दिरके द्वारपर एक सरल स्वभाव बालकको देखकर पूछा, “पुत्र, कहां रहते हो ? यहां क्यों बैठे हो ?” बालकने कहा – “मुझे प्रसाद चाहिए !” विद्यावतीने कहा, “ठीक है, पूजा कर लूं तब प्रसाद दूंगी । तुम यहीं बैठे रहना ! जाना मत !” पूजा समाप्त कर विद्यावती देवी बाहर आईं तो देखा कि बालक वहां नहीं था । इधर-उधर दूरतक दृष्टि दौडानेपर भी बालकका कहीं पता नहीं चला । दूसरे दिन नि:सन्तान विद्यावती देवीने स्वप्नमें देखा कि एक श्वेत हाथी उनके शरीरमें प्रवेश कर गया । पति नृसिंहधरने यह स्वप्न सुनकर कहा, “यह तो शुभ सङ्केत है। अब हमें कोई अलौकिक घटनाकी प्रतीक्षा करनी होगी ।” दो माह पश्चात् विद्यावतीने गर्भ धारण किया । तबसे उन्हें स्वप्नमें प्राय: शंकरजीके दर्शन हुआ करते थे । तैलंग स्वामीको शिवका अंशावतार माना जाता है, ध्यान रहे ! यदि माताके गर्भमें कोई उच्च कोटिका जीवका पदार्पण हुआ हो तो गर्भवती माताको दिव्य अनुभूतियां होती हैं ।
इ. उनके बाल्यकालमें स्वामीजीकी माताको हुई उनकी दिव्यतासे सम्बन्धित अनुभूति
जन्मके छठे दिवस अशौच स्नानके पश्चात् विद्यावती नवजात शिशुको लेकर मन्दिरमें आईं और बाहर प्रांगणमें शिशुको लिटाकर अन्दर पूजा करने लगीं । पूजाके अन्तमें उन्होंने देखा कि शिवलिङ्गसे एक ज्वाला निकलकर मन्दिरको प्रकाशित करती हुई बालकके अन्दर समाविष्ट हो गई । यह दृश्य देखकर माता विद्यावती अत्यधिक भयभीत हो गईं । उन्होंने अपने पुत्रको उठाकर गले लगा लिया और उसे चूमने लगीं । सांवले रंग और बडे-बडे नेत्रोंवाला उनका शिशु, उन्हें दीर्घकाय दिखाई दिया और ऐसा लगता था कि वह विद्यावतीसे कुछ गोपनीय बात कहनेवाला हो । वंशपरम्पराको ध्यानमें रखते हुए बालकका नाम शिवराम तैलङ्गधर रखा गया । शिवराम तैलङ्गधर ही आगे चलकर तैलंग स्वामी हुए । इनका एक सौतेला भाई श्रीधर भी था ।
ई. तैलङ्गधरसे गणपति स्वामीके रूपमें उनका आध्यात्मिक प्रवास
ख्रिस्ताब्द १६४७ में श्री नृसिंहधरका देहान्त हो गया और ख्रिस्ताब्द १६५८ में माता विद्यावती भी चल बसी । मांकी चिताको अग्नि देनेके पश्चात् शिवराम वहीं श्मशानमें बैठ गए और घर नहीं गए । उनके भाई, श्रीधर वहीं श्मशानमें फल-फूल भोजन आदि लाकर शिवरामको देते थे । शिवराम श्मशानमें कभी बैठे रहते कभी सो जाते । बरसातमें श्रीधरने शिवरामके लिए एक कुटिया बना दी । कालान्तरमें शिवरामकी कुटियामें भगीरथ स्वामी नामके एक संन्यासी आए और एक मासतक श्मशानमें साथ-साथ रहनेके पश्चात् शिवराम भगीरथ स्वामीके साथ पुष्कर चले गए जहां कभी विश्वामित्र ऋषिने तपस्या की थी । ख्रिस्ताब्द १६८५ ई. में भगीरथ स्वामीने शिवरामको दीक्षा देकर उन्हें बीज मन्त्रका उपदेश दिया और परम्परानुसार उनका नया नाम गणपति स्वामी रख दिया ।
उ. गणपति स्वामीसे सम्बन्धित कुछ अलौकिक घटनाएं
उ. १. गणपति स्वामीसे सम्बन्धित प्रथम दिव्य अनुभूति
मृत व्यक्तिको जीवन दान दी
ख्रिस्ताब्द १६९५ में भगीरथ स्वामी कहीं चले गए और ख्रिस्ताब्द १६९७ में गणपति स्वामी रामेश्वरम पहुंचे, यहांपर उन्होंने एक मृतव्यक्तिके ऊपर अपने कमण्डलुसे जल छिडककर उसे पुनर्जीवित कर दिया । यह उनके जीवनकी उनकेद्वारा की गई प्रथम अलौकिक घटना थी । आपको बता दें, सन्तों, सिद्धों और योगियोंमें यह ईश्वर प्रदत्त क्षमता होती है ।
उ. २. घायल बाघका स्वामीजीके समक्ष भीगी बिल्ली समान वर्तन करना
ख्रिस्ताब्द १७०१ ई. में स्वामीजी हिमालयके क्षेत्रमें प्रवेश करते हुए आगे बढ गए । एक वनमें रुचिकर स्थान देखकर वे वहां समाधिमें बैठ गए । यह स्थान नेपाल राज्यके अधीन था । वहां उस वनमें एक गुहा (गुफा) थी । स्वामीजी कभी गुहाके बाहर रहते तो कभी अन्दर रहते । एक बार नेपाल नरेश अपने सैनिकों और सेनापतिके साथ आखेटपर निकले । सेनापतिने एक बाघपर गोली चलाई । गोली लगते ही वह बाघ आगे भाग गया । बाघका पीछा करते हुए सेनापति, स्वामीजीकी गुहाके निकट आए तो देखा कि बाघ स्वामीजीके पैरोंके समीप लेटा है और स्वामीजी उसकी पीठपर हाथ फेर रहे हैं । घायल बाघ स्वभावत: विक्षिप्त (पागल) होकर अत्यन्त क्रूर और हिंसक हो जाता है; किन्तु सेनापतिने देखा कि वह स्वामीजीके पास भीगी बिल्लीके समान सो रहा है ।
सेनापतिके साथ सभी लोग प्रणाम कर स्वामीजीके पास खडे हो गए । स्वामीजीने कहा, “हिंसासे प्रतिहिंसा जन्म लेती है । मैं हिंसक नहीं हूं । इसीलिए यह मेरे पास आ कर अहिंसक हो गया । जब तुम किसीको जीवन-दान नहीं दे सकते तो किसीका जीवन लेनेका भी अधिकार तुम्हें नहीं है।” नेपाल नरेशने जब गणपति स्वामीके विषयमें सुना तो वे ढेर सारे हीरे-रत्न इत्यादि लेकर स्वामीजीके दर्शनके लिए पहुंचे । स्वामीजी ने कहा, “मुझे इन सबकी आवश्यकता नहीं है । इन्हें निर्धनोंमें बांट दो !” इसके पश्चात् उनकी शंकाओंका समाधान कर, उन्हें अनेक उपदेश देकर, स्वामीजीने राजाको सन्तुष्ट किया । अपना प्रचार बढता देख स्वामीजी त्रस्त हो गए और एक दिन बिना किसीको बताए उत्तरकी ओर बढ गए।
सन्तोंके दो प्रकार होते हैं – व्यष्टि सन्त एवं समष्टि सन्त, व्यष्टि सन्त स्वयंकी साधनापर ध्यान केन्द्रित करते हैं एवं समाजाभिमुख नहीं रहते हैं, वे यदि योग्य पात्र मिले तो उन्हें ज्ञान अवश्य देते हैं; किन्तु अधिकांशत: वे उनकी संख्या वृद्धिमें अत्यधिक रुचि नहीं लेते हैं । समष्टि सन्त समाजाभिमुख होते हैं वे समाजको धर्मशिक्षण देते हैं और शिष्यकी आध्यात्मिक प्रगति हेतु विशेष प्रयास करते हैं ।
उ. ३. नर्मदाके जलको दूध बनाकर उसका पान करना
गणपति स्वामी ११९ वर्षकी आयु पूर्ण करनेके समय ख्रिस्ताब्द १७८६ में नर्मदाके किनारे मार्कण्डेय ऋषिके आश्रममें दिखाई दिए । मार्कण्डेय आश्रमके गुरु खाकी बाबा थे । उस आश्रममें बहुतसे साधु- सन्यासी थे जो उन्हें साधारण साधु समझते थे । ध्यान रखें, उच्च कोटिके सन्तों और सिद्धोंका सभी अभिज्ञान (पहचान) नहीं कर पाते हैं । एक दिनकी घटनाका वर्णन करते हुए खाकी बाबाने कहा, “कल जब रात्रिके अन्तिम प्रहरमें मैं स्नान और साधना करनेके लिए नर्मदाके किनारे पहुंचा तो देखा कि दूधकी नदी बह रही है । मुझे लगा कि मैं भ्रममें हूं । पास जानेपर देखा तो ज्ञात हुआ कि नर्मदाका पूरा जल दूध बन गया है और गणपति स्वामी अंजलि भर-भर कर दूध पी रहे हैं । मेरे नदीमें हाथ डालते ही सारा दूध पानी हो गया । तत्पश्चात् देखा कि स्वामीजी नदी तटसे ऊपर आ रहे हैं । मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह उनकी सिद्धिका ही प्रताप था जिस कारण यह चमत्कार घटा था । मात्र उच्चतम स्तरके योगी ही ऐसी विभूतिका प्रदर्शन कर सकते हैं।” इस घटनाके सम्बन्धमें पूछनेपर स्वामीजी हंस दिए और उत्तर देना टाल दिया । तत्पश्चात् गणपति स्वामीजीने वहांके साधुओं एवं सन्तोंको षट्चक्र साधनाके विषयमें विस्तारके साथ समझाया । एक दिन वहांसे पुनः बिना किसीको बताए, वे प्रयाग आ गए और एक निर्जन स्थानमें आसीन होकर योगाभ्यास करने लगे । इसी क्रममें एक दिन स्वामीजीने झंझावात (आंधी-तूफान)और भयंकर वर्षाके कारण डूबती हुई एक नौकाको यात्रियों सहित बचा लिया ।
उ. ४. गणपति स्वामीका काशीमें ब्राह्मणीके मृतपतिको जीवनदान दिया जाना
अवधपतनके पश्चात् प्रयागमें गृहयुद्ध आरम्भ हो गया और स्वामीजी काशी चले गए । वहां जाकर भदैनीके पास वे तुलसी वनमें रहने लगे । वहां उन्होंने लोलार्ककुण्डमें रहनेवाले ब्रह्मासिंह नामक कुष्ठ रोगीको रोगमुक्त किया । सन्तोंके पास लोगोंको कष्टमुक्त करनेकी भी ईश्वरप्रदत्त शक्ति होती है । हरिश्चन्द्र घाटपर एक नि:सन्तान विधवा ब्राह्मणीके मृतपतिको जीवनदान दिया ।
उ. ५. स्वामीजीद्वारा एक हंडिया चूनेका घोल सहज सेवन कर लेना
कुछ समय पश्चात् स्वामीजी तुलसीवनसे हटकर दशाश्वमेध घाटपर रहने लगे वे मात्र एक कौपीन धारण करते थे और यहीं आकर वे तैलंग स्वामीके रूपमें प्रसिद्ध हुए । वहां भी आर्त्त लोगोंने उन्हें पुनः त्रस्त करना आरम्भ कर दिया । एक क्रूर व्यक्तिकी इच्छाको जब स्वामीजीने पूरी नहीं की तब उसने स्वामीजीको तडपा कर मारनेके लिए एक हंडिया चूनेका घोल लेकर स्वामीजीके पास आया और कहा, “स्वामीजी मैं यह भैंसका गाढा दूध लेकर आया हूं, आप इसे ग्रहण करें ! उसके उद्देश्यको समझकर स्वामीजी पूरा घोल पी गए । वह व्यक्ति घर जाकर छटपटाने लगा । इधर स्वामीजीने थोडी देर पश्चात् मूत्र त्याग किया सारा घोल मूल रूपमें बहा दिया । कष्टसे पीडित वह व्यक्ति भागा-भागा स्वामीजीके पास आया और क्षमा मांगने लगा । करुणामय स्वामीजीने उसे क्षमा कर दिया । देखिए ! सर्व सामान्य व्यक्तिकी यदि स्वार्थसिद्धि न हो तो वह सन्तों और योगियोंसे भी प्रतिशोध लेनेसे नहीं चूकता है और करुणाके सागर रूपी सन्त उन्हें सिखाने हेतु सर्व कष्ट सहन कर, उन्हें अपनी चूकका भान होनेपर उन्हें क्षमा भी कर देते हैं ।
उ. ६. अंग्रेज रक्षकोंद्वारा स्वामीजीको बन्दी बनानेपर उन्हें बन्दी न बना पाना
मुगलोंका शासन समाप्त हो गया था और काशीका जिलाधीश एक अंग्रेजको नियुक्त किया गया था । उसने स्वामीजीको नंगे न रहकर वस्त्र पहननेका निर्देश दिया । स्वामीजीने उसकी बात अनसुनी कर दी तो उसने स्वामीजीको कारागृहमें बन्द करनेका आदेश दिया। रक्षकोंने अर्थात् पुलिसने स्वामीजीको पकडकर कारागृहमें डाल दिया; किन्तु वे वहांसे अन्तर्धान हो गए और कारागृहकी छतपर विचरण करते दिखाई दिए, रक्षकोंने उन्हें पुनः कोठरीमें बन्द किया; किन्तु वे पुनः कोठरीके बारह घूमते दिखाई दिए । एक बंगाली सज्जनने जिलाधीशको स्वामीजीकी योगविभूतिके विषयमें बतलाया और जिलाधीशने प्रत्यक्ष उनकी दिव्यताके विषयमें जान ही लिया था; अतः उसने स्वामीजीको मुक्त कर दिया ।
उ. ७. स्वामीजीद्वारा दो राजाओंके अहंकारको भंग करना
ख्रिस्ताब्द १८८० में एक बार काशीनरेशके पास उज्जैननरेश आए । काशीनरेशने उनसे स्वामीजीकी चर्चा की । दर्शनके लिए दोनों राजा रामनगरसे बजरासे चलकर बिन्दुमाधवके धरहराके पास आकर रुके । काशीनरेशने नाविकोंको (मल्लाहोंको) नाव किनारे लगानेको कहा और देखा कि तैलङ्ग स्वामी उड कर बजरेपर आ बैठे । स्वामीजीने उज्जैननरेशसे कहा, “कहिए राजन् ! मुझसे क्या पूछना चाहते हैं ?” उज्जैननरेशने अनेक प्रश्न किए । स्वामीजीने सब प्रश्नोंके सन्तोषप्रद उत्तर दिए । स्वामीजी जानते थे कि राजाओंकी ज्ञानपिपासा श्मशानवैराग्य समान क्षणिक होती है । सहसा स्वामीजीने काशीनरेशके हाथसे खड्ग (तलवार) ले ली और उसे उलट-पुलट कर देखनेके पश्चात् गंगाजीमें फेंक दिया । इसपर दोनों राजा कुपित हो गए । काशीनरेशने स्वामीजीसे कहा, “जबतक तलवार नहीं मिलती आप यहीं बैठे रहें !” स्वामीजीकी इस धृष्टताके लिए काशीनरेश स्वामीजीको बन्दी बनाकर रामनगर ले जाना चाहते थे । स्वामीजीने गंगाजीमें हाथ डाला और एक जैसी दो तलवारें निकालकर राजासे कहा, “इनमेंसे जो तुम्हारी है वह ले लो ।” दोनों राजा अपनी तलवारका अभिज्ञान न कर पानेके कारण लज्जित और किंकर्त्तव्यविमूढ हो गए । स्वामीजीने उनकी तलवार उनके हाथमें देते हुए कहा कि जब तुम्हें अपनी वस्तुका अभिज्ञान नहीं है तब यह कैसे कहते हो कि यह तुम्हारी है ? इतना कह कर वे नदीमें कूद गए । राजाने संध्यातक प्रतीक्षा की कि तैलङ्ग स्वामी ऊपर आएं तो उनसे क्षमा मांगे । अन्तमें हार कर नदीके माध्यमसे क्षमा मांगी और प्रणाम कर रामनगर चले गए ।
ए. रामकृष्ण परमहंस एवं तैलंग स्वामीजीका मधुर मिलन
ख्रिस्ताब्द १८१० ई. में स्वामीजी दशाश्वमेध छोडकर पञ्चगंगा घाटपर आ गए । इन्हीं दिनों तैलंग स्वामीको रामकृष्ण परमहंसने देखते ही दोनों हाथ उठा कर उन्हें गले लगा लिया था और रामकृष्ण् परमहंसको तैलंग स्वामीमें ही साक्षात् विश्वनाथ महादेवके दर्शन वहीं सडकपर ही हो गए । हुआ यह कि रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्योंके साथ काशी आए । मन था कि भोलेनाथके दर्शन और उपासना करें ! स्नान करके शिष्योंके साथ विश्वनाथ गलीमें जैसे ही घुसे, एक महाकाय नंग-धडंग सांवला सा साधु अकस्मात् ही उनके समक्ष आ गया । कुछ क्षण एक-दूसरेको निहारनेके पश्चात् दोनों ही एक-दूसरेके गले लग गए । शिष्य आश्चर्यचकित थे । कुछ देर दोनों ही बेहाल रोते हुए लिपटे रहे । तत्पश्चात् वहीं मार्गपर ही वार्तालाप हुआ । बस वहींसे रामकृष्ण परमहंस वापस लौट गए । शिष्योंने पूछा, “महाराज, विश्वनाथजीके दर्शन नहीं करेंगे क्या ?” स्वामीजीने उत्तर दिया, “वह तो हो गए । स्वयं विश्ववनाथ भगवान ही तैलंग स्वामीके रूपमें मेरे गले लिपटे थे ।” रामकृष्णके अनुसार तैलंग स्वामी परमहंस स्तरके सन्त थे ।
ऐ. स्वामीजीद्वारा समाधिकी पूर्वसूचना देना एवं जल समाधि लेना
उन्होंने प्राण त्यागनेकी तिथि एक मास पूर्व ही निश्चित कर ली थी । प्रत्येक मनुष्येको पोथी माननेवाले शिव स्वरूपी ये अवधूत, ख्रिस्ताब्द १८८७ की पौष शुक्ल एकादशीको २८० वर्षकी आयुमें ब्रह्मलीन हो गए । समाधि लेनेके पूर्व स्वामीजीने अपने भक्तोंको निर्देश दिया था, “मेरे नापकी एक पेटिका (बॉक्स) बनवा लेना, जिससे मैं उसमें लेट सकूं । ‘बक्से’में मुझे लिटा कर उसमें ताला लगा देना । पञ्चगंगाघाटके किनारे अमुक स्थानमें मुझे गिरा देना ।’
उनके निर्देशानुसार उन्हें जलसमाधि दे दी गई । सामान्य मनुष्य मृत्युके अधीन होता है और मृत्यु सन्तोंके अधीन होती है; इसलिए वे अपने देह-त्य्यागकी पूर्व सूचना अपने शिष्योंको दे देते हैं ।
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