Nakshatra Tantra aur Jyotish नक्षत्र और ज्योतिष
ब्रम्हाण्ड मे कोई भी पिंड स्थिर नही है। सभी पिंड आकर्षण और विकर्षण के सहारे टिके हुए है। प्राचीन खगोल शास्त्र अनुसार ये पिंड दो प्रकार के है 1- स्थिर तारे, 2- अस्थिर या घुमक्कड़ तारे। इनमे अस्थिर या घुमक्कड़ तारो को ग्रह कहते है। भारत मे स्थिर तारा समूह को नक्षत्र कहते है।
ज्योतिष के स्थापक आचार्य वराहमिहिर अनुसार निम्न परिस्थियो मे नक्षत्र पीड़ित माना जाता है। (१) शनि व सूर्य तथा केतु जिसमे गोचर करे। (२) मंगल जिस नक्षत्र मे वक्री हो या उसका भेदन करे। (३) जिस नक्षत्र मे ग्रहण हो। (४) जिसमे उल्का से टक्कर हो। (५) जो स्वाभाविक रूप से भिन्न हो अथवा चन्द्रमा भेदन करे।
अश्विनी:-
यह निश्चित, यथार्थ, कोमल, नाजुक कार्यो मे लाभ दायक है। यह शुभ, सात्विक पुरुष नक्षत्र है। इसकी जाति वैश्य, योनि अश्व, योनि वैर महिष गण देव, नाडी आदि है। यह दक्षिण दिशा का स्वामी है।
भरणी नक्षत्र:-
भारतीय खगोल मे यह दूसरा नक्षत्र है। इसके तीन तारे है। यह क्रूर, निर्दयी, सक्रीय, कर्मठ, कृतवाच्य नक्षत्र है। मुहूर्त ज्योतिष मे यह क्षति नक्षत्र है। इसमे दूसरो की हानि करना, छल-कपट, धोखा देना, विध्न डालना आदि कर्म सिद्ध होते है।
कृतिका नक्षत्र
भारतीय खगोल मे यह तीसरा शुभ, कार्यकारी, तामसिक स्त्री नक्षत्र है। यह उत्तर दिशा का स्वामी है। देवता कार्तिकेय, अग्नि, स्वामी सूर्य, राशि मेष स्वामी मंगल, राशि वृषभ स्वामी शुक्र।
वैदिक साहित्य तैत्तिरीय उपनिषद मे कृतिका नक्षत्र के यज्ञ मे सात आहुतिया देने का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि उस समय सात तारे मुख्य माने जाते थे जिनके नाम अम्बा, दुला, नित्त्नी, अभ्रयन्ति, मेघयन्ति, चपुनिका है। 6 तारो का उलेख भी अनेक स्थानो पर मिलता है।
पुनर्वसु नक्षत्र
यह माना जाता है कि पुनर्वसु जातक के यहा केवल पुत्र संतति ही होती है।
पुनर्वसु प्रत्येक कार्य के शुभारम्भ के लिए श्रेष्ठ होता है।
एक बार टूट कर पुनः प्रारम्भ करने का, नवीन जीवन शुरू करने का, दूर देश से वापस आकर नये सिरे से शुरू करने का पुनर्वसु प्रतीक है।
पुष्य नक्षत्र
देवता बृहस्पति, स्वामी ग्रह शनि, राशि कर्क
बृहस्पति / गुरु इसके देवता माने जाते है। पुष्य नक्षत्र विवाह मे सर्वदा वर्जित है। क्योकि ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री शारदा का विवाह गुरु पुष्य मे करने का निश्चय किया । किन्तु उसके रूप, सौन्दर्य पर स्वंयम मोहित हो गये, इस पशुता के कारण ब्रम्हा जी ने इस योग को शाप देकर विवाह से वर्जित कर दिया। इसलिये गुरु पुष्य मे विवाह नही होते।
इसमे दोनो ग्रह गुरु और शनि का प्रभाव है। इसमे सभी प्रकार की पूजा, प्रार्थना, साधना सफल होती है।
इस नक्षत्र में सोना खरीदना शुभ माना जाता है।
यदि रविवार या गुरवार को पुष्य नक्षत्र हो, तो क्रय-विक्रय विशेष शुभ माना जाता है।
पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र
यह अशुभ, नाशक, राजसिक स्त्री नक्षत्र है। यह उत्तर दिशा का स्वामी है।हिन्दुत्व मे इन्हे सम्पन्नता, विवाह का देवता, शिव नायक वीरभद्र माना जाता है।
रोहिणी मे प्यार और आकर्षण की शक्ति है उसी प्रकार पूर्वा फाल्गुनी मे विवाह की शक्ति है।
उत्तरा फाल्गुनी के गुणदोष पूर्वा फाल्गुनी जैसे ही है। अंतर केवल सूर्य के कारण है। प्रकाश दायक, तीक्ष्ण, क्रूर, भाग्य दायक सूर्य के प्रभाव इस नक्षत्र मे होते है। यह संरक्षण, सहायता का नक्षत्र है। प्रेम, विवाह, रिश्तेदारी, आनंद का प्रतीक है। इसलिए जातक यौन रहस्य या तन्त्र-मन्त्र मे रुचिवान होता है।
यह घनिष्ठ मित्र है और विवाह या विवाह प्रस्ताव का कारक है। जातक यौन रहस्यवाद, तंत्र, कानून और न्याय, दूसरो की पीड़ा निवारण, आध्यात्म और आध्यात्मिक दुनिया मे रुचिवान होता है।
हस्त नक्षत्र
यह शुभ सात्विक, लक्ष्मी दायक पुरुष नक्षत्र है।
यह दक्षिण दिशा का स्वामी है।
बुध ग्रह इसी नक्षत्र मे उच्च का होता है। यह उत्पादन, फल देने वाला, मुक्तिदाता या मोक्ष, स्थापना शक्ति, विचारो की शक्ति, मसौदा, शिल्पकारी का कारक है। जातक उद्यमी, परिश्रमी, नौकर पेशा, स्वनियंत्रित, विनोदी होता है।
चित्रा नक्षत्र
चित्रा को स्रमृद्धि के रूप मे भी जाना जाता है।
देवता विश्वकर्मा, स्वामी ग्रह मंगल, राशि कन्या
यह वैभव, खुशहाली, सृमद्धि का नक्षत्र है। यह अशुभ सात्विक स्त्री नक्षत्र है। यह पश्चिम दिशा का स्वामी है।
स्वाति नक्षत्र
इसके देवता वायु है। कथानक है कि वायु ने मेरु पर्वत को उठाकर समुद्र मे फेक दिया था वही आजकल की श्रीलंका है। प्रभु वायु हनुमान (पवन पुत्र) के पिता है और उत्तर पश्चिम दिशा अर्थात व्यायव कोण के स्वामी है।
इसमे प्रध्वंस शक्ति होती है।
सबसे भयानक ग्रह शनि स्वाति नक्षत्र मे उच्च का होकर शुभ फलदायी होता है। यदि शनि स्वाति मे लग्न मे हो, तो विशेष शुभ फलदायी होता है। जातक को ईश्वर से कुछ भी मांगना नही पड़ता है।
विशाखा:-
विशाखा के देवता इन्द्राग्नि (इंद्रा और अग्नि) है।अग्नि इन्द्र के बाद दूसरी शक्ति है. तथा पांच महाभूतो मे से एक है। अग्नि के तीन रूप है - पावक अर्थात विद्युतीय अग्नि, पवमाना अर्थात घर्षणीय अग्नि, सुचि अर्थात सौर अग्नि। वशिष्ठ के शाप वश इन्हे बार-बार प्रज्वलित होना पड़ता है।
इन्द्र वर्षा और तूफान के देवता भी है।
ज्येष्ठा नक्षत्र
यह अशुभ, क्षय कारक, तामसिक, स्त्री नक्षत्र है। यह पश्चिम दिशा का स्वामी है।
मूल नक्षत्र
देवता निऋति, स्वामी ग्रह केतु, राशि धनु
मृत्यु या विनाश की देवी, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) दिशा की अधिष्ठात्री देवीनिऋति या काली मृत्यु, भ्र्रष्टाचार, विनाश, विघटन, कलह की देवी है। इसे ऋग्वेद मे मृत्यु, भ्र्रष्टाचार, विनाश, विघटन, कलह की देवी, अथर्वेद में सुनहरे बाल वाली, तैत्तरीय ब्राम्हण मे अंधकार और काले वस्त्र मे बलि का हिस्सा लेने वाली, शतपथ ब्राम्हण मे दर्द और नैऋत्य की देवी, महाभारत मे अधर्म की पत्नी कहते है। यह निराश्रित, भिखारी, रोगी, कोढ़ी मे प्रगट होती है। यह पृथ्वी की दरार, रेगिस्तान, खंडहर में रहती है। यह भूखे, प्यासे, विधुर, सुबह मे दुबकी रहती है। इसका रंग काला और वस्त्र भी काळा है। यह मृतको के जगत में निवास करती है और बुराई का प्रतिनिधित्व करती है। यही कारण है की हर अनुष्ठान के पूर्व इसे दूर रखने के लिए पूजा अथवा प्रार्थना की जाती है।
पूर्वाषाढ़ा:-
इसके अधिष्ठाता देवता जल है। देवता अप: स्वामी ग्रह शुक्र, राशि धनु
यह अशुभ, हानिकारक, राजसिक, स्त्री नक्षत्र है।यह पूर्व दिशा का स्वामी है। इसके दो तारे है। इसका अर्थ शीघ्र जीत या अपराजित है।
यह युद्ध की घोषणा, विजय का नक्षत्र है। इस नक्षत्रोपन्न जातक को हराना मुश्किल होता है। यह अपराजित नक्षत्र कहलाता है।
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र
इसके देवता विश्वदेव अर्थात देव समूह है।दूसरे शब्दों मे विश्वदेव मस्तिष्क की कोशिकाओ पर नियंत्रण करते है। देवता विश्वेदेवा या विश्वदेव, स्वामी ग्रह सूर्य, राशि धनु
यह शुभ, वृद्धिकारक, राजसिक, स्त्री नक्षत्र है। यह दक्षिण दिशा का स्वामी है। इसके दो तारे है। यह भी अपराजित नक्षत्र कहलाता है।
विश्वेदेवा या विश्वदेव एक देवता नही है परन्तु देवता का समूह है
उत्तरा भाद्रपद
अग्नि तत्व का योद्धा नक्षत्र है। यह एक स्थिर नक्षत्र भी माना जाता है। इसमे गृह निर्माण व अन्य कर्म शुभ होते है।
रेवती
इसके देवता पूषा या पूषन (सूर्य) 11 वे आदित्य है। ये समागम के देवता यात्रा, मार्ग, विवाह, पशुओ के भोजन के जिम्मेदार, यात्रिओ की डाकुओ और जंगली जानवरो से सुरक्षा और मनुष्य को शोषण से मुक्ति के देवता माने जाते है। पूषा गतिविधि के प्रतीक, मनुष्य के फलने-फूलने के कारक है।यह पोषक व रक्षक नक्षत्र माना जाता है। मुहूर्त ज्योतिष अनुसार यह एक मीठा और नाजुक होने से संगीत, आभूषण का नक्षत्र है। यह यात्रा और पुनर्जन्म का कारक है।
मंत्र साधना के समय
मंत्र साधना के लिए निम्नलिखित विशेष समय, माह, तिथि एवं नक्षत्र का ध्यान रखना चाहिए।
1. उत्तम माह - साधना हेतु कार्तिक, अश्विन, वैशाख माघ, मार्गशीर्ष, फाल्गुन एवं श्रावण मास उत्तम होता है।
2. उत्तम तिथि - मंत्र जाप हेतु पूर्णिमा़, पंचमी, द्वितीया, सप्तमी, दशमी एवं त्रयोदशी तिथि उत्तम होती है।
3. उत्तम पक्ष - शुक्ल पक्ष में शुभ चंद्र व शुभ दिन देखकर मंत्र जाप करना चाहिए।
4. शुभ दिन - रविवार, शुक्रवार, बुधवार एवं गुरुवार मंत्र साधना के लिए उत्तम होते हैं।
5. उत्तम नक्षत्र - पुनर्वसु, हस्त, तीनों उत्तरा, श्रवण रेवती, अनुराधा एवं रोहिणी नक्षत्र मंत्र सिद्धि हेतु उत्तम होते हैं।
मंत्र साधना में साधन आसन एवं माला की विशेषताएँ
आसन - मंत्र जाप के समय कुशासन, मृग चर्म, बाघम्बर और ऊन का बना आसन उत्तम होता है।
माला - रुद्राक्ष, जयन्तीफल, तुलसी, स्फटिक, हाथीदाँत, लाल मूँगा, चंदन एवं कमल की माला से जाप सिद्ध होते हैं। रुद्राक्ष की माला सर्वश्रेष्ठ होती है।
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