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पंचांग ज्योतिष Panchang Astrology

पंचांग ज्योतिष Panchang Astrology

तिथि – चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि माना गया है | अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष और पूर्णिमा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष कहलाती हैं |
अमावस्या – अमावस्या तीन प्रकार की होती है | सिनीवाली, दर्श और कुहू | प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से बिद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं |
तिथियों की संज्ञाएँ – 1|6|11 नंदा, 2|7|12 भद्रा, 3|8|13 जया, 4|9|14 रिक्ता और  5|10|15 पूर्णा तथा  4|6|8|9|12|14 तिथियाँ पक्षरंध्र संज्ञक हैं |
नन्दाभद्राजयारिक्तापूर्णा
१०
१११२१३१४१५, ३०
नन्दा तिथियाँ – दोनों पक्षों की प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी (१,६,११) नन्दा तिथियाँ कहलाती हैं | प्रथम गंडात काल अर्थात अंतिम प्रथम घटी या २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए शुभ माना जाता है |
भद्रा तिथियाँ – दोनों पक्षों की द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी (२,७,१२) भद्रा तिथि होती है | व्रत, जाप, तप, दान-पुण्य जैसे धार्मिक कार्यों के लिए शुभ हैं |
जया तिथि – दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी व त्रयोदशी (३,८,१३) जया तिथि मानी गयी है | गायन, वादन आदि जैसे कलात्मक कार्य किये जा सकते हैं |
रिक्ता तिथि – दोनों पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है | तीर्थ यात्रायें, मेले आदि कार्यों के लिए ठीक होती हैं |
पूर्णा तिथियाँ – दोनों पक्षों की पंचमी, दशमी और पूर्णिमा और अमावस (५,१०,१५,३०) पूर्णा तिथि कहलाती हैं | तिथि गंडात काल अर्थात अंतिम १ घटी या २४ मिनट पूर्व सभी प्रकार के लिए मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं |
इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |
१. युगादी तिथियाँ – सतयुग की आरंभ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेता युग आरम्भ तिथि – बैसाख शुक्ल तृतीया, द्वापर युग आरम्भ तिथि – माघ कृष्ण अमावस्या, कलियुग की आरंभ तिथि – भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी | इन सभी तिथियों पर किया गया दान-पुण्य-जाप अक्षत और अखंड होता है | इन तिथियों पर स्कन्द पुराण में बहुत विस्तृत वर्णन है |
२. सिद्धा तिथियाँ – इन सभी तिथियों को सिद्धि देने वाली माना गया है | इसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि इनमे किया गया कार्य सिद्धि प्रदायक होता है |
मंगलवार१३
बुधवार१२
गुरूवार१०१५
शुक्रवार११
शनिवार१४
पर्व तिथियाँ – कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और संक्रांति तिथि पर्व कहलाती है | इन्हें शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ा दिया जाता है |
प्रदोष तिथियाँ – द्वादशी तिथि अर्ध रात्रि पूर्व, षष्ठी तिथि रात्रि से ४ घंटा ३० मिनट पूर्व एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं | इनमें सभी शुभ कार्य वर्जित हैं |
दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ –
वार/तिथिरविवारसोमवारमंगलवारबुधवारगुरूवारशुक्रवारशनिवार
दग्धा१२११
विष
हुताशन१२१०११
उपरोक्त सभी वारों के नीचे लिखी तिथियाँ दग्धा, विष, हुताशन तिथियों में आती हैं | यह सभी तिथियाँ अशुभ और हानिकारक होती हैं |
मासशून्य तिथियाँ – ऐसा कहा जाता है कि इन तिथियों पर कार्य करने से कार्य में उस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती |
शुक्ल पक्षकृष्ण पक्ष
चैत्र८,९८,९
बैसाख१२१२
ज्येष्ठ१३१४
आषाढ़
श्रावण२,३२,३
भाद्रपद१,२१,२
अश्विन१०,१११०,११
कार्तिक१४
मार्गशीर्ष७,८७,८
पौष४,५४,५
माघ
फाल्गुन
वृद्धि तिथि – सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि ‘वृद्धि तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि वृद्धि’ भी कहते हैं | ये सभी मुहूर्त के लिए अशुभ होती है |
क्षय तिथि – सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि ‘क्षय तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि क्षय’ भी कहते हैं | यह तिथि सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दी जाती है |
गंड तिथि – सभी पूर्ण तिथियों (५,१०,१५,३०) की अंतिम २४ मिनट या एक घटी तथा नन्दा तिथियों (१,६,११) की प्रथम २४ मिनट या १ घटी गंड तिथि की श्रेणी में आती हैं | इन तिथियों की उक्त घटी को सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दिया जाता है |
तिथि श्रेणियां – केलेंडर की तिथियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहों से प्रभावित रहती हैं | अतः इन ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |
१. सूर्य प्रभावित तिथियाँ – १, १०, १९, २८ और ४,१३, २२, ३१
२. चन्द्र प्रभावित तिथियाँ – २,११,२०, २९, और ७,१६,२५
३. मंगल प्रभावित तिथियाँ – ९, १८, २७
४. बुध प्रभावित तिथियाँ – ५,१४,२३
५. गुरु प्रभावित तिथियाँ – ३,१२,२१,३०
६. शुक्र प्रभावित तिथियाँ – ६,१५,२४
७. शनि प्रभावित तिथियाँ – ८,१७,२६
करण –  तिथि या मिति के अर्ध भाग को करण कहते हैं | एक तिथि में २ करण आते हैं | अतः मास की ३० तिथियों में करणों की ६० बार पुनरावृत्ति होती है | कुल ११ प्रकार के करण होते हैं  | इनमें चार करण (किन्सतुघ्न, शकुन, चतुष्पद और नाग) स्थिर होते हैं | शेष ७ करणों (बालव, तैतिल, वणिज, बव, कौलव, गरज और विष्टि) की मास में ८-८ बार पुनरावृत्ति होती है | स्थिर करणों में पहला करण किन्सतुघ्न सबसे पहले शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को आता है | शेष तीन स्थिर करण शकुन, चतुष्पद और नाग क्रमशः कृष्णपक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस को आते हैं | यह चारों करण अशुभ माने गए हैं | इनमें शुभ कार्य नहीं करने चाहिए | आठवें करण विष्टि को ही भद्रा कहते हैं | भद्रा भी सभी शुभ कार्यों के लिए त्याज्य है | विशेषतः जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में आता है | इस समय भद्रा पृथ्वी पर निवास करती है |
हमने नक्षत्रों की चर्चा अध्याय १ में संक्षिप्त में की थी | यहाँ फिर से हम उसकी आगे चर्चा करते हैं पर यहाँ भी हम थोडा ही लिखेंगे और आगे जैसे जैसे इसका सन्दर्भ आएगा, इसे और विस्तार देंगे |
नक्षत्रों को ७ श्रेणियों में दृष्टी के आधार पर, ३ श्रेणियों में, शुभाशुभ फल के आधार पर ३ श्रेणियों में तथा चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर ४ श्रेणियों में बांटा गया है | विशिष्ट पहचान वाले कुल १७ नक्षत्रों में ५ नक्षत्र पञ्चसंज्ञक, ६ नक्षत्र मूलसंज्ञक और ६ नक्षत्रों की कुछ घटी गंड नक्षत्र की श्रेणी में आती हैं |
स्वभाव के आधार पर – नक्षत्रों की स्वभाव के आधार पर ७ श्रेणियों होती हैं | ध्रुव, चंचल, उग्र, मिश्र, क्षिप्रा, मृदु और तीक्ष्ण |
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र – ४,१२,,२१,२६ चार नक्षत्र स्थिर नक्षत्र होते हैं | भवन निर्माण कार्य, कृषि कार्य, बाग़ बगीचे लगाने, गृह प्रवेश, नौकरी ज्वाइन करने, उपनयन संस्कार आदि के लिए शुभ होता है |
२. चंचल (चार) स्वभाव – ७,१५,२२,२३,२३ चंचल नक्षत्र होते हैं | घुड़सवारी करना, मोटर या कार आदि चलाना सीखना, मशीन चलाना, यात्रा करना आदि गतिशील कार्यों के लिए शुभ होते हैं |
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र – २,१०,११,२०,२५ पांच नक्षत्र उग्र होते हैं | भट्टे लगाना, गैस जलाना, सर्जरी करना, मार पीट करना, अस्त्र-शस्त्र चलाना, व्यापार करना, खोज कार्य करना, शोध कार्य करना आदि हेतु शुभ होते हैं |
४. मिश्र (साधारण) नक्षत्र – ३,१६ दो नक्षत्र मिश्र होते हैं | लोहा भट्टी व गैस भट्टी के कार्य, भाप इंजन, बिजली सम्बन्धी कार्य, दवाइयां बनाने आदि हेतु शुभ होते हैं |
५. क्षिप्रा (लघु) नक्षत्र – १,८,१३ व अभिजीत ये चार नक्षत्र क्षिप्रा होते हैं | नृत्य, गायन, रूप सज्जा, नाटक, नौटंकी आदि कार्य करना, दूकान करना, आभूषण बनाना, शिक्षा कार्य, लेखन, प्रकाशन हेतु शुभ होते हैं |
६. मृदु (मित्रवत) नक्षत्र – ५,१४,१७,२७ ये चार नक्षत्र मृदु नक्षत्र होते हैं | कपडे बनाना, सिलाई कार्य, कपडे पहनना, खेल कार्य, आभूषण बनाना एवं पहनना, व्यापार करना, सेवा कार्य, सत्संगति आदि हेतु शुभ होते हैं |
७. तीक्ष्ण (दारुण) नक्षत्र – ६,९,१८,१९ ये चार नक्षत्र तीक्ष्ण अर्थात दुखदायी  होते हैं | हानिकारक कार्य करना, लड़ाई झगडे करना, जानवरों को वश में करना, काला जादू सीखना, मैस्मेरिस्म आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |
दृष्टी के आधार पर – दृष्टी के आधार पर नक्षत्रों की तीन श्रेणी होती हैं | अधोमुखी, उर्ध्वमुखी व त्रियंगमुखी |
१. अधोमुखी नक्षत्र – नीचे की ओर दृष्टी रखने वाले २,३,९,१०,११,१६,१९,२०,२५ कुल ९ नक्षत्र हैं | कुआँ, तालाब, मकान की नीव, बेसमेंट, सुरंग बनवाना, खान खोदना, पानी व सीवर के पाईप डालना जैसे भूमिगत कार्यों के लिए शुभ होते हैं |
२. उर्ध्वमुखी नक्षत्र – ऊपर की दृष्टी रखने वाले (४,६,८,१२,२१,२२,२३,२४,२६) कुल ९ नक्षत्र होते हैं | मंदिर निर्माण, बहुमंजिली भवन निर्माण, मूर्ती स्थापना, ध्वज फहराना, राज्याभिषेक, मंडप बनवाना, बाग़ लगवाना, पहाड़ पर चढ़ना आदि कार्यों हेतु शुभ होते हैं |
३. त्रियंगमुखी नक्षत्र – दायें, बाएं व सम्मुख दृष्टी रखने वाले १,५,७,१३,१४,१५,१७,१८,२७ कुल ९ नक्षत्र हैं | घुड़सवारी करना, मोटर गाडी चलाना, सड़क बनवाना, पशु खरीदना, नाव चलाना, कृषि करना, आवागमन आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |
शुभाशुभ फल के आधार पर – इनमें तीन श्रेणी होती हैं | शुभ, मध्यम एवं अशुभ |
१. शुभ फलदायी – १,४,८,१२,१३,१४,१७,२१,२२,२३,२४,२६,२७ कुल १३ नक्षत्र शुभ फलदायी होते हैं |
२. मध्यम फलदायी – ५,७,१०,१६ कुल चार नक्षत्र थोडा फल देते हैं |
३. अशुभ फलदायी – २,३,६,९,११,१५,१८,१९,२०,२५ ये शेष दस नक्षत्र अशुभ फलदायी होते हैं |
चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर – कुल चार श्रेणी होती हैं | अंध लोचन, मंद लोचन, मध्य लोचन एवं सुलोचन |
१. अन्ध लोचन – ४,७,१२,१६,२०,२३,२७ अन्ध लोचन होती है | इन नक्षत्रों में खोई वस्तु पूर्व दिशा में जाती है और शीघ्र मिल जाती है |
२. मन्द लोचन – ७,५,९,१३,१७,२१,२४ मंद्लोचन नक्षत्र हैं | खोई वस्तु, पश्चिम दिशा में जाती है | प्रयत्न करने पर मिल जाती है |
३. मध्य लोचन – २,६,१०,१४,१८,२५ इन छह नक्षत्रों में चोरी गयी वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है | सूचना मिलने पर भी नहीं मिलती |
४. सुलोचन – ३,८,११,१५,१९,२२,२६ इन ७ नक्षत्रों में वस्तु उत्तर दिशा में जाती है | न तो वस्तु मिलती है और न कोई उसकी सूचना मिलती है |
विशिष्ट श्रेणियां – विशिष्ट पहचान वाले १७ नक्षत्रों की निम्नलिखित ३ श्रेणियां हैं |
१. पञ्चसंज्ञक नक्षत्र – अंतिम ५ नक्षत्र (२३,२४,२५,२६,२७) पंचंक संज्ञक नक्षत्र होते हैं | इनमें पंचक दोष माना जाता है | किसी भी प्रकार के शुभ कार्य नहीं करने चाहिए |
२. मूल संज्ञक नक्षत्र – ९, १०, १८, १९, २७, १ कुल ६ नक्षत्र मूल संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में जन्मे बालक हेतु २७ दिन बाद उसी नक्षत्र के आने पर शांति पाठ एवं हवन कराना शुभ माना गया है |
३. नक्षत्र गंडात – कुछ नक्षत्रों की कुछ घटियाँ गंडात श्रेणी में आती हैं | यह समय सभी शुभ कार्यों के लिए अशुभ माना जाता है | इनमें ३ नक्षत्रों (१,१०,१९) की प्रारंभ की २ घटी तथा ३ नक्षत्रों की (९,१८,२७) की अंतरिम २ घटी होती हैं |
इसके अलावा कुछ संज्ञाएँ और मिलती हैं |
१. दग्ध संज्ञक नक्षत्र – रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगल को उत्तराषाढ, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्र को ज्येष्ठा एवं शनि को रेवती दग्ध संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में शुभ कार्य करना वर्जित है |
नक्षत्रों को भी दो प्रकार का कहा गया है |
अ – दिन नक्षत्र – प्रतिदिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है वह दिन नक्षत्र है |
ब – सूर्य नक्षत्र – जिस नक्षत्र पर सूर्य हो वह सूर्य नक्षत्र है |
 इसी प्रकार कोई ग्रह जिस नक्षत्र पर हो, वह उस ग्रह का नक्षत्र होता है |
नक्षत्र भाव वृद्धि – जो नक्षत्र ६० घडी पूर्ण होकर दूरे दिन चला जाए और दुसरे दिन का स्पर्श हो जाए अर्थात घटिकाओं में जो नक्षत्र पड़ता है उसे भाववृद्धि कहते हैं |
योग – कुल मिला कर २७ योग होते हैं | जैसे कि अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चंद्रमा दोनों मिल कर ८०० कलाएं आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएं आगे चलते हैं तब २, इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियों – २१६०० कलाएं अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं | सूर्य और चंद्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़ कर तथा कलाएं बना कर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है | शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं | शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं | इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुना कर के सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घतिकाएं आती हैं |
२७ योगों के नाम इस प्रकार हैं |
`१. विष्कम्भ२. प्रीति३. आयुष्मान४. सौभाग्य
५. शोभन६. अतिगंड७. सुकर्मा८. धृति
९. शूल१०. गंड११. वृद्धि१२. ध्रुव
१३. व्याघात१४. हर्षण१५. वज्र१६. सिद्धि
१७. व्यतिपात१८. वरीयन१९. परिघ२०. शिव
२१. सिद्ध२२. साध्य२३. शुभ२४. शुक्ल
२५. ब्रह्म२६. एन्द्र२७. वैधृति
योगों के स्वामी –
योगस्वामीयोगस्वामीयोगस्वामीयोगस्वामी
`१. विष्कम्भयम२. प्रीतिविष्णु३. आयुष्मानचंद्रमा४. सौभाग्यब्रह्मा
५. शोभनबृहस्पति६. अतिगंडचंद्रमा७. सुकर्माइंद्र८. धृतिजल
९. शूलसर्प१०. गंडअग्नि११. वृद्धिसूर्य१२. ध्रुवभूमि
१३. व्याघातवायु१४. हर्षणभग१५. वज्रवरुण१६. सिद्धिगणेश
१७. व्यतिपातरूद्र१८. वरीयनकुबेर१९. परिघविश्वकर्मा२०. शिवमित्र
२१. सिद्धकार्तिकेय२२. साध्यसावित्री२३. शुभलक्ष्मी२४. शुक्लपार्वती
२५. ब्रह्मअश्विनीकुमार२६. एन्द्रपितर२७. वैधृतिदिति
परिध योग का आधा भाग त्याज्य है, उत्तरार्ध शुभ है | विष्कम्भ योग की प्रतम पांच घटिकाएं, शूल योग की प्रथम सात घटिकाएं, गंड और व्याघात योग की प्रथम छह घटिकाएं, हर्षण और वज्र योग की नौ घटिकाएं एवं वैधृति और व्यतिपात योग समस्त परित्यज्य है |

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