27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये 9 अशुभ योग हैं- विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिध और वैधृति। शुभ योग में योगानुसार शुभ या मंगल कार्य कर सकते हैं।
27 योग :- सूर्य-चन्द्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। योग 27 प्रकार के होते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- 1.विष्कुम्भ, 2.प्रीति, 3.आयुष्मान, 4.सौभाग्य, 5.शोभन, 6.अतिगण्ड, 7.सुकर्मा, 8.धृति, 9.शूल, 10.गण्ड, 11.वृद्धि, 12.ध्रुव, 13.व्याघात, 14.हर्षण, 15.वज्र, 16.सिद्धि, 17.व्यतिपात, 18.वरीयान, 19.परिध, 20.शिव, 21.सिद्ध, 22.साध्य, 23.शुभ, 24.शुक्ल, 25.ब्रह्म, 26.इन्द्र और 27.वैधृति।
अशुभ योग:-
1.विष्कुम्भ योग : इस योग को विष से भरा हुआ घड़ा माना जाता है इसीलिए इसका नाम विष्कुम्भ योग है। जिस प्रकार विष पान करने पर सारे शरीर में धीरे-धीरे विष भर जाता है वैसे ही इस योग में किया गया कोई भी कार्य विष के समान होता है अर्थात इस योग में किए गए कार्य का फल अशुभ ही होते हैं।
2.अतिगण्ड : इस योग को बड़ा दुखद माना गया है। इस योग में किए गए कार्य दुखदायक होते हैं। इस योग में किए गए कार्य से धोखा, निराशा और अवसाद का ही जन्म होता है। अत: इस योग में कोई भी शुभ या मंगल कार्य नहीं करना चाहिए और ना ही कोई नया कार्य आरंभ करना चाहिए।
3.शूल योग : शूल एक प्रकार का अस्त्र है और इसके चूभने से बहुत बहुत भारी पीड़ा होती है। जैसे नुकीला कांटा चूभ जाए। इस योग में किए गए कार्य से हर जगह दुख ही दुख मिलते हैं। वैसे तो इस योग में कोई काम कभी पूरा होता ही नहीं परंतु यदि अनेक कष्ट सहने पर पूरा हो भी जाए तो शूल की तरह हृदय में एक चुभन सी पैदा करता रहता है। अत: इस योग में कोई भी कार्य न करें अन्यथा आप जिंदगी भर पछताते रहेंगे।
4.गण्ड : इस योग में किए गए हर कार्य में अड़चनें ही पैदा होगी और वह कार्य कभी भी सफल नहीं होगा ना ही कोई मामला कभी हल होगा। मामला उलझता ही जाएगा। इस योग किया गया कार्य इस तरह उलझता है कि व्यक्ति सुलझाते सुलझाते थक जाता है लेकिन कभी वह मामला सही नहीं हो पाता। इसलिए कोई भी नया काम शुरू करने से पहले गण्ड योग का ध्यान अवश्य करना चाहिए।
5.व्याघात योग : किसी प्रकार का होने वाला आघात या लगने वाला धक्का। यदि इस योग में कोई कार्य किया गया तो बाधाएं तो आएगी ही साथ ही व्यक्ति को आघात भी सहन करना होगा। यदि व्यक्ति इस योग में किसी का भला करने जाए तो भी उसका नुकसान होगा। इस योग में यदि किसी कारण कोई गलती हो भी जाए तो भी उसके भाई-बंधु उसका साथ सोचकर छोड़ देते हैं कि उसने यह जानबूझ कर ऐसा किया है।
6.वज्र योग : वज्र का अर्थ होता है कठोर। इस योग में वाहन आदि नहीं खरीदे जाते हैं अन्यथा उससे हानि या दुर्घटना हो सकती है। इस योग में सोना खरीदने पर चोरी हो जाता है और यदि कपड़ा खरीदा जाए तो वह जल्द ही फट जाता है या खराब निकलता है।
7.व्यतिपात योग : इस योग में किए जाने वाले कार्य से हानि ही हानि होती है। अकारण ही इस योग में किए गए कार्य से भारी नुकसान उठाना पड़ता है। किसी का भला करने पर भी आपका या उसका बुरा ही होगा।
8.परिध योग : इस योग में शत्रु के विरूद्ध किए गए कार्य में सफलता मिलती है अर्थात शत्रु पर विजय अवश्य मिलती है।
9.वैधृति योग : यह योग स्थिर कार्यों हेतु ठीक है परंतु यदि कोई भाग-दौड़ वाला कार्य अथवा यात्रा आदि करनी हो तो इस योग में नहीं करनी चाहिए।
योग का निर्माण सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार होता है।
फलित कथन में अनेक प्रकार की समस्याओं के निवारण हेतु लघु रूप में गहन विषयों को स्पष्टता प्रदान करने के लिए महान व्यक्तियों ने मुहूर्त मार्तंड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त चूड़ामणि, मुहूर्त माला, मुहूर्त गणपति, मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त सिंधु, मुहूर्त प्रकाश, मुहूर्त दीपक इत्यादि महान ग्रंथों की रचना की है जिनके द्वारा मुहूर्त संबंधित किसी भी जानकारी को प्राप्त किया जा सकता।
दिनस्य यः पञ्चदशो विभागो रात्रेस्तथा तद्धि मुहूर्तमानं।
नक्षत्र नाथ प्रमिते मुहूर्ते, मौहूर्तिकारस्तत्समकर्ममाहु: ।। - श्रीपति
एक मुहूर्त लगभग दो घटी अर्थात 48 मिनट का होता है। यह तब होता है जब दिन और रात दोनों बराबर होते हैं अर्थात 30 घटी (12 घंटे) का दिन और 30 घटी (12 घंटे) की रात्रि। इस प्रकार दिन में लगभग 15 मुहूर्त और रात्रि में भी 15 मुहूर्त होते हैं। यहां दिन की अवधि को दिन मान के द्वारा तथा रात्रि की अवधि को रात्रिमान के अनुसार ज्ञात किया जाता है। जब दिन और रात का अंतर अलग-अलग होता है अर्थात ये बराबर नहीं होते तब मुहूर्त की अवधि कम अथवा ज्यादा होती है क्योंकि तब दिनमान और रात्रि मान में अंतर आ जाता है।
किसी भी मुहूर्त की गणना के लिए हमें पंचांग की आवश्यकता होती है। पंचांग अर्थात जिसके पांच अंग हैं। पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण आते हैं। इन्हीं के आधार पर शुभ समय की गणना की जाती है।
फलित कथन में अनेक प्रकार की समस्याओं के निवारण हेतु लघु रूप में गहन विषयों को स्पष्टता प्रदान करने के लिए महान व्यक्तियों ने मुहूर्त मार्तंड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त चूड़ामणि, मुहूर्त माला, मुहूर्त गणपति, मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त सिंधु, मुहूर्त प्रकाश, मुहूर्त दीपक इत्यादि महान ग्रंथों की रचना की है जिनके द्वारा मुहूर्त संबंधित किसी भी जानकारी को प्राप्त किया जा सकता।
दिनस्य यः पञ्चदशो विभागो रात्रेस्तथा तद्धि मुहूर्तमानं।
नक्षत्र नाथ प्रमिते मुहूर्ते, मौहूर्तिकारस्तत्समकर्ममाहु: ।। - श्रीपति
एक मुहूर्त लगभग दो घटी अर्थात 48 मिनट का होता है। यह तब होता है जब दिन और रात दोनों बराबर होते हैं अर्थात 30 घटी (12 घंटे) का दिन और 30 घटी (12 घंटे) की रात्रि। इस प्रकार दिन में लगभग 15 मुहूर्त और रात्रि में भी 15 मुहूर्त होते हैं। यहां दिन की अवधि को दिन मान के द्वारा तथा रात्रि की अवधि को रात्रिमान के अनुसार ज्ञात किया जाता है। जब दिन और रात का अंतर अलग-अलग होता है अर्थात ये बराबर नहीं होते तब मुहूर्त की अवधि कम अथवा ज्यादा होती है क्योंकि तब दिनमान और रात्रि मान में अंतर आ जाता है।
यदि अनिष्ट ग्रह की महादशा चल रही हो, किंतु गोचरीय ग्रह शुभ हों तो ऐसा व्यक्ति किसी कार्य हेतु प्रशस्त शुभ मुहूर्त में यदि किसी कार्य का प्रारंभ करता है, तो उसे सफलता मिलती है। अतः शुभ मुहूर्त कार्य साधक होता है।
विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न ग्रहों का बलाबल देखें
उद्वाहे चोत्सवे जीवः, सूर्य भूपाल दर्शने। संग्रामे धरणीपुत्रो, विद्याभ्यासे बुधो बली।। यात्रायां भार्गवः प्राक्तो दीक्षायां शनैश्चरः। चन्द्रमा सर्व कार्येषु प्रशस्ते ग्रह्यते बुधै।।
अतः बुद्धिमान व्यक्ति को विवाह, सामाजिक-धार्मिक उत्सव गुरु के बलवान और शुभ गोचर में करना चाहिए।
सूर्य के बली होने पर राजदर्शन (नेताओं, मंत्रियों, अधिकारियों से मुलाकात करना) चाहिए,
मंगल के बली होने पर लड़ाई-झगड़ा, आक्रमण, मुकदमा दायर करना, वाद-विवाद करना, एथलेटिक्स, हाॅकी, क्रिकेट आदि खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेना चाहिए।
शिक्षा का प्रारंभ, विद्याध्ययन और शास्त्रार्थ बुध के बली होने पर करना चाहिए।
शुक्र की शुभता में यात्रा -गमन और
शनि की शुभता में मंत्र दीक्षा ग्रहण करना चाहिए तथा
इनके अतिरिक्त समस्त कार्यों का प्रारंभ चंद्रमा के शुभ गोचर और बलवान होने पर करना प्रशस्त है।
गोचरीय ग्रहों का बलाबल जन्मस्थ चंद्र राशि से विचारना चाहिए। उपरोक्त श्लोक में
‘चंद्रमा सर्व कार्येषु-प्रशस्ते’ इसलिए कहा गया है। क्योंकि मुहूर्त में चंद्रमा का फल सौ गुना होता है, इसलिए चंद्रमा का बलाबल अवश्य देखना चाहिए, क्योंकि अन्य ग्रह भी चंद्रमा के बलाबल के अनुसार ही शुभ या अशुभ फल देते हैं। अतः चंद्रमा की शुभता के बिना अन्य ग्रह शुभ फल नहीं देते हैं। (अथर्ववेदीय ज्योतिषम्- 92/22)
मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार- शुक्ल पक्ष में यदि चंद्रमा शुभ है तो सूर्य भी शुभ होता है। सूर्य के शुभ होने पर नेष्ट मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ग्रह भी शुभ होते हैं।
चंद्र बल तृतीयो दशमः षष्ठः प्रथमः सप्तमः शशी। शुक्लपक्षे द्वितीयस्तु पंचमो नवमः शुभ।।
जन्म राशि से (शुक्लपक्ष में) चंद्रमा का गोचर 1, 2, 3, 5, 6, 7, 9, 10 और ग्यारहवें स्थान में शुभ होता है।
इनके अतिरिक्त शेष भावों (4, 8, 12वें स्थान) का चंद्रमा अशुभ होता है। इसलिए शुभ मुहूर्त में 4, 8, 12 वां चंद्र त्याज्य है।
कतिपय आचार्य जन्म राशिस्थ गोचरीय चंद्रमा को यात्रा मुहूर्त में अशुभ मानते हैं। गुरु द्वारा दृष्ट चंद्रमा को शुभ बल प्राप्त होता है। सूर्यादि ग्रहों का बलाबल: सभी ग्रह 4, 8, 12वें भाव में अशुभ फल देते हैं। अतः मुहूर्त में जन्म राशि से चैथे, आठवें या बारहवें भाव में यदि सूर्य आदि ग्रहों का गोचर हो तो उस मुहूर्त का त्याग करना चाहिए। सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु जन्म राशि से 3, 6, 11वें भाव में शुभ होते हैं। किंतु शत्रु ग्रहों द्वारा वेधित होने पर अशुभ होते हैं। दशवें भाव का सूर्य चतुर्थस्थ ग्रह से वेधित होता है। पिता पुत्र का वेध नहीं होता इसलिए सूर्य शनि से वेधित नहीं होता है। प्रत्येक ग्रह उच्च, मूल त्रिकोण और स्वराशि में बलवान होता है तथा नीच और शत्रु राशि में निर्बल होता है। मेष राशि का सूर्य, कर्क और धनु राशि का गुरु 4, 8, 12वां भी शुभ मान्य है। देवर्षि नारद के अनुसार- ”शुक्ले चंद्रबलं ग्राह्यं कृष्णे ताराबलं तथा“ अर्थात् शुभ मुहूर्त हेतु शुक्ल पक्ष में चंद्रमा बलवान होना आवश्यक है और कृष्ण पक्ष में ताराबल देखना चाहिए। मुहूर्त में ताराबल का महत्व: मुहूर्त के अधिकांश ग्रंथों में शुक्ल पक्ष को ही शुभ मुहूर्त के लिए ग्राह्य माना है। किंतु अथर्ववेद ज्योतिष में कृष्ण पक्ष को भी शुभ मुहूर्त हेतु ग्रहण किया गया है। उसमें लिखा है ‘ताराषष्टि समन्विता’ अर्थात् मुहूर्त में तारा का 60 गुना बल होता है। प्रजापति ब्रह्मा जी के अनुसार पति के विदेश चले जाने या उसके बीमार हो जाने पर स्त्री घर की अधिकारी होती है। अर्थात् कृष्ण पक्ष में तारा की प्रधानता होने के कारण तारा बल देखना उचित है। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार, कृष्ण पक्ष में तारा के बलवान (शुभ) होने पर चंद्रमा भी शुभ होता है और तारा नेष्ट होने पर चंद्रमा नेष्ट होता है। महर्षि भृगु का मत है- प्रत्येक नक्षत्र का शुभ और अशुभ फल जानकर कार्य करने से लाभ होता है। अतः जो अपनी उन्नति चाहे उन्हें उचित है कि वे स्वयं को समृद्ध बनाने वाले नक्षत्रों का ज्ञान अवश्य कर लें। तारा साधन: अपने जन्म नक्षत्र से सीधे क्रम में अभिष्ट नक्षत्र तक गिने (जिस दिन शुभ कार्य प्रारंभ करना हो उस दिन का चंद्र नक्षत्र अभिष्ट नक्षत्र कहा गया है।) प्रथम नक्षत्र (जन्म नक्षत्र) से नवें नक्षत्र तक सम्पत आदि तारा होती है। यदि नक्षत्र 9 संख्या से अधिक हो तो उसमें 9 का भाग देने पर जो शेष अंक प्राप्त हो उसी शेषांक के तुल्य तारा होती है। इस प्रकार तीन-तीन नक्षत्रों के नौ वर्ग बनते हैं। जिनके नाम क्रमशः जन्म, सम्पत, विपत, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मैत्र, अति मैत्र संज्ञक होते हैं। विवाह नक्षत्र गुण मेलापक में वर से कन्या की और कन्या से वर की प्रथम तारा (जन्म तारा) शुभ मानी जाती है तथा इसके तीन गुण (अंक) दिये जाते हैं किंतु हमारे मत से यह उचित नहीं है। विवाह आदि शुभ कार्यों में त्याज्य दोष: अमावस्या, रिक्ता तिथि (4, 9, 14) वारवेला, जन्म नक्षत्र, क्रूर वार (रवि, मंगल, शनि) तथा गंडान्त लग्न, तिथि और नक्षत्र शुभ कार्यों में यत्नपूर्वक त्याज्य करने चाहिए तथा इसके अलावा भद्रा, क्रकच योग, तिथियान्त की दो घटी, यमघंटक योग, दग्धा तिथि, नक्षत्रान्त की तीन घटी और कुलिक योग विवाहादि शुभ कार्यों में त्याज्य है। इनके अतिरिक्त और भी बहुत सारे दोष है, जिनका मुहूर्त शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। यदि समस्त दोषों का विचार किया जाये तो हमें ऐसा मुहूर्त ढूढना मुश्किल होगा, जिस मुहूर्त में कोई दोष न हो। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन कोई न कोई दोष अवश्य आता है। ऐसी स्थिति में दोष समूहों का नाश करने वाले अर्थात् कुयोगों का परिहार करने वाले, मुहूर्त सिद्धि प्रदायक योगों पर ध्यान देना आवश्यक है तभी आप किसी व्यक्ति को शुभ मुहूर्त बता पाएंगे अन्यथा नहीं। दोष संघ नाशक रवियोग: भद्रा, व्यतिपात, वैधृति, जन्म नक्षत्र आदि विविध दोष दोपहर बाद सूर्योदय से 12 घटी उपरांत न्यून रह जाते हैं। इस प्रकार शुभ चंद्र बल भी क्रकच योग, मृत्यु योग, दग्धा तिथि, रिक्ता तिथि आदि यात्रा दोषों को स्वतः ही दूर कर देता है। ‘सूर्यभात् चन्द्रक्र्षे रवियोगाः स्युर्दोषसङ्घविनाशकाः।’ सूर्य-चंद्र जनित नक्षत्र दिवस को (रवियोग को) शास्त्रकारों ने दोषसंघ नाशक माना है। यह मुहूर्त शोधन में अति उपयोगी सिद्ध होता है। रवियोग ज्ञात करने की विधि इस प्रकार है- गोचरीय सूर्य जिस नक्षत्र में हो उस नक्षत्र से (अभिष्ट दिन) 4, 6, 9, 10, 13 या 20वें नक्षत्र पर चंद्रमा का गोचर होने से कुयोग नाशक रवियोग होता है। रवियोग की अवधि चंद्रमा के नक्षत्र भोगकाल के समान होती है, चंद्र राशि के समान नहीं। निर्णय सागर आदि पंचांगों में रवि योग दिये रहते हैं। सफलतादायक सर्वार्थसिद्धि योग: वार एवं विशेष नक्षत्रों के योग से सर्वार्थसिद्धि योग बनते हैं। सर्वार्थसिद्धि योग में प्रायः समस्त शुभ कार्यों की सिद्ध होती है। हस्तादित्य, चंद्रमृग भौमश्विनी, बुध-अनुराधा, गुरु-पुष्य, शुक्र-रेवती, शनि-रोहिणी योग बहुत शक्तिशाली और शुभ होते हैं, इन्हें अमृतसिद्धि योग कहते हैं। सर्वार्थ और अमृत सिद्धि ये दोनों ही योग, दोष नाशक और शुद्धि प्रदायक है। सर्वार्थसिद्धि योग तालिका रविवार-अश्विनी, पुष्य, तीनों उत्तरा, हस्त, मूल सोमवार- रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, श्रवण मंगलवार- अश्विनी, कृतिका, आश्लेषा, उत्तराभाद्रपद बुधवार-कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा गुरुवार - अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, रेवती शुक्रवार- अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, रेवती शनिवार - रोहिणी, स्वाति, श्रवण। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार गुरु-पुष्य में विवाह, शनि-रोहिणी में यात्रा और मंगल-अश्विनी सिद्धि योग में गृह प्रवेश वर्जित है। पुष्यसिद्धयन्तिसर्वाणि: जिस प्रकार सभी चैपायों में सिंह बलवान होता है, उसी प्रकार नक्षत्रों में पुष्य नक्षत्र बलवान है। तारा या चंद्र अशुभ होने पर भी पुष्य नक्षत्र में किये गये कार्य सफल होते हैं। जन्म तारा अशुभ होती है- शीघ्रबोध के लेखक पं. काशीनाथ भट्टाचार्य आदि ज्योतिषियों के अनुसार जन्म तारा (1) शुभ होती है। जबकि अथर्ववेदिय ज्योतिषम् के अनुसार यह अशुभ होती है। ‘ताराः शुभप्रदाः सर्वास्त्रिपंचसप्तवर्जिताः।’ अर्थात् 3, 5, 7वीं तारा अशुभ होने के कारण त्याज्य हैं। इनके अतिरिक्त सभी तारायें शुभ होती हैं। (शीघ्रबोध - 2/200) नव नक्षत्रके वर्गे प्रथम तृतीयं तु वर्जयेत्। पंचमं सप्तमं चैव शेषैः कार्याणि कारयेत्।। (अ.ज्यो-110/10) नीचे कहे गये नक्षत्रों के नौ वर्गों में से प्रथम, तृतीय, पंचम एवं सप्तम वर्ग के नक्षत्रों को छोड़कर शेष वर्गों के नक्षत्रों में शुभ कार्य प्रारंभ करना चाहिए। इस श्लोक प्रथम तारा को भी शुभ कार्य में वर्जित किया गया है। शुभाशुभ तारा बोधक चक्र जन्म नक्षत्र से नक्षत्र वर्ग तारा संज्ञा तारा फल अभिष्ट नक्षत्र (शेषांक) 1, 10, 19 1 जन्म अशुभ 2, 11, 20 2 सम्पत शुभ 3, 12, 21 3 विपत अशुभ 4, 13, 22 4 क्षेम शुभ 5,14,23 5 प्रत्यरि अशुभ 6,15,24 6 साधक शुभ 7,16,25 7 वध अशुभ 8,17,26 8 मैत्र शुभ 9,18,27 9 अतिमैत्र शुभ पापैर्विद्धेयुते हीने चन्द्रतारा बलेऽपि च। पुष्यसिद्धयन्ति सर्वाणि कर्माणि मंगलानी च।। यदि चंद्रमा और तारा बलहीन हो या पापयुक्त/पापविद्ध हो तब भी पुष्य नक्षत्र में किए गए समस्त मांगलिक कार्य सफल होते हैं। एक स्थान पर कहा गया है-‘पुष्यस्त्वंसर्वधिष्णायानम्।’ अर्थात पुष्य के सान्निध्य में अनिष्ट से अनिष्ट दोष भी नष्ट होकर हमारे अनुकूल हो जाता है और कार्य सिद्धि देता है। गुरुवार को पुष्य नक्षत्र के संयोग से सर्वार्थ सिद्धि और अमृत सिद्धि योग बनता है। किंतु यदि गुरु पुष्य योग नवमी तिथि में हो तो वह विषयोग बन जाता है। इस कारण नवमी तिथि को गुरु-पुष्य का त्याग करना चाहिए। मुहूर्त में ध्यान रखने योग्य बातें- ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक कार्य के शुभारंभ हेतु तिथि, वार, नक्षत्र आधारित मुहूर्त दिए हुए हैं। इनमें से तिथि का सिर्फ एक गुण होने के कारण तिथि की उपेक्षा की जा सकती है किंतु वार और नक्षत्र के संयोग की नहीं। कोई शुभ मुहूर्त किसी व्यक्ति के लिए तभी शुभ बैठेगा जब उस मुहूर्त के समय उसको चंद्र या तारा बल प्राप्त हो रहा हो। सबल और शुभ चंद्र यदि गोचरीय गुरु द्वारा दृष्ट हो तो ऐसा मुहूर्त अनेक दोषों का नाशक और कार्य सिद्धिदायक होता है। शुभ लग्न में कार्य प्रारंभ करना चाहिए, लग्न शुद्धि न होने पर गोधूलि लग्न या अभिजित मुहूर्त में कार्य का शुभरंभ करें। क्योंकि अभिजित सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। ”अभिजित्सर्वकामाय सर्वकामार्थसाधकः।“
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