Pret Karma प्रेत कर्म
मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है।
सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
विशेष—प्रेत कर्म या अंत्येष्टि कर्म संबंधी पुस्तकों में माना गया है कि अरण और शवदाह के अनंतर मृत व्यक्ति को आतिवाहिक शरीर मिलता है । इसके उपरांत जब उसके पुत्रादि उसके निमित्त दशगात्र का पिंडदान करते है तब दशपिंडों से क्रमशः उसके शरीर के दश अंग गठित होकर उसको एक नया शरीर प्राप्त होता है । इस देह में उसकी प्रेत संज्ञा होती है ।
षोडश श्राद्ब और सपिंडन के द्बारा क्रमशः उसका यह शरीर भी छुट जाता है और वह एक नया भोगदेह प्राप्त कर अपने बाप दादा और परदादा आदि के साथ पितृलोक का निवासी बनता है अथवा कर्मसंस्कारा- नुसार स्वर्ग नरक आदि में सुखदुःखादि भोगता है । इसी अवस्था में उसको पितृ कहते है । जबतक प्रेतभाव बना रहता है तब तक मृत व्यक्ति पितृ संज्ञा पाने का अधिकारी नहीं होता । इसी से सपिंडीकरण के पहले जहाँ जहाँ आवश्यकता पड़ती है प्रेत नाम से ही उसका संबोधन किया जाता है । पितरों अर्थात् प्रेतत्व से छूटे हुए पूर्वजों की तृप्त ि के लिये श्राद्ब, तर्पण आदि पुत्रादि का कर्तव्य माना गया है।
मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। पितृपूजा के समय वंशज अपने लिये भी मंगलकामना करते हैं।
प्रथम दस दानों का प्रयोजन मृतकों का अध्यात्मनिर्माण है। मृत्यु के ११वें दिन एकोद्दिष्ट नामक दान दिया जाता है अगले दो मास में प्रत्येक मास एक बार और अगले १२ मासों में प्रत्येक छह मास की समाप्ति पर एक अंतिम दान द्वारा इन संस्कारों की कुल संख्या १६ कर दी जाती है। श्राद्ध संस्कारों के संपन्न हो जाने पर पहला शरीर नष्ट हो जाता है और आगामी अनुभवों के लिये नए शरीर का निर्माण होता है।
पिण्ड चावल और जौ के आटे, काले तिल तथा घी से निर्मित गोल आकार के होते हैं जो अन्त्येष्टि में तथा श्राद्ध में पितरों को अर्पित किये जाते हैं।
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स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं ।
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