Vrishchik Lagna/वृश्चिक लग्न
जन्म कुण्डली का पहला खाना सम्पूर्ण कुण्डली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग होता है। ज्योतिष भाषा में इस खाने को प्रथम भाव अथवा लग्न भाव भी कहा जाता है। ज्योतिषाचार्य किसी भी जातक की जन्म कुण्डली में लग्न एवं लग्नाधिपति अर्थात लग्नेश की स्थिति को देख कर ही सम्बंधित जातक के रंग, रूप, शारीरिक गठन, आचरण, स्वभाव एवं स्वास्थ्य आदि के सम्बन्ध में विवेचना कर देते हैं। कुछ अनुभवी एवं ज्ञानी ज्योतिषाचार्य तो किसी भी जातक की आभा, मुखमण्डल, आदतें एवं व्यवहार को देखकर ही सम्बंधित जातक के जन्म लग्न का एकदम सटीक पता लगा लेते हैं।
किसी जातक की जन्म कुण्डली का फलादेश बहुत कुछ उस जातक की कुण्डली के लग्न भाव की राशि, लग्नेश एवं उसकी स्थिति, लग्न भाव में स्थित ग्रह, लग्न भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह, ग्रहों की युति तथा लग्न भाव की दृष्टि आदि से प्रभावित होता हैं। लोक प्रकृति, भौगोलिक एवं सामाजिक स्थितियाँ भी सम्बंधित जातक के कुण्डली फलादेश को प्रभावित करती हैं। यहां हम वृश्चिक लग्न में जन्मे जातक का फलादेश प्रस्तुत कर रहे हैं-
वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातक मंझोले कद एवं गठीली देह युक्त होते हैं। इनका वर्ण कुछ अधिक गोरा होता हैं। इनके नेत्रों में एक चमक प्रतीत होती है व इनके केश कुछ कम मात्रा में होते हैं। इनकी टाँगे, धड़ के अनुपात में छोटा आकार लिए होती हैं। इनके दांत सामान्य से कुछ अधिक बड़े होते हैं, जिस कारण इनका जबड़ा भी कुछ चौड़ा प्रतीत होता है।
ये संकीर्ण विचारों से युक्त होते हैं। अपवाद स्वरुप ही कोई वृश्चिक लग्न का जातक परोपकारी मिलता हैं। इनके विचारों में कोमलता का प्रमाण मिलने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं उठता।
धर्म के प्रति इनमें कोई आकर्षण नहीं होता, किन्तु दिखावे हेतु ये पूजा पाठ का ढोंग करने से भी पीछे नहीं रहते।
वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातक अत्यन्त झगड़ालू प्रवृत्ति वाले, संयम से विहीन, गलत विचारों से भरे हुए, दया धर्म की भावना से दूर, चतुर स्वभाव वाले एवं गुप्त रूप से दुष्कर्म जैसे घृणित अपराध करने वाले होते है। कर्क, वृष एवं मीन लग्न वाले जातकों से इनकी भली प्रकार से पटरी खाती है। इनको प्रायः कंठ, छाती, गर्मी, वायु एवं बवासीर जैसे रोगों से ग्रस्त होने की सम्भावना बनी रहती है। वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातक को सूर्य, चन्द्रमा, मंगल एवं बृहस्पति ग्रह शुभ फल प्रदान करते हैं एवं बुध व शुक्र अशुभ फल प्रदान करने वाले होते हैं।
वृश्चिक लग्न :
वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातक तानाशाहा, खनिज लवण सम्बंधित विशेषज्ञ, आलोचक अथवा ठग हुआ करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में ऐसे जातकों को प्रायः सफलता मिल जाती है। ऐसे जातक स्वभाव से उग्र प्रवृत्ति वाले होते हैं। अपने विरुद्ध कही गई टिपण्णी से शीघ्र हीभड़क उठते हैं। स्वभाव से कुछ गरम तो होते है, परन्तु क्रूर एवं निर्दयी नहीं होते। प्रतिशोध की भावना इनमें कूट कूट कर समाहित रहती है। स्वार्थ पूर्ती हेतु ये शत्रु को भी अपना मित्र बनाने से नहीं चूकते। ऐसा जातक संगीत व नृत्य कलाओं में अभिरूचि रखने वाला, विश्वसनीय, नीतिज्ञ, विद्वान, गणितज्ञ, विचारशील, शंकालु प्रवृत्ति वाला, ज्योतिष विधा का ज्ञाता एवं धन का चातुर्य से संचय करने वाला होताहै। इनका जनसम्पर्क एवं जान पहचान का दायरा बहुत विशाल होता है। वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातक का भाग्योदय 22, 24, 28 और 32वें वर्ष में होता है।
वृश्चिक लग्न का स्वामी मंगल है अतः इस लग्न में जन्मे जातक में क्रोध की अधिकता रहती है. मंगल के प्रभाव के कारण इस लग्न में जन्मा जातक दबंग , हठी एवं स्पष्टवादी होता है. अपनी बात को सदा निभाने वाला तथा बिना परवाह किये अपने सम्मान के लिए लड़ जाना वृश्चिक लग्न के जातकों की पहचान है. इस लग्न में उत्पन्न जातक सामान्यतः स्वस्थ एवं बलवान होता है.
वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातक मंझले कद के, गठे हुए शरीर के तथा खिलते हुए गोरे वर्ण के होते हैं। इनके केश सघन नही होती, बल्कि छितराई हुई होती है। चमकदार नेत्र होना इनकी विशेष पहचान है। इनका स्वभाव कुछ गरम अवश्य होता है, किन्तु इन्हें क्रूर एवं निर्दयी नहीं कहा जा सकता। यह अलग बात है कि किन्हीं ग्रहों के प्रभाव से ये ऐसे हो जायें। इनके कमर से निचला भाग उपर वाले भाग के अनुपात में छोटा रहता है, दांत कुछ बड़े होते हैं।, जिससे जबड़ा चैड़ा दिखाई देता है.
वृश्चिक लग्न का जातक परिश्रम एवं लगन के द्वारा अपने कार्यों को पूरा करते हुए जीवन में सफलता अर्जित करता है. विभिन्न विषयों में रूचि होने के कारण अनेको विषयों का ज्ञाता होता है वृश्चिक लग्न का जातक. परिवार एवं अपने कुल में श्रेष्ठ एवं विद्वानों में आपकी गणना होती है.मित्रों एवं भाई बहनों के प्रिय वृश्चिक लग्न के जातक महत्वाकाक्षी होते हैं. आत्मशक्ति की इनमे प्रधानता रहती है तथा जीवन में अधिक से अधिक धन संचय की इच्छा सदैव रहती है. स्त्री सूचक लग्न के कारण मन ही मन घबराना परन्तु दूसरों के समक्ष कठोर बने रहना आपका स्वभाव है. बहुत अधिक क्रोध आने पर आप कभी कभी अपशब्द भी कह देते हैं परन्तु बाद में पछताते भी है. वृश्चिक लग्न के जातक स्वभाव से कर्मठ एवं साहसी होते हैं. बहुत तेज़ बुद्धि तथा दृढ इच्छाशक्ति के कारण जीवन में आई अनेक कठिनाइयों को आप चुप चाप धैर्य से पार कर लेते हैं तथा अपनी गति को बिना रोके मंजिल तक अवश्य पहुँचते हैं.
बिच्छु के समान अनेक नेत्रों से किसी भी वास्तु का बारीकी से अवलोकन करना आपकी विशेषता है. विषय की बारीकी को सहजता से पकड़ना और अपने लायक उसमे से ग्रहण करना आपका स्वभाव है. आप स्वभाव से तेज़ नित्य ही क्रियाशील एवं शीघ्र बदला लेने वाले होते हैं. सामने वाले की असावधानी से अपना फायदा उठाना कोई आपसे सीखे. आपका प्राम्भिक जीवन साधारण तथा अप्रभावशाली रहता है परन्तु जीवन के अंतिम दिनों में आप समाज में प्रभावशाली तथा सर्व प्रभुत्व संपन्न बन जाते हैं.
वृश्चिक लग्न के जातक क्रोध आने पर और कोई विपरीत बात सुनने पर सामने वाले को क्षमा नहीं करते है. आपके मन में क्रोध घर किये रहता है यद्यपि आप ऊपर से सामान्य दिखलाई पड़ते हैं परन्तु बदले की भावना आपके अन्दर भयानक रूप से रहती है. आप अपने शत्रु को क्रूरता और निर्दयता से हानि पहुंचाने में भी नहीं चूकते है. वृश्चिक लग्न के जातक कम भावुक होते हैं तथा अपने सारे सम्बन्ध और कार्य बुद्धि द्वारा ही संपन्न करते हैं.
धर्म के प्रति आपके मन में श्रद्धा रहेगी तथा समय समय पर धार्मिक स्थलों का भ्रमण आप अपने मन की शांति के लिए करेंगे. वृश्चिक लग्न के जातकों की आयु प्रायः कम होती है, कोई भी दुर्घटना या बदलते घटनाक्रम का शिकार आप शीघ्र ही हो जाते हैं. खाने में आपको खट्टा स्वाद बहुत पसंद इसलिए आपके भोजन में नींबू का प्रयोग अधिक होता है.
वृश्चिक लग्न के जातक का व्यक्तित्व व् विशेषताएँ। Vrishchik Lagn jatak – Scorpio Ascendent
राशि स्वामी मंगल पहले व् छठे भाव का स्वामी है और कालपुरुष कुंडली में वृश्चिक राशि को आठवां स्थान प्राप्त है जो जीवन में संघर्ष, शत्रुओं से आमना सामना दिखता है । राशि स्वामी मंगल है जो की देवताओं का सेनापति है तो ऐसे जातक मुश्किलों , शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । जल तत्व होने से ये जातक प्रायः शांत रहते है । जाती ब्राह्मण व्द ईष्ट देव गणेश होने से जातक नॉलेज सीकर होता है । वृश्चिक राशि का चिन्ह बिच्छू दर्शाता है की ऐसे तो ये जातक शांत रहते हैं लेकिन ज़रा सा खतरे का आभाव होने पर पूरी शक्ति से प्रहार करते हैं । बिच्छू ज़हरीला होता है, ऐसे ही वृश्चिक राशि के जातक भी मन में बात रखने वाले होते हैं और मौका आने पर अपना प्रभाव दिखाते हैं । ऐसे जातक अधिकतर पीछे से प्रहार करते हैं व् दुशमन को सँभालने का मौका नहीं देते हैं । कभी कभार तो इनके शत्रुओं को जानकारी भी नहीं मिल पाती की उनके साथ कौन शत्रुवत व्यहार कर रहा है ।
वृश्चिक लग्न के नक्षत्र Vrishchik Lagna Nakshatra :
वृश्चिक राशि भचक्र की आठवें स्थान पर आने वाली राशि है । राशि का विस्तार 210 अंश से 240 अंश तक फैला हुआ है । विशाखा नक्षत्र के चौथे चरण , अनुराधा नक्षत्र के चारों चरण , ज्येष्ठा नक्षत्र के चारों चरण के संयोग से वृश्चिक लग्न बनता है ।
लग्न स्वामी : मंगल
लग्न चिन्ह : बिच्छू
तत्व: जल
जाति: ब्राह्मण
स्वभाव : स्थिर
लिंग : पुरुष संज्ञक
अराध्य/इष्ट : हनुमानजी
Also Read: मीन लग्न कुंडली (Meen Lagna) – जानकारी, विशेषताएँ, शुभ -अशुभ ग्रह
वृश्चिक लग्न के लिए शुभ/कारक ग्रह – Ashubh Grah / Karak grah Vrishchik Lagn – Scorpio Ascendant
ध्यान देने योग्य है की यदि कुंडली के कारक गृह भी तीन, छह, आठ, बारहवे भाव या नीच राशि में स्थित हो जाएँ तो अशुभ हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में ये गृह अशुभ ग्रहों की तरह रिजल्ट देते हैं ।
मंगल :
लग्नेश होने से कुंडली का कारक गृह बनता है ।
गुरु :
द्वितीयेश , पह्मेश है , साथ ही लग्नेश मंगल का अति मित्र है । अतः वृश्चिक लग्न में गुरु एक कारक गृह होते हैं ।
चंद्र :
नवमेश होने से इस लग्न कुंडली में कारक गृह बनता है ।
सूर्य :
दशमेश होने से इस लग्न कुंडली में एक कारक गृह बनता है ।
शनि :
तृतीयेश , चतुर्थेश होने व् लग्नेश मंगल का अति शत्रु होने से इस लग्न कुंडली में सम ग्रह बने हैं ।
वृश्चिक लग्न के लिए अशुभ/मारक ग्रह – Ashubh Grah / Marak grah Vrishchik Lagn – Scorpio Ascendant
शुक्र :
सप्तमेश व् द्वादशेश है । अतः कुंडली का मारक गृह बनता है ।
बुद्ध :
इस लग्न कुंडली में बुद्ध अष्टमेश , एकादशेश होता है । अतः मारक बनता है ।
वृश्चिक लग्न के लिए शुभ रत्न । Auspicious Gemstones for Scorpio Ascendant
वृश्चिक लग्न कुंडली में लग्नेश मंगल, द्वितीयेश व् पंचमेश गुरु , नवमेश चंद्र व् दशमेश सूर्य के रत्न मूंगा , पुखराज , मोती व् माणिक धारण किया जा सकता है । साथ ही कुछ विशेष परिस्थितियों में तृतीयेश व् चतुर्थेश शनि का रत्न नीलम भी धारण किया जा सकता है । लेकिन नीलम धारण कब और कितने समय विशेष के लिए किया जायेगा इसकी जानकारी किसी योग्य ज्योतिषी से लेना न भूलें । अन्यथा लेने के देने पड़ सकते हैं , क्योंकि शनि सम गृह होने के साथ साथ लग्नेश मंगल का अति शत्रु भी है । किसी भी कारक या सम गृह के रत्न को भी धारण किया जा सकता है , लेकिन इसके लिए ये देखना अति आवश्यक है की गृह विशेष किस भाव में स्थित है । यदि वह गृह विशेष तीसरे, छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित है या नीच राशि में पड़ा हो तो ऐसे गृह सम्बन्धी रत्न कदापि धारण नहीं किया जा सकता है । कुछ लग्नो में सम गृह का रत्न कुछ समय विशेष के लिए धारण किया जाता है , फिर कार्य सिद्ध हो जाने पर निकल दिया जाता है । इसके लिए कुंडली का उचित निरिक्षण किया जाता है । उचित निरिक्षण या जानकारी के आभाव में पहने या पहनाये गए रत्न जातक के शरीर में ऐसे विकार पैदा कर सकते हैं जिनका पता लगाना डॉक्टर्स के लिए भी मुश्किल हो जाता है ।
वृश्चिक लग्न की कुंडली में मन का स्वामी चंद्र नवम् भाव का स्वामी होकर जातक धर्म, पुण्य, भाग्य, गुरू, ब्राह्मण, देवता, तीर्थ यात्रा, भक्ति, मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, तप, प्रवास, पिता का सुख, तीर्थयात्रा, दान, पीपल इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में चंद्रमा के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
सर्वत्र प्रकाश बिखरने वाला सूर्य दशम भाव का स्वामी होता है. यह जातक के राज्य, मान प्रतिष्ठा, कर्म, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, हवन, अनुष्ठान, ऐश्वर्य भोग, कीर्तिलाभ, नेतॄत्व, विदेश यात्रा, पैतॄक संपति इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में सूर्य के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
मंगल प्रथम और षष्ठ भाव का स्वामी होता है. लग्नेश होने के कारण रूप, चिन्ह, जाति, शरीर, आयु, सुख दुख, विवेक, मष्तिष्क, व्यक्ति का स्वभाव, आकॄति और संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है एवम षष्ठेश होने के कारण यह जातक के रोग, ऋण, शत्रु, अपमान, चिंता, शंका, पीडा, ननिहाल, असत्य भाषण, योगाभ्यास, जमींदारी वणिक वॄति, साहुकारी, वकालत, व्यसन, ज्ञान, कोई भी अच्छा बुरा व्यसन जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में मंगल के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
शुक्र सप्तम और द्वादश भाव का स्वामी होता है. सप्तमेश होने के नाते लक्ष्मी, स्त्री, कामवासना, मॄत्यु मैथुन, चोरी, झगडा अशांति, उपद्रव, जननेंद्रिय, व्यापार, अग्निकांड इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है एवम द्वादशेश होने के कारण यह निद्रा, यात्रा, हानि, दान, व्यय, दंड, मूर्छा, कुत्ता, मछली, मोक्ष, विदेश यात्रा, भोग ऐश्वर्य, लम्पटगिरी, परस्त्री गमन, व्यर्थ भ्रमण जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में शुक्र के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
बुध अष्टम भाव का स्वामी होकर यह जातक के व्याधि, जीवन, आयु, मॄत्यु का कारण, मानसिक चिंता, समुद्र यात्रा, नास्तिक विचार धारा, ससुराल, दुर्भाग्य, दरिद्रता, आलस्य, गुह्य स्थान, जेलयात्रा, अस्पताल, चीरफ़ाड आपरेशन, भूत प्रेत, जादू टोना, जीवन के भीषण दारूण दुख जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में बुध के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
बृहस्पति द्वितीय भाव का स्वामी होकर यह जातक कुल, आंख (दाहिनी), नाक, गला, कान, स्वर, हीरे मोती, रत्न आभूषण, सौंदर्य, गायन, संभाषण, कुटुंब इत्यादि का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में बॄहस्पति के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
शनि तृतीय और चतुर्थ भाव का स्वामी होता है. तॄतीयेश होने के नाते यह जातक के नौकर चाकर, सहोदर, प्राकर्म, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, क्रोध, भ्रम लेखन, कंप्य़ुटर, अकाऊंट्स, मोबाईल, पुरूषार्थ, साहस, शौर्य, खांसी, योग्याभ्यास, दासता इत्यादि विषयों का प्रनिधि होता है जबकि चतुर्थेश होने के कारण यह माता, भूमि भवन, वाहन, चतुष्पद, मित्र, साझेदारी, शांति, जल, जनता, स्थायी संपति, दया, परोपकार, कपट, छल, अंतकरण की स्थिति, जलीय पदार्थो का सेवन, संचित धन, झूंठा आरोप, अफ़वाह, प्रेम, प्रेम संबंध, प्रेम विवाह जैसे विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में शनि के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
राहु एकादश भाव का अधिपति होकर जातक के लोभ, लाभ, स्वार्थ, गुलामी, दासता, संतान हीनता, कन्या संतति, ताऊ, चाचा, भुवा, बडे भाई बहिन, भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, बेईमानी इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में राहु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
केतु पंचम भाव का स्वामी होकर जातक के बुद्धि, आत्मा, स्मरण शक्ति, विद्या ग्रहण करने की शक्ति, नीति, आत्मविश्वास, प्रबंध व्यवस्था, देव भक्ति, देश भक्ति, नौकरी का त्याग, धन मिलने के उपाय, अनायस धन प्राप्ति, जुआ, लाटरी, सट्टा, जठराग्नि, पुत्र संतान, मंत्र द्वारा पूजा, व्रत उपवास, हाथ का यश, कुक्षी, स्वाभिमान, अहंकार इत्यादि विषयों का प्रतिनिधि होता है. जातक की जन्मकुंडली या अपने दशाकाल में केतु के बलवान एवं शुभ प्रभाव में रहने से जातक को उपरोक्त विषयों में शुभ फ़ल प्राप्त होते हैं जबकि कमजोर एवम अशुभ प्रभाव में रहने से अशुभ फ़ल प्राप्त होते हैं.
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