कालीकवचम् Kali Kavacham Dashakshari Vidya दशाक्षरी विद्या तथा काली-कवच का वर्णन
ब्रह्म वैवर्त पुराण; गणपतिखण्ड: अध्याय 37
दशाक्षरी विद्या तथा काली-कवच का वर्णन
नारद जी ने कहा– सर्वज्ञ नाथ! अब मैं आपके मुख से भद्रकाली-कवच तथा उस दशाक्षरी विद्या को सुनना चाहता हूँ।
श्रीनारायण बोले– नारद! मैं दशाक्षरी महाविद्या तथा तीनों लोकों में दुर्लभ उस गोपनीय कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ यही दशाक्षरी विद्या है। इसे पुष्कर तीर्थ में सूर्य-ग्रहण के अवसर पर दुर्वासा ने राजा को दिया था। उस समय राजा ने दस लाख जप करके मन्त्र सिद्ध किया और इस उत्तम कवच के पाँच लाख जप से ही वे सिद्धकवच हो गये। तत्पश्चात वे अयोध्या में लौट आये और इसी कवच की कृपा से उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया।
नारद जी ने कहा– प्रभो! जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, उस दशाक्षरी विद्या को तो मैंने सुन लिया। अब मैं कवच सुनना चाहता हूँ, वह मुझसे वर्णन कीजिये।
श्री नारायण बोले– विपेन्द्र! पूर्वकाल में त्रिपुर-वध के भयंकर अवसर पर शिव की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। मुने! वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी गोपनीय, तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान स्वरूप है। उसी को पूर्वकाल में शिव जी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था।
‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे। ‘क्लीं’ कपाल की तथा ‘ह्रीं ह्रीं ह्रीं’ नेत्रों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा’ सदा मेरी नासिका की रक्षा करे। ‘क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा’ सदा दाँतों की रक्षा करे। ‘ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा’ मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ सदा कण्ठ की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं कालिकायै स्वाहा’ सदा दोनों कानों की रक्षा करे। ‘ऊँ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे। ‘ऊँ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा’ सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे। ‘ऊँ क्रीं कालिकायै स्वाहा’ सदा मेरी नाभि की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं कालिकायै स्वाहा’ सदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे। ‘रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा’ सदा हाथों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा’ सदा पैरों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा’ सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे। पूर्व में ‘महाकाली’ और अग्निकोण में ‘रक्तदन्तिका’ रक्षा करें। दक्षिण में ‘चामुण्डा’ रक्षा करें। नैर्ऋत्यकोण में ‘कालिका’ रक्षा करें। पश्चिम में ‘श्यामा’ रक्षा करें। वायव्यकोण में ‘चण्डिका’, उत्तर में ‘विकटास्या’ और ईशानकोण में ‘अट्टहासिनी’ रक्षा करें। ऊर्ध्वभाग में ‘लोलजिह्वा’ रक्षा करें। अधोभाग में सदा ‘आद्यामाया’ रक्षा करें। जल, स्थल और आन्तरिक्ष में सदा ‘विश्वप्रसू’ रक्षा करें।
वत्स! यह कवच समस्त मन्त्र समूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है; इसे मैंने तुम्हें बतला दिया। इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे। इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे। इसी के बल से सौभरि और पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ कहलाये। जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है। जो इस कवच को जाने बिना जगज्जननी काली का भजन करता है, उसके लिए एक करोड़ जप करने पर भी यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।
काली का यह कवच भोग व मोक्ष प्रदायक, मोहिनी शक्ति देने वाला, अघों (पापों) का नाश करने वाला, विजयश्री दिलाने वाला अद्भुत कवच है । इसका नित्य पाठ करने से मनुष्य में अनुपम तेज उत्पन्न होता हैं, जिसके प्रभाव से तीनों ही लोकों के जीव उस मनुष्य के वशीभूत हो जाते हैं । तेज प्रभाव के गुण से युत यह कवच देवी को अतिप्रिय भी है ।
भैरव्युवाच
काली पूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधाः प्रभो ।
इदानीं श्रोतु मिच्छामि कवचं पूर्व सूचितम् ॥
त्वमेव शरणं नाथ त्राहि माम् दुःख संकटात् ।
सर्व दुःख प्रशमनं सर्व पाप प्रणाशनम् ॥
सर्व सिद्धि प्रदं पुण्यं कवचं परमाद्भुतम् ।
अतो वै श्रोतुमिच्छामि वद मे करुणानिधे ॥
भावार्थः भैरवी बोलीं कि हे प्रभो ! मैंने काली पूजा व भावों को सुना । अब मैं काली कवच सुनना चाहती हूं । आप कृपा करके सिद्धिदायक, पवित्र, पापशामक काली कवच मुझे बताएं ।
भैरवोवाच
रहस्यं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राण वल्लभे ।
श्री जगन्मङ्गलं नाम कवचं मंत्र विग्रहम् ॥
पाठयित्वा धारयित्वा त्रौलोक्यं मोहयेत्क्षणात् ।
नारायणोऽपि यद्धत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् ॥
भावार्थः भैरव बोले कि हे प्राणवल्लभे ! अब मैं तुम्हें जगन्मंगल कवच बताता हूं । इस कवच को पढने व धारण करने से त्रिभुवन के आकर्षण की शक्ति प्राप्त होती है । भगवान विष्णु ने भी इस कवच को धारण करके ही स्त्री रूप से शिव को आकर्षित किया था ।
योगिनं क्षोभमनयत् यद्धृत्वा च रघूद्वहः ।
वरदीप्तां जघानैव रावणादि निशाचरान् ॥
यस्य प्रसादादीशोऽपि त्रैलोक्य विजयी प्रभुः ।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः ।
एवं च सकला देवाः सर्वसिद्धिश्वराः प्रिये ॥
भावार्थः योगीरूप में श्रीराम ने भी इस कवच को धारन करके ही दैत्यराज रावण व अन्य राक्षसों का वध किया था और तीनों लोलों के स्वामी कहलाए । कुबेर धनपति हुए, देवराज इंद्र व अन्य देवता भी इसी के प्रभाव से सिद्धि संपन्न हुए ।
विनियोग
ॐ श्री जगन्मङ्गलस्याय कवचस्य ऋषिः शिवः ।
छ्न्दोऽनुष्टुप् देवता च कालिका दक्षिणेरिता ॥
जगतां मोहने दुष्ट विजये भुक्तिमुक्तिषु ।
यो विदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ॥अथ कवचम्
शिरो मे कालिकां पातु क्रींकारैकाक्षरीपर ।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटं च कालिका खड्गधारिणी ॥
हूं हूं पातु नेत्रयुग्मं ह्नीं ह्नीं पातु श्रुति द्वयम् ।
दक्षिणे कालिके पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरि ॥
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं हूं पातु कपोलकम् ।
वदनं सकलं पातु ह्णीं ह्नीं स्वाहा स्वरूपिणी ॥
भावार्थः क्रींकारैक्षरी व काली मेरे शीश की, खङ्गधारिणी व क्रीं क्रीं क्री मेरे ललाट की, हूं हूं नेत्रों की, ह्नीं ह्नीं कर्ण की, दक्षिण काली नाक की, क्रीं क्रीं, क्रीं क्रीं जिह्वा कीं, हूं हूं गालों की, स्वाहास्वरूपा मेरे समूचे शरीर की रक्ष करें ।
द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्यासुखप्रदा ।
खड्गमुण्डधरा काली सर्वाङ्गभितोऽवतु ॥
क्रीं हूं ह्नीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा ह्रदयं मम ।
ऐं हूं ऊं ऐं स्तन द्वन्द्वं ह्नीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ॥
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तुका ।
क्रीं क्रीं हूं हूं ह्नीं ह्नीं पातु करौ षडक्षरी मम ॥
भावार्थः बाईस अक्षरी गुप्त विद्या स्कंधों की, खङ्ग-मुंडधारिणी काली समूचे शरीर की, क्रीं क्री, हूं ह्नीं चामुंडा ह्रदय की, ऐं हूं ऊं ऐं स्तनों की, ह्नी फट् स्वाहा पृष्ठभाग की, अष्टाक्षरी विद्या बाहों की, क्रीं क्रीं हूं हूं ह्नीं ह्नीं विद्या हाथों की रक्षा करें ।
क्रीं नाभिं मध्यदेशं च दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठं च कालिका सा दशाक्षरी ॥
क्रीं मे गुह्नं सदा पातु कालिकायै नमस्ततः ।
सप्ताक्षरी महाविद्या सर्वतंत्रेषु गोपिता ॥
ह्नीं ह्नीं दक्षिणे कालिके हूं हूं पातु कटिद्वयम् ।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहान्ता चोरुयुग्मकम् ॥
ॐ ह्नीं क्रींमे स्वाहा पातु जानुनी कालिका सदा ।
काली ह्रन्नामविधेयं चतुवर्ग फलप्रदा ॥
भावार्थः नाभि की क्रीं, मध्यभाग की दक्षिणकाली, क्रीं स्वाहा व दशाक्षरी विद्या पृष्ठ भाग की, क्रीं गुप्त अंगों की रक्षा करे । सत्रह अक्षरी विद्या सभी अंगों की रक्षा करे । ह्नीं ह्नीं दक्षिणे कालिके हूं हूं कमर की दशाक्षरी विद्या ऊरुओं की, ऊं ह्नी क्रीं स्वाहा जानुओं की रक्षा करे । काली नाम की यह विद्या चारों पदार्थों को देने वाली है ।
क्रीं ह्नीं ह्नीं पातु सा गुल्फं दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं हूं ह्नीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ॥
खड्गमुण्डधरा काली वरदाभयधारिणी ।
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु ॥
भावार्थः क्रीं ह्नीं ह्नीं गुल्फ की, क्रीं हूं ह्नीं चतुर्दशाक्षरी विद्या शरीर की रक्षा करे । खङ्ग-मुंड धारिणी, वरदात्री-भयहारिणी विद्याओं सहित मेरे समूचे शरीर की रक्षा करें ।
काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी ।
विपचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषः ॥
नीला घना वलाका च मात्रा मुद्रा मिता च माम् ।
एताः सर्वाः खड्गधरा मुण्डमाला विभूषणाः ॥
रक्षन्तु मां दिग्निदिक्षु ब्राह्मी नारायणी तथा ।
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता ॥
वाराही नारसिंही च सर्वाश्रयऽति भूषणाः ।
रक्षन्तु स्वायुधेर्दिक्षुः दशकं मां यथा तथा ॥कालीं, कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला, विरोधिनी, विपचिता, उग्रप्रभा, नीला घना, वलाका, खङ्ग धारिणी, मुंडमालिनी, ब्राह्नी, नारायणी, महेश्वरी, चामुंडा, कौमारी, अपराजिता, वाराही, नरसिंही आदि सभी दिशाओं-विदिशाओं में मेरी रक्षा करें ।
प्रतिफलम्
इति ते कथित दिव्य कवचं परमाद्भुतम् ।
श्री जगन्मङ्गलं नाम महामंत्रौघ विग्रहम् ॥
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम् ।
गुरु पूजां विधायाथ विधिवत्प्रपठेत्ततः ॥
कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्ज्ञानं च वा पुनः ।
एतच्छतार्धमावृत्य त्रैलोक्य विजयी भवेत् ॥
भावार्थः मैंने यह जगन्मंगल नामक महामंत्र कवच कहा है, जो दिव्य व चमत्कारी है । इस कवच से त्रिभुवन को वशीभूत किया जा सकता है । कवच को गुरु-पूजा के बाद ग्रहण किया जाता है । कवच पाठ बार-बार जीवनपर्यंत करना चाहिए । इसका नित्य पचास बार पाठ करने से पाठकर्त्ता में तीनों लोकों को जीतने जितनी शक्ति आ जाती है ।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः ।
महाकविर्भवेन्मासात् सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥
पुष्पाञ्जलीन् कालिका यै मुलेनैव पठेत्सकृत् ।
शतवर्ष सहस्त्राणाम पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥
भावार्थः इस कवच के प्रभाव से तीनों लोकों को क्षोभित (आंदोलित) किया जा सकता है । इतना ही नहीं, एक मास में ही पाठकर्त्ताको सभी सिद्धियां हस्तगत हो जाती हैं । काली का मूल मंत्र बोलकर पुष्पांजलि देकर कवच का पाठ करने से लाखों वर्ष की पूजा का फल प्राप्त होता है ।
भूर्जे विलिखितं चैतत् स्वर्णस्थं धारयेद्यदि ।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारणाद् बुधः ॥
त्रैलोक्यं मोहयेत्क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात् ।
पुत्रवान् धनवान् श्रीमान् नानाविद्या निधिर्भवेत् ॥
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद् गात्र स्पर्शवात्ततः ।
नाशमायान्ति सर्वत्र कवचस्यास्य कीर्तनात् ॥
भावार्थः भोजपत्र या स्वर्णपत्र पर कवच को लिखकर धारण करने या शीश व दाईं भुजा अथवा गले में धारण करने वाला तीनों लोकों को आकर्षित या नष्ट करने में समर्थ हो जाता है । ऐसा मनुष्य पुत्र, धन, कीर्ति व अनेक विद्याओं में दक्ष होता है । उस पर ब्रह्मास्त्र या अन्य शस्त्र का भी प्रभाव नहीं पडता । कवच के प्रभाव से सभी अनिष्ट दूर होते हैं ।
मृतवत्सा च या नारी वन्ध्या वा मृतपुत्रिणी ।
कण्ठे वा वामबाहौ वा कवचस्यास्य धारणात् ॥
वह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः ।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ॥
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ।
स्पर्शामुद्धूय कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे ।
पौत्रान्तं स्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ॥
भावार्थः यदि बंध्या या मृतवत्सा स्त्री इस कवच को गले या बाईं भुजा में धारण करे तो उसको संतान की प्राप्ति होती है । इसमें लेश भी संशय नहीं है । यह कवच अपने भक्त-शिष्य को ही देना चाहिए । अन्य को देने से वह मृत्यु मुख में जाता है । कवच के प्रभाव से साधक के घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है और उसे वाचासिद्धि की प्राप्ति होती है । ऐसा पुरुष अंतकाल तक पौत्र-पुत्र आदि का सुख भोगता है ।
इदं कवचं न ज्ञात्वा यो जपेद्दक्षकालिकाम् ।
शतलक्षं प्रजप्त्वापि तस्य विद्या न सिद्धयति ।
शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥
भावार्थः इस कवच को जाने बिना ही जो मनुष्य काली मंत्र का जप करता है । वह चाहे कितना ही जप करे, सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती और वह शस्त्र द्वारा मरण को प्राप्त होता है ।
Kali Kavacham is in Sanskrit. It is also called as Dashakshari Vidya which is in Ganapati kanda of Brahmavaivarta Poorana. (Adhya 37—1 to 24). It is tolled to BrahmaRushi Narad by God Narayan. Narad Said: O! God Narayana I like to hear BhadraKali-Kavacha or Dashakshari Vidya from your mouth. God Narayan said to Narad that I am telling you Dashakshari MahaVidya and very secret Kavacha which is scarce in three lokas (Pruthavi loka, Swarga Loka and Patal Loka). “Om hrim shrim clim kalikayai swaha” is the Dashakshari Vidya. It was given to king by Durvasa. The king chanted this mantra for 10 lakh times. After chanting it for 5 lakh times this mantra, kavacha became powerful. Then king came back to Ayodhya and because of the power of this Kavacha, conquer all the kings on the earth. Narad said Prabho! (God Narayan) I heard the Dashakshari Vidya. Now I like to hear Kavacha. Please describe it to me. God Narayan said viprendra (Narad) Long back this Kavacha was told by me (God Narayan) to God Shiva at time of killing demon Tripurasoor. This kavacha is very secret. It is secret among secrets. It is filled with all the important Mantras. It was given to Durvasa by God Shiva. Then it was given to king Suchandra by Durvasa. Let mantra: “Om hrim shrim clim kalikayai swaha” protects my head. Let mantra: ‘clim' protect my forehead. Let mantra: 'Hrim Hrim Hrim' always protects my both eyes. Let mantra: “Om Hrim Trilochane swaha” always protects my nose. Let mantra: “krim kalike raksha raksha swaha” protects my teeth. Let mantra: “hrim Bhadrakalike swaha” protects my both the lips. Let mantra “om hrim hrim clim kalikayai swaha” protects my throat. Let mantra: Om hrim kalikayai swaha” protects my both ears. Let Mantra: “Om krim krim clim kalyai Swaha” always protects my shoulders. Let Mantra: “Om krim Bhadrakalyai swaha” always protects my chest. Let mantra: “Om krim kalikayai swaha” always protects my naval. Let mantra: “Om hrim kalikayai swaha” always protects my back. Let mantra: ‘raktabijvinashinyai swaha' always protects my hands. Let mantra: “Om hrim clim mundamalinyai swaha” always protects my feet. Let mantra: “Om hrim chamundayai swaha” always protects whole body. Let Goddess Mahakali protects me from east. Let Goddess Raktdantika protects me from south-east. Let Chamunda protects me from south. Let Kalika protects me from south-west. Let Shyama protects me from west. Let Goddess Chandika protects me from north-east. Let Vikatasya protects me from north. Let Attahasini protects me from north-west. Let Goddess Loljivha protects me from above. Let Goddess Addyamaya protects me from down (the nadir). Let Goddess Vishvaprasu protects me on the earth, in the water and in the sky. 3. O! My son, I told you this kavacham. This kavacham is a very pious collection of all mantras, very important and best among all the kavachams. Because of the blessings of the Goddess Kali after reciting this kavacha; king Suchendra became king of the seven famous islands. Because of the blessings of the Goddess Kali after reciting this kavacha; king of earth Mandhata became king of the seven famous islands and the earth. Pracheta and Lomash became siddhas. Soubhari and Pipalayan became head of the yogis. A devotee who becomes a master of this kavacha becomes expert in all siddhies. It is definite and true that any whatsoever big donation, Tapasya done with any hardship or any Varta are comparatively of very less importance with this Kavacham. The devotee who by neglecting this kavacham worship or recites the mantra one billion times of Goddess Kali, without reciting this kavacham, never receives Siddhi of the mantra. Thus here completes this Kali Kavacha/Dashakshari Vidya which is in Ganapati khanda of Brahmavaivarta Poorana. (Adhya 37—1 to 24).
Kali Kavacham
Narad uvacha
kavacham shrotumichami tam cha vidyam dashaksharim I
natha tvatto hi sarvadnya bhadrakalyashcha sampratam II 1 II
narayan uvacha
shrunu narad vakshyami mahavidyam dashaksharim I
gopaniyam cha kavacham trishu lokeshu durlabham II 2 II
om hrim shrim klim kalikayai svaheti cha dashaksharim I
durvasa hi dadou radnye pushkare suryaparvani II 3 II
dashalakshajapenaiv mantrasiddhihi kruta pura I
panchalakshajapenaiv pathan kavachamutamam II 4 II
babhuv siddhakavachoapyayodhyamajagam saha I
krutsnaam hi pruhivim jigye kavachasya prasadataha II 5 II
narad uvacha
shruta dashakshari vidya trishu lokeshu durlabha I
adhuna shrotumichchhami kavacham bruhi me prabho II 6 II
narayana uvacha
shruta vakshyami viprendra kavacham paramadbhutam I
narayanen yad dattam krupaya shooline pura II 7 II
tripurasya vadhe ghore shivasya vaijayay cha I
tadev shoolina dattam pura durvasase mune II 8 II
durvasasa cha yad dattam suchandray mahatmne I
atiguhyataram tattvam sarvamantroughavighraham II 9 II
om hrim shrim klim kalikayai svaha me patu mastakam I
klim kapalam sada patu hrim hrim hrim iti lochane II 10 II
om hrim trilochane svaha nasikam me sadavatu I
klim kalike raksha raksha svaha dantam sadavatu II 11 II
hrim bhadrakalike svaha patu meadharyugakam I
om hrim hrim klim kalikayai svaha kantham sadavatu II 12 II
om hrim kalikayai swaha karnyugamam sadavatu I
om krim krim klim kalyai swaha skandham patu sada mama II 13 II
om krim bhadrakalyai swaha mama vakshaha sdavatu I
om krim kalikayai swaha mama nabhim sdavatu II 14 II
om hrim kalikayai swaha mama prushtam sdavatu I
raktabijavinashinyai swaha hastou sdavatu II 15 II
om hrim klim mundamalinyai swaha padou sdavatu I
om hrim chamundayai swaha sarvangam me sdavatu II 16 II
prachyam patu mahakali aagneyyam raktadantika I
dakshine patu chamunda nairutyam patu kalika II 17 II
shyama cha varune patu vayvyam patu chandika I
uttare vikatasya cha aishanyam sattahasini II 18 II
urdhavam patu liljihva mayadya patvadhaha sada I
jale sthale chantarikshe patu vishvaprasuhu sada II 19 II
iti te kathitam vatsa sarvamantroughvigraham I
sarvesham kavachanam cha sarbhutam paratparam II 20 II
saptadvipeshvaro raja suchandroasya prasadataha I
kavachasya prasaden mandhata prutivipatihi II 21 II
pracheta lomshashchaiva yataha siddho babhuva ha I
yato hi yogino shreshtaha soubharihi pappalayanaha II 22 II
yadi syat siddhkavachaha sarvasiddhishvaro bhavet I
mahadanani sarvani tapansi cha vratani cha I
nishchitam kavachasya kalam narhati shodashim II 23 II
idam kavachamadnaytva bhajet kalim jagatprasum I
shatalakshaprajaptoapi na mantraha siddhidayakaha II 24 II
II iti shribrahmavaivarte kalikavacham sampoornam II
कालीकवचम्
नारद उवाच
कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम् I
नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च सांप्रतम् II 1 II
नारायण उवाच
श्रुणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम् I
गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् II २ II
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम् I
दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सुर्यपर्वणि II ३ II
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिः कृता पुरा I
पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम् II ४ II
बभूव सिद्धकवचोSप्ययोध्यामाजगाम सः I
कृत्स्रां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादतः II ५ II
नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा I
अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रुहि मे प्रभो II ६ II
नारायण उवाच
श्रुणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परामाद्भुतम् I
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा II ७ II
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च I
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने II ८ II
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने I
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् II ९ II
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् I
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रींमिति लोचने II १० II
ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु I
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु II ११ II
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेsधरयुग्मकम् I
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु II १२ II
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु I
ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम II १३ II
ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदावतु I
ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु II १४ II
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्टं सदावतु I
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु II १५ II
ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु I
ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु II १६ II
प्राच्यां पातु महाकाली आग्नेय्यां रक्तदन्तिका I
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैऋत्यां पातु कालिका II १७ II
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका I
उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनि II १८ II
ऊर्ध्वं पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वधः सदा I
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा II १९ II
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् I
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम् II २० II
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोSस्य प्रसादतः I
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपतिः II २१ II
प्रचेता लोमशश्चैव यतः सिद्धो बभूव ह I
यतो हि योगिनां श्रेष्टः सौभरिः पिप्पलायनः II २२ II
यदि स्यात् सिद्धकवचः सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् I
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च I
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् II २३ II
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कालीं जगत्प्रसूम् I
शतलक्षप्रजप्तोSपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः II २४ II
II इति श्रीब्रह्मवैवर्ते कालीकवचं संपूर्णम् II
काली कवच मराठी अर्थ:
नारद म्हणाले,
हे नारायणा ! मी आपल्या तोंडून भद्रकाली-कवच तसेच दशाक्षरी विद्या ऐकू इच्छितो.
श्री नारायण म्हणाले,
हे नारदा ! मी दशाक्षरी महाविद्या तसेच तिन्ही लोकांत दुर्लभ असलेल्या त्या गुप्त कवचाचे वर्णन करतो. ऐक ! " ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा " हा मन्त्र हीच दशाक्षरी विद्या आहे.
पुष्कर तिर्थावर सुर्यग्रहणाच्यावेळी दुर्वास ऋषिनि राजाला हा मन्त्र दिला होता.त्यावेळी राजाने दहा लाख वेळा हा मन्त्र जपुन सिद्ध केला आणि हया उत्तम कवच्याच्या पाच लाख जपाने तो सिद्धकवच झाला. त्यानंतर तो अयोध्येंत परतला आणि या कवच्याच्या कृपेने त्याने सारी पृथ्वी जिंकली.
नारद म्हणाले,
हे प्रभो ! जी तिन्ही लोकांत दुर्लभ आहे अशी दशाक्षरी विद्या मी ऐकली. आता मी कवच ऐकू इच्छितो; त्याचे वर्णन करावे.
नारायण म्हणाले,
हे विप्रेन्द्र ! फार पूर्वी त्रिपूरासूराच्या वधाच्या भयंकरवेळी शंकरांच्या विजयासाठी नारायणाने श्री शिवांना हे परमअद्भुत कवच दिले होते. त्या कवचाचे वर्णन करतो ऐक. हे कवच गुप्तामधील अति गुप्त, तत्त्वस्वरूप तसेच संपूर्ण मंत्रांचे मुर्तिमान् स्वरूप आहे. हे शिवानि दुर्वासऋषींना दिले. दुर्वासांनी ते मनस्वी राजा सुचीन्द्राला दिले. " ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा " माझ्या डोक्याचे रक्षण करो. " क्लीं " कपाळाचे आणि " ह्रीं " , " ह्रीं " ," ह्रीं " डोळ्यांचे रक्षण करो. " ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा " नेहमी माझ्या नाकाचे रक्षण करो. " क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा " माझ्या दातांचे रक्षण करो. " ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा " माझ्या दोन्ही ओठांचे रक्षण करो. " ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा " नेहमी माझ्या कंठाचे रक्षण करो. " ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा " नेहमी माझ्या दोन्ही कानांचे रक्षण करो. " ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा " नेहमी माझ्या खांद्यांचे रक्षण करो. " ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा " नेहमी माझ्या छातीचे रक्षण करो. " ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा " नेहमी माझ्या बेम्बीचे रक्षण करो. " ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा " नेहमी माझ्या पाठीचे रक्षण करो. " रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा " नेहमी माझ्या हातांचे रक्षण करो. " ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा " नेहमी माझ्या पायांचे रक्षण करो. " ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा " नेहमी माझ्या सर्वांगाचे रक्षण करो. पूर्वेकडून " महाकाली, " आग्नेयेकडून " रक्तदन्तिका " , दक्षिणेकडून " चामुंडा " नैरुत्येकडून " कालिका " पश्चिमेकडून " श्यामा " , वायव्येकडून " चण्डिका " , उत्तरेकडून " विकटास्या ", ईशानेकडून " अट्टहासिनी ", ऊर्ध्वेकडून " लोलजिह्वा " आणि अध दिशेकडून " आद्यामाया " माझे रक्षण करो. जळी-स्थळी आणि अंतराळात " विश्वप्रसू " माझे रक्षण करो. पुत्र ! हे कवच सर्व मंत्रांचे मूर्त स्वरूप, सर्व कवचांचे सारभूत आणि सर्वोत्त्कृष्ट आहे. हे मी तुला सांगितले आहे. या कवचाच्या कृपेने राजा सुचंद्र सात द्वीपांचा अधिपती झाला. या कवचाच्या प्रभावाने मांधाता सप्तद्विपवती पृथ्वीचा अधिपती झाला. याच्या बळाने प्रचेता व लोमेश सिद्ध झाले. तसेच याच्या बळाने सौभरि व पिप्पलायन योग्यामध्ये श्रेष्ट झाले. ज्याला हे कवच सिद्ध होते तो सर्व सिद्धींचा स्वामी होतो. सर्व महादान, तप आणि व्रते यांचे पुण्य या कवचाच्या सोळाव्या कलेचीही बरोबरी करू शकत नाही. हे सत्य आहे. जो हे कवच माहित करून घेतल्याशिवाय जगज्जननी कालीचा जप करतो, त्याचा मंत्र एक कोटी जप झालातरी सिद्धिदायक होत नाही.
अशा रीतीने हे ब्रह्मवैवर्त पुराणांतील कालीकवच संपूर्ण झाले.
Kali Kavacham
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