अगर आपके जीवन में कोई परेशानी है, जैसे: बिगड़ा हुआ दांपत्य जीवन , घर के कलेश, पति या पत्नी का किसी और से सम्बन्ध, निसंतान माता पिता, दुश्मन, आदि, तो अभी सम्पर्क करे. +91-8602947815

Asta budha ke upay अस्त बुध् के उपाय | कमजोर बुध को मजबूत बनाने के


Asta budha ke upay
अस्त बुध् के उपाय | 
कमजोर बुध को मजबूत बनाने के उपाय


बीज मंत्र
ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।।
जप संख्या – 9000
समय: शुक्ल पक्ष में बुध की होरा में
ग्रह पूजा मंत्र: ऊँ ऐं स्त्रीं श्रीं बुधाय नमः।।
यह मंत्र बोलते हुए बुध प्रतिमा अथवा बुध यंत्र का पूजन करें

सामान्य अवधारणा है कि कुंडली में ग्रहों का अस्त या नीच होना जातक के लिए अच्छा नहीं होता है लेकिन ऐसा देखा गया है कि बहुत से जातकों में नीच ग्रह या अस्त ग्रह की स्थिति से उनके जीवन बड़े काम हुए हैं . ज्योतिष में मान्यता के अनुसार  बुध सूर्य के दोनों ओर 14 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माना जाता है. किन्तु यदि बुध अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माना जाता है . मीन राशि में स्थित होने पर बुध को नीच का बुध कहा जाता है अर्थात मीन राशि में स्थित होने पर बुध अन्य सभी राशियों की तुलना में सबसे बलहीन हो जाता है. ऐसा कुछ मूर्ख ज्योतिषियों का विश्वास है कि कुंडली में नीच का बुध सदा अशुभ फलदायी होता है जो सत्य नहीं है. वास्तव में कुंडली में बुध का नीच होना केवल उसके बल को दर्शाता है तथा उसके शुभ या अशुभ स्वभाव को नहीं. किसी कुंडली में नीच का बुध शुभ अथवा अशुभ दोनों प्रकार के फल ही प्रदान कर सकता है और कई बार यह कुछ अद्भुत प्रभाव देकर जातक को विलक्षण बना देता है.  अस्त ग्रह के कई कुपरिणाम देखने को मिलते हैं इसलिए इसका ज्योतिषीय समाधान करवाना चाहिए या सक्षम हो तो खुद करना चाहिए .

पौराणिक मन्त्र

ॐ प्रियङ्गुलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्।।
वैदिक मन्त्र


ऊँ उदबुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स सृजेथामयं च

अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत।।
बीज मंत्र


ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।।

जप संख्या – 9000

समय: शुक्ल पक्ष में बुध की होरा में

ग्रह पूजा मंत्र: ऊँ ऐं स्त्रीं श्रीं बुधाय नमः।।

यह मंत्र बोलते हुए बुध प्रतिमा अथवा बुध यंत्र का पूजन करें।
दान:


बुध ग्रह हरे रंग का कारक होता है अगर शरीर में हरा रंग अशुभ है या ज्यादा बलवान है तो इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं ऐसे में हरे रंग को शरीर में संतुलित करने के लिए हरी चीजें का दान करना चाहिए।  हरा वस्त्र, हरी सब्जी, मूंग की दाल, हरे फल, गन्ना, हरी इलायची, कांसे के बर्तन, बुध रत्न पन्ना, हरा कपडा, हरी सब्जियां, हरे रंग का कददू, दुधारू बकरी यह सब किसी पढ़ने वाले गरीब विद्यार्थी को देना चाहिए । हरे रंग की चूड़ी और वस्त्र का दान किन्नरो को देना भी इस ग्रह दशा में श्रेष्ठ होता है। बुध ग्रह से सम्बन्धित वस्तुओं का दान भी ग्रह की पीड़ा में कमी ला सकती है. इन वस्तुओं के दान के लिए ज्योतिषशास्त्र में बुधवार के दिन दोपहर का समय उपयुक्त माना गया है।
व्रत:


बुध की दशा में सुधार हेतु बुधवार के दिन व्रत रखना चाहिए।

* घर में हरे रंग के परदे लगवाने चाहिए।

* गाय को हरी घास और हरी पत्तियां खिलानी चाहिए।

* ब्राह्मणों को दूध में पकाकर खीर भोजन करना चाहिए।

* बुध की दशा में सुधार के लिए विष्णु सहस्रनाम का जाप भी कल्याणकारी कहा गया है।

* बुधवार के दिन सुरु कर के 108 दिन लगातार हरी घास पर नंगे पांव चलने से बुध से होने वाली बीमारियां व् चर्म रोग दूर हो जाते हैं।

* रविवार को छोड़कर अन्य दिन नियमित तुलसी में जल देने से बुध की दशा में सुधार होता है।

* अनाथों एवं गरीब छात्रों की सहायता करने से बुध ग्रह से पीड़ित व्यक्तियों को लाभ मिलता है।

मौसी, बहन, चाची बेटी के प्रति अच्छा व्यवहार बुध ग्रह की दशा से पीड़ित व्यक्ति के लिए कल्याणकारी होता है।

* अपने घर में तुलसी का पौधा अवश्य लगाना चाहिए तथा निरन्तर उसकी देखभाल करनी चाहिए। बुधवार के दिन तुलसी पत्र का सेवन करना चाहिए।

* हरी सब्जियाँ एवं हरा चारा गाय को खिलाना चाहिए।

* बुधवार के दिन गणेशजी के मंदिर में मूँग के लड्डुओं का भोग लगाएँ तथा बच्चों को बाँटें।
बुध के नीच अथवा अशुभ स्थिति में होने पर
* ज्यादा से ज्यादा बुध का दान करना चाहिए।


* सात दाने हरे रंग की सबूत मूंग, हरा पत्थर, कांसे का गोल टुकड़ा ये सभी चीजें हरे रंग के वस्त्र में लपेटकर बुधवार को बहते पानी में बहाने से बुध का प्रकोप कम होता है। यह सात बुधवार करना चाहिए।

* दुर्गा सप्तसी का पाठ, विष्णु उपासना, तथा भगवान विघ्नहर्ता गणपति देव का पूजन-दर्शन करने से बुध का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है।


मृत्यु कब, कहाँ और कैसे होगी ? मृत्यु काल गणना Death time calculation in Astrology

मृत्यु कब, कहाँ और कैसे होगी ? मृत्यु काल गणना Death time calculation in Astrology

ज्योतिष अनुसार किसी कुंडली में आयु निर्णय कैसे करे ?
किसी भी मानवीय जीवन की छह घटनाओं के बारे में कहा जाता है कि इनके बारे में केवल ईश्‍वर ही जानता है, कोई साधारण मनुष्‍य इसकी पूर्ण गणना नहीं कर सकता। इन छह घटनाओं में से पहली दो घटनाएं न केवल किसी भी आत्‍मा के पृथ्‍वी पर प्रवास का समय निर्धारित करती है, बल्कि ज्‍योतिषी के समक्ष हमेशा प्रथम चुनौती के रूप में खड़ी रहती है।
ज्योतिष में जीवन अवधि का विचार सामान्यतः अष्टम भाव से किया जाता है। इसके साथ ही अष्टमेश, कारक शनि, लग्न-लग्नेश, राशि-राशीश, चंद्रमा, कर्मभाव व कर्मेश, व्यय भाव व व्ययेश तथा इसके अलावा प्रत्येक लग्न के लिए मारक अर्थात् शत्रु ग्रह, द्वितीय, सप्तम, तृतीय एवं अष्टम भाव तथा इनके स्वामियों तथा शुभ एवं अशुभ पाप ग्रहों द्वारा डाले जाने वाले प्रभाव पर भी विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
लग्नेश के नवांश से मृत्यु का ज्ञान प्राप्त होता है तथा जन्म कुंडली में लग्न चक्र और नवांश चक्र को देखकर यह बताया जा सकता है की मृत्यु कब, कहाँ, कैसे होगी 

लग्नेश का नवांश मेष हो तो पित्तदोष, पीलिया, ज्वर, जठराग्नि आदि से संबंधित बीमारी से मृत्यु होती है।
लग्नेश का नवांश वृष हो तो एपेंडिसाइटिस, शूल या दमा आदि से मृत्यु होती है।

लग्नेश मिथुन नवांश में हो तो मेनिन्जाइटिस, सिर शूल, दमा आदि से मृत्यु होती है।

लग्नेश कर्क नवांश में हो तो वात रोग से मृत्यु हो सकती है।
लग्नेश सिंह नवांश में हो तो व्रण, हथियार या अम्ल से अथवा अफीम, मय आदि के सेवन से मृत्यु होती है।
कन्या नवांश में लग्नेश के होने से बवासीर, मस्से आदि रोग से मृत्यु होती है।
तुला नवांश में लग्नेश के होने से घुटने तथा जोड़ो के दर्द के इलाज के दैरान अथवा किसी चतुष्पद जानवर के आक्रमण के कारण मृत्यु होती है।
लग्नेश वृश्चिक नवांश में हो तो संग्रहणी, यक्ष्मा आदि से मृत्यु होती है।
लग्नेश धनु नवांश में हो तो विष ज्वर, गठिया आदि के कारण मृत्यु हो सकती 
लग्नेश मकर नवांश में हो तो अजीर्ण, अथवा, पेट की किसी अन्य व्याधि से मृत्यु हो सकती है।
लग्नेश कुंभ नवांश में हो तो श्वास संबंधी रोग, क्षय, भीषण ताप, लू आदि से मृत्यु हो सकती है।
लग्नेश मीन नवांश में हो धातु रोग, बवासीर, भगंदर, प्रमेह, गर्भाशय के कैंसर आदि से मृत्यु होती है।

हत्या एवं आत्महत्या के योग प्रश्न:-
जन्म के समय के आकाशीय ग्रह योग मानव के जन्म-मृत्यु का निर्धारण करते हैं। शरीर के संवेदनशील तंत्र के ऊपर चंद्र का अधिकार होता है। चंद्र अगर शनि, मंगल, राहु-केतु, नेप्च्यून आदि ग्रहों के प्रभाव में हो तो मन व्यग्रता का अनुभव करता है। दूषित ग्रहों के प्रभाव से मन में कृतघ्नता के भाव अंकुरित होते हैं, पाप की प्रवत्ति पैदा होती है और मनुष्य अपराध, आत्महत्या, हिंसक कर्म आदि की ओर उन्मुख हो जाता है।

चंद्र की कलाओं में अस्थिरता के कारण आत्महत्या की घटनाएं अक्सर एकादशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के आस-पास होती हैं। मनुष्य के शरीर में शारीरिक और मानसिक बल कार्य करते हैं। मनोबल की कमी के कारण मनुष्य का विवेक काम करना बंद कर देता है और अवसाद में हार कर वह आत्महत्या जैसा पाप कर बैठता है।
आत्महत्या करने वालों में 60 प्रतिशत से अधिक लोग अवसाद या किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होते हैं
आत्महत्या के कारण मृत्यु योग जन्म कुंडली में निम्न स्थितियां हों तो जातक आत्महत्या की तरफ उन्मुख होता है।
1. लग्न व सप्तम स्थान में नीच ग्रह हो। अष्टमेश पाप ग्रह शनि राहु से पीड़ित हो। अष्टम स्थान के दोनों तरफ अर्थात् सप्तम व नवम् भाव में पापग्रह हों।

चंद्र पाप ग्रह से पीड़ित हो, उच्च या नीच राशिस्थ हो अथवा मंगल व केतु की युति में हो। सप्तमेश और सूर्य नीच भाव का हो तथा राहु शनि से दृष्टि संबंध रखता हो।
लग्नेश व अष्टमेश का संबंध व्ययेश से हो। मंगल व षष्ठेश की युति हो, तृतीयेश, शनि और मंगल अष्टम में हों
अष्टमेश यदि जल तत्वीय हो तो जातक पानी में डूबकर और यदि अग्नि तत्वीय हो तो जल कर आत्महत्या करता है।
कर्क राशि का मंगल अष्टम भाव में हो तो जातक पानी में डूबकर आत्महत्या करता है।

हत्या या आत्महत्या के कारण होने वाली मृत्यु के अन्य योग:
यदि मकर या कुंभ राशिस्थ चंद्र दो पापग्रहों के मध्य हो तो जातक की मृत्यु फांसी, आत्महत्या या अग्नि से होती है। चतुर्थ भाव में सूर्य एवं मंगल तथा दशम भाव में शनि हो तो जातक की मृत्यु फांसी से होती है। यदि अष्टम भाव में एक या अधिक अशुभ ग्रह हों तो जातक की मृत्यु हत्या, आत्महत्या, बीमारी या दुर्घटना के कारण होती है।

यदि अष्टम भाव में बुध और शनि स्थित हों तो जातक की मृत्यु फांसी से होती है। यदि मंगल और सूर्य राशि परिवर्तन योग में हों और अष्टमेश से केंद्र में स्थित हों तो जातक को सरकार द्वारा मृत्यु दण्ड अर्थात् फांसी मिलती है। शनि लग्न में हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तथा सूर्य, राहु और क्षीण चंद्र युत हों तो जातक की गोली या छुरे से हत्या होती है।

यदि नवांश लग्न से सप्तमेश, राहु या केतु से युत हो तथा भाव 6, 8 या 12 में स्थित हो तो जातक की मृत्यु फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेने से होती है।

यदि चंद्र से पंचम या नवम राशि पर किसी अशुभ ग्रह की दृष्टि या उससे युति हो और अष्टम भाव अर्थात 22वें द्रेष्काण में सर्प, निगड़, पाश या आयुध द्रेष्काण का उदय हो रहा हो तो जातक फांसी लगाकर आत्महत्या करने से मृत्यु को प्राप्त होता है। चैथे और दसवें या त्रिकोण भाव में अशुभ ग्रह स्थित हो या अष्टमेश लग्न में मंगल से युत हो तो जातक फांसी लगाकर आत्महत्या करता है।


दुर्घटना के कारण मृत्यु योग:-
1. जिस जातक के जन्म लग्न से चतुर्थ और दषम भाव में से किसी एक में सूर्य और दूसरे में मंगल हो उसकी मृत्यु पत्थर से चोट लगने के कारण होती है।

यदि शनि, चंद्र और मंगल क्रमशः चतुर्थ, सप्तम और दशम भाव में हो तो जातक की मृत्यु कुएं में गिरने से होती है।
सूर्य और चंद्र दोनों कन्या राशि में हों और पाप ग्रह से दृष्ट हों तो जातक की उसके घर में बंधुओं के सामने मृत्यु होती है।

यदि कोई द्विस्वभाव राशि लग्न में हो और उस में सूर्य तथा चंद्र हों तो जातक की मृत्यु जल में डूबने से होती है।

यदि चंद्र मेष या वृश्चिक राशि में दो पाप ग्रहों के मध्य स्थित हो तो जातक की मृत्यु शस्त्र या अग्नि दुर्घटना से होती है।

जिस जातक के जन्म लग्न से पंचम और नवम भावों में पाप ग्रह हों और उन दोनों पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं हो, उसकी मृत्यु बंधन से होती है।
जिस जातक के जन्मकाल में किसी पाप ग्रह से युत चंद्र कन्या राशि में स्थित हो, उसकी मृत्यु उसके घर की किसी स्त्री के कारण होती है।
जिस जातक के जन्म लग्न से चतुर्थ भाव में सूर्य या मंगल और दशम में शनि हो, उसकी मृत्यु चाकू से होती है।
यदि दशम भाव में क्षीण चंद्र, नवम में मंगल, लग्न में शनि और पंचम में सूर्य हो तो जातक की मृत्यु अग्नि, धुआं, बंधन या काष्ठादि के प्रहार के कारण होती है।
जिस जातक के जन्म लग्न से चतुर्थ भाव में मंगल, सप्तम में सूर्य और दशम में शनि स्थित हो तो उसकी मृत्यु शस्त्र या अग्नि दुर्घटना से होती है।
जिस जातक के जन्म लग्न से दशम भाव में सूर्य और चतुर्थ में मंगल स्थित हो उसकी मृत्यु सवारी से गिरने से या वाहन दुर्घटना में होती है।
यदि लग्न से सप्तम भाव में मंगल और लग्न में शनि, सूर्य एवं चंद्र हों उसकी मृत्यु मशीन आदि से होती है।
यदि मंगल, शनि और चंद्र क्रम से तुला, मेष और मकर या कुंभ में स्थित हों तो जातक की मृत्यु विष्ठा में गिरने से होती है।
मंगल और सूर्य सप्तम भाव में, शनि अष्टम में और क्षीण चंद्र में स्थित हो उसकी मृत्यु पक्षी के कारण होती है।
यदि लग्न में सूर्य, पंचम में मंगल, अष्टम में शनि और नवम में क्षीण चंद्र हो तो जातक की मृत्यु पर्वत के शिखर या दीवार से गिरने अथवा वज्रपात से होती है।
सूर्य, शनि, चंद्र और मंगल लग्न से अष्टमस्थ या त्रिकोणस्थ हों तो वज्र या शूल के कारण अथवा दीवार से टकराकर या मोटर दुर्घटना से जातक की मृत्यु होती है।
चंद्र लग्न में, गुरु द्वादश भाव में हो, कोई पाप ग्रह चतुर्थ में और सूर्य अष्टम में निर्बल हो तो जातक की मृत्यु किसी दुर्घटना से होती है।

विभिन्न दुर्घटना योग:-
1. लग्नेश और अष्टमेश दोनों अष्टम में हो। अष्टमेश पर लाभेश की दृष्टि हो (क्योंकि लाभेश षष्ठ से षष्ठम भाव का स्वामी होता है)
द्वितीयेश, चतुर्थेश और षष्ठेश का परस्पर संबंध हो। मंगल, शनि और राहु भाव 2, 4 अथवा 6 में हों। तृतीयेश क्रूर हो तो परिवार के किसी सदस्य से तथा चतुर्थेश क्रूर हो तो जनता से आघात होता है। अष्टमेश पर मंगल का प्रभाव हो, तो जातक गोली का शिकार होता है। अगर शनि की दृष्टि अष्टमेश पर हो और लग्नेश भी वहीं हो तो गाड़ी, जीप, मोटर या ट्राली से दुर्घटना हो सकती है।
यदि दशम भाव का स्वामी नवांशपति शनि से युत होकर भाव 6, 8 या 12 में स्थित हो तो जातक की मृत्यु विष भक्षण से होती है।
यदि चंद्र या गुरु जल राशि (कर्क, वृश्चिक या मीन) में अष्टम भाव में स्थित हो और साथ में राहु हो तथा उसे पाप ग्रह देखता हो तो सर्पदंश से मृत्यु होती है।
यदि लग्न में शनि, सप्तम में राहु और क्षीण चंद्र तथा कन्या में शुक्र हो तो जातक की शस्त्राघात से मृत्यु होती है।
यदि अष्टम भाव तथा अष्टमेश से सूर्य, मंगल और केतु की युति हो अथवा दोनों पर उक्त तीनों ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक की मृत्यु अग्नि दुर्घटना से होती है।
यदि शनि और चंद्र भाव 4, 6, 8 या 12 में हांे तथा अष्टमेश अष्टम भाव में दो पाप ग्रहों से घिरा हो तो जातक की मृत्यु नदी या समुद्र में डूबने से होती है।
लग्नेश, अष्टमेश और सप्तमेश यदि एक साथ बैठे हों तो जातक की मृत्यु स्त्री के साथ होती है।
यदि कर्क या सिंह राशिस्थ चंद सप्तम या अष्टम भाव में हो और राहु से युत हो तो मृत्यु पशु के आक्रमण के कारण होती है।
दशम भाव में सूर्य और चतुर्थ में मंगल स्थित हो तो वाहन के टकराने से मृत्यु होती है। अष्टमेश एवं द्वादशेश में भाव परिवर्तन हो तथा इन पर मंगल की दृष्टि हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है। षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश भाव में चंद्र, शनि एवं राहु हों तो जातक की मृत्यु अस्वाभाविक तरीके से होती है।

लग्नेश एवं अष्टमेश बलहीन हों तथा मंगल षष्ठेश के साथ हो तो जातक की मृत्यु कष्टदायक होती है।
चंद्र, मंगल एवं शनि अष्टमस्थ हों तो मृत्यु शस्त्र से होती है। षष्ठ भाव में लग्नेश एवं अष्टमेश हों तथा षष्ठेश मंगल से दृष्ट हो तो जातक की मृत्यु शत्रु द्वारा या शस्त्राघात से होती है।

लग्नेश और अष्टमेश अष्टम भाव में हों तथा पाप ग्रहों से युत दृष्ट हों तो जातक की मृत्यु प्रायः दुर्घटना के कारण होती है।

चतुर्थेश, षष्ठेश एवं अष्टमेश में संबंध हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है। अष्टमस्थ केतु 25 वें वर्ष में भयंकर कष्ट अर्थात् मृत्युतुल्य कष्ट देता है।

यदि अष्टम भाव में चंद्र, मंगल, और शनि हों तो जातक की मृत्यु हथियार से होती है।
यदि द्वादश भाव में मंगल और अष्टम भाव में शनि हो तो भी जातक की मृत्यु हथियार द्वारा होती है।

यदि षष्ठ भाव में मंगल हो तो भी जातक की मृत्यु हथियार से होती है। यदि राहु चतुर्थेश के साथ षष्ठ भाव में हो तो मृत्यु डकैती या चोरी के समय उग्र आवेग के कारण होती है।
यदि चंद्र मेष या वृश्चिक राशि में पापकर्तरी योग में हो तो जातक जलने से या हथियार के प्रहार से मृत्यु को प्राप्त होता है।
यदि अष्टम भाव में चंद्र, दशम में मंगल, चतुर्थ में शनि और लग्न में सूर्य हो तो मृत्यु कुंद वस्तु से होती है।

यदि सप्तम भाव में मंगल और लग्न में चंद्र तथा शनि हों तो मृत्यु संताप के । विचार गोष्ठी कारण होती है।

यदि लग्नेश और अष्टमेश कमजोर हों और मंगल षष्ठेश से युत हो तो मृत्यु युद्ध में होती है।

यदि नवांश लग्न से सप्तमेश, शनि से युत हो या भाव 6, 8 या 12 में हो तो मृत्यु जहर खाने से होती है।

यदि चंद्र और शनि अष्टम भाव में हो और मंगल चतुर्थ में हो या सूर्य सप्तम में अथवा चंद और बुध षष्ठ भाव में हो तो जातक की मृत्यु जहर खाने से होती है।
यदि शुक्र मेष राशि में, सूर्य लग्न में और चंद्र सप्तम भाव में अशुभ ग्रह से युत हो तो स्त्री के कारण मृत्यु होती है।
यदि लग्न स्थित मीन राशि में सूर्य, चंद्र और अशुभ ग्रह हों तथा, अष्टम भाव में भी अशुभ ग्रह हों तो दुष्ट स्त्री के कारण मृत्यु होती है।

बीमारी के कारण मृत्यु योग:-

1. जिस जातक के जन्मकाल में शनि कर्क में एवं चंद्र मकर में बैठा हो अर्थात् देानों ही ग्रहों में राशि परिवर्तन हो, उसकी मृत्यु जलोदर रोग से या जल में डूबने से होती है।
यदि कन्या राशि में चंद्र दो पाप ग्रहों के मध्य स्थित हो तो जातक की मृत्यु रक्त विकार या क्षय रोग से होती है!

यदि शनि द्वितीय भाव में और मंगल दशम में हों तो मृत्यु शरीर में कीड़े पड़ने से होती है।

जिस जातक के जन्मकाल में क्षीण चंद्र बलवान मंगल से दृष्ट हो और शनि लग्न से अष्टम भाव में स्थित हो तो उसकी मृत्यु गुप्त रोग या शरीर में कीड़े पड़ने से या शस्त्र से या अग्नि से होती है।

अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो मृत्यु अत्यंत कष्टकारी होती है। इसी भाव में शुभ ग्रह स्थित हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो गुप्त रोग या नेत्ररोग की पीड़ा से मृत्यु होती है। क्षीण चंद्र अष्टमस्थ हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो इस स्थिति में भी उक्त रोगों से मृत्यु होती है।
यदि अष्टम भाव में शनि एवं राहु हो तो मृत्यु पुराने रोग के कारण होती है। यदि अष्टम भाव में चंद्र हो और साथ में मंगल, शनि या राहु हो तो जातक की मृत्यु मिरगी से होती है।
यदि अष्टम भाव में मंगल हो और उस पर बली शनि की दृष्टि हो तो मृत्यु सर्जरी या गुप्त रोग अथवा आंख की बीमारी के कारण होती है।
यदि बुध और शुक्र अष्टम भाव में हो तो जातक की मृत्यु नींद में होती है।
यदि मंगल लग्नेश हो (यदि मंगल नवांशेश हो) और लग्न में सूर्य और राहु तथा सिंह राशि में बुध और क्षीण चंद्र स्थित हों तो जातक की मृत्यु पेट के आपरेशन के कारण होती है।
जब लग्नेश या सप्तमेश, द्वितीयेश और चतुर्थेश से युत हो तो अपच के कारण मृत्यु होती है। यदि बुध सिंह राशि में अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो जातक की मृत्यु बुखार से होती है। यदि अष्टमस्थ शुक्र अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो मृत्यु गठिया या मधुमेह के कारण होती है।
यदि बृहस्पति अष्टम भाव में जलीय राशि में हो तो मृत्यु फेफड़े की बीमारी के कारण होती है।
यदि राहु अष्टम भाव में अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो मृत्यु चेचक, घाव, सांप के काटने, गिरने या पित्त दोष से मृत्यु होती है।
यदि मंगल षष्ठ भाव में सूर्य से दृष्ट हो तो मृत्यु हैजे से होती है। यदि मंगल और शनि अष्टम भाव में स्थित हों तो धमनी में खराबी के कारण मृत्यु होती है। नवम भाव में बुध और शुक्र हों तो हृदय रोग से मृत्यु होती है। यदि चंद्र कन्या राशि में अशुभ ग्रहों के घेरे में हो तो मृत्यु रक्त की कमी के कारण होती है।



सामान्यतः आयु में कमी करके मृत्यु का योग ‘मारक’ ग्रह देते हैं। इस तरह से शब्ध “मारक’” या “मारकेश” का अर्थ होता है मारने वाला या मृत्यु देने वाले ग्रह। जो आयु में कमी कर मृत्यु देता है। सामान्यतः मारकेश ग्रह वह होता है जो लग्नेश से शत्रुता रखता है। मंगल व बुध एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। सूर्य व शनि एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। शनि व चंद्र एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। शुक्र व मंगल एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। गुरु व बुध एक दूसरे के लिए मारकेश हैं। राहू व केतू छाया गृह सूर्य, चंद्र, मंगल व बृहस्पति के लिए मारकेश हैं।


 सामान्‍य तौर पर किसी जातक की मृत्‍यु का समय देखने के लिए मारक ग्रहों और बाधकस्‍थानाधिपति की स्थिति की गणना की जाती है। लग्‍न कुण्‍डली में आठवां भाव आयु स्‍थान कहा गया है और आठवें से आठवां यानी तीसरा स्‍थान आयु की अवधि के लिए माना गया है। किसी भी भाव से बारहवां स्‍थान उस भाव का क्षरण करता है। ऐसे में आठवें का बारहवां यानी सातवां तथा तीसरे का बारहवां यानी दूसरा भाव जातक कुण्‍डली में मारक बताए गए हैं। इन भावों में स्थित राशियों के अधिपति की दशा, अंतरदशा, सूक्ष्‍म आदि जातक के जीवन के लिए कठिन साबित होते हैं।

इसी प्रकार बाधकस्‍थानाधिपति की गणना की जाती है। चर लग्‍नों यानी मेष, कर्क, तुला और मकर राशि के लिए ग्‍यारहवें भाव का अधिपति बाधकस्‍थानाधिपति होता है। द्विस्‍वभाव लग्‍नों यानी मिथुन, कन्‍या, धनु और मीन के लिए सातवां घर बाधक होता है। स्थिर लग्‍नों यानी वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए नौंवा स्‍थान बाधक होता है। मारक भाव के अधिपति और बाधक स्‍थान के अधिपति की दशा में जातक को शारीरिक नुकसान होता है। अब मृत्यु का समय ज्ञात करने के लिए इन दोनों स्‍थानों की तीव्रता को देखना होता है। सामान्‍य परिस्थितियों में इन स्‍थानों पर गौर करने पर जातक के शरीर पर आए नुकसान की गणना की जा सकती है।
============================================================


किसी भी जातक की आयु 1-3-8 भावों से देखे—
1- जातक स्वंय
8- आयु/मृत्यु
3- 8 आंठवें से आंठवां
शनी कारक आयु का
चर राशि मेष-कर्क-तुला-मकर है।
चर राशियां चलायमान रहती है।
इनके बाधक भाव 11 है।
इनके मारक भाव 2-7 है।
इनके नेगेटिव भाव 6-8-12 है।
इनके पाज़िटिव भाव 1-5-9-10-3 है।
स्थिर राशि वृष-सिंह-वृश्चिक-कुंभ है।
ये स्थिर/अडिग रहने वाली राशियां होती है। जैसे बैल, शेर, बिच्छू एक जगह पर टिक कर रहते है। सामना करने की हिम्मत रखते है भागते नहीं।
इनके बाधक भाव 9 है।
इनके मारक भाव 2-7 है।
इनके नेगेटिव भाव 6-8-12 है।
इनके पाज़िटिव भाव 1-5-10-11-3 है।
द्विस्वभाव राशि मिथुन-कन्या-धनु-मीन—
इनका दोहरा स्वभाव होता है। कहते कुछ करते कुछ। डरपोक भी होते है।
इनके बाधक भाव 7 है।
इनके मारक भाव 2-7 है।
इनके नेगेटिव भाव 6-8-12 है।
इनके पाज़िटिव भाव 1-5-9-10-11-3 है।
ये तीन सेहत (1) के लिए घातक होते है।
6- बीमारी
8- खतरा
12- नुक्सान
=============================================================
विशेष: —-
1. जन्मांग से अष्टम में जो दोष या रोग वर्णित हैं उनसे, अष्टम भाव से अष्टम अर्थात् तृतीय भाव व तृतीयेश सभी आ जाते हैं।
2. अष्टमेश जिस नवांश में बैठा हो उस नवांश राशि से संबंधित दोष से भी मृत्यु का कारण बनता है। अष्टम भावस्थ राशियों के अधो अंकित दोष के कारण जातक मृत्यु का वरण करता है।
1. मेष : पित्त प्रकोप, ज्वर, उष्णता, लू लगना जठराग्नि संबंधी रोग।
2. वृष: त्रिदोष, फेफड़े में कफ रुकने/सड़ने से उत्पन्न विकार, दुष्टों से लड़ाई या चैपायों की सींग से घायल होकर मृत्यु संभव है।
3. मिथुन: प्रमेह, गुर्दा रोग, दमा, पित्ताशय के रोग, आपसी वैमनस्य/शत्रुओं से जीवन बचाना मुमकिन नहीं।
4. कर्क: जल में डूबने, उन्माद, पागलपन, वात जनित रोगं
5. सिंह: जंगली जानवरो, शत्रुओं के हमले, फोड़ा, ज्वर, सर्पदंश।
6. कन्या: सुजाक रोग, एड्स, गुप्त रोग, मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, स्त्री की हत्या, बिषपान।
7. तुला: उपवास, क्रोध अधिक करने, युद्ध भूमि में, मस्तिष्क ज्वर, सन्निपात।
8. वृश्चिक: प्लीहा, संग्रहणी, लीवर रोग, बवासीर, चर्म रोग, रुधिर विकार, विषपान से या विष के गलत प्रयोग से मृत्यु संभव है।
9. धनु: हृदय रोग, गुदा रोग, जलाघात, ऊंचाई से गिरना, शस्त्राघात से।
10. मकर: ऐपेन्डिसाइटिस, अल्सर, नर्वस सिस्टम के फेल हो जाने के कारण गंभीर स्थिति, विषैला फोड़ा।
11. कुंभ: कफ, ज्वर, घाव के सड़ने, कैंसर, वायु विकार, अग्नि सदृश या उससे संबंधित कारण से मृत्यु।
12. मीन: पानी में डूबने, वृद्धावस्था में अतिसार, पित्त ज्वर, रक्त संबंधित बीमारियों से मृत्यु संभावी है।
वैदिक ज्योतिष में जीवन अवधि के कठिन विषय पर व्यापक चिंतन किया गया है।
बृहत पाराशर होरा शस्त्र में महर्षि पराशर कहते हैं “बालारिष्ट योगारिष्टमल्पध्यंच दिर्घकम। दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायुः प्रकीतितम”॥
अर्थात आयु का सटीक ज्ञान तो देवों के लिए भी दुर्लभ है फिर भी बालारिष्ट, योगारिष्ट, अल्प, मध्य, दीर्घ, दिव्य व अस्मित ये सात प्रकार की आयु होती हैं। इसके अलावा लग्नेश, राशीश, अष्टमेश व चंद्र नीच, शत्रु राशि के हों व 6, 8, 12 भाव आदि में चले जाएं। चंद्र नीच के अलावा अमावस्या युक्त हो तथा इन पर राहु, केतु का प्रभाव हो तो भी मारक योग बन जाता है, जो कि मृत्यु का कारण बनते हैं।
– बालारिष्ट योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 8 वर्ष तक की हो सकती है।
– योगारिष्ट योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 20 वर्ष तक की हो सकती है।
– अल्पायु योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 32 वर्ष तक की हो सकती है।
– मध्यमायु योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु 64 वर्ष तक की हो सकती है।
– दीर्घायु योग में व्यक्ति की आयु अधिकतम 120 वर्ष तक की हो सकती है।
– दिव्य योग में व्यक्ति की आयु अधिकतम 1000 वर्ष तक की हो सकती है।
– अस्मित योग में व्यक्ति की अधिकतम आयु की कोई सीमा नहीं होती है।
प्रिय पाठकों/मित्रों, किणरी यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक हैं की वर्तमान समय में  सामान्‍य डिलीवरी हो तो बच्‍चे के जन्‍म की चार सामान्‍य अवस्‍थाएं हो सकती हैं। पहली कि बच्‍चा गर्भ से बाहर आए, दूसरी बच्‍चा सांस लेना शुरू करे, तीसरी बच्‍चा रोए और चौथी जब नवजात के गर्भनाल को माता से अलग किया जाए। इन चार अवस्‍थाओं में भी सामान्‍य तौर पर पांच से दस मिनट का अंतर आ जाता है। अगर कुछ जटिलताएं हों तो इस समय की अवधि कहीं अधिक बढ़ जाती है।
वहीँ दूसरी ओर सिजेरियन डिलीवरी होने की सूरत में भी माता के गर्भ से बाहर आने और गर्भनाल के काटे जाने, पहली सांस लेने और रोने के समय में अंतर तो रहेगा ही, यहां बस संतान के बाहर आने की विधि में ही फर्क आएगा। जहां ज्‍योतिष में चार मिनट की अवधि से पैदा हुए जुड़वां बच्‍चों के सटीक भविष्‍य कथन का आग्रह रहता है, वहां जन्‍म समय का यह अंतर कुण्‍डली को पूरी तरह बदल भी सकता है। कई बार संधि लग्‍नों की स्थिति में कुण्‍डलियां गलत भी बन जाती है। ऐसे में जन्‍म समय को लेकर हमेशा ही शंका बनी रहती है। मेरे पास आई हर कुण्‍डली का मैं अपने स्‍तर पर बर्थ टाइम रेक्‍टीफिकेशन करने का प्रयास करता हूं। अगर छोटा मोटा अंतर हो तो तुरंत पकड़ में आ जाता है। वरना केवल लग्‍न के आधार पर फौरी विश्‍लेषण ही जातक को मिल पाता है। फलादेश में समय की सर्वांग शुद्धि का आग्रह नहीं किया जा सकता।
हिंदुओं कि मान्यता के अनुसार बालक की आयु का निर्धारण माता के गर्भ में ही हो जाता है। यह बड़े गौरव कि बात है कि ज्योतिष शास्त्र में आयु निर्धारण विषय पर व्यापक चिंतन किया गया है। यह एक कठिन विषय है। ज्योतिष शास्त्र में अविरल शोध, अध्ययन व अनुसंधान कार्य में जी जान से जुड़े हजारों, लाखों ज्योतिषी इस दिव्य विज्ञान के आलोक से जगत को आलौकिक कर पाएं है। महर्षि पराशर के अनुसार ‘बालारिष्ट योगारिष्टमल्पध्यंच दिर्घकम। दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायुः प्रकीतितम’।। हे विप्र आयुर्दाय का वस्तुतः ज्ञान होना तो देवों के लिए भी दुर्लभ है फिर भी बालारिष्ट, योगारिष्ट, अल्प, मध्य, दीर्घ, दिव्य और अस्मित ये सात प्रकार की आयु होती हैं।
अगर जातक अपने प्रारब्‍ध का हिस्‍सा पूरा नहीं कर पाता है और क्रियमाण कर्मों के चलते अपना शरीर शीघ्र छोड़ देता है तो उसे मानव जीवन के इतर योनियों में उस समय को पूरा करते हुए अपने हिस्‍से का प्रारब्‍ध जीना होता है। जब तक हमारे सामनेचिकित्‍सकीय कोण से जीवित शरीर दिखाई देता है, हम यह मानकर चलते हैं कि जातक जीवित है, लेकिन ज्‍योतिषीय कोण यहीं पर समाप्‍त नहीं हो जाता है। ऐसे में ज्‍योतिषीय योग यह तो बताते हैं कि जातक के साथ चोट कब होगी अथवा मृत्‍यु तुल्‍य कष्‍ट कब होगा, लेकिन स्‍पष्‍ट तौर पर मृत्‍यु की तारीख तय करना गणित की दृष्टि से दुष्‍कर कार्य है।
सटीक परिणाम प्रापित के लिए लग्न व चन्द्रकुंडली तथा लग्न व होरा कुंडली में तुलना करनी चाहिए।
यदि अश्टम भाव में चर राषि हो तो जातक की मृत्यु चलते-फिरते होती है। यदि सिथर राषि में हो तों जातक पंलग या अस्पताल में हफतोंमहीनों पड़ा रहने के बाद मरता है। द्विस्वभाव राषि में मृत्यु से दो एक दिन पूर्व या कुछ ही घटें पूर्व पंलग पर लेटता है। यदि अश्टमेष भी चर, सिथर या द्विस्वभाव राषि में हो तो फल षत-प्रतिषत निषिचत हो जाता है। ( अश्टमेष व अश्टम दानों चर राषि में हो तो डाक्टर तक पहुंचन की नौबत तक नही आती। जातक कामबात करते-करते तुंरत मर जाता है।) इसी प्रकार छठे भाव में चर राषि हो तो रोग आते जाते रहते है। (जातक कम बिमार पड़ता है परन्तु षीघ्र ठीक हो जाता है।) सिथर राषि हो तो रोग आने के बाद जाता नही (गुरू की दृशिट न हो तो आजीवन रहता है), द्विस्वभाव राषि में कश्टयाध्य या कठिनार्इ से ठीक होता है।
==========================================================
ये बनते हैं मृत्यु का कारण:–
अन्य ज्योतिषीय योग —
 यदि अष्टम भाव में कोई ग्रह नही है, उस दशा में जिस बली ग्रह द्वारा अष्टम भाव दृष्ट होता है, उस ग्रह के धातु (कफ, पित्त, वायु) के प्रकोप से जातक का मरण होता है। ऐसा प्राचीन ज्योतिष शास्त्र के पुरोधा का मत है।
यथा—- सूर्य का पित्त से, चंद्रमा का वात से, मंगल का पित्त से, बुध का फल-वायु से, गुरु का कफ से, शुक्र का कफ-वात से तथा शनि का वात से।
— अष्टम स्थान की राशि कालपुरुष के जिस अंग में रहना शास्त्रोक्त है, इस अंग में ही उस धातु के प्रकोप से मृत्यु होती है।
—-यदि अष्टम भाव पर कई एक बली ग्रहों की दृष्टि हो तो उन सभी ग्रहों के धातु दोष से जातक का मरण होता है। —- मृत्यु के कारणों का विवेचन करते समय यदि अष्टम भावस्थ ग्रह/ग्रहों की प्रकृति व प्रभाव तथा उसमें स्थित राशि, प्रकृति व राशियों के प्रभाव को संज्ञान में लेना परमावश्यक है।
—- सूर्य: सूर्य से अग्नि, उष्ण ज्वर, पित्त विकार, शस्त्राघात, मस्तिष्क की दुर्बलता, मेरूदंड व हृदय रोग।
—चंद्रमा: जलोदर, हैजा, मुख के रोग, प्यरिसी, यक्ष्मा, पागलपन, जल के जानवर, शराब के दुष्प्रभाव।
— मंगल: अग्नि प्रकोप, विद्युत करेंट, अग्नेय अस्त्र, मंगल आघात पहुंचाता है। रक्त विकार, हड्डी के टूटने, एक्सीडेंट, रक्त, हड्डी में मज्जा की कमी। क्षरण, कुष्ठ रोग, कैंसर रोग।
— बुध: पीलिया, ऐनीमिया, स्नायु रोग, रक्त में हिमोग्लोबिन की कमी, प्लेटलेट्स कम होना, आंख, नाक, गला संबंधी रोग, यकृत की खराबी, स्नायु विकार, मानसिक रोग ।
— गुरु: पाचन क्रिया में गड़बड़ी, कफ जनित रोग, टाइफाईड, मूर्छा, अदालती कार्यवाई, दैवी प्रकोप, वायु रोग मानसिक रोग।
— शुक्र: मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, गुर्दा रोग, रक्त/वीर्य/ रज दोष, गला, फेफड़ा, मादक पदार्थों के सेवन का कुफल प्रोस्ट्रेट ग्लैंड, सूखा रोग।
— शनि: लकवा, सन्निपात, पिशाच पीड़ा, हृदय तनाव, दीर्घ कालीन रोग, कैंसर, पक्षाघात, दुर्घटना, दांत, कान, हड्डी टूटना, वात, दमा।
— राहु: कैंसर, चर्म रोग, मानसिक विकार, आत्म हत्या की प्रवृत्ति, विषाक्त भोजन करने से उत्पन्न रोग, सर्प दंश, कुष्ठ रोग विषैले जंतुओं के काटने, सेप्टिक, हृदय रोग, दीर्घकालिक रोग |
— केतु: अपूर्व कल्पित दुर्घटना, दुर्भरण, हत्या, शस्त्राघात, सेप्टिक, भोजनादि में विषाक्त पदार्थ या कीटाणुओं का प्रवेश, जहरीली शराब पीने का कुफल, रक्त, चर्म, वात रोग चेहरे पर दाग, एग्जिमा।
========================================================
इसी प्रकार ऋषि जैमिनी लिखित शास्त्र “जैमिनी होरा” अनुसार तीन जोड़ों के आधार पर जीवन अवधि का निर्णय लिया जाता है।
1. लग्नेश – अष्टमेश: अगर दोनों चर राशि में हो या एक स्थिर राशि में व दूसरा द्वि-स्वभाव राशि में हो तो अधिकतम 120 वर्ष की तक की दीर्घायु हो सकती है।
2. लग्न – होरा लग्न: अगर एक चर व दूसरा स्थिर में अथवा दोनों द्वि-स्वभाव राशि में हो तो अधिकतम 80 वर्ष की तक की मध्यमायु हो सकती है।
3. शनि – चंद्र: एक चर और दूसरा द्विस्वभाव राशि में हो अथवा दोनों स्थिर राशि में हो तो अधिकतम 40 वर्ष की तक की अल्पायु हो सकती है।
=============================================================
मारक दशा मोक्ष दशा नहीं है
मारक दशा देह मुक्ति करा सकती है परंतु जीव मुक्ति नहीं हो सकती। यह भी संभव है कि प्रदत्त आयु 80 वर्ष में से देह मुक्ति 60 वर्षो में ही हो गई हो और शेष अभुक्त 20 वर्ष वह 2 या 3 जन्मों में पूरा करें। यह भी संभव है कि वह शेष 20 वर्ष प्रेत योनि में ही बिता दे।
देह मुक्ति और जीव मुक्ति मोक्ष नहीं है —
वर्तमान जीवन में देह मुक्ति और जीव मुक्ति होने के बाद स्वर्ग या मोक्ष मिल जाए ऎसी कोई गांरटी नहीं है। एक देह का जन्म कर्मो के एक निश्चित भाग को भोगने के लिए होता है। कर्मो का इतना ही भाग एक देह को मिलता है जितना कि वह भोग सके। संभवत: ईश्वर नहीं चाहते थे कि जीव को लाखों वर्ष की आयु प्रदान की जाए। तर्क के आधार पर माना जा सकता है कि यदि मनुष्य को 500 वर्ष की आयु यदि दे दी जाती तो वह 450 वर्ष तो अपने आप को ईश्वर मानता रहता और शेष 50 वष्ाü अपने पापों को धोकर या गलाकर स्वर्ग प्राçप्त की कामना करता। मनुष्य धन या देह के अहंकार में सबसे पहली चुनौती ईश्वर को ही देता है और धनी होने पर उसके मंदिर जाने या पूजा-पाठ के समय में ही कटौती करता है। उसके इस कृत्य पर ईश्वर तो मुस्कुराता रहता है और अन्य समस्त प्राणी उससे ईष्र्या करते रहते हैं और उसके पतन की कामना करते रहते हैं।
=============================================================
यंहा मृत्यु के सम्बन्ध में आयु निर्णय के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख फलित सूत्र दे रहे है)-
• लग्नेष व अश्टमेष का म्ग्ब्भ्।छळम् हो, दोनों पर पापग्रहों का प्रभाव हो तथा चन्द्र, सूर्य व षनि छठे भाव में हो तो जातक का अतिषीघ्र मरण होता है।
• वृषिचक लग्न में सूर्य लग्नस्थ हो, गुरू विभाजित हो, अश्टमेष केन्द्र में हो और चन्द्र व राहू 7 या 8 भाव में हो तो जातक अल्पायु होता है।
• अश्टमेष मंगल के साथ लग्नस्थ हा अथवा अश्टमेष सिथर राषि के साथ लग्नआठवेंबारहवें भाव में हो तो जातक की मृत्यु युवावस्था में ही हो जाती है।
• अश्टमेष नीच राषि में हो, पापग्रह अश्टमस्थ हो, लग्नेष निर्बल हो तो भी अल्पायु योग बनता है।
• बुध या गुरू लग्नेष हो, लग्न में षनि हो तथा द्वादषेष तथा अश्टमेष निर्बल हो तो जातक अल्पायु होता है। ( बुध या गुरू लग्नेष का अर्थ है लग्न-मिथुन, कन्या, धनु, या मीन का हो तो)।
• अश्टमेष अश्टम भाव तथा लग्नेष तीनों ही पापाक्रांत हों तथा 12 वां भाव भी पापग्रह से युक्त हो तो जातक की मृत्यु जन्म के उपरांत ही हो जाती है।
• अश्टमेष अश्टम भाव मेंस्वग्रही हो, चन्द्रमा पापग्रह से युत और षुभ दृशिट से हीन हो तो जातक की आयु एक महीना ही होती है।
• राहू या केतु के साथ सूर्य सातवें, षुक्र आठवें व पापग्रह लग्न में हो तो जातक की मृत्यु जेल में होती है।
• सिंह राषि का षनि पंचमस्थ हो, मंगल अश्टमस्थ हो और चन्द्रमा नवमस्थ हो तो जातक की मृत्यु बिजली के झटके से या मकान के मलबे के नीचे दबकर अथवा पेड़ से गिरकरऊंचार्इ से गिरकर होती है।
• सूर्य व चन्द्र कन्या राषि में अश्टमस्थ हों तो जातक की मृत्यु विश के कारण होती है।
• सूर्य व मंगल चतुर्थस्थ, षनि दषमस्थ तथा अश्टम भाव पापाक्रांत हो तो जातक की मौत फांसी से होती है।
• राहू दृश्ट चन्द्र व मंगल अश्टमस्थ हों तो बाल्यावस्था में ही जातक को माता सहित मर जाना पड़ता है।
• अश्टमस्थ षनि यदि क्षीण चन्द्र व उच्च के मंगल से दृश्ट हो तो भंगदर, पथरी या कैंसर जैसे रोग तथा आपरेषन के कारण जातक की मृत्यु होती है।
• षनि व चन्द्र छठे या 8वें भाव में पाप मध्य होंपाप दृश्ट हों तथा अश्टमेष स्वग्रही होकर पापमध्य या पाप दृश्ट हो तो जातक की मृत्यु समुह में होती है।
• लग्नेष व अश्टमेष पापग्रह से युत या दृश्ट होकर 6ठें भाव में हो तो जातक की मौत लड़ार्इ-झगड़े में होती है।
• मंगल व षनि छठे भाव में हो और लग्नेष सूर्य व राहू से दृश्ट होकर 8वें भाव में हो तो क्षय रोग से मृत्यु होती है।
• मंगल व चन्द्र 6ठें व 8वें भाव में हो तो जातक षस्त्र, रोग, अगिन, कंरट या गोली से मरता है।
• षनि व चन्द्रमा 6ठें व 8वें भाव में होतो जातक वायुविकार या पत्थर की चोट से मरता है।
• सिंह लग्न में निबल चन्द्र अश्टमस्थ हो तथा षनि की युति हो तो प्रेत-बाधा, षत्रुकृत अभिचार से पीड़ा तथा अकाल मृत्यु का परिणाम जातक भोगता है।
• सिंह लग्न हो, सूर्य व षनि का म्ग्ब्भ्।छळम् हो, षुभग्रहों की दृशिट न हो तो 12 वर्श की आयु में मृत्यु होती है।
• लग्न में सिंह राषि का सूर्य हो, पापग्रहों के मध्य सूर्य हो (12वें व दूसरे भाव में पापग्रह हों) तथा लग्न में षत्रु ग्रह (राहू, षनि, षुक्र) की युति हो तो जातक अस्त्र-षस्त्र या विस्फोटक सामग्री से प्राय: 47 वर्श में मरता है।
• लग्नेष सूर्य तथा लग्न पापग्रहों के बीच हों 7वें भाव में कुम्भ राषि का षनि हो और चन्द्र निर्बल हो तो जातक आत्महत्या करता है।
• भाग्य स्थान में मेश का गुरू तथा अश्टम भाव में मीन का मंगल हो यानी म्ग्ब्भ्।छळम् हो तो भी जातक की मृत्यु 12 वर्श की अवस्था में ही होती है।
• द्वितिय व द्वादष भाव पापग्रहो से युत हो, सूर्य लग्नेष होकर निर्बल हो 1, 2 व 12 भाव षुभ ग्रहों से दृश्ट न हों तो जातक 32वें वर्श में मर जाता है।
• दुसरे भाव में कन्या राषि का राहू हो तथा षुक्र व सूर्य से युति करे, किन्तु षुभ ग्रहों से दृश्ट न हो तो जातक युवा होतर पिता को मारे, व खुद मरे।
• चन्द्रमा 5,7,9,8 तथा लग्न में पापग्रह से युत हो तो ‘बालारिश्ट रोग’ बनाता है। जिसमें जातक की मृत्यु बाल्यकाल में ही हो जाती है। (यदि किसी अन्य योग से उसका निराकरण न हो रहा हो तो)
• लग्नेष केन्द्र में दो पापग्रहों के साथ हो तथा अश्टम भाव खाली न हो तो âदय गति रूकने से मौत हो जाती है।
• कर्क लग्न में निर्बल चन्द्र अश्टमस्थ होकर षनि से युत करे तो प्रेतबाधा या षत्रुओं से पीडि़त होकर जातक अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है।
• लग्नेष व चन्द्र लग्न दोनों पाप प्रभावपाप मध्य में हो, सप्तम में भी पापग्रह हों और सूर्य निर्बल हो तो जातक जीवन से निराष होकर आत्महत्या करता है।
• तुला का सूर्य चौथे, कुम्भ का गुरू आठवें, मिथुन का चन्द्र 12वें हो तथा चन्द्र पर षुभ दृशिट न हो तो जातक जन्म लेते ही मर जाता है।
• द्वितिय द्वादष भाव में पापग्रह हों (लग्न पापमध्य हो), चन्द्रमा लग्नेष होकर निर्बल हो तथा 1, 2, 12 भावों पर षुभ दृशिट न हों तो भी 32 वें वर्श में मृत्यु होती है।
• कर्क लग्न हों तथा दु:स्थानों में चन्द्र, षनि षुक्र की युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• सूर्य पांचवे भाव में वृषिचक राषि का हो तथा दो पाप ग्रहों के मध्य हो और चन्द्र निर्बल हो तो हार्ट अटैक के कारण जातक की मृत्यु होती है।
• चन्द्र, मंगल षनि तीनों दु:स्थानो में एकसाथ हो और लग्न मेश में हो तो वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• वृश लग्न में सूर्य, गुरू, षुक्र की युति एकसाथ दु:स्थानो में हो तो भी वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• कन्या लग्न हों, चन्द्र अश्टमस्थ हो तथा बुध, सूर्य, मंगल आदि किसी भी भाव में इकÎे हो जाएं तो जातक की मृृत्यु ब्लडप्रेषर से होती है।
• कन्या लग्न में बुध, गुरू व मंगल की युति एकसाथ दु:स्थानो में हो तो भी वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• धनु लग्न हो चन्द्र सप्तमस्थ मंगल, राहू के साथ और षुभ ग्रहदृशिट न हो तो जातक जन्मते ही मर जाता है।
• गुरू लग्नेष होकर वृषिचक राषि में हो और मंगल धनु राषि में हो तो जातक की मृत्यु 12 वर्श में होती है।
• वृषिचक राषि में चन्द्र, षुक्र की युति दु:स्थानों में हो और लग्न हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है।
• लग्नेष व चतुर्थेष होकर गुरू मकर राषि में हो तथा निर्बल या अस्त हो तो हार्ट अटैक से मृत्यु होती है। या सूर्य वृषिचक का दो पाप ग्रहों के मध्य 12 वें भाव में हो तो हार्ट अटैक के कारण जातक की मृत्यु होती है।
• मीन लग्न में अश्टमस्थ षनि के साथ निर्बल चन्द्र हो तो प्रेतबाधा सेअकाल मृत्यु होती है।
• लग्नेष गुरू व लग्न दोनों पाप ग्रहों के बीच हो, 7वे भाव मेंं कन्या राषि में भी पापग्रह हो और सूर्य निर्बल हो तो जातक आत्महत्या का विवष होता है।
• 7 वें भाव में कन्या राषि का चन्द्र मंगल व राहु से युति करता हो और षुभ ग्रह की दृशिट न हो तो जातक की मृत्यु एक वर्श में होती है।
• 7वें भाव में कन्या राषि का षनि हो तथा 12वें भाव में मेश राषि का षुक्र व राहु लग्नेष के साथ हो तो भी जातक की मृत्यु एक वर्श में हो जाती है।
• मीन लग्न में बुध, गुरू, षुक्र की युति एकसाथ दु:स्थानो में हो तो भी वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
• तुला लग्न में निर्बल चन्द्र 8वें भाव में षनि के साथ हो तो षत्रु के अभिचार या प्रेतबाधा के कारण जातक की मृत्यु होती है। अथवा षुक्र व लग्न दोनों पापग्रहों के साथ व षनि 7वें हो तो षत्रु के अभिचार या देवषाप से मृत्यु होती है।
• तुला लग्न में गुरू, षुक्र व षनि की दु:स्थानों में युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• मकर लग्न में लग्नेष व लग्न पापग्रहों के मध्य हों, सप्तम भाव में भी पाप ग्रह हो तो जातक जीवन से निराष होकर आत्महत्या करता है।
• मकर लग्नस्थ सूर्य, मंगल, गुरू, राहू व चन्द्र एकसाथ हों तो भी षीघ्र मृत्यु होती है।
• चतुर्थेष मंगल 12वें हो, सप्तम भाव में कर्क का षनि हो, सप्तेष चन्द्र अश्टमस्थ हो तो 14वें वर्श में विमान दुर्घटना में मृत्यु सम्भावित होती है।
• मकर लग्न हा सूर्य, मंगल, व षनि दु:स्थानों में एकसाथ युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• कुंभ लग्न में लग्नेष व लग्न दोनों पापग्रहों के बीच हों, सूर्य निर्बल व सप्तम भाव में भी पापग्रह हो तो जातक आत्महत्या करता है।
• कुंभ लग्न में बुध, षुक्र, षनि की युति दु:स्थानों में एकसाथ हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
• निर्बल चन्द्र षनि के साथ मेश राषि में अश्टमस्थ हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है।
• बुंध व लग्न पापग्रहों के बीच तथा सातवें भाव में मीन राषि में पापग्रह और सूर्य निर्बल हो तो जातक आत्महत्या करता है।
• सूर्य, मंगल, षनि अश्टम भाव में मेश राषि में हो, षुभ ग्रहों से दृश्ट न हों तो जातक की एक वर्श में मृत्यु हो जाती है।
======================================================
उपाय
1. आकस्मिक मृत्यु के बचाव के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।
जप रुद्राक्ष माला से पूर्वी मुख होकर करें।
 2. वाहन चलाते समय मादक वस्तुओं का सेवन न करें तथा अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन न करें अन्यथा पिशाची बाधा हावी होगी वैदिक गायत्री मंत्र कैसेट चालू रखें।
3. गोचर कनिष्ठ ग्रहों की दशा में वाहन तेजी से न चलायें।
4. मंगल का वाहन दुर्घटना यंत्र वाहन में लगायें, उसकी विधिवत पूजा करें।
5. नवग्रह यंत्र का विधिविधान पूर्वक प्रतिष्ठा कर देव स्थान में पूजा करें।
6. सूर्य कलाक्षीण हो तो आदित्य हृदय स्तोत्र, चन्द्र की कला क्षीण हो तो चन्द्रशेखर स्तोत्र, मंगल की कला क्षीण हो तो हनुमान स्तोत्र, शनि कला क्षीण हो तो दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ करें। राहु की कला क्षीण हो तो भैरवाष्टक व गणेश स्तोत्र का पाठ करें। गणित पद्धति से अरिष्ट दिन मृत्यु समय के लग्न, अरिष्ट मास का ज्ञान अरिष्ट मास:
1- लग्न स्फूट और मांदी स्फुट को जोड़कर जो राशि एवं नवांश हो उस राशि के उसी नवांश पर जब गोचर में सूर्य आता है तब जातक की मृत्यु होती है।
2- लग्नेश के साथ जितने ग्रह हां उन ग्रहों की महादशा वर्ष जोड़कर 12 का भाग दें। जो शेष बचे उसी संख्यानुसार सौर मास में अरिष्ट होगा।
अरिष्ट दिन:
1- मांदी स्फुट और चन्द्र स्फुट को जोड़कर 18 से गुणन करें उसमें शनि स्फुट को जोड़कर 9 से गुणन कर जोड़ दें। जब गोचर चन्द्र उस राशि के नवांश में जाता है तो उस दिन अरिष्ट दिन होगा। मृत्यु समय लग्न का ज्ञान: 2- लग्न स्फुट मांदी स्फुट और चन्द्र स्फुट को जोड़ देने से जो राशि आये उसी राशि के उदय होने पर जातक की मृत्यु होती है। अकस्मात मृत्यु से बचाव हेतु उपाय: सर्व प्रथम जातक की कुण्डली का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लें कि किस ग्रह के कारण अकस्मात मृत्यु का योग निर्मित हो रहा है। उस ग्रह का पूर्ण विधि-विधान से जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दानादि करके इस योग से बचा जा सकता है।
बृहत पराशर होरा शास्त्रम् के अनुसार: ‘‘सूर्यादि ग्रहों के अधीन ही इस संसार के प्राणियों का समस्त सुख व दुःख है। इसलिए शांति, लक्ष्मी, शोभा, वृष्टि, आयु, पुष्टि आदि शुभफलों की कामना हेतु सदैव नव ग्रहों का यज्ञादि करना चाहिए।’’ मूर्ति हेतु धातु: ग्रहों की पूजा हेतु सूर्य की प्रतिमा ताँबें से, चन्द्र की स्फटिक से, मंगल की लाल चन्दन से, बुध व गुरु की स्वर्ण से, शुक्र चांदी से, शनि की लोहे से , राहु की सीसे से व केतु की कांसे से प्रतिमा बनानी चाहिए। अथवा पूर्वोक्त ग्रहों के रंग वाले रेशमी वस्त्र पर उनकी प्रतिमा बनानी चाहिए।
 यदि इसमें भी सामथ्र्य न हो तो जिस ग्रह की जो दिशा है उसी दिशा में गन्ध से मण्डल लिखना चहिए।
विधान पूर्वक उस ग्रह की पूजा करनी चाहिए, मंत्र जप करना चाहिए। ग्रहों के रंग के अनुसार पुष्प, वस्त्र इत्यादि लेना चाहिए।
जिस ग्रह का जो अन्न व वस्तु हो उसे दानादि करना चाहिए।
ग्रहों के अनुसार समिधाएं लेकर ही हवनादि करना चाहिए।
ग्रहों के अनुसार ही भक्ष्य पदार्थ सेवन करने व कराने चाहिए।
जिस जातक की कुण्डली में ग्रह अशुभ फल देते हों, खराब हों, निर्बल हों, अनिष्ट स्थान में हों, नीचादिगत हो उस ग्रह की पूजा विधि-विधान से करना चाहिए। इन ग्रहों को ब्रह्माजी ने वरदान दिया है कि इन्हें जो पूजेगा ये उसे पूजित व सम्मानित बनाएंगे।
ग्रह-पीड़ा निवारण प्रयोग (दत्तात्रेय तंत्र के अनुसार): एक मिट्टी के बर्तन में मदार की जड़ (आक की जड़), धतूरा, चिर-चिरा, दूब, बट, पीपल की जड़, शमीर, शीशम, आम, गूलर के पत्ते, गो-घृत, गो दुग्ध, चावल, चना, गेहँ, तिल, शहद और छाछ भर कर शनिवार के दिन सन्ध्याकाल में पीपल वृक्ष की जड़ में गाड़ देने से समस्त ग्रहों की पीड़ा व अरिष्टों का नाश होता है।
 मंत्र: ऊँ नमो भास्कराय अमुकस्य अमुकस्य मम सर्व ग्रहाणां पीड़ानाशनं कुरु कुरु स्वाहा। इस मंत्र का घट गाड़ते समय 21 बार उच्चारण करें व नित्य 11 बार प्रातः शाम जप करें ।
इसके अतिरिक्त महामृत्युंजय का जाप व अनुष्ठान की अकस्मात मृत्यु योग को टालने में सार्थक है। इसके भी विभिन्न मंत्र इस प्रकार हैं एकाक्षरी ‘‘हौं’’ त्राक्षरी ‘‘ऊँ जूँ सः’’ चतुरक्षरी ‘‘ऊँ वं जूं सः’’ नवाक्षरी ‘‘ऊँ जं सः पालय पालय’’ दशाक्षरी ‘‘ऊँ जूं सः मां पालय पालय’’ पंचदशाक्षरी ‘‘ऊँ जं सः मां पालय पालय सः जं ऊँ’’ वैदिक-त्रम्बक मृत्युंजय मंत्र ‘‘त्रम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।’’ मृत्युंजय मंत्र ‘‘ऊँ भूः ऊँ स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे……………..माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः ऊँ भूः ऊँ।’’ मृत संजीवनी मंत्र ‘‘ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुव स्वः ऊँ त्रम्बकं यजामहे……. माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। उपरोक्त उपायों को बुद्धिमत्ता पूर्वक विधि-विधान से किए जायें तो यह उपाय अकस्मात मृत्यु को टालने में सार्थक हो सकते हैं।
———————————————————————————





दरअसल आधुनिक समाज में धर्म एवं धार्मिक भावना कम हो रही है। ऐसे में आत्महत्या जैसी बुराई के निवारण के लिए आवश्यक है कि ईश्वर भक्ति, योगा, चिंतन, मनन जैसे क्रियाकलाप रोज किए जाएं। ऐसा करने से आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होगा और आत्महत्या जैसे बुरे विचार आपके मस्तिष्क को छू भी नहीं पाएंगे।
वर्तमान दौर में किसी भी आयुवर्ग के व्यक्ति को असफलता सहज स्वीकार्य नहीं होती। किंतु यह स्थिति, किशोरावस्था व युवावस्था में बेहद संवेदनशील होती है। जब किसी युवा को लगने लगता है कि वह अपने अभिभावकों के स्वप्न को साकार नहीं कर पाएगा तो वह नकारात्मक सोच में डूब जाता है और इस तरह की परिस्थिति उसे कहीं न कहीं उसे आत्महत्या के लिए विवश करती है।
ज्योतिष की नजर से…
उज्जैन (मध्यप्रदेश) के विद्वान्  ज्योतिषी पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को आत्मा और चंद्रमा को मनु का कारक माना गया है। अष्टम चंद्रमा नीच राशि में अथवा राहु को शनि के साथ विष योग और केतु के साथ ग्रहण योग उत्पन्न करता है। ऐसे समय में मनुष्य की सोचने समझने में शक्ति कम कर देता है। उसकी वजह से वो अपनी निर्णय शक्ति खो देता है। अगर 12वें भाव में ऐसी युति होने पर फांसी या आत्महत्या का योग बनता है। इसी तरह अनन्य भाव में अलग- अलग परिणाम उत्पन करता है।
बचने के ये उपाय भी हैं कारगर—
शास्त्रों में इससे बचने के लिए शिव स्तुति, महामृत्युंजय मंत्र, शिवकवच, देवीकवच और शिवाभिषेक सबसे सहज सरल और प्रभावी उपाय हैं। किसी भी ग्रह के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए शुभ ग्रह की स्तुति और नीच ग्रह का दान श्रेष्ठ रहता है।
जिन्हें आत्महत्या के विचार आते हों, ऐसे व्यक्तियों को मोती एवं स्फटिक धारण करना चाहिए, और नियमित भगवान शिव का जलाभिषेक करना लाभप्रद रहते हैं। इसके अलावा पांच अन्न(गेहूं, ज्वार, चावल, मूंग,जवा और बाजरा) दान करना चाहिए। इसके साथ ही पक्षियों को इन अन्न के दाने भी खिलाना चाहिए।
====================================================
अकालमृत्यु कारण और निवारण :-
कई बार लोग प्रश्न करते है कि हम लोग रोज मंदिर जाते है खूब तीरथ व्रत भी करते है लेकिन शांति नहीं मिलती है उल्टा परेशानिया आ जाती है कई बार देखा गया है तीर्थों में गए लेकिन वापस घर नहीं आये या रस्ते में ही अकालमृत्यु को प्राप्त हो गए |
अकाल मृत्यु वो मरे जो काम करे चंडाल का,काल उसका क्या बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का –
ये इसलिए कहा गया है कि सभी भूत -प्रेत के अधिपति शिव जी है जो भक्त शिव कि पूजा करता है उसे काल कुछ नहीं करेगा ऐसा नहीं है जब जन्म हुआ है तो मृत्यु तो नियश्चित है परन्तु आकाल मृत्यु न हो उसके लिए शुद्ध मन से शिव जी कि पूजा करे।
=================================================
ज्योतिष में अकाल मृत्यु के योग—-
मानव शरीर में आत्मबल, बुद्धिबल, मनोबल, शारीरिक बल कार्य करते हैं।
चन्द्र के क्षीण होने से मनुष्य का मनोबल कमजोर हो जाता है, विवेक काम नहीं करता और अनुचित अपघात पाप कर्म कर बैठता है।
ग्रहों के दूषित प्रभाव से अल्पायु, दुर्घटना, आत्महत्या, आकस्मिक घटनाओं का जन्म होता है।
1. आकस्मिक मृत्यु के बचाव के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। जप रुद्राक्ष माला से पूर्वी मुख होकर करें।
2. वाहन चलाते समय मादक वस्तुओं का सेवन न करें तथा अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन न करें अन्यथा पिशाची बाधा हावी होगी वैदिक गायत्री मंत्र कैसेट चालू रखें।
3. गोचर कनिष्ठ ग्रहों की दशा में वाहन तेजी से न चलायें।
———————————————————————–
अकस्मात मृत्यु से बचाव हेतु उपाय:
सर्व प्रथम जातक की कुण्डली का सूक्ष्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लें कि किस ग्रह के कारण अकस्मात मृत्यु का योग निर्मित हो रहा है।
उस ग्रह का पूर्ण विधि-विधान से जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दानादि करके इस योग से बचा जा सकता है।
बृहत पराशर होरा शास्त्रम् के अनुसार: ‘‘सूर्यादि ग्रहों के अधीन ही इस संसार के प्राणियों का समस्त सुख व दुःख है। इसलिए शांति, लक्ष्मी, शोभा, वृष्टि, आयु, पुष्टि आदि शुभफलों की कामना हेतु सदैव नव ग्रहों का यज्ञादि करना चाहिए।’’
कई बार अनजाने में कई प्रकार कि गलतिया कर बैठते है जिसका परिणाम ठीक नहीं होता है कृपया इन बातों का ध्यान दीजिये —
1. किसी निर्जन एकांत या जंगल आदि में मलमूत्र त्याग करने से पूर्व उस स्थान को भलीभांति देख लेना चाहिए कि वहां कोई ऐसा वृक्ष तो नहीं है जिस पर प्रेत आदि निवास करते हैं अथवा उस स्थान पर कोई मजार या कब्रिस्तान तो नहीं है।
2. किसी नदी तालाब कुआं या जलीय स्थान में थूकना या मल-मूत्र त्याग करना किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि जल ही जीवन है। जल को प्रदूषित करने स जल के देवता वरुण रूष्ट हो सकते हैं।
3. घर के आसपास पीपल का वृक्ष नहीं होना चाहिए क्योंकि पीपल पर प्रेतों का वास होता है।
4. सूर्य की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।
5. गूलर , शीशम, मेहंदी, बबूल , कीकर आदि के वृक्षों पर भी प्रेतों का वास होता है। रात के अंधेरे में इन वृक्षों के नीचे नहीं जाना चाहिए और न ही खुशबुदार पौधों के पास जाना चाहिए।
6. महिलाये माहवारी के दिनों में चौराहे के वीच रस्ते में न जाये उन्हें अपने से दाहिने रखे
7. कहीं भी झरना, तालाब, नदी अथवा तीर्थों में पूर्णतया निर्वस्त्र होकर या नग्न होकर नहीं नहाना चाहिए।
8. हाथ से छूटा हुआ या जमीन पर गिरा हुआ भोजन या खाने की कोई भी वस्तु स्वयं ग्रहण न करें।
9. अग्नि व जल का अपमान न करें। अग्नि को लांघें नहीं व जल को दूषित न करें।
उपाय :-
1 :- जब भी घर से बहार निकले इनके नमो का सुमिरन कर के घर से निकले।
अश्व्त्थामा बलिर्व्यासो हनुमान्श्च विभीषणः कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः l
सप्तैतान्सस्मरे नित्यं मार्कण्डेययथाष्टकं जीवेद् वर्षशतं साग्रमं अप मृत्युविनिष्यति ll
ये सात नाम है जो अजर अमर है और आज भी पृथ्वी पर विराजमान है
2 . अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”
3 . राहु काल के समय यात्रा पर न जाये
4 . दिशाशूल के दिन यात्रा न करे
5 – शराब पीकर या तामसिक भोजन कर के धर्म क्षेत्र में न जाये
——————————————————————
अकाल मृत्यु का भय नाश करतें हैं महामृत्युञ्जय—–
ग्रहों के द्वारा पिड़ीत आम जन मानस को मुक्ती आसानी से मिल सकती है। सोमवार के व्रत में भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। इस व्रत को सावन माह में आरंभ करना शुभ माना जाता है।

Ishtadev | इष्टदेव निर्धारण के विविध आधार | Choose Jata devi devta by Astrology

Ishtadev | इष्टदेव निर्धारण के विविध आधार |Choose Ista devi devta by Astrology

Ishtadev | इष्टदेव निर्धारण के विविध आधार
ईष्टदेव ( Ishtadev) को जानने की विधियों में भी विद्वानों में एक मत नही है। कुछ लोग नवम् भाव और उस भाव से सम्बन्धित राशि तथा राशि के स्वामी के आधार पर ईष्टदेव का निर्धारण करते है।

वही कुछ लोग पंचम भाव और उस भाव से सम्बन्धित राशि तथा राशि के स्वामी के आधार पर ईष्टदेव का निर्धारण करते है।

कुछ विद्वान लग्न लग्नेश तथा लग्न राशि के आधार पर इष्टदेव का निर्धारण करते है।

त्रिकोण भाव में सर्वाधिक बलि ग्रह के अनुसार भी इष्टदेव का चयन किया जाता है।

महर्षि जैमिनी जैसे विद्वान के अनुसार कुंडली में आत्मकारक ग्रह के आधार पर इष्टदेव का निर्धारण करना चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि कुंडली में आत्मकारक ग्रह का निर्धारण कैसे होता है ? महर्षि जेमिनी के अनुसार जन्मकुंडली में स्थित नौ ग्रहों में जो ग्रह सबसे अधिक अंश पर होता है चाहे वह किसी भी राशि में कयों न हो वह आत्मकारक ग्रह होता है।

Ishatdev | इष्टदेव का निर्धारण पंचम भाव के आधार पर

ईष्टदेव ( Ishtadev) या देवी का निर्धारण हमारे जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से होता है। ज्योतिष में जन्म कुंडली के पंचम भाव से पूर्व जन्म के संचित धर्म, कर्म, ज्ञान, बुद्धि, शिक्षा,भक्ति और इष्टदेव का बोध होता है। यही कारण है अधिकांश विद्वान इस भाव के आधार पर इष्टदेव का निर्धारण करते है।नवम् भाव सेउपासना के स्तर का ज्ञान होता है ।

हालांकि यदि आप अपने इष्टदेव निर्धारण नहीं कर पा रहे तो बिना किसी कारण के ईश्वर के जिस स्वरुप की तरफ आपका आकर्षण हो, वही आपके ईष्ट देव हैं ऐसा समझकर पूजा उपासना करना चाहिए।

पंचम भाव में स्थित ग्रह के आधार पर इष्ट देव (Ishatdev) का चयन

सूर्य-            विष्णु तथा राम

चन्द्र-          शिव, पार्वती, कृष्ण

मंगल-         हनुमान, कार्तिकेय, स्कन्द,

बुध-            दुर्गा, गणेश,

वृहस्पति-    ब्रह्मा, विष्णु, वामन

शुक्र-           लक्ष्मी, मां गौरी

शनि-           भैरव, यम, हनुमान, कुर्म,

राहु-             सरस्वती, शेषनाग, भैरव

केतु-            गणेश, मत्स्य

पंचम भाव में स्थित राशि के आधार इष्टदेव (Ishatdev) का निर्धारण

मेष:           सूर्य, विष्णुजी

वृष:            गणेशजी।

मिथुन:       सरस्वती, तारा, लक्ष्मी।

कर्क:           हनुमानजी।

सिह:           शिवजी।

कन्या:        भैरव, हनुमानजी, काली।

तुला:           भैरव, हनुमानजी, काली।

वृश्चिक:      शिवजी।

धनु:            हनुमानजी।

मकर:          सरस्वती, तारा, लक्ष्मी।

कुंभ:            गणेशजी।

मीन:            दुर्गा, सीता या कोई देवी।




आपके इष्ट देवी / देवता कौन हैं?

जैमिनी ज्योतिष के अनुसार आत्म कारक के आधार पर जातक के इष्ट देवता का निर्धारण किया जाता है। हमारी जन्म कुंडली में जो ग्रह सबसे अधिक अंशों पर होता है उसे आत्म कारक माना जाता है। आत्म कारक नवांश वर्ग कुंडली में जिस राशि में स्थित होता है उसे कारकांश लग्न कहा जाता है। इष्ट देव का निर्धारण करने के लिए हमें यह देखना होता है कि कारकांश लग्न से बारहवें भाव में स्थित राशि कौन सी है और उसका स्वामी ग्रह कौन है, उसी से संबंधित देवी देवता ही हमारे इष्ट देवी-देवता होते हैं।

इस पद्धति के अनुसार पर इष्ट देवता का निर्धारण करने के लिए जो भी ग्रह आता है उसके अनुसार देवी देवता की जानकारी पर आधारित कुल देवता की पहचान की जाती है। आइये अब जानते हैं कि कारकांश लग्न से बारहवें भाव से सम्बन्ध बनाने वाला ग्रह निम्नलिखित हो तो हमें किस देवी देवता की पूजा करनी चाहिए:

ग्रह एवं उनसे संबंधित देवी - देवता:

सूर्य ग्रह

आपको भगवान शिव अथवा श्री महाविष्णु जी के अवतार श्री राम जी की पूजा अर्चना करनी चाहिए।

चंद्र ग्रह

आपको माता सरस्वती अथवा भगवान हरि विष्णु के अवतार श्री कृष्ण जी की पूजा करनी चाहिए।

मंगल ग्रह

आपको भगवान कार्तिकेय, श्री मुरुगन स्वामी अथवा भगवान हनुमान की पूजा करनी चाहिए।

बुध ग्रह

आपके लिए भगवान हरि विष्णु जी अथवा श्री थिरुमल जी की पूजा अर्चना करना हितकर रहेगा।

बृहस्पति ग्रह

आपको भगवान दत्तात्रेय को मानना चाहिए। साथ ही आप भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा भी कर सकते हैं।

शुक्र ग्रह

आप माता महालक्ष्मी अथवा माता पार्वती की पूजा अर्चना कर सकते हैं।

शनि ग्रह

आपके लिए भगवान ब्रह्मा जी अथवा श्री अयप्पा स्वामी जी की पूजा करना बेहतर रहेगा।

राहु ग्रह

आपके लिए माता दुर्गा की पूजा सर्वश्रेष्ठ साबित होगी।

केतु ग्रह

आपको भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए।

पंचम भाव पद्धति से भी होते है इष्ट देवता

इस पद्धति के अतिरिक्त एक अन्य अधिक मान्य पद्धति है आपकी जन्म कुंडली के पंचम भाव के आधार पर इष्ट देवता का निर्धारण करना। पंचम भाव हमारे पूर्व जन्म के कर्म और विश्वास का द्योतक होता है। इसलिए अपने विभिन्न पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर उनसे संबंधित देवी देवता की पूजा करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है।

इस पद्धति के अनुसार जन्म कुंडली के पंचम भाव में जो ग्रह स्थित होता है उसे संबंधित देवी / देवता हमारे इष्ट होते हैं। यदि कोई भी ग्रह पंचम भाव में स्थित ना हो तो पंचम भाव के स्वामी अथवा पंचम भाव में स्थित राशि के आधार पर इष्ट देव की पहचान कर सकते हैं। लेकिन आजकल पंचम भाव पद्धति की जगह ज्योतिष विशेषज्ञ जैमिनी ज्योतिष पद्धति का इस्तेमाल करना ज्यादा उचित समझते हैं क्योंकि जैमिनी ज्योतिष पद्धति के परिणाम ज्यादा सटीक आते हैं।

वास्तव में इष्ट देव की शक्तियों हमारे अंतर में विराजमान होती हैं हमें केवल उनको पहचान ना होता है और उसके लिए उनकी पूजा करने से हमारा संबंध उनसे जुड़ जाता है। ऐसा करने से हमें अपने इष्ट की कृपा मिलती है और जीवन में सफलता की ऊंचाइयां प्राप्त होने की संभावना बढ़ जाती है।

Prashna Shashtra Prashna Kundali प्रश्न शास्त्र, प्रश्न कुंडली

Prashna Shashtra  Prashna Kundali

प्रश्न शास्त्र, प्रश्न कुंडली

ज्योतिष में प्रश्न शास्त्र की उपयोगिता

वैदिक ज्योतिष की अनेक शाखाएं हैं जिनके द्वारा फलित का विचार किया जाता है. इसमें से एक शाखा प्रश्न शास्त्र नाम से है जो एक प्रमुख स्थान पाती है. यह हमें किसी व्यक्ति विशेष के अचानक पूछे गए प्रश्न के आधार पर कि जाती है. प्रश्न शास्त्र एक ऎसी विद्या है जो समय के अभाव में भी एक महत्वपूर्ण फलित देने में समर्थ होती है. प्रश्न का उत्तर उस समय पूछे गए प्रश्न की कुण्डली बना कर दिया जाता है.

संस्कृत भाषा में समय को अहोरात्री के रूप में दर्शाया जाता है. अहो का अर्थ होता है दिन तथा रात्री का अर्थ होता है रात. इसी प्रकार अहो से हो तथा रात्रि से रा लेकर निर्माण होता है होरा का यही दो भागों में विभक्त होती है जिसे दिन कि होरा व रात की होरा कहा जाता है. यह दिन और रात को बताती है. यह और कुछ नहीं केवल रात और दिन की प्रक्रिया को अभियक्त करने की पद्धति होती है.

इस विष्य के बारे में ऋषि पराशर जी ने विस्तार पूर्वक अपनी पुस्तक बृहतपराशरहोरा में बताया है. इसी के साथ ही कल्याण वर्मा, वराहमिहिर और कालिदास जी ने भी इस पर काफी कुछ लिखा है. कई पाश्चात्य विद्वानों जैसे क्लाडियस टॉलमी, विलियम लिली, एलन लिओ ने भी इसमें अपना योगदान दिया.

प्रश्न शास्त्र में फलित के लिए व्यक्ति द्वारा पूछे गए प्रश्न से ही फलित किया जाता है. परंतु कुछ ज्योतिषी इसके साथ जन्म कुण्डली और वर्ष कुण्डली को भी जोड़कर देखते हैं जिसके द्वारा वह कर्म की अवधारणा को समझकर व्यक्ति का भविष्य कथन करते हैं.

प्रश्न कुण्डली एक बहुत ही प्रभावी फलित कथन है यदि इसका ध्यान पूर्वक विश्लेषण किया जाए तो यह काफी सटीक भविष्यवाणी करने में सहायक बनती है.
प्रश्न शास्त्र के अनुसार प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति का स्थान एवं उसके द्वारा पूछे गए प्रश्न का समय उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना की जन्म कुण्डली में दिया आपका जन्म समय. व्यक्ति का जन्म उसके कर्मों द्वारा निर्धारित होता है इसलिए उसके जन्म समय का बहुत महत्व होता है. जब जातक अपना भविष्य जानने हेतु किसी ज्योतिषी के पास जाता है तो उस समय जो दैविय शक्ति और समय का संयोजन होता है वह बहुत महत्वपुर्ण होता है इसलिए जन्म कुण्डली और पश्न शास्त्र की अभिव्यक्ति में कुछ न कुछ अंतर अवश्य देखा जा सकता है.

*प्रश्न कुण्डली निर्माण |*

जो व्यक्ति प्रश्न पूछता है वह प्रश्नकर्ता कहा जाता है और सवाल क्वेरी कहा जाता है. जब एक व्यक्ति प्रश्न पूछता है तो उस विशेष पल में ग्रहों की स्थिति की गणना करके प्रश्न कुंडली का निर्माण होता है. हालांकि, प्रश्न शास्त्र में चौदह प्रकार के लक्ष्णों से इसे समझा जाता है जो इस प्रकार से हैं-:सटीक समय, देश अर्थात प्रश्नकर्ता का स्थान), जातक की सांस की प्रकृति, उसकी हालत या स्थिति, स्पर्श, आरूढा़, दिशा, प्रश्नाक्षर, स्थिति(प्रश्नकर्ता की चाल – ढाल), चेष्ठा, भाव (मानसिक रवैया), अवलोकन, उसकी पोशाक और निमित्त (उस समय के शुभ, अशुभ संकेत चिह्न).

*प्रश्न कुण्डली में कारक तत्वों का निर्धारण |*

प्रश्न कुण्डली का लग्न प्रश्नकर्ता का प्रतिनिधित्व करता है. प्रश्न या समस्या को व्यक्ति विशेष का सवाल कहा जाता है. तो जातक के पूछे गए प्रश्न के भाव एवं उसके स्वामी द्वारा उसका निर्धारण किया जाता है.

प्रश्नकर्ता का प्रश्न रिश्ते, वित्तीय निवेश, कैरियर मुद्दों, पारिवारिक मामलों, संघर्ष और मुकदमों, वस्तुओं के खोने या लापता लोगों आदि के बारे में हो सकता है. उदाहरण के लिए यदि पति या पत्नी से संबंधित प्रश्न हो तो सप्तम भाव को देखा जाएगा तथा सप्तमेश उसका कारक होगा.

इसी प्रकार से बिजनेस या काम से संबंधित प्रश्न हो तो दशम भाव एवं दशमेश का अवलोकन किया जाता है. इस प्रकार प्रश्नकर्ता की समस्या में कारक ग्रह प्रभावित होता है. विशेष रूप से उस भाव में स्थित किसी भी अन्य ग्रहों का होना भी हो सकता है जो आगे वर्णनात्मक जानकारी प्रदान कर सकता है, लेकिन समस्या के लिए एक ही कारक लिया जाना चाहिए.

*अधिकांशत:* चंद्रमा अनेक स्थिति के लिए एक सामान्य कारक रहता है. इसके द्वारा प्रशनकर्ता की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. क्योंकि घटना या सवाल से तुरंत स्पष्ट नहीं हो सकता है कि मामले की गहराई से संबंधित मुद्दों को कैसे समझें इसलिए, चंद्रमा की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि यह एक महत्वपूर्ण सामान्य कारक है.

प्रश्न कुंडली में चंद्रमा की स्थिति प्रश्न के विषय में काफी कुछ बताने में सहायक होती है. परंतु हमेशा यह तथ्य कारगर सिद्ध नहीं हो पाता क्योंकि कुण्डली में कई अनेक बातें भी होती हैं जिन्हें जानना आवश्यक होता है तभी हम सही फलित कर पाने में सक्षम हो सकते हैं.

*प्रश्न कुण्डली के प्रत्येक भाव का महत्व |*

*पहला भाव | 1st House*

जातक के व्यक्तित्व और उपस्थिति, स्वास्थ्य, विचार और सामान्य जीवन का पता चलता है.

*दूसरा भाव | 2nd House*

कुटुम्ब पैतृक संपत्ति, धन, गहने, आभूषण और चल संपत्ति, मुंह के भीतरी भागों.

*तीसरा भाव | 3rd House*

छोटे भाई बहन, दोस्तों, पड़ोसियों, संचार, लेखन, घनिष्ठ संबंध, चचेरे भाई, छोटी यात्रा, साहस.

*चौथा भाव | 4th House*

माँ, घर, संपत्ति, भवनों, अचल संपत्ति, खेतों, कुओं, खानों और पृथ्वी के अन्य संसाधनों, वाहनों, परिवार से मिलने वाली खुशी.

*पांचवां भाव | 5th House*

बच्चे, रोमांस, प्रेम संबंधों, खुफिया, उच्च शिक्षा, रचनात्मकता, सट्टा, शेयर और स्टॉक में निवेश., चुनाव, मनोरंजन, इच्छाओं को दर्शाता है.

*छठा भाव | 6th House*

बीमारी, रोग, दुश्मन, नौकर, मातहत, मुकदमेबाजी, अदालती मामलों, ऋण, प्रतियोगिता, पालतू जानवर, किरायेदारों, ऋण, चोर.

*सातवां भाव | 7th House*

जीवन साथी, प्रतिद्वंद्वी, विवाह, प्रेम, सार्वजनिक जीवन, सार्वजनिक छवि के साथ व्यवहार, दुश्मन, चोर, युद्ध.

*आठवां भाव | 8th House*

दीर्घायु, खतरे, बीमार स्वास्थ्य, गुप्त या असंवैधानिक शारीरिक रिश्ते, दुर्घटनाओं, बीमा, विरासत, पति या पत्नी का पैसा, करों, बंधक, पीड़ित, मनोगत विज्ञान से संबंधित मामलों, काला जादू, ध्यान.

*नवाँ भाव | 9th House*

पिता, लंबी यात्रा, धार्मिकता, दिव्य पूजा, दिव्य गुरु, विदेशी देशों की यात्रा, कानून और अदालत, बच्चों की उच्च शिक्षा, मां की बीमारी.

*दसवां भाव | 10th House*

व्यवसाय, सेवा, कैरियर, नौकरी या पेशे के परिवर्तन, पदोन्नति, सामाजिक स्थिति, प्रसिद्धि, किए गए अच्छे या बुरे कर्म, सरकार या शासक, मालिक या नियोक्ता, पिता, पिता की स्थिति के साथ संबंधित होता है.

*ग्यारहवां भाव | 11th House*

बडे़ भाई बहन, दोस्तों, लाभ व सफलता, जीवनसाथी का सुख, माता – पिता की दीर्घायु, पितृ कर्म.

*बारहवां भाव | 12th House*

व्यय, अस्पताल, जेल, तनहाई, गुप्त व्यवहार, दुख, मृत्यु, दान, छिपाना दुश्मन, घाटा, विदेश यात्रा इत्यादि को दर्शाता है.

आपके पास जन्म कुंडली नही है तो भी आप की समस्यायों का समाधान प्रश्न कुण्डली के माध्यम हो जाता है

Tantra Aur Jyotish | तंत्र और ज्योतिष ज्योतिष अनुसार साधना चयन

Tantra Aur Jyotish | तंत्र और ज्योतिष
ज्योतिष अनुसार साधना चयन


तंत्र-मंत्र मे ज्योतिष का बहुत महत्व है क्योंकि आज कल मंत्र जाप करने वाले साधक/साधिका सिर्फ मंत्र जाप मे मेहनत करते है और परिणाम स्वरुप जब उन्हे असफलता प्राप्त हो तो वह निराश हो जाते है
कुंडली मे स्थित ग्रहयोग से ये जानना आसान है के हमें कौनसी साधना में मंत्र में या तंत्र में सफलता प्राप्त होगी

जब तक सही ज्ञान नहीं प्राप्त होगा तब तक जीवन मे भटकना चलता रहेगा, इसलिये तंत्र के इस क्षेत्र मे हमे ग्रह, नक्षत्र और योग को जानना जरुरी है
जैसे मान लिजिये कोई महाकाली साधना कर रहा है और उसको कोई ग्रह साधना मे बाधक हो तो वह साधक सफलता प्राप्त करने हेतु चाहे कितना भी मेहनत कर ले उसको सफलता शीघ्र नही प्राप्त होती है और नाही साधना मे उसको कोई अनुभुती प्राप्त होती है 
इस संसार मे बहोत सारे दिव्य मंत्र है जिनका असर तुरंत परिणामदायक होता है फिर भी लोगो को उन मंत्रो से लाभ नही मिल पाता है

आपको यह ज्ञान होना चाहिए कि हमारे नसीब मे कौनसी सिद्धी है और उसके लिये क्या उपाय करने होगे,कौनसे मंत्र का जाप करने से वो सिद्धी मिलेगी

1)आपके जीवन मे कौनसे भगवान की आराधना करने से आपकी इच्छाये पूर्ण होगी?
2)किस प्रकार के मंत्रो मे आप को जीवन मे सफलता मिलेगा उदाहरण शाबर,अघोर,वैदिक या तान्त्रोत्क मंत्र से?
3)आपके कुंडली मे येसा कौनसा ग्रह है जिसके जाप करने से आपके इह जन्म एवं पूर्व जन्म दोष का नाश होगा?
4)वह कौनसा ग्रह है आपके कुंडली मे जिसके कृपा से आपको प्रत्येक क्षेत्र मे सफलता मिलेगी?
5)आनेवाले एक वर्ष मे कौनसे मुहूर्त मे कौनसा मंत्र जाप करे,जो आपके लिये सिद्धीप्रद हो?
6)कौनसी सिद्धी आपके नसीब मे है?
7)अगर आप लंबे समय से कोई मंत्र जाप कर रहे है तो उसमे क्या उपाय करने से आपको सिद्धी मिलेगी जो अब तक नही मिली?
संपूर्ण ब्रह्माण्ड १२ राशियों और २७ नक्षत्रों में विभाजित है , और हमारी जन्म कुंडली को भी उसी काल पुरुष का ही रूप मान कर १२ भागो में विभक्त किया गया है और इन्ही भागो में जिन्हें स्थान या भाव भी कहा जाता है, में ये नौ ग्रह स्थित हो कर अपना प्रभाव दिखाते हैं. प्रत्येक भाव में जो भी राशि होती है उस राशि का स्वामी भावेश कहलाता है . इन भावों में ग्रहों की स्थिति ही तो जीवन के ऐसे ऐसे खेल दिखाती है की बस पूछो मत ....................

और इन खेलों का पता हमें चलता कहाँ से हैं ..... हाँ भाई उसी लग्न स्थान से जो की जातक या पृथ्वी का प्रतीक है जन्म कुंडली में , और जहाँ से खड़ा होकर जातक देख सकता है भिन्न भिन्न स्थानों पर अवस्थित ग्रहों का प्रभाव . याद रखिये जन्मकुंडली की सत्यता और शुद्धता का निर्धारण गर्भ कुंडली या बीज कुंडली के द्वारा होता हैं अन्यथा सामान्य कुंडलियाँ तो मात्र दिल को बहलाने के ही काम आती हैं जिनके द्वारा ज्योतिष के अधिकांश सिद्धांत अनुमान मात्र ही रह जाते हैं ..... कारण साफ़ है क्योंकि जन्म समय की सत्यता कैसे की जाये , कैसे सही जन्म समय का निर्धारण किया जाये ....... ये अत्यंत ही दुष्कर कार्य है. अब जब जन्म समय ही शुद्ध नहीं होगा तो उस समय पर आधारित जन्मकुंडली से भला सही फल कथन कैसे किया जा सकता है . तब तो आपके द्वारा किया गया फलित मात्र अनुमान ही तो रह जायेगा ना.

यदि सही जन्म कुंडली हो तो फल कथन भी सत्य होगा और सत्य होगा जीवन के प्रत्येक पक्षों का दिग्दर्शन भी .

( चित्र में जनम कुंडली में जो भाव क्रमाक दिए गए हैं ,ये बदलते नहीं हैं ये स्थाई हैं , हाँ ये जरूर हैं की ,ज्योतिष की गणित के हिसाब से इन भाव में आने वाले अंक बदल जाते हैं. (जनम के समय के अनुसार ).अब आप पचम और नवम भाव देख सकते हैं,आप अपनी कुडली में lagna भाव स्थान पर क्या अंक लिखा हैं उन्हें देख ले, आप अपनी लग्न जान गए हैं.प्रिय मित्र यदि १ लिखा हैं तो मेष हैं, २ लिखा हैं तो वृषभ ,कृपया लिस्ट के अनुसार देख ले.)

इस लेख का आशय मात्र जातक की कुंडली के साधना पक्षों का अध्यन करना ही है , जिससे ये जाना जा सकता है की किस ग्रह स्थिति से कैसी साधना और किस पद्धति में सफलता मिलती है , इसकी जानकारी मात्र हो जाये. ये सूत्र सद्गुरुदेव द्वारा प्रदान किये गए हैं . जो की साधक को अपनी कुंडली देख कर सही पद्धति का निर्धारण करना सिखाते हैं( याद रखिये ये निर्धारण स्वयं के द्वारा का है क्यूंकि यदि हम गुरु के चरणों में उपस्थित होकर प्रार्थना करते हैं तो वो बिना किसी कुंडली के भी आपको उस पद्धति से परिचित करा देते हैं).

पिछले किसी लेख में मैंने आपको पंचम और नवम भाव से इष्ट का निर्धारण बताया था , आज हम कई अनछुए और नवीन सूत्रों के द्वारा अपने आध्यात्मिक जीवन का अध्यन करेंगे. तो शुरुआत करते हैं जन्म लग्न द्वारा इष्ट के निर्धारण से ......

1. मेष लग्न – सूर्य,दत्तात्रेय , गणेश
2. वृषभ- कुलदेव ,शनि
3. मिथुन-कुलदेव , कुबेर
4. कर्क- शिव, गणेश
5. सिंह- सूर्य
6. कन्या- कुलदेव
7. तुला- कुलदेवी
8. वृश्चिक- गणेश
9. धनु- सूर्य ,गणेश
10. मकर - कुबेर,हनुमंत,कुलदेव,शनि
11. कुम्भ- शनि, कुलदेवी,हनुमान
12. मीन- दत्तात्रेय,शिव,गणेश

यदि जन्मकुंडली में बलि ग्रह हो........

सूर्य तो व्यक्ति शक्ति उपासना कर अभीष्ट पाता है,
चंद्र हो तो तामसी साधनों में रूचि रखता है,
मंगल हो शिव उपासना
बुध हो तो तंत्र साधना में
गुरु हो तो साकार ब्रह्मोपासना में
शुक्र हो तो मंत्र साधना में
शनि हो तो मन्त्र तंत्र में निष्णात व विख्यात

इसी प्रकार..............

प्रथम भाव या चंद्रमा पर शनि की दृष्टि हो तो जातक सफल साधक होता है.

चंद्रमा नवम भाव में किसी भी ग्रह की दृष्टि से रहित हो तो व्यक्ति श्रेष्ट सन्यासी होता है.

दशम भाव का स्वामी सातवे घर में हो तो तांत्रिक साधना में सफलता मिलती है

नवमेश यदि बलवान होकर गुरु या शुक्र के साथ हो तो सफलता मिलती ही है.

दशमेश दो शुभ ग्रहों के मध्य हो तब भी सफलता प्राप्त होती है .

यदि सभी ग्रह चंद्रमा और ब्रहस्पति के मध्य हो तो तंत्र के बजाय मंत्र साधना ज्यादा अनुकूल रहती है .

केन्द्र या त्रिकोण में सभी ग्रह हो तो प्रयत्न करने पर सफलता मिलती ही है.

गुरु, मंगल और बुध का सम्बन्ध बनता हो तो सफलता मिलती है .

शुक्र व बुध नवम भाव में हो तो ब्रह्म साक्षात्कार होता है.

सूर्य उच्च का होकर लग्न के स्वामी के साथ हो तो व्यक्ति श्रेष्ट साधक होता है .

लग्न के स्वामी पर गुरु की दृष्टि हो तो मन्त्र मर्मज्ञ होता है.

दशम भाव का स्वामी दशम में ही हो तो साकार साधनों में सफलता मिलती है.

दशमेश शनि के साथ हो तो तामसी साधनों में सफलता मिलती है.

राहु अष्टम का हो तो व्यक्ति अद्भुत व गोपनीय तंत्र में प्रयत्नपूर्वक सफलता पा सकता है.

पंचम भाव से सूर्य का सम्बन्ध बन रहा हो तो शक्ति साधना में सफलता मिलती है.

नवम भाव में मंगल का सम्बन्ध तो शिवाराधक होकर सफलता पाता है.

नवम में शनि स्वराशि स्थित हो तो वृद्धावस्था में व्यक्ति प्रसिद्द सन्यासी बनता है.

ज्योतिष / जन्म कुंडली के अनुसार जपिये शाबर मन्त्र—

शाबर मन्त्रों के सम्बन्ध में कुछ लोग यह कहते हैं कि उन्होंने शाबर-मन्त्र ‘जप’ कया, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । वास्तव में ‘मन्त्र-सिद्धि’ न हो, तो जप दो बार या तीन बार करना चाहिए । फिर भी मन्त्र-सिद्धि न हो, तो उसके लिए अन्य कारणों को खोजना चाहिए ।
मन्त्र-सिद्धि न होने के बहुत से कारण हैं । एक कारण ग्रहों की दशा है । ‘ज्योतिष-विद्या’ के अनुसार ग्रहों की दशा ज्ञात करें । शाबर मन्त्र का जप किया जाए, तो साधना में सिद्धि अवश्य मिलती है । जिन लोगों को मन्त्र-साधना में निष्फलता मिली है, उनके लिए तो ज्योतिष विद्या का अवलम्बन उपयोगी है जी, साथ ही जो लोग मन्त्र साधना करने के लिए उत्सुक हैं, वे भी ज्योतिष विद्या का अवलम्बन लेकर यदि साधना प्रारम्भ करें, तो उन्हें विशेष सफलता प्राप्त हो सकती है ।
अस्तु, साधना-काल में जन्म-लग्न-चक्र के अनुसार कौन ग्रह अनुकूल है या कौन ग्रह प्रतिकूल है, यह जानना बहुत महत्त्व-पूर्ण है । साधना को यदि कर्म समझा जाए, तो जन्म-चक्र का दशम स्थान उसकी सफलता या असफलता का सूचक है । प्रायः ज्योतिषी नवम-स्थान को मुख्य मानकर साधना की सिद्धि या असिद्धि या उसका बलाबल नियत करते हैं । साधना में चूँकि कर्म अभिप्रेत है, अतः जन्म-चक्र का दशम स्थान का विचार उचित होगा । वैसे कुछ लोग पञ्चम स्थान को भी महत्त्व देते हैं ।
ज्योतिष के नियमानुसार साधक के जन्म-चक्र के नवम स्थान में जिस ग्रह का प्रभाव होता है, वैसी ही प्रकृति वह धारण करता है । इससे यह ज्ञात होता है कि साधक की प्रकृति सात्त्विक होगी या राजसिक या तामसिक ।
जन्म चक्र में यदि ‘गुरु, बुध, मंगल′ एक साथ होते हैं, तो साधक सगुण उपासना में प्रवृत्त होता है । जन्म चक्र में गुरु के साथ यदि बुध है, तो साधक सात्त्विक देवी-देवताओं की उपासना में प्रवृत्त होता है । ऐसे ही यदि दशमेश नवम स्थान में होता है, तो साधक सात्त्विक – देवोपासक बनता है ।
जन्म चक्र के आधार पर सात्त्विक उपासना के मुख्य-मुख्य योग इस प्रकार हैं –
१॰ दशमेश उच्च हो और साथ में बुध और शुक्र हो ।
२॰ लग्नेश दशम स्थान में हो ।
३॰ दशमेश नवम स्थान में हो और पाप-दृष्टि से रहित हो ।
४॰ दशमेश दशम स्थान या केन्द्र में हो ।
५॰ दशमेश बुध हो तथा गुरु बलवान और चन्द्र तृतीय हो ।
६॰ दशमेश व लग्न की युति हो ।
७॰ दशमेश व लग्नेश का स्वामी एक ही हो ।
८॰ दशमेश यदि शनि है, तो साधक तामसी बुद्धिवाला होता हुआ भी उच्च साधक व तपस्वी बनता है । यदि शनि राहु के साथ हो, तो रुचि तामसिक उपासना में अधिक लगेगी ।
९॰ सूर्य, शुक्र अथवा चन्द्र यदि दशमेश हो, तो जातक दूसरे की सहायता से ही उपासक बनता है ।
१०॰ पञ्चम स्थान परमात्मा से प्रेम का सूचक होता है । पञ्चम और नवम स्थान यदि शुभ लक्षणों से युक्त होते है, तो जातक अति सफल उपासक बनता है ।
११॰ पञ्चम स्थान में पुरुष ग्रहों का यदि प्रभाव रहता है, तो जातक पुरुष देव-देवताओं का उपासक बनता है । यदि स्त्री ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है, तो जातक स्त्री-देवता या देवी की उपासना में रुचि रखता है । पञ्चम स्थान में सूर्य की स्थिति से यह ज्ञात होता है कि जातक शक्ति का कैसा उपासक बन सकता है ।
१२॰ नवम स्थान में या नवम स्थान के ऊपर मंगल की दृष्टि होती है, तो जातक भगवान् शिव की उपासना करता है । कुछ लोग मंगल को गनुमान् जी का स्वरुप मानते हैं । अतः इससे हनुमान् जी की उपासना बताते हैं । ऐसे ही कुछ लिगों का मत है कि गुरु-ग्रह के बल से शिव जी की उपासना में सफलता मिलती है । नवम स्थान में शनि होने से कुछ लोग तामसिक उपासनाओं में रुचि बताते हैं । नवम स्थान में शनि होने पर श्री हनुमान् जी का सफल उपासक बना जा सकता है ।
इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में उपासना सम्बन्धी अनेक योग हैं । शाबर मन्त्र को सिद्ध करने में कौन-कौन-से योग महत्त्व-पूर्ण हैं, इससे सम्बन्धी कुछ योग इस प्रकार हैं –
१॰ नवम स्थान में शनि हो, तो साधक शाबर मन्त्र में अरुचि रखता है अथवा वह शाबर-साधना सतत नहीं करेगा । यदि वह शाबर साधना करेगा, तो अन्त में उसको वैराग्य हो जाएगा ।
२॰ नवम स्थान में बुध होने से जातक को शाबर मन्त्र की सिद्धि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है अथवा शाबर मन्त्र की साधना में प्रतिकूलताएँ आएँगी ।
३॰ पञ्चम स्थान के ऊपर यदि मंगल की दृष्टि हो, तो जातक कुल-देवता, कुल-देवी का उपासक होता है । पञ्चम स्थान के ऊपर गुरु की दृष्टि हो, तो साधक शाबर साधना में विशेष सफलता मिलती है । पञ्चम स्थान पर सूर्य की दृष्टि हो तो साधक सूर्य या विष्णु की उपासना में सफल होता है । यदि राहु की दृष्टि हो, तो वह भैरव उपासक बनता है । इस प्रकार के साधक को यदि पथ-निर्देशन नहीं मिलता, तो वह निम्न स्तर के देवी-देवताओं की उपासना करने लगता है ।
४॰ ज्योतिष विद्या का प्रसिद्ध ग्रन्थ “जैमिनि-सूत्र” है । इसके प्रणेता महर्षि जैमिनि है । इस ग्रन्थ से उपासना सम्बन्धी उत्तम मार्ग-दर्शन मिलता है यथा –
क॰ सबसे अधिक अंशवाले ग्रह को आत्मा-कारक ग्रह कहते हैं । नवमांश में यदि यदि आत्मा-कारक शुक्र हो, तो जातक लक्ष्मी की साधना करता है । ऐसे जातक को लक्ष्मी देवी के मन्त्र की साधना से लाभ-ही-लाभ मिलता है ।
ख॰ नवमांश में यदि आत्मा-कारक मंगल होता है, तो जातक भगवान् कार्तिकेय की उपासना से लाभान्वित होता है ।
ग॰ बुध व शनि से भगवान् विष्णु और गुरु के बलाबल से भगवान् सदा-शिव की उपासना लाभदायक होती है ।
घ॰ राहु से तामसिक देवी-देवताओं की उपासना सिद्ध होती है ।
ङ॰ शनि के उच्च-कोटि के होने पर साधक को उच्च-कोटि की सिद्धि सहज में मिलती है । इसके विपरित यदि शनि निम्न-कोटि का होता है, साधना की सिद्धि में विलम्ब होता है ।
च॰ जन्म-चक्र में यदि द्वादश स्थान में राहु होता है, तो साधक परमात्मा के साक्षात्कार हेतु उत्साहित रहता है । ऐसे बन्धुओं को मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र की सिद्धि द्वारा भौतिक लाभ-प्राप्ति से दूर रहना चाहिए, क्योंकि द्वादश स्थान मोक्ष-प्राप्ति का सूचक है । द्वादश स्थान में राहु के होने से वह साधना की सिद्धि में सहायक और लाभ-प्रद रहता है ।
छ॰ दशम स्थान में यदि सूर्य हो, तो साधक को भगवान् राम की उपासना करनी चाहिए और दशम स्थान में यदि चन्द्र हो, तो कृष्ण की उपासना करनी चाहिए ।
ज॰ सधम स्थान में यदि गुरु हो, तो साधक अन्तः-प्रेरणा या अन्तः-स्फुरण से उपासना करता है और सफल होता है ।

साधना क्षेत्र में सफलता के कुछ विशेष ग्रह योग
प्रत्येक व्यक्ति की यह जानने की इच्छा होती है कि साधना के क्षेत्र में उसे कहाँ तक सफलता मिलेगी जिसके लिये ज्योतिष का सहारा लिया जा सकता है जिसके कुछ उदाहरण निम्न हैं :-
१. यदि जन्म-कुण्डली में बृहस्पति, मंगल एवं बुद्ध साथ हो या परस्पर दृष्टि हो तो वह व्यक्ति साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है |
२. गुरु-बुद्ध दोनों ही नवम भाव में हो तो वह ब्रह्म साक्षात्कार कर सकने में सफल होता है |
३. सूर्य उच्च का होकर लग्नेश के साथ हो तो वह श्रेष्ठ साधक होता है |
४. यदि लग्नेश पर गुरु की दृष्टि हो तो वह स्वयं मंत्र स्वरुप हो जाता है, मंत्र उसके हाथों में खेलते हैं |
५. यदि दशमेश दशम स्थान में हो तो वह व्यक्ति साकार उपासक होता है |
६. दशमेश शनि के साथ हो तो वह व्यक्ति तामसिक उपासक होता है |
७. अष्टम भाव में राहू हो तो जातक अद्भुत मंत्र-साधक तांत्रिक होता है |
८. दशमेश का शुक्र या चन्द्रमा से सम्बन्ध हो तो वह दूसरों की सहायता से उपासना-साधना में सफलता प्राप्त करता है |
९. यदि पंचम स्थान में सूर्य हो, या सूर्य की दृष्टि हो तो वह शक्ति उपासना में पूर्ण सफलता प्राप्त करता है |
१०. यदि पंचम एवं नवम भाव में शुभ बली ग्रह हों तो वह सगुणोपासक होता है |
११. नवम भाव में मंगल हो या मंगल की दृष्टि हो तो वह शिवाराधना में सफलता पा सकता है |
१२. यदि नवम स्थान में शनि हो तो वह साधू बनता है | ऐसा शनि यदि स्वराशी या उच्चराशी का हो तो व्यक्ति वृद्धावस्था में विश्व प्रसिद्द सन्यासी होता है |
१३. जन्म-कुंडली में सूर्य बली हो तो शक्ति उपासना करनी चाहिए |
१४. चन्द्रमा बलि हो तो तामसी उपासना में सफलता मिलती है |
१५. मंगल बली हो तो शिवोपासना से मनोरथ प्राप्त करता है |
१६. बद्ध प्रबल हो तो तंत्र साधना में सफलता प्राप्त करता है |
१७. गुरु श्रेष्ठ हो तो साकार ब्रह्म उपासना से ख्याति मिलती है |
१८. शुक्र बलवान हो तो मंत्र साधना में प्रणता पाता है |
१९. शनि बलवान हो तो तंत्र एवं मंत्र दोनों में ही सफलता प्राप्त करता है |
२०. ये लग्न या चन्द्रमा पे दृष्टि हो तो जातक सफल साधक बन सकता है |
२१. यदि चन्द्रमा नवम भाव में हो और उसपर किसी भी ग्रह की दृष्टि न हो तो वह व्यक्ति निश्चय ही सन्यासी बनकर सफलता प्राप्त करता है |
२२. दशम भाव में तीन ग्रह बलवान हों, वे उच्च के हों, तो निश्चय ही जातक साधना में सफलता प्राप्त करता है |
२३. दशम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो जातक तांत्रिक होता है |
२४. दशम भाव में उच्च राशी के बुद्ध पर गुरु की दृष्टि हो तो जातक जीवन मुक्त हो जाता है |
२५. बलवान नवमेश गुरु या शुक्र के साथ हो तो व्यक्ति निश्चय ही साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है |
२६. यदि दशमेश दो शुभ ग्रहों के बिच में हो तो जातक को साधना में सम्मान मिलता है |
२७. यदि वृषभ का चन्द्र गुरु-शुक्र के साथ केंद्र में हो तो व्यक्ति उपासना क्षेत्र में उन्नत्ति करता है |
२८. दशमेश लग्नेश पर परस्पर स्थान परिवर्तन योग यदि जन्म-कुण्डली में हो तो व्यक्ति निश्चय ही सिद्ध बनता है |
२९. यदि सभी ग्रह चन्द्र और गुरु के बीच हों तो व्यक्ति तांत्रिक क्षेत्र की अपेक्षा मंत्रानुष्ठान में विशेष सफलता प्राप्त कर सकता है |
३०. यदि केंद्र और त्रिकोण में सभी ग्रह हो तो साधक प्रयत्न कर किसी भी साधनों में सफलता प्राप्त कर सकता है |
यहाँ एक बात आपके सामने रखना चाहूँगा ,एक कहानी के माध्यम से, सत्य घटना हैं,दतिया के आदरणीय पूज्य स्वामीजी महाराज का एक शिष्य उनके पास आया और कहा की वह कई साल से छिन्नमस्ता साधना कर रहा हैं पर सफलता उसे नहीं मिल रही हैं, उसे जबाब मिला माँ बगलामुखी की साधना करो, साधक को एक ही रात में जो अनुभव हुए उससे वह तो हिल गया ,अगले दिन स्वामी जी से कारण पूछने पर की क्यों सालो साल छिन्नमस्ता माँ की साधना से फल नहीं मिला, यहाँ एक दिन में ही माँ बल्गामुखी से मिल गया, स्वामी जी ने कहा, बेटा तेरा अकाउंट tranfer कर दिया हैं और कुछ नहीं, साधक के फिर से पूछने पर उन्होंने कहा की माँ तो एक ही हैं, वास्तव में बेटा तू अपने कुल (घर ) में चल रही छिन्नमस्ता साधना को करता आया हैं, परन्तु पिछेले कई जन्मो के उसके संस्कार माँ बगलामुखी के थे. इसी कारन उन्होंने उसके द्वारा किये गए जप को बल्गामुखी माँ के जप में बदल दिया. अब आप लोग समझे ,की सदगुरुदेव की क्या आवश्यकता होती हैं और क्यों .

यहाँ तक की इस ब्लॉग के एक लेखक को पूज्य सदगुरुदेव जी ने माँ छिन्नमस्ता की साधन बताए थी, परन्तु उनसे वोह पत्र में लिखी बात भूल गए ,और वह माँ तारा की साधना करते रहे, कई वर्ष के बाद उन्हें वह पत्र मिला, अपनी गलती समझ कर उन्होंने सदगुरुदेव से बात की, परन्तु जबाब आया की माँ तारा की साधन ही करते रहो,बदलने की जरूरत नहीं हैं. वोह ये बात समझ नहीं पाए की पहले तो सदगुरुदेव ने कुछ और बोला था, अब क्योँ नहीं बदल सकते हैं, कई वर्षों के बाद उन्हें ये ज्ञात हुए की दस महाविद्या वास्तव में मूल रूप से तीन महाविद्या हैं और माँ छिन्नमस्ता ,का माँ तारा में ही समहिती करण माना जाता हैं.

तो अवलोकन कीजिये अपनी कुंडली का और देखिये क्या कहती है आपकी कुंडली ?
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...