रावण द्वारा रामेश्वरम् की स्थापना
रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी| बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की ‘इरामावतारम्’ में यह कथा है|
भगवान श्री राम ने रामेश्वरम में जब शिवलिंग की स्थापना की तब आचार्यत्व के लिए रावण को निमंत्रित किया था| रावण ने उस निमंत्रण को स्वीकार किया और उस अनुष्ठान का आचार्य बना| रावण त्रिकालज्ञ था, उसे पता था कि उसकी मृत्यु सिर्फ श्रीराम के हाथों लिखी है| वह कुछ भी दक्षिणा माँग सकता था|
रावण केवल शिव भक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था उसे भविष्य का पता था, वह जानता था कि राम से जीत पाना उसके लिए असंभव था, जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया, जामवन्त जी दीर्घाकार थे ।
आकार में वे कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे । इस बार राम ने बुद्ध-प्रबुद्ध, भयानक और वृहद आकार जामवन्त को भेजा है । पहले हनुमान, फिर अंगद और अब जामवन्त । यह भयानक समाचार विद्युत वेग की भाँति पूरे नगर में फैल गया । इस घबराहट से सबके हृदय की धड़कनें लगभग बैठ सी गई । निश्चित रूप से जामवन्त देखने में हनुमान और अंगद से अधिक ही भयावह थे । सागर सेतु लंका मार्ग प्रायः सुनसान मिला । कहीं-कहीं कोई मिले भी तो वे डर के बिना पूछे राजपथ की ओर संकेत कर देते थे। बोलने का किसी में साहस नहीं था । प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे । इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा ।
यह समाचार द्वारपाल ने लगभग दौड़कर रावण तक पहुँचाया । स्वयं रावण उन्हें राजद्वार तक लेने आए । रावण को अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ । मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ । उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है । रावण ने सविनय कहा – आप हमारे पितामह के भाई हैं । इस नाते आप हमारे पूज्य हैं । आप कृपया आसन ग्रहण करें । यदि आप मेंरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा । जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की । उन्होंने आसन ग्रहण किया । रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया । तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने तुम्हें प्रणाम कहा है । वे सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं । इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्ठा प्रकट की है । मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ ।
प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जारहा है ? बिल्कुल ठीक । श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है ।
प्रहस्त आँख तरेरते हुए गुर्राया – अत्यंत धृष्टता, नितांत निर्लज्जता । लंकेश्वर ऐसा प्रस्ताव कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे ।
मातुल ! तुम्हें किसने मध्यस्थताकरने को कहा ? लंकेश ने कठोर स्वर में फटकार दिया । जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है । क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दिया । लेकिन हाँ । यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़ा आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी है भी अथवा नहीं ।
जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं । यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ? जामवंत खुलकर हँसे । मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझ किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता । ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहेहैं । जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं । उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त ! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा । इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें ।
उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए । प्रहस्थ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया । लंकेश तक काँप उठे । पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते । अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो । जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते । उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं । रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें । यजमान उचित अधिकारी है । उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है । राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।
जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए । अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है । यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है । तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं । विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना । ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी । अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना । स्वामी का आचार्य अर्थात् स्वयं का आचार्य । यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया । स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया ।
सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा । आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचा । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे । सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण को भी उसने उपेक्षा कर दी । जैसे वे वहाँ हों ही नहीं ।
भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें । श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं । अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं । यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था । इन सबके अतिरिक्त तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है । इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ? कोई उपाय आचार्य ? आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं । स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं । श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया ।
श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे । अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान । आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया । गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं । अभी तक लौटे नहीं हैं । आते ही होंगे । आचार्य ने आदेश दे दिया विलम्ब नहीं किया जा सकता । उत्तम मुहूर्त उपस्थित है । इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालुका-लिंग-विग्रह स्वयं बना ले । जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित की । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया । श्रीसीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया । आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया ।
अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की……राम ने पूछा आपकी दक्षिणा? पुनः एक बार सभी को चौंकाया आचार्य के शब्दों ने । घबराओ नहीं यजमान । स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती । आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य कि जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है ।
आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे । आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी । ऐसा ही होगा आचार्य । यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी । “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर सभी ने उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए । सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
वो 06 श्राप जो रावण के विनाश का कारण बने
रावण के बारे में कौन नहीं जनता। उसकी वीरता सर्व-विख्यात थी। उसे सप्तसिंघुपति कहा जाता था क्यूंकि उसने सातों महाद्वीपों पर विजय पायी यही। उसे परमपिता ब्रम्हा का वरदान प्राप्त था और उसपर महारुद्र की विशेष कृपा थी। यही कारण था कि उससे युद्ध करने का कोई साहस नहीं करता था। यही नहीं, उसने समस्त देवताओं पर विजय पायी थी और नवग्रह उसके वश में थे। सभी गृह उसकी इच्छा से चलते थे इसीलिए वो अपनी मृत्यु का योग बदल सकता था। शनि को उसने अपने दरबार में अपने पैरों के नीचे रखता था। इतने प्रतापी और वीर असुर की मृत्यु अवश्य ही अत्यंत कठिन थी इसी कारण प्रकृति ने उसके लिए कोई और उपाय सोचा। रावण को अपने जीवन में कई ऐसे श्राप मिले जो आगे चलकर उसकी मृत्यु का कारण बनें, किन्तु ६ श्रापों का विशेष रूप से जिक्र है:
इक्षवाकु कुल में एक श्रीराम के एक पूर्वज अनरण्य हुए। उस समय रावण युवा था और विश्व विजय के अभियान पर निकला था। उसी दौरान उसका सामना अनरण्य से हुआ। उन्होंने रावण को रोकने की बड़ी कोशिश की किन्तु अंततः रावण से पराजित हुए। रावण ने उनका वध कर दिया किन्तु मरते-मरते उन्होंने रावण को श्राप दिया कि उनके ही वंश में जन्मा एक व्यक्ति उसका वध करेगा। उनका श्राप सत्य हुआ और आगे चल कर श्रीराम ने रावण का वध किया।
एक बार रावण महादेव से मिलने कैलाश गया। उस समय महादेव समाधि में लीन थे इसीलिए नंदी ने रावण को आगे जाने से रोक दिया। इसपर उसने नंदी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें वानर के समान मुख वाला कहा। तब नंदी ने रावण को श्राप दिया कि वानरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा। आगे चलकर सुग्रीव की वानर सेना ने श्रीराम की सहायता की जिससे रावण का सर्वनाश हुआ।
वैजयंतपुर के सम्राट दैत्यराज शंभर माया के पति थे। माया मय दानव की पुत्री और रावण की पत्नी मंदोदरी की बड़ी बहन थी। एक बार रावण वैजयंतपुर दैत्यराज शंभर के यहां गया। वहाँ वो माया के रूप पर मोहित हो गया और माया भी रावण के रूप पर मोहित हो गयी और दोनों के बीच सम्बन्ध बन गए। जब शंभर को इसकी सूचना मिली तो उसने रावण को को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया और उस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे रोकना चाहा पर माया ने उसे श्राप दिया कि तुमने वासनायुक्त मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई। अत: तुम भी स्त्री की वासना के कारण मारे जाओगे।
एक बार भ्रमण करते हुए रावण की दृष्टि वेदवती नाम की एक स्त्री पर पड़ी जो भगवान विष्णु को पति के रूप में पाने के लिए तप कर रही थी। रावण ने उससे प्रणय याचना की किन्तु वेदवती ने खुले तौर पर मना कर दिया। इसपर रावण ने उसके केश पकडे और घसीटे हुए बलपूर्वक अपने साथ ले जाने लगा। इसपर उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी। कहा जाता है वेदवती ही अगले जन्म में सीता के रूप में जन्मी थी जिस कारण रावण का सर्वनाश हुआ।
रावण ने इंद्र पर आक्रमण किया और स्वर्गलोक पहुँचा। वहाँ उसे रम्भा नमक अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया। तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें क्यूँकि मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं अतः मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं किन्तु रावण नहीं माना और उसने रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसको स्पर्श करेगा तो रावण का मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएंगे। यही कारण था कि सीता का अपहरण करने के बाद भी रावण ने उसे स्पर्श नहीं किया।
रावण की बहन सूर्पनखा ने रावण की इच्छा के विरूद्ध एक दैत्य विद्युत्जिह्व से विवाह कर लिया। वो कालकेय दैत्यों का सम्राट था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ और उस युद्ध में रावण ने विद्युत्जिह्व का वध कर दिया। जब सूर्पनखा उसके साथ सती होने तो रावण ने उसे रोक दिया और बलपूर्वक लंका ले आया। बाद में उसे समझा-बुझा कर खर-दूषण के साथ दंडकारण्य का राज्य दे दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा। कहा जाता है कि सूर्पनखा दंडकारण्य में जान-बूझ कर राम-लक्षमण से उलझी ताकि रावण का सर्वनाश हो सके।
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