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Sayan niryan aynamsha सायन / निरयण / अयनांश


sayan niryan aynamsha सायन / निरयण / अयनांश
सायन / निरयण / अयनांश           
वेदों मे ज्योतिष के तीन स्कंध बताये गये हैं- सिद्धांत स्कन्ध, संहिता स्कन्ध और होरा स्कन्ध। व्यक्ति के जीवन पर ग्रहों का फल फल जानने के लिए जिस जन्म कुण्डली का निर्माण होता है उसका आधार होरा स्कन्ध है, यानी जन्म कुण्डली का निर्माण होरा स्कन्ध के आधार पर होता है। सिद्धांत स्कन्ध सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय काल के दौरान ग्रहों की स्थिति एवं काल गणना के काम आता है। संहिता स्कन्ध के आधार पर ग्रह, नक्षत्रों एवं आपदाओं, वास्तु विद्या, मुहूर्त, प्रश्न ज्योतिष के विषय में गणना किया जाता है।

प्रारम्भिक ज्योतिषी को सायन निरयण और अयनांश ये शब्द भ्रमित कर देते है। तुलनात्मक जब वह भारतीय और पाश्चात्य कुंडलियो का अवलोकन करता है तो मालूम होता है कि जो ग्रह या लग्न भारतीय कुंडली मे जिस राशि या स्थान मे है वही पाश्चात्य  कुंडली मे अन्यत्र राशि अथवा स्थान मे है। वास्तव मे यह अंतर गणना बिन्दुओ पर आश्रित प्रचलित पद्धतियो के कारण है।
भारतीय ज्योतिष पद्धति निरयण (Indian Nirayan Astrology) के सिद्धांत को मानती है। जबकि पाश्चात्य ज्योतिष सायन (Sayan Astrology) पर आधारित है। भविष्य को जानने की चाहत सभी मनुष्य में रहती है चाहे वह भारत का हो अथवा पश्चिमी देशों में रहना वाला हो। भविष्य जानने का तरीका भले ही अलग है परंतु ग्रह और ज्योतिष सिद्धांत को वह भी स्वीकार करते हैं एवं कई स्थानों पर दोनों में समानताएं भी हैं।
भारतीय पद्धति निरयण (Indian Nirayan Astrology) के सिद्धांत को मानता है जबकि पाश्चात्य ज्योतिष सायन (Sayan Astrology) पर आधारित है। भारतीय ज्योतिष पद्धति (Vedic Astrology) में अदृष्ट फल का विचार अदृष्ट निरयण मेषादि ग्रहों या निरयण पद्धति (Nirayan Astrololgy System) और ग्रह-वेध, ग्रहण सहित दृष्ट फल का विचार दृष्ट सयन मेषादि ग्रहों के आधार पर होता है। 


भारतीय ज्योतिष की मान्यता के अनुसार व्यक्ति का जन्म और भाग्य का आधार कर्म होता है यानी भारतीय ज्योतिष कर्मफल और पुनर्जन्म को आधार मानता है। पाश्चात्य ज्योतिष में पुनर्जन्म और कर्मवाद की मान्यता नहीं होने से सभी प्रकार के फलों का विचार सायन पद्धति से होता है। सायन पद्धति और निरयन पद्धति में यह अंतर है कि जहां निरयन में कोई ग्रह किसी राशि से ७ अंश पर होता है वहीं सायन पद्धति में वही ग्रह उससे दूसरी राशि के १ अंश पर होता है।
प्राचीन भारतीय खगोल वेत्ता दो प्रकार के योगो का उपयोग किया करते थे। वे सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के योग (जोड़) को बहुत महत्व देते थे।  सा. सू. + सा. च. के अंश 180 को व्यतिपात तथा 360 को वैघृति मानते थे। इनकी गणना विशेष योगो मे किया करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सायन सिद्धांत को मान्यता थी।
मतमतान्तर - ज्योतिष सम्बन्धी सायन निरयण ऐसा विषय है कि अनभिज्ञो की भी अभिरुचि है। सायन या निरयण गणना से कार्य किया जाय ? इस पर मतैक्यता नही है। कुछ विद्जन ग्रह जनित प्राकृतिक उपद्रव, परिवर्तन का निर्णय ग्रह और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बन्धो की गणना सायन से करते है, तथा मनुष्य (जातक) के भाग्याभाग्य, परिणाम का निर्णय, निरयण नक्षत्रो मे ग्रहो के प्रवेश और भौगोलिक स्थान इन दोनो के तारतम्य से करते है, अर्थात निरयण गणना से करते है, और इसे जातक पद्धति कहते है।
अन्य विद्जन इससे सहमत नही है।  यह विचारणीय है कि :-
1- प्राकृतिक उपद्रव और भाग्याभाग्य मे क्या कोई सम्बन्ध नही है। प्राकृतिक उपद्रव जैसे - समुद्री तुफान, चक्रवात, ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प इत्यादि मे सैकड़ो मानव काल-कलवित हो जाते है, तो फिर कैसे मान लिया जाय कि मानव के भाग्याभाग्य मे सायन प्रणाली का स्थान नही है।
2- यह ठीक है कि फलादेश मे राशियो का भी महत्व है, परन्तु यह कैसे मान लिया जाय की सायन प्रणाली तर्क विरुद्ध है। प्रत्येक क्षण प्रत्येक ग्रह प्रत्यक्ष रूप से किसी-न-किसी राशि मे, किसी-न-किसी नक्षत्र के सामने रहता ही है। मान लिया जाय की किसी काल मे सूर्य सायन दृष्टि से मकर राशि मे और निरयण दृष्टि से  धनु राशि मे है। जहा धनु राशि के तारिकाओ का प्रभाव पड़ेगा वही मकर राशि के तारिकाओ का प्रभाव भी पड़ेगा, अतएव केवल निरयण प्रणाली ही तर्क सम्मत नही है।
3- ब्रम्ह्माण्ड मे कोई भी पिंड स्थिर नही है।  नक्षत्रगण-तारे भी मंद गति से गतिमान है, वे कुछ वर्षो पश्चात दूसरे स्थान पर दृश्य हो जाते है। इस प्रकार तारापुंज की आकृति बदल जाती है। जो तारा आज एक राशि मे है वह गतिमान होकर दूसरी राशि मे हो सकता है।  अतएव मानव भाग्याभाग्य को निर्धारित करने मे सायन प्रणाली भी तर्क सम्मत है।
4- भारतीय फलित ग्रन्थो मे कई जातक शास्त्र है परन्तु किसी की भूमिका मे ग्रह गणित के लिए सायन या निरयण का उल्लेख नहीं है। वे कितने अयनांश के लिए उपयोगी है यह स्पष्ट नही है। अतएव निरयण पर ही वर्तमान पथ तर्क सम्मत नही हो सकता है।

परिभाषा :
सायन = स + अयन* यानि अयन सहित या चलायमान भचक्र TROPICAL / MOVABLE ZODIAC एक सायन  वर्ष 365. 2422 दिन का होता है। (365 days, 5 hours, 48 minutes, 45 seconds)
निरयण = नि + अयन यानि अयन*/ रहित या स्थिर भचक्र SIDEREAL / FIXED ZODIAC एक निरयण वर्ष 365 . 2563 दिन का होता है। (365 d 6 h 9 min 9.76 s)

               EQUINOXES सम्पात-अयन बिंदु* आकाश मध्य मे एक कल्पित रेखा जिसे आकाशीय विषुव वृत्त या नाड़ी वृत्त CELESTIAL EQUATOR कहते है। सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नही घूमता है। वह हमेशा क्रांति वृत्त ECLIPTIC पर घूमता है। दोनो वृत्त 23.30 अंश का कोण बनाते हुए दो स्थानो पर एक दूसरे को काटते है, इन्हे ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते है। क्रांति वृत्त के उत्तर दक्षिण एक  9-9 अंश का कल्पित पट्टा है जिसे ही भचक्र कहते है।
सायन भचक्र TROPICAL / MOVABLE ZODIAC : 
इसमे मेष का प्रथम बिन्दु वसंत सम्पात होता है। इसकी गति वक्र 50.3" प्रति वर्ष है। यह गति पृथ्वी के भूमध्य रेखा उन्नत भाग पर सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण के कारण है।  सूर्य की वार्षिक गति के साथ प्रतिवर्ष यह सम्पात बिंदु विपरीत दिशा मे मंद गति से घूमता है। इसमे किसी भी आकाशीय पिंड की वसंत सम्पात बिंदु से गणना का देशांश सायन देशांश कहलाता है। इसमे 12 राशियो (प्रत्येक 30 अंश) का प्रारम्भ वसंत सम्पात से होता है, परन्तु क्रांति वृत्त पर विस्तार हमेशा निरयण प्रणाली (प्रत्येक 30 अंश) जैसा नही रहता है। इस प्रणाली मे समयानुसार तारा समूह का एक राशि मे बदलाव होता रहता है।

निरयण भचक्र SIDEREAL / FIXED ZODIAC  : 
इसमे मेष का प्रथम बिन्दु हमेशा नक्षत्र यानि चित्रा से 180 अंश के कोण पर स्थायी रहता है। क्रांति वृत्त पर इस स्थयी बिंदु से नापे गये देशांश को निरयण देशांश कहते है। यह स्थायी भचक्र 12 राशि व 27 नक्षत्र मे समान रूप से विभाजित है, इनमे वही तारा समूह हमेशा रहता है।

अयनांश AYNAMSHA : अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलाना, चाल। अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल मे इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। ◾अग्रगमन PRECESSION  एक धुर्णन पिंड के धुर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण बदलाव है। ◾स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी  अयनांश है, दूसरे शब्दो मे जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे वहा से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश है। ◾आधुनिक खगोल के अनुसार यह सायन भचक्र और निरयण भचक्र का अंतर है। ◾इसी प्रकार आधुनिक खगोल अनुसार सायन या सौर वर्ष निरयण या नाक्षत्र वर्ष से लगभग 20 मिनिट (365 d 6 h 9 min 9.76 s -  365 d 5 h, 48 min 45 s = 20 मिनिट 23. 24 सेकण्ड) अधिक है।
सम्पात बिन्दु 01 (चित्र मे हरा बिंदु) व 02 (चित्र मे लाल बिंदु) को वसंत और शरद सम्पात कहते है। ये सम्पात बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है।  इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION  OF  EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र 25868 वर्ष मे पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने मे 72 वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति 50"15'" प्रति वर्ष है।
भारत मे विभिन्न प्राचीन सिद्धांतो अनुसार पंचाग बनते है। इन प्राचीन सिद्धांतो पर आधारित अयनांश भी भिन्न-भिन्न होते है। अयनांश साधन सूर्य सिद्धांत अनुसार कठिन है।  इसके अनुसार 1800 वर्ष मे अयनांश     00 से + 27 अंश और + 27 से 00 तथा 00 से - 27 तक और इसके बाद पुनः वृद्धि होने लगती है। इस प्रकार अयनांश ± 27 मे झूलती रहती है। सूर्य सिद्धांत अनुसार सन 490 मे अयनांश शून्य था और इसकी वार्षिक गति 54 विकला है।  अयनांश साधन ग्रहलाघव अनुसार सबसे सरल है।  इसमे 27 अंश होने तक वे घनात्मक अयनांश कहलाते है और इससे अधिक होने पर 54 मे से घटा कर लेने पर वे ऋणात्मक अयनांश कहलाते है। ग्रहलाघव अनुसार शक: 444 मे अयनांश शून्य था इसकी वार्षिक गति 60 विकला प्रतिवर्ष है। 
अयनांश साधन : ग्रहलाघव मतेन - इष्ट शक: संवत मे से 444 घटाये, शेष मे 60 का भाग दे लब्धि अंश होगे, शेष मे 12 का गुणा कर गुणन फल मे पुनः 60 का भाग  लब्धि कला होगी, शेष मे 30 का गुणा कर गुणन फल मे पुनः 60 का भाग दे लब्धि विकला होगी। इसकी गति 60 विकला वार्षिक है। विभिन्न मतो अनुसार शक: 1865 वर्षारम्भ पर अयनांश निम्न थे।
ग्रहलाघव मत  - 23 अंश, 41 कला, 00 विकला। वार्षिक गति 60 विकला।

केतकर मत     - 21 अंश, 02 कला, 57 विकला। वार्षिक गति 50  विकला, 13 प्रतिविकला।

मकरींदीय  मत- 21 अंश, 39 कला, 36 विकला। वार्षिक गति 54 विकला।

सिद्धांत सम्राट  - 20 अंश, 40 कला, 17 विकला। वार्षिक गति 51 विकला।      

बीसवी सदी के प्रारम्भ मे दृश्य गणना को महत्व दिया जाने लगा। यदि आकाश मे कोई ग्रह गणितागणित बिन्दु से पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण जहा कही दिखाई देता हो इसे समझ कर उक्त गणित मे ऐसे संस्कार करना चाहिए कि वह दृष्टि पथ मे हो जाय, इसे ही "दृग्गणितैक्य" कहते है। पंचागो मे 1- सौर पक्षीय या आर्ष मतीय पंचाग, 2- वैध सिद्ध दृश्य पंचाग। वैध सिद्ध दृश्य पंचागो मे भी दो मत है पहला रैवत पक्ष, दूसरा चित्रा पक्ष।  दोनो मे सायन ग्रह सामान है परन्तु अयनांश मे अंतर होने से  ग्रहो मे चार-चार अंश का अंतर आजाता है।


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