फलित ज्योतिष शास्त्र में अष्टम भाव विचार 8th House in falit jyotish
भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र में ग्रहों को आधार मानकर गणित शास्त्रीय विधि द्वारा शुभाशुभ फलादेश की प्रविधि आज भी समस्त जगत को चमत्कृत कर रही है | ज्योतिष विज्ञान को तीन स्कंधों में विभाजित किया गया है –सिद्धान्त ,संहिता और होरा |होराशास्त्र को ही जातकशास्त्र या मुख्य रूप से फलित ज्योतिष संज्ञा से जाना जाता है | ज्योतिषशास्त्रीय परम्परा में अट्ठारह ऋषियों को इस शास्त्र का प्रवर्तक माना जाता है |
जिनमें ब्रह्मा, सूर्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, पुलस्त्य, रोमश, मरीचि, अंगिरा,व्यास,नारद,शौनक,भृगु,च्यवन,यवन,गर्ग,कश्यप,पराशर आदि का स्मरण किया जाता है |
इनमें से भी महर्षि पराशर को ज्योतिष पितामह कहा जाता है | सम्प्रति समस्त ज्योतिषशास्त्र की आधारशिला के रूप में हम पाराशरी ज्योतिष को स्वीकार कर सकते हैं | शक्तिपुत्र पराशर के सिद्धान्तों पर आधारित रचनाओं में वृहत्पराशरहोराशास्त्रम, मध्यपाराशरी और लघु पाराशरी सर्वजन स्वीकृत है |
होराशास्त्र में किसी घटना विशेष के समय आकाश में स्थित ग्रहों की स्थिति के आधार पर फलादेश की रीति है | इस प्रक्रिया में जन्मकुंडली का निर्माण कर तथा उनमें ग्रहों को उनकी आकाशीय स्थिति के अनुसार स्थापित कर फलादेश किया जाता है |
कुण्डली में बारह भाव होते हैं तथा इन्हें क्रमशः तनु,धन,सहज,सुख,पुत्र,शत्रु,जाया,मृत्यु,भाग्य,राज्य,आय और व्यय संज्ञा से जाना जाता है | इन प्रत्येक भावों से जातक के जीवन की विभिन्न घटनाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है | इसी सिद्धान्त को मानते हुए प्रत्येक आचार्य ने अपनी रचनाओं में इस सन्दर्भ में अपनी लेखनी अवश्य चलाई है |
महर्षि पराशर ने स्वयं अपनी रचना वृहत्पराशरहोराशास्त्र में इसी सन्दर्भ में लिखा है –“तनुर्धनं च सहजो बन्धुपुत्रारयस्तथा | युवतीरन्ध्रधर्माख्यकर्मलाभव्ययाः क्रमात् ||” स्पष्ट है कि भावों के नामकरण में महर्षि पराशर द्वारा स्थापित इसी सनातन परम्परा का अनुसरण परवर्ती आचार्यों ने भी किया है |
अष्टम् भाव से विचारणीय विषयों के सन्दर्भ में भी महर्षि पराशर ने कहा है कि इस भाव से आयु,संग्राम,शत्रु,दुर्ग,गतधन तथा पूर्व व अग्रिम जन्म का वृतान्त इन विषयों का विचार करना चाहिए |
महर्षि ने जन्मांग के विभिन्न भावों के लिए विशिष्ट संज्ञाओं का निर्देश किया है | अष्टम भाव के लिए उन्होंने पणफर,त्रिक स्थान ,दुष्ट स्थान और चतुरस्र संज्ञाओं का प्रयोग किया है | महर्षि पराशर ने लग्नादि द्वादश भावों के लिए कारक ग्रहों की भी परिकल्पना की है और उनके अनुसार सूर्य,गुरु,मंगल,चन्द्र,गुरु,मंगल,शुक्र,शनि,गुरु,बुध,गुरु और शनि क्रमशः इन तन्वादि द्वादश भावों के करक हैं | इसप्रकार अष्टम भाव का कारक गृह शनि सिद्ध होता है | रन्ध्र भाव से विचारणीय विषयों के सन्दर्भ में महर्षि पराशर की परम्परा का अनुसरण करते हुए आचार्य कालिदास ने उत्तरकालामृत ग्रन्थ में अत्यन्त विस्तृत श्रेणी प्रस्तुत की है जिसके अनुसार अष्टम भाव से आयु,सौख्य,पराजय,मृतधन,क्लेश,मृत्युजनित कष्ट,मारण क्रिया,कलह,मूत्र सम्बन्धी रोग,विपत्ति,भाई का शत्रु,पत्नी को कष्ट,शत्रु का दुर्ग स्थान,राजदण्ड,भय,धनहानि,कर्ज लौटना,दुसरे के धन का प्राप्त होना,दीर्घकालीन संपत्ति,अंग हीनता,जीवहत्या,शिरच्छेद,उग्र दुःख,चित्त स्वास्थ्य,दुर्भाग्यक्रम,क्रूर कर्म,युद्ध व गहन मानसिक तनाव आदि का विचार करना चाहिए |
ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में अष्टम भाव के लिए अनेक संज्ञाओं का प्रयोग हुआ है इनमें रन्ध्र,आयु,छिद्र,साम्य,निधन,लय,मृत्यु ,क्षीर,गुड़,मूत्र कृच्छ ,गोपन,अन्तक,रण,विनाश आदि प्रमुख हैं |
महर्षि पराशर ने राजयोग सम्बन्धी ग्रहयोगों के सम्बन्ध में जिन सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है उनका संकलन लघुपाराशरी ग्रन्थ में अत्यन्त विस्तार से किया गया है | इनमें त्रिकोणेशों तथा केन्द्रेशों के परस्पर सम्बन्ध के कारण अनेक प्रकार के राजयोगों का वर्णन किया है और इसी क्रम में राजयोगभंग का भी प्रतिपादन किया है और कहा है – “धर्मकर्माधिनेतरौ रन्ध्रलाभाधिपौ यदि | तयोः संबन्ध्मात्रेण न योगं लभते नरः ||” अर्थात् धर्मेश और केन्द्रेश यदि रंध्रेश या लाभेश भी हों तो ये परस्पर सम्बन्ध मात्र से राजयोग का फल देने में में समर्थ नहीं हो सकते हैं | स्पष्ट है की केन्द्रेश तथा त्रिकोनेश में रंध्रेशत्व का गुण आते ही उनमें राजयोग का फल देने के सामर्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है | पुनः मारकध्याय में अष्टमेश या रन्ध्रेश का पाराशरी सिद्धांतों में प्रयोग हुआ है तथा यहाँ अष्टम स्थान को आयु स्थान कहा गया है ,न केवल अष्टम स्थान अपितु “अष्टमात् अष्टम्” अर्थात् तृतीय स्थान को भी आयु स्थान कहा गया है | साथ ही मृत्यु के सम्बन्ध में फलादेश के प्रकरण में भी अष्टमेश की दशा मृत्युप्रद कही गई है |
अष्टमेश के अशुभत्व को स्पष्ट करने के लिए महर्षि परशारोक्त तथा पराशर के अनुयायी परवर्ती दैवज्ञों के ग्रंथों में इस सन्दर्भ में उपलब्ध मतों के परीक्षण के द्वारा ही इस तथ्य को भलीभांति समझा जा सकता है तथा इस क्रम में सर्वप्रथम लघुपाराशरी ग्रन्थ पर दृष्टिपात उचित होगा | महर्षि पराशर ने अपनी प्रसिद्ध रचना लघुपाराशरी में इस सन्दर्भ में अनेक स्वर्णिम सूत्र प्रदान किये हैं| उन्होंने कहा की –“भाग्य्व्ययाधिपत्येन रन्ध्रेशो न शुभप्रदः” अर्थात् भाग्य स्थान से व्यय स्थान का अधिपति होने के कारण अष्टमेश शुभफल देनेवाला नहीं होता है | सत्य भी है तथा स्वतः सिद्ध भी है की यदि किसी भी जातक के भाग्य का ही क्षय हो जाये तो यह किसी भी दृष्टि से इष्ट नहीं हो सकता है साथ ही साथ इस विषम परिस्थिति के लिए उत्तरदायी करक गृह अर्थात अष्टमेश से शुभ फल की आशा नहीं की जा सकती | भाग्य का नष्ट होना या क्षीण होना या नितान्त अभाव होना किसी को भी इष्ट नहीं ,स्वयं महाभारत में भी इसी सन्दर्भ में देवी कुन्ती की उक्ति प्राप्त होती है- “भाग्यवन्तं प्रसूयेथा मा शूरान् मा च पण्डितान् | शूराश्च कृतविद्याश्च वने सीदन्ति मत्सुताः ||” अन्य ज्योतिषीय ग्रंथों में भी इसी तथ्य के समर्थन में अनेक उक्तियाँ उपलब्ध होती हैं जिनमें स्पष्टतया कहा गया है की भाग्य के पुष्ट होने से समस्त सुख व्यक्ति को हस्तामलकवत प्राप्त हो जाते हैं तथा भाग्य के विनष्ट होते ही सब कुछ नष्ट हो जाता है – “भाग्ये दृढे सर्वसुखं करस्थं भाग्ये विनष्टे सकलं विनष्टम्” और यही कारण है की भाग्य का व्यय कारक होने के कारण अष्टमेश अत्यन्त अशुभ माना जाता है –“भाग्यव्ययाधीशतया हि तस्मात् प्रोक्तोऽष्टमेशोऽत्यशुभो मुनीन्द्रैः ||” अष्टमेश के शुभाशुभत्व का विचार करने के क्रम में अपने सिद्धांतों को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए कहा गया कि “स एव शुभसन्धाता लग्नाधीशोऽपि चेत्स्वयम्” अर्थात् अष्टम भाव का अधिपति यदि लग्नेश भी हो तो वह अष्टमेश अशुभ फल देनेवाला न होकर शुभ फल देनेवाला हो जाता है | ऐसी परिस्थिति केवल मेष तथा तुला लग्न में ही संभव होती है | मेष लग्न पर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं की इस लग्न में अष्टम भाव में वृश्चिक राशि होती है जिसका स्वामी मंगल है | अष्टमेश से सम्बंधित फलादेश के प्रथम सिद्धांत “भग्यव्ययाधिपत्येन” के अनुसार यह मंगल अनिष्टकारी सिद्ध होता है,परन्तु यदि अष्टमेश से सम्बन्धित फलादेश विषयक द्वितीय सिद्धांत “स एव शुभसन्धाता” का आश्रय लेते हैं तो यही मंगल शुभ गुणों से युक्त हो जायेगा | क्योंकि मेष लग्न में मंगल अष्टमेश होने के साथ साथ लग्नेश भी होते हैं | ठीक इसी प्रकार जब हम तुला लग्न की कुण्डली पर विचार करते हैं तो यहाँ लग्न व अष्टम भाव में क्रमशः तुला और वृष राशियों का अधिपत्य है ,इसप्रकार शुक्र लग्नेश तथा अष्टमेश दोनों ही सिद्ध होते हैं | इसप्रकार तुला लग्न के जन्मांग में शुक्र अष्टमेश होने के बाद भी शुभ गुणों से युक्त हो जाते हैं | रन्ध्रेश से सम्बंधित फलादेश सन्दर्भ में एक अन्य पाराशरी सिद्धांत सामने आता है –“ न रन्ध्रेशत्व दोषस्तु सूर्याचन्द्रमसोर्भवेत्” अर्थात् सूर्य तथा चन्द्रमा को अष्टमेश होने का दोष नहीं होता है | अष्टमेश के विभिन्न भावों में स्थित होने के विषय में भी बृहत्पराशरहोराशास्त्रम् में अत्यन्त विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है | अष्टमेश लग्न में हो तो जातक को शारीरिक सौख्य प्राप्त नहीं होता है ,साथ ही वह देवताओं तथा विप्रों का निन्दक होता है तथा उसका शरीर वरण से युक्त होता है | द्वितीय भावस्थ अष्टमेश जातक को बाहुबल से रहित व स्वल्प धन वाला बनाता है और ऐसे जातक का जो कुछ नष्ट होता है उसे पुनः नहीं मिलता है | तृतीय भाव का अष्टमेश जातक को भ्रातृसुखहीन ,आलसी,नौकर और स्वबलरहित बनाता है | चतुर्थ भाव में अष्टमेश की उपस्थिति के कारण जातक माता से हीन,घर जमीन आदि से रहित और मित्र द्वेषी होता है | रन्ध्र भाव का अधिपति अगर पञ्चम भाव में हो तो व्यक्ति जड़बुद्धि ,स्वल्प पुत्र ,दीर्घायु और धनी होता है | षष्ठस्थ रन्ध्रेश जातक को शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाला ,रोगयुक्त और बाल्यकाल में सर्प तथा जल के भय से युक्त करता है | सप्तम भाव में अष्टमेश हो तो उस जातक की दो स्त्री होती है तथा व्यापर में हानि होती है | अष्टमेश अष्टम में होने पर जातक दीर्घायु होता है,परन्तु यदि यह अष्टमेश निर्बल हो तो जातक को मध्यमायु ,चौर,स्वतः निंदनीय और परनिंदक बनाता है | नवम भाव में रन्ध्रेश हो तो जातक को धर्मद्रोही ,नास्तिक,दुष्टा स्त्री से युक्त तथा द्रव्य का अपहरण करनेवाला बनाता है | जातक के जन्मांग में अष्टम भाव का स्वामी यदि दशम भाव में हो तो ऐसा व्यक्ति पिता के सुख से हीन एवं यदि शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो चुगलखोर और कर्तव्यहीन होता है | यही अष्टमेश अगर लाभ भाव में हो और पाप ग्रह से युक्त हो तो जातक धनहीन होता है,यदि यही अष्टमेश शुभ ग्रहों से युक्त हो तो बाल्यावस्था में दुखी,पश्चात सुखी और दीर्घायु होता है | अष्टम भाव का अधिपति अगर व्यय स्थान में हो तो जातक कुकार्य में व्यय करनेवाला और पाप ग्रह से युक्त रहने पर जातक को अल्पायु बनाता है | महर्षि पराशर के मतानुसार अष्टमेश के विभिन्न भावों में स्थित रहने के सिद्धांत पर यदि गहन विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि लग्नादि द्वादश भावों में अष्टमेश की उपस्थिति बहुधा अनिष्टकारक ही होती है | केवल बली अष्टमेश के अष्टमस्थ तथा एकादश भाव में स्थिति ही किञ्चित् सुख प्रदान करनेवाली होती है और यदि इन भावों में स्थित अष्टमेश बलहीन हो तो जातक को अनिष्ट फल ही प्राप्त होता है | स्पष्ट है कि अष्टमेश की विभिन्न भावों में स्थति अशुभ फल ही देती है | महर्षि ने इसी प्रकार विभिन्न ग्रहों की अष्टम भाव में स्थित रहने पर जातक को प्राप्त होने वाले फलों के सन्दर्भ में भी कुछ सूत्र प्रस्तुत किये हैं तथा उसी आधार पर परवर्ती ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में पर्याप्त चर्चा की है | इनके अनुसार सूर्य यदि अष्टमस्थ हो तो जातक सुन्दर,कलहपटु और सर्वदा अतृप्त रहता है | साथ ही यह जातक छोटी आँखों वाला ,अत्यधिक शत्रुओं वाला ,भ्रष्ट बुद्धि ,अतिक्रोधी,अल्प धनी और दुर्बल देहवाला होता है | चन्द्रमा अष्टमस्थ हो तो जातक अल्प वीर्य अर्थात रतिकाल में शीघ्र ही स्खलित होनेवाला,अल्पायु,सत्य व दया से हीन,स्नेह रहित व्यवहार करनेवाल ,दुसरे की स्त्री के प्रति अनुराग रखनेवाला ,वृथा भ्रमण करनेवाला तथा बांधवों द्वारा अग्राह्य होता है | अष्टमस्थ मंगल जातक को सदा अहित बोलनेवाला ,गुप्तरोग से पीड़ित ,अल्प स्त्री सुख से युक्त,चिन्ताशील.जौहरी,शोथ एवं शस्त्राघात से युक्त शरीरवाला ,बुद्धिहीन तथा रक्तविकार से दुर्बल शरीरवाला होता है | बुध अष्टमस्थ हो तो ऐसा जातक प्रसिद्ध,यशमात्र धनवाला,चिरंजीवी,कुल्संचालक,रजा के समान या दंडनायक होता है | अष्टमस्थ गुरु के कारण जातक दूसरों की सेवा करनेवाला,मलिनचित्त,धनहीन,विवेक और विनय से हीन,आलसी और दुर्बल देहवाला होता है | शुक्र के अष्टमस्थ होने पर जातक पापी प्रवृत्ति का होता है | शनि अष्टम भाव में होने पर जातक देशान्तर में निवास करता है,दुःख का भागी होता है तथा इस पर चोरी का आरोप लगता है,इस व्यक्ति की मृत्यु नीच जनों के हाथों होती है | अष्टमस्थ राहू के कारण जातक दुखी,अपवादयुक्त और रोगी होता है | केतु यदि जन्मांग के अष्टम भाव में गया हो तो जातक का प्रियजनों से विरह होता है,कलहप्रिय होता है,स्वल्पायु होता है,ऐसे जातक को प्रायः शस्त्र से चोट लगती है तथा उसके समस्त उद्योगों में विरोध होता है | यह केतु जातक को बवासीर,चर्मादि रोगों से पीड़ा,वाहनादि से भय तथा धन की अप्राप्ति कराता है | सामान्यतया अष्टमस्थ बुध ही जातक को शुभ फल देने का सामर्थ्य रखता है जबकि अन्य गृह अष्टम भाव में स्थित होकर जातक को अशुभ फल ही प्रदान करते हैं | अष्टम भाव से मृत्यु का भी विचार होता है तथा मृत्यु के कारणों के सन्दर्भ में भी महर्षि पराशर ने अत्यन्त स्वर्णिम सूत्र दिए हैं | उनके अनुसार लग्न से अष्टम भाव में सूर्य स्थित हो तो मृत्यु अग्नि से,चन्द्रमा स्थित हो तो जल से , मंगल स्थित हो तो शस्त्र से , बुध स्थित हो तो ज्वर से, गुरु अष्टमस्थ हो तो रोग से, शुक्र स्थित हो तो क्षुधा से जबकि आश्तम भाव में शनि होने पर मृत्यु प्यास से कही गई है | अष्टमेश तथा अष्टम भाव से फल कथन के सन्दर्भ में “शम्भुहोराप्रकाश” ग्रन्थ विशेष रूप से द्रष्टव्य है | इस ग्रन्थ में कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है और कहा गया है की अष्टम भाव के सन्दर्भ में चन्द्रमा अत्यन्त महत्वपूर्ण कारक होता है और शुभ ग्रह अष्टमस्थ होकर शुभ फल देते हैं | जिस प्रकार द्वितीय भावस्थ ग्रह का फलादेश होता है ठीक उसी प्रकार अष्टमस्थ ग्रह भी अपना फल देते हैं | सौम्य ग्रह अष्टमस्थ होकर जातक को प्रभूत धन प्रदान करते हैं जबकि क्रूर ग्रहों की अष्टम भाव में स्थिति जातक के लिए धन हीनता का कारण बनती है | अष्टम भाव में क्रूर ग्रह के स्थित होने पर जातक बीमार होता है ,युद्ध में मृत्यु होती है,शीघ्र ही शत्रु का नाश नहीं हो पाता,ऐसे व्यक्ति के गुह्य स्थान में व्रण या लांछन होता है | स्पष्ट है की महर्षि पराशर द्वारा अष्टम भाव तथा अष्टमेश से सम्बंधित फलादेश के सन्दर्भ में स्थापित सिद्धांतों का परवर्ती दैवज्ञों ने अपनी मेधा शक्ति तथा सतत अनुसन्धान व पर्यवेक्षण का आश्रय लेकर उसे पुष्पित और पल्लवित किया है | अष्टम भाव से सम्बंधित फलादेश के सन्दर्भ में अत्यन्त सावधानीपूर्वक मनन चिंतन के उपरांत ही किसी निर्णय पर पहुचना श्रेयस्कर होता है | जहाँ महर्षि पराशर की दृष्टि से अष्टम भाव तथा उसके अधिपति सामान्यतया अशुभ फलोत्पादक ही हैं वहीँ परवर्ती दैवज्ञों ने अपने ग्रंथों में अष्टमस्थ क्रूर ग्रहों द्वारा शुभ फल प्रदान करने की प्रवृत्ति को प्रकाशित किया है |
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