रावण द्वारा नवग्रह को बंदी बनाना (Navgraha Bandhan by Ravana)
रावण
ब्राह्मण वंश में पैदा हुआ था उसके पिता ऋषि विश्रवा और पितामह पुलत्स्य ऋषि महान
तपस्वी एवं धर्मज्ञ थे | किन्तु माता के असुर कुल की होने की वजह
से उसमे आसुरी संस्कार आ गए थे |
ऋषि
विश्रवा की दो पत्नियाँ थी एक का नाम इडविडा था जो ब्राह्मण कुल से थी तथा जिनकी
संतान कुबेर थे | दूसरी पत्नी का नाम कैकसी था जो असुर कुल
से थी | इनकी, रावण, कुम्भकर्ण, सूपर्णखा आदि संताने थी | कुबेर इन सब मे सबसे बड़े थे |
रावण, विभीषण आदि जब बाल्यावस्था में थे तभी
कुबेर धनाध्यक्ष की पदवी प्राप्त कर चुके थे | कुबेर की पद-प्रतिष्ठा से रावण की माँ
इर्ष्या करती थी और रावण को कोसा करती थी |
एक
दिन रावण के मन में ठेस लगी और अपने भाइयों (कुम्भकर्ण और विभीषण) को साथ में लेकर
तपस्या करने चला गया | रावण का भ्रात्र प्रेम अप्रतिम था | इन तीनो भाइयों की तपस्या सफल हुई और तीनो भाइयों ने ब्रह्मा जी से
स्वेच्छा से वरदान प्राप्त किया |
रावण
इतना अधिक बलशाली था कि सभी देवता, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर तथा ग्रह-नक्षत्र उससे घबराते थे | ग्रंथों में ऐसा लिखा है कि रावण ने लंका में दसों दिक्पालों को पहरे
पर नियुक्त किया हुआ था |
रावण
की पत्नी मंदोदरी जब माँ बनने वाली थी (मेघनाद के जन्म के समय) तब रावण ने समस्त
ग्रह-मंडल को एक निश्चित स्थिति में रहने के लिए सावधान कर दिया था जिससे उत्पन्न
होने वाला पुत्र अत्यंत तेजस्वी, शौर्य, पराक्रम से युक्त हो |
उसें
ऐसा समय साध लिया था जिस समय में यदि किसी का जन्म हो तो वो अजेय एवं अमितायु
(अत्यंत दीर्घायु) से संपन्न होगा | लेकिन जब मेघनाद का जन्म हुआ तो बाकि सरे
ग्रहों ने आज्ञा का पालन किया किन्तु ठीक उसी समय दैवीय प्रेरणा से शनि ग्रह ने
अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लिया | जिस स्थिति में शनि के होने की वजह से
रावण का पुत्र दीर्घायु होता, स्थिति परिवर्तन से
वही पुत्र अब अल्पायु हो गया | रावण इससे अत्यंत क्रोधित हो गया | इस भयंकर क्रोध में उसने शनि के ऊपर गदा का प्रहार किया जिससे शनि के
पैर में चोट लग गयी और वो पैर से कुछ लाचार हो गए अर्थात लंगड़े हो गए |
इन
सब वजहों से रावण-पुत्र मेघनाद, प्रचंड पराक्रमी, तेजस्वी और शौर्यवान तो था लेकिन अल्पायु
था और शेषनाग जी के अंश लक्ष्मण जी के द्वारा मारा गया | आज हममे से बहुत से ऐसे लोग मिल जायेंगे (जो ज्योतिष विद्या में
विश्वास रखते हैं) जो पत्नी के गर्भ में पल रहे अपनी होने वाली संतान को, आने वाले विशिष्ट योग में ही जन्म लेने के
लिए योग्य चिकित्सको की सहायता या शल्य क्रिया आदि की सहायता लेते हैं लेकिन इस
धरती पर कभी कोई ऐसा भी जन्मा था जिसने अपनी संतान जन्म के समय पर ग्रह-नक्षत्रो
को ही बाध्य कर दिया था विशिष्ट मुहूर्त के लिए !
अपनी
मृत्यु का कारण जानने के बाद उसने उसे बदलने का निश्चय किया। वो महान योद्धा था।
नारायणास्त्र को छोड़कर विश्व के सभी दिव्यास्त्र उसके पास थे (हालाँकि
पाशुपतास्त्र उसके लिए उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ)। उसके बल का ऐसा प्रताप था कि युद्ध
में उसने यमराज को भी पराजित किया और स्वयं नारायण के सुदर्शन चक्र को पीछे हटने
पर विवश कर दिया। ब्रह्मा के वरदान से उसकी नाभि में अमृत था जिसके सूखने पर ही
उसकी मृत्यु हो सकती थी। रूद्र के वरदान से उसका शीश चाहे कितनी बार भी काटो, उससे उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी। किन्तु
इतना सब होने के बाद भी वो अजेय और अवध्य नहीं था। उसने निश्चय किया कि वो अपने
पुत्र, जो अभी मंदोदरी के
गर्भ में था, उसे अविजित और अवध्य
बनाएगा।
भगवान
शंकर से जो उसे ज्ञान और वरदान प्राप्त हुआ था, उससे उसने सभी नवग्रहों और ज्योतिष विज्ञान का गहन अध्यन किया। उसे
ज्ञात हुआ कि अगर नवग्रह उसके अनुसार अपनी स्थिति बदल सकें तो वो मृत्यु को भी
पीछे छोड़ सकता है। इसी कारण उसने इंद्र पर आक्रमण किया और अपनी अतुल शक्ति, वरदान, विद्या और पांडित्य के बल पर उसने नवग्रहों को अपने अधीन कर लिया। इस
बीच मंदोदरी के प्रसव की घडी भी नजदीक आ गयी। जब रावण के पुत्र का जन्म होने ही
वाला था, उसने सभी नवग्रहों
को ये आदेश दिया कि वो उसके पुत्र की कुंडली के ११वें घर पर स्थित हो जाएँ।
व्यक्ति की कुंडली का ११वां घर शुभता का प्रतीक होता है। यदि ऐसा हो जाता तो उसके
होने वाले पुत्र की मृत्यु असंभव हो जाती।
रावण
की आज्ञा अनुसार सभी ग्रह उसके होने वाले पुत्र की कुंडली के ११वें घर में स्थित
हो गए। रावण निश्चिंत था कि अब इस मुहूर्त में उत्पन्न होने वाला उसका पुत्र अजेय
होगा। किन्तु अंतिम क्षणों में, जब उसका पुत्र पैदा
होने ही वाला था, शनिदेव उसकी कुंडली
के ११वें घर से उठ कर १२वें घर में स्थित हो गए। प्राणी की कुंडली का १२वां घर
अशुभ लक्षणों का प्रतीक है। ठीक उसी समय रावण के पुत्र का जन्म हुआ जिसे देख कर
बादल घिर आये और बिजली चमकने लगी। इसी कारण रावण ने उसका नाम 'मेघनाद' रखा। अंत समय में शनिदेव के १२वें घर में
स्थित होने के कारण मेघनाद महाशक्तिशाली तो हुआ किन्तु अल्पायु और वध्य रह गया।
रावण
हर तरह से निश्चिंत था किन्तु जब उसने अपने राजपुरोहित से अपने पुत्र की कुंडली
बनाने को कहा तब उसे पता चला कि शनिदेव ने उसकी आज्ञा का उलंघन किया है। उसे अपार
दुःख हुआ और उसने ब्रह्मदण्ड की सहायता से शनि को परास्त कर बंदी बना लिया। कहा
जाता है कि रावण के दरबार में नवग्रह सदैव उपस्थित रहते थे किन्तु शनिदेव से विशेष
द्वेष के कारण उन्हें रावण सदैव अपने चरण पादुकाओं के स्थान पर रखता था। बाद में
लंका दहन के समय महाबली हनुमान ने शनिदेव को मुक्त करवाया। खैर वो कथा बाद में।
रावण
ने सब ग्रहों को अपने पैर के नीचे दबाकर रखा था जिससे कि वह मुक्त न हो सकें। उधर
देवताओं ने ग्रहों की मुक्ति की एक योजना बनाई। इस योजना के अनुसार नारद ने रावण
के पास जाकर पहले उसका यशगान किया। फिर उससे कहा कि ग्रहों को जीतकर उसने बहुत
अच्छा किया। पर जिसे जीता जाए, पैर उसकी कमर पर
नहीं, उसकी छाती पर रखना
चाहिए। रावण को यह सुझाव अच्छा लगा। उसने अपना पैर थोड़ा सा उठाकर ग्रहों को पलटने
का आदेश दिया। ज्यों ही ग्रह पलटे, शनि ने तुरन्त रावण पर अपनी दृष्टि डाल दी। उसी समय से रावण की शनि
दशा आरम्भ हो गई।
जब
रावण की समझ में आया कि नारद क्या खेल खेल गए, तो उसे बहुत क्रोध आया। उसने शनि को एक शिवलिंग के ऊपर इस प्रकार बाँध
दिया कि वह बिना शिवलिंग पर पैर रखे भाग नहीं सकता था। वह जानता था कि शनि शिव का
भक्त और उनका शिष्य होने का कारण कभी भी शिवलिंग पर पैर नहीं रखेगा। पर उसकी शनि
दशा आरम्भ हो चुकी थी। हनुमान सीता को खोजते हुए लंका पहुँच गए।
शनि
ने हनुमान से प्रार्थना की कि वह देवताओं के हित के लिए अपना सिर शिवलिंग और उसके
पैर के बीच कर दें जिससे वह उनके सिर पर पैर रखकर उतर भागे। हनुमान ने पूछा ऐसा
करने से उन पर शनि का क्या दुष्प्रभाव होगा। शनि ने बताया कि उनका घर परिवार उनसे
बिछड़ जाएगा।
हनुमान
मान गए क्योंकि उनका कोई घर परिवार था ही नहीं। इस उपकार के बदले शनि ने हनुमान से
कोई वर माँगने के लिए कहा। हनुमान ने वर माँगा कि शनिदेव कभी उनके किसी भक्त का
अहित न करें।
अब
स्वयं के सामान रावण ने मेघनाद को भी रूद्र का कृपापात्र बनाया। उसका पराक्रम देख
कर स्वयं भगवान शंकर ने उसे रावण से भी महान योद्धा बताया। वही एक योद्धा था जिसके
पास तीनों महास्त्र (ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र) सहित संसार के समस्त दिव्यास्त्र थे।
इसी कारण वही आज तक का एक मात्र योद्धा बना जिसे 'अतिमहारथी' होने का गौरव प्राप्त हुआ। उसी बल पर उसने
देवराज इंद्र को परास्त किया और इंद्रजीत कहलाया। उसे कुछ विशेष वरदान भी प्राप्त
हुए जिससे वो एक प्रकार से अवध्य हो गया किन्तु उन वरदानों को लक्ष्मण ने संतुष्ट
किया और आखिरकार उसका वध किया।
जब
रावण अपने पुत्र को मनचाहा भविष्य ना दे सका तो वो ये समझ गया कि परमपिता ब्रह्मा
के विधि के विधान को कोई बदल नहीं सकता। तब उसने ये निश्चय किया कि वो राक्षस जाति
के लिए कुछ ऐसे विधान और उपायों का निर्माण करेगा जिससे उनके समस्त दुःख दूर हो
जाएँ। इसी लिए उसने जो भी विद्या प्राप्त की थी उनकी रचना अचूक उपायों के साथ एक
ग्रन्थ के रूप में की। उसके बाद ये ज्ञान लोप ना हो जाये इसी कारण उसने इन उपायों
को स्वयं मेधनाद द्वारा लिपिबद्ध करवाया ताकि ये ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी राक्षस जाति
को मिलता रहे। यही लिपिबद्ध पुस्तक 'रावण संहिता' के नाम से प्रसिद्ध
हुई।
ये
भी कहा जाता है कि जब अंत समय में लक्ष्मण रावण के पास शिक्षा लेने गए तो रावण ने
उन्हें इस ग्रन्थ के उपायों की भी शिक्षा दी। जब तक रावण जीवित रहा ये महान ग्रन्थ
केवल राक्षस जाति तक सीमित रहा किन्तु विभीषण के राजा बनने के पश्चात श्रीराम की
आज्ञा से उसने मानवमात्र के कल्याण के लिए उस रहस्यमयी और दुर्लभ ज्ञान को
मनुष्यों को प्रदान किया। ऐसा भी वर्णन है कि रावण ने रावण संहिता का जो ज्ञान
लक्ष्मण को दिया था, उन्होंने ही उसे
अनुवाद कर अयोध्या में रख लिया जहाँ से इसका बाद में प्रचार प्रसार हुआ।
तो
अगर संक्षेप में समझा जाये तो रावण संहिता एक ऐसी पुस्तक है जिसमे मनुष्यों के
कर्म फल के अनुसार होने वाले दुखों और उससे मुक्ति का उपाय है। कुछ उपाय बहुत सरल
हैं (जैसे सौभाग्य के लिए गौमाता को भोजन कराने का उपाय) किन्तु कुछ उपाय अत्यंत
कठिन हैं जिसे साधक अत्यंत कठिन साधना के बाद ही सिद्ध कर सकता है। कहा जाता है कि
नागा साधु बनने की प्रक्रिया भी रावण संहिता से ही प्रेरित है। यही नहीं, महर्षि भृगु द्वारा रचित भृगु संहिता, जिसे आज कल 'लाल किताब' कहते हैं, वो भी रावण संहिता से प्रेरित और मिलती जुलती है। इसी कारण दोनों
पुस्तकों में कई उपाय हैं जो समान हैं।
कहते
हैं कि समय के साथ-साथ विद्वानों ने रावण संहिता के सर्वाधिक चमत्कारी उपायों को
जान बूझ कर मिटा दिया गया अन्यथा कलियुग में मानव उसका दुरुपयोग करता। कहा जाता है
कि अगर वो लुप्त विद्या और तंत्र साधना के उपाय आज किसी को मिल जाएँ तो वो उनकी
शक्ति से भविष्य को भी पलट सकता है। यही कारण है कि आज कल प्रकाशित होने वाली रावण
संहिता में आपको उन गुप्त रहस्यों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलेगी क्यूंकि वो
किसी को भी ज्ञात नहीं है। हालाँकि इस पुस्तक में लिखे उपायों से मनुष्य अपने
कष्टों को मिटा सकता है किन्तु उन उपायों को किसी योग्य गुरु की छत्र-छाया में ही
सिद्ध करना चाहिए अन्यथा विपरीत परिणाम मिल सकते हैं। साथ ही रावण संहिता को घर
में रखने की भी मनाही की गयी है। खैर, बात चाहे जो भी हो, इसमें कोई शंका नहीं
है कि रावण ने हमें रावण संहिता के रूप में अमूल्य ज्ञान का खजाना दिया है जिसे
हमें मानव कल्याण के लिए उपयोग करना चाहिए।
क्यों
मेघनाद अतिरथी था फिर भी मेधनाद का वध केवल लक्षमण ही कर सकते थे?
लंका
के युद्ध के कुछ वर्षों बाद एक बार अगस्त्य मुनि अयोध्या आए। श्रीराम ने उनकी
अभ्यर्थना की और आसन दिया। राजसभा में श्रीराम अपने भ्राता भरत, शत्रुघ्न और देवी सीता के साथ उपस्थित थे।
बात करते-करते लंका युद्ध का प्रसंग आया। भरत ने बताया कि उनके भ्राता श्रीराम ने
कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और
अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा। अगस्त्य मुनि बोले - "हे भरत! रावण और
कुंभकर्ण निःसंदेह प्रचंड वीर थे, किन्तु इन सबसे बड़ा
वीर तो मेघनाद ही था। उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर इंद्र से युद्ध किया था और
उन्हें पराजित कर लंका ले आया था। तब स्वयं ब्रह्मा ने इंद्रजीत से दान के रूप में
इंद्र को मांगा तब जाकर इंद्र मुक्त हुए थे। लक्ष्मण ने उसका वध किया इसलिए वे
सबसे बड़े योद्धा हुए। और ये भी सत्य है कि इस पूरे संसार में मेघनाद को लक्ष्मण
के अतिरिक्त कोई और मार भी नहीं सकता था, यहाँ तक कि स्वयं श्रीराम भी नहीं।"
भरत
को बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश थे। उन्होंने श्रीराम
से पूछ कि क्या ये बात सत्य है और जब राम ने इसकी पुष्टि की तो भी भरत के मन में
जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर अगस्त्य मुनि ऐसा क्यों कह रहे हैं कि इंद्रजीत का वध
रावण से ज्यादा मुश्किल था? उन्होंने पूछा
"हे महर्षि! अगर आप और भैया ऐसा कह रहे हैं तो ये बात अवश्य ही सत्य होगी और
मुझे इस बात की प्रसन्नता भी है कि मेरा भाई विश्व का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है
किन्तु फिर भी मैं जानना चाहता हूँ कि आखिर ऐसा क्या रहस्य है कि मेघनाद को लक्षमण
के अतिरिक्त कोई और नहीं मार सकता था?"
अगस्त्य
मुनि ने कहा - "हे भरत! मेघनाद ही विश्व का एकलौता ऐसा योद्धा था जिसके पास
विश्व के समस्त दिव्यास्त्र थे। उसके पास तीनों महास्त्र - ब्रम्हा का
ब्रम्हास्त्र, नारायण का
नारायणास्त्र एवं महादेव का पाशुपतास्त्र भी था और उसे ये वरदान था कि उसके रथ पर
रहते हुए कोई उसे परास्त नहीं कर सकता था इसी कारण वो अजेय था। उस समय संसार में
केवल वही एक योद्धा था जिसने अतिमहारथी योद्धा का स्तर प्राप्त किया था। ये सत्य
है कि उसके सामान योद्धा वास्तव में कोई और नहीं था। उसने स्वयं भगवान रूद्र से
युद्ध की शिक्षा ली और समस्त दिव्यास्त्र प्राप्त किये। भगवान रूद्र ने स्वयं ही
उसे रावण से भी महान योद्धा बताया था और उसकी शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात कहा था
कि वो एक सम्पूर्ण योद्धा बन चुका है और इस संसार में तो उसे कोई और परास्त नहीं
कर सकता। उन्होंने यहाँ तक कहा कि उन्हें संदेह है कि स्वयं वीरभद्र भी मेघनाद को
परास्त कर सके। इसके अतिरिक्त उसकी परम पवित्र पत्नी सुलोचना का सतीत्व भी उसकी
रक्षा करता था।"
इसपर
भरत ने कहा "हे महर्षि! आपके मुख से मेघनाद की शक्ति का ऐसा वर्णन सुनकर
विश्वास हो गया कि वो वास्तव में महान योद्धा था किन्तु बात अगर केवल दिव्यास्त्र
की है तो श्रीराम के पास भी सारे दिव्यास्त्र थे। उन्होंने भी त्रिदेवों के
महास्त्र प्राप्त किये। साथ ही साथ महाबली हनुमान को भी ये वरदान था कि उनपर किसी
भी अस्त्र-शस्त्र का प्रभाव नहीं होगा और उनके बल और पराक्रम का कहना ही क्या? लक्ष्मण निःसंदेह महा-प्रचंड योद्धा थे और
उनके पास भी विश्व के सारे दिव्यास्त्र थे किन्तु उसे पाशुपतास्त्र का ज्ञान नहीं
था जिसका ज्ञान मेघनाद को था। फिर भी लक्षमण किस प्रकार मेघनाद का वध करने में सफल
हुए। और आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि केवल लक्ष्मण ही उसका वध कर सकते थे?"
इसपर
अगस्त्य मुनि ने कहा "आपका कथन सत्य है। जितने दिव्यास्त्र मेघनाद के पास थे
उतने लक्ष्मण के पास नहीं थे किन्तु इंद्रजीत को ये वरदान था कि उसका वध वही कर
सकता था जिसने:
चौदह
वर्षों तक ब्रम्हचर्य का पालन किया हो।
चौदह
वर्षों तक जो सोया ना हो।
चौदह
वर्षों तक जिसने भोजन ना किया हो।
चौदह
वर्षों तक किसी स्त्री का मुख ना देखा हो।
पूरे
विश्व में केवल लक्ष्मण ही ऐसे थे जिन्होंने मेघनाद के वरदान की इन शर्तों को पूरा
किया था इसी कारण केवल वही मेघनाद का वध कर सकते थे।"
तब
श्रीराम बोले "हे गुरुदेव! मेघनाद और लक्ष्मण दोनों के बल और पराक्रम से मैं
अवगत हूँ। अगर शक्ति की बात की जाये तो निःसंदेह इन दोनों की कोई तुलना नहीं थी।
लक्ष्मण के ब्रम्हचारी होने की बात मैं समझ सकता हूँ किन्तु मैं वनवास काल में
चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल उसे देता रहा। मैं सीता
के साथ एक कुटी में रहता था और बगल की कुटी में लक्ष्मण थे। मैं, सीता और लक्ष्मण अधिकतर समय साथ ही रहते
थे फिर भी उसने सीता का मुख भी न देखा हो, भोजन ना किया हो और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है?" अगस्त्य मुनि सारी बात समझ कर मुस्कुराए।
वे समझ गए कि श्रीराम क्या चाहते हैं। दरअसल सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते
थे लेकिन वे चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में
हो तभी ऐसा पूछ रहे हैं। उन्होंने कहा कि "क्यों ना स्वयं लक्ष्मण से इस विषय
में पूछा जाये।" लक्ष्मण को बुलाया गया। सभा में आने पर उन्होंने सबको प्रणाम
किया फिर श्रीराम ने कहा "प्रिय भाई! तुमसे जो भी पूछा जाये उसका सत्य उत्तर
दो। हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा? फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे? और १४ वर्ष तक कैसे सोए नहीं?
लक्ष्मण
ने कहा "भैया! जब हम भाभी को तलाशते ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें
उनके आभूषण दिखा कर पहचानने को कहा तो आपको स्मरण होगा कि मैं तो सिवाए उनके पैरों
के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था, क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं था। मैं तो भाभी
को केवल उनके चरणों से पहचानता हूँ। उनके अतिरिक्त मैंने वनवास के समय शूर्पणखा
एवं बालि की भार्या देवी तारा को ही देखा था किन्तु एक तो वे अनायास ही मेरे समक्ष
आ गयी थी और दूसरे वे दोनों पूर्ण मनुष्य नहीं थी। शूर्पणखा राक्षसी थी और तारा
वानर जाति की।"
"रही
बात निद्रा की तो जब आप और माता एक कुटिया में सोते थे, मैं रात भर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए
पहरेदारी में खड़ा रहता था। निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने का प्रयास किया तो
मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था। तब निद्रा देवी ने हार कर स्वीकार
करते हुए मुझे वचन दिया कि वह चौदह वर्ष तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी किन्तु जब आपका
अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा तब वो मुझे घेरेगी। आपको याद होगा, राज्याभिषेक के समय जब मैं आपके पीछे छत्र
लेकर खड़ा था तब निद्रा के कारण मेरे हाथ से छत्र गिर गया था। निद्रा देवी को दिया
वचन के कारण ही मैं आपका राजतिलक भी नहीं देख सका था क्यूंकि मैं सो गया था।"
लक्ष्मण के ना सोने का एक रहस्य उर्मिला की "उर्मिला-निद्रा" भी है। इस
कथा के अनुसार लक्ष्मण की जगह उर्मिला १४ वर्षों तक सोती रही थी। इसके बारे में आप
यहाँ पढ़ सकते हैं।
अब
निराहारी रहने की बात भी सुनिए। मैं जो फल-फूल लाता था, माता उसके तीन भाग करती थीं। आप सदैव एक
भाग मुझे देकर कहते थे लक्ष्मण फल रख लो। आपने कभी फल खाने को नहीं कहा फिर बिना
आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे? मैंने उन्हें संभाल
कर रख दिया। सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे। गुरु विश्वामित्र से मैंने
एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था - बिना आहार किए जीने की विद्या। उसके प्रयोग
से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका।"
श्रीराम
ने आश्चर्य में पड़ते हुए कहा तो क्या सारे वनवास काल के फल वही हैं?" तब लक्ष्मण ने कहा "नहीं भैया, उनमे सात दिन के फल कम होंगे।" तब
श्रीराम ने कहा "इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था?" इसपर लक्ष्मण ने कहा "भैया सात दिन
के फल कम इस कारण है क्योंकि उन सात दिनों में फल आए ही नहीं।"
जिस
दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहें।
जिस
दिन रावण ने माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता?
जिस
दिन समुद्र की साधना कर आप निराहारी रह उससे राह मांग रहे थे।
जिस
दिन हम इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे।
जिस
दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता का शीश काटा था और हम शोक में रहें।
जिस
दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी और मैं पूरा दिन मरणासन्न रहा।
जिस
दिन आपने रावण-वध किया उस दिन हमें भोजन की सुध कहां थी।
लक्ष्मण
के जीवन का ऐसा त्याग और सत्चरित्र देख कर वहाँ उपस्थित सभी लोग साधु-साधु कह उठे।
भरत ने भरे कंठ से कहा "तुम धन्य हो लक्ष्मण। वास्तव में ऐसा कठिन तप केवल
तुम्ही कर सकते थे और केवल तुम्ही इंद्रजीत का वध करने के योग्य थे। कदाचित इसी
कारण मुझे या शत्रुघ्न को भैया के साथ वन जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ
क्यूंकि ऐसा संयम केवल तुम्हारे लिए ही संभव है।" श्रीराम ने गदगद होकर
लक्ष्मण को अपने गले से लगा लिया और कहा "प्रिय लक्ष्मण। वास्तव में तुम जैसा
भाई मिलना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है। तुम्हारा ये आत्म-नियंत्रण किसी तपस्या से
कम नहीं। तुम्हारे इसी तपस्या के कारण हम रावण को पराजित करने में सफल हो पाए।
वास्तव में तुम्ही इस विश्व के सर्वश्रेष्ठ योद्धा हो। जब तक ये विश्व रहेगा, तुम्हारी सत्चरित्रता सबका मार्गदर्शन
करती रहेगी।"