सूर्य की महादशा में अन्य ग्रहो की अन्तर्दशा में क्या फ़ल है
【१】 सूर्य- यदि कुण्डली में सूर्य कारक हो, उच्च राशि का हो तथा पाप प्रभाव से रहित हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल देता है । जातक के धन-घान्य की वृद्धि होती है, उसे पदोन्नति का अवसर निर्माता है । राज्यस्तरीय सामान प्राप्त होता है, अपने समाज में मान-प्रतिष्ठा बढती है । जातक के सभी कार्य अनायास ही हो जाते हैं । अकारक एव पाप प्रभावी सूर्य की अन्तर्दशा में जातक के शरीर में गर्मी बढ जाती है, कोडा-मुरी, चकत्ते, खाज जैसे रोग उसे पीडित करते हैं। जातक के मन में अशान्ति उत्पन्न होती है तथा उसके चित को परिताप पहुंचता है । आय की अपेक्षा व्यय बढा-चढा रहता है, फलत: आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है। पदावनति, स्थानान्तरण, अधिकारियों से विरोध जैसी आपत्तियां जाती है तथा व्यर्थ भटकना पड़ता है ।
【२】चन्द्रमा- यदि कुण्डली में चन्द्रमा उच्च राशि का, स्वगृही, मित्रक्षेत्री, शुभ प्रभाव में होकर सूर्य का मित्र हो तथा सूर्य से केन्द्र, धन अथवा साय स्थान में स्थित हो तो शुभ फल प्रदान करता है । चन्द्रमा की शुभ दशा में जातक धन-घान्य में वृद्धि कर लेता है तथा नौकरी करता हो तो पदोन्नति होती है। उसे स्त्री एव सन्तति सुख मिलता है, विरोधी गुटों से सन्धि होती है । मित्र वर्ग, विशेषता स्त्री मित्रों से लाभ रहता है । ऐसे समय में जातक में भावावेग बढ़ जाता है क्या वह कल्पना में विवरण करता है तथा कविता, सिनेमा एव प्राकृतिक दृश्यों आदि का अवलोकन करने में विशेष रुचि लेता है। यदि चन्द्रमा क्षीणावस्था में, पाप प्रभाव से, सूर्य से छठे या आठवें स्थित हो तो अशुभ फल ही मिलते है। जातक में कामवासना बढ जाती है, प्रेम-प्रसंगों से अपयश मिलता है, धन हानि तथा लोगों में व्यर्थ की तकरार होती है । कई प्रकार के रोग जैसे जलोदर, आमातिसार, नजला, जुकाम आदि उसे घेर लेते है।
【३】मंगल- यदि कुण्डली में मंगल उच्च राशि का होकर शुभ प्रभाव में तथा दशानाथ से व शुभ लग्न से शुभस्थानगत हो तो जातक इसकी दशा में भूमि एव कृषि-कार्यों से लाभ प्राप्त कर लेता है । जातक को नवीन गृह की प्राप्ति होती है। यदि मंगल लाभ अथवा भाग्य भाव के अधिपति से युक्त हो तो जातक को विशेष रूप से वाहन, मकान एव धन का लाभ होता है। यदि जातक सेना में हो तो उसे उच्च पद प्राप्त होता है अथवा उसकी पदोन्नति होती है ।यदि मंगल अशुभ अवस्था में होकर त्रिक स्थान में स्थित हो तो जातक को सेना, पुलिस व चोर लुटेरों से भय रहता है, मित्रों-परिजनों से व्यर्थ के झगडे होते हैं, धन व भूमि का नाश तथा अर्श, रक्तपित्त, नेत्रपीड़ा, रक्तचाप एव मन्दाग्नि जैसे रोग हो जाते हैं । जातक का चित्त दुर्बल हो जाता है तथा विफलता एव घबराहट बढ़ जाती है ।
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【४】राहु- राहु चूँकि सूर्य का प्रबल शत्रु है, अत: सूर्य महादशा में राहु की अंतर्दशा कोई विशेष फल प्रदान नहीं कर पाती। यदि राहु शुभ ग्रह व राशि में होकर सूर्य से केन्द्र, द्वितीय अथवा एकादश भाव में हो तो दशा के प्रारम्भ में कुछ अशुभ फ़ल एव अन्त में कुछ अच्छे फल प्रदान करता है । जातक निरोग बना रहता है । भाग्य में अचानक वृद्धि, पुत्रोत्सव, घर में मंगल कार्य, प्रवास पर जाने से लाभ एव पदोन्नति क्या स्थानान्तरण जैसे माल देता है। यदि पाप प्रभाव में स्थित राहु सूर्य से त्रिक स्थान में गया हो तो जातक को राजकीय दण्ड की आशंका बनती है । आप्तजनों से पीड़ा, कारावास, अकाल मृत्यु, सर्पदंश का भय, धन, मन, भूमि और द्रव्य का नाश होता है इस दशाकाल में जातक सुख की एक सास तक नहीं ले पाता।
【५】बृहस्पति- सूर्य की महादशा में उच्च, स्वक्षेत्री, पित्रक्षेत्री या शुभ प्रभावी बृहस्पति की अंतर्दशा चले तो जातक को अनेक शुभ पाल मिलते है । जातक अविवाहित हो तो सर्वगुण सम्पन्न जीवन-साथी मिलता है, उच्च शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा में सफलता, धन व मान-सम्मान की प्राणि, राज्यकूपा, पदोन्नति, देवाराधन में रुचि, ब्राह्मण, अथिति, साधु-सन्यासी की सेवा करने की प्रवृत्ति बनती है । शत्रु परास्त होते हैं, परिवार में महोत्सव क्या आप्तजनों से लाभ रहता है।यदि बृहस्पति नीव का, पाप मध्यत्व मेँ, पापी ग्रहों से दृष्ट अथवा युक्त होकर सूर्य के त्रिक स्थान में स्थित हो तो अपनी अंतर्दशा में जातक को स्त्री व सन्तान-पीडा, देह-पीडा तथा मन में भय उत्पन्न करता है । जातक पाप कर्मो में लगा रह कर अपना सर्वनाश कर
लेता है क्या पित्तज्यर, पीलिया, कामला, अस्थि-पीडा और क्षयरोग से पीडित होता है ।
【६】शनि- राहु की भाँती शनि भी सूर्य का शत्रु ग्रह है। इस दशाकाल में जातक को बहुत कुछ राहु जैसे ही फल मिलते हैं, लेकिन जातक पापकर्मा नहीं बनता । शनि अपने अन्तर्दशा काल में जातक को स्वल्प यन-धान्य की प्राप्ति कराता है तथा उसके शत्रु नष्ट होते हैं । यदि शनि उच्च अथवा स्वक्षेत्री होकर केन्द्र, द्वितीय, तृतीय या जाय स्थान में हो तो जातक का कल्याण होता है, निम्न वर्ग के तीनों से उसे लाभ रहता है, न्यायालय में लम्बित केसों में उसे विजय निलती है, लेकिन यदि अशुभ शनि सूर्य से त्रिक स्थान में गया हो तो जातक की बुद्धि अमित हो जाती है, पिता-पुत्र में वैमनस्य बढ़ जाता है, शत्रुओ की प्रबलता के कारण चित्त को परिताप पहुंचला है, अधिकार हानि व पदावनति होकर कवि-व्यवसाय चौपट हो जाता है । वृत्ति का हास एवं शारीरिक-शक्ति क्षीण हो जाती है, आत्मघात करने की इच्छा होती है, जन्मस्थान को त्यागना पड़ता
वायुरोग प्रबल हो जाते हैं, जेसे स्वास, अफारा, दांत व कान में पीडा, दाद, छाजन आदि रोग पीडित करते हैं
【७】बुध- बुध एक ऐसा ग्रह है जो सूर्य के साथ रहकर भी अस्त फल नहीं देता । यदि बुध परमोच्च, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री, शुभ ग्रहों से प्रभावित और सूर्य से न्निक स्थान में न हो तो जातक राश्यकूपा पा जाता है। उसे स्वी-पुत्रादि का पूर्ण सुख मिलता है तथा वाहन व वस्वाभूषणों की प्राप्ति होती है। यदि बुध भाग्य स्थान में भाग्येश से 'युक्त हो तो जातक की भाग्यवृद्धि करता है, यदि लाभ स्थान में हो तो व्यवसाय में प्रबल वृद्धि होकर धनार्जन होता है । यदि कर्म स्थान में कर्मेश से युक्त हो तो सत्कर्पो में रुचि, मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि व पदोन्नति होती है । जातक संपूर्ण सुख पा लेता है। अशुभ बुध छठे या जाओं स्थित हो तो जातक मन से अज्ञान रहता है, प्रवास अधिक करने होते हैं तथा धन-हानि होती है और स्वास्थ्य क्षीणा हो जाता है । कार्य-व्यवसाय ठप्प हो जाता है, इष्ट-मित्रों से सन्ताप पहुंचता है । जातक को विशु, चर्प रोग, दाद, खुजली, फीड़ा-फुन्सी जूती-ताप, स्नायुदोबंल्य, जिगर-तिल्ली या अजीर्ण आदि जैसे रोग घेर लेते है तथा जातक अपने धन का एक बड़। भाग दवा-दारू पर व्यय करने को बाध्य हो जाता है।
【८】 केतु- यदि सूर्य महादशा में केतु की अंतर्दशा चल रही हो तो थोडे शुभ फलों को भी जातक भूल जाता है, क्योंकि प्राय इस दशा में अशुभ फल ही अधिक मिलते है । देह-पीडा व स्वजनों से विछोह हो जाता है । शत्रु वर्ग प्रबल हो जाता है, पदावनति होती है, स्थानान्तरण ऐसी जगह होता है जहां जातक कष्ट ही कष्ट झेलता है । दशा के प्रारम्भ काल में थोडे शुभ फल निलते हैं, अल्प धन की प्राप्ति, देह-सुख एव स्त्री-सुख मिलता है, शुभ कर्मों में भी रुचि रहती है, लेकिन सूर्य से त्रिक स्थान में स्थित केतु की दशा में धन व स्वास्थ्य की हानि होती है, मनस्ताप मिलता है, परिजनों से झगडे होते हैं, दुष्ट संगति में रहने से राज्यदण्ड मिलता है, दुर्घटना में हड्डी टूटने का भय बढ जाता है तथा पदावनति होती है।
【९】शुक्र-- यदि शुक्र उच्च राशि, स्वराशि व नित्य राशि का हो तथा शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट हो तथा सूर्य से दुस्थान में स्थित न हो तो सूर्य महादशा में शुक्र की अंतर्दशा अतीव शुभ फलों के देने वाली होती है । विवाहोत्सव, पुत्रोत्सव आदि अनेक मंगल कार्य स्थान होते है । राज्य सरीखे वैभव की प्राप्ति होती है । पशुधन, रत्न, आमूषण,मिष्ठान्न भोजन एव विविध वस्त्रालंकार मिलते है । नौकर-चाकर, वाहन व मकान का पूर्ण सुख मिलता है तथा मान-सन्मान में वृद्धि होती है। यदि शुक्र नीच राशि का व पाप प्रभावी होकर सूर्य से त्रिक स्थान से हो तो मानसिक कलह, पत्नी-सुख में कमी, सन्तति-कष्ट व विवाह में अवरोध उत्पन्न होते हैं, स्वजनों से वैमनस्य बढ़ता हे, शिरोवेदना, ज्वरातिसार, शूल, प्रमेह, स्वप्नदोष व शुक्रदोष जैसी व्याधिया होती हैं ।
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